Thursday, March 29, 2012

अंदाजे बयां और

जगजीत-गुलज़ार का अंदाजे बयां और...
-पवन झा

"पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है, कोई ये बतलाए कि हम बतलायें क्या?"

दूरदर्शन के लिये गुलज़ार कृत धारावाहिक ’मिर्ज़ा ग़ालिब’ एक पूरी पीढ़ी के लिये ग़ालिब का डॉक्युमेन्टेशन है. आज के समय में ग़ालिब की जितनी चर्चा है, और आज की पीढ़ी ग़ालिब को जितना जानती है, उसका बहुत कुछ श्रेय धारावाहिक को दिया जा सकता है. धारावाहिक के साथ जगजीत-चित्रा के स्वरों में इसका संगीत एलबम भी पिछले 20-25 साल के सबसे लोकप्रिय गैर फ़िल्मी एलबम्स में रहा है.



इस दौर में ग़ालिब को फिर से ज़िंदा करने वाले दो कलाकार, जगजीत सिंह और गुलज़ार पिछले वर्ष मिर्ज़ा ग़ालिब-2 एलबम की परिकल्पना पर काम कर ही रहे थे, कि जगजीत सिंह के निधन से प्रोजेक्ट अधूरा रह गया.’तेरा बयान ग़ालिब’, एक श्रद्धांजलि है मिर्ज़ा ग़ालिब के साथ, जगजीत सिंह को भी. ये ’कॉन्सेप्ट एलबम’ एक कोलाज है जिसमें ग़ालिब के ख़त, ग़ज़लें और नज़्म शामिल हैं.ख़त गुलज़ार की आवाज़ में हैं और नज़्में और ग़ज़ल जगजीत सिंह की आवाज़ में.

ग़ालिब के ख़त जो अपने ज़माने में उन्होने अपने मित्रों, साथी शायरों, और शिष्यों को लिखे और उस दौर के साक्षी बने और आज एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और साहित्यिक दस्तावेज़ हैं. उस दौर का आईना भी.
रंगमंच के प्रख्यात लेखक-निर्देशक सलीम आरिफ़ ग़ालिब के खतों को मंच पे पेश करते आये हैं अपनी प्रस्तुति ’ग़ालिबनामा’ में. ’तेरा बयान ग़ालिब’ की भी परिकल्पना और निर्देशन सलीम आरिफ़ का है.

एलबम की शुरुआत गुलज़ार की जगजीत सिंह को समर्पित नज़्म ’एक आवाज़ की बौछार था वो’ से होती है.
गायक-संगीतकार जगजीत सिंह और शायर गुलज़ार की जोड़ी बरसों से सुनने वालों को बहुत से अनमोल एलबम्स देती आयी है. उनकी घनिष्ठता, तालमेल और एक दूसरे के माध्यम की समझ उन दोनो के काम को एक अलग आयाम देती है.

जगजीत सिंह के व्यक्तित्व और गायकी के विशिष्ट पहलुओं को गुलज़ार ने अपने शब्दों में बहुत खूबसूरती से बांधा है."गली क़ासिम से एक ग़ज़ल की झनकार था वो/एक आवाज़ की बौछार था वो". अपने साथी कलाकार को एक सच्ची श्रद्धांजलि है ’एक आवाज़ की बौछार था वो’.

श्रद्धांजलि के बाद ग़ालिब की शायरी, गुलज़ार की आवाज़ और जगजीत सिंह के स्वरों का एक रेला सा आता है जो सुनने वालों को अपने बहाव में बहा ले जाता है. जगजीत ’नक़्श फ़रियादी है’ से शुरुआत करते हैं तो गुलज़ार ’मेहरबां होके बुला लो मुझे’ से ग़ालिब के परिचय उनके शेरों के माध्यम से देते हैं.

खतों का सिलसिला शुरु होता है तो ग़ालिब के दौर का बयान बन जाता है. ग़ालिब के जीवन का वृतांत, उस दौर की घटनाएं, उनका दर्शन, उनके रिश्ते, उनके शौक, उनके दर्द, उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर, खतों के अल्फ़ाज़ में उभर कर खूबसूरती से सामने आते जाते हैं और उनके व्यक्तित्व के कई पहलुओं से रूबरू कराते हैं.

खतों के साथ जगजीत के स्वरों में ग़ालिब के अशार, ग़ज़लें और नज़्में बहुत बेहतर ढंग से पिरोई गई हैं. खास बात ये कि ग़ालिब के खतों में वर्णित घटनाओं के साथ पिरोये गये शेर और नज़्में ग़ालिब की रचनात्मक्ता को नए अंदाज़ में प्रस्तुत करती हैं कि ग़ालिब ने कोई नज़्म किस अवस्था से गुज़रते हुए कही होगी. कहीं उर्दू ज़बान पे बात है, कहीं दिल्ली दरबार में मुशायरे का ज़िक्र, कहीं ग़ुलामी के दौर का चित्र है, कहीं भारी कर्ज़ के बोझ के बावज़ूद बेफ़िक्री का आलम और कहीं एक के बाद एक सात बच्चों को अपनी आँखों के सामने खोने का दर्द.

ग़ालिब के व्यकित्त्व के जो पहलू उनहें अन्य कलाकारों से अलग करते हैं वो उनके खतों में, गुलज़ार के स्वरों में बखूबी उभर के आये हैं. इससे पहले ज़िया मोईउद्दीन ने भी ऑडियो में ग़ालिब के खुतूत पेश किये हैं एक पेशेवर अदाकार की तरह जो बहुत लोकप्रिय हुए हैं, लेकिन यहां गुलज़ार ये खत एक अदाकार के बजाय अपने अन्दर बसे ग़ालिब की ज़बानी बयां करते नज़र आते हैं. अपने स्वरों में ग़ुलज़ार ने यहां ग़ालिब को जिया है.

जगजीत ने धारावाहिक में अपने स्वरों से मिर्ज़ा ग़ालिब को एक अलग अंदाज़ दिया था. यहां इस एलबम में धारवाहिक की मूल एलबम की कुछ नज़्में तो शामिल की ही गई हैं जैसे ’हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है’, ’वो फ़िराक़ और वो विसाल कहां’, ’दोस्त ग़मखारी में मेरी’, ’वो फ़िराक़ और वो विसाल कहां’, ’कासिद के आते-२ ही’, ’कब से हूं क्या बताऊं’, लेकिन उस धारावाहिक के जगजीत के स्वरों में बहुत से अंश मूल एलबम में शामिल नहीं थे, उनको इस एलबम में खूबसूरती से सलीम आरिफ़ ने समाहित किया गया है.

कुल मिला कर ’तेरा बयान ग़ालिब’ एक महत्वपूर्ण एलबम है, साहित्यिक श्रोताओं के लिये, ग़ालिब, गुलज़ार और जगजीत सिंह के प्रशंसकों के लिए. अगर आप गंभीर और सृजनात्मक संगीत में रुचि रखते हैं तो ’तेरा बयान ग़ालिब’ आपके लिये है और जिस तरह से टी.वी. और होम वीडियो पर ’मिर्ज़ा ग़ालिब’ आज तक देखा सुना जाता है, ग़ालिब के बयां का ये अंदाज़ भी, सलीम आरिफ़, गुलज़ार और जगजीत सिंह के इस एलबम की शक्ल में आने वाले समय में ग़ालिब का एक महत्वपूर्ण ’डॉक्यूमेन्टेशन’ साबित होगा इसमें दो राय नहीं है.

बीबीसी हिंदी से साभार

विश्व रंगमंच दिवस-5 : जारी है नाटकों, बैठकों व संदेशों का सिलसिला

विश्व रंगमंच दिवस पर देश के विभिन्न भागों में होने वाले आयोजनों की खबरों का सिलसिला लगातार जारी है। छत्तीसगढ़ के रायपुर व राजस्थान के अलवर में जहां गोष्ठियां हुईं वहीं भिलाई व जयपुर में नाटक खेले गये। इस अवसर पर शुभकामना संदेशों का सिलसिला भी जारी है। यहां पर कुछ समाचार व कुछ संदेश:

छत्तीसगढ़
27 मार्च। रायपुर में विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर कुछ युवा मित्रों की एक अनौपचारिक बैठक में रंगमंच से जुड़े विषयों पर चर्चा हुई....रायपुर में लगातार कम होती जा रहे मंचन को लेकर एक अच्छी चर्चा हुई और इसमें युवा लोगों को जोड़ने के अद्देश्य से एक कार्य योजना का मसौदा तैयार किया गया जिसमें आने वाली छुट्टियों में एक शिविर और कार्यशाला के आयोजन की रूपरेखा पर विचार किया गया।
भिलाई इप्टा भिलाई द्वारा विश्व रंगमंच दिवस पर शरीफ अहमद को समर्पित नाटक "जलेबियाँ" और "मंथन"के मंचन नेहरु सांस्कृतिक भवन के मुख्य सभागार में मानचित किये गए. इसके पूर्व कार्यक्रम की शुरुआत में इप्टा के युवा कलाकारों ने नेहरु हाउस परिसर में एक नुक्कड़ नाटक "क्या हम मनुष्य हैं" का नुक्कड़ प्रदर्शन किया. इस अवसर पर वर्त्तमान समय में रंगकर्मियों की भूमिका पर चर्चा एवं विश्व रंगमंच दिवस पर जारी सन्देश का वाचन भी किया गया.इप्टा ने भिलाई की अन्य नाट्य संस्थाओं को भी शामिल कर इस आयोजन को विस्तृत रूप दिया.

भिलाई इप्टा के नाटक का एक दृश्य

 
राजस्थान
उधर राजस्थान  इप्टा द्वारा 27 मार्च 2012 को विश्व रंगमंच दिवस पर निम्न आयोजन किये गए।
सवाई माधोपुर इप्टा द्वारा प्रसिद्ध संगीतकार श्री सीताराम राव के गायन का कार्यक्रम रखा गया एवं उन्हें सम्मरनित किया गया। अलवर इप्टा द्वारा एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया तथा जयपुर इप्टा द्वारा एक नाटक का मंचन व गीतों का आयोजन किया गया जिसकी विस्तृत रपट आप "इप्टानामा" में ही देख सकते हैं।

सवाई माधोपुर की संगीत सभा
और कुछ संदेश...

Congratulations on 50th World Theatre Day!
                                             
- M.Adhiraman,Puducherry

नाट्य आन्दोलन में नयी जान आये -नया तूफ़ान आये!शुभकामनायें !
                                               
प्रो.शम्भुनाथ,कोलकाता    

जागतिक रंगभूमि दिन्याचा हार्दिक शुभेच्छा !
                                           
  - रवीन्द्र देवधर,पुणे 

रंगमंच में ज़िन्दगी के अनेक रंग  झलकते हैं और दुनिया में रंग भरने के राज़ भी
Happy World Theatre Day!
                                             
 -शैली सत्यु,मुंबई 

हमारा रंगमंच मनुष्य के आत्मिक और भौतिक संघर्ष को अभिव्यक्त करने में सक्षम हो !
                                               
-परवेज़ अख्तर ,पटना 

Celebrate the World Theatre Day with the proud of being a theatre personality..
                                                 
-Sanjay Vidrohi,Jaipur 


और इनकी भी बधाई -सुलभा आर्य ,रमेश राजहंस ,रमेश तलवार ,फारुख शेख,उद्भ्रांत, निवेदिता बौंथियल,संतोष डे ,पार्थो सेन ,बलकार सिद्धू आदि...   



