Monday, January 30, 2012

एहन शहर के हमर प्रणाम जकर हर घर में छै दुकान


गांधी जी की पुण्यतिथि पर


- मणींद्र नाथ ठाकुर 
गांधी की मृत्यु की खबर से विचलित होकर नेहरू ने कहा था कि ‘हमारी जिंदगी से रोशनी चली गई है’। शायद यह शोक व्यक्त करने का उनका अपना अंदाज हो, या फिर वे गांधी के इस तरह अचानक चले जाने पर देश के मानस में उपजे दर्द को अभिव्यक्त करना चाहते हों। लेकिन क्या गांधी-विचार के आधार पर नेहरू के इस वक्तव्य के महत्त्व को जांचा जा सकता है! गांधी के दैहिक रूप से अनुपस्थित हो जाने से आखिर किस ‘रोशनी’ का अभाव हो गया, जिसने स्वतंत्र भारत को बेहद प्रभावित किया। इस प्रश्न के कई जवाब हो सकते हैं। जवाब कितने भी हों, इतना तय है कि इन्हें गांधी के विचारों के भीतर ही ढूंढ़ा जाना चाहिए। जब इन्हें तलाशा जाएगा तो ऐसे विचार भी मिलेंगे जो आधुनिकतावादियों को नागवार गुजरें। भारतीय ज्ञान-परंपरा के बारे में गांधी का दृष्टिकोण और आधुनिकता के पैरोकार नेहरू की इससे असहमति एक प्रस्थान बिंदु हो सकता है। निश्चित ही गांधी की दैहिक उपस्थिति नीतियों के व्यावहारिक धरातल पर नेहरू को कहीं न कहीं बांधती भी रही होगी।

गांधी के विचारों को मनुष्यता के भविष्य के लिए और भी समझने की जरूरत है। इस बात से उग्र किस्म के आधुनिकतावादी और भारतीय मूल के पश्चिमी सोच वाले कुछ बुद्धिजीवी भले ही सहमत न हों, दुनिया के बडे हिस्से के बौद्धिक जगत में गांधी के विचारों का पुनर्पाठ यह दिखाता है कि गैर-आधुनिक और गैर-यूरोपीय ज्ञान-परंपराओं के बारे में उनके विचार मानव जाति के लिए बेहद उपयोगी हैं। इस संदर्भ में कुछ उदाहरणों के विश्लेषण से बात और स्पष्ट हो सकती है।

इसके पहले कि हम उदाहरणों पर जाएं, यह समझ लेना मुनासिब होगा कि गांधी का ज्ञान-परंपराओं के प्रति दृष्टिकोण क्या था। औपनिवेशिक युग में जब पश्चिमी देश आधुनिकता का परचम लिए घूम रहे थे और सभ्यता का मापदंड तय कर आधुनिक ज्ञान-परंपराओं की कसौटी पर दुनिया की अन्य ज्ञान-परंपराओं को खारिज कर रहे थे, ठीक उसी समय गांधी ने उन्हें आईना दिखाने की ठानी। ‘हिंद स्वराज’ के मूल में आधुनिक यूरोप के सभ्यता के दंभ का विरोध ही है। उन्होंने साफ शब्दों में कहना शुरू किया कि जिसे सभ्यता का नाम दिया जा रहा है उससे मानवता को खतरा है और इसलिए जरूरत दरअसल दुनिया की बाकी सभ्यताओं से सीखने की है।
इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आधुनिकता से जुड़ी ज्ञान-परंपरा में व्यक्तिवाद को इतना महत्त्व दिया गया कि ज्ञान के स्वामित्व का मसला अचानक बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया। मानव इतिहास में पहली बार ज्ञान के मूल स्रोतों को मिटा कर उस पर स्वामित्व जताने की प्रवृत्ति शुरू हुई है। सभ्यताएं इसके पहले भी एक दूसरे से बहुत कुछ लेती थीं, लेकिन उनके स्रोतों की याद को जीवंत रखती थीं। उदाहरण के लिए, अरबों ने भारत से जो कुछ भी लिया उसके स्रोतों को सैकड़ों सालों के बाद भी कृतज्ञतापूर्वक याद रखा गया। पंचतंत्र जैसे ग्रंथ का अगर अनुवाद किया गया तो पात्रों के नाम तक को नहीं बदला गया। लेकिन उसी पचतंत्र को जब आधुनिक पश्चिम ने लिया तो उसके स्वरूप में आमूल परिवर्तन कर दिया और फिर इसके मूल स्रोत से जुडे़ तार को काट दिया गया।
गांधी को शायद उससे कोई एतराज नहीं था, उनकी समस्या थी आधुनिकता की ज्ञान-मीमांसा के साथ। खारिज करने की इस आधुनिक प्रक्रिया में बहुत कुछ ऐसा भी गायब हो गया जो लोककल्याणकारी था। आश्चर्य की बात यह है कि इन तथ्यों के उजागर होने के बावजूद पश्चिम इसे मानने को तैयार नहीं था। शायद इसलिए कि  उसकी बौद्धिक ईमानदारी उसके औपनिवेशिक दंभ से दबी हुई थी।     

सबसे पहले आधुनिक कही जाने वाली ज्ञान-परंपरा के धर्म के प्रति रवैये को ही लें। पश्चिम में धार्मिक संस्थानों में एक खास प्रकार की ज्ञान-मीमांसा की मान्यता थी, जिसमें यह माना जा रहा था कि ज्ञान का श्रेष्ठ उपागम इलहाम है और परमात्मा गिने-चुने लोगों को ही इस लायक समझता है और इस तरह की विशिष्ट क्षमता देता है। धार्मिक संस्थाओं के वर्चस्ववादी दृष्टिकोण का विरोध करने के क्रम में आधुनिकता ने आत्मानुभूति के मीमांसात्मक महत्त्व को ही नकार दिया। गांधी ने स्पष्ट किया कि आत्मानुभूति ज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण उपागम है, अंतर केवल इतना है कि मनुष्य मात्र को यह क्षमता प्राप्त है और इस क्षमता का विकास संभव है। इसलिए गांधी बार-बार अंतरात्मा की आवाज सुनने पर जोर दिया करते थे।

यह सच है कि भौतिक जगत के ज्ञान के लिए मनुष्य को अपनी ज्ञानेंद्रियों पर भरोसा करना पड़ता है और हर मनुष्य को प्रकृति ने बाह्य जगत को देखने-समझने की क्षमता भी दी है। लेकिन इससे केवल स्थूल जगत के बारे में सूचनाएं इकट्ठा की जा सकती हैं। मनुष्य की भावनाओं को समझने या सही-गलत के निर्णय के लिए तो अंतरात्मा का ही सहारा लेना पडे़गा।आधुनिक विज्ञान और उससे उपजे दृष्टिकोण ने मूल्यों का ऐसा संकट पैदा कर दिया है कि हम अपनी प्रजाति को समूल नष्ट करने के उपायों को खोजने में लग गए और उन्हें हासिल कर लेना ही हमारे लिए शक्तिशाली होने का पर्याय हो गया। गांधी ने आधुनिकता के इसी दंभ की प्रतिक्रिया में अहिंसा का मार्ग सुझाया। और अहिंसा के लिए गांधी का तर्क मीमांसा की कसौटी पर बिल्कुल खरा है।
उनका मानना है कि सत्य बहुआयामी है और किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह को किसी भी समय सत्य के सभी आयामों की जानकारी हो सके, यह संभव नहीं है। प्रकृति के नियमों के अलावा बाकी सत्य संस्कृति-सापेक्ष भी हो सकता है। ऐसे में   अपने से विपरीत विचारों के लोगों को अपना विरोधी मान लिया जाए और उनकी हत्या कर दी जाए यह सर्वथा अनुचित है। उनके अनुसार, आवश्यकता मीमांसा के इस आयाम को समझ कर सभ्यताओं, ज्ञान-परंपराओं और लोगों के बीच उचित संवाद स्थापित करने की है। और इसके लिए दोनों पक्षों को अपने-अपने सत्य के प्रति निष्ठावान होना ही चाहिए और उसके लिए आग्रह भी करना चाहिए। लेकिन साथ ही दूसरे के दृष्टिकोण के प्रति भी सम्मान रखना चाहिए। संवाद की इसी प्रक्रिया को गांधी सत्याग्रह का नाम दिया करते थे।

गांधी की दैहिक अनुपस्थिति के बाद आधुनिकता से प्रभावित भारतीयों ने भी संवाद के इस मूलमंत्र को नहीं माना और फिर ‘आधुनिक मंदिरों’ के निर्माण ने भारतीय समाज की मौलिक संरचना पर बर्बर प्रहार शुरू कर दिया। क्योंकि आधुनिक चिंतकों के लिए सूक्ष्म चेतना की जगह स्थूल भौतिक या दैहिक आयाम ज्यादा महत्त्वपूर्ण रहा। नेहरू भी आधुनिकता के दबाव में बह गए। मालूम नहीं कि अगर गांधी स्वतंत्रता के बाद भी ज्यादा दिन तक बचे रहते तो हमारी आर्थिक नीति क्या होती, लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि जिस रोशनी के खोने की बात नेहरू कहते हैं वह अगर होती तो विकास इतना अंधकार भरा नहीं होता। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह वे शायद इतने लाचार नहीं होते कि चालीस प्रतिशत बच्चों के भूखे रहने की हकीकत जान कर भी विश्व बैंक के नवउदारवादी एजेंडे पर ही देश के विकास का सपना संजोते रहते। उनके सत्य के प्रयोगों को समझ कर तो यही लगता है कि गांधी आधुनिकता के जीवनमूल्यों के बरक्स नए आंदोलन की तैयारी करते और सरहदों की सीमा के बाहर भी इसकी गूंज सुनाई देती।

ऐसा नहीं  है कि उनकी आत्मानुभूतिमूलक ज्ञान-मीमांसा से जिस नई जीवन-पद्धति की समझ बनती है उसमें आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संपूर्णता में तिरस्कार हो। बल्कि उससे भी संवाद स्थापित करने में गांधी को कोई परेशानी नहीं थी। प्रकृति के विषय में शुद्ध वैज्ञानिक समझ से उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी। उन्हें एतराज था विज्ञान के दंभ पर, और पूंजीवाद और उपनिवेशवाद के साथ उसकी सांठगांठ से। ‘हिंद स्वराज’ में गांधी की चिंता है बाजार के विस्तार से। और बाजार केवल दुकानें नहीं हैं बल्कि व्यक्तिगत लाभ के चश्मे से प्रकृति और मनुष्य के संबंधों को देखने की प्रक्रिया है।इस संबंध से ही खीज कर बाबा नागार्जुन ने लिखा होगा ‘एहन शहर के हमर प्रणाम जकर हर घर में छै दुकान’ (ऐसे शहर को मेरा प्रणाम जिसके हर घर में है दुकान)। गांधी वकीलों और डॉक्टरों से इसलिए परेशान नहीं थे कि उनका ज्ञान बेकार है। आधुनिक युग के पहले भी इस तरह के ज्ञानी हुआ करते थे। वे इसलिए परेशान थे कि अब इनका उद्देश्य जनकल्याण नहीं, बल्कि दूसरों की कमजोरी पर अपनी जीविका चलाना है।

