Friday, January 26, 2018

हिंदी रंगमंच की मूल समस्या, ख़ैरात की आदत

- पुंज प्रकाश
हिंदी रंगमंच की मूल समस्या उसका गैरपेशेवर चरित्र और कार्यपद्धति है। दूसरे किसी भी पेशा को लीजिए, उस पेशे को अपना व्यवसाय बनानेवाला व्यक्ति ज़्यादा से ज़्यादा वक्त उस पेशे में देता है और उस पेशे को व उस पेशे के लिए ख़ुद को बेहतर से बेहतर बनाने का प्रयत्न करता है। 

जाड़ा हो, गर्मी हो, बरसात हो : एक चाय बेचनेवाला इंसान सुबह 6 बजे से पहले अपनी दुकान पर आ जाता है और देर रात तक चाय बेचता रहता है, तब वो उस पेशे से अपना और अपने परिवार का किसी प्रकार भरण-पोषण कर पाता है। वो पैसे के लिए सरकार या किसी और के पास हाथ नहीं फैलाता, किसी अड्डे पर जाकर समय काटने के लिए घंटे भर फालतू के गप्पें नहीं मरता बल्कि जो कुछ भी कमाना होता है, अपने पेशे से कमाता है। जितना भी वक्त बिताना होता है अपने पेशे के साथ बिताता है। दुनियां का वो कोई भी इंसान जो पेशेवर है उसके पास फालतू का वक्त होता ही नहीं। यहां तो आलम यह है कि फालतू के वक्त में से एकाध घंटे नाटक-वाटक भी कर लिए। 

कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी का अधिकार रंगकर्मी व्यवहारिक रूप से दिनभर में रोज़ 2 घंटे भी अपने पेशे को नहीं देता। ना ढंग का कोई अभ्यास करता है, ना प्रशिक्षण में रुचि है (बल्कि प्रशिक्षण और प्रशिक्षित लोगों के प्रति हेय दृष्टिकोण है) और ना ही शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास में (बल्कि अज्ञानता का घमंड है) : बस कुछ जुगाड़ और जोड़-तोड़ करके साल में जैसे-तैसे कुछ नाटक खेलना है। मेरा नाटक तुम देखो, तुम्हारा नाटक हम देखेंगे। मेरे नाटक में ताली तुम पीटो, तुम्हारे में हम पीटेंगे! मुझे तुम पुरस्कार दो, हम तुम्हें पुरस्कृत करेगें। अपने नाट्योत्सव में तुम हमें बुलाओ, हम तुम्हें बुलाएगें। तुम हमें महान घोषित करो, हम तुम्हें महानता का तमगा देगें। और कोई एकाध अगर कुछ थोड़ा बहुत बेहतर करने की चेष्टा कर रहा है तो उसे कुज़ात घोषित कर दो और ऐसे माहौल बना दो कि मानसिक टॉर्चर होता रहे। इससे क्या हासिल होगा - आत्ममुग्धता, कुछ तालियां, कुछ गालियां और कुछ झूठी - सच्ची हाय-हाय, वाह-वाह के सिवा ?

इस दृष्टिकोण को दूर कर पेशेवर बनने की दिशा में प्रयास होना चाहिए। जानता हूँ इसमें बहुत वक्त लगेगा लेकिन पूरी ईमानदारी से गंभीरतापूर्वक प्रयास हुआ तो कुछ भी असंभव नहीं। भले ही हम अपने लिए कुछ ख़ास नहीं कर पाएं लेकिन हम भावी पीढ़ी के लिए एक सुंदर जगह ज़रूर छोड़ जाएगें जहां वो बड़ी आसानी से रंगमंच को अपना पेशा बना सकते हैं। 24 घंटे में किसी तरह 2 घंटे रंगमंच करने को रंगमंच करना नहीं कहते। यह बदलाव रंगमंच को पेशा बनानेवाले लोग ही कर सकते हैं, इसे शौकिया तौर पर करनेवालों का इसमें कोई रुचि नहीं है और हिंदी रंगमंच व्यवसायिक हो ही नहीं सकता का जाप भी करने लगेंगे क्योंकि उनकी दाल-रोटी, चिकन-मटन, घर-गाड़ी का जुगाड़ कहीं और से हुआ रहता है। प्रसिद्द जर्मन कवि रिल्के कहते हैं - "अपनी सारी इच्छाओं और मूल्यों कला को अपना आप समर्पित किए बिना कोई भी व्यक्ति किसी ऊंचे उद्देश्य तक नहीं पहुंच सकता। मैं कला को एक शहादत की तरह नहीं - एक युद्ध की तरह मानता हूं जहां कुछ चुनिंदा लोगों को अपने और अपने परिवेश के विरुद्ध लड़ना है ताकि वे शुद्ध मन से उच्चतम उद्देश्य तक पहुंच सकें और अपने उत्तराधिकारियों को खुले हाथों से यह सम्पदा सौंप सकें। ऐसा करने के लिए एक इंसान के समग्र जीवन की ज़रूरत है न कि थकान से भरे कुछ फुर्सती घंटों की।" 

इसलिए चाहे जैसे भी हो, रंगमंच को पेशा और पेशा को पेशेवर बनाने की ओर प्रयास होना चाहिए। कुछ चुनिंदा लोगों के गालों पर लाली और पेट पर चर्बी और एकाउंट में चंद रुपए आ जाने को पेशेवर होना नहीं कहते। दूसरे का इंतज़ार मत कीजिए क्योंकि इस देश की एक और समस्या यह है कि यहां लगभग हर व्यक्ति दूसरे को बदलने में लगा है ख़ुद को नहीं। तो क्यों ना ख़ुद से ही शुरुआत हो और जो भी मुसीबत आए उससे सीना तानकर भीड़ जाया जाय। जो होगा देखा जाएगा; वैसे भी कौन सा भला हो रहा है ? रंगमंच का समृद्ध इतिहास का जाप किस काम का है, वो तो चटनी बनाने के भी काम नहीं आएगा ! 

उदारीकरण के बाद विभिन्न सरकारी या गैरसरकारी अनुदानों के तहत कुछ पैसों का आगमन रंगमंच में हुआ है। यह पैसे क्यों बांटे जा रहे हैं, यह एक राजनैतिक खेल है जो इतनी आसानी से समझ में नहीं आनेवाला। एक पुरानी कहावत है, कह देता हूँ - समझ में आ जाए तो ठीक और ना आए तो भी ठीक - "किसी को बेकार बनाना हो तो उसे ख़ैरात की आदत डाल दो।" फिर क्या है वो ख़ुद की सलाम बजाने को तैयार रहेगा।

ख़ैर, इस प्रक्रिया में कुछ का भला भी हुआ है। कुछ की दाल रोटी चल गई है, तो कुछ के घर में सामान बढ़ गए हैं, कुछ ने नई बाइक ले ली है, कुछ के घर में नल की टंकी लग गई है, कुछ के दादा बढ़ गए हैं तो कुछ के चमचे बढ़ गए हैं, तो कुछ ने कुछ बेहतरीन नाटक भी किए हैं। लेकिन साथ ही कुछ ऐसे लोग भी उग आए हैं जिनका दूर-दूर तक कोई भी सरोकार ना कभी रंगमंच से रहा है और ना है। वो रंगमंच के "शुभचिंतक" के रूप में अवतरित हुए हैं और दिन रात इन अनुदानों की वेबसाइट की ख़ाक छानते और अप्लाई करते रहते हैं। रंगमंच के विकास के लिए आए इस पैसे से ये कौन सा विकास कर रहे हैं यह बात जग ज़ाहिर है! वैसे सरल भाषा में इन्हें परजीवी कहते हैं।