विश्व रंगमंच दिवस-4: बीकानेर में तिल का ताड़

तिल का ताड़

बीकानेर 27 मार्च । केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी के सहयोग से संकल्प
नाट्य समिति द्वारा स्थानीय टाऊन हाल में शंकर शेष के नाटक "तिल का ताड़"
का प्रभावी मंचन वरिष्ठ रंग निर्देशक आनंद वी. आचार्य के निर्देशन में
किया गया । महानगरों में अविवाहितों के लिये मकान किराये पर लेने में
आने वाली समस्याओं के माध्यम से समाज में व्याप्त अव्यवस्थाओं तथा मानवीय
चऱि़त्रो की कमजोरियों को हास्य व्यंग्य की शैली में मनोरंजक तरीके से
कहा गया । नाटक मंजू एवं प्राणनाथ के माध्यम से मानवीय संबधों में आ रही
गिरावट, दहेज रूपी लोलुपता तथा चारित्रिक पतन को भी गहराई के साथ कहता
रहा । चुटीले संवादो पर जंहा टाउन हाल दर्शकों के ठहाकों से गूंजता रहा
वंही स्त्रियों के प्रति पुरूषों की लम्पटता पर गंभीर भी होता नजर आया।
गंभीर कथानक को व्यंग्य की शैली में प्रस्तुत इस नाटक को दर्शको ने काफी
पसंद किया । इस अवसर पर कलाकारों को स्मृति चिन्ह प्रदान कर सम्मानित
किया गया

मंच पर मैजूद रहे कलाकार  माधुरी कौशिक,रामसहाय हर्ष,अशोक जोशी,भुवनेश
स्वामी,जयमयूर टाक,प्रमोद चमोली,नवनीत नारायण व्यास तथा सुमित व्यास ने
प्रभावी अभिनय किया

पार्श्व संगीत प्रभाव- आलोक सोनी,प्रकाश प्रभाव- फणीश्वर खत्री,मंच
सज्जा- गजेन्द्र भाटी,वस्त्र सज्जा -जयकिशन केशवानी, रूप सज्जा -शिव कुमार
सेन तथा प्रस्तुति नियंत्रक सुरेश हिन्दुस्तानी थे । प्रर्दशन प्रभारी
विघासागर आचार्य ने बताया कि इस नाटक के आगामी मंचन भी किये जायेगें ।

विश्व रंगमंच दिवस-3: मंडी में रंगकर्म की समस्याओं पर चर्चा

अनुदानों की बंदरबांट का प्रश्न

मंडी (हिमाचल प्रदेश)। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की मंडी इकाई ने विश्व रंगमंच दिवस पर एक वार्ता का आयोजन किया जिसमें नगर के कुछ अन्य सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया।

प्रतिभागियों ने इलाके में रंगकर्म से संबंधित गतिविधियों को प्रोत्साहन देने के लिये विभिन्न उपायो-माध्यमों की चर्चा की। इस बात पर चिंता व्यक्त की गयी कि मंडी नगर के एक अत्यंत प्राचीन नगर होने के बावजूद यहां पर एक अदद प्रेक्षागृह नहीं है। इस बात पर भी खेद व्यक्त किया गया कि मुख्य डाकघर दरबार हॉल परिसर को भी संग्रहालय अथवा प्रेक्षागृह के रूप में उपयोग में नहीं लाया जा सका है।



पत्रकार श्री विनोद भावुक ने कहा कि रंगकर्मियों को एकजुट होकर सड़कों पर उतर आना चाहिये और अपनी मांगों के लिये संघर्ष का सूत्रपात करना चाहिये। उन्होंने कहा कि कलाकारों को भ्रष्टाचार के विरूद्ध भी संघर्ष करना चाहिये, खासतौर पर उन विभागों के विरूद्ध जिन पर कला व संस्कृति के संवर्द्धन व संरक्षण का दायित्व है पर जो राजनीतिक प्रतिबद्धता के आधार पर अनुदानों की बंदरबाँट करते हैं और इस तरह का पक्षपात संस्कृति मंत्रालय में भी देखा जा सकता है।



स्थानीय संगठन प्रयास कला परिषद के अध्यक्ष श्री रूप उपाध्याय ने संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए कहा कि रंगमंच के कलाकारों ने लोगों से एक दूरी बना ली है और इसीलिये ही उन्होंने आमजनों की सहानुभूति खो दी है। उन्होंने जोर दिया कि कलाकारों को लोगों के सरोकारों व कठिनाइयों से जुड़ा हुआ होना चाहिये और जो कुछ भी अपने आस-पास घटित हो रहा है उससे कटा हुआ न रहकर, उन घटनाओं का संज्ञान लेना चाहिये व उन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिये।
एडवोकेट समीर कश्यप ने मंडी नगर पालिका की इस बात के लिये कड़ी भर्त्सना की कि उसने 23 मार्च को एक स्थानीय समिति से शहीद दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम के लिये भी पैसे वसूल लिये। उन्होंने कहा कि पालिका का यह कृत्य कतई आवश्यक नहीं था।
एडवोकेट समीर कश्यप ने मंडी नगर पालिका की इस बात के लिये कड़ी भर्त्सना की कि उसने 23 मार्च को एक स्थानीय समिति से शहीद दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम के लिये भी पैसे वसूल लिये। उन्होंने कहा कि पालिका का यह कृत्य कतई आवश्यक नहीं था।



कार्यक्रम के संयोजक इप्टा के लवन ठाकुर ने रंगकर्मियों-कलाकारों को गोलबंद होने का आह्वान करते हुए कहा कि राज्य के अन्य हिस्सों में भी रंगकर्म को बढ़ावा देने के लिये एक कार्य-योजना तैयार की जानी चाहिये। इस अवसर पर रूपेश्वरी, हेमलता, सरिता हांडा, भूपरेंदर सिंग, नितीश चौहान, प्रकाश चंद, मंजीत मन्ना, दीपक मट्टू, समीर कश्यप, प्रवेश कुमार व नवीन चितरंजन ने भी अपने विचार व्यक्त किये।

विश्व रंगमंच दिवस-2: आगरा में रंगमंच के सिद्धांतों पर चर्चा


नाट्य शास्त्र को एक परंपरा की
तरह लिया जाना चाहिये

आगरा। विश्व रंगमंच दिवस पर भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की आगरा इकाई द्वारा आयोजित वार्ता में इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव श्री जितेन्द्र रघुवंशी ने भरत मुनि, स्तानिस्लावस्की एवं बर्तोल्त ब्रेख्त के रंगमंच सिद्धांतों की सामाजिक उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि दर्शकों की भावनाओं को सामाजिक मुद्दों के अनुरूप प्रस्तुत करना ही एक अभिनेता का उत्तरदायित्व है।


कवियत्री डॉ. शशि तिवारी ने कहा कि भरत मुनि के नाट्य शास्त्र को महज एक शास्त्र की तरह नहीं बल्कि एक परंपरा, एक स्कूल की तरह लिया जाना चाहिये, जो आज के रंगकर्म के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत आवश्यक है।
साहित्यकार राजेन्द्र मिलन ने वर्तमान पुस्तकों में उद्धृत सामाजिक बदलावों के चित्रण को विश्लेषित किया। अपने अध्यक्षीय भाषण में गोविंद रजनीश जी ने समग्र की चेतना को सामाजिक और मनोवैज्ञानिक ढंग से संप्रेषित करने और उसे दर्शक-कलाकार के संबंधों से जोड़ने का आह्वान किया।

नाट्य शिक्षक श्री डिम्पी मिश्र ने गुलजार की कविताओं ‘टोबा टेक सिंह’ व ‘दर्द’ की प्रस्तुति की। निर्देशक केशव सिंह व प्रमोद पाण्डेय ने भी इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त किये।

दिल्ली गेट स्थित एक होटल में आयोजित इस संगोष्ठी में प्रमोद सारस्वत, डॉ. मुकुल श्रीवास्तव, चंद्रशेखर, उमेश अमल, नीतू दीक्षित ने विश्व रंगमंच दिवस पर संगोष्ठी के सहभागियों को शुभकामनायें दीं। धन्यवाद ज्ञापन नाट्य निर्देशक दिलीप रघुवंशी ने तथा संयोजन डॉ. विजय शर्मा ने किया। इस अवसर पर सुविख्यात निर्देशक जॉन मायकोविच के विश्व रंगमंच दिवस संदेश का वाचन भी किया गया।



विश्व रंगमंच दिवस-1: जयपुर में संध्या काले प्रभात फेरी


 संध्या काले प्रभात फेरी 


यपुर। इप्टा की इकाई "इप्टा जयपुर" द्वारा विश्व रंगमंच दिवस पर दो दिवसीय कार्यक्रम रवीन्द्र मंच पर सांय 7 बजे से प्रस्तुत किया गया। इससे पूर्व विश्व रंगमंच दिवस की पूर्व संध्या 26 मार्च 2012 को मुकेश वर्मा के निर्देशन में इप्टा के जनवादी गीतों का प्रदर्शन किया। विश्व रंगमंच दिवस की संध्या में जयपुर शहर के जाने माने वरिष्ठ नाट्यकार एवं रंगकर्मी रणवीर सिंह का लिखा नाटक ‘‘संध्या काले प्रभात फेरी’’ का मंचन किया जिसका निर्देशन संजय विद्रोही ने किया।

27 मार्च 2012, विश्व रंगमंच दिवस की संध्या पर सांय 7 बजे शहर के जाने माने वरिष्ठ नाट्यकार एवं रंगकर्मी रणवीर सिंह का लिखा नाट्क ‘‘संध्या काले प्रभात फेरी’’ का मंचन किया जिसका निर्देशन संजय विद्रोही ने किया। यह नाटक राजनैतिक दलों पर करारा व्यंग्य करता है, जिन्होनें गांधीवादी विचारधारा को हमारे समाज में मज़ाक बनाकर रखा है।

इप्टा के कोषाध्यक्ष केशव गुप्ता ने बताया कि 26 मार्च 2012 विश्व रंगमंच की पूर्व संध्या को मुकेश वर्मा के निर्देशन में इप्टा के जनवादी गीतों का कार्यक्रम "परिवर्तन की ललकार" प्रस्तुत किया गया। जयपुर इप्टा के साथी भाई मुकेश वर्मा पिछले 10 वर्षों से जनगीत एवं नाट्य संगीत पर निरंतर संगीत निर्देशक के रूप में कार्य कर रहे हैं। अपने गानों के अंदाज और नाट्य संगीत के विभिन्न प्रयोग से मुकेश वर्मा अपना नाम नाट्य संगीत निर्देशक के रूप में स्थापित कर चुके हैं। इस अवसर पर वशिष्ठ अनूप, शलभ श्रीराम और गोरख पाण्डेय के लिखे गीत गाये गये। गीतों की श्रंखला में क्रमशः कहीं तलाक कहीं अग्नि परीक्षाएं है....., हम तेरे मुखौटे को तार-तार करेगें...., नफस-नफस कदम कदम..., समाजवाद बबूआ धीरे-धीरे आई..., अपना है अपनों से अनजान है शहर.. जैसे अनेक गीत गाये गये। इन गीतों को सुनकर रगों में खून-सा दौडने लगता है।
मुकेश वर्मा द्वारा गाये इन गीतों में शिखा माथुर, अंकिता शर्मा, अरूणा शर्मा, वसीम तनवीर, विश्वमोहन भारद्वाज, अनवर अली, केशव गुप्ता, मंयक शर्मा एवं संजय विद्रोही ने भी सुर से सुर मिलाए। तबला -सलामत हुसैन, ढोलक- रमज़ान अली, ऑक्टो पैड -मोहसिन, हारमोनियम पर मंयक शर्मा एवं वायलिन पर गुलज़ार हुसैन ने संगत की।

27 मार्च 2012, विश्व रंगमंच दिवस की संध्या पर सांय 7 बजे शहर के जाने माने वरिष्ठ नाट्यकार एवं रंगकर्मी रणवीर सिंह का लिखा नाट्क ‘‘संध्या काले प्रभात फेरी’’ का मंचन किया जिसका निर्देशन संजय विद्रोही ने किया। यह नाटक राजनैतिक दलों पर करारा व्यंग्य करता है, जिन्होनें गांधीवादी विचारधारा को हमारे समाज में मज़ाक बनाकर रखा है। यह नाटक पोल खोलता है उन तमाम पार्टियों और लोगों की जो गांधीवादी विचारधारा का मुखौटा पहन कर एक्सप्लोयट कर रहे हैं। अचानक उनके आने की खबर से सरकार, विपक्ष, बिजनेस मैन, भूमाफिया सभी काँप उठते हैं। सभी को पोल खुलने का डर बना हुआ है। लेकिन लोग अभी भी इन्हें नहीं पहचान रहे हैं। यह नाटक आज के सम्पूर्ण सिस्टम में परिवर्तन की बात करता है। नाटक में राकेश खत्री, पवन श्योराण, विजेन्द्र निरबान, लोहित व्यास, भारती पेरवानी, शिव पालावत, नागेश्वर शर्मा, दीपक गुर्जर, सौरभ एवं मान्या ने नाटक के किरदारों सजीव किया। नाटक में लाईट एवं रूपसज्जा केशव गुप्ता, वस्त्र कुसुम कॅवर एवं सैट, पाश्व संगीत एवं निर्देशन संजय विद्रोही ने किया।  

Monday, March 26, 2012

विश्व रंगमंच दिवस

विश्व रंगमंच दिवस पर देशभर में कार्यक्रम



भिलाई। विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर स्थानीय नेहरू सांस्कृतिक में इप्टा भिलाई द्वारा विभिन्न नाटकों का मंचन किया जायेगा। कार्यक्रम की शुरूआत जयप्रकाश नायर के संक्षिप्त वक्तव्य के साथ होगी, जिसमें वे विश्व रंगमंच दिवस के महत्व को रेखांकित करेंगे। इसके बाद इप्टा के स्वर्गीय साथी शरीफ अहमद का लिखा अंतिम नाटक "मंथन" खेला जायेगा, जिसे सामूहिक निर्देशन के साथ भिलाई इप्टा द्वारा खेला जायेगा। इस नाटक में केवल दो ही पात्र हैं।

इसके पश्चात बाल कलाकारों द्वारा नाटक "जलेबियां" का मंचन किया जायेगा। नईम अहमद काज़मी की इस कथा का अनुवाद किया है रणदीप अधिकारी ने व इसका नाट्य रूपांतर किया है शरीफ अहमद ने। निर्माण निशु पांडे व जगनाथ साहू का है। दर्शकों की मांग रही तो एक अन्य नाटक "क्या हम मनुष्य हैं" भी खेला जा सकता है, जिसका निर्देशन सुमय मुखर्जी ने किया है। यह नाटक जीशान अली द्वारा कार्यशाला में तैयार किया गया था।


जयपुर २७ मार्च को विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर देशभर में नाट्योत्सव का आयोजन किया जा रहा है। भला, इससे जयपुर रंगमंच कैसे जुदा रह सकता है। रवीन्द्र मंच पर इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन के बैनर तले दो दिवसीय नाट्योत्सव की शुरुआत दिवस की पूर्व संध्या पर शाम सात बजे इप्टा के जनगीतों की प्रस्तुति से होगी और रंगमंच दिवस के मौके पर इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष रणवीर सिंह के लिखित नाटक – सांध्य काले प्रभात फेरी – नाटक का मंचन होगा। इसका निर्देशन वरिष्ठ रंगकर्मी संजय विद्रोही करेंगे।