शायद उन्हें यह आभास हो चला था कि पूंजीवाद मनुष्य की काम-भावनाओं को आधार बना कर भी बाजार का विस्तार करेगा, इसलिए उन्होंने अपने प्रयोगों में इसे भी शामिल कर लिया था। एक मायने में गांधी घोर वैज्ञानिक थे कि उन्होंने किसी स्थापित सत्य को बिना परखे नहीं माना। हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘अनामदास का पोथा’ के प्रमुख पात्र रैक्व की तरह बिना प्रयोग किए कुछ भी सही नहीं मानना उनका स्वभाव था और बाकी लोगों से भी सत्य के प्रति इसी आग्रह का अनुरोध था। भारत में स्वतंत्रता के बाद विज्ञान के नाम पर जो कुछ हुआ उसमें इस प्रयोग का अभाव और पश्चिम के विज्ञान को उसके बाजार और औपनिवेशिक मूल्यों के साथ स्वीकार कर लिया गया। भारतीय संस्कृति की जिस देन की बात गांधी  कर रहे थे दुनिया उससे वंचित रह गई। इसी मूल्य को प्रेमचंद ने अपनी कहानी ‘मंत्र’ में दिखाने का प्रयास किया है। यह दो ज्ञानियों की कहानी है। एक भारतीय ज्ञान परंपरा के ‘इलम’ का अधिकारी और दूसरा आधुनिक ज्ञान का डॉक्टर। जब पहले का पुत्र बीमार होता है और उसे दूसरे की जरूरत होती है तो डॉक्टर ज्ञान के बाजारू दृष्टिकोण से ग्रसित रहता है और बच्चा मर जाता है। लेकिन जब डॉक्टर के बच्चे को सांप काट लेता है और पहले को सिर्फ सूचना भर मिल जाती है तो उसके मन में द्वंद्व जरूर होता है और बदले की भावना भी जगती है, लेकिन ज्ञान से जुडे मूल्य का प्रभाव उसके दृष्टिकोण को साफ  कर देता है और अपने ‘इलम’ पर किसी भी जरूरतमंद का अधिकार समझ वह जा पहुंचता है डॉक्टर के बच्चे को ठीक करने।

यही वह सांस्कृतिक मूल्य है जिसकी परवाह गांधी कर रहे थे। विज्ञान और तर्क इस मूल्य को स्थापित नहीं कर सकता। आधुनिकता अपनी सफलता के नशे में इतनी मदहोश हो गई कि संवाद की संभावना को ही भूल गई। गांधी के दैहिक अवसान से शायद इस मूल्य को पुनर्स्थापित करने वाली रोशनी बुझ गई थी। बुझी नहीं थी, शायद धीमी हो गई थी। इसलिए दुनिया भर में जो लोग आज सड़कों पर उतर रहे हैं, ‘ओक्युपॉय आंदोलन’ चला रहे हैं, उन्हें अब भी रोशनी गांधी से मिल रही है।

जनसत्ता से साभार, मूल लेख यहां भी देख सकते हैं :

Sunday, January 29, 2012

कला हमारा हथियार है...


महिला कलाकार होने की चुनौती

-शीरीं निशात

आज मैं आप सब के साथ बांटना चाहती हूं, ईरानी कलाकार होने की चुनौती की कहानी। ईरानी महिला कलाकार होने की चुनौती की कहानी। मैं जो कि एक ईरानी महिला कलाकार हूं और देश-निकाला भुगत रही हूं। सोचा जाए तो इसके फायदे हैं और नुकसान भी हैं। राजनीति कभी भी हम जैसे लोगों को शांति से नहीं रहने देती। हर ईरानी कलाकार, किसी न किसी तरीके से, राजनीति से जुड़ा है। राजनीति ही हमारे जीवन को परिभाषित कर रही है। यदि आप ईरान में रह रहे हों, तो आपको तमाम सेंसरशिप (नियंत्रण) और अत्याचारों को सहना होगा, गिरफ्तारी, शारीरिक उत्पीडन  और कभी-कभी तो कत्ल या सजा-ए-मौत भी। और यदि आप मेरी तरह वहां से दूर रह रहे हों, आप के सामने देश से निकाले जाने की चुनौती है, दर्द है, याद की छटपटाहट है, अपनों से दूर होने की, परिवार से अलग होने की तो, हम वंचित हैं उस मौलिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक आराम से, जो हमें इस सच्चाई से दूर रखे कि हमारी कोई सामाजिक जिम्मेदारी बनती है।
अजीब सी बात है। मेरे जैसी एक कलाकार स्वयं को उस किरदार में पाती है, जो आवाज है मेरे देश के लोगों की, जबकि, सच में, मेरा अपने देश में जाना तक मना है। और ये भी कि मेरे जैसे लोग, दो अलग अलग लड़ाइयां लड़ रहे हैं। हम पश्चिमी सभ्यता की आलोचना करते हैं, विरोध करते हैं पाश्चात्य नजरिये का अपनी पहचान के बारे में .. और उस अक्स का जो हमारे आसपास बना दिया गया है, हमारी स्त्रियों के बारे में, हमारी राजनीति के बारे में, हमारे धर्म के बारे में। तो हम एक तरफ इस सब के गर्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और सम्मान मांग रहे हैं। ठीक उसी समय, हम एक और लड़ाई लड़ रहे हैं। वो है हमारी अपनी शासन पद्धति से, हमारी अपनी सरकार से .. हमारी अपनी अत्याचारी सरकार से, जिसने हर संभव अपराध किया है सिर्फ सत्ता में बने रहने भर के लिए। हमारे कलाकार खतरे में हैं। हम बड़ी विपत्ति में फंसे हैं। हम खुद भी खतरा बन गये हैं, अपनी ही सरकार और शासन के लिए।

और विडंबना ये है कि इस स्थिति ने हमें शक्ति दी है। क्योंकि हमें कलाकार होने के नाते सांस्कृतिक, राजनीतिक, और सामाजिक विमर्श के लिए ईरान में जरूरी माना जाता है। हमारा काम हो गया है प्रोत्साहित करना, ललकारना, बढ़ावा देना और अपने लोगों तक आशा की किरणों को पहुंचाना। हम अपने लोगों के हाल बयां करने के जिम्मेदार हैं। हम उनके संवाददाता हैं बाहरी दुनिया के लिए। कला हमारा हथियार है, संस्कृति हमारे विरोध का जरिया है। कभी कभी तो मुझे पाश्चात्य कलाकारों से जलन सी होती है, उनकी अभिव्यक्ति की आजादी को देख कर  और इस बात पर कि कैसे वो खुद को दूर कर लेते हैं राजनीतिक सवालों से  और इस बात से कि वो केवल एक ही तरह के लोगों के लिए कार्यरत हैं, मु्ख्यतः पाश्चात्य सांस्कृति के लिए। पर साथ ही मैं पश्चिम को ले कर चिंतित भी हूं। क्योंकि अक्सर इन देशों में, इस पाश्चात्य विश्व में खतरा दिखता है, संस्कृति के मात्र मनोरंजन में बदल कर रह जाने का। हमारे लोग अपने कलाकारों पर निर्भर हैं, और संस्कृति तो संवाद के परे है।



एक कलाकार के रूप में मेरी यात्रा बहुत ही व्यक्तिगत जगह से आरंभ हुई थी। अपने देश पर सामाजिक टिप्पणी करना मैंने सीधे शुरू नहीं किया था। जो पहला वाला आप देख रहे हैं ये असल में मैंने ईरान लौट कर बनाया था, पूरे 12 साल इससे अलग रहने के बाद। ये इस्लामिक क्रांति के बाद हुआ, जो 1979 में हुई थी। जब मैं ईरान से बाहर थी, ईरान में इस्लामिक क्रांति आ गयी और उसने पूरे देश को बदल कर रख दिया फारसी संस्कृति से इस्लामिक संस्कृति में। मैं तो बस अपने परिवार के साथ रहने आयी थी, और फिर से इस तरह से जुड़ने कि मैं समाज में अपना एक स्थान पा सकूं। बजाय उसके, मुझे एक ऐसा देश मिला जो पूर्णतः एक खास सिद्धांत से चल रहा था और जिसे मैं अपना ही नहीं पायी। और तो और, मेरी इसमें बहुत रुचि पैदा होती गयी क्योंकि मेरे सामने अपने व्यक्तिगत असमंजस और प्रश्न खड़े थे, मेरी रुचि बढ़ती ही गयी इस्लामिक क्रांति के अध्ययन में  कि कैसे, असल में, इसने अविश्वसनीय ढंग से बदल दिया ईरानी औरतों के जीवन को। मुझे ईरानी स्त्रियों का विषय बहुत ही तेजी से खींच रहा था कि किस तरह से ईरानी औरतों ने, इतिहास में, राजनीतिक बदलाव को अपनाया है। तो एक तरह से, औरतों का अध्ययन करके, आप एक देश के ढांचे और सिद्धांत को पढ़ सकते हैं।

तो मैंनें कुछ काम किया, जिससे कि अचानक ही मेरे सारी दुविधा सामने आ गयी, और उसने मेरे काम को एक बड़े विमर्श के कठघरे में ला खड़ा किया - शहादत के विषय पर, उन लोगों के विषय पर जो अपनी मर्जी से दुराहे पर खड़े होते हैं। एक तरफ ईश्वर से प्रेम, और विश्वास की राह पर, और साथ ही हिंसा, अपराध और क्रूरता की राह पर। मेरे लिए ये अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया। और तब भी, मेरी इस पर थोड़ी अलग स्थिति थी। मैं एक बाहरी व्यक्ति थी जो कि ईरान आयी थी अपनी जगह खोजती हुई, मगर मैं इस स्थिति में नहीं थी कि मैं सरकार की आलोचना कर सकूं या फिर इस्लामिक क्रांति के सिद्धांतों की। धीरे-धीरे ये सब बदला और मुझे अपनी आवाज मिली और मैंने उन चीजों को खोजा जो मुझे कभी नहीं लगा था कि मैं खोज पाऊंगी। और मेरी कला थोड़ी और ज्यादा आलोचनात्मक हो गयी। मेरा खंजर थोड़ा और तीखा हो गया। और मैं फिर से देश-निकाले का जीवन जीने पर मजबूर कर दी गयी।

अब मैं एक खानाबदोश कलाकार हूं। मैं मोरक्को में, तुर्की में, मेक्सिको में काम करती हूं। मैं हर जगह में ईरान को खोजती फिरती हूं।

अब मैं फिल्मों पर भी काम कर रही हूं। पिछले साल, मैंने एक फिल्म खत्म की है, जिसका शीर्षक है- आदमियों के बगैर औरतें। ये फिल्म इतिहास में वापस जाती है, मगर ईरानी इतिहास के एक दूसरे ही हिस्से में। ये जाती 1953 तक, जब अमरीकी सीआईए ने तख्तापलट करवाया था और लोकतंत्र द्वारा चुने गये एक राजनीतिक नेता को हटवा दिया था, डॉ मोस्सदेघ। ये किताब एक ईरानी औरत ने लिखी है, शाहर्मुश पारसिपुर, ये जादुई सी किताब यथार्थवादी उपन्यास है। इस किताब पर सरकारी रोक है और उस लेखिका ने अपने पांच साल जेल में बिताये। मैं इस किताब के लिए पागल हूं, और मेरे इस किताब को फिल्म में तब्दील करने का कारण है, इसका एक साथ कई प्रश्नों को कुरेद पाना। औरत होने का प्रश्न  पारंपरिक रूप से, ऐतिहासिक रूप से ईरानी औरत होना  और चार ऐसी औरतों की स्थिति जो एक नयी विचारधारा की खोज में हैं .. बदलाव की, आजादी की और प्रजातंत्र की .. जबकि ईरान एक और किरदार की, एक नयी विचारधारा की तलाश में है .. प्रजातंत्र और आजादी की, और विदेशियों द्वारा दखलअंदाजी से आजादी पाने की।

