Wednesday, December 23, 2015

इप्टा रायगढ़ के बाइसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का प्रसारण यू-ट्यूब से भी


प्टा रायगढ़ के 26 दिसम्बर से 30 दिसम्बर 2015 तक आयोजित बाइसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह में इस वर्ष एक नया अध्याय जुड़ रहा है। पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में इसके मंचन को लगभग 400 दर्शक देखेंगे ही, परंतु न केवल शहर के, बल्कि पूरे देश-विदेश के नाट्यप्रेमी दर्शकों को पाँचों दिन का कार्यक्रम देखने का सुअवसर प्राप्त होगा।

इस वर्ष पूरे समारोह का तीन एचडी कैमरों की मदद से ऑनलाइन प्रसारण भी किया जा रहा है, जिसे यू-ट्यूब पर इंटरनेट के द्वारा ‘लाइव’ देखा जा सकता है और दूसरे दिन डाउनलोड करके ऑफलाइन भी देखा जा सकता है। इस हेतु इंटरनेट पर www.tiny.cc/iptaraigarh टाइप करने से पेज खुल जाएगा और इसे देखा जा सकेगा।

नाट्य समारोह में नाट्य-मंचन का विस्तृत विवरण इसप्रकार है - 26 दिसम्बर को पहले दिन कलामंडली, दिल्ली द्वारा ‘नुगरा का तमासा’ नाटक का मंचन होगा। 27 दिसम्बर को ‘कसाईबाड़ा’ का मंचन करेंगे - सूत्रधार, आजमगढ़ के रंगकर्मी। 28 दिसम्बर की शाम स्थानीय इप्टा के नाम होगी, जो प्रस्तुत करेंगे अपना नाटक ‘बी थ्री’। इस बार नाट्योत्सव का चौथा दिन खास होगा क्योंकि पहले दिन की बजाय चौथे दिन सातवाँ शरदचंद वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान समारोह का आयोजन दिन में ग्यारह बजे होगा, जिसमें प्रसिद्ध अभिनेता, निर्देशक, गायक, वादक, संगीतकार श्री रघुबीर यादव का सम्मान किया जाएगा तथा 29 दिसम्बर की ही शाम सात बजे रायरा रेपर्टरी, मुम्बई का श्री रघुबीर यादव अभिनीत एवं निर्देशित नाटक ‘पियानो’ मंचित होगा। नाट्य समारोह के अंतिम दिन अग्रज नाट्य दल, बिलासपुर का नाटक ‘मुआवजे’ मंचित किया जाएगा। 

इप्टा ने इस वर्ष हिंदी रंगजगत के दो बहुत महत्वपूर्ण रंगकर्मियों को खो दिया है - श्री जितेन्द्र रघुवंशी, जो इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव भी थे तथा श्री जुगल किशोर, जो इप्टा लखनऊ के वरिष्ठ सदस्य थे तथा जिन्हें इप्टा रायगढ़ ने चतुर्थ शरदचंद वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान से 2012 में सम्मानित किया था। पूरा समारोह इन दोनों रंगकर्मियों को समर्पित होगा। इसीतरह यह वर्ष प्रसिद्ध साहित्यकार एवं अभिनेता भीष्म साहनी का शताब्दी वर्ष है अतः समारोह का अंतिम नाटक भीष्म साहनी लिखित ‘मुआवजे’ का चयन विशेष रूप से किया गया है।

इस वर्ष नाट्य समारोह का आयोजन पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में किया जा रहा है। प्रवेश हमेशा की तरह
निःशुल्क होगा।

Wednesday, December 16, 2015

जनतांत्रिक मूल्यों के समर्थन में इप्टा, रायबरेली ने निकाला मार्च

रायबरेली । शनिवार को भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा ), रायबरेली द्वारा आयेाजित जुलूस का शुभारम्भ जनपद के वरिष्ठ पत्रकार गौरव अवस्थी ने झण्डा लहरा कर किया। अपरान्ह् 3 बजे सुपर मार्केट से चला यह जुलूस, सामाजिक, न्याय, धर्म निरपेक्षता और जनतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में सांस्कृतिक अभियान को गति प्रदान करने हेतुथा। शहर के प्रतिष्ठत कवि, शायर, लेखक, साहित्यकार, बुद्धिजीवी, पत्रकार,अध्यापक, सहायक प्रोफेसर, अधिवक्ता कलाकार, छात्रों एवं विभिन्नसंस्थानों के कर्मचारियों ने इस जुलूस का शामिल नेतृत्व किया। 

कमेटी के सदस्य दुर्जय शोम ने बताया – राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक -साहित्यक संगठनों के साझा अभियान का नाम साझा संघर्ष-साझी विरासत है जिसका संयोजन इप्टा ने राष्ट्रीय स्तर पर किया इसी कमेटी के जर्नादन मिश्र ने बताया कि इस अभियान की शुरूआत 6 दिसम्बर, 2015 को पूरेदेश में हो गई है। जिसके तहत सांस्कृति यात्राएँ, सभा, संगोष्ठी, नुक्कड़ नाटक, काव्य पाठ, फिल्म प्रदर्शन आदि विविध कार्यक्रम किये जायेंगे। 

तैय्यारी कमेटी के सन्तोष चौधरी ने बताया कि अभियान का दूसरा चरण गाँव केन्द्रित होगा जिसकी शुरूआत बाबा साहेब के जन्म दिवस 14 अप्रैल, 2016 से की जायेगी। जुलूस अपने अपने अन्तिम पड़ाव में शहीद चौक पहुॅचा जहाँ इप्टा के कलाकारों ने ‘अथक कथा’ का मंचन किया नाटक का कत्थ्य बहुत गम्भीर होने के बावजूद दर्शको का भरपूर मनोरंजन भी किया। राजेश वर्मा, रामदेव शर्मा अनुराग त्रिपाठी, संजय आनन्द, अश्वनी तथा जनार्दन मिश्र ने इस नाटक में अभिनय किया। ढोलक वादन किया राजकुमार ने।

जुलूस का प्रमुख आकर्षण प्लेकार्ड्स थे। जिनके विवेकानन्द, ,कबीर, अज्ञेय के सुन्दर कोटेशन बहुत सुन्दरता के साथ लिखे थे। जुलूस में डा. आर बी. वर्मा, डी पी पाल, डा. आदर्श शुक्ला, सोनी कपूर, किरन शुक्ला, महालती वर्मा, अंजना डे, अमिता भोम, जय चक्रवर्ती, अमित यादव, आनन्द स्वरूप श्रीवास्तव, रामसुद्दीन अजहर, रमाकान्त यादव, मिथिलेश श्रीवास्तव, दुर्गेश, ओम पकाश, प्रदीप कुमार, अमित मिश्रा, एस.एन.वाजपेई, बी.पी. विश्वकर्मा एवं सन्तोष डे आदि थे।

Courtesy : http://rblnews.com/?p=8059

Thursday, December 10, 2015

‘सामाजिक समरसता एवं आज की चुनौतियां’ विषय पर विचार गोष्ठी

अंबिकापुर I गोष्ठी के पहले वक्ता प्रलेस अध्यक्ष विजय गुप्त ने वर्तमान स्थितियों में राष्ट्रवाद को स्थापित करने की जद्दोजहद पर प्रकाश डाला। उन्होंने संगीत के क्षेत्र में स्थापित समरसता को रेखांकित करते हुए देश की एकता, अखंडता बनाए रखने की जरुरत पर भी बल दिया। इप्टा के सचिव कृष्णानंद तिवारी ने सामाजिक समरसता पर बात करने से पहले सत्ता के चरित्र को समझने तथा आज रंगकर्मियों, साहित्यकार एवं अन्य बुद्धिजीवियों की भी जिम्मेदारी का उल्लेख किया। गोष्ठी में छत्तीसगढ़ सीटू के अध्यक्ष जितेंद्र सिंह सोढ़ी, आलोक दुबे, अंजुमन कमेटी के इरफान सिद्दीकी, कर्मचरी नेता अनंत सिन्हा, इप्टा के अध्यक्ष प्रितपाल सिंह ने भी विचार रखे। 

कार्यक्रम का संचालन प्रांतीय अध्यक्ष वेदप्रकाश अग्रवाल ने किया। गोष्ठी के अंत में दिवंगत कवि वीरेन इंगवाल, लेखक महीप सिंह, कथाकार डॉ. कुंतल गोयल सहित चेन्नई बाढ़ के मृतकों को श्रद्धांजलि दी गई। इस अवसर पर डॉ. आशा शर्मा, सुजान बिंद, प्रकाश कश्यप, डॉ. विश्वासी एक्का, नइम परवेज, आनंद गुप्ता, डॉ. रामकुमार मिश्र, आशीष शर्मा, एसके तिवारी, एचसी पुरी, अंजनी पांडेय आदि उपस्थित थे। 

साभार : दैनिक भास्कर

Wednesday, December 9, 2015

रंग-दर्शक और रंग-स्थापत्य

नाटक को पंचमवेद कहा गया है, उसकी वजह उसका दर्शक है। प्रदर्शनकारी कलाओं में दर्शक की उपस्थिति नितांत आवश्यक  है। बिना रसिक दर्शक के यह कला निष्प्राण है। एक अच्छा वक्ता, नेता, प्रवचनकर्ता चाहता है कि जब वह बोले तो उसे सुनने वाले बड़ी तादाद में न केवल उपस्थित रहें बल्कि उसके साथ एक प्रकार का तादात्मय स्थापित कर समय-समय पर ताली बजाकर नारे लगाकर उसे रिस्पांस करें।आजकल तो बाक़ायदा इसका पूर्वाभ्यास भी कराया जा रहा है ।

एकल नाटक के मंचन के दौरान मैंने महसूस किया है कि कलाकार , नाट्य अवधि यदि एक घंटे बताता है और जब वह नाट्य मंचन करने उतरता है और उसे दर्शकों  का रिस्पांस मिलने लगता है तो उसकी अवधि कब सवा घंटे हो जाती है पता ही नहीं चलता। तीन-चार एकल प्रस्तुतियों का मैं प्रत्यक्ष साक्षी हूं। बाकी नाटकों से भी दर्शक के रिस्पांस में समयावधि को बढ़ते देखा जा सकता है। संगीत सभाओं में भी श्रोताओं की उपस्थिति कलाकार को अपने प्रदर्शन  को दोहराने के लिए बाध्य करती है।दर्शको का रिस्पांस ही कलाकार मे नई ऊर्जा का संचार करता है ।

भाई अख्तर अली जो एक नाट्य लेखक हैं, उन्होंने ‘‘नाटक देखना एक कला‘‘ की अपनी टिप्पणी में यह उल्लेखित किया है की जितनी कलात्मकता के साथ नाटक खेला जाता है उतनी ही रोचकता से नाटक देखा नहीं जाता। नये दर्शक को नाटक देखने का प्रशिक्षण दिये जाने का सुझाव उन्होंने दिया । एक अन्य वरिष्ठ रंगकर्मि साथी वाहिद शरीफ़  ने कहा है कि इस बार के रायपुर के मुक्ताकाश मंच पर आयोजित 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य  समारोह में गंभीर और सीरियस दर्शकों  की कमी खलती रही ।

   मैं भाई अख्तर और वाहिद शरीफ की  बात से सहमत हूँ, परंतु मैं कुछ ऐसी बातों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जिस पर सामान्यतः हमारे रंगकर्मियों, निर्देशकों , आयोजकों, समीक्षकों का ध्यान कम ही जाता है। वो है हमारा दर्शक  कौन है? वो कहां से, कैसे आता है ? कौन उसे बुलाता है ? उसकी रूचि क्या है ? कहीं वो ‘टाईमपास’ तो नहीं है। चार-पांच अलग-अलग स्थानों के मेरे अपने अनुभव हैं ।

   दिल्ली, मुम्बई, बैंगलौर के प्रेक्षागृह  में जहाँ सालभर थियेटर होता है वहाँ के दर्शक  अखबारों, वेबसाईट और अन्य माध्यमों से जानकारी प्राप्त करके पहले से ही नाटक देखने का मन बना लेते हैं, टिकिट ले लेते हैं, यहाँ कभी कभार हमारे जैसे लोग जो भूले भटके इन शहरो में पहुंच जाते हैं तो अखबार से पढ़कर  नाटक देखने आ   जाते हैं। अक्सर यहाँ अच्छे नाटकों के टिकिट उसी दिन मिलना मुश्किल होती हैं जबकि हमारे शहर की तुलना में नाटकों की टिकिट यहाँ सिनेमा की तुलना में काफी महंगे होते हैं। यहाँ नाटक प्रारंभ होने के बाद दर्शकों  के प्रवेश  वर्जित होता है, प्रेक्षागृह मे  दर्शक की संख्या भी सीमित होती है। अक्सर यहाँ जाने पहचाने दर्शक या कहें प्रशिक्षित दर्शक ही दिखाई देते हैं। कुछ नये लोग भी दिखते हैं जिन्होंने पहले कहीं नाटक देखा हो। नाटक देखने का चशका अफीम की तरह होता है एक बार लग जाए तो कदम बार-बार प्रेक्षागृह  की ओर चल पड़ते हैं।
गुड़गाँव में ‘जमूरा‘ जैसे प्रेक्षागृह  भी है जो बड़े और पैसे वालों के मनोरंजन के लिए बनाये गये हैं। यहाँ बहुत से मनोरंजन शो के साथ नाटकों की प्रस्तुति भी प्रोफ़ेशनल  आर्टिस्टों के माध्यम से नियमित होती है। यहाँ अधिकांश सेलिब्रिटी नाटक खेले जाते हैं जिसके बारे में बात करना, अभिजात्य वर्ग के लिए स्टेटस सिंबल बन गया है।