पटना। शहीद भगतसिंह के शहादत दिवस पर म.प्र. इप्टा ने बालश्रम जैसे प्रश्न उठाने वाला एक नाटक  23 मार्च को रांची में किया | इस नाटक के प्रदर्शन में उल्लेखनीय बात यह रही कि इसे मध्यप्रदेश इप्टा की चार अलग-अलग इकाईयों के बीस बच्चों ने मिलकर इंदौर में तैयार किया | यह इंदौर इकाई का नाटक है और इसे करने के लिए रांची ,डाल्टनगंज और पटना से बुलावा आया था |रांची और डाल्टनगंज में तो भगतसिंह समारोह समिति इसे करवा रही थी | पर दिक्कत यह आ रही थी कि इस नाटक के अनेक बाल पत्रों की मार्च में परीक्षाएं चल रहीं थीं | इस स्थिति से निपटने के लिए इप्टा की दूसरी इकाईयों से संपर्क किया गया और फिर अशोकनगर ,गुना ,सेंधवा और इंदौर इकाई के वे बच्चे जिनकी परीक्षाएं निवट गयीं थीं ,उन्होंने मिलकर नाटक की तैयारी की | "जब हम चिड़िया की बात करते हैं " (लेखक-विनीत तिवारी , निर्देशक-जया मेहता , सह निर्देशक- सारिका ) इस बीस पात्रीय नाटक का नए सिरे से संगीत तैयार किया इप्टा अशोकनगर के साथी रतनलाल पटेल और रामदुलारी शर्मा ने |  25 मार्च को इस नाटक का शो डाल्टनगंज मैं किया गया तथा 28 मार्च को पटना मैं होगा | 

एक था अखबार

नयी दुनिया का पराभव

-हरिवंश
(हरिवंश जी वरिष्ठ पत्रकार तथा  "प्रभात खबर" अखबार के संपादक हैं। "नयी दुनिया" के बिकने की खबरों के बीच तीन किस्तों में उनकी यह लेखमाला  प्रभात खबर  में ही प्रकाशित हुई है। इस अत्यंत महत्वपूर्ण व विचारोत्तेजक लेखमाला को इप्टानामा के पाठकों के लिये पुनरप्रकाशित किया जा रहा है)
एक समय हिंदी पत्रकारिता का स्कूल कहे जानेवाले अखबार नई दुनिया का पराभव, पूरे हिंदी भाषी समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. इसकी स्थितियों, कारकों व कारणों को हम सबको समझना चाहिए. पत्रकारिता, पत्रकारिता के वित्तपोषण और बाजारवाद के इस दौर की प्रतिस्पर्धा में मुनाफ़े के अर्थशास्त्र पर स्वस्थ बहस शुरू होनी चाहिए. किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए इन सवालों से कतराना घातक ही साबित होता है. यह आलेख श्रृंखला इसी विमर्श को शुरू करने का प्रयास है.
65 साल पहले इंदौर से शुरू होने वाले अखबार, नई दुनिया के बिकने की खबर इन दिनों चर्चा में है. कुछेक पत्रकारों में (शेष अन्य को मतलब भी नहीं) चिंता और सरोकार है. एक मित्र ने वेबसाइट पर लिखा है, नई दुनिया केवल एक अखबार नहीं रहा है. बल्कि यह एक संस्कार की तरह पुष्पित और पल्लवित हुआ. हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में नई दुनिया ने वह मुकाम पाया, जो देश के नंबर एक और नंबर दो अखबार कभी सपने में भी नहीं सोच सकते. इस अखबार ने देश को सर्वाधिक संपादक और योग्य पत्रकार दिये हैं.
यह बिलकुल सटीक आकलन व निष्कर्ष है. पर इसमें जोड़ा जाना चाहिए कि नई दुनिया सिर्फ़ अच्छे पत्रकारों को देने के लिए ही नहीं जाना जायेगा. सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण बात यह है कि नई दुनिया ने अपने दौर, काल या युग के जलते-सुलगते सवालों को जिस बेचैनी और शिद्दत से उठाया, वह इस अखबार की पहचान और साख है.
इसने हिंदी पत्रकारिता को एक संस्कृति दी (जो आज की दुनिया के नंबर एक और नंबर दो बन जानेवाले हिंदी अखबार सपने में भी नहीं कर पायेंगे). बहुत पहले स्वर्गीय राजेंद्र माथुर ने (1983-84 के आसपास) राहुल बारपुते पर एक लेख लिखा था. उसमें उन्होंने मालवा की संस्कृति, पुणे के प्रभाव और गंगा किनारे की उत्तर प्रदेश-बिहार की भिन्न संस्कृति की चर्चा की थी. उनकी बातों का आशय था, अपने को हिंदी की मुख्यधारा माननेवाली पट्टी और उसके बौद्धिक, मालवा की संस्कृति और उसमें नई दुनिया का योगदान और राहुल बारपुते के व्यक्तित्व का आकलन नहीं कर पायेंगे.
यह सही है. एक शिष्टता, संस्कार और मर्यादा से राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, अभय छजलानी जैसे लोगों ने नई दुनिया को शीर्ष पर पहुंचाया. क्या इतने बड़े अखबार को सिर्फ़ चापलूसों की फ़ौज डुबा सकती है? नहीं, साम्राज्यों या संस्थाओं के पतन में षड्यंत्रकारी या दरबारी चापलूसों की एक सीमा तक ही भूमिका रहती है.
क्या सफ़लता से चल रहे बड़े या छोटे घरानों में ये चापलूस या षड्यंत्रकारी नहीं होते. दरअसल, साम्राज्यों या संस्थाओं के पतन के मूल में अन्य निर्णायक व मारक कारण होते हैं.समय की धार को न पहचानना और उसके अनुरूप कदम न उठाना, पतन का मूल कारण होता है. फ़िर सबसे बड़ा मारक कारक तो ओर्थक व्यवस्था है. इस तरह की किसी चीज के पतन के मूल में, ऐसी चीजों के प्रभाव जरूर होते हैं. पर इससे अधिक विध्वंसकारी तत्व अलग होते हैं.नई दुनिया का अवसान, इस युग के धाराप्रवाह का प्रतिफ़ल है. यह बड़ा और व्यापक सवाल है.
यह सिर्फ़ नई दुनिया तक सीमित नहीं है. देश की अर्थनीति और राजनीति से जुड़ा यह प्रसंग है. माक्र्स-एंगेल्स की अवधारणा सही थी. ओर्थक कारण और हालात ही भविष्य तय करते हैं. डार्विन का सिद्धांत ही बाजारों की दुनिया में चलता है. मार्केट इकोनॉमी का भी सूत्र है, बड़ी मछली, छोटी मछली को खा जाती है. निगल जाती है. आगे भी खायेगी या निगलेगी.
बाजार खुला होगा, अनियंत्रित होगा, तो यही होगा. जिसके पास पूंजी की ताकत होगी, वह अन्य पूंजीविहीन प्रतिस्पर्धियों को मार डालेगा.1983-85 के बीच, राजेंद्र माथुर का राहुल बारपुते पर एक लेख पढ़ा था. लेख का शीर्षक था- हिंदी पत्रकारिता संदर्भ राहुल बारपुते. माथुर जी से मुलाकात तो धर्मयुग में काम करते दिनों में हुई थी. 1980 के आसपास. गणेश मंत्री के साथ. तब से उनकी प्रतिभा से परिचित था. नई दुनिया की श्रेष्ठ परंपरा से भी. उस लेख में माथुर जी ने लिखा था, ’पांच साल दिल्ली में नवभारत टाइम्स की संपादकीय के बारे में कह सकता हूं कि नयी-पुरानी और दुर्लभ किताबों की दृष्टि से, बीसियों किस्म की पत्र-पत्रिकाओं की दृष्टि से, पत्रकारिता की ताजा पेशेवर सूचनाओं की दृष्टि से और संसार में जो ताना-बाना प्रतिक्षण बुना जा रहा है, उसे छूकर देखे जाने के सुख की दृष्टि से, जो 27 अखबारी वर्ष मैंने नई दुनिया में गुजारे, वे दिल्ली की तुलना में कतई दरिद्र नहीं थे.
एक माने में बेहतर ही थे, क्योंकि तब सार्थक पढ़ाई-लिखाई की फ़ुरसत ज्यादा मिलती थी.’यह थी नई दुनिया की परंपरा. नई दुनिया महज एक अखबार नहीं रहा है. वह हिंदी के बौद्धिक जगत का सांस्कृतिक आलोड़न कर रहा है. हिंदी क्षेत्र में संस्कार और संस्कृति गढ़ने-बताने-समझने और विकसित करने का मंच भी. आज अखबारों में बाइलाइन या क्रेडिट पाने की छीना-झपटी होती है.
उस अखबार ने कुछ मूल्य और प्रतिमान गढ़े. गंभीर और मर्यादित पत्रकारिता के लिए. माथुर साहब ने लिखा था कि ‘राहुल बारपुते हर रोज मेरे कॉलम के साथ, मेरा नाम छापने को तैयार थे. मुङो यह ईल लगा. मैंने आग्रह किया कि मैं प्रतिदिन अहस्ताक्षरित ही लिखूंगा’. क्योंकि माथुर साहब को प्रेरणा मिली थी उन दिनों के चोटी के स्तंभकारों से, जो अपना नाम नहीं छापते थे. तब ए. डी. गोरवाला जी, विवेक नाम से लिखते थे. शामलाल जी, अदिव के नाम से लिखते थे. दुर्गादास जी, इंसाफ़ के नाम से लिखते थे. तब शरद जोशी जी भी नई दुनिया में ब्रह्मपुत्र नाम से लिखते थे.यह संस्कार, और परिपाटी-मर्यादा विकसित करने का पालना रहा है, नई दुनिया. आज देख लीजिए, संपादक, अपने ही अखबार में अपनी तसवीर, अपने लोगों की फ़ोटो, अपने परिवार का गुणगान कर किस मर्यादा और अनुशासन का पालन करते हैं? यह दरअसल धाराओं की लड़ाई है.
एक सामाजिक धारा है, जिसका प्रतिबिंब नई दुनिया का पुराना अतीत रहा है. मूल्यों से गढ़ा गया. तब नई दुनिया ने वैदेशिक कालम की शुरुआत की. जब इसकी कोई खास जरूरत नहीं थी, पाठकों के बीच इसकी मांग नहीं थी. पर अपने पाठकों का संसार समृद्ध करना उसने अपना फ़र्ज समझा. आज बड़ी पूंजी से निकलने वाले अखबारों का फ़र्ज क्या है? वे पाठकों को उनकी रुचि का सर्वे करा कर फ़ूहड़ और ईल चीजें भी देने को तैयार हैं. पाठकों की इच्छा के विपरीत, उनके संस्कार गढ़ने, ज्ञान संसार समृद्ध करने का जोखिम लेने को तैयार नहीं. पर नई दुनिया ने यह किया. आज पहला मकसद है, अखबारों का, प्राफ़िट मैक्सीमाइजेशन. यह नयी पत्रकारिता बाजार को साथ लेकर चलती है. हर वर्ग को खुश रखना चाहती है.
उपभोक्तावादी संसार उसे ताकत देते हैं, इसलिए यह धारा आज ज्यादा प्रबल है. यह तामसिक है. पहली धारा (जिससे नई दुनिया का अतीत जुड़ा है) वह सात्विक रही है. आज सात्विक और तामसिक धाराओं के बीच संघर्ष है. फ़िलहाल तामसिक धारा का जोर है. सात्विक, कमजोर और उपहास के पात्र. पर अंतत: जय सात्विक धारा की होगी. इसमें भी किसी को शंका नहीं होनी चाहिए? उस दौर में हिंदी का सबसे अच्छा अखबार, नई दुनिया कहा गया. क्यों? क्योंकि माथुर साहब के शब्दों में, नातों-रिश्तों, ठेका और फ़ायदों का जमाना शुरू ही नहीं हुआ था. पत्रकारिता का पैमाना क्या था? माथुर साहब के ही शब्दों में ही पढ़िए-‘नई दुनिया में रह कर आप कह सकते हैं कि जो मैं लिखता हूं, वह मैं हूं. लेखन से जो सराहना की गूंज लौट कर आती है, वही मेरा पद है, और समाज निर्मित तथा समाज प्रदत्त होने के कारण यही सचमुच प्रमाणिक है.’
अखबारों का अर्थशास्त्र समझें