मैंने ये फिल्म बनायी क्योंकि मुझे लगा कि ये जरूरी है कि ये पश्चिमी लोगों को बताये कि एक देश के रूप में हमारा इतिहास कैसा था। ये कि आप सब केवल उस ईरान को याद रख के बैठे हैं, जो कि इस्लामिक क्रांति के बाद का ईरान है। ये कि ईरान एक जमाने में धर्मनिरपेक्ष समाज था और हमारा देश लोकतांत्रिक था, और हमसे इस प्रजातंत्र को छीन लिया अमरीकी सरकार ने, ब्रिटिश सरकार ने। ये फिल्म ईरानी लोगों से भी कुछ कहती है। उनसे गुजारिश करती है अपने इतिहास में वापस जाने की और इस्लामीकरण से पहले के अपने व्यक्तित्व को एक नजर देखने की .. कि हम कैसे दिखते थे, कैसे हम मौसीकी का लुत्फ उठाते थे, कैसे हमारे लोग बौद्धिक-विचारक थे। और सबसे बड़ी बात, कि कैसे हमने प्रजातंत्र के लिए लड़ाई की थी। ये मेरी फिल्म के कुछ दृश्य हैं। और ये तख्तापलट के कुछ दृश्य हैं। हमने ये फिल्म कासाब्लान्का (मोरक्को) में बनायी है, सारे दृश्यों का पुनर्निमाण कर के।

ये फिल्म कोशिश करती है कि एक संतुलन सा कायम हो एक राजनीतिक कहानी कहने, और साथ ही, एक स्त्रीवादी कहानी कहने के बीच। एक दृश्य कलाकार होने के नाते, सच में, मैं कला के प्रसारण में सबसे ज्यादा रुचि रखती हूं .. ऐसी कला जो आर-पार जा सके राजनीति के, धर्म के, स्त्रीवाद के प्रश्नों के और महत्वपूर्ण हो जाए, शाश्वत हो जाए और कला का संपूर्ण सार्वकालिक उदाहरण बन जाए। मेरे सामने चुनौती ये है कि ये कैसे किया जाए .. कैसे एक राजनीतिक कहानी कही जाए रूपक व्याकरण में .. कैसे अपने भावों को उचित चित्रण किया जाए, पर साथ ही दिमाग से सोच कर काम हो। ये कुछ दृश्य हैं और फिल्म के कुछ किरदार। ये देखिए हरी क्रांति आती हुई .. 2009 की गर्मी, और मेरी फिल्म का विमोचन होता है .. तेहरान की सड़कों पर विद्रोह भड़क रहा है।

अविश्वसनीय विडंबना ये है कि जिस समय की कहानी हमने फिल्म में दिखाने की कोशिश की है, प्रजातंत्र की मांग की और सामाजिक न्याय की मांग की, वो स्वयं को दोहरा रहा है, तेहरान में। हरी क्रांति ने सारी दुनिया को दृढ़ता के साथ प्रोत्साहित किया है। उसके द्वारा उन ईरानियों पर ध्यान केंद्रित हुआ है, जो कि मौलिक मानवाधिकारों के लिए खड़े हैं और प्रजातंत्र की लड़ाई लड़ रहे हैं। मेरे लिए इस सबमें सबसे सार्थक ये था कि एक बार फिर, औरतों की मौजूदगी दाखिल हुई है। ये मेरे लिए बहुत ही बड़ी हौसला-अफजाई है। अगर इस्लामिक क्रांति के दौरान, औरतों का चित्रण किया गया था दबे कुचले स्वरूप में, और बेआवाज ईकाई की तरह, तो आज हम स्त्रीवाद की नयी अभिव्यक्ति देख रहे हैं तेहरान की सड़कों-गलियों में .. औरतें जो शिक्षित हैं, गैर-पारंपरिक हैं, नयी सोच रखती हैं, सेक्सुअली खुले विचारों की हैं, डर से परे हैं, और गंभीर रूप से स्त्रीवादी हैं। ये औरतें और ये युवा पुरुष ईरानियों को एकजुट कर रहे हैं सारे संसार में, ईरान में और बाहर भी।

और फिर मुझे पता लगा कि आखिर क्यों मैं इतना उत्साह पाती हूं ईरानी औरतों से। वो इसलिए, कि हर हाल में, उन्होंने किनारे की लड़ाई लड़ी है। उन्होंने सत्ता को लगातार ललकारा है। उन्होंने हर थोपा गया नियम तोड़ा है छोटे से छोटे और बड़े से बड़े रूप में। और एक बार फिर, उन्होंने खुद को साबित कर दिखाया है। आज मैं यहां खड़ी हूं ये कहने के लिए कि ईरानी औरतों ने एक नयी आवाज पायी है, और उनकी आवाज ही मुझे अपनी आवाज देती है। ये मेरे लिए गौरव की बात है कि मैं एक ईरानी स्त्री हूं, और एक ईरानी कलाकार हूं, चाहे मुझे कुछ दिन के लिए पश्चिम को ही अपनी कर्मभूमि क्यों न बनाना पड़े।

अनुवाद - स्वप्निल कांत दीक्षित, संपादन - वत्सला श्रीवास्तव

(शीरीं निशात। ईरान की मशहूर फिल्मकार और फोटोग्राफर। अपने काम में निशात इस्लामिक क्रांति के पहले के और बाद के ईरान पर अन्वेषण करती हैं, स्त्रियों के शक्तिशाली अंकन के जरिये राजनीतिक और सामाजिक बदलाव का अध्ययन)

Saturday, January 28, 2012

वो सुबह कभी तो आयेगी

वो सुबह हमी से आयेगी
वो सुबह हमी तो लायेंगे

भारतीय जन नाट्य संघ की भिलाई इकाई ने गणतंत्र दिवस के अवसर पर स्थानीय जंयती स्टेडियम में एक झांकी का प्रदर्शन किया। आयोजन के मुख्य अतिथि भिलाई इस्पात संयत्र के मुख्य कार्यकारी अधिकारी श्री पंकज गौतम थे तथा भिलाई के कोई 25 हजार नागरिकों ने बतौर दर्शक इस आयोजन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की। "श्रम की विजय" नामक भिलाई इप्टा की इस झांकी ने विशेष रूप से दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ खींचा। भिलाई इप्टा की इस झांकी को प्रतियोगिता में दूसरा स्थान भी हासिल हुआ।

गौरतलब है कि भिलाई इप्टा पूर्व में भी इस आयोजन में अपनी विविध झांकियों के माध्यम से शिरकत करती रही है पर विगत दो-तीन वर्षों में कतिपय कारणों से यह सिलसिला टूट गया था। इप्टा के 13 वें राष्ट्रीय सम्मेलन की सफल मेजबानी के बाद उत्साह से लबरेज भिलाई इप्टा के युवा साथियों ने फिर से इस सिलसिले की शुरूआत को जो स्थानीय इकाई को नगर में एक पहचान दिलाने में सहायक साबित होता है। प्रस्तुत है, इस अवसर की कुछ तस्वीरें, साथ में साहिर की इस मशहूर नज्म पर पंकज दीक्षित का कविता पोस्टर :








Friday, January 27, 2012

जयपुर साहित्य उत्सव का यह चेहरा

 नव-औपनिवेशिक अतिक्रमण का प्रोजेक्ट 


-जयप्रकाश 
जयपुर साहित्य-उत्सव संपन्न हुआ.पांच दिन जयपुर में सैकड़ों लेखकों और बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में हजारों साहित्यप्रेमियों ने सौ से अधिक गोष्ठियों में शिरकत की.इसे दुनिया का सबसे बड़ा साहित्य-समारोह बताया जा रहा है,जो कि संभवतः यह है भी -- आयोजन की भव्यता और व्यापक मीडिया-समर्थन की नज़र से तो निश्चय ही यह अभूतपूर्व घटना थी.ऐसा अंतर-राष्ट्रीय आयोजन अपने देश में होना उत्साह और गौरव की बात होनी चाहिए.इतने विराट आयोजन का विवादस्पद हो उठना भी अस्वाभाविक नहीं है.महत्वपूर्ण यह है कि इसे लेकर बौद्धिक जगत में उत्सुकता,गहमागहमी और अपूर्व उत्तेजना रही. मीडिया ने हमेशा की तरह उत्तेजना का कारोबार किया. इस बहाने अक्सर हाशिये पर रहने वाली साहित्य की दुनिया चर्चा के केंद्र में आ गयी -- चर्चा भले ही साहित्य की बजाए रूश्दी की शिरक़त-जैसे साहित्येतर और राजनीतिकीकृत मुद्दे को लेकर हलके किस्म के मीडिया-हाईप के रूप में हुई हो. खुद महोत्सव के आयोजक यही चाहते थे,इसलिए उन्होंने सितारों की चमक का सुनियोजित तरीके से इस्तेमाल भी किया--चाहे उनमें ओपरा विनफ्रे-सरीखी सात समुन्दर पार से लाई गयी परदेसी तारिकाएँ हों,अथवा अशोक चक्रधर-जैसे देसी चमक वाले सितारे हों. भारत में होने वाले साहित्य-समारोहों के साथ मुश्किल यह है कि वे  ज़्यादातर गंभीर बुद्धिजीवियों की आत्म-सीमित बुद्धिचर्या या जन-प्रतिबद्धता का गुरुतर भार अपने कंधे पर थामे लेखकों के सामाजिक दायित्व-बोध तले दब कर अपने प्रभाव और पहुँच में स्वतः सिकुड़ जाते हैं.यह साहित्य  का अपना लोकतंत्र है,जिसकी नागरिकता स्वयं साहित्यकारों को प्राप्त है. शायद इस स्थिति को समझकर ही जयपुर साहित्य-उत्सव के आयोजकों ने इस लोकतंत्र का विस्तार किया और इसके लिए अपनी जनता चुनने का जतन किया.मीडिया ने जतन से चुनी हुई इस जनता को साहित्य का असली भाग्य-नियंता बताया.इस तरह जयपुर साहित्य-उत्सव वामपंथियों की खास काट की जनता का आयोजन नहीं,संचार-क्रांति के युग का प्रातिनिधिक 'इवेंट' बना.ऐसे इवेंट में जनता अपने संघर्ष, जिजीविषा और आकांक्षाओं के  संवेदनात्मक साक्षात्कार के लिए नहीं जाती.वह सितारों की चमक देखने के लिए,या फिर हंसगुल्ले खाने के लिए जाती है.अकारण नहीं है कि 'भारतीय दर्शन के अवगाहन में अंग्रेज़ी भाषा के अवरोध और इस सन्दर्भ में प्रो.दयाकृष्ण का चिंतन' विषयक गोष्ठी में गिने-चुने श्रोता थे,जबकि ओपरा विनफ्रे के शो में दर्शकों को सम्हालना मुश्किल हो रहा था.
 