   दूसरा अनुभव भोपाल के भारत भवन का है जहाँ सुधी दर्शको के साथ ब्यूरोक्रेट नियमित नाटक देखने आते हैं। सह एक प्रकार से पढ़े लिखे लोगों के मिलने-जुलने बातचीत का अड्डा । जहाँ और बहुत सारी प्रदर्शनकारी कलाओं की उपस्थिति, साहित्यिक आयोजनो की मौजूदगी  है।

जबलपुर के विधुत मंडल द्वारा शहर के एक कोने मे बनाये गये तरंग आडिटोरियम में हमारे विवेचना के साथी लम्बे समय से विद्युत मंडल के सहयोग से नाट्य समारोह/मंचन करते हैं। नाटक की आधी से ज्यादा सीटें/टिकट विद्युत मंडल के लोगों के लिए होती है। दर्शको में ज्यादातर लोग विद्युत मंडल और उसके आसपास के होते है।

भिलाई के नेहरू कल्चर सेंटर में हमारे इप्टा के साथी आसपास  के बच्चों को लेकर लम्बे अरसे से गर्मियों में नाट्य शिविर  करके उसमें नाटक तैयार करते हैं फिर उसकी प्रस्तुति । इस प्रस्तुति में भिलाई स्टील प्लांट के अधिकारी तथा उन बच्चों के माता-पिता दोस्त-यार होते है जिन्होंने शिविर मे भाग लिया है , कुछ कला प्रेमी भी होते हैं ।

रायपुर में जहाँ हम नियमित नाट्य प्रस्तुति नहीं कर पाते और समारोह के दौरान हमारी प्रस्तुति कभी महाराष्ट मंडल कभी रंगमंदिर और इस बार संस्कृति विभाग के मुक्ताकाश मंच पर हुई, के दर्शको  में कभी बदलाव दिखा। रंग मंदिर और महाराष्ट्र मंडल में टिकिट लेकर नाटक देखने वाले सारे शौकीन लोग, समाज के पढ़े लिखे, बौद्धिक वर्ग के लोग आते रहे हैं जिन्होंने नाटक देखने का एक संस्कार हासिल कर लिया है किंतु मुक्ताकाश  मंच जहाँ सालभर बहुत सारी हल्की फुल्की, सांस्कृतिक गतिविधियों ,आयोजन होते रहते है। वहाँ घुमते-फिरते टाइमपास करने वाले दर्शक  की आवाजाही भी बनी रहती है। वे अपने टेस्ट की , टाईम पास चीजें देखने आते हैं। यदि उन्हें कोई गंभीर प्रस्तुति दिखाई जायेगी तो वे बीच से उठकर चल देंगे । मोबाईल पर बात करने लगेंगे। अपने साथ छोटे बच्चों को ले आयेंगे। चूंकि ये संस्कृति विभाग का परिसर है इसलिए यहां आने वाले बड़े अधिकारी/नेता पावरफूल दर्शको की उपस्थिति और उनका व्हीआईपी रूतबा भी गंभीर प्रस्तुतियों के लिए  अवरोध पैदा करता है, किंतु आयोजक की विवशता हो जाती है कि वे परिसर का ऋण चुकाये। ऐसे व्हीआईपी लोग सामने बैठकर चाय काफी पीते हैं । नाशता भी करते हैं जरूरत पड़ती है तो मोबाईल से बात भी करते हैं, उठकर भी चल देते हैं ।

   मुक्ताकाश मंच पर साल भर होने वाली प्रस्तुतियों या किसी संस्था से प्रायोजक के रूप में मिला अनुदान, एजेंडा, बजट आधारित प्रस्तुतियां कैसी होंगी यह कह पाना मुश्किल  है। हमने बहुत से आयोजनों में खराब नाटकों / करावके पर बेसूर्रे गायकों की प्रस्तुति से गंभीर दर्शकों / श्रोताओं  को बिदकते भी देखा है। मेरा अपना अनुभव है कि एक आयोजक के नाते आपकी यह पहली जवाबदारी है कि आप अपने दर्शक  को श्रेष्ठतम प्रस्तुति देखने का अवसर दें। प्रस्तुतियों के चयन में जान-पहचान, अपने लोग को भूलकर उसे रंगकर्म की कसौटी पर परखें वरना एक खराब प्रस्तुति और उसकी दूसरे दिन दर्शक तक पहुंचने वाली रिपोर्ट अगले दिन के नाटक को प्रभावित करती है। जिस तरह हर माता-पिता को अपनी कानी कुबड़ी संतान भी अच्छी लगती है। उसी तरह रचनाकार/निर्देशक /कलाकार को अपनी दोयम दर्जे की प्रस्तुति भी बहुत से मुगालते के साथ सीना चौडा करके अपनी मूर्खता पर इतराते रहने पर विवश करती है। उसका बचाकूचा विवेक अखबारो मे ब्रोसर के आधार पर छपी प्रशंसा वाली समीक्षा नष्ट कर देती है ।

   जब हम नाटकों के दर्शको  के प्रशिक्षण की बात कर रहे हैं क्या हम ईमानदारी से नाट्य प्रस्तुति कह रहे हैं ? क्या हम ईमानदारी से यह कह सकते हैं कि एक संगीतकार, गायक, नृतक, पेंटर की तरह एक रंगमंच का कलाकार भी रोज अपनी प्रेक्टिक्स के लिए समय निकालता है ? नाटक की एक डेढ़ माह की रिर्हसल में आने की आनकानी करने वाला कलाकार कैसे सोच सकता है कि उसकी आधी-अधूरी तैयारी, प्रस्तुति को दर्शक गंभीरता से लेगा ?

जहाँ तक रंग दर्शक की बात है तो वह एक पाठक की तरह ही अमूर्त होता है । निर्देशक / लेखक नही जानता की उसकी कृति को कौन देखेगा ,कौन पढ़ेगा । किन्तु एक बडा लेखक , रचनाकार , निर्देशक अपनी कृति के प्रति निर्मम भी होता है । वह जब तक अपने किये से संतुष्ट नही होता अपनी चीज़ों को पब्लिक नही करता ।  
रतन थियम ने अपने साक्षात्कार मे कहा है की यदि वे अपने नाटकों की रिहर्सल से संतुष्ट नही होते तो अपनी नाट्य प्रस्तुति को छोड़ देते हैं । यही वजह की उनका नाटक इतर भाषा का होते हुए दर्शको को अपने साथ जोड़े रखता है ।हमे रायपुर मे उनके नाटक के दो शो कराने पड़े थे ।सवाल ये भी है की क्या हमारे रंग निर्देशक अपने कार्य को लेकर इतने निर्मम हैं ।नाटक को लेकर उनकी और कलाकारों की तैय्यारी कैसी है?

जब हम रंग दर्शको की बात करते है तो हमे रंग स्थापत्य के बारे मे भी विचार करना चाहिए । अभी हम जिन स्थानों पर नाट्य प्रस्तुति कर रहे हैं क्या वो स्थान , मंच नाट्य स्थापत्य के अनुरूप है ।पूरे छत्तीसगढ मे जो सबसे पहली रंगशाला होने के गौरव से लबरेज़ हुए पर्यटन विभाग के साथ घूम रहा है वहाँ एक भी सर्वसुविधा युक्त प्रेक्षागृह नहीं है । गाँव गाँव मे सांस्कृतिक चबूतरे और आडिटोरियम के नाम पर रायपुर जैसे शहर मे जो संरचना मौजूद है उसमें एक गंभीर नाट्य प्रस्तुति कैसे हो ये चुनौती हमेशा बनी रहती है ।

- सुभाष मिश्र
सूत्र पत्रिका  के लिए रंग संवाद पर प्रत्येक बुधवार को लिखा जाने वाला कालम ।

Tuesday, December 8, 2015

लोकसेवक ऐसा ही होना चाहिए

वे 1956 बैच के आईएएस अफसर थे, पहली बार जब मैंने उन्हे देखा तो वे हमारी ऑफिस की सीढ़ियाँ चढ़ते खटाखट ऊपर चले आ रहे थे। घुटनों तक चढ़ी धोती और मोटा खद्दर का कुर्ता, बढ़ी हुई खिचड़ी दाढ़ी, हाथों मे दस बीस किताबें, कंधे पर टंगा हुआ खादी का झोला। ये बीडी शर्मा थे। मुझे क्या पता। सीधे मेरी टेबल पर आए और पूछा सर्वोदय जगत के संपादक आप ही हैं...? एकबुजुर्ग आदमी को सामने यूं झुकता देखकर मै भी खड़ा हो गया--जी, मै ही हूँ। ये आप ये 'ग्राम गणराज्य' पढ़ते हैं...? पढ़िये...! बारह पेज का एक टेब्लोएड अखबार जैसा कुछ। खोला तो पूरा ही हस्तलिखित....! बोले--जी मै ही लिखता हूँ...खुद से ही...! उस समय का उस पत्र का वार्षिक ग्राहक शुल्क मैंने 15 रूपये जमा करवा दिये। कई बार वे पंद्रह दुबारा भी भेजे गए और कई बार नही भी भेजे गए, पर ग्राम गणराज्य कभी नही आई हो, ऐसा कभी नही हुआ। ये आज से करीब ग्यारह साल पहले की बात है, जब बीडी शर्मा ग्राम गणराज्य की अपनी कल्पना को ही अपना मिशन बनाकर पूरे देश मे आँधी तूफान की तरह दौड़ रहे थे और रचनात्मक संघर्षों मे पड़ी शक्तियों को जोड़ रहे थे। अब वे नही हैं, इस खबर पर सहसा विश्वास नही होता।

बीडी शर्मा यानी हम सबके ब्रह्मदेव शर्मा। हमारे बड़े, हमारे अग्रज, हमारे मार्गदर्शक, अपनी तरह के अकेले, अनूठे और एकमात्र। मनुष्यों की इस बस्ती मे एक विशिष्ट इंसान, जिन्हे पद, पैसे या प्रभाव ने कभी विचलित नही किया और न ही वे कभी किसी बंधी बंधाई लीक पर चले। एक लोकसेवक के बतौर जिन्होने अपने पथ के फूल कांटे खुद चुने। अपनी जिम्मेदारियाँ खुद तय की और लोकाभिमुख होने के बजाय लोकोन्मुख होने को वरीयता दी, चाहे उनके रास्ते मे स्वयं इन्दिरा गांधी भी आ खड़ी हुई हों। डॉ बीडी शर्मा अपने आप मे हमारे वक़्त के इतिहास थे। उन्होने अपनी ज़िंदगी के सूत्र गांधी की जीवनी से ग्रहण किए। आइये उनके बारे मे कुछ जानें। 1968 के दौरान जब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ एक था. उस समय वे बस्तर जिले के कलेक्टर थे. निरीक्षण के दौरान उन्हें पता चला कि बैलाडीला में लौह अयस्क की खदानों में काम करने गए गैर जनजातीय पुरुषों ने शादी के नाम पर कई भोली-भाली आदिवासी युवतियों का दैहिक शोषण किया और फिर उन्हें छोड़ दिया.जिससे कई आदिवासी युवतियां गर्भवती हो गई और कुछ के तो बच्चों ने जन्म भी ले लिया था. ऐसी परिस्थिति में डॉक्टर ब्रह्मदेव ने ऐसी तमाम आदिवासी युवतियों का सर्वे कराया और उनके साथ यौन संबंध बनाने वाले लोगों, जिनमें कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी थे, को बुलाकर कह दिया कि या तो इन युवतियों को पत्नी के रूप में स्वीकार करो या आपराधिक मुकदमे के लिए तैयार हो जाओ.आखिर डॉक्टर ब्रह्मदेव के सख्त तेवर देख सबको शादी के लिए तैयार होना पड़ा और 300 से अधिक आदिवासी युवतियों की सामूहिक शादी करवाई गई.इस घटना और बस्तर में रहते हुए डॉक्टर ब्रह्मदेव का आदिवासियों से गहरा लगाव हो गया. यहां तक की आदिवासी भी उनसे गहरा लगाव रखने लगे.