पूरे मीडिया उद्योग की तनख्वाह में बेशुमार इजाफ़े को अगर देश की अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखें, तो उत्पादन लागत और आय के आधार पर आंकें, तो यह कृत्रिम अर्थप्रणाली है. यह किसी भी दिन भहरायेगी. ध्वस्त होगी. भारत की पेट्रोलियम कंपनियों को देख लीजिए. उनके यहां मैनपावर कॉस्ट से लेकर स्टेब्लिशमेंट कॉस्ट इतने अधिक हैं कि हम पाकिस्तान, बांग्लादेश से भी प्रति लीटर 30 रुपये अधिक पर पेट्रोल बेचते हैं. ओएनजीसी जैसी महारत्न कंपनियों में चपरासी की भी तनख्वाह 60 हजार से अधिक है. -
नई दुनिया ’67 में, भारत का शायद पहला अखबार था, जिसने ऑफ़सेट प्रिंटिग पर अपनी छपाई शुरू की. तकनीक में भी यह औरों से आगे था. इन सबके पीछे एक पवित्र संकल्प और उद्देश्य था, क्योंकि उसके कर्ता-धर्ता लोगों में से एक राहुल बारपुते ‘क्षमता के अनुसार काम और आवश्यकता के अनुसार पारिश्रमिक’ सूत्र पर चलते थे. यह एक जीवन दर्शन या समाज दर्शन, जिसका वैचारिक प्रस्फ़ुटन था, नई दुनिया.
इसे भी पढ़िए माथुर जी के शब्दों में - ‘‘राहुल जी ने आठ साल से अपना वेतन डेढ़ सौ रुपये प्रतिमाह तय कर रखा था. और उनका कहना था कि इससे ज्यादा मैं लूंगा नहीं, क्योंकि यह मेरी जरूरत के लिए पर्याप्त है. स्वैच्छिक गरीबी को वे संपादकीय प्रामाणिकता के लिए जरूरी मानते थे. पांच सौ रुपये से ज्यादा पानेवाले को वे चोरों की श्रेणी में गिनते थे.’’
इस अर्थशास्त्र और सोच के तहत नई दुनिया आगे बढ़ा. जब राजेंद्र माथुर से पूछा गया, आपको क्या तनख्वाह चाहिए, तो उनका उत्तर भी उन्हीं के शब्दों में
-‘‘मैंने कहा कि पांच साल पहले जब मैं हास्टल में रहता था और फ़र्स्ट इयर में था, तब मुझे खर्च के लिए 75 रुपये महीना मिलते थे, और मेरी आवश्यताएं इन पांच सालों में ज्यों की त्यों है. इसलिए आप मुझे 75 रुपये दे दीजिएगा, और वे राजी हो गये.’’ बारपुते जी का जीवन कैसा था? वर्षो तक वे लीपे हुए दलान में जमीन पर सोते थे और चटाई के पत्तों पर खाते और खिलाते थे.
यह सब पत्रकारिता के सतयुग की बातें हैं. जब-जब पत्रकारिता में ऐसे चरित्र थे, तब ऐसे आविष्कार जिंदा रहे. मैं खुद गणेश मंत्री, नारायण दत्त जी जैसे लोगों की सोहबत में रहा हूं. गणेश मंत्री धर्मयुग के स्टार पत्रकार थे, तब चिंतक, लेखक व विचारक भी. ईमानदारी, सात्विकता और साधन-साध्य की शुचिता के प्रतिमान. पिता, जनता पार्टी शासन में राजस्थान में राजस्व मंत्री रहे. अत्यंत सम्मानित व प्रतिष्ठित. पर गणेश मंत्री कभी उनकी गाड़ी पर नहीं चढ़े, क्योंकि वह सरकारी होती थी.
नारायण दत्त जी नवनीत के संपादक रहे. हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वैचारिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक-आध्यात्मिक पत्रकार. इंदिरा जी के लंबे समय तक प्रेस सलाहकार रहे, अद्वितीय और अनोखे गांधीवादी विद्वान. एचवाइ शारदा प्रसाद के छोटे भाई. श्री दत्त आज भी मौजूद हैं, बेंगलुरु में रहते हैं. अकेले. कई भाषाओं के जानकार. सच्चे गांधीवादी. इन दोनों के घर, सत्ता के ताकतवर केंद्र रहे, दोनों अपने-अपने क्षेत्र में अपने कार्यकाल में, देश के चोटी के पत्रकार-संपादक रहे, पर इन दोनों का जीवन, नितांत गांधीवादी, सामान्य और सरल रहा.
अपने जीवन के दो मेंटर (पथ प्रदर्शक) इन दोनों को पाता हूं. नजदीक से इन्हें देखा कि कैसे ये सभी 24 कैरेट का सोना रहे. ताउम्र. आज इस पत्रकारिता में पैसे की हवस है. रातोंरात धनकुबेर बनने की भूख है. जायज-नाजायज कोई प्रतिमान नहीं रह गया. न आदर्श, न मूल्य. इस धारा का जोर इन दिनों ज्यादा सशक्त और प्रबल है. हर शहर से लेकर दिल्ली तक देख लीजिए, जो स्वनाम-धन्य पत्रकार खुद को समाज का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति मानने लगे हैं, उनकी योग्यता क्या है? आमद क्या है? उनकी कुल संपत्ति क्या है? ठाठ-बाट कैसे हैं? क्या समाज में कोई मूल्य रह गया है या नहीं? क्या कोई उसूल बचा है? जब लड़ाई, सिद्धांत और सिद्धांतविहीनता के बीच हो, साधु और गैर साधु के बीच हो, नीति और अनीति के बीच हो, तो अनीति-षडयंत्र को ही कामयाबी मिलेगी. आज के संसार में. यही हो रहा है.
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में 750 रुपये, ट्रेनी के रूप में प्रतिमाह हमें मिलता था. 1977-78 के दौर में. तब कई लोगों ने इससे अधिक की नौकरी छोड़ कर पत्रकारिता को चुना और पत्रकारिता को ही कैरियर अपनाया. रिजर्व बैंक व अन्य संस्थाओं की नौकरी (अधिक तनख्वाह) छोड़ कर हमने भी यही पेशा चुना. आज खुद मैं लाखों पाता हूं, जो कभी सोचा नहीं था. वह भी क्षेत्रीय अखबार में (इससे कई गुना अधिक के ऑफ़र मिले, यह अलग बात है कि यहीं रहा), पर अपने काम से जोड़ कर देखता हूं, तो तब (धर्मयुग, रविवार या प्रभात खबर के आरंभिक दिनों में) जितना परिश्रम कर पाता था. पूरा डट कर. जुट कर. डूब कर. उतना ही आज भी करता हूं. पर तनख्वाह कई गुना अधिक. राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के प्रतिमान से खुद को सोचता हूं, तो अपराध बोध होता है. कई बार खुद से पूछा, क्यों गलत मानते हुए इतनी तनख्वाह लेता हूं. कारण, सुरक्षा का सवाल है. पहले समाज में ‘सेफ्टीनेट’ (सुरक्षाजाल) था. संयुक्त परिवार, उदार परिवार, एक दूसरे की देखभाल करनेवाला. आज एकल परिवार (न्यूक्लीयर परिवार) हैं, स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च और इस पेशे में नौकरी की असुरक्षा, शाश्वत चुनौतियां हैं.
साक्षी जैसी पूंजी व सरकारी समर्थन
नई दुनिया के बहाने दो किस्तों में आपने पढ़ा, छोटे व मझोले क्षेत्रीय अखबारों की चुनौतियां. इन चुनौतियों में बढ़ती कर्ज की कीमत (यानी सूद) मारक है. फ़िर सबसे घातक है, न्यूज प्रिंट की लगातार बढ़ती कीमतें. कागज की मिलों का बंद होना, डॉलर के मुकाबले रुपये का कमजोर होना.
एक छोटे अखबार में कुल टर्न ओवर का 70 फ़ीसदी सिर्फ़ न्यूज प्रिंट पर खर्च होता है. विज्ञापन बाजार भी अनेक संस्करण वाले अखबारों के पक्ष में है. इस तरह क्षेत्रीय पत्रकारिता के सामने कई मारक चुनौतियां हैं. भविष्य में कोई अखबार ताकतवर बनना चाहता है, तो उसे कैसा सपोर्ट चाहिए, पढ़िए अंतिम किस्त में.
अब यह कतई आवश्यक नहीं है कि आप सर्वश्रेष्ठ अखबार निकाल रहे हैं. बेस्ट (सर्वश्रेष्ठ) टीवी चैनल हैं, तो आप अपनी गुणवत्ता के आधार पर कायम रह पायेंगे. आपका प्रतिस्पद्र्धी अगर आपसे कम कीमत पर अखबार निकालता है, जिसमें अच्छी साज-सज्जा है, कंटेंट भी ठीकठाक है, वह पाठकों को पुरस्कार देता है, लाटरी ड्रा जैसे कार्यक्रम कराता है, उसके मल्टीस्टेट संस्करण हैं, तो वह बाजार में टिकेगा. गणित इस तरह बन गया है कि कुछेक घराने अंगरेजी से लेकर अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशन और साथ ही साथ कई हिंदी राज्यों से प्रकाशन कर रहे हैं. इंटरनेट, रेडियो, टीवी या लोकल चैनलों पर भी उपस्थित हैं.
एक ही घराना. इस तरह के घरानों की ताकत के पीछे एक बाजार है. देहाती कहावत है, कहां राजा भोज कहां गंगू तेली. माफ़ कीजिएगा, यह जाति पर कोई टिप्पणी नहीं है. गंगू तेली कितना भी अच्छा इंसान हो. सच का पुंज हो. नैतिकता का अवतार हो. अनुशासित हो. मर्यादित हो. देश, समाज और दुनिया के बारे में सोचता हो. इसके विपरीत राजा भोज, हर अवगुण की खान हो. पर हम इतिहास के जिस मोड़ पर जी रहे हैं, उसमें राजा भोज ही कारगर, सम्मानित और आदर्श है. इसलिए बाजार की ताकत व इन आर्थिक नियमों का खेल समझना जरूरी है.क्या यह शुद्ध रूप से पूंजी की लड़ाई है? नई दुनिया ने अगर दो सौ करोड़ की पूंजी लगायी, तो वह पूंजी इस बाजार की कठिन लड़ाई से है.
इस बाजार में यह 200 करोड़ कोई बड़ी पूंजी नहीं है. दफ्तर के अंदर अक्षमता, चापलूसी, अयोग्यता वगैरह बाद में आते हैं. इसलिए बड़े अखबारों के सामने अच्छा प्रोडक्ट लेकर, अच्छी मार्केटिंग कर, प्रोफ़ेशनल बन कर भी आप बेहतरीन ब्रांड को आसानी से बचा नहीं सकते. यह छोटे अखबारों की सफ़ाई-धुलाई का दौर है. बड़े अखबारों के संचालक मानते हैं कि यह मार्केट कांसोलिडेशन का दौर है. कुछ ही दिनों की बात है. इसके बाद कुछेक ही बड़े अखबार बचेंगे.
क्योंकि यहां बेमेल मुकाबला है. शुद्ध पत्रकारिता और बाजार बल से पोषित पत्रकारिता के बीच असामान्य मुकाबले की स्थिति है.अर्थशास्त्र में इकोनॉमिक स्टेज ऑफ़ ग्रोथ (आर्थिक विकास के अलग-अलग दौर) पढ़ाया जाता है. उसी तरह मीडिया में भी आर्थिक विकास का दौर आया. उस आर्थिक दौर में, जिन लोगों ने अपना फ़ैलाव तेजी से कर लिया. जो बाहरी-भीतरी या शेयर बाजार से पूंजी जुटा कर पसर गये. बढ़ गये. बाजार पर कब्जा जमा लिया. वे सिकंदर हैं. एक ही अखबार घराना 50-50 जगहों से फ़ैल कर अखबार निकालने लगा.
वह दौर ही पत्रकारिता में आनेवाले भविष्य की नींव तैयार कर गया. 1990-2000 के बीच जो अखबार पसर गये. फ़ैल गये और ताकतवर हो गये. अब वे बड़े घराने बन कर उभर चुके हैं. बैठने और जमने की दृष्टि से, व्यवसाय की दृष्टि से, वह हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग रहा. कम निवेश में तब वे नयी जगह चले गये. आज किसी बाजार में निवेश कर मुकाबला करना, पहले से ज्यादा खर्चीला और कठिन हो गया है. नया संस्करण खोलना और अखबार जमाना लगातार ‘कास्ट इंटेंसिव’ (अधिक खर्चीला) हो गया है. पैसे वाले प्रतिस्पद्र्धी हैं. ब्रेक इवन पीरियड (खर्च और आय बराबर होने की स्थिति) का समय अब पांच वर्ष माना जाने लगा है.
पहले वह तीन वर्ष माना जाता था. विशेषज्ञों का यह भी अनुमान है कि हिंदी प्रिंट मीडिया का विज्ञापन बाजार अब धीरे-धीरे ठहराव (स्टेगनेंट) की स्थिति में होगा या घटेगा. क्योंकि मीडिया में कई नये माध्यम आ गये हैं. इंटरनेट, रेडियो, रोज बढ़ते टीवी चैनल्स वगैरह. अब बाजार हासिल करना कठिन हो गया है.
90 के दशक में एम. जे. अकबर ने एशियन एज निकाला. अपने ढंग का अनूठा और नया अखबार. कठिन प्रतिस्पर्धा में. भारी मुसीबतों से उस अखबार को भी गुजरना पड़ा. कई जगहों पर अनेक प्रकाशक, इंवेस्टर, निवेशक बदल गये. कुछेक वर्षो में ही. एक दौर आया, जब उन्होंने इसे डेक्कन क्रानिकल को बेच दिया. तब शेयर बाजार की स्थिति अच्छी थी. देश की आर्थिक स्थिति के भी अच्छे दिन थे.
उन्हें इस अखबार की अच्छी कीमत मिली. याद है, उन्होंने इस सौदे पर अपनी टिप्पणी दी थी- इस दिन के लिए मैं बहुत दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था. अपने हुनर, कौशल और योग्यता से उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में अखबार को सींचा, जमाया और बेच डाला. एक व्यक्ति के जीवन में आर्थिक स्थायित्व की दृष्टि से यह अत्यंत ईमानदार प्रयास था. शायद यह पहली बारहुआ कि किसी योग्य पत्रकार ने अपनीयोग्यता के आधार पर कंपनी बना कर, उसकी कीमत पायी.
प्रभात खबर से साभार

