. सारिका श्रीवास्तव
जुलाई 2016, इंदौर, मध्य प्रदेश। उनका संबंध सिर्फ़ संगठन तक का संबंध नहीं था। उस दौर में संबंध वैसे होते ही नहीं थे। जो लोग एक मकसद लेकर चलते थे, वे चाहे सिनेमा में हों या कविता, कहानी, नाटक, चित्रकला या फोटोग्राफी या नृत्य या राजनीति में, उनके संबंध एक अलग धरातल पर चलते थे। बलराज साहनी, जिनकी जन्म शताब्दी अभी दो वर्ष पहले ही गुजरी है और अमृतलाल नागर, जिनका जन्म शताब्दी वर्ष अभी आरंभ हुआ है, पर आधारित भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), इंदौर का कार्यक्रम बीते दौर को सिर्फ़ एक श्रृद्धांजलि देना भर नहीं था, बल्कि वहाँ से सीख हासिल कर अपने वक़्त में रचनात्मक हस्तक्षेप की ज़रूरत को नये संदर्भों में पूरा करना भी था। क़रीब पाँच घंटे तक चले इस कार्यक्रम का संयोजन इप्टा के कला मानकों के मुताबिक ही किया गया था। इसमें फ़िल्म थी, नाटक था, संस्मरण था और इन विभिन्न कला रूपों को एक सूत्र में पिरोता प्रगतिशील विचार था।
इप्टा का चौदहवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन इंदौर में 2, 3 और 4 अक्टूबर को होना है। शहर में इप्टा का माहौल बनाने के लिए सालाना शिविर के अलावा इंदौर इप्टा अनेक छोटे-छोटे कार्यक्रमों को आयोजन पिछले 3-4 माह से कर रही है। अमृतलाल नागर और बलराज साहनी पर केन्द्रित 22 जुलाई 2016 का कार्यक्रम एक तरह से तीन दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन और राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सव का पूर्वरंग था। क़रीब छः सौ दर्शकों ने चार घंटे का कार्यक्रम देखा और सराहा। इसके अलावा नागर जी की पुत्रवधू शरद नागर जी की पत्नी विभा नागर और विभाजी और शरदजी की बेटी ऋचा नागर की उपस्थिति को भी दर्शकों ने आत्मीयता से स्थान दिया।
बलराज साहनीः एक दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति
स्वागत की पारम्परिक लंबी औपचारिकता को दरकिनार करते हुए इप्टा के युवा साथियों द्वारा अतिथियों को फूल भेंट कर कार्यक्रम की शुरुआत इंदौर इप्टा की ओर से जया मेहता और विनीत तिवारी द्वारा बलराज साहनी के जीवन पर आधारित दृश्य-श्रृव्य जीवन चित्र की प्रस्तुति से हुई। करीब 50 मिनिट की इस प्रस्तुति में बलराज साहनी के जीवन और सजग राजनीतिक चेतना संपन्न कलाकार के तौर पर उनके विकास को उन्हीं की फ़िल्मों के टुकड़ों से जया मेहता ने इस तरह बुना कि वह अपने आप में एक ही फ़िल्म लगने लगी। इप्टा को आगे बढ़ाने में बलराज साहनी और उनकी पत्नी दमयंती की भूमिका, सन् 1943 में अंग्रेजों और सेठ-साहूकारों द्वारा निर्मित किए बंगाल के अकाल, किसानों की बदहाली और बदहाली से निपटने के सामूहिक उपाय जहाँ इप्टा की ख्वाज़ा अहमद अब्बास निर्देशित बलराज साहनी की पहली फिल्म ‘‘धरती के लाल’’ के ज़रिये दर्शाये गए, वहीं बिमल रॉय निर्देशित फ़िल्म ‘दो बीघा जमीन’ में उन्हीं किसानों की दुर्दशा का चित्रण तो बहुत मार्मिक और प्रभावी तरह से हुआ लेकिन अंततः बिमल रॉय का किसान हारकर निराशा के गर्त में अनिश्चित भविष्य की ओर चला जाता है जबकि इप्टा की फ़िल्म में वही किसान हालात से पूरे गाँव के लोगों की एकता कायम कर लड़ता है और जीतता है। वो भी अकेले नहीं, सबके साथ। ‘गरम हवा’ यूँ तो 1973 में मशहूर फ़िल्म निर्देशक और इप्टा के मौजूदा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एम. एस. सथ्यू की सांप्रदायिकता के ज़हर पर बनी फ़िल्म है और उसमें भी आगरा इप्टा की पूरी टीम ने ही मदद की थी लेकिन उस फ़िल्म में बलराज साहनी ने जो किरदार निभाया है वो उनकी निजी ज़िंदगी के हादसात की कहानी कहता है।