आदिवासियों को नुकसान से बचाने के लिए ऐसे कई मौके आए जब वे सरकार के खिलाफ खड़े हो गए. 1973-74 में वो केन्द्रीय गृह मंत्रालय में निदेशक बने और फिर संयुक्त सचिव भी.इस दौरान सरकार बस्तर में जनजातीय इलाके में विश्व बैंक से मिले 200 करोड़ रुपये की लागत से 15 कारखाने लगाए जाने की योजना लाई. जिसका उन्होंने खुलकर विरोध किया.उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इससे सालों से उन इलाकों में रह रहे जनजातीय लोग दूसरे क्षेत्र में पलायन करने के लिए मजबूर हो जाएंगे, जो सही नहीं है. लेकिन सरकार उनसे सहमत नहीं हुई. आखिरकार 1980 में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देकर खुद को नौकरशाही से आजाद कर लिया.इस घटना के बाद वे व्यक्तिगत रूप में आदिवासियों की बेहतरी के लिए काम करने लगे. आदिवासियों के लिए इतना संघर्ष और उनके लिए लगातार काम करते रहने के समर्पण ने उन्हे आदिवासियों का मसीहा बना दिया. वे भारत के महानतम सिविलसर्वेंट्स में से एक थे. उनका आईएएस होना, गणित का पीएचडी, पूर्व एससी-एसटी कमिश्नर, पूर्व वाइस चांसलर या केंद्रीय गृह मंत्रालय मे सचिव होना भी कभी उनपर चढ़ नही पाया। वे उनमे से थे जो खुद ही अपने दायित्वों पर चढ़े रहते हैं। वे किसी भी पीढ़ी के लिए एक इंसान और एक सिविल सर्वेंट के तौर पर आदर्श व्यक्ति थे. वे ग़रीब आदमी की तरह रहते थे और खास बात ये कि अपने लिए ये गरीबी उनकी खुद की चुनी हुई थी। दिल्ली में अगर आप उनका मकान देखें तो वह एक झुग्गी झोपड़ी वाले इलाक़े में था.ऐसा नहीं था कि उनके पास पैसे नहीं थे लेकिन उनका मानना था कि जीना है तो एक साधारण आदमी की तरह जीना है. मेरे ख़्याल से भारत की प्रशासनिक सेवा के इतिहास में आपको ऐसा सिविल सर्वेंट नहीं मिलेगा जो बीडी शर्मा जैसा जिया हो। एकदम निर्वैर, एकदम अजातशत्रु। 


जब वे अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग के प्रमुख थे तो उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से कहा था --मैं एक रुपए तन्ख़्वाह लूंगा लेकिन आप हमारे काम में दख़ल मत दीजिएगा.जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने एक दिन शर्मा जी से पूछा कि आपका काम और स्टेटस क्या है. उन्होंने कहा कि देखिए राजीव जी, स्टेटस तो मेरा कुछ नहीं है क्योंकि मैं सिर्फ़ एक रुपए की तन्ख़्वाह लेता हूं लेकिन मुझे कोई ख़रीद नहीं सकता. ये मेरा स्टेटस है. भारत के प्रधानमंत्री को जवाब देने का जो उनमें साहस था वो अद्भुत और असाधारण था.वे अक्सर कहा करते थे कि जब हमारा संविधान बना तो भारत आज़ाद हुआ लेकिन आदिवासियों की आज़ादी छिन गई. अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के आयुक्त के तौर जो रिपोर्ट उन्होंने तैयार की उसे देश के आदिवासियों की भयावह स्थिति बताने वाले और उनकी सिफ़ारिशों को आदिवसियों को न्याय दिलाने की ताक़त रखने वाले दस्तावेज़ के रूप में देखा जाता है.


उन्होंने गांवों की ग़रीबी का राज़ बताते हुए किसानों की सुनियोजित लूट का विस्तृत ब्योरा दिया था. भारत जनांदोलन और किसानी प्रतिष्ठा मंच का गठन कर उन्होंने आदिवासी और किसानों के मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा. अक्सर सामाजिक आंदोलन पहले संस्था बनाते हैं फिर विचारों को फैलाने का काम करते हैं लेकिन डॉ. शर्मा के मुताबिक़ संस्था नहीं विचारों को पहले आमजन तक पहुंचना चाहिए. "जल जंगल ज़मीन" का नारा और इस संबंध में उनकी लिखी हुई किताबों ने भी अहम भूमिका अदा की और "गांव गणराज" की परिकल्पना ने ठोस रूप लिया जिसके तहत ये स्पष्ट हुआ कि गांव के लोग अपने संसाधनों का एक हिस्सा नहीं चाहते, वे उसकी मिल्कियत चाहते हैं. मुलताइ पुलिस फ़ायरिंग के बाद वे सरकार के नज़दीक होने के बावजूद किसानों की ओर से लगातार लड़ते रहे. उन्होंने किसानों के पक्ष में गवाही भी दी थी. देश के सभी दलों और सरकारों के लिए वे आजीवन आदरणीय बने रहे हालांकि बस्तर में औद्योगीकरण का विरोध करने के कारण राजनीतिक दल से जुड़े लोगों ने उन्हें अपमानित करने और उन पर हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.


उनके सामाजिक अवदानों पर एक गहरी नज़र डालिए तो उन्हे प्रणाम करने के लिए हाथ स्वतः जुडने लगते हैं.


Prem Prakash

Thursday, November 26, 2015

अनुपम का ' सारांश ' आैर दानिश इकबाल का ' सारांश '

ह महेश भट्ट की फिल्म थी - उनकी सबसे प्रिय फिल्म, जिसके जरिये 28 साल की उम्र में अनुपम खेर ने फिल्म जगत में प्रवेश किया था. लेकिन यह दानिश इकबाल का नाटक था, जिसे उन्होंने महेश भट्ट के मार्गदर्शन में ही तैयार किया है. इस प्रकार यह एक मिली-जुली कृति है. खचाखच भरे रायपुर के मुक्ताकाशी मंच पर रंग दर्शक सांस थामे मंचन देखते रहे. जबरदस्त तालियों के साथ उन्होंने दिल खोलकर कलाकारों के अभिनय की सराहना की. फिल्म पर रंगमंच का पलड़ा भारी दिखा.

ऊपरी तौर पर यह एक रिटायर्ड हेड मास्टर बी वी प्रधान की कहानी है, जो अपने बेटे की अकारण हत्या के बाद अपनी पत्नी पार्वती के साथ मिलकर जीवन के नए अर्थों की तलाश करता है. इस ' तलाश ' में वह टूटता-बिखरता है, लेकिन हारता नहीं. वह अपनी पत्नी के चेहरे की झुर्रियों में अपने जीवन का ' सारांश ' खोजता है.

लेकिन गहरे अर्थों में यह आज़ादी के बाद बने पतनशील समाज की कहानी है, जिसके मूल्य बिखर रहे हैं, सपने हवा हो रहे हैं. इस समाज पर भ्रष्टाचार का रोग लगा है. राजनीति पर अपराधीकरण हावी है और इस राजनीति का मुख्य लक्ष्य केवल चुनाव जीतना और पैसे बनाना रह गया है. यह राजनीति इतनी संवेदनहीन हो चुकी है कि कोख में पनप रहे बच्चे की भी हत्या पर वह उतारू है.

लेकिन पतनशीलता के खिलाफ एक लड़ाई हमेशा जारी रहती है. अपने बेटे अजय की हत्या प्रधान और उसकी पत्नी भूल नहीं पाते. सुजाता की कोख में पार्वती अपने बेटे अजय को देखती है.दोनों मिलकर इस बच्चे को जन्म देना ठानते हैं. लेकिन प्रधान नहीं चाहते कि उनकी पत्नी कल्पना-स्वप्न में जीयें. वे कठोरता से सुजाता व विलास को घर से अलग करके बच्चे का जन्म सुनिश्चित करते हैं. प्रधान दंपत्ति जिंदगी का सामना करने फिर से तैयार होते हैं, क्योंकि मृत कभी वापस नहीं आते और जीवन असीमित है.

' सारांश ' में अनुपम खेर ने प्रधान की भूमिका निभाई थी और असहिष्णुता के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. जिस संघर्ष को उन्होंने परदे पर लड़ा -- वह केवल अभिनय था, वास्तविक नहीं. वास्तविकता तो यह है कि आज वे असहिष्णुता की उन्हीं ताकतों के साथ हैं, जो न केवल राजनैतिक गुंडागर्दी कर रही है, बल्कि उनका बस चले तो अपनी विरोधी ताकतों को ' देशनिकाला ' दे दें. पर्दे पर वे अपने बेटे अजय की हत्या से विचलित दिख सकते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में एक अफवाह पर भीड़ द्वारा इखलाक की हत्या कर देने से वे विचलित नहीं होते. वे उस राजनीति के पक्ष में खड़े हैं, जो इखलाक, पानसारे, कलबुर्गी की हत्या के लिए जिम्मेदार है. वे उन लोगों की अगुवाई कर रहे हैं, जो इस समाज की ' उदार ' मानसिकता को ' असहिष्णु ' मानसिकता में बदल देना चाहते हैं और जो ताकतें असहिष्णुता के खिलाफ लड़ रही है, उन्हें ही ' असहिष्णु ' बताते हुए गरिया रही है. यह जरूरी भी नहीं कि एक अच्छा अभिनेता, एक अच्छा इंसान भी हो.

अनुपम खेर के ' सारांश ' से एकदम जुदा है दानिश इकबाल का ' सारांश ' . फिल्म का नायक तो आज खलनायक बन चुका है और रंगमंच आज नायक की भूमिका अदा कर रहा है - एक ' असहिष्णु ' समाज के निर्माण के प्रयासों के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ रहा है.

यह मुक्तिबोध के नाम पर आयोजित इप्टा के 19वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का आखिरी दिन था, जिस पर समर्पण और श्रद्धांजलि विवाद हावी रहा. लेकिन कलबुर्गी, पानसारे-जैसे इस देश के अप्रतिम योद्धाओं के लिए न कोई श्रद्धांजलि थी, न कोई समर्पण. कहीं यह इप्टा के जेबी संगठन बनने और वैचारिक क्षरण का लक्षण तो नहीं ? मुक्तिबोध आज इप्टा से ही पूछ रहे हैं -- किस ओर खड़े हो तुम ? दंगाईयों के साथ या दंगों के खिलाफ ?? इप्टा को आज मुक्तिबोध के ' अंधेरे में ' को समझना बहुत जरूरी है.

(लेखक की टिप्पणी - बतौर एक दर्शक ही)

दानिश इकबाल की ' अकेली '

दिल्ली के ' सदा आर्ट्स सोसाइटी ' के दानिश इकबाल कला-जगत की एक प्रतिभाशाली हस्ती है. रंगमंच के साथ ही वे टीवी, फिल्म व रेडियो से भी जुड़े हैं. लेकिन रंगमंच ने उन्हें विशेष पहचान दी है. सारा का सारा आसमान, सारांश, कैदे-हयात, शास्त्रार्थ, डांसिंग विथ डैड, अ सोल सागा जैसे प्रसिद्ध नाटक उनके खाते में है. संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत तथा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित दानिश के तीन नाटक सर्वश्रेष्ठ नाटक के पुरस्कार से भी नवाजे जा चुके हैं. बाजारीकरण के इस दौर में भी दानिश रंगमंच से जुड़े हैं, तो यह उनका जूनून ही है.

रायपुर इप्टा द्वारा 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह के पांचवें दिन उनकी प्रस्तुति ' अकेली ' ने रंग-दर्शकों को बंबईया टीवी सीरियल का अहसास दिलाया. इस नाटक ने दिल्ली में खूब प्रसिद्धि पाई है, जहां लोग ऊंची दरों पर भी टिकेट खरीदकर नाटक देखने जाते हैं. रायपुर के मुक्ताकाशी मंच पर रंग-दर्शक मुक्त रूप से मुफ्त आवाजाही करते हैं. दोनों प्रकार के रंग-दर्शकों का रंग-मानस अलग-अलग होता है. क्योंकि दर्शक समुदाय के चरित्र की भिन्नता इसमें निहित रहती है. अतः यह जरूरी नहीं कि दिल्ली का प्रसिद्ध नाटक रायपुर के रंगमंच पर भी जमे. हुआ भी ऐसा ही, लेकिन इसमें निर्देशक दानिश इकबाल का कोई कसूर नहीं था.

वास्तव में विभिन्न शहरों और विभिन्न दर्शक-समुदायों का रंग-स्वाद अलग-अलग होता है.दिल्ली का जो रंग-दर्शक अल्पना की समस्या से जुड़ाव महसूस करता है, वैसा ही जुड़ाव रायपुर का रंग-दर्शक महसूस नहीं कर पाता और वह केवल नाटक के हास्य-व्यंग्य का मजा लेता है. दिल्ली का रंग-दर्शक ' एलीट ' है और रायपुर का  मध्यम, मजदूर वर्गीय '. दिल्ली के दर्शक के लिए अल्पना की शादी की समस्या वास्तविक हो सकती है, लेकिन रायपुर के दर्शक के लिए नहीं. रायपुर की ' अकेली ' महिला की समस्या सिर्फ शादी की नहीं होती, वह घर-बाहर -- नाते-रिश्तेदारों के बीच, घर और ऑफिस के बीच, ऑफिस के अंदर -- सब जगह अलग किस्म की समस्याओं का सामना करती है. उसका ' अकेलापन ' सधवा अकेली से भी नितांत भिन्न होता है. इसीलिए दानिश की ' अकेली ' यहां रंग-दर्शकों को छू नहीं पाई. 