Friday, March 23, 2012

सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है

-कौशल किशोर  
23 मार्च शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का शहादत दिवस है। इन तीन नौजवान क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। इस घटना के 57 साल बाद 23 मार्च 1988 को पंजाब के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश को आतंकवादियों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया। 

70 वाले दशक में पंजाब में जो क्रांतिकारी आंदोलन शुरू हुआ, उसके पक्ष में कविताएं लिखने के कारण भी पाश कई बार जेल गये थे, सरकारी जुल्म के शिकार हुए तथा वर्षों तक भूमिगत रहे। यह महज संयोग है कि पंजाब की धरती से पैदा हुए तथा क्रांतिकारी भगत सिंह के शहीदी दिवस के दिन ही अर्थात 23 मार्च को पंजाबी के क्रांतिकारी कवि अवतार सिहं पाश भी शहीद होते हैं। लेकिन इन दोनों क्रांतिकारियों के उद्देश्य व विचारों की एकता कोई संयोग नहीं है। यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की क्रांतिकारी परंपरा का न सिर्फ सबसे बेहतरीन विकास है बल्कि राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण भी है।

भगत सिंह और उनके साथियों ने आजादी का जो सपना देखा था, जिस संघर्ष और क्रांति का आह्वान किया था, वह अधूरा ही रहा। भारतीय जनता के गौरवशाली संघर्षों और विश्व पूंजीवाद के आंतरिक संकट के परिणामस्वरूप जो राजनीतिक आजादी 1947 में मिली, उसका लाभ केवल इस देश के पूंजीपतियों, सामंतों और उनसे जुडे़ मुट्ठी भर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने ही उठाया है। सातवां दशक आते-आते आजादी से मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भारत के नये शासक वर्ग के खिलाफ जन असंतोष तेज होता है, जिसकी सबसे ठोस और मुखर अभिव्यक्ति चौथे राष्ट्रीय आम चुनाव और नक्सलबाड़ी विद्रोह में होती है। विशेष तौर से नक्सलबाड़ी विद्रोह ने भारतीय साहित्य को काफी गहराई तक प्रभावित किया तथा व्यक्तिवाद, निषेधवाद, परंपरावाद, अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद जैसी जन विरोधी प्रवृत्तियों को प्रबल चुनौती दी। विकल्प की तलाश कर रही बंग्ला, तेलुगू, हिन्दी, पंजाबी आदि भाषाओं की नयी पीढ़ी को तो जैसे राह ही मिल गयी। पंजाबी में नये कवियों की एक पूरी पीढ़ी सामने आयी, जिसने पंजाबी कविता को नया रंग-रूप प्रदान किया। अवतार सिंह पाश ऐसे कवियों की अगली पांत में थे।

पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। अर्थात पाश ने पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसे दौर में प्रवेश किया जो दूसरी आजादी के क्रांतिकारी राजनीतिक संघर्ष का ही नहीं, अपितु नये जनवादी-क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन का भी प्रस्थान बिन्दु था। अमरजीत चंदन के संपादन में निकली भूमिगत पत्रिका ‘दस्तावेज’ के चौथे अंक में परिचय सहित पाश की कविताओं का प्रकाशन तो पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में धमाके की तरह था। पाश की इन कविताओं की पंजाब के साहित्य-हलके में काफी चर्चा रही। उन दिनों पंजाब में क्रांतिकारी संघर्ष अपने उभार पर था। पाश का गांव तथा उनका इलाका इस संघर्ष के केन्द्र में था। इस संघर्ष की गतिविधियों ने पंजाब के साहित्यिक माहौल में नयी ऊर्जा व नया जोश भर दिया था। पाश ने इसी संघर्ष की जमीन पर कविताएं रचीं और इसके जुर्म में गिरफ्तार हुए और करीब दो वर्षों तक जेल में रहे। सत्ता के दमन का मुकाबला करते हुए जेल में ढेरों कविताएं लिखीं और जेल में रहते उनका पहला कविता संग्रह 'लोककथा' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह ने पाश को पंजाबी कविता में उनकी पहचान दर्ज करा दी।

1972 में जेल से रिहा होने के बाद पाश ने सिआड़ नाम से साहित्यिक पत्रिका निकालनी शुरू की। नक्सलबाडी आंदोलन पंजाब में बिखरने लगा था। साहित्य के क्षेत्र में भी पस्ती व हताशा का दौर शुरू हो गया था। ऐसे वक्त में पाश ने आत्मसंघर्ष करते हुए पस्ती व निराशा से उबरने की कोशिश
की तथा सरकारी दमन के खिलाफ व जन आंदोलनों के पक्ष में रचनाएँ की।

पंजाब के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को एकजुट व संगठित करने का प्रयास चलाते हुए पाश ने 'पंजाबी साहित्य-सभ्याचार मंच' का गठन किया तथा अमरजीत चंदन, हरभजन हलवारही आदि के साथ मिलकर 'हेममज्योति' पत्रिका शुरू की। इस दौर की पाश की कविताओं में भावनात्मक आवेग की जगह विचार व कला की ज्यादा गहराई थी। चर्चित कविता 'युद्ध और शांति' पाश ने इसी दौर में लिखी। 1974 में उनका दूसरा कविता संग्रह 'उडडदे बाजा मगर' छपा जिसमें उनकी 38 कविताएं संकलित हैं। पाश का तीसरा संग्रह 'साडे समियां विच' 1978 में प्रकाशित हुआ। इसमें अपेक्षाकृत कुछ लम्बी कविताएं भी संग्रहित हैं। उनकी मृत्यु के बाद 'लडंगे साथी' शीर्षक से उनका चौथा संग्रह सामने आया जिसमें उनकी प्रकाशित व अप्रकाशित कविताएं संकलित हैं। 

पाश की कविताओं का मूल स्वर राजनीतिक-सामाजिक बदलाव का अर्थात क्रांति और विद्रोह का है। इनकी कविताएं धारदार हैं। जहाँ एक तरफ सांमती-उत्पीड़कों के प्रति जबरदस्त गुस्सा व नफरत का भाव है, वहीं अपने जन के प्रति, क्रांतिकारी वर्ग के प्रति अथाह प्यार है। नाजिम हिकमत और ब्रतोल्त ब्रेख्त की तरह इनकी कविताओं में राजनीति व विचार की स्पष्टता व तीखापन है। कविता राजनीतिक नारा नहीं होती लेकिन राजनीति नारे कला व कविता में घुल-मिलकर उसे नया अर्थ प्रदान करते हैं तथा कविता के प्रभाव और पहुंच को आश्चर्यजनक रूप में बढाते हैं, यह बात पाश की कविताओं में देखी जा सकती हैं। पाश ने कविता को नारा बनाये बिना अपने दौर के तमाम नारों को कविता में बदल दिया।

पाश की कविताओं की नजर में एक तरफ 'शांति गॉंधी का जांघिया है जिसका नाड़ा चालीस करोड़ इन्सानों की फाँसी लगाने के काम आ सकता है' और 'शब्द जो राजाओं की घाटियों में नाचते हैं, जो प्रेमिका की नाभि का क्षेत्रफल मापते हैं, जो मेजों पर टेनिस बाल की तरह दौड़ते हैं और जो मैचों की ऊसर जमीन पर उगते हैं- कविता नहीं होते'' तो दूसरी तरफ 'युद्ध हमारे बच्चों के लिए- कपड़े की गेंद बनकर आएगा-युद्ध हमारी बहनों के लिए कढ़ाई के सुन्दर नमूने लायेगा- युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में दूध बनकर उतरेगा- युद्ध बूढ़ी माँ के लिए नजर का चश्मा बनेगा- युद्ध हमारे पुरखों की कब्रों पर फूल बनकर खिलेगा' और 'तुम्हारे इंकलाब में शामिल है संगीत और साहस के शब्द- खेतों से खदान तक युवा कंधों और बलिष्ठ भुजाओं से रचे हुए शब्द, बर्बर सन्नाटों को चीरते हजार कंठों से निकलकर आज भी एक साथ गूंज रहें शब्द’ हजारों कंठों से निकली हुई आवाज ही पाश की कविता में शब्दबद्ध होती है। पाश की कविताओं में इन्हीं कंठों की उष्मा है। इसीलिए पाश की कविताओं पर लगातार हमले हुए हैं। पाश को अपनी कविताओं के लिए दमित होना पड़ा है। बर्बर यातनाएं सहनी पड़ी हैं। यहाँ तक कि अपनी जान भी गवांनी पड़ी हैं। लेकिन चाहे सरकारी जेलें हों या आतंकवादियों की बन्दूकें.. पाश ने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया बल्कि हजारों दलित-पीड़ित शोषित कंठों से निकली आवाज को अपनी कविता में पिरोते रहे, रचते रहे, उनका गीत गाते रहे और अपने प्रिय शहीद भगत सिंह की राह पर चलते हुए शहीद हो गये।

23 मार्च के दिन ही अपना खून बहाकर पाश ने राजनीति और संस्कृति के बीच खड़ी की जाने वाली दीवार को ढहाते हुए यह साबित कर दिया कि बेहतर जीवन मूल्यों व शोषण उत्पीड़न से मुक्त मानव समाज की रचना के संघर्ष में कवि व कलाकार भी उसी तरह का योद्धा है, जिस तरह एक राजनीतिककर्मी या राजनीतिक कार्यकर्ता। राजनीति और संस्कृति को एकरूप करते हुए पाश ने यह प्रमाणित कर दिया कि अपनी विशिष्टता के बावजूद मानव समाज के संघर्ष में राजनीति और संस्कृति को अलगाया नहीं जा सकता, बल्कि इनकी सक्रिय व जन पक्षधर भूमिका संघर्ष को न सिर्फ नया आवेग प्रदान करती है बल्कि उसे बहुआयामी भी बनाती है।

भगत सिंह मूलत:  एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। राजनीति उनका मुख्य क्षेत्र था। लेकिन उन्होंने तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक साहित्यिक सवालों पर भी अपनी सटीक टिप्पणी पेश की थी। अपने दौर में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों, देशी विदेशी प्रतिक्रियावादी शाक्तियों व विचारों, धार्मिक कठमुल्लावादी, सांप्रदायिकता, अस्पृश्यता, जातिवाद जैसे मानव विरोधी मूल्यों के खिलाफ संघर्ष करते हुए भगत सिंह ने जनवादी-समाजवादी विचारों को प्रतिष्ठित किया। पाश की कविता, विचारधारा, पत्रकारिता व सांस्कृतिक सक्रियता से साफ पता चलता है कि उनकी राजनीतिक समझ बहुत स्पष्ट थी।

यही भगत सिंह और पाश की समानता है। भले ही इनकी शहादत के बीच 57 वर्षों का अंतर है। ये दोनों क्रांतिकारी योद्धा राजनीति और संस्कृति की दुनिया को बहुत गहरे प्रभावित करते हैं, साथ ही ये राजनीति और संस्कृति की एकता, पंजाब की धर्मनिरपेक्ष, जनवादी व क्रांतिकारी परंपरा के उत्कृष्ट वाहक हैं तथा अपनी शहादत से ये राजनीति और संस्कृति की एकता में नया रंग भरते हैं।

भडास4मीडिया से साभार

पाश की एक कविता:
सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना 

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।

Thursday, March 22, 2012

भगत सिंह के बारे में कुछ अनदेखे तथ्य


- कनक तिवारी

मैं भगतसिंह के बारे में कुछ भी कहने के लिए अधिकृत व्यक्ति नहीं हूं. लेकिन एक साधारण आदमी होने के नाते मैं ही अधिकृत व्यक्ति हूं, क्योंकि भगतसिंह के बारे में अगर हम साधारण लोग गम्भीरतापूर्वक बात नहीं करेंगे तो और कौन करेगा. मैं किसी भावुकता या तार्किक जंजाल की वजह से भगतसिंह के व्यक्तित्व को समझने की कोशिश कभी नहीं करता. इतिहास और भूगोल, सामाजिक परिस्थितियों और तमाम बड़ी उन ताकतों की, जिनकी वजह से भगतसिंह का हम मूल्यांकन करते हैं, अनदेखी करके भगतसिंह को देखना मुनासिब नहीं होगा.

पहली बात यह कि कि दुनिया के इतिहास में 24 वर्ष की उम्र भी जिसको नसीब नहीं हो, भगतसिंह से बड़ा बुद्धिजीवी कोई हुआ है? भगतसिंह का यह चेहरा जिसमें उनके हाथ में एक किताब हो-चाहे कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल, तुर्गनेव या गोर्की या चार्ल्स डिकेन्स का कोई उपन्यास, अप्टान सिन्क्लेयर या टैगोर की कोई किताब-ऐसा उनका चित्र नौजवान पीढ़ी के सामने प्रचारित करने का कोई भी कर्म हिन्दुस्तान में सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों सहित भगतसिंह के प्रशंसक-परिवार ने भी लेकिन नहीं किया. भगतसिंह की यही असली पहचान है.