                 ज़ाहिर है,यह साहित्य के आयोजन से ज्यादा ' मीडिया का साहित्य-आयोजन ' था,जिसमें साहित्य को मास-कल्चर के दायरे में लाने की कोशिश की गयी,जहाँ साहित्य मानवीय संवेदना की लीला-भूमि नहीं,सामूहिक उपभोग का साधन-भर रह जाता  है. कहने की ज़रुरत नहीं कि यह कोशिश खूब सफल रही.अभी भारत के साहित्य-जगत में फिल्म या क्रिकेट की तरह के सितारे नहीं हुए हैं.इसलिए शो-बिज़ से उधार के सितारे लाए गए.योजना भारतीय अंग्रेज़ी-लेखकों को सितारों की हैसियत दिलाने की है.हिंदी-सहित अन्य भारतीय भाषाओँ के कुछ लेखक उन्हें अपनी टिमटिमाती-सी रोशनी अर्पित करने को तैयार भी हैं.उन्हें उस आभामंडल में आकर स्वयं कुछ ज्यादा चमक पा लेने का आश्वासन होगा.वरना यह जानते हुए भी कि करोड़ों के बजट वाले इस आयोजन के प्रायोजकों में रियो टिंटो और डीएससी लिमिटेड-जैसी बदनाम कम्पनियाँ हैं,वे क्योंकर उसमें शामिल हुए होंगे? सच कहा जाए तो जयपुर साहित्य-उत्सव बड़ी पूंजी और मास-मीडिया का संयुक्त उपक्रम है.अंग्रेज़ी को भारतीय भाषा के रूप में,और उसके साहित्यकारों को भारत के आधिकारिक साहित्यकारों के तौर पर मान्यता दिलाने की अंदरूनी मंशा के साथ यह अभियान छेड़ा गया है.अन्यथा साहित्य के आयोजन को बड़ी कम्पनियाँ इतनी अहमियत भला क्यों देने लगीं. साफ तौर पर यह वैश्वीकरण का सांस्कृतिक हस्तक्षेप है.भारतीय भाषाओँ के साहित्य को दरकिनार करने के पीछे एक सुनियोजित कुचक्र का अनुमान सहज ही किया जा सकता है.समारोह के विचार-सत्रों की रपटों और विभिन्न गोष्ठियों के विडियो देख कर जान सकना कठिन नहीं है कि कुल मिला कर समारोह का एजेंडा और मकसद क्या है. मसलन, एक गोष्ठी में साहित्य में प्रतिरोध की बात तो की गयी, मगर जनता की जिजीविषा और संघर्ष की बजाए शासक-समूह के सत्ता-संघर्ष को प्रतिरोध के रूप में प्रस्तुत किया गया.यहाँ फातिमा भुट्टो का संघर्ष-आख्यान तो प्रतिरोध है,लेकिन समाज की तलछट पर हो रहे जन-संघर्षों को तमाम भारतीय भाषाओँ में चित्रित करने वाले  अनगिन रचनाकारों में से किसी एक का भी कोई ज़िक्र तक नहीं..

            कहने की ज़रुरत नहीं कि जयपुर साहित्य-उत्सव को, भारतीय साहित्य की सुदीर्घ परंपरा को खारिज कर उसके विराट स्पेस को अधिग्रहित करने के नव-औपनिवेशिक अभियान के रूप में देखा जाना चाहिए .नहीं भूलना चाहिए कि नव-उपनिवेशवाद जिस तरह देश के जंगलों-पहाड़ों-खदानों पर कब्ज़ा करने को तुला हुआ है,ठीक उसी तरह भाषा-साहित्य और संस्कृति को भी बलात अधिग्रहित कर उसकी जगह अपनी आधिकारिक संस्कृति को स्थापित कर रहा है. वह समूचे सांस्कृतिक स्पेस को अपने लिए आरक्षित करने जा रहा है. जयपुर साहित्य-उत्सव में अंग्रेज़ी के लिए कितनी जगह स्वतः आरक्षित है? बेशक अभी यहाँ कुछ प्रतिशत आरक्षण भारतीय भाषाओँ के लिए भी --ज़ाहिर है,कुछ टुकड़े फेंक देने के अंदाज़ में -- है. हिंदी के हिस्से भी एक टुकड़ा रखा गया था..हमारे एक शीर्षस्थानीय आलोचक ने समारोह आरभ होने के पूर्व, यूँ ही नहीं कह दिया कि ' ये आयोजन साहित्य से सृजनशील लोगों को जोड़ने और जनता के जीवन को रेखांकित करने का काम करते है.' नव-साम्राज्यवाद की चाकरी बजाने के लिए सबसे पहले उसके आभा-वृत्त में दाखिल होना ज़रूरी है. वहां जाकर कौन यह सवाल पूछने का साहस कर सकेगा,जैसा कि उदयन वाजपेयी के मुताबिक फ़्रांस के लोगों ने प्रवास के दौरान उनसे पूछा था,कि भारतीय अंग्रेज़ी-लेखक अपनी मातृभाषा में क्यों नहीं लिखते? यह तकलीफदेह सवाल है,मगर इसे सिर्फ भारतीय अंग्रेज़ी-लेखकों से नहीं,अंग्रेज़ी के प्रभाव-वृत्त में जी रहे हर हिन्दुस्तानी से पूछा जा सकता है कि वे मालिकों की भाषा में गुलामी कैसे कर लेते हैं?

             और कुछ नहीं तो यह सवाल पूछा ही जा सकता है कि भारत के इस वृहत साहित्य-समारोह से भारतीय साहित्य की कैसी छवि प्रकट हुई है? इस छवि में कहाँ और कितना भारत है? अगर भारत है,तो उसका स्वर्ग है, या नरक? क्या उपभोक्ता मध्यवर्ग ही भारत है? यह समझना कठिन कहाँ है कि जयपुर साहित्य-उत्सव किसे संबोधित है.


              मीडिया, सनसनी,ग्लैमर,विवाद और कैमरा-अपेक्षी भीड़ -- एक सफल आयोजन के लिए और क्या चाहिए? भारत के देशज बुद्धिजीवी खीझते रहें,और आयोजन की सार्थकता की मांग करते रहें.आयोजकों को इससे  सरोकार नहीं.उन्हें आयोजन की सार्थकता की दरकार कतई नहीं थी. सिर्फ सफलता चाहिए थी,जो उन्हें मिल चुकी है.

Thursday, January 26, 2012

"सांस्कृतिक मठों पर हमले करो"

इप्टा के राष्ट्रीय महाधिवेशन (भिलाई) के लिए आधार-पत्र


जन-संस्कृति: समय के साथ मुठभेड़

- जावेद अख्तर खां

बात चाहे जितनी पुरानी लगे, मनुष्य की वेदना ही जन-संस्कृति का मूलाधार है । उस ‘वेदना’ से हमें जो कुछ अलग करे, वह जन-विरोधी है। संस्कृति के अनेक रूप अभी चमचमा रहे हैं, जिनसे हमारी आँखें चौंधिया रही हैं । ‘नया ज्ञानोदय’ के ताजा अंक में प्रकाशित अपनी एक रचना में ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखा है - ”इतनी तेज रोशनी है कि उसके सामने हम अंधे हो रहे हैं। उस तेज चमचमाती रोशनी के नीचे अंधकार का महासमुद्र खदबदा रहा है । तेज चौंधियाती रोशनी और खदबदाते अंधकार के महासमुद्र में हमें रास्ता नहीं  दिखता ।“ जनता दुःख-पीड़ा के इस अंधेरे समुद्र में रास्ता टटोल रही है, ऐसे में जन-संस्कृति की चिंता करने वालों का काम ‘वेदना’ के असंख्य दिये जलाने से जुड़ा है ।

बर्लिन की दीवार टूटने और सोवियत संघ के पतन के बाद के दो दशकों में मनुष्य की वेदना को पीछे धकेल कर एक ऐसी संस्कृति सामने आयी है, जो हमेशा चमचमाती-चौंधती-दमकती रहती है । ‘वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो’ आंदोलन को ध्यान में रखकर एक चिंतक ने टिप्पणी की है कि विश्व-मानव एक बार फिर से दोराहे पर खड़ा है । पँूजीवाद विध्वंस के कगार पर है और समाजवाद के बिखर गये सपने अभी तक चुने नहीं गये हैं । ऐसे में मनुष्य की वेदना ही तो हमें सहारा दे सकती है, जिसमें प्रकृति भी शामिल है । या यों कहें, ‘प्रकृति की वेदना’ को ही धारण करने पर वह रास्ता खुल सकता है, जो अब तक अनदेखा है । स्वयं मनुष्य प्रकृति ही तो है । एक समय हमें बताया गया कि मनुष्य महाबली है । अब तो यह ‘बल’ भय ही पैदा करता है। मनुष्य ‘महाबली’ कैसे बना, पूरे ‘ग्लोब’ पर पाँव रखे उसका माथा तारों को छू रहा है (कितना विराट् बिंब है, लेकिन उतना ही भयोत्पादक), उसने धरती-आकाश सब को रौंद डाला, उसमें बला की ताकत है, जो ‘वेदना’ को कुचलती है । यह चहुँमुखी विकास उसने अपनी इसी ताकत के जोर से ही तो किया है । एक ऐसी संस्कृति जहाँ ‘ताकत’ से कोई भय न हो, वास्तविक जन-संस्कृति होगी ।

प्रकृति-मनुष्य की वेदना और अकूत संपदा-बल के सामने निर्भीक चेतना  ही ‘जन-संस्कृति’ का वास्तविक रूप उभार सकती है । यह कहने में जितना आसान लग सकता है, वास्तविक संस्कृतिकर्म के धरातल पर यह उतना ही जटिल और संश्लिष्ट है । संस्कृति का एक वर्चस्वशाली और अधिकारिक पाठ तातकवरों की संस्कृति का अंग है । उसकी जगह जनतांत्रिक ‘स्पेस’ और अनेक पाठों का सृजन ‘जनसंस्कृति-कर्म’ की बुनियाद है । अभी हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम से ए. रामानुजन के लेख- ‘हंड्रेड रामायण.......’ को हटाया गया है, उसको ध्यान में रखने पर इसकी जरूरत समझ में आ सकती है । रामानुजन ने तो केवल लिखित परंपरा की बात की, हमारी मौखिक परंपरा में तो अनेक जीवंत लोक-रामायण हैं, जो अधिकारिक पाठ के लिए चुनौती हैं । मिथक से जितनी छेड़-छाड़ हमारी जनता करती है, बड़ा-से-बड़ा रचनाकार भी इतना निर्भीक नहीं है । जनता से सीख कर ही ‘जन-संस्कृति’ के रास्ते पर चला जा सकता है ।

सैंकड़ों वर्षों तक संस्कृति के केन्द्र में ‘ईश्वर’ रहा, पूँजीवाद ने ‘मनुष्य’ को केन्द्र में ला दिया, लेकिन कैसा मनुष्य, अकूत बल-सम्पदा एकत्र करने वाला मनुष्य ! समाजवाद के प्रयोग के केन्द्र में ‘मनुष्य की ताकत’ ही तो राज करती रही । ‘महाबली’ की यह परिकल्पना प्रकृति-मनुष्य-विरोधी है, यह समझ पैदा किये बिना हम कैसी जनसंस्कृति का निर्माण कर पायेंगे ? ऐसे में सिर्फ ताकतवरों को खुश करने की जनविरोधी संस्कृति का निर्माण होता है, जहॉं सिर्फ ‘चापलूसी’ बची रह जाती है, जो वेदना का ध्वंस करती है ।

गाँधी जो बात बहुत पहले समझ चुके थे, उसे फिर से समझने की जरूरत है कि जब भी तुम अपने लक्ष्य और रास्ते को लेकर भ्रम में हो, तब संसार के सबसे दुखी-लाचार-गरीब व्यक्ति का चेहरा अपनी आंखों के सामने लाओ और खुद से पूछो कि यह जो मैं करने जा रहा हूं, उससे उसे कोई लाभ है, या नहीं, तुम देखोगे कि तुम्हारे सारे भ्रम दूर हो रहे हैं । जनसंस्कृति-कर्म में लगे लोगों की आंखों के सामने उस सबसे हताश-दुखी-गरीब व्यक्ति का चेहरा हमेशा मौजूद रहना चाहिए । राजनीतिक विचार एक हद तक ही हमारा साथ दे सकते हैं, और उस समय तो सारे क्रांतिकारी विचार भी निरर्थक हो जाते हैं, जब हमारी आँखों के सामने से उस व्यक्ति का चेहरा ओझल हो जाता है । हमारे नाटक, हमारे गीत बच्चों के उदास-मुरझाए चेहरे पर हँसी न बिखेर सके, तो वे किस काम के हैं, ताकत के सामने की गिड़गिड़ाहट को निर्भीक स्वर न दे पाने वाले नाटक और गीत हमें नहीं चाहिए ।