(लेखक की टिप्पणी - बतौर एक दर्शक ही)

Tuesday, November 24, 2015

' रश्मिरथी ' आैर व्योमेश शुक्ल का बनारसी ठाठ



संजय पराते
'महाभारत ' समाज में मातृसत्ता के लोप और दासत्व की स्थापना का महाकाव्य है. विभिन्न कला-माध्यमों में यह काव्य पुनर्रचित, पुनर्सृजित होता रहा है. राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर ने इसकी पुनर्रचना ' रश्मिरथी ' के रूप में की है, तो नाट्य संस्था ' रूपवाणी ' के जरिये व्योमेश शुक्ल ने इसे मंच पर नृत्य नाटिका के जरिये साकार किया है.
'
 रश्मिरथी ' महाभारत की कहानी का हिस्सा है. महाभारत का एक अद्वितीय चरित्र है कर्ण. कर्ण एक संपूर्ण व्यक्तित्व नहीं है. उसके व्यक्तित्व का निर्माण महाभारत के विभिन्न पात्रों के आचरण से निर्मित होता है. वह कुंती की अवैध संतान है, क्योंकि कुंती ने उसे कुमारी अवस्था में उत्पन्न किया था. वह सूर्यपुत्र था, लेकिन मातृसत्ता के ध्वंस ने कुंती को इतना असहाय बना दिया था कि उसे अपने सुंदर पुत्र का त्याग करना पड़ा. ' सूर्यपुत्र ' को ' सूतपुत्र ' बनना पड़ा, जिसका पालन-पोषण दरिद्र और मामूली मछुआरों द्वारा किया गया. मनु के वर्ण-विधान में ' सूत ' शूद्रों के अधिक निकट थे. लेकिन फिर भी वह, अपने वैध पांडव भाईयों से अधिक वीर व उदार था. अर्जुन भी हालांकि राजा पांडु की वैध संतान नहीं था, लेकिन उसके पास पितृसत्ता और उससे उत्पन्न कुल-गोत्र की छाया थी. पितृसत्ता और कुल-गोत्र का यह बल कर्ण पर हमेशा भारी पड़ा, बावजूद इसके कि वह अर्जुन से ज्यादा पराक्रमी था. प्रतिद्वंद्वी कर्ण भरी सभा में अपने पिता का नाम नहीं बता सका. कुंती का आंचल दूध से भीगता रहा, लेकिन मातृसत्ता हार चुकी थी. अब संतानों की पहचान पिताओं से होती थी.

मातृसत्ता के ढहने और पितृसत्ता के स्थापित होने का प्रतीक परशुराम भी है, जिन्होंने अपने पिता के कहने पर अपनी माता की हत्या की थी. कर्ण को इस मातृहंतक ब्राह्मण से भी शापित होना पड़ा.इस प्रकार कर्ण को बार-बार अपने पूरे जीवन अपनी अस्मिता से जूझना पड़ा. बार-बार उसका अतीत उसके ' वीरत्व ' को पीछे खींचता रहा. तब दुर्योधन ने उसे पहचान दी, उसका अभिषेक राजा के रूप में किया और कुंतीपुत्र कर्ण अपनी संपूर्णता में दैदीप्यमान कौरव सेनापति के रूप में खड़ा होता है. अपनी अस्मिता के संघर्ष में कर्ण विजयी होता है. कौरवों और पांडवों के बीच का महाभारत ' कर्ण ' की उपस्थिति के बिना अर्थपूर्ण व संभव न था.

इसीलिए दिनकर की ' रश्मिरथी ' का नायक कर्ण ही है, जिसे व्योमेश शुक्ल ने ठेठ बनारसी रंग में कल मुक्ताकाशी मंच पर साकार किया. इसके विमर्श के केन्द्र में अस्मिता की वही राजनीति है, जो आधुनिक भारत की राजनीति के केन्द्र में आज भी है. अन्याय के खिलाफ सामाजिक लामबंदी के प्रभावशाली साधन के रूप में आज भी इसका प्रयोग किया जा रहा है. शायद यही कारण हो कि दलितों और वंचितों को आज भी सबसे ज्यादा अपील कर्ण ही करते हैं, कृष्ण नहीं.

व्योमेश शुक्ल अपने अंदाज़ में ' रश्मिरथी ' को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें बार-बार कुंती की आवाजाही और उसका मातृनाद है. इस मातृनाद से विचलित होते हुए भी, कुंती के लिए कर्ण का आश्वासन केवल यही है कि उसके पांच बेटे जीवित रहेंगे, ' पांच पांडवों ' का वे कोई आश्वासन नहीं देते. इस प्रकार वे पितृसत्ता को चुनौती देते हैं. अपनी अस्मिता के संघर्ष में वे जातिप्रथा की अमानवीयता को उजागर करते हैं, जो एक मनुष्य को उसकी मानव जाति से अलग कर दासत्व की श्रेणी में ढकेलती है. कर्ण का संघर्ष क्रमशः स्थापित होती दास प्रथा के खिलाफ हुंकार भी है. कर्ण की मृत्यु दास प्रथा की स्थापना का प्रतीक है. कर्ण, दुर्योधन और कृष्ण के अभिनय में उनके स्त्री-पात्रों ने बहुत कुशलता से रंग भरा है.

यह 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह का दूसरा दिन था -- जो जितेन्द्र रघुवंशी के साथ ही बबन मिश्र की ' अपराजेय ' स्मृति को समर्पित था. इस दिन आयोजकों ने अपनी उस घोषणा से भी ' मुक्ति ' पा ली कि कुमुद देवरस सम्मान जिस महिला नाट्यकर्मी को दिया जाएगा, उसकी एक नाट्य-प्रस्तुति भी मंच पर अवश्य ही होगी. इस वर्ष यह सम्मान रायगढ़ इप्टा की ऊषा आठले को दिया गया, लेकिन उनकी नाट्यकृति की अनुपस्थिति के साथ. इप्टा को अभी बहुत-से झंझटों से मुक्ति पाने के लिए एक लंबी यात्रा करनी होगी।
(लेखक की टिप्पणी बतौर एक दर्शक ही)

कुमुद देवसर सम्मान और उषा आठले

अखतर अली 


मुक्तिबोध नाट्य समारोह जैसा स्तरीय मंच,नाट्य प्रेमियों की मौजूदगी ,नाट्य पंडितो द्वारा चयन ,नाट्य क्षेत्र में काम करने वालो द्वारा नाट्य क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिये सम्मानित के लिये किसी शख्सियत का चयन निःसंदेह रोमांचित करने वाला है । ये वह सम्मान है जिसे देने वाला और पाने वाला दोनों मेरी दृष्टि में भाग्यशाली है । यह स्थानीय या प्रादेशिक सम्मान नहीं बल्कि रंगक्षेत्र में किसी महिला रंगकर्मी द्वारा किये जा रहे निरंतर स्तरीय कार्यो के लिए दिए जाने वाला एक राष्ट्रीय सम्मान है । 

इस वर्ष यह सम्मान रायगढ़ की रंगकर्मी उषा आठले को दिया जाना तय किया गया है । इसके पहले यह सम्मान उषा गांगुली को भी दिया जा चुका है , उस उषा से लेकर इस उषा तक रंगमंच एक सा नहीं है । उषा गांगुली का रंगमंच में योगदान को कोई कमतर नहीं आंक सकता , निःसंदेह उन्होंने अपनी प्रस्तुतियों से रंगमंच को समृद्ध किया है , नाटको की लोकप्रियता में इज़ाफ़ा किया है , रंगमंच को व्यवसायिक बनाया है । उषा आठले के खाते में शायद उषा गांगुली जैसी उपलब्धिया न हो लेकिन उषा गांगुली के खाते में भी वो उपलब्धियां नहीं होगी जो उषा आठले के नाम है । नादिरा बब्बर और उषा गांगुली को उनकी कर्मभूमि कोलकता और मुंबई में काम करने के लिये पहले से जमा जमाया और बसा बसाया रंगमंच मिला था जबकि उषा आठले रायगढ़ जैसी जगह में जहाँ रंगमंच अपने शैशव काल में था उसे अपने कंधो पर उठाये ऊंचाई प्रदान करती रही । नादिरा बब्बर को प्रशक्षित अभिनेता मिले और उषा जी को रंगमंच से अपरिचित लोगो को प्रशिक्षित करना पड़ा । उषा गांगुली के पास सर्व सुविधा युक्त प्रेक्षागृह और अभ्यस्त दर्शक होने के कारण रंगमंच के अनुकूल वातावरण था वही उषा आठले को प्रतिकूल वातावरण में रंगकर्म करना पड़ा । जहाँ उषा गांगुली खाली जेब घर से निकलती और नाटक करके हाथ में पैसे लिये घर जाती है वही उषा आठले जेब में पैसे लेकर घर से निकलती है और नाटक करके खाली हाथ घर जाती है ।


मुंबई और कोलकाता में जो रंगमंच हो रहा है , उसमे रोज़गार है ,कलात्मकता है ,पब्लिक टेस्ट के अनुसार स्क्रिप्ट चयन होता है लेकिन रायगढ़ में जो रंगमंच होता है उसमे सामाजिक ज़िम्मेदारी का निर्वाह है , वैचारिकता है , स्क्रिप्ट चयन के अनुसार पब्लिक टेस्ट को पैदा करने की ज़िद है । रंगमंच की नादिरा मुंबई में है लेकिन बब्बर की दहाड़ रायगढ़ के रंगमंच में सुनाई देती है । आठले उषा की वह किरण है जिससे हिंदी रंगमंच जगमगा रहा है । ये मेरा सौभाग्य है कि रंगमंच में उत्कृष्ट कार्य करने वाली महिला के रूप में जब इप्टा रायपुर के प्रतिष्ठित मंच से श्रीमती उषा आठले का सम्मान किया जायेगा उस क्षण का प्रतयक्ष दर्शी मै भी रहूगा ।


आयोजको को चाहिये कि सम्मान के समय उनके पति को भी मंच पर बुलाया जाये क्योकि उनका सहयोग भी सराहना का हकदार है।

 संपर्क :
आमानाका
रायपुर ( छ ग )
मोबाईल - 9826126781

बहुलतावाद की रक्षा में व्योमेश का सांस्कृतिक हस्तक्षेप


संजय पराते

क कृति के कितने पाठ हो सकते हैं ? निश्चय ही उतने, जितनी एक घटना की व्याख्याएं. कई-कई पाठ और कई-कई व्याख्याएं बहुलतावाद को जन्म देती है. इन पाठों और व्याख्याओं का एक साथ रहना-गुनना ही सहनशीलता की संस्कृति को जन्म देता है. आज यही संस्कृति हिंदुत्ववादियों के निशाने पर है. वे अपनी एकरंगी व्याख्या से बहुलतावाद को हड़पना चाहते हैं और इस कोशिश में वे हमारी संस्कृति के महानायकों का भी हरण करने से नहीं चूक रहे हैं. वे महात्मा गांधी और भगतसिंह का हरण कर रहे हैं, तो ' महाप्राण ' निराला को भी उग्र हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में व्याख्यायित कर रहे हैं. निराला को हड़पने की कोशिश में वे ' वह तोड़ती पत्थर ' को ठुकराते हैं, ' राम की शक्ति-पूजा ' का सहारा लेते हैं.
आधुनिक हिंदी साहित्य में निराला का एक विशेष स्थान है. ' राम की शक्ति-पूजा ' उनकी कालजयी रचना है. लेकिन ये राम न वाल्मिकी के ' अवतारी ' पुरूष हैं और न तुलसी के ' चमत्कारी ' भगवान ' . वे महज़ एक संशययुक्त साधारण मानव है, जो लड़ता है, हताश-निराश होता है, फिर प्रकृति से शक्ति प्राप्त करता है और शक्ति के संबल से विजय प्राप्त करता है. द्वितीय विश्व युद्ध में आम जनता के आत्मोत्सर्ग से हिटलर के नेतृत्व वाली फासीवादी ताकतों की पराजय सुनिश्चित होती है. इस विश्व युद्ध की पूर्वबेला में निराला ' राम की शक्ति-पूजा ' करते हैं. वे मानस के कथा-अंश को नए शिल्प में ढालते हैं.
लोक परंपरा से मिथक शक्ति ग्रहण करते हैं. यदि ये मिथक गलत हाथों में चले जाएं, तो उसका दुरूपयोग संभव है. भारतीय राजनीति की हकीकत भी आज यही है कि यहां गलत हाथों में मिथक चले गए हैं और पूरी राजनीति ' राम ' और ' गाय ' के मिथकों के सहारे लड़ी जा रही है. इसीलिए बहुलतावादी संस्कृति की रक्षा में इन मिथकों के पुनर्पाठ, पुनर्व्याख्या की जरूरत है.
व्योमेश शुक्ल का रंगमंच इसकी पूर्ति करता है. भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक ताकतें जिन मिथकों का सहारा ले रही हैं, उन्हीं मिथकों का सहारा वे उन्हें पछाड़ने के लिए कर रहे हैं. अपनी बहुलतावादी परंपरा की खोज में वे दिनकर, प्रसाद, निराला और भास तक जा रहे हैं और रंगमंच पर राम और महाभारत का बहुलतावादी पुनर्सृजन कर रहे हैं. भारतीय संस्कृति की बहुलतावादी परंपरा की खोज में वे बहुत कुछ तोड़ रहे हैं, बहुत-कुछ जोड़ रहे हैं और इस जोड़-तोड़ से रंगमंच की लोक परंपरा को पुनर्सृजित कर रहे हैं. इस पुनर्सृजन में वे सितारा देवी के ' हनुमान परन ' का भी उपयोग कर रहे हैं, ' राणायनी संप्रदाय ' के बापटजी के ' सामगान ' का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, तो पंडित जसराज के भजन भी उनके रंगमंचीय साधन है. लेकिन लोक परंपरा के इस पुनर्सृजन धार्मिकता कहीं हावी नहीं है. वे राम की एक ऐसी लोक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, जो देश-काल-धर्म के परे स्थापित होती है. राजनीति और संस्कृति में धर्म के इस्तेमाल के खतरे से वे वाकिफ हैं. उन्हें मालूम है कि राजनीति का चेहरा गहरे अर्थों में सांस्कृतिक भी होता है और यदि संस्कृति के क्षेत्र में धर्म को हावी होने दिया जाएगा, तो राजनीति के चेहरे को सांप्रदायिक होने से कौन रोक सकता है ?
सो, व्योमेश शुक्ल की ' राम की शक्ति-पूजा ' निराला की साहित्यिक परंपरा का रंगमंचीय सृजन है. उनकी यह नृत्य-नाटिका अभिनय और नृत्य का अदभुत मिश्रण है. पात्रों का रंगाभिनय मूक अभिनय का निषेध करता है और नृत्य के लय-ताल-गति को स्थापित करता है. शास्त्रीय संगीत में डूबी बनारसी राम लीला के इस मंचन में भरतनाट्यम और छाऊ नृत्यों का अदभुत संगम स्थापित किया गया है.
व्योमेश शुक्ल की कल की दूसरी प्रस्तुति ' पंचरात्रम ' भी महाभारत के एक दूसरे पाठ को सामने लाती है, जिसकी रचना महाकवि भास ने की है. यहां " सुईं के नोंक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा " का अंध-राष्ट्रोंन्माद नहीं है, बल्कि द्रोणाचार्य को दक्षिणा के रूप में आधे राज्य को देने को तैयार दुर्योधन खड़ा है. यहां दुर्योधन की ओर से लड़ने वाला अभिमन्यु है, जो विराट के गायों के अपहरण के लिए अर्जुन से लड़ता है और भीम से पराजित होता है. पांच दिनों में पांडवों को खोजने की दुर्योधन की शर्त पूरी होती है और पांडवों को आधा राज्य मिलता है. भास की यह कृति ' महाभारत ' का निषेध है. जिसका साहसिक मंचन कल व्योमेश ने किया. इस देश में जब बहुलतावाद और सहिष्णुता की संस्कृति संघी गिरोह के निशाने पर है, व्योमेश के इस सांस्कृतिक हस्तक्षेप की सराहना की जानी चाहिए.
(लेखक की टिप्पणी -- बतौर एक दर्शक ही)