साथ ही यह भी एक आम चलन और हर अड्डे पर सुनने को मिल जाता है कि रंग-समूह का मुखिया रंगमंडल ग्रांट के तहत मिलनेवाले अभिनेताओं का पैसा विभिन्न कुतर्कों को देकर डकार जाता है। ऐसा बहुत कम ही समूह है जो पैसे का हिसाब साफ़-साफ़ और सार्वजनिक रखता हो और अभिनेता को महीने का पूरा पैसा देता हो। जो भी समूह ऐसा कर रहा है उसे मेरा सलाम। बहरहाल, क्या इसके लिए केवल उस ग्रुप का मुखिया ही ज़िम्मेदार है? क्या अभिनेता या बाकी लोग उसके लिए ज़िम्मेदार नहीं जो केवल अपना स्वार्थ देखते हैं? 6 हज़ार की जगह 2 या 3 हज़ार पाकर 6 हज़ार के कागज़ पर या ख़ाली पन्ने पर साइन करते हैं और जबतक आपको यह पैसा मिलता रहता है तबतक सब ठीक और जब किसी वजह से नहीं मिलता तब "क्रांतिकारी" हो जाते हैं या फिर किसी और मुखिया को खोजने लगते हैं जो अनुदान के चंद टुकड़े आपके मुंह में डाल सके और साथ ही समय-समय पर चाय-पानी या मुर्गा-दारू की व्यवस्था भी देख ले। चाहे रंगमंडल अनुदान हो या व्यक्तिगत अनुदान शुरू में ही एक कानूनी एग्रीमेंट पेपर पर साइन क्यों नहीं होता, यह बात समझ के परे तो बिल्कुल ही नहीं है!

मैं ऐसा कहके अभिनेताओं के मजबूरियों पर कटाक्ष नहीं कर रहा हूँ और ना ही उन निर्देशकों पर उंगली ही उठा रहा हूँ जो अपनी पूरी ऊर्जा रंगमंच की भावी पीढ़ी को गढ़ने में खर्च कर रहे हैं। मैं ख़ुद एक अभिनेता-निर्देशक हूँ और हिंदी रंगमंच में मैंने एक अभिनेता-निर्देशक होने की पीड़ा और अकेलेपन को बड़े ही शिद्दत से महसूस किया ही नहीं बल्कि कर रहा हूँ। बहुत अच्छे और खरे लोग भी मिले लेकिन कुछ ऐसे निर्देशकों और आयोजकों से भी पाला पड़ा है जो काम कराकर पैसे देने भूल गए हैं या फिर बार-बार मांगने पर एहसानी मुद्रा में पैसे दिए हैं। कुछ बेचारे ने तो बेशर्मी की हद पार करते हुए ना केवल पैसे डकारे बल्कि यह कोशिश भी की कि बतौर कलाकार मेरा वजूद ही ख़त्म हो जाए! लेकिन ग़लती मेरी ही थी कि मैंने "दोस्ती-यारी" के चक्कर में आकर इन कार्यों को अंजाम दिया था। मुझे पहले ही दिन से सबकुछ साफ़-साफ़ बात करना चाहिए था, फिर उस निर्देशक को अच्छा लगता तो मेरे साथ काम करता, नहीं अच्छा लगता तो न करता। बहरहाल, ग़लती करना कोई गुनाह नहीं है बल्कि एक ग़लती को दुहराना गुनाह है। अब अगर कोई भी मेरे साथ काम करना चाहता है तो उसे मेरी फीस पहले तय करनी पड़ती है। हां, उन गुरुओं के लिए मैं आज भी सहज और फ्री में उपलब्ध हूँ जिन्होने मेरी उंगली पकड़कर मुझे इस महान कला के क्षेत्र में चलना सिखलाया है और उन दोस्तों के लिए भी जो दोस्ती का अर्थ जानते हैं या फिर उन लोगों के लिए भी जो एक मुहिम के तहत सामाजिक सरोकार से लैश होकर "सेवाभाव" से रंगकर्म कर रहे हैं और नए साथियों के लिए तो मेरे दिल के दरवाज़े हमेशा ही खुले हैं।

एक सच्चे कलाकार को हर क़ीमत पर अपने आत्मसम्मान की रक्षा करना ही चाहिए। बाद में हाय-हाय करने से बेहतर है कि पहले ही दूध का दूध और पानी का पानी कर लिया जाय। रीढ़ की हड्डी सीधी रखो मेरे अभिनेता/अभिनेत्री मित्रों; क्योंकि ग़लत का साथ देना भी ग़लत ही कहलाता है। आप इस्तेमाल करके दूध में पड़ी मक्खी की तरह फेंक दिए जाओ इससे पहले ही सचेत हो जाओ। तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए खूब मेहनत से अपने को गढ़ों। बौद्धिक, शारीरिक और रचनात्मक रूप से अपने को खूब लगन और किसी अच्छे मार्गदर्शक के सानिध्य में तैयार करो। इस क़ाबिल बनो कि लोगों को आपकी क़ाबिलियत पर फ़क्र हो। झूठी प्रशंसा और फ़र्ज़ी निंदा से अपने को सचेत रखो। अपने काम का सही-सही और सत्य से आंकलन तुम खुद करो। दुनियां भर की चीज़ें देखों, सुनो, पढ़ों और ख़ूब चिंतन करो। साथ ही रंगमंच एक सामूहिक कार्य है तो समूह के हर कार्य में अपना रचनात्मक और सक्रिय योगदान दो। किसी के भी पीछे मत भागो बल्कि उसकी अच्छी बातों को आत्मसात और बुरी बातों को त्याग कर उसके आगे या कंधे से कंधा मिलाकर चलने का जोश भरो - अपने अंदर। किसी भी ऐसे इंसान चाहे वो कितना भी पहुँचवाला क्यों ना हो, का साथ छोड़ दो जिसके पास अपने लिए अलग और तुम्हारे लिए अलग संविधान हो। एक सच्चा मार्गदर्शक अपने शागिर्दों को हर तरह से रचनात्मक बनाता है पिछलग्गू नहीं।

जैसी दुनियां, रंगमंच या समूह तुम्हें चाहिए - गढ़ो - रोका किसने है ? कोशिश करो, अपने लिए कुछ ना गढ़ पाए तो भावी पीढ़ी के लिए तो कुछ ना कुछ सार्थक कर ही जाओगे। बस इतना ख्याल रखना कि तुम्हारी दुनियां ऐसी हो जहां कोई मनुष्य किसी और मनुष्य का शोषण ना कर रहा हो। 

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'अगरबत्ती': पितृसत्ता के खिलाफ़ स्त्री-चेतना का प्रतिकार

-कुणाल कुमार वर्मा
यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो,इतिहास समाज से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा विषय है। वस्तुतः समाज की सही तस्वीर इतिहास एवं साहित्य दोनों मिलकर ही रच सकते हैं।फूलन देवी के साथ सामूहिक बलात्कार और तदुपरांत प्रतिकार स्वरुप अंजाम दिया गया बेहमई हत्याकांड इस देश के सामाजिक यथार्थ को बयान करते,ऐतिहासिक तथ्य है।परन्तु नाटक ‘अगरबत्ती’ में दर्ज कार्यव्यापार (action),कितनी कल्पना और कितना यथार्थ है?दरअसल कल्पना और यथार्थ के मध्य एक साहित्यिक यथार्थ होता है,जिसे दर्ज करने का काम साहित्यकार करता है।दर्पण में दिखता अक्स झूठ होकर भी सत्य होता है,जिसकी सुध लेकर ही आदमी घर से बाहर निकलता है,दुनिया के बीच अपनी सामाजिकता गढ़ता है।परन्तु नाटक के विषय में चर्चा करते समय,ये बात अवश्य ज्ञातव्य रहे की ये विधा निरा साहित्य-रूप नहीं है।नेमिचन्द्र जैन के शब्दों में “प्रारम्भ में और एक स्तर पर,भाषा के साहित्यिक- काव्यात्मक रूप में अभिव्यक्त होने के साथ-साथ, नाटक में और भी बहुत से तत्व हैं,जो उसके अपने हैं,विशिष्ट हैं, जो सब एक साथ उस रूप में  अन्य किसी कलात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम में नहीं होते..”( रंग दर्शन,पृष्ठ 155)। समागम रांगमांडल,जबलपुर की प्रस्तुति ‘अगरबत्ती’,नाट्यविधा की इसी विशिष्टता को साधता- बेहद चतुराई से लिखा एवं कुशलता  से मंचित किया गया नाटक है।अतः इस दर्पण में रूपायित प्रतिबिम्ब के वैशिष्टय को समझना,दर्पण को समझने के लिए परम आव्यशक हैl