जन-संस्कृति के क्षेत्र में ‘विनम्रता’ का कोई विकल्प नहीं है, ‘घमंड’ सड़े हुए दिमाग की उपज है, जिसकी हमें जरूरत नहीं । हमारा लक्ष्य बहुत उँचा है और उसके सामने हमारी योग्यता बहुत ही कम है, लक्ष्य के अनुरूप लगातार योग्य बनने की तरफ बढ़ना विनम्रता के रास्ते पर ही तो संभव है । क्या मनुष्य के बहुत गहरे नैतिक सवाल हमारी संस्कृति-चिंता में शामिल नहीं होने चाहिए? क्या हमारे समय का संकट एक भारी नैतिक संकट भी नहीं है ? क्या ‘सचादारी’ होना, पिछड़ा चिंतन है? विनम्रता दब्बूपन नहीं, निर्भीकता का मतलब अहंकारी होना नहीं है - ये बातें क्या गुजरे जमाने की हैं और अब इन्हें अपने समय के बाहर कर देना चाहिए ? इतना तो स्पष्ट है कि संकीर्णता किसी मायने में हमारा साथ नहीं दे सकती । विचारहीनता के भय से विचार की संकीर्णता में फँसे रहना बुद्धिमत्ता नहीं है । स्वाधीन मस्तिष्क ही वास्तविक सर्जक है, दिमागी गुलामी सृजन के सारे रास्ते बन्द कर देती है । हमें ‘औसत’ दर्जे की संस्कृति नहीं चाहिए। अभी तो हर तरफ औसत प्रतिभावालों की धौंस-पट्टी है । गहन विचार-मंथन बीते जमाने की बात लगती है । एक अति-सामान्य प्रतिभावाली संस्कृति, जिसमें भाषा भी कामचलाऊ है और मनुष्य का व्यवहार भी, जन-संस्कृति का आधार नहीं बन सकती है । पढ़े-लिखे-अति-सामान्य-औसत प्रतिभावालों की एक बड़ी फौज शासक-वर्ग के लिए बहुत फायदेमंद है । इसीलिए जन-संस्कृति का प्रश्न एक तरफ एक बहुत गहरा नैतिक प्रश्न भी है, दूसरी तरफ शक्तिशाली मेधा को सामने के लाने के एजेंडे से भी जुड़ा है ।

एक समय संस्कृति के कुछ ही गिने-चुने केन्द्र होते थे, अब भी हैं, संस्कृति की राजधानी भी है । संस्कृति की स्थानीयता ही हमें वास्तविक सार्वभौमिकता देगी । जनसंस्कृति का सबसे बड़ा कार्यभार इन कथित केन्द्रों का ध्वंस करना है और इसके लिए, मुक्तिबोध के शब्दों में, अभिव्यक्ति के खतरे उठाने होंगे । इसलिए सांस्कृतिक मठों पर हमले करो-हमारा नया नारा होना चाहिए। विकास के चमचमाते मॉडल को जैसे पूरे देश पर थोपा गया है, चमचमाती संस्कृति का मॉडल भी हम पर थोपा गया है । हमें अनेकशः प्रयोगों की तरफ एक साथ  बढ़ना होगा । किसी के प्रति छुआछूत नहीं, लेकिन किसी की धौंस भी यहाँ नहीं चलेगी, न नाटक की प्रस्तुति के एक ढाँचे की धौंस, न ही उसमें एक विचार की धौंस ।

13th National Conference of IPTA : Approach Paper


People’s Culture: Encounter with Time

-Samik Bandyopadhyay
At the beginning of the second decade of the new century, there is need to redefine the role of people’s culture, in terms of the values that the Indian People’s Theatre Association has carried from its inception in the 1940s in the context of its early commitment to a worldwide struggle against Fascism. The battleground today has been redefined in terms of the dominant aggressive thrust of global capitalism bent on grabbing resources and markets, nurturing and fanning consumerist desire and greed, controlling and manipulating the print and electronic media to support and further its ends, on one end; and a sharply divided and considerably weakened Left on the other end, mobilizing a resistance. With the political Left in disarray, it falls on the cultural Left to engage more proactively and militantly in this building of resistance.

It is the collusion of the State and the Media and their joint pressure on the Judiciary that is moving relentlessly towards a disintegration of whatever democratic forms and institutions have been developed and put in place in post-Independence India. At different levels, both at the Centre and in the States, there are moves (often backed by the Judiciary) to seal the spaces and platforms traditionally used for public expressions / demonstrations of protest. The iconic projections of leaders in Gujarat and West Bengal (with government and media in collusion) only add to the potential of a Fascist hegemony.
This is the political context in which we need to propose a role for people’s culture. The concerted endeavour of a capitalist State, the corporate sector, the bureaucracy and the media to make the market forces determine everything has now chosen the cultural space as a major field of operation; operating initially and overtly through the injection of more money in the form of subsidies, grants and awards, and covertly by laying down ground rules for a safe, non-antagonistic, diffuse body of subjects, themes, and attitudes. Significantly enough, addressing the inauguration of the Natyamela, an annual festival of plays in West Bengal, the largest of its kind in India, the new West Bengal Chief Minister, stressed and directed the need for marketing theatre as of prime importance above its social, political or ethical values.

The valorization of the commercially oriented cinema and its song-and-dance subculture, upheld and propagated by the media and the academe (through its film studies programme) alike, offer the popular mass culture with its deeply ingrained philosophy of capitalist status quo, collaborationist values, as a people’s culture, and part of a standardized marketable culture.
All these factors, taken together, leave an organization like ours with the imperative of supporting and sustaining the local and regional people’s cultures, drawing on their historical roots and memories, and addressing the immediate concerns, both local and global (especially as they insidiously impinge on the local), and use these sources and productions to mobilize people’s consciousness in defence of democracy, civil rights and free speech, and socialist egalitarianism. At the same time, we need to create platforms and sites throughout the country where the local performative acts / voices can find points of convergence, sharing and dissemination, a revival in new terms of the IPTA festivals and peace festivals of the 50s. The cultural mobilization and the creative innovations of the cultural Left in the 50s in the face of the post-Word War II resurgence of aggressive imperialism offer a history to be reclaimed and revivified against a yet more consolidated imperialist drive riding roughshod over so many nations, including ours.
One of the reasons why the cultural upsurge of the 50s dissipated and dissolved and frittered away was the lack of a serious ideological engagement, a lacuna which has eaten into a lot of IPTA initiative in the past. Showmanship without a strong and clear ideological concern can be bought over and appropriated by the State-Capital nexus, which considers cultural production a soft and malleable sector that recently it has started treating under the ideologically charged category of ‘cultural industry’! The danger signs are only too obvious.

Wednesday, January 25, 2012

भारतीय जन नाट्य संघ का भिलाई घोषणा-पत्र

भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा)
13 वाँ राष्ट्रीय सम्मलेन
26-28 दिसम्बर, 2011, कमला प्रसाद नगर, भिलाई

भिलाई घोषणा-पत्र

26 से 28 दिसम्बर 2011 तक भिलाई में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन में पूरे देश से जुड़े जन संस्कृति के विविध आयामों के हम कलाकार भिलाई स्टील प्लांट जैसे सार्वजनिक क्षेत्र की सरज़मीं को सलाम करते हैं, जिसे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की रीढ़ तथा आधुनिक भारत के तीर्थ की संज्ञा देते थे. साथ ही हमारे लिए छत्तीसगढ़ की इस लोक संस्कृति, आदिवासी इतिहास एवं स्मृति से संपन्न इस धरती का और भी अधिक महत्व है क्योंकि हमारे सहयात्री प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर ने इस समूची लोक कला को नए प्रगतिशील मुहावरे में ढाल कर उसे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलायी. यह विडम्बना ही है कि कभी न बुझने वाली मुनाफे की भूख, हृदयहीन बाज़ार से संचालित, राज्य-पूंजी-मीडिया के गठबंधन से संरक्षित उदारवाद तथा आर्थिक सुधारों की घोषणा करता हुआ पूंजीवाद लगातार सार्वजनिक क्षेत्र, जन संस्कृति एवं हाशिये पर पड़े लोगों के अधिकारों को आक्रामक दैत्य की तरह रौंद रहा है.
इस समय सन्दर्भ में हाशिये पर पड़े लोगों, समुदायों के अधिकारों की रक्षा, समाजवाद, समानता तथा सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत लोगों के समर्थन में सांस्कृतिक वातावरण तैयार करने के लिए हम अपने पिछले सम्मेलनों के घोषणापत्रों में की गयी अपनी घोषणाओं को फिर से रेखांकित करते हैं और उन्हें विस्तारित करते हुए अपनी प्रतिबद्धताओं को निम्नवत दोहराते हैं:

1. जनरुचियों व दृष्टिकोण को व्यापक व परिष्कृत करते हुए देश की जनता को सभी रूढ़ियों तथा भय से मुक्त करना.
2. साम्राज्यवाद, पूंजीवाद द्वारा संचालित उपभोक्ता संस्कृति द्वारा जन-प्रतिरोध को कमज़ोर करने की साज़िश के खिलाफ़ जन-जागरण.
3. धर्म, जाति तथा हर तरह के वैमनस्य के खिलाफ़ सद्भाव को बढ़ावा देना.
4. मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं तथा सभी असंगठित कामगारों, अधिकारविहीन लोगों के संघर्षों में भागीदारी.
5. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर राज्य अथवा किसी भी रूढ़ीवादी प्रतिक्रयावादी संगठन के हमले की पुरज़ोर मुखालफत तथा सृजनशील अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता की रक्षा करना.
6. नए सृजनशील प्रोयोगों को हरसंभव बढ़ावा देना, कलाकारों को कलात्मक एवं तकनीकी कौशल से लैस करना, कला-भाषा और कार्यक्रमों को समृद्ध करते हुए उन्हें जन समुदाय की ज्यादा पहुँच के योग्य और ज्यादा सार्थक बनाना.
7. सभी क्षेत्रों व समुदायों के पारंपरिक कला रूपों की खोज, परिक्षण एवं संरक्षण के साथ-साथ इनके प्रति आयोजनात्मक नज़रिया रखते हुए लोक कलारूपों का नए सन्दर्भों में विकास.
8. बाजार संस्कृति से पूरी तरह प्रभावित व संचालित फिल्म व मीडिया में परिवर्तनकारी हस्तक्षेप. सोवियत, लैटिन अमरीकी तथा 60 से 70 के दशक की नयी धारा के सिनेमा तथा प्रगतिशील लघु वृत्तचित्रों की परंपरा को पुनर्जीवित करना. डिजिटल वृत्तचित्रों व लघुचित्रों के लिए विशेष कार्यशालाएं आयोजित करना.
9. अभिजन तथा लोकप्रिय के बीच की नकली दीवार तोड़ते हुए उनके बीच एक सेतु का निर्माण तथा आज के जटिल यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए सरल, सहज मुहावरे को तलाशना.
10. वैज्ञानिक चेतना के विकास एवं प्रसार के साथ समाज एवं कला के अंतर्संबंधों का इतिहासपरक एवं मार्क्सवादी विवेचन.
11. प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की महान विरासत को आगे ले जाना. जिसकी प्रगतिशील लेखक संघ के रूप में 1936 में स्थापना हुई. 
12. फैज़ अहमद फैज़, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, मजाज़ लखनवी, नागार्जुन, वामिक जौनपुरी, भगवती पाणिग्रही, विष्णु प्रभाकर, आशापूर्णा देवी, विष्णुप्रसाद राभा, मख्दूम मुहिउद्दीन, श्री श्री, ज्योतिरिन्द्र मैत्र, हेमांग विश्वास, के.के. हेब्बार, भुवनेश्वर, रामविलास शर्मा, देवव्रत विश्वास, अशोक कुमार, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, गोपाल सिंह ‘नेपाली’, डा० द्वारिकानाथ कोटनीस की जन्म शताब्दियों तथा रविन्द्रनाथ टैगोर की 150 वीं जयंती को मनाते नुए इन सभी की महान सृजनात्मक अभिव्यक्तियों व आदर्शों को आगे बढ़ाना तथा राष्ट्रगान को शतवार्षिकी पर राष्ट्र की संप्रभुता की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता दोहराना.
13. नये आक्रामक भूमंडलीय साम्राज्यवाद की ताकतों द्वारा कला में घुसपैठ और संस्कृति पर दबावों को चुनौती देना व उनके खिलाफ़ निरंतर संघर्ष करना, जो हमारे सबसे मानवीय सरोकारों और मूल्यों के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं.
14. वेबसाइट तथा ब्लोगिंग के ज़रिये केंद्रीय कार्यालय तथा हर स्तर की इकाइयों के बीच गहन अंतरसंवाद, सम्बन्ध व समन्वय विकसित करना.
15. आर्थिक, भाषायी, क्षेत्रीय तथा सांस्कृतिक बहुलताओं के बीच भारत की जनता की वृहत्तर एकता तथा जन अधिकारों व समाजवाद की रक्षा के लिए जन संस्कृतिकर्मियों का एक आवाज़ के साथ लगातार देशव्यापी संघर्ष व अभियान.