प्रगतिशील विचारधारा से ज्यादा सहिष्णु और कोई विचारधारा नहीं



संजय पराते
इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश द्वारा उदघाटन के साथ रायपुर में 19वां मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह प्रारंभ हुआ. 25 नवम्बर तक चलने वाले इस समारोह में 9 नाट्य प्रस्तुतियां होंगी. और पहले दिन की प्रस्तुति थी — ‘ आदाब, मैं प्रेमचंद हूं. ‘ मुजीब खान के निर्देशन में आइडियल ड्रामा एंड इंटरटेनमेंट, मुंबई ने मुंशी प्रेमचंद की पांच कहानियों का नाट्य रूपांतर प्रस्तुत किया. ये कहानियां थीं क्रमशः — प्रेरणा, मेरी पहली रचना, सवा सेर गेहूं, आप-बीती और रसिक संपादक. मुजीब खान पर प्रेमचंद को मंचित करने का जुनून है.
वे प्रेमचंद की 315 कहानियों के 500 से ज्यादा मंचन कर चुके हैं. इसके लिए लिम्का बुक में उनका नाम दर्ज है. गिनीज़ बुक में वे दर्ज होना चाहते हैं और इसकी तैयारी चल रही है. कुछ लोग इतिहास में इसी तरह दर्ज होते हैं. शायद प्रेमचंद को भी सुकून हो कि उन्हें मंचित करने के लिए मुजीब खान ने फिल्म और टेलीविज़न को भी ठुकराया. मंचन का जुनून ऐसा कि ट्रेन में आरक्षण न मिलने पर तत्काल का सहारा लिया — आने में और जाने में भी. इतने विकट संघर्ष से ही रंगकर्म जिंदा है.
मुंबई में रंगकर्म को जिंदा रखना आसान नहीं है. जो लोग थियेटर से जुड़ते हैं, वे नाम और पैसे के लिए टीवी व फिल्मों में सरक लेते हैं. रंगकर्म से उनका जुड़ाव 5-6 महीनों तक का होता है. प्रेमचंद पहली सीढ़ी है, जिस पर पांव रखकर आगे बढ़ा जा सकता है. लेकिन मुजीब नींव के पत्थर है, प्रेमचंद को जिंदा रखने के लिए. वे नौसिखियों व नवागतों के सहारे अपने रंगकर्म को खींच रहे हैं और थियेटर से जुड़े रहने का रिकॉर्ड बना रहे हैं.
प्रेमचंद अपनी लेखनी से महान थे, इसमें किसी को शक नहीं. वे सामंतवादविरोधी-साम्राज्यवादविरोधी प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के अगुआ थे. अपनी लेखनी में उन्होंने न जॉन को बख्शा, न गोविंद को. सांप्रदायिकता हमेशा उनके निशाने पर रही कि किस तरह वह संस्कृति की खाल ओढ़कर सामने आती है और आम जनता को बरगलाती है.
जिस ‘ गाय ‘ पर आज भारतीय राजनीति में घमासान मचा हुआ है, उस गाय के विविध चित्र अपने पूरे रंग में उनकी कहानियों में छाये हुए हैं -दो बैलों की कथा से लेकर पंच परमेश्वर और गोदान तक फैली हुई. सामाजिक कुरीतियों पर जिस तरह उन्होंने करारा व्यंग्य किया, बहुत ही कम लोगों ने किया और इसके लिए उन्हें ‘ घृणा का प्रचारक ‘ कहा गया. महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होंने अपने शिक्षकीय पेशे से त्यागपत्र दिया. आज यदि वह ऐसा काम करते, तो शायद हमारा संघी गिरोह उन्हें अपनी गालियों से नवाजता. वैसे तब भी वे सांप्रदायिक ताकतों के निशाने पर थे.
सभी कहानियां मंचन योग्य नहीं होती. प्रेमचंद पर भी यह लागू होती है. ऐसी कहानियों को मंचित करने की कोशिश की जाएं, तो उसके मंच पर कहानी-पाठ बनकर रह जाने का खतरा रहता है. ऐसी कहानियां सूत्रधारों के बल पर चलती है. सूत्रधारों का रंगाभिनय रंग-दर्शकों की रंग-कल्पना को उत्तेजित करता है और उसके रंग-मानस में दृश्य रचता है.
इस मायने में सूत्रधार कमजोर, तो पूरे मंचन के बैठ जाने का खतरा रहता है. यह मुजीब का ही साहस है कि वे इस खतरे को उठा रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद, जहां भी हास्य-व्यंग्य की उपस्थिति रही, कलाकारों ने जमकर नाटक खेला है और दर्शकों को प्रेमचंद से जोड़ने में सफलता हासिल की है.
आज समूचा प्रगतिशील कला-जगत संघी गिरोह के निशाने पर है. वे पूरे समाज को धर्म और जाति के आधार पर बांट देना चाहते हैं, ताकि अपने ‘ हिंदू-राष्ट्र ‘ के निर्माण के लक्ष्य की ओर बढ़ सकें. हिंदुत्व की मानसिकता पैदा करने की कोशिश कितनी नापाक है, यह निर्दोष ईखलाक की भीड़ द्वारा हत्या से पता चलता है.
एक बहुलतावादी, धर्म-निरपेक्ष और सहिष्णु समाज को एकरंगी, पोंगापंथी और असहिष्णु समाज में बदलने की कोशिश जोर-शोर से जारी है. इसके खिलाफ संघर्ष में प्रेमचंद मशाल लिए आगे-आगे चल रहे हैं. प्रेमचंद की इस मशाल को मुक्तिबोध ने थामा था और हिंदुत्ववादियों ने उनकी पुस्तकों की होली जलाई थी. प्रेमचंद और मुक्तिबोध की इस मशाल को गोविंद पानसारे, नरेन्द्र दाभोलकर और कलबुर्गी ने थामा था और उन्हें शहादत देनी पड़ी.
लेकिन इस समारोह ने स्थापित किया कि प्रगतिशील विचारधारा से ज्यादा सहिष्णु और कोई विचारधारा नहीं हो सकती. जिस देश में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारों का सम्मान किया जा सकता है, उस देश में इप्टा को संघी पत्रकार के निधन पर श्रद्धांजलि देने से कोई हिचक नहीं हो सकती. इस समारोह के इस पत्रकार के नाम पर समर्पित होने की ख़बरें तो हवा में चल ही रही है.
(लेखक की टिप्पणी — बतौर एक दर्शक ही)

Friday, October 30, 2015

“अनहद नाद" का मंचन 8 नवंबर को ठाणे में



8 नवम्बर (रविवार), 2015 को रात 8.30 बजे जाने माने रंग चिन्तक मंजुल भारद्वाज द्वारा लिखित और उत्प्रेरित बहुभाषिक नाटक “अनहद नाद-अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स” का डॉ.काशिनाथ घाणेकर नाट्यगृह ( मिनी थिएटर ) ठाणे में मंचन ! “अनहद नाद - अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स ” कलात्मक चिंतन है, जो कला और कलाकारों की कलात्मक आवश्यकताओं,कलात्मक मौलिक प्रक्रियाओं को समझने और खंगोलने की प्रक्रिया है। क्योंकि कला उत्पाद और कलाकार उत्पादक नहीं है और जीवन नफा और नुकसान की बैलेंस शीट नहीं है इसलिए यह नाटक कला और कलाकार को उत्पाद और उत्पादिकरण से उन्मुक्त करते हुए, उनकी सकारात्मक,सृजनात्मक और कलात्मक उर्जा से बेहतर और सुंदर विश्व बनाने के लिए प्रेरित और प्रतिबद्ध करता है । 

अश्विनी नांदेडकर ,योगिनी चौक, सायली पावसकर,तुषार म्हस्के और कोमल खामकर अपने अभिनय से नाट्य पाठ को मंच पर आकार देकर साकार करेंगें ! एक्सपेरिमेंटल थिएटर फाउंडेशन विगत २३ वर्षों से देश विदेश में अपनी प्रोयोगात्मक , सार्थक और प्रतिबद्ध प्रस्तुतियों के लिए विख्यात है .

Wednesday, October 28, 2015

ज़िंदगी के मंच से रांग एग्ज़िट मार गए जुगल किशोर!

- वीर विनोद छाबड़ा
२५ अक्टूबर की शाम बहुत ग़मगीन थी। दिवंगत साथी जुगल किशोर को याद करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में लखनऊ के तमाम सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और साहित्यकार और उनसे सरोकार रखने वाले भारतेंदु नाट्य अकादेमी में जुटे थे। जुगल के अकस्मात् चले से जाने से हर शख़्स शोक में डूबा था। 

संचालन करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय महसचिव राकेश भी आंसू नहीं रोक पा रहे थे। आज वो व्यवस्थित नहीं थे। वो बता रहे थे - कल तक जो सामने था आज नेपथ्य में चला गया है। पिछले ४० साल में मैंने उसमें एक बहुत अच्छे अभिनेता, निर्देशक, प्रशिक्षक, लेखक और इंसान के रूप में देखा। 

जुगल को नाटक का ककहरा पढ़ाने वाले सुप्रसिद्ध वरिष्ठ प्रशिक्षक और रंगकर्मी राज बिसारिया ने कहा - वो मेरा बच्चा था। महबूब था। बरसों पहले इंटर पास एक दुबले-पतले नौजवान के रूप में भरपूर स्प्रिट के साथ आया था। उसकी स्प्रिट को सलाम। उसकी मसखरी का पात्र हमेशा मैं रहा। जो जितना दूर जाता है उतना ही पास रहता है। दुःख-दर्द बहुत गहरा होता है। उसकी ज़ुबान नहीं होती। आज का दिन रोने का नहीं, जश्न मनाने है। उसकी याद में खुद को मज़बूत करने का है। नाटक करो। यह ज़िंदगी का आईना है। अपने दौर में जुगल जितना कर गया, उसे मैं सलाम करता हूं। अपने फ़न से वो सबको हराता रहा, लेकिन खुद मौत से हार गया। जुगल हमारी सांसो में रहेगा। 

सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव की नज़र में रंगकर्म समाज का आईना है और जुगल ने इस सरोकार से सदैव रिश्ता बनाये रखा। इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जीवंत रिश्ता रखा। साहित्य से बहुत गहरा जुड़ाव रहा उनका। सदैव संभावना खोजा करते थे कि अमूक साहित्यिक कृति का नाट्य रूपांतरण कैसे तैयार किया जाये। खुद को समृद्ध करने के लिए साहित्यिक गोष्ठियों में अक्सर मौजूद रहते। सिनेमा में जाने के बावजूद वो रंगमंच से प्रतिबद्ध रहे। संस्कृति के लिए आज का समय बहुत ख़राब है। ऐसे में एक बहुत अच्छे साथी का चले जाना बहुत ही कष्टप्रद है। 

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रंगकर्मी सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ ने कहा - अभी तक सुना था कि मौत बहुत बेरहम होती है। चुपके से आती है। लेकिन आज देख भी लिया। सुबह उसने संगीत नाटक अकादमी का ईनाम मिलने की मुबारक़बाद दी और शाम को रुला दिया। जुगल का जाना रंगमंच की क्षति है, समाज की भी क्षति है। उसके साथ कई नाटकों में काम किया। हंसी मज़ाक और गप्पें मारना बहुत अच्छा लगता था। यह संयोग है कि वो नाटकों में मौत का बहुत शानदार अभिनय करता रहा। उसका जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति है। मैंने एक दोस्त खोया है।
वरिष्ठ रंगकर्मी आतमजीत सिंह ने बताया - जुगल का जाना एक दर्दभरी घटना है। ऐसा लग रहा है जैसे कोई गंभीर रंगमंच चल रहा है। वो बड़ा स्तंभ था। उनका स्थान किसी के लिए लेना मुश्किल है। जुगल को याद करने का तरीका यही होगा कि नाटक चलता रहे। 