इस प्रस्तुति में बलराज साहनी की आम लोगों के मन में ‘वक़्त’ फ़िल्म के किरदार की और लोकप्रिय गीत ‘ऐ मेरी जौहरज़बीं’ की याद तो की ही गई लेकिन साथ ही परदे के पीछे की उनकी क्रांतिकारी और वामपंथी छबि भी पुरज़ोर तरह से प्रस्तुत की गई। कम ही लोगों को यह पता होगा कि किस तरह 1946 में नाविक विद्रोह के समय बलराज साहनी ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आंदोलनकारियों की मदद की भूमिका निभाई और कैसे वे अंत तक अपनी वामपंथी विचारधारा का निर्वाह पंजाब के किसानों के बीच जाकर उनके दुःख सुख में शामिल होकर भी करते रहे।
इस डॉक्युमेंट्रीनुमा प्रस्तुति की संकल्पना और निर्देशन किया जया मेहता ने और स्क्रिप्ट लिखने व कमेंट्री को अपनी आवाज़ देने की भूमिका निभाई विनीत तिवारी ने। तकनीकी सहयोग आमिर सिद्दीकी और नितिन बेदरकर का रहा।
अमृतलाल नागरः दादाजी, शोधार्थी, लेखक और शिक्षक
इसके बाद नागरजी की पोती ऋचा नागर ने अमृतलाल नागर की जिंदगी के कुछ पहलूओं पर रोशनी डालते हुए बताया कि बंगाल के जिस अकाल ने बलराज साहनी पर गहरा असर डाला था उसने ही अमृतलाल नागर को उनका उपन्यास ‘भूख’ लिखने के लिये भी प्रेरित किया था। नागरजी और साहनीजी अच्छे दोस्त थे और नागरजी हम बच्चों से बलराज जी का ज़िक्र करते समय अक्सर कहते थे कि बलराज साहनी को वे अपने बड़े भाई की तरह मानते थे। नागरजी की पोती होने के साथ ही ऋचा स्वयं हिंदी और अंग्रेजी की अच्छी लेखिका हैं और उन्होंने अमेरिका के मिनेसोटा विश्वविद्यालय में प्रोफेसर होने के बाद भी भारत में महिलाओं के संगठनों और आंदोलनों से जीवंत रिश्ता बनाये रखा है।
ऋचा ने रामविलास शर्माजी के एक लेख के जरिए अमृतलालजी को दर्शकों से रूबरू करवाया जिससे दर्शक और श्रोता उनके पहनावे, आदतों और एक अलहदा मौजी व्यक्तित्व से परिचित हुए। उन्होंने बताया कि गुजराती भाषी होने के साथ-साथ उन्हें हिन्दी, मराठी, तमिल, ब्रज, अवधी, बंगाली के साथ ही साथ संस्कृत और उर्दू भी बहुत अच्छी तरह से आती थी। इन बोलियों, भाषाओं के साहित्य के अलावा इतिहास और पुरातत्व में भी उनकी खासी दिलचस्पी थी। उन्होंने ”चकल्लस’’ नामक किताब जो साधारण बोलचाल की भाषा में थी, भी निकाली। नागरजी को फ़िल्म की डबिंग के काम में भारत में ‘‘पायनीयर’’ माना जाता है। अपने फ़िल्मी जीवन में उन्होंने दो रूसी फ़िल्में और एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी की तमिल फ़िल्म ‘मीरा’ की डबिंग की।
उस समय की परिस्थितियों के बारे में चर्चा करती ऋचा बताती हैं कि ऐसा नहीं है कि पूंजीवाद और उससे प्रेरित प्रतिस्पर्धा फ़िल्म इन्डस्ट्री में तब मौजूद नहीं थे, लेकिन उस वक़्त के सामाजिक संघर्ष ने सामूहिक कल्पना और सृजन के एक ज़बर्दस्त दौर को जन्म दे दिया था। इस दौर में जहाँ एक ओर अलग-अलग जगहों की ज़बानों, साहित्य, काव्य, तथा संगीत का समन्वय हो रहा था वहीं कलाकार भी आपस में एक परिवार की तरह जुड़ रहे थे। नागरजी के इस परिवार के सदस्यों में बलराज साहनी के अलावा किशोर साहू, वीरेन्द्र देसाई, सरदार अख़्तर, नलिनी जयवन्त, लीला चिटनिस, राजा बढ़े, सुमित्रा नन्दन पन्त, नरेन्द्र शर्मा, एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी, उदय शंकर, अमला शंकर और उदय तथा अमला शंकर के पुत्र आनन्द शंकर शामिल थे।