नाटक ‘अगरबत्ती’,बेहमई हत्याकांड(1981) और इस पुरे वाकये में अलक्षित रह गए उस पक्ष की सुध लेता है,जिसकी पीड़ा और अंतर्कलह को समझे बिना ‘फूलनदेवी’ नामक सामाजिक परिघटना को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता और ना ही उस बीहड़ से कभी भारतीय समाज को बाहर निकाला जा सकता है,जिसकी रचना वर्णवादी व्यवस्था,जातिगत पूर्वाग्रह और लिंगभेद की दुरभिसंधि  करती है ।हत्याकांड में मारे गए राजपूतों की विधिाएँ अब अगरबत्ती निर्माण का उद्यम कर अपना निर्वाह कर रही हैं और उनके इसी कर्म के साथ-साथ नाटक का विमर्श आगे बढ़ता है।लालाराम ठाकुर की विधवा या ठकुराइन अपनी पति की हत्या के प्रतिकार हेतु प्रणरत है, इससे पहले उसे मतृक की खारी का विसर्जन मंजूर नहीं।प्रतिकार से पहले तर्पण संभव नहीं। इस हेतु उसकी हल्दी ठाकुर की विधवा कल्ली पर निर्भरता है, जो की- “ ऊँची पूरी , ठेठ लट्ठमार है ” और “बाहर से शाांत और अंदर से गर्म भट्टी जैसी दिखती है”। “ जिस दिन कल्ली भली-चंगी होकर लौट आएगी, फूलन का अंत हो जाएगा, वो हटजोगन सी हो गयी है”।एक जैसी सोच और पूर्वाग्रहों से ग्रसित विधवाओं के बीच एक मिसफ़िट ‘दमयंती’ का प्रवेश नाटक में तनाव और द्वंद्व को जन्म देता है। ‘दमयंती’ का क़िरदार हेंस क्रिस्चन एंडरसन की प्रसिद्ध कहानी ‘ दी एम्पेरेर्स न्यू क्लोथ्ज’ के उस निर्दोष बच्चे की तरह है जिसमें नंगे राजा को नंगे कहने का सहज साहस है -“पापी नातेदार भी हो तो पापी ही होता है”। ऐसे में उसे उदारचरित पारवती का गीता-दर्शन, किंचित सम्बल देता है। विधवाओं के बीच दमयंती की सक्रीय उपस्थिति,उत्प्रेरक का काम करती है और धीरे-धीरे उन्हें सत्य के साक्षात्कार के लिए तैयार करती है।

ठाकुरों की ठकरास की क़लई भी धीरे-धीरे आपसी संवाद में खुलती जाती है। इस गहमागहमी में ठकुराइन के साथ बचपन में घटा एक हादसा हिस्टीरिया के दौरे की शक्ल में उस पर हावी होकर उसकी चिंतना की सारी सामंती प्रोग्रामिंग को उलट कर,उसके भीतर की स्त्री को पुनर्स्थापित कर देता है और नाटक के अंतिम दृश्य में वह अपने मतृ पति की खारी को अगरबत्ती के मसाले में मिलाती नज़र आती है,क्यूँकि -“ इनको तो जलना चाहिए, कई बार.. बार-बार थोड़ा-थोड़ा,तिल-तिल कर अगरबत्ती की तरह”।

इस प्रकार ‘अगरबत्ती’,पितृसत्ता के खिलाफ़ स्त्री-चेतना के प्रतिकार  का रूपक बन जाता है। ठकुराइन का घर की महरी ‘नन्ही बाई’ को कसा गया तंज-“ साली नीच! का होत है अत्याचार जानत हो? तेने देखे कभऊ अत्याचार?”- उसकी दबी,कुचली चेतना पर एक ललकार की तरह चोट करता है, और एक हुंकार के साथ वह जो उसमें प्रकट होकर विकट हो जाता है और जिसके सामने ठकरास की हवा निकल जाती है,मंच पर उपस्थित सभी स्त्रियों में जातिभेद का अतिक्रमण कर,वर्ग-चेतना को जन्म देता है।एक तरफ़ ठकरास की धौंस और एक तरफ़ लोकगीतों में निहित ‘लोक’ की हूक।नाटक में प्रयुक्त लोकगीत,नाटक के रचना-विधान से
आव्यविक (organic) रूप से जुड़े हैं, वे नाटक के विमर्श को स्वतःस्फूर्त करते हैं। सुमन का फागुन के गीत को अपने स्वर देना और तत्पश्चात उसका बदला सुर। नाटक के पांचवे दृश्य में ठकुराइन और सुमन के बीच जन्मी तनातनी यूँ ही नहीं। ठकुराइन को किस बात का खटका लगता है,दरअसल उसे विद्रोह की बू आती है -“जे कौन सी भाषा बोलन लगी सुमन ? आज कै रई ई की ग़लती नई थी, कल को कहेगी ऊ चुड़ैल की ग़लती नई थी।यह कथानक में आए ढलान का घोतक है।लोक के स्वर,दरअसल,स्त्रियों में जो सहज है,स्वाभाविक है और जो कृत्रिम है,अध्यारोपित है,के बीच के फ़र्क़ को पुष्ट करने का काम करते हैं।

और अंत में एक आवश्यक हस्तक्षेप।नाटककार के द्वारा प्रस्तुत अंत, क्या कथानक की तार्किक परिणती भी है? या, अभीष्ट अंत पाने के लिए नाटककार के द्वारा किसी युक्ति का सहारा लिया गया है।पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में इस युक्ति को Dues ex Machina या God out of Machine ( यंत्रजनित ईश्वर) का नाम दिया गया है। यानि की,कथानक में मौजूद किसी दुर्निवार सी दिखती समस्या या परिस्थिति का कोई अनापेक्षित,अप्रत्याशित हल प्रस्तुत कर, कथानक को अभीष्ट मोड़ देना।यहाँ बात,नाटक के अंतिम दृश्य में ठकुराईन की चिंतना में आए क्रन्तिकारी परिवर्तन की,की जा रही है।परसाई भवन में भी एक दफ़ा ये बात उठी थी, अतः इस पर यहाँ चर्चा कर लेना उचित होगा। प्रथम दृष्टव्या,यह आकस्मिक लग सकता है,परन्तु यह अप्रत्याशित नहीं।नाटक में इसके लिए संक्रमण की स्थिति धीरे-धीरे निर्मित होती रहती है और ठकुराईन चौतरफ़ा घिरती नज़र आती है।धीरे-धीरे सबका अपने क़दम पीछे करते जाना और जब बीहड़ ने कल्ली को भी नहीं बख़्शा,वह बिलकुल अकेली पड़ जाती है, ऐसे में जब उसके मुख्य प्रयोजन ‘ठकरास’ की पोल,नन्ही बाई की गवाही खोल कर रख देती है, तब उसके अवचेतन में दबी यंत्रणा भी अपना असर दिखाती है।एक बीहड़ है,जो नाटक के बाहर स्थित है,एक दूसरा बीहड़ भी है ,जो गाँव में है, गाँव के अंदर है;गाँव के बाहर स्थित बीहड़ को,गाँव के अंदर स्थित 'बीहड़’ ही आबाद करता है।अंदर या बाहर, कम या ज़्यादा, जब इस बीहड़ ने किसी को नहीं बख़्शा, तब ऐसे में ठकुराईन का इस बीहड़ से,अपवाद बनकर बचे रह जाना आश्चर्य का विषय होता।परन्तु प्रश्न यह नहीं की ठकुराईन की सोच में परिवर्तन के क्या कारक है,अपितु असल प्रश्न यह है की, क्या पीड़ित विधवाओं ने,अपने व्यक्तिगत दुःख और पीड़ा का अतिक्रमण कर,एक क्षण के लिए भी,मात्र स्त्री होकर, सत्य का साक्षात्कार किया होगा? यह तो उन विधवाओं से बात कर, या फिर उनके समक्ष ‘अगरबत्ती’ का मंचन कर और उनकी प्रतिक्रियाओं का अध्ययन कर ही जाना जा सकता है। हो सकता है हमें इस बीहड़ से बाहर निकलने के सूत्र मिल सकें। आशीष पाठक अपने साहसिक लेखन एवं कुशल निर्देशन हेतु,साधुवाद के पात्र है।