सुप्रसिद्ध लेखक-कवि नलिन रंजन सिंह ने बताया कि बहुत नज़दीकी रिश्ता था जुगल से। एक हंसता हुआ चेहरा। ज़िंदादिल इंसान थे वो। जब भी मिले, नए लोगों को रंगमंच से जोड़ने की संभावनाएं हमेशा तलाशते हुए। चिंतित रहते थे कि नई पीढ़ी रंगमंच के दायित्व का कैसे निर्वहन करेगी। ज़रुरत है कि उनकी चेतना से जुड़ कर या वैचारिक रूप से या लेखन के माध्यम से आगे बढ़ाया जाये। 

अलग दुनिया के केके वत्स ने बताया - सिनेमा से जुड़ने के बावजूद जुगल ने लखनऊ नहीं छोड़ा। याद नहीं आता कि उनका किसी से कोई मतभेद रहा हो। जुगल की याद में प्रत्येक वर्ष २५ हज़ार का एक पुरुस्कार मंच पर सामने या नेपथ्य में शानदार काम करने केलिए दिया जाएगा। इसकी शुरुआत उनके जन्मदिन २५ फरवरी से होगी। 

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ अभिनेता अरुण त्रिवेदी का कहना था - मेरा जुगल से पिछले ३५-३६ साल से दिन-रात का साथ रहा। हम भारतेंदु नाट्य अकादमी में लगभग एकसाथ आये। रंगमंच से जुड़ी अनेक व्याधियों और कष्टों को एकजुटता से झेला। स्टेज ही नहीं बाहर भी हम एकसाथ रहे। प्रशासनिक अड़चनों के बावजूद हमने अकादमी की प्रस्तुतियों पर कोई आंच नहीं आने दी, उसकी शान को कभी धूमिल नहीं होने दिया। जुगल अपनी स्टाईल में बिना बताये और बिना किसी से सेवा कराये, चुपके से बहुत दूर चले गए। 

तरुण राज ने कहा - जो रोज़ मिलते हैं, वो दिल में समा जाते हैं। पिछले हफ़ते ही जुगल ने कहा था, बहुत साल हो चुके हैं अब बैठकें नहीं होतीं। इस सिलसिले को फिर से क़ायम किया जाये। 

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रंगकर्मी वेदा राकेश ने कहा - बहुत पुराना साथ है जुगल से। उन दिनों रंगमंच के काम से जब भी कहीं जाना होता था तो जुगल अपनी साईकिल लिये हाज़िर मिलते। वो हीरो हुआ करते हम लोगों के। बहुत चंचल और शैतान थे। अपने साथियों का बहुत ख्याल रखते थे वो। यह गुण उनकी आदतों में शामिल थे। मैं उनकी मुस्कान, उसके खुशनुमा चेहरे और बोलती आंखों को याद करते रहना चाहूंगी। 

वरिष्ठ रंगकर्मी मृदुला भारद्वाज ने कहा - मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल है जुगल के बारे में बात करना। वो बहुत अच्छा नहीं, बहुत ख़राब एक्टर था। बिना बताये चला गया। जिस तरीके से गया, वो तो बहुत ही ख़राब था। गज़ब का परफेक्शनिस्ट एक्टर था वो। अपने से बहुत प्यार करता था। शायद इसलिये भी बहुत अच्छा एक्टर था। जितनी देर काम करता था अपने पर बहुत ध्यान देता रहा। हर एक्ट के बाद पूछता था, कैसा रहा? हमें जब भी किसी कार्यक्रम में जाना होता था तो जुगल को फ़ोन करते थे कि पहुंच रहे हो न। लेकिन आज तो उसी की याद में आना था। कोई फ़ोन नहीं कर पाये। 

वरिष्ठ रंगकर्मी प्रदीप घोष ने बताया - मैं पिछले ४० साल से जानता था जुगल को। बंदे में बहुत दम था। उसकी सोच बहुत बड़ी थी। मैंने उसे बहुत अच्छी एक्टिंग करते हुए देखा है। बहुत कम होते ऐसे एक्टर। 

युवा रंगकर्मी और समाजसेवी दीपक कबीर ने बताया - बहुत कुछ सीखा है मैंने जुगलजी से। नाटक को लेकर बहुत चिंतित देखा है उनको। सेलेब्रटी होने के बावजूद उनमें ईगो नहीं था। कहीं भी बैठ जाते। सादगी की मिसाल थे वो। सामजिक कार्यकर्ता भी थे वो। इसीलिए कार्यक्रमों में उनको अक्सर बुलाया जाता था। लेकिन वो बोलने के इच्छुक कतई नहीं रहे। एक दिन बोले, आजकल हम कंडोलेंस बहुत करते हैं। क्या यही करते रहेंगे ज़िंदगी भर? 

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रंगकर्मी पुनीत अस्थाना ने बताया - जुगल बहुत पुराने साथी थे उनके। ज़बरदस्त पोटेंशियल था उनमें। जब पहली बार देखा तो हम तभी समझ गए थे कि लंबी रेस का घोड़ा हैं जुगल। परकाया में घुस कर एक्टिंग करते थे वो। वो अक्सर कहा करते थे कि लोग एक्टिंग करना चाहते हैं, पढ़ना नहीं चाहते हैं। मैंने उनके हाथ में हमेशा कोई न कोई किताब देखी। वो किसी भी विषय से संबंधित होती थी। उनकी टाईमिंग गज़ब की थी, लेकिन यह आख़िरी वाली टाईमिंग बिलकुल पसंद नहीं आई। 

वरिष्ठ रंगकर्मी गोपाल सिन्हा ने बताया - जुगल अक्सर फ़ोन करते थे। बहुत लंबी लंबी बातें होती थीं। साथ-साथ उठना-बैठना बहुत रहा। लेकिन हमने नाटक साथ-साथ नहीं किया था। एक दिन फ़ोन आया कि एक रोल है। मैं सकुचाया। जुगल ज़बरदस्त ही एक्टर ही नहीं, प्रशिक्षक भी थे। मेरी अपनी सीमायें थीं। डर लगाकि मैं उन्हें संतुष्ट नहीं करा पाया तो? खुद को जुगल के सामने एक्सपोज़ नहीं करना चाहता था। लेकिन जुगल ने मुझे सहज कर दिया। पिछले दो-तीन महीने से मैं जुगल के संपर्क में नहीं था। मुझे इसका ताउम्र मलाल रहेगा। 

सुप्रसिद्ध रंगकर्मी चित्रा मोहन ने कहा - जुगल की ढेर यादें हैं। जब वो अंदर ही अंदर बहुत भर जाते थे तो एकदम से फट पड़ते थे। घंटा-डेढ़ घंटा लगातार बोलते रहते। ऐसी-वैसी ढेर बातें कर जाते। बहुत पसेज़िव थे वो। मंच पर हमेशा सही वक्त पर एंट्री और एग्ज़िट करते थे। लेकिन ज़िंदगी के मंच पर रांग एग्ज़िट कर गए।
---
२८-१०-२०१५

जुगलकिशोर : वो ज़िन्दादिली, वो शरारत भरी मुस्कान

-पुंज प्रकाश
ल रात तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही थी तो मैं जल्दी सो गया था. सुबह – सुबह तड़के आँख खुलते ही नेट ऑन करके फेसबुक, वाट्सअप आदि के मैसेज चेक करना अब हम जैसे लोगों की आदतों में शुमार है. जैसे ही नेट ऑन किया तो वेदा राकेश जी का मैसेज वाट्सअप पर पड़ा था - V sad news…Jugal passed away. मैसेज 11.24 बजे रात्रि का था. मैं अभी ठीक से जगा भी नहीं था. मैंने जवाब में केवल व्हाट लिखा. सच कहूँ तो इस खबर पर यकीन नहीं किया जा सकता है. मैंने फ़ौरन वेदा जी को फोन लगाया. राकेश जी ने फोन उठाया. हमेशा बुलंद आवाज़ में बात करनेवाले राकेश जी के स्वर में बेहद उदासी थी. उन्होंने बस इतना ही कहा कि बड़ा ही विकट समय है, एक एक करके सारे अच्छे लोग हमें छोड़कर जा रहे हैं. मेरी और राकेश जी दोनों ही के समझ में यह बात नहीं आ रही थी कि इस वक्त और क्या बात की जा सकती है. सच है कि कभी – कभी शब्द बड़े ही बौने हो जाते हैं और मौन मुखर.

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में बतौर कलाकार मेरे साथ भारतेंदु नाट्य अकादमी के कुछ पूर्व विद्यार्थी भी कार्यरत थे. उनके मुंह से जुगल सर के किस्से बहुत सुने थे. हालांकि सुनी सुनाई बातों पर किसी भी व्यक्ति के बारे में कोई अवधारणा बनाना उचित नहीं लेकिन इतना तो समझ में आ ही गया था कि एक खुशमिजाज और जिंदादिल इंसान की कथा है. फिर पीपली लाइव नामक फिल्म देखी तो इनके चहरे से भी रु-ब-रु होने का अवसर प्राप्त हुआ. चेहरे पर लखनवी पानी और नमक की चमक साफ़ - साफ़ देखी जा सकती थी. साथ ही साथ यह भी अंदाज़ा हो गया कि वो निश्चित ही एक बेहतरीन अभिनेता हैं.

फरवरी 2015 को युगल सर से मुलाकात हुई इप्टा के डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़) इकाई द्वारा आयोजित 10 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह में. रामलीला नाटक के लेखक राकेश जी, निर्देशिका वेदा राकेश जी के साथ युगल सर भी इस आयोजन में मुख्य अतिथि के बतौर आमंत्रित थे. चाय पीते – पीते पता नहीं कब गप्पों का सिलसिला शुरू हो गया. अजनबी जैसा कुछ लग ही नहीं रहा था. अपने एकांतप्रिय स्वभाव के कारण मैं पहले थोड़ा असहज ज़रूर था किन्तु फ़ौरन ही यह असहजता कब और कैसे गायब हो गई, पता ही नहीं चला. फिर क्या था हम तीन दिनों तक जमके बातें करते रहे. दुनियां जहान के किस्से, मज़ाक. सकारात्मक सोच के इन तीनों इंसानों को सुनना ही मेरे मन में उर्जा का संचार कर रहा था. हम साथ – साथ नाश्ता करते, चाय पीते, खाना खाते, नाटक देखते, अतिथि की कुर्सी पर बैठते, घूमते – टहलते और खूब सारी गप्पें मारते.

एक शाम हम नाटक देखने पहुंचे. साउंड चेक करने के लिए ऑपरेटर कबीर का एक गीत “मन लागो यार फकीरी में” बजा रहा था. युगल सर और मैं दोनों सुकून भरा यह गायन सुनने लगे. युगल सर ने पूछा – किसने गाया है. मैंने कहा – सर मुझे पता नहीं. जुगल सर बोले – बड़ा सुकून से गया है. गीत खत्म हुआ तो युगल सर उठकर ऑपरेटर के पास गए और उससे दुबारा यह गीत बजाने का अनुरोध करते हुए पूछा कि यह गीत किसने गाया है. ऑपरेटर ने कहा – मुझे पता नहीं. फिर युगल सर ने कहा - उन्हें यह गीत मिल सकता है क्या? ऑपरेटर ने कहा - पेन ड्राइव या स्मार्ट फोन है तो ले लीजिए. युगल सर के पास यह दोनों नहीं था. मैंने कहा – सर मैं ले लेता हूँ फिर आपको भेज दूँगा. युगल सर ने कहा – ठीक है. बाद में मैंने उस ऑपरेटर से यह और एक और गीत लिया – “पत्ता बोला बृक्ष से.” ले लिया. मैं जब गीत अपने मोबाईल में ट्रांसफर कर रहा था तो पता चला कि यह शुजात हुसैन  ने गाया है. लेकिन अफ़सोस आजतक यह गीत मेरे ही पास हैं.

तीन दिन साथ रहने के पश्चात् हम विदा हो गए. युगल सर को जब भी मौका मिलता फोन लगा देते और फिर हम गप्पें मारने में व्यस्त हो जाते. अभी पिछले दिनों वो अपना नाटक “बेयरफुट इन एथेंस” (निर्देशक – राज बिसारिया) लेकर पटना आए हुए थे. लेकिन अफ़सोस कि मुझे उसी दिन पटना से रांची के लिए गाड़ी पकड़ना था. उन्हें मंच पर अभिनय करते हुए देखने की तमन्ना अधूरी ही राह गई. बहरहाल, कितनी बातों का अफ़सोस किया जाय. हां यह शिकायत ज़रूर रहेगी कि रंगमंच और समाज में जिंदादिल लोग अब बहुत ही कम बचे हैं. जिससे भी मिलो हाय पैसा, हाय पैसा करता रहता है. ऐसे समय में युगल सर का हमसे जुदा होना कही से भी सही और तर्क संगत नहीं है. यह भी कोई उम्र थी? इस उम्र में ही तो अभिनेता का अभिनय जवान होता है. अब तो बस यही उम्मीद है कि जुगल सर की जिंदादिली और शरारत भरी मुस्कान हम जैसे को सही राह दिखाए. अलविदा सर नहीं कहूँगा क्योंकि आप हम जैसे पता नहीं कितने शिष्यों के ह्रदय में धड़कन बनके धड़क रहे हैं और धड़कते रहेंगें.

