Tuesday, November 24, 2015

' रश्मिरथी ' आैर व्योमेश शुक्ल का बनारसी ठाठ



संजय पराते
'महाभारत ' समाज में मातृसत्ता के लोप और दासत्व की स्थापना का महाकाव्य है. विभिन्न कला-माध्यमों में यह काव्य पुनर्रचित, पुनर्सृजित होता रहा है. राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर ने इसकी पुनर्रचना ' रश्मिरथी ' के रूप में की है, तो नाट्य संस्था ' रूपवाणी ' के जरिये व्योमेश शुक्ल ने इसे मंच पर नृत्य नाटिका के जरिये साकार किया है.
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 रश्मिरथी ' महाभारत की कहानी का हिस्सा है. महाभारत का एक अद्वितीय चरित्र है कर्ण. कर्ण एक संपूर्ण व्यक्तित्व नहीं है. उसके व्यक्तित्व का निर्माण महाभारत के विभिन्न पात्रों के आचरण से निर्मित होता है. वह कुंती की अवैध संतान है, क्योंकि कुंती ने उसे कुमारी अवस्था में उत्पन्न किया था. वह सूर्यपुत्र था, लेकिन मातृसत्ता के ध्वंस ने कुंती को इतना असहाय बना दिया था कि उसे अपने सुंदर पुत्र का त्याग करना पड़ा. ' सूर्यपुत्र ' को ' सूतपुत्र ' बनना पड़ा, जिसका पालन-पोषण दरिद्र और मामूली मछुआरों द्वारा किया गया. मनु के वर्ण-विधान में ' सूत ' शूद्रों के अधिक निकट थे. लेकिन फिर भी वह, अपने वैध पांडव भाईयों से अधिक वीर व उदार था. अर्जुन भी हालांकि राजा पांडु की वैध संतान नहीं था, लेकिन उसके पास पितृसत्ता और उससे उत्पन्न कुल-गोत्र की छाया थी. पितृसत्ता और कुल-गोत्र का यह बल कर्ण पर हमेशा भारी पड़ा, बावजूद इसके कि वह अर्जुन से ज्यादा पराक्रमी था. प्रतिद्वंद्वी कर्ण भरी सभा में अपने पिता का नाम नहीं बता सका. कुंती का आंचल दूध से भीगता रहा, लेकिन मातृसत्ता हार चुकी थी. अब संतानों की पहचान पिताओं से होती थी.

मातृसत्ता के ढहने और पितृसत्ता के स्थापित होने का प्रतीक परशुराम भी है, जिन्होंने अपने पिता के कहने पर अपनी माता की हत्या की थी. कर्ण को इस मातृहंतक ब्राह्मण से भी शापित होना पड़ा.इस प्रकार कर्ण को बार-बार अपने पूरे जीवन अपनी अस्मिता से जूझना पड़ा. बार-बार उसका अतीत उसके ' वीरत्व ' को पीछे खींचता रहा. तब दुर्योधन ने उसे पहचान दी, उसका अभिषेक राजा के रूप में किया और कुंतीपुत्र कर्ण अपनी संपूर्णता में दैदीप्यमान कौरव सेनापति के रूप में खड़ा होता है. अपनी अस्मिता के संघर्ष में कर्ण विजयी होता है. कौरवों और पांडवों के बीच का महाभारत ' कर्ण ' की उपस्थिति के बिना अर्थपूर्ण व संभव न था.

इसीलिए दिनकर की ' रश्मिरथी ' का नायक कर्ण ही है, जिसे व्योमेश शुक्ल ने ठेठ बनारसी रंग में कल मुक्ताकाशी मंच पर साकार किया. इसके विमर्श के केन्द्र में अस्मिता की वही राजनीति है, जो आधुनिक भारत की राजनीति के केन्द्र में आज भी है. अन्याय के खिलाफ सामाजिक लामबंदी के प्रभावशाली साधन के रूप में आज भी इसका प्रयोग किया जा रहा है. शायद यही कारण हो कि दलितों और वंचितों को आज भी सबसे ज्यादा अपील कर्ण ही करते हैं, कृष्ण नहीं.

व्योमेश शुक्ल अपने अंदाज़ में ' रश्मिरथी ' को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें बार-बार कुंती की आवाजाही और उसका मातृनाद है. इस मातृनाद से विचलित होते हुए भी, कुंती के लिए कर्ण का आश्वासन केवल यही है कि उसके पांच बेटे जीवित रहेंगे, ' पांच पांडवों ' का वे कोई आश्वासन नहीं देते. इस प्रकार वे पितृसत्ता को चुनौती देते हैं. अपनी अस्मिता के संघर्ष में वे जातिप्रथा की अमानवीयता को उजागर करते हैं, जो एक मनुष्य को उसकी मानव जाति से अलग कर दासत्व की श्रेणी में ढकेलती है. कर्ण का संघर्ष क्रमशः स्थापित होती दास प्रथा के खिलाफ हुंकार भी है. कर्ण की मृत्यु दास प्रथा की स्थापना का प्रतीक है. कर्ण, दुर्योधन और कृष्ण के अभिनय में उनके स्त्री-पात्रों ने बहुत कुशलता से रंग भरा है.

यह 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह का दूसरा दिन था -- जो जितेन्द्र रघुवंशी के साथ ही बबन मिश्र की ' अपराजेय ' स्मृति को समर्पित था. इस दिन आयोजकों ने अपनी उस घोषणा से भी ' मुक्ति ' पा ली कि कुमुद देवरस सम्मान जिस महिला नाट्यकर्मी को दिया जाएगा, उसकी एक नाट्य-प्रस्तुति भी मंच पर अवश्य ही होगी. इस वर्ष यह सम्मान रायगढ़ इप्टा की ऊषा आठले को दिया गया, लेकिन उनकी नाट्यकृति की अनुपस्थिति के साथ. इप्टा को अभी बहुत-से झंझटों से मुक्ति पाने के लिए एक लंबी यात्रा करनी होगी।
(लेखक की टिप्पणी बतौर एक दर्शक ही)

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