विवेचना थियेटर ग्रुप जबलपुर का अभूतपूर्व आयोजन ’उसने कहा था-The Troth'

विवेचना के आमंत्रण पर लंदन का अकेडेमी ग्रुप जबलपुर में 4 फरवरी को तरंग प्रेक्षागृह में ’उसने कहा था’ की संगीत, नृत्यमयी प्रस्तुति देगा। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की यह अमर कहानी सौ साल पुरानी है प्रेम, त्याग और बलिदान की अमर कथा है। प्रथम विश्वयुद्ध और भारतीय सिनेमा को भी सौ साल पूरे हुए हैं। उसने कहा था कहानी की पृष्ठभूमि भी प्रथम विश्वयुद्ध है। इसी को लेकर लंदन के कलाकारों ने इसे तैयार किया है। ब्रिटेन में इसके शो शुरू हो चुके हैं। 26 जनवरी से 13 फरवरी तक ऐकेडेमी ग्रुप भारत में शो करने आ रहा है। विवेचना के प्रयास से यह प्रस्तुति जबलपुर में होने जा रही है। कृपया इस अभूतपूर्व आयोजन के साक्षी बनें। 4 फरवरी 2018, तरंग प्रेक्षागृह, संध्या 7.30 बजे।

कार्यक्रम के आमंत्रण पत्र अन्नपूर्णा इन होटल, आशीष नर्सिंग होम के निकट नेपियर टाउन व मूवी मैजिक साउथ एवेन्यू माल,ग्वारीघाट में उपलब्ध रहेंगे। संपर्क : हिमांशु राय 9425387580 वसंत काशीकर 9425359290 बांकेबिहारी ब्यौहार 9827215749 मनु तिवारी 9300101284,

इप्टा का भिलाई सम्मेलन : तकनीक संवेदनाएँ नहीं जगातीं, यह कला का काम है

- रमेश देव 
11,12,13 जनवरी को प्रस्तावित भारतीय जन नाट्य संघ के प्रथम युवा नाट्य महोत्सव में सहभागी बनने को दिल्ली इप्टा का बारह सदस्यीय दल 8:30बजे समता एक्सप्रेस से भिलाई को रवाना हुआ। साहित्य और कला की प्रासंगिकता के लिए अपनी अपनी चेतना की मशाल थामे कुल 9 राज्यों से रंगकर्मी, गीतकार, संगीतकार, गायक,वादक,नृतक, आलोचक और निर्देशकों का मेला लगने  वाला था।सभी रोमांचित थे।हमारी इकाई की सकारात्मक विषेशता ये थी कि इप्टा के साथ जुड़ाव के अनुभव, उम्र और व्यक्तिगत चेतना में पर्याप्त अंतर के बाद भी हम सभी एक दूसरे के ऊपर और साथ खिलखिला के हँसते थे,जैसे इप्टा का "सबके लिए सुंदर दुनिया" का सपना सजीव हो उठा हो। इस सहजता के बावजूद साहित्य और कला के प्रति हमारी सजगता ने हमें दिशा दी।

ट्रैन में जगह मिलते ही भोर के जगे होने के कारण सभी यहाँ वहाँ फैल गए। ठंड और आलस ने सभी के चेहरे ढक रखे थे, पर विनोद ने खाने का प्रस्ताव क्या रखा सभी ऐसे बाहर आये जैसे चूहों के बिल के सामने किसी ने चावल फेंक दिया हो। खाने के बाद हमने अपने नाटक में प्रयुक्त गीतों कि रिहर्सल की, खत्म करते करते किरणें पश्चिम की खिड़की से तिरछी आने लगी थी। रजनीश के अंदर का फोटोग्राफर प्रकृति की संध्यकलाओं को मानव रचित विसंगतियों के साथ क़ैद करने को कुलबुला उठा। कभी खिड़की पे कभी दरवाजे से लग के वह देश-काल-दर्शन को वह माइक्रोसेकेन्ड्स में तस्वीर बना देते।  साहित्य का विद्यार्थी शामों-सहर दार्शनिक हो जाया करता हैं। माहौल भाँपते हुए उनसे उनकी जीवन यात्रा के टीलों-गद्ढों को सुनते-सुनते मैं कब अपना सब कुछ कह गया पता ही नही चला न चला । बचपन के संगीतमय रामचरितमानस के पाठ से मुक्तिबोध, दुष्यंत कुमार,अज्ञेय, कौसल्या बैसन्त्री, शरणकुमार लिम्बाले होते हुए चर्चा किसी मुकाम पर पहुँची या नहीं पता नहीं, पर इतना साफ था कि-
"अब न समय है
जूझना ही तय है।।"

नौ बजे गाड़ी झीलों के शहर में ठहरी तो हमने पानी तो भरा ही साथ ही रजनीश के जीजा से भी मुलाकात हो गई जो हमारा खाना लेकर पहले से वहाँ उपस्थित थे। स्टेशन छूटते ही हमने पहले अपने नाटक की मौखिक रिहर्सल की, फिर छक के खाया। दीदी-जीजा ने मिलकर बनाया था। विषेश आकर्षण मिर्च का अचार था जिसने लौटते समय मुझे शिवांगी से मालिकाना हक के लिए टकराने की असामान्य हिम्मत दी। सुबह मनीष ने बांसुरी उठाई और हमने  रजनीश की ढोलकिया थाप पे आंखें बंद कर मूंडी हिलाना शुरू किया कि दुर्ग टपक गया । 