जन संस्कृति ज़िन्दाबाद!!!




INDIAN PEOPLE’S THEATRE ASSOCIATION (IPTA)
XIII NATIONAL CONFERENCE

26 – 28 DECEMBER, 2011 : KAMLA PRASAD NAGAR, BHILAI

BHILAI DECLARATION

Representatives of people’s culture in all its manifestations from all over India, meeting at the 13th National Conference of the Indian People’s Theatre Association (IPTA), 26 – 28 December, 2011, at Bhilai with its rich historical associations manifest in the Bhilai Steel Plant, the first monument of an agenda mooted by Prime Minister Jawaharlal Nehru for building a democratic, socialist economy by strengthening the public sector, on one hand; and the rich convergence of traditional folk culture, tribal history and memory, and progressive creativity, best achieved in the militant experimentation of our late lamented fellow activist Habib Tanveer, on the other hand; share a common concern over the threat to the secular, humanist, composite culture that has been the cherished heritage of the IPTA, spelt by the assault on these values by a profit-hungry, mercilessly market-driven aggressive capitalism, operating through a State-capital-media nexus vaunting the slogan of the liberal reforms, riding roughshod over the rights and sustenance of the underprivileged; and reiterate their firm commitment to a culture dedicated to the empowerment of humanity in its quest for Socialism, equality, and social justice; and drawing on, repeating with greater vigor the declaration of the earlier conference, and developing on them, resolve
To work through continuous exchange and sharing and mobilization among constituents and fellow activists in other likeminded organizations and similarly engaged individuals, and through their concerted creative endeavour:
1.      To broaden the perception and vision of people and emancipate them from all fears and prejudices;
2.      To spread awareness of the operation of the capitalist forces and consumerist drivers aimed at weakening people’s resistance;
3.      To ensure communal harmony among all denominations, religious or otherwise;
4.      To contribute to and engage in the struggle of the working classes, the marginalized tribal communities, women suffering from gender discrimination and persecution, the underprivileged and dispossessed;
5.      To resist all forms of censorship imposed by the State or other reactionary bodies and uphold the freedom of creative expression;
6.      To encourage and support creative experimentation and rigorous training in both artistic and technical skills and appreciation, to enrich the artistic vocabulary and repertoire and make it accessible meaningful to people;
7.      To discover, disseminate, archive, critically examine and analyze, revive, restore, develop and promote the traditional and folk idioms in every region and community in the country;
8.      To seek ways and means to intervene in film and media scene ruled by regressive, commercial values in the form of dissemination of film packages representative of the values projected by the Soviet and Latin American cinema, the Indian New Wave of the 19060s-70s, and the great tradition of the progressive documentary cinema, and workshops allowing activists access to digital filmmaking with a purpose;
9.      To break down the artificial divides between the elite and the popular and improvise bridges between the two; exploring the possibility of a simplicity in idiom and expression for the representation of the more complex realty confronting the people today;
10.  To carry the scientific temper and the Marxist approach into the study and practice of the arts and their relation to society; consistently related to the historical process;
11.  To carry forward the great legacy of Progressive Cultural Movement founded in 1936 in the name of Progressive Writers’ Association;
12.  To examine, imbibe and disseminate the great works of Faiz Ahmed Faiz, Kedarnath Agrawal, Shamsher Bahadur Singh, Majaz Lucknowavi, Nagarjun, Vamik Jaunpuri, Bhagavati Panigrahi, Vishnu Prabhakar, Aashapurna Devi, Vishnuprasad Rabha, Makhdoom Mohiuddin, Shree Shree, Jyotirindra Moitra, Hemango Biswas, K. K. Hebbar, Ramvilas Sharma, Debabrata Biswas, Ashok Kumar, Upendra Nath Ashq, Gopal Singh Nepali, Bhubhaneshwar, Dr. Dwarikanath Kotnis, whose centenaries we are celebrating, and Rabindranath Tagore, whose 150th birthday and the centenary of the national anthem that we owe to him are also being celebrated; and the values they embody;
13.  To critique, challenge and carry on a persistent struggle the inroads into the art and pressures that are being brought to bear upon culture by the forces of the new aggressive globalizing capitalism, endangering the survival of our most cherished human concerns and values;
14.  To improve the connections and coordination between the central office of the IPTA and all the units at every level through the development of an interactive website and blogging;
15.  To improvise, consolidate and pursue a comprehensive agenda towards achieving the maximum understanding, appreciation, and sharing of all the cultural expressions of the country by the people of India divided by economic, linguistic, territorial and cultural barriers; accomplishing in the process a cultural integration that can give the country a single voice in its assertion of the rights of the people and the undying hope of Socialism.

LONG LIVE PEOPLE’S CULTURE !

Monday, January 23, 2012

एक सितार की अकाल मृत्यु

विकास के मलबे में दबे एक सितार का राग

घने जंगलों व पहाडों से घिरा यह कस्बा हबीब तनवीर साहब को कुछ ज्यादा ही पसंद था, इसलिये जब कभी भी मौका मिलता वे यहां अपने परममित्र चुन्नीलाल डोंगरे जी के यहां चले आते। स्थानीय इप्टा इकाई के जनक डोंगरे जी हबीब साहब की खिदमत में तंदूरी मुर्ग पेश करने के अलावा बांसुरी की तान अथवा सितार के तार छेड़ते थे। अब न हबीब साहब हैं न डोंगरे जी। डोंगरे जी के सितार को खामोश हुए कोई 15 बरस से ज्यादा अरसा गुजर चुका है। तब से उनके सुपुत्र सुधीर डोंगरे इस सितार को उसी खामोशी के साथ संभाले हुए थे। कल यह सितार विकास के मलबे में दब कर चूर हो गया।
तनवीर साहब के साथ डोंगरे जी
मध्यप्रदेश के हरसूद से लेकर उड़ीसा के कलिंगनगर तक और महाराष्ट्र के जैतापुर से लेकर छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ तक विकास की कहानी एक ही है। यह गाथा लोगों को उजाड़ने, विस्थापित करने और तोड़-फोड़ के साथ ही प्रारंभ होती है। चूंकि हम एक सुसभ्य-लोकतांत्रिक राष्ट्र में रहते हैं इसीलिये हम अपनी सरकारें महज इसलिये चुनते हैं कि वे हमारा विकास कर सकें और वे बाज मौकों पर हमारा विकास करते भी हैं। अब ये बात अलहदा है कि हमारी सरकारें शायराना मिजाज में हमारी तरक्की तय करती हैं और हमें कहना पड़ता है कि,   ‘‘ वो बेदर्दी से सर काटें अमीर और मैं कहूं उनसे/हुजूर आहिस्ता-अहिस्ता, जनाब आहिस्ता-आहिस्ता।’’

लेकिन अपने मुल्क को चरागाह की तरह भारी-भरकम विदेशी कंपनियों के लिये खोल देने के बाद कोई सरकार विकास का कोई भी काम आहिस्ता-आहिस्ता करना कैसे बर्दाश्त कर सकती है? विकास की गाड़ी अपने मुल्क में सरपट दौड़ सके इसलिये सड़कों का चौड़ा होना जरूरी है। सड़कें चौड़ी करनी है तो लोगों का उजाड़ना होगा। उजाड़ते समय यह देखने की भी जरूरत नहीं है कि उजड़ने वाला बेजा कब्जे में है या अपनी मिल्कियत वाली जमीन पर। यदि आप अंबानी-मित्तल-माल्या नहीं हैं, तो उजड़ना आपके नसीब में बदा है। आप बेजा क़ब्ज़े में है तो बेमुआवज़ा और यदि बज़ा़ क़ब्जे़ में है तो बामुआवज़ा उजड़ेगें, पर उजड़ेगें जरूर।

एक समय इस कस्बे में कोयले वाले इंजिनों का धुआँ फलक पर तारी होता था। डोंगरे जी रेलवे में मजदूरों को उनकी बेहतरी के लिये इकट्ठा करते थे और बाहर समाज की बेहतरी के लिये थियेटर करते थे। लिखने से लेकर बांसुरी की तान व सितार के तार छेड़ने का काम इसी थियेटर के प्रति उनके कमिटमेंट का हिस्सा था। एक बार हँसते-हँसाते उन्होंने बताया था कि रेल के इंजिन के हॉर्न में निषाद होता और कभी-कभार वे अपनी बॉंसुरी को इसी से ‘ट्यून’ कर लेते हैं।
बांसुरी की तान छेड़ते डोंगरे जी
अब न वो रेल के इंजिन का धुआँ है, न बाँसुरी की तान है और न ही वो हॉर्न की आवाज है जो पाकीजा़ फिल्म के एक गाने में इंतिहाई सुरीली सुनाई पड़ती है। समय के साथ इस कस्बे की चमक भी फीकी पड़  गयी होती अगर यहां एक अदद पहाड़ी वाला मंदिर नहीं होता। इस मंदिर की घंटियों की खनक बीते दिनों में पूरे सूबे में सुनाई पड़ने लगी और देखते ही देखते यह छोटा-सा कस्बा -टूरिस्ट प्लेस हो गया जहां सड़कों का लकदक और चौड़ा होना लाजमी था। इस बात का जिक्र लोग बड़े गुमान से करने लगे और तब उन्हें अंदाजा नहीं था कि यही गुमान उनके घरों को तोड़ने वाला है। बकौल सुधीर सक्सेना:

हाथी के दुश्मन हो गए हाथी दाँत,
गेंडे के दुश्मन उसी के सींग,
हिरनों का बैरी हुआ उन्हीं का चर्म,
शेरों-बाघों की शत्रु उन्हीं की खाल और अवयव.
विषधर का शत्रु हुआ उसी का विष,
समूर की ज़ान का गाहक हुआ उसी का लोम,
इसी तरह
प्रेमियों की जान ली प्रेम ने
सुकरात को मारा सत्य ने,
ईसा को प्रेम ने,
और करूणा ने कृष्ण को
गाँधी को मारा गोडसे ने नहीं,
गाँधी के उदात्त ने.
नदी का शत्रु हुआ उसका प्रवाह,
पहाड़ को डसा ऊँचाई ने,
और वनों की देह छलनी की काठ ने.
इसी तरह
इसी तरह
आदमी के भीतर
आदमी को मारा
आदमी के गुमान ने?