लेखक के ब्लाग से साभार ( जुगलकिशोर जी अपना नाम युगलकिशोर भी लिखते थे -संपादक)।

Monday, October 26, 2015

अलविदा जुगल किशोर !!!

- वीर विनोद छाबड़ा 

अभी थोड़ी देर पहले ही लौटा हूं मित्र जुगल किशोर का विदा करके। जुगल मेरे ही नहीं लखनऊ के हर रंगकर्मी के मित्र थे। साहित्य प्रेमियों के मित्र थे। समाज कर्मियों के मित्र थे।जुगल किसी परिचय के मोहताज़ कभी नहीं रहे। उनका बोलता और हंसता हुआ चेहरा ही पर्याप्त होता था। कल शाम तक वो भले-चंगे थे। अचानक ही सीने में दर्द उठा। परिवारजन अस्पताल ले जा रहे थे कि रास्ते में ही.…

जुगुल किशोर से मेरी पहली मुलाक़ात कई साल पहले आकाशवाणी लखनऊ में हुई। मैं वहां बच्चों के कार्यक्रम में कहानी पाठ के लिए जाता था। कार्यक्रम संचालन में कई बार सुषमा श्रीवास्तव 'दीदी' के साथ जुगल 'भैया' जुगलबंदी करते होते थे। जुगल की मौजूदगी से राहत मिलती थी। उन दिनों प्रसारण लाइव होता था। कई बार कहानी पढ़ते-पढ़ते मैं कहीं अटक जाता या असहज हो जाता था तो जुगल भैया तुरंत कुछ न कुछ बोल कर संभाल लेते थे। 

आगे चले कर अनेक अवसरों पर स्टेज पर और स्टेज के पीछे देखा इनको। बहुत अच्छे अभिनेता ही नहीं बड़े दिल वाले थे। और प्रशिक्षक भी थे। भारतेंदु नाट्य अकादमी में प्रशिक्षक के रूप में कई साल तक रहे। इसके निदेशक का भी काम अरसे तक देखा। पिता, अंधा युग, राज, ताशों के देश में, जूलियस सीज़र, कंजूस, अंधेरे में, वासांसि जीर्णानि, बालकल विमन आदि दर्जनों नाटकों में काम किया। लखनऊ रंगमच ही नहीं दूसरे प्रदेशों में भी उन्होंने अपने अभिनय की छाप छोड़ी। उन्हें परफेक्शनिस्ट कहा जाता था। 


एक दिन मैंने उन्हें 'पीपली लाईव' में देखा। उसमें मुख्य मंत्री की भूमिका की थी उन्होंने। उन्होंने बताया था दबंग-२ में भी काम किया है। जब कभी मैं उन्हें देखता मुझे बड़ा गर्व होता था। अपने शहर लखनऊ के होनहार हैं। राजपाल यादव और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी जैसे फ़िल्म आर्टिस्टों को भी अभिनय के गुर सिखाये।
साहित्यिक गोष्ठियों में वो जाना-माना चेहरा थे। सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति रहे। इप्टा के साथ साथ सांप्रदायिकता के विरुद्ध लड़ते रहे। 


लखनऊ मंच से उनका जाना बहुत बड़ा सदमा है। भारतेंदु नाट्य अकादमी और फिर गुलाला घाट पर उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए रंगकर्मियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जुटी भारी भीड़ इसका प्रमाण है। हर व्यक्ति व्यथित और शोक में डूबा हुआ। सबके पास उनका कोई न कोई यादगार लम्हा था। सबके पास कुछ न कुछ सुनाने को संस्मरण थे। शब्दों की कमी पड़ रही थी। महज़ ६१ साल के थे जुगल। यह भी जाने की कोई उम्र होती है। 


मैं जब भी उन्हें देखता मेरा मोबाईल कैमरा उनकी और देख कर बोलता था - शॉट प्लीज़। कई बार उन्हें सोच में डूबे देखा, किसी दृश्य को विसुलाईज़ करते हुए या किसी किरदार की काया में प्रवेश करने की कवायद करते हुए या पूरी तन्मयता से सुनते हुए। मैंने बिना बताये ही शॉट ले लिया। एक आध बार ध्यान भंग हुआ उनका। मुझे देख वो चौंके। फिर मुस्कुरा दिए। कमाल के अदाकार। 

सोचा, एक दिन उनसे कहूंगा - आपका चेहरा बहुत अच्छा है। एक दिन फोटो सेशन हो जाए। लेकिन अरमान दिल में रह गये। मुझे नहीं मालूम था कि एक दिन उनकी विदाई का शॉट भी लेना पड़ेगा। 
अलविदा जुगल जी। आपका जिस्म नहीं होगा। शो तो चलता ही रहेगा। लेकिन यह भी सच है कि रंगमंच पहले जैसा नहीं रहेगा। साहित्यिक गोष्ठियों में आपकी कमी बहुत खलेगी। 

२६-१०-२०१५

Tuesday, October 20, 2015

विवेचना जबलपुर का 22 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह 28 अक्टूबर से

विवेचना थियेटर ग्रुप का बाइसवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह आगामी 28 अक्टूबर से 01 नवंबर 2015 तक तरंग प्रेक्षागृह में आयोजित है। विवेचना का यह समारोह केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद एम पी पावर मैनेजमेंट कंपनी लि के साथ संयुक्त रूप से आयोजित है। इस समारोह में अलग अलग रंग के नाटक मंचित होने जा रहे हैं। हर नाटक की अपनी एक विशिष्टता है जिसके कारण ये नाटक इस समय भारत के सर्वाधिक चर्चित नाटकों में से एक हैं। 

विवेचना ने राष्ट्रीय नाट्य समारोह की शुरूआत सन् 1994 से की थी। तबसे अब तक हर वर्ष आयोजित नाट्य समारोहों प्रसिद्ध निर्देशकों, कलाकारों और नाट्य संस्थाओं ने जबलपुर में अपने मंचन किए हैं। विवेचना थियेटर ग्रुप के नाट्य समारोह की अपनी प्रतिष्ठा है। समारोह का हर नाटक किसी खासियत के साथ ही होता है और दर्शकों को विवेचना के नाट्य समारोह का इंतजार रहता है। 

हले दिन 28 अक्टॅूबर को आयोजक संस्था विवेचना थियेटर ग्रुप के नाटक ’मौसा जी जैहिन्द ’ का मंचन होगा। यह नाटक उदयप्रकाश की इसी नाम की कहानी पर आधारित है। इसका लेखन व निर्देशन वसंत काशीकर ने किया है। इसमें प्रमुख भूमिका भी वसंत काशीकर ने निबाही है। इस नाटक के मंचन अब देश भर में हो रहे हैं। फिलहाल यह नाटक एन एस डी के पूर्वात्तर क्षेत्रीय फेस्टीवल में सिक्किम, अगरतला, जोरहाट और मेघालय के तूरा में मंचित हो रहा है। 

मारोह का दूसरा नाटक दिल्ली की संस्था स्पर्श नाट्यरंग द्वारा अजित चौधरी के निर्देशन में मंचित होगा। ’पति गये री काठियावाड़’ नामक यह नाटक सुप्रसिद्ध मराठी लेखक वेंकटेश माडगूलकर का लिखा हुआ है जिसका हिन्दी अनुवाद सुधीर कुलकर्णी ने किया है। यह सहज और निर्दोष हास्य का नाटक है। इसके दिल्ली सहित देश के विभिन्न शहरों में मंचन बहुत सराहे गये हैं। 

तीसरे दिन रवि तनेजा के निर्देशन में कॉलेजिएट डामा सोसायटी दिल्ली द्वारा जगदीश चन्द्र माथुर के ऐतिहासिक नाटक ’कोणार्क’ का मंचन किया जाएगा। कोणार्क के ध्वस्त मंदिर की कथा इस नाटक में एक अलग दृष्टिकोण से दर्शाई गई है। इसमें सैट, लाइट और अभिनय सभी बहुत भव्य है। 

चौथे दिन आज के समय का सर्वाधिक प्रशंसित नाटक ’बेयरफुट इन एथेंस’ का मंचन लखनऊ के कलाकार करेंगे। नाटक का निर्देशन वरिष्ठ रंगनिर्देशक राज बिसारिया जी ने किया है। इस नाटक के मंचन देश और विदेश में बहुत सराहे गए हैं। इस नाटक को पिछले 10 वर्षों का सर्वश्रेष्ठ नाटक माना जाता है। यह नाटक सुकरात को मौत की सजा दिये जाने के पहले चलाए गए मुकदमे पर आधारित है। आज के समय के सबसे बड़े मुद्दे प्रजातंत्र पर बहस करता है। 

पांचवें और अंतिम दिन व्रात्य बसु का नाटक ’चतुष्कोण’ मंचित होगा। इसका निर्देशन प्रो सुरेश भारद्वाज ने किया है। यह रहस्य रोमांच से भरा नाटक है। बहुत समय बाद हिन्दी में इस विषय को छूता हुआ नाटक आया है। इस नाटक के मंचन बहुत पसंद किए जा रहे हैं। एक पति, पत्नी व दो अन्य पुरूषों के बीच की यह कहानी बहुत रोचक है। 

विवेचना ने यह समारोह केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद एम पी पावर मैनेजमेंट कंपनी लि के साथ संयुक्त रूप से आयोजित किया है। प्रतिदिन संध्या 7.30 बजे से तरंग ऑडीटोरियम में नाटक मंचित होंगे। विवेचना ने सभी नाट्यप्रेमियों से नाटकों का आनंद लेने का अनुरोध किया है। इस हेतु हिमांशु राय 9425387580, बांकेबिहारी ब्यौहार 9827215749 वसंत काशीकर 9425359290 से संपर्क किया जा सकता है।

हिमांशु राय
सचिव विवेचना

Manufacturing the Protest

-Ranbir Sinh
Mr Jaitly, the Finance Minister is a honourable man. He should know it very well that writers do not manufacture protest or raise controversy. They create  literature  from the inner depths of their hearts. With deep emotions and strict commitment. Probably he mistook that literature is some kind of an item which is or should be “made in India” with the help of business tycoons. He is a honourable man, and rightly as a Finance Minister he should think that way. 

A man who bisects the body of the human being, rightly thinks that the writers do write with a knife and not a pen. It is not their fault as the birds of their flock are not intellectuals or creative artists.

Sir, there is a difference between our ideology and yours. Our ideology is that we invite all good thoughts to come from all directions. We accept them and imbibe them. You have blinkers on and cannot see beyond your nose. It is because of this that I rarely see a smile on your face. There is a perpetual grimness of arrogance on your face. Neither you respect the thoughts of others nor you accept them. I must admit that I have been a Nehruvian right from college days. We are uncomfortable because your men have openly threatened that if we do not tread upon your way then we will have die a dog’s death. Sir you are an honourable man, would you like us to die a dog’s death. We are against this dispensation. Wise men do not defend their mistakes. They have the courage to accept it. This is the greatness which is bestowed upon very few. You are very right, We did not protest when Babri Masjid was demolished. We did not protest when Gujrat massacre took place in 2002.We are protesting now because all the killings of writers and intellectuals is being done in a planned manner under the agenda of
your mentor, RSS. Even your political partner has said that they admired Modi because of Godhara. 

Sir your are an honourable man and will understand that we cannot admire Modi because of that. We will greatly appreciate if you, Modi and the chief of RSS would call the Ministers,M.P.s M.L.As and others and take them to task and tell them to keep their mouth shut. We need peaceful existence of all communities. Our Ganga Jamani culture is the strongest foundation.


Mob:9829294707;Email:ranbirsinh@rediffmail.com.