छत्तीसगढ़ इप्टा के मेजबान साथी राकेश और अमिताभ वहां कार-मैजिक का गठजोड़ लिए प्रतीक्षारत थे। भिलाई सेक्टर छः की बाकलीवाल जैन धर्मशाला में सभी प्रतिभागी साथियों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी। हम पंजाब के साथियों की पीठ पर ही पहुंचे। कमरे बड़े थे और कंबल-गद्दे की व्यवस्था पर्याप्त। हमने तैयार होकर नाश्ता किया। चुकि हमनें अपने नाटक के मंचन का तीन-चार दिन ही अभ्यास किया था, इसलिए हम इसके केन्द्र-किनारों पर काम कर रहे थे। तभी मनीष ने बताया कि पत्रिका छत्तीसगढ़ से आयी पत्रकार हम सब से रंगमंच, इप्टा के वर्तमान परिदृश्य और हमारे नाटक को लेकर फेसबुक लाइव में बातचीत करने वाली हैं । हमारे नाटक के विषय में मनीष ने बताया कि कैसे यह नाटक देशभक्ति के नाम पर देशभर में  फैली गरीबी और बेरोजगारी की समस्या से जनता का ध्यान भटकाने की साजिश को उजागर करते हुए देश को जगने का आह्वान करता है। करमजीत ने पूंजी की जमाखोरी और तद्जनित शोषण व्यवस्था को खोला। क्षमा और शिवांगी ने मनोरंजन आधारित फिल्मों से जनजागरण के सशक्त माध्यम नाटक पर मंडराते खतरों से आगाह करते हुए फिल्मों की वायवी दुनिया से रंगमंच को जन के करीब बताया। विनोद ने इप्टा के पचहत्तर सालों के इतिहास को संक्षेप में बताते हुए कहा कि आज भी हम परोक्ष रूप से गुलामों की जिंदगी बसर कर रहे हैं।  हमारी सारी उम्मीदें किसी और की जरुरतों की मोहताज हैं। हमारे अधिकांश युवा ट्रेंड और मनोरंजन की अंधी दौड़ में शामिल हो गए हैं, रंगमंच इन खामियों को दिखाता हुआ धारा के विपरीत बह रहा है। इसलिए हमें ज्यादा जोर लगाना होगा। इसपर मनीष ने विषेश टिप्पणी करते हुए देशभर में इप्टा की पांच सौ से ज्यादा इकाइयों और दर्जनों चौथी पीढ़ियों की 'लिटिल इप्टा' से रूबरू कराते हुए रंगमंच की वर्तमान सकारात्मक प्रगति को रेखांकित किया। अमृत ने दंतेवाड़ा और बस्तर जैसे इलाकों में अशांति के लिए सरकारी रवैयों की आलोचना की और बेहतरी के लिए उठाए गए कदमों को नाकाफी बताया। अयान ने स्वयं का उदाहरण देते हुए बताया कि कैसे जागरूकता के प्रसार के लिए जनता स्वदेश लौट रही है। और रमेश ने आज भी भूख की समस्या और हाशिये के समाज के प्रति इप्टा और रंगकर्म की प्रतिबद्धता ज़ाहिर की। उम्मीद से अच्छा और स्वादिष्ट खाना लग चुका था। मनफेरवट के लालच  और स्वास्थ्य की दृष्टि से हममें से ज्यादातर ने रोटियों को पूरियों पर तरजीह दी जो क्रम बारह को अपनी नाट्य प्रस्तुति के बाद फिर से उलट गया। हम एकबार फिर रिहर्सल में जुट गए। हमारे छत्तीसगढ़ी साथी भी अपने लोकनृत्य की रिहर्सल को जमा हो रहे थे। उनका 'रंगमा-रंगमा-रंगमा रे' एकदम से  झूमा देने वाला होली का लोकगीत था। इसके बाद जब इसी गीत पर रौशन ने हमारी वर्कशॉप ली तब पता चला कि एक सधी हुई झूमाई में बहुत मेहनत, बल और एकाग्रता की जरूरत होती है। इसलिए लगभग सबने दबाके खाया। दो और  राज्यों के साथी भी आ चुके थे। थकान से आंखें बोझिल सी हो रही थी तभी रजनीश से पता चला कि मणिमय दा के साथ सामूहिक संगीत-जनगीत का कार्यक्रम है। मुक्तिबोध की कई कविताओं को दादरा और कहरवा में लयबद्ध किये मणिमय दा जीवनसाथी के साथ बैठे सभी का इंतजार कर रहे थे। तबीयत के साथ न होने के बावजूद उनका स्वर और तन्मयता हमारी नींद उड़ाने  के  लिए काफी थी। जन की महफिल में पंजाब के साथियों ने करतार सिंह का लिखा 'सेवा देश दी जिंदड़िये' के बाद उधमसिंह के द्वारा जनरल डायर की हत्या का प्रसंग गाया। कला अगर जनचेतना-जागरण के लिए कौम और देश की परिधि को महिमामंडित करने लगेगी तो हम समता और स्वतंत्रता के केन्द्र से भटक जाएंगे। साथ ही कला महान, जीवंत, रचनात्मक और संवेदनशील होती है। वह शत्रुओं की हत्या के गीत क्योंकर गा सकती है! इस चिंता के बावजूद खुशी इस बात की थी कि जन के लिए कुछ करने का जज्बा मौजूद है, बहुत थोड़े लोग ही ऐसे हैं। अब मोर्चा मनीष के हाथ में आया और "चीन्ह गई रे सइयां" के बाद "एक बार एक मच्छर को प्यार हुआ एक मक्खी से" से घर और बाहर के सत्तासीनों को चुनौती दी गई। आधी रात बीत चुकी थी सबने कल चलने को आज ठहरने का फैसला किया। 

सुबह तक साथियों की संख्या तिगुनी हो चुकी थी। चाय-नाश्ते के बाद पंजीकरण करते दस बज गये। युवा नाट्य महोत्सव की भूमिका स्पष्ट करने और युवाओं के सोच की दिशा-दशा समझने के लिए बेबाक आपसी संवाद का कार्यक्रम रखा गया था। जिसमें सभी ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। शुरूआत की इप्टा पंजाब  ने 'मैं तो देखूंगा, तुम भी देखोगे' गीत से जो विश्व में समाजवाद आ जाने की उम्मीद करता है। मनीष ने संचालन का काम संभालते हुए इप्टा का संक्षिप्त परिचय कराया। तनवीर अख्तर ने अपने संक्षिप्त संबोधन में 1943 से अब तक की इप्टा की यात्रा में आए उतार चढ़ाव और चुनौतियों को साझा किया और बताया कि इप्टा ने कलावादियों से इतर कला को जनता के लिए माना और जनता को जोड़ने के लिए नाटक को जरिया बनाया है। राकेश ने यूरोपीय और फ्रांसीसी क्रांति के हवाले से बताया कि कैसे केन, डार्विन, स्पेन्सर, मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतों ने परोक्ष सत्ता की आस्था का भ्रम तोड़ते हुए मानव को विवेक का आधार दिया। उन्होंने बताया कि आज आस्था और विवेक का समय साथ-साथ चल रहा है। आस्था वाले कहते हैं कि सब कुछ ऊपरवाला नियोजित करता है पर विवेक के पक्षधर मानते हैं कि बिना हस्तक्षेप के बदलाव नहीं होता। अगर दो लोग किसी को मार रहे हैं और आप वहां से सबकुछ देखते हुए गुज़र गये तो आपकी तटस्थता ने शोषणकर्ता का हौसला बढ़ाया। मतलब हस्तक्षेप न करके आप जुल्म के साथ खड़े हो। तटस्थता कोई चीज नहीं, इसलिए कला में भी तटस्थता नहीं हो सकती। हमें सामाजिक परिवर्तन और कला की प्रासंगिकता के नये ग्रामर को खोजना और उसे साथ लेकर चलना होगा। आज समाज को संचालित करने वाले टेक्नोलॉजी और मीडिया जैसे उपकरण किसके हाथ हैं? उन्हें जन के साथ में, हाथ में  देने को हमारे गीत व कला क्या होगी? 'क्या जुल्मतों के दौर में भी गीत गाए जाएंगे, हां जुल्मतों के दौर के ही गीत गाए जाएंगे' इसे हमें समझकर हस्तक्षेप  करना ही होगा। क्योंकि कला जब तक जवान होती है  तब तक आदमी बूढ़ा हो जाता है।हमारा सपना उस दौर को पाने का है जब सबके पास हर बिनाह पर आपसी बराबरी हो, जब जेलों के बिना दुनिया की सरकारें चलाई जाएंगी। 

दिल्ली इप्टा से अमृत ने देश और धर्म के नाम पर आयोजित भीड़ द्वारा की जा रही हत्याओं और आनलाइन-आफलाइन ट्रोल्स के सहारे आम जनता में एक तरह का भय और असुरक्षा का माहौल बनाए जाने की सरकारी मुहिम का पर्दाफाश किया। उन्होंने कहा कि सत्ता डरती है कि कहीं जनता उनसे डरना बंद न कर दे। हम साथ होंगे तभी इस डर को पूरी तरह हरा पाएंगे। इप्टा पंजाब से अतुल ने कहा कि कला के साथ होने पर प्रभाव तो बढ़ता ही है प्रतिकार की ताकत भी बढ़ती है। हमें कला का तकनीकी इस्तेमाल करते हुए इसके राजनीतिकरण की जरूरत है। इसमें अपनी भूमिका समझने के लिए एक सवाल का जवाब  हमें खोजते रहना होगा कि आज संस्कृति, समाज और राजनीति का क्या संबंध है और उसमें हमारी भूमिका क्या है? 