इसी मलबे में कहीं दबा है सितार
लब्बो-लुआब यह कि कल जब प्रशासनिक अमला बुलडोजरों के साथ सड़क के किनारे घरों को रौंदने निकला था तो  डरे-सहमे बाशिंदे खुद ही अपने घरों को तोड़ने में लगे थे कि कम से कम माल-असबाब का नुकसान तो न हो। इन्हीं में से एक डोंगरे जी के  साहबजादे सुधीर भी थे जो एक-एक  ईंट जोड़कर बनाये अपने ही घर के एक हिस्से को तोड़ने में लगे थे ताकि सामने से विकास की चमचमाती हुई बहुत चौड़ी सड़क निकल सके। इस घर के साथ बहुत-सी यादें भी जुड़ी थीं। डोंगरे जी की भी और तनवीर साहब की भी। लेकिन प्रशासन शायरी से नहीं कानून से चलता है और कानून ने सुधीर को इतना  मौका नहीं दिया कि वह ऊपर के कमरे में रखे डोंगरे जी के सितार को बचा पाते। डोंगरे जी का सितार एक झटके में मलबे में दबकर चूर हो गया। कसे हुए तारों की चोट खाती-गुनगुनाती आवाज मैंने कई बार सुनी है पर एक बेआवाज सितार ने जब अपना दम तोड़ा होगा तो उसकी कराहती हुई आवाज कैसी रही होगी, इसका मुझे कोई अंदाजा नहीं है।

-दिनेश चौधरी


Saturday, January 21, 2012

तुमने सूखे हुए बेले भी कभी सूँघे हैं



































आज़ुर्दा -व्याकुल, उदास
मदावा- उपचार

Friday, January 20, 2012

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के खिलाफ एक अपील

आभासी सच गढ़ने की एक नापाक कोशिश


पिछले साल की तरह इस साल भी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों और प्रतिभागियों ने बरबाद हो रहे पर्यावरण, मानवाधिकारों के घिनौने उल्लंघन और इस आयोजन के कई प्रायोजकों द्वारा अंजाम दिए जा रहे भ्रष्टाचार के प्रति निंदनीय उदासीनता दिखाई है। 2011 में जब इन बातों पर चिंता व्यक्त करते हुए बयान दिए गए, तब फेस्टिवल-निदेशकों ने कहा था कि पहले किसी ने इस ओर हमारा ध्यान नहीं दिलाया था और अगर ये तथ्य सामने लाये जायेंगे तब हम ज़रूर उन पर ध्यान देंगे, लेकिन 2012 में भी उन्होंने ऐसा नहीं किया। 

फेस्टिवल के प्रायोजकों में से एक, बैंक ऑफ अमेरिका ने दिसंबर 2010 में यह घोषणा की थी कि वह विकिलीक्स को दान देने में अपनी सुविधाओं का उपयोग नहीं करने देगा। बैंक का बयान था कि 'बैंक मास्टरकार्ड, पेपाल, वीसा और अन्य के निर्णय को समर्थन करता है और वह विकिलीक्स की मदद के लिये किसी भी लेन-देन को रोकेगा'। क्या यह बस संयोग है कि रिलायंस उद्योग के मुकेश अम्बानी इस बैंक के निदेशकों में से हैं? फेस्टिवल में शामिल हो रहे लेखक और कवि क्या ऐसी हरकतों का समर्थन करते हैं? यह दुख की बात है कि विकिलीक्स की प्रशंसा करने वाले कुछ प्रतिष्ठित प्रकाशन और समाचार-पत्र भी इस बैंक के साथ इस आयोजन के सह-प्रायोजक हैं।

अमेरिका और इज़रायल जैसी वैश्विक शक्तियों के रवैये को दरकिनार करते हुए मई 2007 से लागू सांस्कृतिक विविधता पर संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा कहती है कि शब्दों और चित्रों के माध्यम से विचारों के खुले आदान-प्रदान के लिये आवश्यक अंतर्राष्ट्रीय कदम उठाये जाने चाहिए। विभिन्न संस्कृतियों को स्वयं को अभिव्यक्त करने और आने-जाने के लिये निर्बाध वातावरण की आवश्यकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, माध्यमों की बहुलता, बहुभाषात्मकता, कला तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान (डिजिटल स्वरूप सहित) तक समान पहुंच तथा अभिव्यक्ति और प्रसार के साधनों तक सभी संस्कृतियों की पहुंच ही सांस्कृतिक विविधता की गारंटी है।

यूनेस्को द्वारा 1980 में प्रकाशित मैकब्राइड रिपोर्ट में भी कहा गया है कि एक नई अंतर्राष्ट्रीय सूचना और संचार व्यवस्था की आवश्यकता है जिसमें इन्टरनेट के माध्यम से सिमटती भौगोलिक-राजनीतिक सीमाओं की स्थिति में एकतरफा सूचनाओं का खंडन किया जा सके और मानस-पटल को विस्तार दिया जा सके।

याद करें कि 27 जनवरी 1948 को पारित अमेरिकी सूचना और शैक्षणिक आदान-प्रदान कानून में कहा गया है कि 'सत्य एक शक्तिशाली हथियार हो सकता है'। जुलाई 2010 में अमेरिकी विदेशी सम्बन्ध सत्यापन कानून 1972 में किये गए संशोधन में अमेरिका ने अमेरिका, उसके लोगों और उसकी नीतियों से संबंधित वैसी किसी भी सूचना के अमेरिका की सीमा के अन्दर वितरित किए जाने पर पाबंदी लगा दी गयी है जिसे अमेरिका ने अपने राजनीतिक और रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये विदेश में बांटने के लिये तैयार किया हो। इस संशोधन से हमें सीखने की ज़रूरत है और इससे यह भी पता चलता है कि अमेरिकी सरकार के गैर-अमेरिकी नागरिकों से स्वस्थ सम्बन्ध नहीं हैं।

इस आयोजन को अमेरिकी सरकार की संस्था अमेरिकन सेंटर का सहयोग प्राप्त है। यह सवाल तो पूछा जाना चाहिए कि दुनिया के 132 देशों में 8000 से अधिक परमाणु हथियारों से लैस 702 अमेरिकी सैनिक ठिकाने क्यों बने हुए हैं? हम कोका कोला द्वारा इस आयोजन के प्रायोजित होने के विरुद्ध इसलिए हैं क्योंकि इस कंपनी ने केरल के प्लाचीमाड़ा और राजस्थान के कला डेरा सहित 52 सयंत्रों द्वारा भूजल का भयानक दोहन किया है जिस कारण इन संयंत्रों के आसपास रहने वाले लोगों को पानी के लिये अपने क्षेत्र से बाहर के साधनों पर आश्रित होना पड़ा है।

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की एक प्रायोजक रिओ टिंटो दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी खनन कंपनी है जिसका इतिहास फासीवादी और नस्लभेदी सरकारों से गठजोड़ का रहा है और इसके विरुद्ध मानवीय, श्रमिक और पर्यावरण से संबंधित अधिकारों के हनन के असंख्य मामले हैं। केन्द्रीय सतर्कता आयोग की जांच के अनुसार इस आयोजन की मुख्य प्रायोजक डीएससी लिमिटेड को घोटालों से भरे कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के दौरान 23 प्रतिशत अधिक दर पर ठेके दिए गए। 

हमें ऐसा लगता है कि ऐसी ताकतें साहित्यकारों को अपने साथ जोड़कर एक आभासी सच गढ़ना चाहती हैं ताकि उनकी ताकत बनी रहे. ऐसे प्रायोजकों की मिलीभगत से वह वर्तमान स्थिति बरकरार रहती है जिसमें लेखकों, कवियों और कलाकारों की रचनात्मक स्वतंत्रता पर अंकुश होता है। हमारा मानना है कि ऐसे अनैतिक और बेईमान धंधेबाजों द्वारा प्रायोजित साहित्यिक आयोजन एक फील गुड तमाशे के द्वारा 'सम्मोहन की कोशिश' है। 

हम संवेदनात्मक और बौद्धिक तौर पर वर्तमान और भावी पीढ़ी पर पूर्ण रूप से हावी होने के षड्यंत्र को लेकर चिंतित हैं। हम जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में शामिल होने का विचार रखने वाले लेखकों, कवियों और कलाकारों से आग्रह करते हैं कि वे कॉरपोरेट अपराध, जनमत बनाने के षड्यंत्रों, और मानवता के ख़िलाफ़ राज्य की हरकतों का विरोध करें तथा ऐसे दागी प्रायोजकों वाले आयोजन में हिस्सा न लें।

हस्ताक्षर
गोपाल कृष्ण, सिटिज़न फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज़, Mb: 9818089660, Email:krishna1715@gmail.com , प्रकाश के. रे, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय शोध-छात्र संगठन, Mb: 9873313315, E-mail-pkray11@gmail.com, अभिषेक श्रीवास्‍तव, स्‍वतंत्र पत्रकार, Mb: 8800114126, E-mail-guru.abhishek@gmail.com, शाह आलम,अवाम का सिनेमा, Mb: 9873672153 E-mail -shahalampost@gmail.com


मीडिया खबर से साभार

क्रिकेट का करकट


भारत में जितनी चर्चा क्रिकेट की लोकप्रियता की होती है, उसका सहस्रांश भी उसके कारणों की समीक्षा पर खर्च नहीं होता. जैसे मान लिया गया है कि क्रिकेट हमारे खून में है. एक नामी-गिरामी संपादक जो सती प्रथा और क्रिकेट का एकसमान गुणगान करते थे, हाल ही में ‘क्रिकेट-क्रिकेट’ भजते दिवंगत हुए. लोग उनके क्रिकेट-बोध पर फिदा थे, वे खुद देश की सती प्रथा पर. भगवान यदि लापता नहीं है तो उनकी आत्मा को शांति बख्शे. श्रीमान जाते-जाते भी बता गए कि लोग सचिन तेंदुलकर की कामयाबी का राज नाहक उनकी मेहनत और कलाइयों की उस करामात में ढूंढते हैं, जो बल्ले को ऐसे घुमाती हैं कि गेंद सीधी मैदान बाहर सांस लेती है. उनकी माने तो यह सब सचिन के ब्राह्मण होने का प्रताप है. गोया दुनिया के जितने भी बल्लेबाज हैं, गैरी सोबर्स से लेकर डेनिस लिली तक, सबके सब ब्राह्मण की औरस-जात हों.


‘उनने’ भी जितने ‘कागद’ सचिन की महानता का गुणगान करने के लिए ‘कारे’ किए, उसका शतांश भी क्रिकेट की लोकप्रियता के कारणों की पड़ताल पर जाया नहीं किया. क्या वे नहीं जानते थे कि क्रिकेट कोरा खेल न होकर समाज पर पूंजीवादी बाजार का शिकंजा है! सस्ता मनोरंजन है, जिसे नकली देशभक्ति की थाली में सजाकर परोसा जाता है. एक मोहपाश है जो देश के करोड़ों लोगों को भरमाए रखता है! ऎसा खेल जो सीधे-सादे लोगों को इलीट होने का झूठा एहसास देता है. क्या वे नहीं जानते थे कि फिल्मों की भांति क्रिकेट ने भी देश को नकली नायक ही दिए हैं, जो खेलने के अलावा बाजार की मांग पर नाच-गा सकते हैं. बल्कि वे क्रिकेट में जाते ही इसलिए हैं कि बाजार की आंखों के चांद-तारे बन सकें. देशभक्ति उनके लिए, बाजार और विज्ञापन-जगत के लिए महज एक धंधा है.