Friday, October 16, 2015

दरवाजे तक आए फासीवाद को चुनौती

-भाषा सिंह
ब तक 25 से अधिक साहित्यकार साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा चुके हैं, संगीत-नाटक अकादमी को भी पुरस्कार वापस करने की शुरुआत हो गई है। आने वाले दिनों में इस विद्रोही ब्रिगेड में चित्रकारों-गायकों, नर्तकों के शामिल होने की उम्मीद जताई जा रही है। कन्नड़ विचारक एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में हिंदी लेखक उदय प्रकाश द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का सिलसिला भारतीय साहित्य में बड़े बवंडर का रूप लेता जा रहा है। 

अपने पुरस्कार लौटाकर इन साहित्यकारों ने, 'अपने दरवाजे तक आए, सांप्रदायिक फासीवाद को चुनौती दी है।’ केंद्र में मोदी सरकार के बाद से देश-भर में जो माहौल बना, उसके खिलाफ लेखकों का खुला विक्षोभ पत्र है, जिसपर हस्ताक्षर करने वालों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। पंजाब की मशहूर लेखिका दलीप कौर टिवाणा ने बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ पद्मश्री पुरस्कार लौटा दिया है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखक सलमान रुश्दी ने साहित्यकारों के इस मुखर आक्रोश का समर्थन किया, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी गूंज हुई। संस्कृति की दुनिया के ये सम्मानित महारथी, सीधे-सीधे राजनीतिक सवाल उठा रहे हैं। 'नफरत की राजनीति, असहिष्णुता, सांप्रदायिकता, फासीवाद’ के खिलाफ तमाम रचनाकारों, संस्कृतिकर्मियों ने जिस तरह सुर में सुर मिलाया है, वह आने वाले दिनों में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ बुद्धिजीवी तबके की हुंकार का रूप ले सकती है। इतनी बड़ी संख्‍या में कलम और आवाज के वरिष्ठ और युवा सिपाहियों द्वारा देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों, धार्मिक विद्वेष फैलाने वाली शक्तियों को केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा प्रश्रय देने और कन्नड़ विचारक-लेखक एम.एम. कलबुर्गी की हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी के नहीं खड़े होने पर आवाज उठाने का बड़े राजनीतिक-सामाजिक फलक पर असर पडऩा अवश्यंभावी है। 

साहित्य अकादमी के पुरस्कारों को वापस करने का सिलसिला जारी है। साहित्य अकादमी के अलावा राज्य सरकारों के पुरस्कारों को भी लेखक वापस कर रहे हैं। दूसरी विधाओं के संस्कृतिकर्मियों से भी अपील की जा रही है। इस महत्वपूर्ण परिघटना पर केंद्र सरकार का रुख इतना शर्मनाक है कि उससे आने वाले दिनों में विरोध में खड़े संस्कृतिकर्मियों की जमात और बढऩे वाली है। देश के संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने बेहद अहंकार से कहा, 'अगर लेखक कह रहे हैं कि उनके लिए लिखना मुश्किल हो रहा है तो पहले वे लिखना बंद करें, फिर हम देखेंगे। ये पुरस्कार लेखकों को लेखकों द्वारा दिए गए थे, इसे अगर वे लौटाना चाहते हैं तो इससे सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। पुरस्कार लौटाना उनका निजी फैसला है, हमें यह स्वीकार्य है।’ इस तरह केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अपनी तरफ से एलान कर दिया है कि वह उस दिन का इंतजार कर रही है, जब लेखक लिखना बंद कर दें। गौरतलब है महेश शर्मा ही वह मंत्री हैं जिन्होंने दादरी में गोमांस खाने की अफवाह पर अखलाक की हत्या को क्रिया की प्रतिक्रिया बताया था और हत्यारी भीड़ का पक्ष लेते हुए बयान दिया था कि इस भीड़ ने अखलाक की जवान बेटी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया था। इससे पहले संस्कृति मंत्री कह चुके थे कि उनके मंत्रालय के तहत आठ संस्थाएं आती हैं और इनका शुद्धीकरण जरूरी है। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी ने पुरस्कार लौटाने वालों पर तीखी टिप्पणी की, जिससे लेखक समुदाय और अधिक क्षुब्‍ध हो गया। अंग्रेजी की मशहूर लेखिका नयनतारा सहगल ने जब पुरस्कार लौटाया तो उस पर विश्वनाथ तिवारी का कहना था कि सहगल की पुरस्कृत किताब को अकादमी ने कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराया था। इससे उन्हें बहुत कमाई हुई। अब वह पुरस्कार राशि लौटा सकती हैं लेकिन उन्हें जो साख अकादमी के पुरस्कार से मिली, उसका क्या। इस पर नयनतारा सहगल ने करारा जवाब दिया कि पुरस्कार उनके लिए सम्मान था लेकिन उन्हें बतौर लेखक साख पहले मिल चुकी थी। उन्होंने और अशोक वाजपेयी ने अकादमी को पुरस्कार लौटाने के साथ-साथ एक लाख रुपये का चेक भी लौटाया है। मलयालम और अंग्रेजी भाषा के कवि के. सच्चिदानंदन और उपन्यासकार शशि देशपांडे ने साहित्य अकादमी से रिश्ता तोड़ लिया है। उनका मानना है, 'अकादमी को इस संकट के दौर में जब साहित्यकारों के साथ खड़ा होना चाहिए, तब वह सत्ता के साथ खड़ी है। लेखकों की संस्था लेखकों का अपमान करने पर उतारू है, उनसे पुरस्कार राशि वापस मांगना कितना शर्मनाक है।’ 

जो भी लेखक-साहित्यकार पुरस्कार लौटा रहे हैं, वे खुलकर अपनी असहमति भी दर्ज करा रहे हैं। जिन साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेताओं ने अभी तक पुरस्कार नहीं लौटाए हैं, उनकी घेराबंदी अलग-अलग अंदाज में हो रही है। उनसे पूछा जा रहा है, आपकी पॉलिटिक्स क्या है या फिर कहा जा रहा है, तय करो किस ओर हो तुम। फेसबुक सहित बाकी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इस तरह की पोस्ट की भरमार है। लेखक-रचनाकार-रंगकर्मी भी अपने पुरस्कार लौटाने की घोषणा पहले इन साइट्स पर ही कर रहे हैं। इस तरह का स्वत:स्फूर्त असंतोष पहली बार देश भर में लेखकों, साहित्यकारों और रंगकर्मियों में देखने को मिल रहा है। युवा साहित्यकारों में अमन सेठी ने अपना पुरस्कार वापस दिया है। वही मृत्युंजय प्रभाकर ने साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित अपनी पहली कविता पुस्तक वापस लेने की घोषणा की है। 

पुरस्कार और साहित्य अकादमी की फेलोशिप लौटाने की घोषणा करने वाली वरिष्ठ और बेबाक-निडर अंदाज के लिए मशहूर लेखिका कृष्णा सोबती ने बताया, 'बहुत ही खराब दौर है देश में। हमें बोलना ही होगा। बाबरी और दादरी को दोबारा यह देश नहीं झेल सकता। अब नहीं बोले, तब फिर कब बोंलेंगे।’ वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने राजेश जोशी के साथ साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया। मंगलेश डबराल ने आउटलुक को बताया, 'देश भर से लेखकों का इतनी बड़ी संख्या में पुरस्कार लौटाना यह बताता है कि लेखक कितनी घुटन में जी रहे हैं। लेखकों की दुनिया में पहली बार ऐसा हो रहा है। ऐसा नहीं कि इससे पहले दमन-उत्पीड़न की घटनाएं नहीं हुई हैं। अब गुणात्मक रूप से इन दमनकारी घटनाओं की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। चारों तरफ से घेराबंदी है। किसी भी तरह लोगों को खामोश करने की साजिशों को राजनीतिक प्रश्रय मिला हुआ है। ऐसे में लेखक जो कर सकता है, वही वह कर रहा है। आज जब सांप्रदायिक फासीवाद हमारे दरवाजे तक आ गया है, हम सबको बोलना होगा। ऐसा नहीं है कि इससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है और आने वाले दिनों में इसकी गूंज और बढ़ेगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी आवाजें पहुंचेगी और भारत की असल स्थिति सामने आएगी। भारतीय लेखकों-साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों के लिए यह ऐतिहासिक मुकाम साबित होगा।’

यह बात सही दिखाई दे रही है। अलग-अलग भाषाओं के लेखकों में जबर्दस्त हलचल है। पंजाबी के 11 लेखक पुरस्कार लौटा चुके हैं। इसमें पंजाबी के लोकप्रिय कवि सुरजीत पातर भी शामिल हैं। उन्होंने बताया कि इस विविधापूर्ण देश में लेखकों-विचारकों और विद्वानों की हत्या कष्ट दे रही है। इससे भी ज्यादा कष्ट इस बात का है कि ये हत्यारे खुले घूम रहे हैं या फिर भ्रष्ट नेताओं से संरक्षण पा रहे हैं। इसी तरह के आक्रोश के साथ कवि जसविंदर और दर्शन भुल्लर, उपन्यासकार बलदेव सिंह सादकनामा और अनुवादक चमनलाल ने अपने पुरस्कार अकादमी को लौटाए हैं। इसी क्रम में बच्चों के लेखक हरदेव चौहान ने एनसीईआरटी द्वारा उन्हें दिए गए राष्ट्रीय पुरस्कार को लौटा दिया है।

इस शासन के खिलाफ बेचैनी किस कदर तारी है कि वरिष्ठ और युवा संस्कृतिकर्मी अपना नाम विरोध करने वालों की सूची में दर्ज कराना चाहते हैं। अभी तक इस सूची में पहली रंगकर्मी शामिल हुईं माया कृष्णाराव। उन्होंने संगीत-नाटक अकादमी को पुरस्कार लौटाते हुए कहा कि जिस तरह की फासीवादी संस्कृति केंद्र और राज्य सरकारें फैला रही हैं, उसका विरोध जरूरी है। वैसे विरोध के इस तरीके के खिलाफ भी लेखकों ने बोलना शुरू कर दिया है। इसमें अभी तक सबसे बड़ा नाम है वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह। वामपंथी लेखक संगठन से संबद्ध नामवर सिंह ने खुलकर कहा कि अखबारों में नाम के लिए लेखक पुरस्कार लौटा रहे हैं। इन लेखकों को साहित्य अकादमी पर निशाना नहीं साधना चाहिए था क्योंकि यह लेखकों की निर्वाचित संस्था है। इस तरह लेखकों का एक तबका जो नामवर सिंह से पुरस्कार की वापसी की मांग कर रहा था, उसे नामवर ने जवाब दिया। ऐसा नहीं कि नामवर ने ऐसा पहली बार किया। इससे पहले चाहे वह छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के साथ मंच शेयर करने की बात हो या फिर केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के साथ मंच पर रहने का मुद्दा रहा हो वह हर बार सवालों में घिरे रहे। उनकी इस प्रतिक्रिया पर मुस्लिम सवालों पर मुखर लेखिका शीबा असलम फहमी ने टिप्पणी की, 'इससे नामवर सिंह की प्रतिबद्धता सामने आती है।’ 

देश में कश्मीर से लेकर केरल तक के रचनाकार बढ़ती 'फासीवादी’ संस्कृति के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं। कश्मीरी लेखक गुलाम नबी ख्याल ने पुरस्कार लौटाया तो केरल की प्रसिद्ध लेखिका सारा जोसेफ ने भी लौटाया। कन्नड़ लेखक और अनुवादक डी.एन. श्रीनाथ, कन्नड अनुवादक जी. एन. रंगानाथ राव ने साहित्य अकादमी लौटाया। गुजरात के कवि अनिल जोशी, लेखक गणेश देवी ने बिगड़ते सांप्रदायिक माहौल के विरोध में इस्तीफा दिया। कर्नाटक के लेखकों ने साहित्य अकादमी के साथ-साथ राज्य अकादमी के पुरस्कारों को लौटाने का फैसला किया है। 

खबर लिखे जाने तक तीनों लेखक संगठनों-प्रलेस, जलेस और जसम ने अपनी तरफ से लेखकों से साहित्य अकादमी के पुरस्कार वापस करने की कोई अपील तो नहीं की थी। लकिन इन तीनों संगठनों ने साहित्य अकादमी के रवैये के खिलाफ प्रदर्शन करने का फैसला जरूर किया है। इस क्रम में इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) ने अपील जारी करके तमाम कलाकारों से कहा कि वे अपने पुरस्कार लौटा दें। इप्टा के अध्यक्ष रनबीर सिंह ने कहा, 'नर्तकों, संगीतकारों, नाटककारों, निदेशकों, कलाकारों, चित्रकारों को अपने पुरस्कार अभिव्यक्ति की आजादी की मुहिम के समर्थन में लौटा देने चाहिए। सभी को अकादमी के पदों से भी इस्तीफा दे देना चाहिए।’ रनबीर सिंह ने बताया, 'अभिव्यक्ति की आजादी सिर्फ शब्दों से नहीं होती। इसका ताल्लुक तमाम तरह के रचनात्मक रूपों से होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के संकीर्ण और तानाशाही भरे रवैये के विरोध में उठ रही आवाजों को और अधिक मजबूत करने की कोशिश होनी चाहिए।’ कश्मीरी विद्वानों के संगठन अदीबी मरकज कमराज ने भी पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों का समर्थन किया है। इस संगठन ने मांग की है कि साहित्य अकादमी को देश भर में चल रहे सांप्रदायिक उन्माद और लेखकों की हत्याओं के खिलाफ अपनी चुप्पी को तोड़ना चाहिए। अब विरोध में संगठित आवाजें भी उठ रही हैं। कोंकणी भाषा के 15-20 साहित्यकार अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की तैयारी में हैं। ये लेखक गोवा कोंकणी लेखक संघ से संबद्ध है। इस बारे में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले कोंकणी लेखक एन.शिवदास ने बताया, 'हम चार-पांच लोग करीब 15-20 लेखकों से संपर्क में हैं और हम विरोध में अपनी आवाज बुलंद करेंगे। गोवा लेखकों के लिए सुरक्षित जगह नहीं है, हमें भी यहां धमकियां मिलती रहती हैं।’

ऐसा लगता है कि विरोध में उठे ये स्वर अभी थमने वाले नहीं। 'सांस्कृतिक तानाशाही’ की दस्तक के खिलाफ उठी ये आवाजें पब्लिक इंटिलेक्टचुअल की जरूरत को और गहराई से हमारे सामने पेश कर रही हैं। बेचैनी बढ़ रही है लगातार और उसकी अभिव्यक्तियां भी।  

आउटलुक हिंदी से साभार, मूल स्रोत :
http://www.outlookhindi.com/country/issues/historic-decision-authors-rejection-and-resgination-on-rise-4587