पंजाब से ही दीपक ने कहा कि हमारे मुद्दे अलग हो सकते हैं पर विचार एक होना चाहिए (लगता है भाई साहब अगर किसी विचार को अंतिम मान ले तो उससे आगे वाले को भी अलग मानकर ख़ारिज कर देंगे। ) या और ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ने के लिए ज़मीनी तौर पर काम करने पर बल दिया। इप्टा बिहार से पियूष ने विचारों को राकेश के सुझाए कला के ग्रामर में लाने की सुझाई। बिहार से ही विकास ने नाटक को दिये जाने वाले समय से ज्यादा जनता को समय देने की वकालत की। इप्टा दिल्ली से क्षमा ने पूछा कि हम अपने नाटकों में ऐसा क्या लाएं जिससे व्यक्तिगत समस्याओं से जूझती जनता नाटकों में रुचि लेकर सबकी दिक्कतों से निजात दिलाने के लिए व्यवस्था के विरोध का पक्ष ले सके। इप्टा मधुबनी से प्रभात ने सबको एकसाथ जुड़कर आपसी संबंध मजबूत करने के लिए कहा। इप्टा दिल्ली से रमेश ने कहा कि बचपन से जो हमारी सोच में भाषा, क्षेत्र, जाति, वर्ग, लिंग आदि के आधार पर स्तरभेद बैठाया गया है उसे हमे तोड़कर अपनी जानकारी को विश्व से साझा करना होगा। आस्था वालों के विवेकसम्मत न होने को उनकी दिमागी बिमारी समझकर अपने नाटकों के द्वारा उनकी अलग-अलग स्तरों की संवेदना को छूकर उन्हें अपनी मुख्यधारा में शामिल करना हमारी जिम्मेदारी है। हम तुमसे नाता तोड़ेंगे नहीं और तुम्हें बिना बदले छोड़ेंगे भी नहीं। इसपर इप्टा बिहार से गरुड़ ने कहा कि हमारे लिए उन्ही लोगों की समस्याओं को लेकर और उनके ही द्वारा मंचन कराकर उनसे जुड़ना आसान होगा। इप्टा दिल्ली से शिवांगी ने पूछा कि हमारे नाटकों में संवेदनशीलता कैसे आएगी? जिसका जवाब देते हुए राकेश ने कहा कि 'आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक'। कला में कितना प्रतिशत मनोरंजन और कितने प्रतिशत संदेश होना चाहिए? के जवाब में बहुत पहले बलराज साहनी ने कहा था कि सौ प्रतिशत मनोरंजन और सौ प्रतिशत संदेश। इसलिए अगर लेखक किसी एक तरफ झुक गया तो वह मर्मस्पर्शी कला का निर्वहन नहीं कर रहा है।इप्टा बिहार से हीरा कुमार ने कहा कि हमें अपने हर सवाल का जवाब खुद ही ढूंढना होगा। उनका विचार था कि कला को राजनीति से अलग होना चाहिए। इप्टा दिल्ली से रजनीश ने कला और राजनीति से शुरुआत करते हुए कहा कि हम जो कुछ भी करते हैं उसकी अपनी एक पालिटिक्स होती है। जब मुक्तिबोध कहते हैं कि 'पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है' तो वे हमसे इसी चेतना के बारे में सीधा सवाल करते हैं, जोकि हमारा पॉलिटिकल टूल है। हमें कला के माध्यम से लोगों के जेहन में सवाल छोड़ने हैं। यदि हम सरकार या फासीवाद की बात करते हैं तो हमें ये खोज निकालना चाहिए कि वह जमीनी तौर पर कहाँ-कहाँ मौजूद है। पतालकोट(मध्यप्रदेश) में पहाड़ियों से घिरे  होने के कारण धूप भी नहीं पहुँचती पर देश के धार्मिक और फासीवाद के संरक्षक संगठन वहाँ पैठ बना चुके हैं क्योंकि उन्होंने उन लोगों को समय दिया है। हमें भी जनता को समय देना होगा।हमारे युवा आज सोशल मीडिया पर बहुत समय बिताते हैं जहाँ कई तरह की अफवाहें और गलत खबरों से उन्हें दो-चार होना पड़ता है, जिनसे हमें बचना होगा। साथ ही हमें सक्रिय रह कर अपने हर क्रियाकलाप की रिपोर्ट आनलाइन अपलोड करनी होगी, सिर्फ फोटो डालने से काम नहीं चलेगा।  इप्टा पंजाब से महिलाओं की सहभागिता की जरूरत का सवाल उठाया गया। इप्टा दिल्ली से अंशू ने इप्टा को उनकी वैचारिकी परिष्कृत करने के लिए धन्यवाद दिया। इप्टा बिहार से दीपक ने लोगों को जोड़ने के लिए नुक्कड़ नाटक को ज्यादा कारगर बताया। इप्टा झारखंड के साथी ने कहा कि क्योंकि सरकारें कुर्सी के लिए जान देती है और हम जनता के लिए, इसलिए हमारी कलात्मक संस्कृति विशुद्ध राजनीतिक कर्म है। हमारी नींव नुक्कड़ नाटक है हमें इसे आगे बढ़ाना होगा। हमें अपनी एक्टिविटी को बढ़ाकर रिपोर्टों पर कमेंट भी करना होगा। इप्टा दिल्ली से विनोद ने बताया कि हम सिर्फ समाज को बदलने के लिए ही नहीं वरन खुद को बदलने के लिए भी नाटक करते हैं। इप्टा के विस्तार में बाधाएं आती हैं, जब हम नये लोगों को इप्टा से जोड़ने जाते हैं तो हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या ये आती है कि हम उनकी विचारधारा को फिल्टर कैसे करें। हर कोई बड़े आयोजनों में जाना चाहता है। कोई नुक्कड़ में समय नहीं देना चाहता। हमें सभी इकाइयों में विचार साझा करने की व्यवस्था आसान और सर्वसुलभ बनानी होगी। शैलेन्द्र ने कहा कि चूंकि समाज को संचालित करने वाले सभी साधन सत्ता के हाथ में हैं, धारा के विरुद्ध चलना आसान नहीं है। हम अकेले भले ही पूरी व्यवस्था न बदल पाएं पर हमें कभी निराश नहीं होना चाहिए। कलाकार की भूमिका रास्ता तैयार करना है। हमें संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना के फर्क को समझकर विवेकसम्मत यत्न करने होंगे। अंतिम वक्तव्य में हिमांशु ने बताया कि हमारा समाज और इसके बदलाव के औजार 1943 से 2018 तक की यात्रा में काफी कुछ बदले हैं। हमें इसके और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के गहन अध्ययन की आवश्यकता है। आज सोशल मीडिया इप्टा की वैचारिकी के प्रसार का सशक्त माध्यम हो सकता है।