यह बाजार और उसका स्वार्थ ही है जो अभिताभ बच्चन को सदी का महानायक और सचिन तेंदुलकर को महान बल्लेबाज लिखता है. ‘महान’ शब्द को कितना छोटा बना दिया है इन्होंने. अगर अभिताभ सदी के महानायक हैं, तब भगत सिंह क्या थे! महात्मा गांधी से उनका दर्जा क्यों नहीं छीन लेना चाहिए? यदि इन्हें महान मान जाए तो वैशाली की नगरवधु आम्रपाली को केवल ‘कुशल’ नृत्यांगना कहकर कैसे निपटा सकते हैं! उसे तो भारतीय इतिहास की महादेवी की पदवी मिल ही जानी चाहिए. नचनियों को नायक बनाकर पेश करना लुटेरी बाजारवादी सभ्यता में ही संभव है. इसलिए बाजार में सवाल नहीं उठाए जाते. बाजार चाहता भी यही है कि लोग विज्ञापन के तानपुरे पर केवल गर्दन हिलाएं. अर्थों की खोज की हिमाकत न करें. बात पर कान दें, ध्यान हरगिज न दें.


पिछले दिनों क्रिकेट टीम में छोटे शहरों के कई खिलाड़ी लिए गए. इस बात का बहुत शोर मचाया गया कि छोटे शहरों से भी क्रिकेट की प्रतिभाएं उभर रही हैं. इस सबके पीछे विज्ञापनदाता कंपनियों की सोची-समझी रणनीति थी. सब जानते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां शहरों को निचोड़ चुकी हैं. रीयल ऐस्टेट और दूर संचार कंपनियां जो ऐसे मैचों के प्रमुख प्रायोजक की भूमिका निभाती हैं, सहस्राब्दि की शुरुआत से ही भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बाजार की संभावनाएं तलाश की रही थीं. उनके निशाने पर छोटे शहर और गांव थे. उनके सुरसामुखी विस्तार के लिए अकेले सचिन का शहरी और उम्रदराज चेहरा काफी नहीं था. इसलिए धोनी को लाया गया. रैना जैसे नए चेहरे लिए गए. टीम का कप्तान बनने के बाद धोनी के खेल में गिरावट आई थी. फिर भी बाजार ने संभाले रखा. किसी न किसी तरह उनके नायकत्व को बनाए रखा गया. इसलिए कि उसकी जितनी धोनी को थी, उतनी ही मीडिया को भी थी. उन कंपनियों को भी थी जो धोनी के ऊपर करोड़ों का दाव लगा चुकी थीं.


इस बात का दावा खूब बढ़-चढ़कर किया जाता है कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड क्रिकेट की दुनिया की सबसे धनी संस्था है. मगर यह सवाल कोई नहीं उठाता कि एक गरीब देश का क्रिकेट बोर्ड दुनिया का सबसे मालदार क्रिकेट बोर्ड कैसे बना. हमारा आधुनिकताबोध, समकालीनताबोध क्रिकेटबोध से ऐसा जुड़ा है, कि कोई अलग नहीं होना चाहता. यहां तक कि हम इससे बाहर झांकना तक नहीं चाहते. कितने लोग जानते हैं कि क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड एक प्राइवेट संस्था है; और जिसे हम भारतीय क्रिकेट टीम कहते हैं, वह दरअसल भारतीयों की टीम है! असल में वे ऎसे चेहरें हैं जिनकी विज्ञापन जगत को आवश्यकता है. फिर भी भारत-पाकिस्तान का मैच हो तो नकली देशभक्ति जुनून ऐसा उमड़ता है कि दंगों जैसे हालात पैदा हो जाते हैं. दर्शकों की भावुकता और उनके जुनून को भुनाने वाला मीडिया हमें यह कभी नहीं बताता कि क्यों अमेरिका में क्रिकेट नहीं खेला जाता. ओलंपिक में सबसे अधिक मेडल जीतने वाले चीन और जापान को क्रिकेट के नाम पर इतना परहेज क्यों है? आस्ट्रेलिया को छोड़कर वही देश इस खेल में आगे क्यों हैं, जिनकी अपनी समस्याएं बेशुमार हैं? क्या कारण है कि क्रिकेट का खेल पश्चिमी देशों में जहां यह जन्मा, वहां निरंतर कम होता जा रहा है. आस्ट्रेलिया, इंग्लेंड जैसे देशों में भी हमारे यहां से कम क्रिकेट खेली जाती है. जबकि एशिया महाद्वीप में बिना क्रिकेट के आप कल्पना भी नहीं कर सकते.


कारणों की पड़ताल के लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा. सत्तर का दशक भारतीय अर्थव्यवस्था में परिवर्तन और नए औद्योगिक घरानों और कारखानों के उभार का भी दशक था. राजनीतिक उथल-पुथल के उस दौर में पूंजीवाद समाज और शासन पर अपनी पकड़ बनाता जा रहा था. तेजी से बढ़ते कारखानों को अपने नए उत्पादों के लिए आकर्षक चेहरे-मोहरे वाले मा॓डल्स की तलाश हमेशा रहती है. उससे पहले वे नायक फिल्मों और टेलीविजन से आते थे. किंतु शिक्षा के प्रसार के साथ देश का आम दर्शक-श्रोता भी जानने लगा था कि फिल्मी अभिनेताओं का नायकत्व झूठा है. सेलुलाइड की चमक-दमक नकली और अस्थायी है. सिवाय शारीरिक सौष्ठव के फिल्मी नायक-नायिकाओं की बहादुरी, उनकी कला-प्रवीणता, यहां तक कि उनकी आवाज भी उनकी अपनी नहीं है. बहादुरी के लिए उनके डुप्लीकेट्स हैं, जिनके नाम तक नहीं लिए जाते. गीतों के सुरीले बोल पार्श्व गायकों के गले से आते हैं. इसलिए उत्पादों की बढ़ती संख्या को बाजार में लोकप्रिय बनाने, उनके लिए बड़ा उपभोक्तावर्ग पैदा करने के लिए उन्हें ऐसे नायकों की जरूरत थी, जिनका नायकत्व असली-सा जान पड़े. जिनके माध्यम से वे दर्शकों के हुजूम को अपने विज्ञापन परोस सकें. ऐसे चेहरों की तलाश के लिए विज्ञापन जगत का ध्यान खेलों की ओर गया, जहां सारा का सारा दारोमदार खिलाड़ियों के कौशल पर निर्भर करता है. खेलों में भी क्रिकेट उन्हें सर्वाधिक अनुकूल लगा.


सवाल है कि क्रिकेट का कौन-सा गुण उसको लोकप्रिय बनाता है. जिससे दूसरे खेलों के दर्शक उसकी ओर खिंचे चले आते हैं? चार-पांच दशक पहले तक इस देश का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल हाकी था. वही देशभक्ति और राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान था. उसके बरक्स क्रिकेट अंग्रेजों और उनके मुंह लगे सामंतों का खेल था. आजादी के बाद स्थिति बदली. विकास की ओर अग्रसर देश में मध्यवर्ग का तेजी से विकास हुआ, जो खुद को अंग्रेजियत के करीब रखने में गर्व का अनुभव करता था. इस मामले में बाजी क्रिकेट के हाथ थी, क्योंकि उसकी सारी की सारी शब्दावली, खिलाड़ियों की वेशभूषा, खासतौर पर टोपी अंग्रेजियत को उनके एकदम पास ले आती थी. दूसरे इस खेल में नफासत भी थी. आपको बस खड़े-खड़े बल्ला चलाना है. गेंद फेंकने, उठाकर लाने के लिए दूसरे खिलाड़ी हैं. एकदम सामंती अंदाज. खेल में हालांकि गेंदबाज की भी भूमिका होती है. मगर वह दोयम दर्जे की, जैसे परिवार में स्त्री. दूसरे हाकी खेलने के लिए जो दम-खम चाहिए वह शहरी परिवेश में सर्वसुलभ नहीं था. उसके अधिकांश खिलाड़ी ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते थे. क्रिकेट में शहरीयत के अलावा इतनी सहजता भी थी कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी रनों और ओवरों का हिसाब लगा सकता है. यानी क्रिकेट इस देश के तेजी से उभरते हुए मध्यवर्ग को जो आधुनिकताबोध दे सकता है, वह हाकी नहीं दे सकती. हालांकि क्रिकेट की भांति उसमें भी मास अपील यानी दर्शकों को अपनी ओर खींचने का सामर्थ्य था. मगर कुछ तकनीकी कारण भी रहे, जिनके चलते हाकी विज्ञापन जगत के लिए बहुत उपयोगी नहीं थी.


हाकी और फुटबाल जैसे खेलों की पारियां अपेक्षाकृत कम समय तक चलती हैं. उनके खेल में अत्यधिक तेजी और निरंतरता होती है. दर्शक गेंद का पीछा करते खिलाड़ियों को केवल सांसें थामकर देख सकता है. वह खिलाड़ियों के कौशल से रोमांचित हो सकता है. मगर उस खेल का खुद हिस्सा बन जाने, टीका-टिप्पणी करने अवसर उसके पास नहीं होता. तेजी से चलते मैच के बीच विज्ञापनों की घुसपैठ भी आसान नहीं है. दूसरी ओर क्रिकेट में हर ओवर के बाद खिलाड़ी अपना स्थान बदलते हैं. बल्ला लगते ही गेंद मैदान के बाहर चली जाए तो खिलाड़ी को दौड़ना भी पड़ता है. इस अंतराल में दर्शक को खेल और खिलाड़ी के बारे में सोचने का अवसर मिल जाता है. वह अपने पसंदीदा खिलाड़ी की प्रशंसा या आलोचना कर सकता है. खुद को उस अवस्था में रखकर सोच सकता है. यही क्षण मीडिया और विज्ञापनदाताओं के काम के होते हैं. इस अंतराल का उपयोग वे दर्शक-श्रोता के मानस पर अपने उत्पाद की पकड़ जमाने के लिए करते हैं.


हाकी और फुटबाल जैसे तीव्र गति खेलों में जब तक गेंद और गोल के बीच दूरी हो, रोमांच बना ही रहता है. उसके बीच से दर्शकों को अपने उत्पाद तक खींच कर ले जाना आसान नहीं होता. जबकि क्रिकेट के खेल में रोमांच के अवसर बीच-बीच में आते ही रहते हैं, जिसका फायदा दर्शकों को खेल से जोड़े रखने के लिए बाखूबी किया जा सकता है. क्रिकेट की लोकप्रियता का एक और कारण यह है कि हाकी और फुटबाल जैसे खेलों में जहां खिलाड़ी का अपना दमखम ज्यादा चलता है, वहीं क्रिकेट संयोगों का खेल है. यह खिलाड़ी के कौशल के अतिरिक्त चांस पर भी निर्भर होता है. यहां मंजा हुआ खिलाड़ी पहली ही बा॓ल पर आउट हो सकता है, तो एकदम नया-नया आया खिलाड़ी पहले ही मैच को शतकीय पारी में बदल सकता है. थोड़ी कड़वी भाषा का इस्तेमाल करें तो क्रिकेट भी टेलीविजन पर खेले जा रहे अनेक जुओं में से एक है. संयोग और अवसर हालांकि दूसरे खेलों में भी चलते हैं, मगर क्रिकेट का पूरा खेल इसी पर निर्भर करता है, यही कारण है कि शाहरुख जैसे पेशेवर अभिनेता भी क्रिकेट की ओर आकर्षित होते हैं तथा लीग मैचों में अपनी टीम की पराजय के बावजूद मोटी कमाई कर जाते हैं. वस्तुत: इस देश में क्रिकेट और कुकरमुत्ते की तरह जगह-जगह उगते कथावाचक ऐसे माध्यम हैं, जो आदमी का मन भरमाए रखते हैं. उसे उसकी दुर्दशा के बारे में सोचने और उसके कारणों की तह में जाने नहीं देते. इनकी आड़ में राजनीतिक ढुलमुलापन, नेताओं का झूठ और भ्रष्टाचार, अधिकारियों का नाकारापन और आम आदमी का भाग्यवाद सब खप जाते हैं.


ओमप्रकाश कश्यप