ऋचा ने नागर जी के कुछ पत्रों के वाचन किया। शरद नागर की सद्यप्रकाशित संस्मरणात्मक पुस्तक ‘‘मैं और मेरा मन’’ जिसका संपादन ऋचा नागर ने ही किया है, में से उन्होंने वे अंश भी सुनाये जिनमें पत्रों के ज़रिये नागरजी ने अपने बच्चों को सिर्फ़ संस्कार ही नहीं दिये बल्कि समाज और उसकी राजनीति के सारे पहलुओं को खोलकर रखते हुए उन्हें रास्ता भी दिखाया।
ऋचा ने अमृतलाल नागर के व्याख्यानों पर आधारित लेख ‘‘नाटक लिखने के कुछ गुर’’ के कुछ अंश लोगों तक पहुँचाते हुए अपनी बात शुरु की ‘‘नाटक की बात करने से पहले चलो हम चारपाई की बात कर लें। चारपाई बनी होती है चार पाटियों और चार पायों की और पाटियों को पायों से जोड़ने के लिये छेद यानी चूलें भी होना चाहिये नहीं तो खटिया नहीं बनेगी। फिर उसको बुनने के लिये बाँध का ताना-बाना बनाना पड़ेगा। यही चारपाई समझ लो तुम्हारा नाटक है, तुम्हारी पाटियाँ हैं तुम्हारे पात्र। अब वो पाटियाँ पाये में बँधेंगी क्योंकि जब तक उनको धरातल नहीं मिलेगा पाटियाँ बेकार हैं। तो पाया है कथावस्तु, यानि नाटक का तत्व। जब तक चूल से चूल बराबर नहीं बैठेगी तो बात कैसे बनेगी? ऐसे ही पात्र भी पात्र के साथ जुड़ने चाहिये। सबसे पहले पात्रों का स्वरूप होने का आधार चाहिये यानि ‘थीम’ या कथावस्तु चाहिये ताकि पात्र एक दूसरे से वैसे ही जुड़ जायें जैसे चूल से चूल जुड़ती है--क्योंकि अगर चूलें आपस में सही ढंग से न जुड़ सकीं तब तो खटिया एक तरफ से ऊँची दूसरी तरफ से नीची रह जायेगी। इसलिए खटिया एक सी होनी चाहिये। ताकि जहाँ उसे बिछाओ वह सलोतर बैठे। ऊँची-नीची न हो। इसी तरह पात्रों को भी समतल दो ताकि नाटक जमे।’’
परकाया प्रवेश नाटक का मूल है इस पर अमृतलाल नागर कहते हैं कि नाटककार के रूप में अभिनय तुमको नहीं करना है लेकिन दिमाग़ में जब तक तुम खुद अभिनय नहीं करोगे तब तक अभिनेता कैसे करेगा? इसलिए नाटककार पहले अभिनय भी करता है। ‘कैरेक्टर’ की खू़बियाँ-ख़ामियाँ अपने मन में इकट्ठा करेगा तभी ‘कैरेक्टर’ ज़िन्दा होगा। अगर तुम पात्र में डूबे नहीं तो तुमको क्या मिला? यदि तुम पात्र के अनुरूप नहीं बोले तो पात्र स्वाभाविक नहीं लगेगा। जब तुम उसके अनुरूप बोलोगे तो पाओगे कि ‘डायलॉग्स’ तुम्हारे दिमाग़ के नहीं रह जायेंगे बल्कि खुद-ब-खुद पात्र के दिमाग़ के हो जायेंगे। किन्तु पराये मन में प्रवेश तुम तभी कर सकोगे जब तुम अपना ‘आब्ज़रवेशन’ बढ़ाओगे। ‘क्रियेटिव माइण्ड’ का नाम ही है ‘क्रियेटिव ईगो’। ‘क्रियेटिव ईगो’ जितनी मज़बूत होगी उतना ही अच्छा तुम्हारा लेखन होगा।
अमृतलाल नागर भारतीय जन नाट्य संघ(इप्टा) के अध्यक्ष मंडल के सदस्य ही नहीं रहे बल्कि इप्टा के लिए अनेक नाटक लिखे और निर्देशन भी किया। रज़िया सज्जाद ज़हीर ने 1953 में प्रेमचंद की कहानी ‘‘ईदगाह’’ का नाट्य रूपांतर किया था और नागर साहब ने निर्देशन। इसी नाटक के प्रदर्शन पर इप्टा के स्थानीय लोगों को तीन साल तक मुकदमा झेलना पड़ा। बाद में उच्च न्यायालय ने न केवल आयोजकों को बरी किया बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी लगाने वाले अंग्रेजों के बनाए काले कानून को ही खारिज कर दिया।