भगतसिंह की उम्र का कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति क्या भारतीय राजनीति का धूमकेतु बन पाया? महात्मा गांधी भी नहीं, विवेकानन्द भी नहीं. औरों की तो बात ही छोड़ दें. पूरी दुनिया में भगतसिंह से कम उम्र में किताबें पढ़कर अपने मौलिक विचारों का प्रवर्तन करने की कोशिश किसी ने नहीं की. लेकिन भगतसिंह का यही चेहरा सबसे अप्रचारित है. इस उज्जवल चेहरे की तरफ वे लोग भी ध्यान नहीं देते जो सरस्वती के गोत्र के हैं. वे तक भगतसिंह को सबसे बड़ा बुद्धिजीवी कहने में हिचकते हैं.

दूसरी शिकायत मुझे खासकर हिन्दी के लेखकों से है. 17 वर्ष की उम्र में भगतसिंह को एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता में 'पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या' विषय पर 'मतवाला' नाम के कलकत्ता से छपने वाली पत्रिका के लेख पर 50 रुपए का प्रथम पुरस्कार मिला था. भगतसिंह ने 1924 में लिखा था कि पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी नहीं देवनागरी होनी चाहिए.

यह आज तक हिन्दी के किसी भी लेखक-सम्मेलन ने ऐसा कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया है. आज तक हिन्दी के किसी भी बड़े लेखकीय सम्मेलन में भगतसिंह के इस बड़े इरादे को लेकर कोई धन्यवाद प्रस्ताव पारित नहीं किया गया है. उनकी इस स्मृति में भाषायी समरसता का कोई पुरस्कार स्थापित नहीं किया गया. इसके बाद भी हम भगतसिंह का शहादत दिवस मनाते हैं. भगतसिंह की जय बोलते हैं. हम उनके रास्ते पर चलना नहीं चाहते. मैं तो लोहिया के शब्दों में कहूंगा कि रवीन्द्रनाथ टेगौर से भी मुझे शिकायत है कि आपको नोबेल पुरस्कार भले मिल गया हो. लेकिन 'गीतांजलि' तो आपने बांग्ला भाषा और लिपि में ही लिखी. एक कवि को अपनी मातृभाषा में रचना करने का अधिकार है लेकिन भारत के पाठकों को, भारत के नागरिकों को, मुझ जैसे नाचीज व्यक्ति को इतिहास के इस पड़ाव पर खड़े होकर यह भी कहने का अधिकार है कि आप हमारे सबसे बड़े बौद्धिक नेता हैं. लेकिन भारत की देवनागरी लिपि में लिखने में आपको क्या दिक्कत होती. 



मैं लोहिया के शब्दों में महात्मा गांधी से भी शिकायत करूंगा कि 'हिन्द स्वराज' नाम की आपने अमर कृति 1909 में लिखी वह अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी. लेकिन उसे आप देवनागरी लिपि में भी लिख सकते थे. जो काम गांधी और टैगोर नहीं कर सके. जो काम हिन्दी के लेखक ठीक से करते नहीं हैं. उस पर साहसपूर्वक बात तक नहीं करते हैं. सन् 2009 में भी बात नहीं करते हैं. भगतसिंह जैसे 17 साल के तरुण ने हिन्दुस्तान के इतिहास को रोशनी दी है. उनके ज्ञान-पक्ष की तरफ हम पूरी तौर से अज्ञान बने हैं. फिर भी भगतसिंह की जय बोलने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है.

तीसरी बात यह है कि भगतसिंह जिज्ञासु विचारक थे, क्लासिकल विचारक नहीं. 23 साल की उम्र का एक नौजवान स्थापनाएं करके चला जाये-ऐसी संभावना भी नहीं हो सकती. भगतसिंह तो विकासशील थे. बन रहे थे. उभर रहे थे. अपने अंतत: तक नहीं पहुंचे थे. हिन्दुस्तान के इतिहास में भगतसिंह एक बहुत बड़ी घटना थे. भगतसिंह को इतिहास और भूगोल के खांचे से निकलकर अगर हम मूल्यांकन करें और भगतसिंह को इतिहास और भूगोल के संदर्भ में रखकर अगर हम विवेचित करें, तो दो अलग अलग निर्णय निकलते हैं.

मान लें भगतसिंह 1980 में पैदा हुए होते और 20 वर्ष में बीसवीं सदी चली जाती. उसके बाद 2003 में उनकी हत्या कर दी गई होती. उन्हें शहादत मिल गई होती. तो भगतसिंह का कैसा मूल्यांकन होता. भगतसिंह 1907 में पैदा हुए और 1931 में हमारे बीच से चले गये. ऐसे भगतसिंह का मूल्यांकन कैसा होना चाहिए.

भगतसिंह एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जो राष्ट्रवादी और देशभक्त परिवार था. वे किसी वणिक या तानाशाह के परिवार में पैदा नहीं हुए थे. मनुष्य के विकास में उसके परिवार, मां बाप की परवरिश, चाचा और औरों की भूमिका होती है. भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह एक विचारक थे, लेखक थे, देशभक्त नागरिक थे. उनके पिता खुद एक बड़े देशभक्त नागरिक थे. उनका भगतसिंह के जीवन पर असर पड़ा. लाला छबीलदास जैसे पुस्तकालय के प्रभारी से मिली किताबें भगतसिंह ने दीमक की तरह चाटीं. वे कहते हैं कि भगतसिंह किताबों को पढ़ता नहीं था. वह तो निगलता था.

1914 से 1919 के बीच पहला विश्वयुद्ध हुआ. उसका भी भगतंसिंह पर गहरा असर हुआ. भगतसिंह के पिता और चाचा कांग्रेसी थे. भगतसिंह जब राष्ट्रीय राजनीति में धूमकेतु बनकर, ध्रुवतारा बनकर, एक नियामक बनकर उभरने की भूमिका में आए, तब 1928 का वर्ष आया. 1928 हिन्दुस्तान की राजनीति के मोड़ का बहुत महत्वपूर्ण वर्ष है. 1928 में इतनी घटनाएं और अंग्रेजों के खिलाफ इतने आंदोलन हुए जो उसके पहले नहीं हुए थे. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि 1928 का वर्ष भारी उथलपुथल का, भारी राजनीतिक हलचल का वर्ष था. 1930 में कांग्रेस का रावी अधिवेशन हुआ. 1928 से 1930 के बीच ही कांग्रेस की हालत बदल गई. जो कांग्रेस केवल पिटीशन करती थी, अंग्रेज से यहां से जाने की बातें करती थी. उसको मजबूर होकर लगभग अर्धहिंसक आंदोलनों में भी अपने आपको कभी कभी झोंकना पड़ा. यह भगतसिंह का कांग्रेस की नैतिक ताकत पर मर्दाना प्रभाव था. हिन्दुस्तान की राजनीति में कांग्रेस में पहली बार युवा नेतृत्व अगर कहीं उभर कर आया है तो सुभाष बाबू और जवाहरलाल नेहरू के नाम. कांग्रेस में 1930 में जवाहरलाल नेहरू लोकप्रिय नेता बनकर 39 वर्ष की उम्र में राष्ट्र्रीय अध्यक्ष बने. उनके हाथों तिरंगा झंडा फहराया गया और उन्होंने कहा कि पूर्ण स्वतंत्रता ही हमारा लक्ष्य है. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का यह चरित्र मुख्यत: भगतसिंह की वजह से बदला. भगतसिंह इसके समानांतर एक बड़ा आंदोलन चला रहे थे. 

लोग गांधीजी को अहिंसा का पुतला कहते हैं और भगतसिंह को हिंसक कह देते हैं. भगतसिंह हिंसक नहीं थे. जो आदमी खुद किताबें पढ़ता था, उसको समझने के लिए अफवाहें गढ़ने की जरूरत नहीं है. उसको समझने के लिए अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, ब्याज स्तुति और ब्याज निंदा की जरूरत नहीं है. भगतंसिंह ने 'मैं नास्तिक क्यों हूं' लेख लिखा है. भगतंसिंह ने नौजवान सभा का घोषणा पत्र लिखा जो कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के समानांतर है. भगतसिंह ने अपनी जेल डायरी लिखी है, जो आधी अधूरी हमारे पास आई है. भगतसिंह ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी एसोसिएशन का घोषणा पत्र, उसका संविधान बनाया. 

 फांसी के फंदे पर चढ़ने का फरमान पहुंचने के बाद जब जल्लाद उनके पास आया तब बिना सिर उठाए भगतसिंह ने उससे कहा 'ठहरो भाई, मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं. एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है. थोड़ा रुको.' आप कल्पना करेंगे कि जिस आदमी को कुछ हफ्ता पहले, कुछ दिनों पहले, यह मालूम पड़े कि उसको फांसी होने वाली है. उसके बाद भी रोज किताबें पढ़ रहा है.  

पहली बार भगतसिंह ने कुछ ऐसे बुनियादी मौलिक प्रयोग हिन्दुस्तान की राजनीतिक प्रयोगशाला में किए हैं जिसकी जानकारी तक लोगों को नहीं है. भगतंसिंह के मित्र कॉमरेड सोहन सिंह जोश उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी में ले जाना चाहते थे, लेकिन भगतंसिंह ने मना कर दिया. जो आदमी कट्टर मार्क्सवादी था, जो रूस के तमाम विद्वानों की पुस्तकों को चाटता था. फांसी के फंदे पर चढ़ने का फरमान पहुंचने के बाद जब जल्लाद उनके पास आया तब बिना सिर उठाए भगतसिंह ने उससे कहा 'ठहरो भाई, मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं. एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है. थोड़ा रुको.' आप कल्पना करेंगे कि जिस आदमी को कुछ हफ्ता पहले, कुछ दिनों पहले, यह मालूम पड़े कि उसको फांसी होने वाली है. उसके बाद भी रोज किताबें पढ़ रहा है. भगतसिंह मृत्युंजय था. हिन्दुस्तान के इतिहास में इने गिने ही मृत्युंजय हुए हैं.

भगतसिंह ने कुछ मौलिक प्रयोग किए थे. इंकलाब जिंदाबाद मूलत: भगतसिंह का नारा नहीं था. वह कम्युनिस्टों का नारा था. लेकिन भगतसिंह ने इसके साथ एक नारा जोड़ा था 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद.' भगतसिंह ने तीसरा एक नारा जोड़ा था 'दुनिया के मजदूरों एक हो.' ये तीन नारे भगतसिंह ने हमको दिए थे. कम्युनिस्ट पार्टी या कम्युनिस्टों का अंतर्राष्ट्र्रीय क्रांति का नारा भगतसिंह की जबान में चढ़ने के बाद अमर हो गया. 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' का नारा आज भी कुलबुला रहा है हमारे दिलों के अंदर, हमारे मन के अंदर, हमारे सोच में. क्या सोच कर भगतसिंह ने 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' का नारा दिया होगा. तब तक गांधी जी ने यह नारा नहीं दिया था. क्या सोच कर भगतसिंह ने कहा दुनिया के मजदूरों एक हो.

हम उस देश में रहते हैं, जहां अंग्रेजों के बनाए काले कानून आज भी हमारी आत्मा पर शिकंजा कसे हुए हैं और हमको उनकी जानकारी तक नहीं है. हम इस बात में गौरव समझते हैं कि हमने पटवारी को पचास रुपए घूस खाते हुए पकड़वा दिया और हम समाज के बेहद ईमानदार आदमी हैं. हमें बड़ी खुशी होती है, जब लायंस क्लब के अध्यक्ष बनकर हम कोई प्याऊ या मूत्रशाला खोलते हैं और अपनी फोटो छपवाते हैं. हमें बेहद खुशी होती है अपने पड़ोसी को बताते हुए कि हमारा बेटा आईटीआई में फर्स्ट आया है और अमेरिका जाकर वहां की नौकरी कर रहा है और सेवानिवृत्त होने के बाद उसके बच्चों के कपड़े धोने हम भी जाएंगे. इन सब बातों से देश को बहुत गौरव का अनुभव होता है. लेकिन मूलत: भगतसिंह ने कहा क्या था.

भगतसिंह भारत का पहला नागरिक, विचारक और नेता है जिसने कहा था कि हिन्दुस्तान में केवल किसान और मजदूर के दम पर नहीं, जब तक नौजवान उसमें शामिल नहीं होंगे, तब तक कोई क्रांति नहीं हो सकती. कोई पार्टी नौजवानों को राजनीति में सीधे आने का आव्हान नहीं करती. यह अलबत्ता बात अच्छी हुई कि राजीव गांधी के कार्यकाल में 18 वर्ष के नौजवान को वोट डालने का अधिकार तो मिला. वरना नौजवान को तो हम बौद्धिक दृष्टि से हिन्दुस्तान की राजनीति में बांझ समझते हैं. 



हम उस देश में रहते हैं, जहां की सुप्रीम कोर्ट कहती है कि जयललिता जी को इस बात का अधिकार है कि वे हजारों सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दें. और सरकारी कर्मचारियों का कोई मौलिक अधिकार नहीं है कि अपने सेवा शर्तों की लड़ाई के लिए धरना भी दे सकें. प्रदर्शन कर सकें. हड़ताल कर सकें. हम उस देश में रहते हैं, जहां नगरपालिकाएं पीने का पानी जनता को मुहैया कराएं, यह उनका मौलिक कर्तव्य नहीं है. अगर नगरपालिका पीने का पानी मुहैया नहीं कराती है तो भी हम टैक्स देने से नहीं बच सकते. इस देश का सुप्रीम कोर्ट और हमारा कानून कहता है कि आपको नगरपालिका पीने का पानी भले मत दे. आप प्यासे भले मर जाएं लेकिन टैक्स आपको देना पड़ेगा क्योंकि उनके और नागरिक के कर्तव्य में कोई पारस्परिक रिश्ता नहीं है. ये जो जंगल का कानून है 1894 का है. 