 गोभी-रायता-सलाद-अचार ने रोटियों-पूड़ियों की खपत बढ़ा दी। तीन खेप में सभी नेहरू सभागार पहुंचे। स्वरा वहां पहले से मौजूद थीं। अपने इप्टाई साथियों से अनौपचारिक बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि फ़िल्म का अनुभव उनके रंगमंचीय अनुभव से एकदम अलहदा है। हालांकि की मैं प्रोफेशनल रंगकर्मी नहीं रही फिर भी अपने संक्षिप्त अनुभव से कह सकती हूँ कि रंगमंच पूरी तरह से अभिनेता का माध्यम है जब कि फ़िल्म उसके अपने हाथ में नहीं होती। सामाजिक सरोकार वाली फिल्मों पर स्वरा भास्कर का कहना था कि सिर्फ इसका ठप्पा लगने से कोई फ़िल्म श्रेष्ठ नहीं हो जाती। यहां भी कला-कौशल-क्राफ्ट की उतनी ही जरूरत होती है। रंगमंच के पहले अनुभव के सवाल को उन्होंने बगल में बैठे मनीष के ऊपर डालते हुए उन्हें अपना पहला डायरेक्टर बताया और हँस पड़ी। इसके बाद प्रथम इप्टा युवा नाट्य उत्सव के औपचारिक उद्घाटन के लिए अतिथियों को मंच पर बुलाया गया।भिलाई इप्टा के युवा साथियो ने दो जनगीत "तू जिंदा है तू जिंदगी की जीत पर यकीन कर" और "जाने वाले सिपाही से पूछो की वो कहा जा रहा है" प्रस्तुति दी। इप्टा के महा सचिव राकेश ने इप्टा की स्थापना, नामकरण व इसकी समृद्ध विरासत का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि शौकत आज़मी, बीना पाठक, शबाना आज़मी आदि की परंपरा को स्वरा भास्कर आगे बढ़ा रहीं है और वे नई पीढ़ी की हमारी प्रतिनिधि है। हकीकतन उम्र के साथ कला जवान होती है उस मायने में हम सभी युवा है। कहते है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती है। आप सीखना चाहते हैं तो अमर हैं। यह कला की अमरता है। यह वे मूल्य हैं, जिनके लिए इप्टा संघर्षरत है। कंप्यूटर या टेक्नोलॉजी से संवेदना जागृत नहीं होती यह काम कला का होता है। कल विवेकानंद जी की जयंती है। उनके साथ हम भगत सिंह को भी याद करना चाहते है की, जिनके बगैर सम्पूर्ण स्वतंत्रता का विचार इस स्वरूप में हमारे सामने नहीं आ पाता। झारखंड के साथी शैलेन्द्र कुमार ने कहा कि विवेकानंद हमें हर दौर में प्रेरित करने का काम करते रहे हैं। कला उम्मीदों को जीवित रखने का साधन है, इसलिए सत्ताओं को कला से डर लगता है। सत्ता को प्रेम से भी डर लगता है क्योंकि प्रेम बेहतर दुनिया की तलाश में बदलाव के लिए छटपटाहट का रास्ता खोजता है। भगत सिंह क्या हिंसा में विश्वास रखते थे "ग़ांधी बनाम भगत सिंह के सवाल खड़े करने वाले लोग क्या अपनी मंशा में सही होते है? हरगिज़ नहीं। भगत सिंह ने अपने विचारधारा के प्रसार के लिए किसी की जान नही ली बल्कि अपनी जान कुर्बान की।

स्वरा ने कहा कि मैं अपनी पढ़ाई के दौरान इत्तफाकन इप्टा के साथ जुड़ गई। इप्टा की मेरे जीवन में अहम भूमिका रही। मैं एक शहरी लड़की हूँ। घर पर अंग्रेजी बोली जाती थी। मैं अंग्रेजी में ही सोचती थी। मैं गांव के लोगों से वाकिफ़ नही थी। हमारे यहाँ काम करने वाले लोगों को अलग प्याली में चाय दी जाती थी। इस तरह की मानसिकता हमारे अनुभव से परे होती है जब कि यह एक सच्चाई है। भारत के अंदर कई भारत है ये मैने इप्टा से ही जाना। सवाल उठाना कला का एक मुख्य अंग है। "फिल्में सिर्फ इंटरटेनमेन्ट होती है" यह कहना लोगो के दिमागों को बंद करना है। यह एक खतरनाक विचार है। आज हम पर बंधन बढ़ रहे है और हमारी आज़ादियाँ छीन रही है। ऐसे हालात में कला या तो वह हो सकती है जो सिर्फ मनोरंजन करे। या तो फिर वह जो अलसी हो चुके समाज को उकसाये और उतेजित करे। कला अगर उकसाने का काम न करे तो वह कला नहीं रह जाती। इसके बाद स्वरा ने पाश की एक कविता और देवी प्रसाद मिश्र की "वे मुसलमान थे" कविता पढ़ी। फिर छत्तीसगढ़ इप्टा से युवा कलाकारों ने आंचलिक वेष-भूषा के साथ "रंगमा रंगमा रंगमा रे" लोक नृत्य प्रस्तुत किया। लाल धोती-नीला कुर्ता पहने और सतरंगी पंख लगाए युवक और घुटनों तक सीधे पल्ले वाली पीली साड़ी पहने और सफ़ेद फूलों को बालों में लगायी युवतियों ने जब फाग के रंगों को संगीत में देशीपन के साथ नचा दिया तो लगा जैसे आदि प्रकृति नृत्य कर उठी हो। अद्वितीय दृश्य था।

फिर दौर आया नाट्य प्रस्तुतियों का, सबसे पहले इप्टा बिहार की तरफ से "शूद्रों का ब्राह्मण" खेला गया, जिसमें फ़्लैशबैक पद्धति अपनाई गई थी। जिसमें शूद्र को ब्राह्मण बनने का प्रलोभन दे कर रथ खींचने और शूद्र जाति से हमेशा के लिए तर जाने के नाम पर उसके छोटे से जामीन के टुकड़े को भी हड़प लिया जाता है। रथ खींचने के दौरान उसकी मृत्यु हो जाती है क्योंकि उसने चंद्रायन व्रत किया था जिसमें चंद्र की कलाओं के साथ निवाला घटाना बढ़ाना पड़ता है। उसके मर जाने पर न ही उसे उसका समुदाय स्वीकार करता है न ही ब्राह्मण समाज उसका अंतिम संस्कार अपनी रीति से करने को तैयार होता है।अंत मे उसका बेटा उसे अकेले ले जाता है और अंत्येष्टि पूरी करता है।

अगला नाटक "ईदेर तोफा" इप्टा बंगाल द्वारा खेला गया। जिसमें दंगो में दो धर्मो के मजदूरों की दोस्ती और ईद में घर अपने गाँव जाते मुसलमान  मजदूर की प्रसाशन द्वारा की गयी हत्या के बारे में दिखाया गया है। 
बंगाल इप्टा ने ही इसके बाद "राजा ओ राजद्रोही" नाटक खेला जिसमें घमंडी राजा बेमतलब युद्ध करने का आदी हो गया है। जिससे राज्य का बहुत नुकसान होता है। जनता राजा के खिलाफ विद्रोह कर उठती है और अन्ततः राजा अपना राज मुकुट जनता के हाथ सौंप देता है। समानता का उद्घोष होता है।

अंतिम प्रस्तुति इप्टा पंजाब द्वारा " बात का बतंगड़" थी जिसमें प्रतीकात्मक रूप से जानवरों का धर्म-जाति में मानव कृत बंटवारा दिखाया गया है। जानवरों का मानवीकरण करके उनके विद्रोह के माध्यम से दिखाया गया है कि यदि सभी धर्म और सम्प्रदाय एक हो जाएं तो हम पर राज करने वाले कुर्सी छोड़कर भाग जाएं।

 सभागार से बाकलीवाल भवन लौटकर सबने रात्रि भोजन किया। अब बारी थी,पटना से आये सीताराम द्वारा नाट्य एवं जनसंगीत कार्यशाला की। हमारे आज के नाटक में प्रयुक्त संगीतो में संवेदनात्मक लयात्मकता का घोर अभाव उनके लिए अत्यंत निराशाप्रद था।उन्होंने शब्दों को कैसे तोड़कर उसके अर्थ के साथ संगीत के आरोह-अवरोह का तादात्मय स्थापित किया जाए बताया। फिर मालकोंस, पीलू, भैरवी, यमन और मल्हार आदि रागों को जनगीतों के उतार चढ़ाव के साथ गाकर उसकी बारीकियां समझाई।