नागर की नगरिया, किस्सों की अटरिया
इस दिन की तीसरी प्रस्तुति थी हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार पद्म भूषण श्री अमृतलाल नागर की तीन कहानियों ‘शकीला की माँ’, ‘क़ादर मियाँ की भौजी’ और ‘मोती की सात चलनिया’ को एक में पिरोकर बनाए नाटक ‘‘नागर की नगरिया, किस्सों की अटरिया’’ पर मुम्बई परख समूह के कलाकारों की नाट्य प्रस्तुति। यह नाटक नागरजी के प्रति, खासतौर पर उनके शताब्दी वर्ष में उनके रचनात्मक जीवन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है। करीब एक घंटे की अवधि के इस नाटक को निर्देशित किया नाट्य लेखक और नाट्य निर्देशक तरूण कुमार ने।
नाटक में 60-70 बरस पुराना लखनऊ है जिसका माहौल रचने में निर्देशक तरुण कुमार कामयाब रहे। लखनऊ की बोलचाल का खास लहजा, जिसमें उर्दू के साथ अवधी का मीठा मिश्रण और फिर उस लहजे में लच्छेदार बातें करने वाले किरदार। नाटक के पात्रों की सधी हुई लखनवी बोली के साथ ही साथ सधे हुए अभिनय ने लोगों को अपनी जगह से हिलने का मौका भी ना दिया। हर पात्र की अपनी कहानी, उसका दर्द और तकलीफ को कलाकारों ने बखूबी निभाया। उस दौर के बाजार का दृश्य जिसमें खोमचे वाले, फेरी वाले सामान बेच रहे हैं या भौजी के घर में पान खाते कादिर मियाँ या तांगेवाले की किस्सागोई सब कुछ रोचक और जीवंत था।
तीनों ही कहानियों की बुनावट अलग-अलग महिला पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है। ‘शकीला की माँ’ जमीलन हो, ‘कादर मियाँ की भौजी’ में भौजी हो या ‘मोती की सात चलनिया’ की डॉ. निगार जैसी पढ़ी-लिखी महिला समाज के तानों-बानों में उलझी हैं। उनकी घुटन और छटपटाहट की पीड़ा को अपने अभिनय से बखूबी पेश किया उन किरदारों को निभाने वाले कलाकारों क्रमशः लीना बलोदी, मीनू शर्मा और सोहनी नियोगी ने। इसके अलावा शहजादी के किरदार में अनामिका, मोहम्मदी के किरदार में रैना, कादिर मियाँ के मनोज सिंह और इशरत के किरदार में शुभम चाँदना ने अपने किरदार को जीवन्त कर दिया और अन्य किरदारों का अभिनय भी सहज रहा। सोहनी के गायन ने नाटक की छोटी-मोटी खामियों को भी भुला दिया।
तरूण कुमार ने तीनों कहानियों को रंगमंचीय तत्वों के साथ इस तरह से गूंथा कि लखनऊ की जीवंतता, किरदारों की तमाम रंगतें, उनके बदलते रिश्ते और उनमें छिपी मानवीय करूणा संगीत के सही जगह पर इस्तेमाल से सामने आई। खास दृश्यों की सघनता को बढ़ाने के लिए प्रकाश समंजन ने दृश्यों को बेहतरीन बनाया।
आनंद मोहन माथुर सभागृह में आयोजित इंदौर इप्टा के इस कार्यक्रम में शहर के गणमान्य नागरिकों के साथ-साथ रंगमंच एवं कला की तमाम विधाओं से जुड़े कलाकारों ने शिरकत की और सभी को कार्यक्रम बेहद पसंद आया।
इंदौर इप्टा के संरक्षक वरिष्ठ अधिवक्ता आनंद मोहन माथुर स्वयं भी इस कार्यक्रम में उपस्थित रहे। पेरिन दाजी, वसंत शिंत्रे, सरोज कुमार, तपन मुखर्जी, सुशील जौहरी, अनन्त श्रोत्रिय, उत्पल बैनर्जी, जितेन्द्र वेगड़ और इंदौर के अलग-अलग नाट्य समूहों के रंगकर्मी भी मौजूद रहे। कार्यक्रम को कामयाब बनाने में प्रमोद बागड़ी, अशोक दुबे, अरविंद पोरवाल, पूजा सेरोके, राज, साक्षी, एस. के दुबे, आनंद मोहन माथुर, अब्दुल भाई, चुन्नीलाल वाधवानी, संजय वर्मा, अभय नेमा, आबिद आदि का विशेष योगदान रहा।