हम नदियों का पानी उपयोग कर सकें इसका कानून उन्नीसवीं शताब्दी का है. भारतीय दंड विधान लॉर्ड मैकाले ने 1860 में बनाया था. पूरे देश का कार्य व्यापार सारी दुनिया से हो रहा है वह कांट्रेक्ट एक्ट 1872 में बना था. हमारे जितने बड़े कानून हैं, वे सब उन्नीसवीं सदी की औलाद हैं. बीसवीं सदी तो इस लिहाज से बांझ है. अंग्रेजों की दृष्टि से बनाए गए हर कानून में सरकार को पूरी ताकत दी गई है कि जनता के आंदोलन को कुचलने में सरकार चाहे जो कुछ करे, वह वैध माना जाएगा.

आजादी के साठ वर्ष बाद भी इन कानूनों को बदलने के लिए कोई भी सांसद हिम्मत नहीं करता. आवाज तक नहीं उठाता. भगतसिंह संविधान सभा में तो थे नहीं. भगतसिंह ने आजादी तो देखी नहीं. वे कहते थे कि हमको समाजवाद एक जीवित लक्ष्य के रूप में चाहिए जिसमें नौजवान की जरूरी हिस्सेदारी होगी. अस्सी बरस के बूढ़े नेता देश में चुनाव लड़ना चाहते हैं. 75 या 70 बरस के नेता को युवा कह दिया जाता है. 60 वर्ष के तो युवा होते ही होते हैं. हम 25 वर्षों के नौजवानों को संसद में नहीं भेजना चाहते.

महात्मा गांधी भी कहते थे इस देश में 60 वर्ष से ऊपर के व्यक्ति को किसी पार्टी को टिकट नहीं देना चाहिए. हम पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा आवारा पशुओं, वेश्याओं और साधुओं के देश हैं. सबसे ज्यादा बेकार, भिखारी, कुष्ठ रोगी, एड्स के रोगी, अपराधी तत्व, नक्सलवादी, भ्रष्ट नेता, चूहे, पिस्सू, वकील हमारे यहां हैं. शायद चीन को छोड़कर लेकिन अब हमारी आबादी भी उससे ज्यादा होने वाली हैं. क्या यही भगतसिंह का देश है. यही भगतसिंह ने चाहा था? 

असेम्बली में भगतसिंह ने जानबूझकर कच्चा बम फेंका. अंग्रेज को मारने के लिए नहीं. ऐसी जगह बम फेंका कि कोई न मरे. केवल धुआं हो. हल्ला हो. आवाज हो. दुनिया का ध्यान आकर्षित हो. टी डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल के खिलाफ भगतसिंह ने जनजागरण किया. कहां है श्रमिक आंदोलन आज? भारत में कैसी लोकशाही बची है? श्रमिक आंदोलनों को कुचल दिया गया है. इस देश में कोई श्रमिक आंदोलन होता ही नहीं है. होने की संभावना भी नहीं है. 

असेम्बली में भगतसिंह ने जानबूझकर कच्चा बम फेंका. अंग्रेज को मारने के लिए नहीं. ऐसी जगह बम फेंका कि कोई न मरे. केवल धुआं हो. हल्ला हो. आवाज हो. दुनिया का ध्यान आकर्षित हो. टी डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल के खिलाफ भगतसिंह ने जनजागरण किया. कहां है श्रमिक आंदोलन आज? भारत में कैसी लोकशाही बची है? श्रमिक आंदोलनों को कुचल दिया गया है. इस देश में कोई श्रमिक आंदोलन होता ही नहीं है. होने की संभावना भी नहीं है. इस देश की खलनायकी में यहां की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों का बराबर का अधिकार है. यह भगतसिंह का सपना नहीं था. यह भगतसिंह का रास्ता नहीं है.

एक बिंदु की तरफ अक्सर ध्यान खींचा जाता है अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए कि महात्मा गांधी और भगतसिंह को एक दूसरे का दुश्मन बता दिया जाए. भगतसिंह को गांधी जी का धीरे धीरे चलने वाला रास्ता पसंद नहीं था. लेकिन भगतसिंह हिंसा के रास्ते पर नहीं थे. उन्होंने जो बयान दिया है उस मुकदमे में जिसमें उनको फांसी की सजा मिली है, उतना बेहतर बयान आज तक किसी भी राजनीतिक कैदी ने वैधानिक इतिहास में नहीं दिया.

जेल के अंदर छोटी से छोटी चीज भी भगतसिंह के दायरे के बाहर नहीं थी. जेल के अंदर जब कैदियों को ठीक भोजन नहीं मिलता था और सुविधाएं जो मिलनी चाहिए थीं, नहीं मिलती थीं, तो भगतसिंह ने आमरण अनशन किया. उनको तो मिल गया. लेकिन क्या आज हिन्दुस्तान की जेलों में हालत ठीक है? भगतसिंह को संगीत और नाटक का भी शौक था. भगतसिंह के जीवन में ये सब चीजें गायब नहीं थीं. भगतसिंह कोई सूखे आदमी नहीं थे. भगतसिंह को समाज के प्रत्येक इलाके में दिलचस्पी थी. तरह तरह के विचारों से सामना करना उनको आता था. वे एक कुशल पत्रकार थे. आज हमारे अखबार कहां हैं? अमेरिकी पद्धति और सोच के अखबार. जिन्हें पढ़ने में दो मिनट लगता है. आप टीवी क़े चैनल खोलिए. एक तरह की खबर आएगी और सबमें एक ही समय ब्रेक हो जाता है. प्रताप, किरती, महारथी और मतवाला वगैरह तमाम पत्रिकाओं में हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी में भगतसिंह लिखते थे. उनसे ज्यादा तो किसी ने लिखा ही नहीं उस उम्र में. गणेशशंकर विद्यार्थी की उन पर बहुत मेहरबानी थी.

भगतसिंह कुश्ती बहुत अच्छी लड़ते थे. एक बार भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद में दोस्ती वाला झगड़ा हो गया तो भगतसिंह ने चंद्रशेखर आजाद को कुश्ती में चित्त भी कर दिया था. एक बहुरंगी, बहुआयामी जीवन इस नौजवान आदमी ने जिया था. वे मरे हुए या बूढ़े आदमी नहीं थे. खाने पीने का शौक भी भगतसिंह को था. कम से कम दुनिया के 35 ऐसे बड़े लेखक थे जिनको भगतसिंह ने ठीक से पढ़ रखा था. बेहद सचेत दिमाग के 23 साल के नौजवान के प्रति मेरा सिर श्रद्धा से इसलिए भी झुकता है कि समाजवाद के रास्ते पर हिन्दुस्तान के जो और लोग उनके साथ सोच रहे थे, भगतसिंह ने उनके समानांतर एक लकीर खींची लेकिन प्रयोजन से भटककर उनसे विवाद उत्पन्न नहीं किया जिससे अंगरेजी सल्तनत को फायदा हो. मुझे लगता है कि हिन्दुस्तान की राजनीति में कुछ लोगों को मिलकर काम करना चाहिए था. 


मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि महात्मा गांधी और विवेकानंद मिलकर हिन्दुस्तान की राजनीतिक दिशा पर बात क्यों नहीं कर पाये. गांधीजी उनसे मिलने बेलूर मठ गए थे लेकिन विवेकानंद की बीमारी की वजह से सिस्टर निवेदिता ने उनसे मिलने नहीं दिया था. समझ में नहीं आता कि भगतसिंह जैसा विद्वान विचारक विवेकानंद के समाजवाद पर कुछ बोला क्यों नहीं, जबकि विवेकानंद के छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त को भगतसिंह ने भाषण देने बुलाया था. यह नहीं कहा जा सकता कि विवेकानंद के विचारों से भगतसिंह परिचित नहीं थे. उनके चेहरे से बहुत से कंटूर उभरते हैं, जिसको देखने की ताब हममें होनी चाहिए. 


भगतसिंह समाजवाद और धर्म को अलग अलग समझते थे. विवेकानंद समाजवाद और धर्म को सम्पृक्त करते थे. विवेकानंद समझते थे कि हिन्दुस्तान की धार्मिक जनता को धर्म के आधार पर समाजवाद की घुट्टी अगर पिलायी जाए तो शायद ठीक से समझ में बात आएगी. गांधीजी भी लगभग इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करते थे. लेकिन भगतसिंह हिन्दुस्तान का पहला रेशनल थिंकर, पहला विचारशील व्यक्ति था जो धर्म के दायरे से बाहर था. श्रीमती दुर्गादेवी वोहरा को लेकर जब भगतसिंह को अंग्रेज जल्लादों से बचने के लिए अपने केश काटकर प्रथम श्रेणी के डब्बे में कलकत्ता तक की यात्रा करनी पड़ी तो लोगों ने आलोचना की. उन्होंने कहा कि सिख होकर अपने केश कटा लिए आपने? हमारे यहां तो पांच चीजें रखनी पड़ती हैं हर सिख को. उसमें केश भी होता है. यह आपने क्या किया. कैसे सिख हैं आप! जो सज्जन सवाल पूछ रहे थे वे शायद धार्मिक व्यक्ति थे. भगतसिंह ने एक धार्मिक व्यक्ति की तरह जवाब दिया कि मेरे भाई तुम ठीक कहते हो. मैं सिख हूं. गुरु गोविंद सिंह ने कहा है कि अपने धर्म की रक्षा करने के लिए अपने शरीर का अंग अंग कटवा दो. मैंने केश कटवा दिए. अब मौका मिलेगा तो अपनी गरदन कटवा दूंगा. यह तार्किक विचारशीलता भगतसिंह की है. उस नए हिन्दुस्तान में वे 1931 के पहले कह रहे थे जिसमें हिन्दुस्तान के गरीब आदमी, इंकलाब और आर्थिक बराबरी के लिए, समाजवाद को पाने के लिए, देश और चरित्र को बनाने के लिए, दुनिया में हिन्दुस्तान का झंडा बुलंद करने के लिए धर्म जैसी चीज की हमको जरूरत नहीं होनी चाहिए. 

श्रीमती दुर्गादेवी वोहरा को लेकर जब भगतसिंह को अंग्रेज जल्लादों से बचने के लिए अपने केश काटकर प्रथम श्रेणी के डब्बे में कलकत्ता तक की यात्रा करनी पड़ी तो लोगों ने आलोचना की. उन्होंने कहा कि सिख होकर अपने केश कटा लिए आपने? हमारे यहां तो पांच चीजें रखनी पड़ती हैं हर सिख को. उसमें केश भी होता है. यह आपने क्या किया. कैसे सिख हैं आप! जो सज्जन सवाल पूछ रहे थे वे शायद धार्मिक व्यक्ति थे. भगतसिंह ने एक धार्मिक व्यक्ति की तरह जवाब दिया कि मेरे भाई तुम ठीक कहते हो. मैं सिख हूं. गुरु गोविंद सिंह ने कहा है कि अपने धर्म की रक्षा करने के लिए अपने शरीर का अंग अंग कटवा दो. मैंने केश कटवा दिए. अब मौका मिलेगा तो अपनी गरदन कटवा दूंगा. 

आज हम उसी में फंसे हुए हैं. क्या सबूत है कि अयोध्या में राम हुए थे? क्या सबूत है कि मंदिर बन जाने पर रामचंद्र जी वहां आकर विराजेंगे. क्या जरूरत है किसी मस्जिद को तोड़ दिया जाए. क्या जरूरत है कि देश के छोटे छोटे मंदिरों को तोड़ दिया जाए. क्या जरूरत है कि होली दीवाली के त्यौहार पर और कोई बम फेंक दे. इन सारे सवालों का जवाब हम 2009 में ढूंढ़ नहीं पा रहे हैं.

भगतसिंह ने शहादत दे दी, फकत इतना कहना भगतसिंह के कद को छोटा करना है. जितनी उम्र में भगतसिंह कुर्बान हो गए, इससे कम उम्र में मदनलाल धींगरा और शायद करतार सिंह सराभा चले गए थे. भगतसिंह ने तो स्वयं मृत्यु का वरण किया. यदि वे पंजाब की असेंबली में बम नहीं फेंकते तो क्या होता. कांग्रेस के इतिहास को भगतसिंह का ऋणी होना पड़ेगा. लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल और बालगंगाधर तिलक ने कांग्रेस की अगुआई की थी. भगतसिंह लाला लाजपत राय के समर्थक और अनुयायी शुरू में थे. उनका परिवार आर्य समाजी था. भूगोल और इतिहास से काटकर भगतसिंह के कद को एक बियाबान में नहीं देखा जा सकता. जब लाला लाजपत राय की जलियान वाला बाग की घटना के दौरान लाठियों से कुचले जाने की वजह से मृत्यु हो गई तो भगतसिंह ने केवल उस बात का बदला लेने के लिए एक सांकेतिक हिंसा की और सांडर्स की हत्या हुई. भगतसिंह चाहते तो और जी सकते थे. यहां वहां आजादी की अलख जगा सकते थे. बहुत से क्रांतिकारी भगतसिंह के साथी जिए ही. लेकिन भगतसिंह ने सोचा कि यही वक्त है जब इतिहास की सलवटों पर शहादत की इस्तरी चलाई जा सकती है. जिसमें वक्त के तेवर पढ़ने का माधा हो, ताकत हो वही इतिहास पुरुष होता है.

भगतसिंह ने सारी दुनिया का ध्यान अंग्रेज हुक्मरानों के अन्याय की ओर खींचा और जानबूझकर असेंबली बम कांड रचा. भगतसिंह इतिहास की समझ के एक बहुत बड़े नियंता थे. हम उस भगतसिंह की बात ज्यादा क्यों नहीं करते? भगतसिंह का एक बहुत प्यारा चित्र है जिसमें वे चारपाई पर बैठे हुए हैं. उस चेहरे में हिन्दुस्तान नजर आता है. ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान बैठा हुआ है.

भगतसिंह पर जितनी शोधपरक किताबें लिखी जानी चाहिए थी, उतनी अच्छी किताबें अब भी नहीं लिखी गई हैं. कुछ लोग भगतसिंह के जन्मदिन और शहादत के पर्व को हाल तक मनाते थे. अब उनके हाथ में साम्प्रदायिकता के दूसरे झंडे आ गए हैं. उनको भगतसिंह काम का नजर नहीं आता. किसी भी राजनीतिक पार्टी के घोषणा पत्र को पढ़िए. उनके भी जो समाजवाद का डंका पीट रहे हैं. तो लगेगा कि सब ढकोसला है. हममें से कोई काबिल नहीं है जो भगतसिंह का वंशज कहलाने का अधिकारी हो. भगतसिंह की याद करने का अधिकारी हो. हम उस रास्ते को भूल चुके हैं.

अमेरिका के साम्राज्यवाद के सामने हम गुलामी कर रहे हैं. हम पश्चिम के सामने बिक रहे हैं. बिछ रहे हैं. इसके बाद भी हम कहते हैं हिन्दुस्तान को बड़ा देश बनाएंगे. गांधी और भगतसिंह में एक गहरी राजनीतिक समझ थी. भगतसिंह ने गांधी के समर्थन में भी लिखा है. उनके रास्ते निस्संदेह अलग अलग थे. उनकी समझ अलग अलग थी. जब गांधीजी केन्द्र में थे. कांग्रेस के अंदर एक बार भूचाल आया. गांधीजी के भगतसिंह सम्बन्धी विचार को नकारने की स्थिति आई. उस समय 1500 में लगभग आधे वोट भगतसिंह के समर्थन में आए. भगतसिंह को समर्थन देना या नहीं देना इस पर कांग्रेस विभाजित हो गई. इसी वजह से युवा जवाहरलाल नेहरू को 1930 में रावी कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. कांग्रेस के जिस दूसरे नौजवान नेता ने भगतसिंह का वकील बनकर मुकदमा लड़ने की पेशकश की और गांधी का विरोध किया, वह सुभाष बोस 1938 में हरिपुरा और फिर 1939 में त्रिपुरी की कांग्रेस में गांधी के उम्मीदवार को हराकर कांग्रेस का अध्यक्ष बना. इन सबमें भगतसिंह का पुण्य, याद और कशिश है. नौजवानों को आगे करने की जो जुगत भगतसिंह ने बनाई थी, जो राह बताई थी, उस रास्ते पर भारत का इतिहास नहीं चला. मैं नहीं समझता कि नौजवान केवल ताली बजाने के लायक हैं. मैं नहीं समझता कि हिन्दुस्तान के नौजवानों को राजनीति से अलग रखना चाहिए. मैं नहीं समझता कि हिन्दुस्तान के 18 वर्ष के नौजवान जो वोट देने का अधिकार रखते हैं उनको राजनीति की समझ नहीं है. जब अस्सी नब्बे वर्ष के लोग सत्ता की कुर्सी का मोह नहीं छोड़ सकते तो नौजवान को हिन्दुस्तान की राजनीति से अलग करना मुनासिब नहीं है. लेकिन राजनीति का मतलब कुर्सी नहीं है.

भगतसिंह ने कहा था जब तक हिन्दुस्तान के नौजवान हिन्दुस्तान के किसान के पास नहीं जाएंगे, गांव नहीं जाएंगे. उनके साथ पसीना बहाकर काम नहीं करेंगे तब तक हिन्दुस्तान की आजादी का कोई मुकम्मिल अर्थ नहीं होगा. मैं हताश तो नहीं हूं लेकिन निराश लोगों में से हूं.

मैं मानता हूं कि हिन्दुस्तान को पूरी आजादी नहीं मिली है. जब तक ये अंगरेजों के बनाए काले कानून हमारे सर पर हैं, संविधान की आड़ में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट से लेकर हमारे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री फतवे जारी करते हैं कि संविधान की रक्षा होनी है. किस संविधान की रक्षा होनी चाहिए? संविधान में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, केनेडा, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, जापान और कई और देशों की अनुगूंजें शामिल हैं. इसमें याज्ञवल्क्य, मैत्रेयी, चार्वाक, कौटिल्य और मनु के अनुकूल विचारों के अंश नहीं हैं. गांधी नहीं हैं. भगतसिंह नहीं हैं. लोहिया नहीं हैं. इसमें केवल भारत नहीं है.

हम एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश का शिकार हैं. हमको यही बताया जाता है कि डॉ अंबेडकर ने हिन्दुस्तान के संविधान की रचना की. भारत के स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों ने हिन्दुस्तान के संविधान की रचना की. संविधान की पोथी को बनाने वाली असेम्बली का इतिहास पढ़ें. सेवानिवृत्त आईसीएस अधिकारी, दीवान साहब और राय बहादुर और कई पश्चिमाभिमुख बुद्धिजीवियों ने मूल पाठ बनाया. देशभक्तों ने उस पर बहस की. उस पर दस्तखत करके उसको पेश कर दिया. संविधान की पोथी का अपमान नहीं होना चाहिए लेकिन जब हम रामायण, गीता, कुरान शरीफ, बाइबिल और गुरु ग्रंथ साहब पर बहस कर सकते हैं कि इनके सच्चे अर्थ क्या होने चाहिए. तो हमको हिन्दुस्तान की उस पोथी की जिसकी वजह से सारा देश चल रहा है, आयतों को पढ़ने, समझने और उसके मर्म को बहस के केन्द्र में डालने का भी अधिकार मिलना चाहिए. यही भगतसिंह का रास्ता है.

भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि किसी की बात को तर्क के बिना मानो. जब मैं भगतसिंह से तर्क करता हूं. बहस करता हूं. तब मैं पाता हूं कि भगतसिंह के तर्क में भावुकता है और भगतसिंह की भावना में तर्क है. भगतसिंह हिन्दुस्तान का पहला नेता था, पूरी क्रांतिकारी सेना में भगतसिंह अकेला था, जिसने दिल्ली के सम्मेलन में कहा कि हमें सामूहिक नेतृत्व के जरिए पार्टी को चलाने का शऊर सीखना चाहिए. वह तमीज सीखनी चाहिए ताकि हममें से कोई अगर चला जाए तो पार्टी मत बिखरे. भगतसिंह ने सबसे पहले देश में कहा था कि व्यक्ति से पार्टी बड़ी होती है. पार्टी से सिद्धांत बड़ा होता है. हम यह सब भूल गए. हमको केवल तमंचे वाला भगतसिंह याद है. अगर कोई थानेदार अत्याचार करता है तो हमको लगता है भगतसिंह की तरह हम उसे गोली मार दें. हम उसको अजय देवगन समझते हैं या धर्मेन्द्र का बेटा. 

भगतसिंह किताबों में कैद है. उसको किताबों से बाहर लाएं. भगतसिंह विचारों के तहखाने में कैद है. उसको बहस के केन्द्र में लाएं. इसका रास्ता भी भगतसिंह ने ही बताया था. भगतसिंह ने कहा था कि ये बड़े बड़े अखबार तो बिके हुए हैं. इनके चक्कर में क्यों पड़ते हो. भगतसिंह और उनके साथी छोटे छोटे ट्रैक्ट 16 और 24 पृष्ठों की पत्रिकाएं छाप कर आपस में बांटते थे. हम यही कर लें तो इतनी ही भगतसिंह की सेवा बहुत है.  

भगतसिंह किताबों में कैद है. उसको किताबों से बाहर लाएं. भगतसिंह विचारों के तहखाने में कैद है. उसको बहस के केन्द्र में लाएं. इसका रास्ता भी भगतसिंह ने ही बताया था. भगतसिंह ने कहा था कि ये बड़े बड़े अखबार तो बिके हुए हैं. इनके चक्कर में क्यों पड़ते हो. भगतसिंह और उनके साथी छोटे छोटे ट्रैक्ट 16 और 24 पृष्ठों की पत्रिकाएं छाप कर आपस में बांटते थे. हम यही कर लें तो इतनी ही भगतसिंह की सेवा बहुत है. विचारों की सान पर अगर कोई चीज चढ़ेगी वही तलवार बनेगी. यह भगतसिंह ने हमको सिखाया था. कुछ बुनियादी बातें ऐसी हैं जिनकी तरफ हमको ध्यान देना होगा.

हमारे देश में से तार्किकता, बहस, लोकतांत्रिक आजादी, जनप्रतिरोध, सरकारों के खिलाफ अराजक होकर खड़े हो जाने का अधिकार छिन रहा है. हमारे देश में मूर्ख राजा हैं. वे सत्ता पर लगातार बैठ रहे हैं. जिन्हें ठीक से हस्ताक्षर नहीं करना आता वो देश के राजनीतिक चेक पर दस्तखत कर रहे हैं. हमारे यहां एक आई एम सॉरी सर्विस आ गई है. आईएएस क़ी नौकरशाही. उसमें अब भ्रष्ट अधिकारी इतने ज्यादा हैं कि अच्छे अधिकारी ढूंढ़ना मुश्किल है. हमारे देश में निकम्मे साधुओं की जमात है. वे निकम्मे हैं लेकिन मलाई खाते हैं. इस देश के मेहनतकश मजदूर के लिए अगर कुछ रुपयों के बढ़ने की बात होती है, सब उनसे लड़ने बैठ जाते हैं. हमारे देश में असंगठित मजदूरों का बहुत बड़ा दायरा है. हम उनको संगठित करने की कोशिश नहीं करते. हमारे देश में पहले से ही सुरक्षित लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के कानून बने हुए हैं. लेकिन भारत की संसद ने आज तक नहीं सोचा कि भारत के किसानों के भी अधिकार होने चाहिए. भारतीय किसान अधिनियम जैसा कोई अधिनियम नहीं है. किसान की फसल का कितना पैसा उसको मिले वह कुछ भी तय नहीं है. एक किसान अगर सौ रुपये के बराबर का उत्पाद करता है तो बाजार में उपभोक्ता को वह वस्तु हजार रुपये में मिलती है. आठ सौ नौ सौ रुपये बिचवाली, बिकवाली और दलाली में खाए जाते हैं. उस पर भी सरकार का संरक्षण होता है और सरकार खुद दलाली भी करती है. ऐसे किसानों की रक्षा के लिए भगतसिंह खड़े हुए थे.

भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के उद्योगपतियो एक हो जाओ. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि अपनी बीवी के जनमदिन पर हवाई जहाज तोहफे में भेंट करो और उसको देश का गौरव बताओ. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि वकीलो एक हो जाओ क्योंकि वकील होने के नाते मुझे पता है कि वकीलों को एक रखना और मेंढकों को तराजू पर रखकर तौलना बराबर की बात है. भगतसिंह ने कभी नहीं कहा कि देश के डॉक्टरों को एक करो. उनको मालूम था कि अधिकतर डॉक्टर केवल मरीज के जिस्म और उसके प्राणों से खेलते हैं. उनका सारा ध्येय इस बात का होता है कि उनको फीस ज्यादा से ज्यादा कैसे मिले. अपवाद जरूर हैं. लेकिन अपवाद नियम को ही सिद्ध करते हैं. इसलिए भगतसिंह ने कहा था दुनिया के मजदूरो एक हो. इसलिए भगतसिंह ने कहा था कि किसान मजदूर और नौजवान की एकता होनी चाहिए. भगतसिंह पर राष्ट्रवाद का नशा छाया हुआ था. लेकिन उनका रास्ता मार्क्स के रास्ते से निकल कर आता था. एक अजीब तरह का राजनीतिक प्रयोग भारत की राजनीति में होने वाला था. लेकिन भगतसिंह काल कवलित हो गए. असमय चले गए.

भगतसिंह संभावनाओं के जननायक थे. वे हमारे अधिकारिक, औपचारिक नेता बन नहीं पाए. इसलिए सब लोग भगतसिंह से डरते हैं-अंगरेज और भारतीय हुक्मरान दोनों. उनके विचारों को क्रियान्वित करने में सरकारी कानूनों की घिग्गी बंध जाती है. संविधान पोषित राज्य व्यवस्थाओं में यदि कानून ही अजन्मे रहेंगे तो लोकतंत्र की प्रतिबद्धताओं का क्या होगा? भगतसिंह ने इतने अनछुए सवालों का र्स्पश किया है कि उन पर अब भी शोध होना बाकी है. भगतसिंह के विचार केवल प्रशंसा के योग्य नहीं हैं, उन पर क्रियान्वयन कैसे हो-इसके लिए बौद्धिक और जन आन्दोलनों की जरूरत है.

रविवार.काम से साभार