इसके बाद रात को हमने अपने कमरे में जाकर दिन भर के क्रियाकलाप और शाम को खेले गए नाटकों पर गंभीर बातचीत की और कल सुबह खेले जाने वाले अपने नाटक के गीतों को गा कर आराम किया।
अल सुबह चाय के साथ ही हम अपने नाटक "उठो मेरे देश" प्रस्तुति के लिए हॉल में तैयार थे। हममे कइयों के लिए ये पहला मंचन था। ऐन पहले विनोद ने बताया कि हमें डरने की जरूरत नहीं, नाटक अकेले के प्रयास से नहीं आपसी तालमेल से बनता है। इसके साथ ही हमने एक दूसरे की पीठ दबाई और ध्यान की मुद्रा में दर्शकों का इंतजार करने लगे। हॉल भर जाने पर हम बाहर गए और इंडिया इंडिया के साथ हमारा मंचन शुरू हो गया। हमारे नाटक में आज की व्यवस्था को दिखाया गया जिसमें बताया गया कि किसानों, मजदूरों और छात्रों की ऊपर से अलग-अलग दिखने वाली समस्याएं कैसे एक ही सत्ता के संचालनकर्ता के जूतों के नीचे दबी हुई है। किसानों के फसलों की MSP, मजदूरों की नियुनतम मजदूरी, और शिक्षितों के लिए रोजगार कोई और तय करता है वे खुद नहीं। जानता की देशभक्ति का पैमाना पड़ोसी देश से नफ़रत और क्रिकेट टीम की जीत से आँका जाता है।

अगला सत्र अभी तक खेले गए नाटकों पर तकनीकी और वैचारिक चर्चा का था। जिससे पहले प्रख्यात लेखक और आलोचक दूधनाथ सिंह को उनके आकस्मिक निधन पर श्रद्धांजलि दी गई और दो मिनट का मौन रखा गया। सत्र में खुली बातचीत के लिए इप्टा के महासचिव राकेश ने भीष्म साहनी के "हानूश" नाटक के विषय मे बलराज साहनी की टिप्पणी "एकदम बकवास नाटक है, तुम नाटक लिखना बंद कर दो" याद करते हुए कहा कि मुझे उम्मीद है कि यहाँ आये सभी साथी इप्टा की आलोचना और आत्मालोचन कि परिपाटी को और जीवंत बनाएंगे। फिर सभी निर्देशकों से सवाल दगने लगे "शुद्रों का ब्रह्मण" पर विनोद ने पूछा कि शुद्र से ब्राह्मण बनाये जाने की प्रथा आज देश के किन हिस्सों में चलती है? रजनीश ने पूछा, ये रथ यात्रा जिसके लिए खेत गिरवी रखे जाते है कहाँ होती है?साथ ही उन्होंने कहा कि इस नाटक में विसंगतियों को दिखाया तो गया पर मृतक के बेटे के माध्यम से यदि सामाजिक परिवर्तन का पटाक्षेप हो जाता तो नाटक में भविष्य के समाज का विज़न भी दर्शकों को मिल सकता था। इसके अलावा नाटक के तकनीकी पक्ष पर भी कुछ सवाल  उठाये गए।जिसका जवाब देते हुए निर्देशक ने कहा कि इसका कथानक मैंने बहुत साल पहले पढ़ी कहानी से लिया था। हमारा मूल उद्देश्य आज की जाति-पाती के भेदभाव को दिखाना था। इसमे ऋग्वेद और मनुस्मृति के वे श्लोक ही डाले गए थे जो आज के सामाजिक संचालन में प्रयोग होते है।

"ईदेर तोफा" पर दर्शकों ने सुझाव दिया कि दो पात्रों की बजाए और पात्रों के समावेशीय संवाद से नाटक को और स्पन्दनशील बनाया जा सकता था, जिसे निर्देशक ने सहर्ष स्वीकार किया।

"बात का बतंगड़" के कोरस में हास्य की बहुलता और इसके जरूरत से ज़्यादा तीखे लहज़े (मैं सूवर का मांस खाता हूं) को आलोचना के कटघरे में खड़ा किया गया। जिसका जवाब देते हुए निर्देशक ने बताया कि सभी जानवर प्रतीकात्मक रूप से अलग अलग धर्म और वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। असल मे सत्ताधीश सुअर का मांस नही खाते। 'उठो मेरे देश' पर नाटक के बहुत धीमा होने और बहुत ज्यादा उतार चढ़ाव के आक्षेप के साथ पूछा गया कि ये नुक्कड़ था या स्टेज? साथ ही इसके कोरस को और मजबूत करने का सुझाव भी दिया गया और कहा गया कि कहानी छात्र- मजदूर-किसान के के प्रतीक पात्र के साथ मरने के साथ ही खत्म की जा सकती थी,फिर कथानक बेमतलब क्यों लम्बा किया गया? जिसका जबाब देते हुए हमारे प्रतिनिधि ने बताया कि ये  नाटक वस्तुतः अभी निर्माणाधीन है जिसे हमने अपने ही तीन नाटकों को जोड़-तोड़ कर चार दिनों के अभ्यास के साथ प्रस्तुत किया है। हम इसके पेस और कोरस पर काम कर रहे है हमारा ध्यान समाज की किसी एक कमी को दिखाने की बजाय समाज के सामाजिक-आर्थिक मानचित्र को यथार्थ की दीवार पर टाँकना तो था ही साथ ही जनविद्रोह की ताकत का सत्ता को आभास भी कराना था। इसलिए हमने उस पात्र के मरने के बाद कि कथा भी रखी।

मिक्स वेज, गुलाब जामुन और तिलौरी के साथ पूरीयों के बाद वेदा ने अभिनय की कार्यशाला शुरू की। भारतीय और पश्चिम नाटकों के अंतर एवं ब्रेख्त के थिएटर ऑफ एलिनेशन थ्योरी को समझाते हुए उन्होंने बताया कि आज हमें ब्रेख़्तियन अंदाज़ को भारतीय परिवेश में पैबस्त करके उसे आम जिंदगी से जोड़ने की जरूरत है। आप के लिए सबसे जरुरी आपका ध्यान और परख है। जिस पात्र को आपको निभाना है उसे अपने अंदर महसूस करना ज़रूरी है साथ ही एक कलाकार की चेतना साथ लेके चलनी है जो संवाद के भाव परिवर्तन के समय हमें चरित्र के साथ चलाए रखता है। हर उम्र और वर्ग के पात्र की आवाज़ का अपना एक उतार चढ़ाव और 'पिच' होती है। हमें इसे कथानक और परिवेश के तनाव के साथ समझना होगा। इसलिए हमें अपने चरित्र के साथ सहज होना बहुत ज़रूरी है।

चाय के बाद सबने नेहरू सभागार के लिए प्रस्थान किया जहाँ इप्टा चंडीगढ़ ने "तहरीर" नाटक की प्रस्तुति की जो कि हिन्दू लड़के और मुस्लिम लड़की की प्रेम कहानी के माध्यम से आनर-किलिंग के मुद्दे को उठाना चाहती थी। लड़के के मर जाने पर तहक़ीक़ात के बाद पता चलता है कि जिस लड़की को कई सालों से चिट्ठीयां लिखा करता था उसकी मौत दो साल  पहले हो चुकी थी। 

इसके बाद इप्टा उत्तरप्रदेश ने "रिफंड" में एक बेरोजगार युवक की कहानी दिखाई जो अपने विद्यालय में अब तक जमा की गई सारी फ़ीस नौकरी न मिलने से वापस लेने जाता है। जिसे स्कूलीकर्मी उसके द्वारा दिये गए गलत जबाबो को बातों में उलझा कर सही बनाते है और उसे डिक्टिनशन से पास करके अपना पल्ला छुड़ा लेते है। फिर इप्टा झारखंड ने मंटो की कहानी 'कितने टोबा टेकसिंह' पर बनाया नाटक खेला। जो भारत-पाकिस्तान बंटबारे के बाद लाहौर के एक पागलखाने में हिन्दू और मुसलमान पागलों के बंटबारे पर पागलों की प्रतिक्रिया के माध्यम से धर्म के आधार पर देश के बंटवारे के खोखलेपन को दिखाता है।

तुरन्त बाद ही चण्डीगढ़ से आये इप्टा के साथियों ने  लाठी-तलवारबाज़ी और आजकल के दौर के पंजाबी गानों पर नृत्य प्रस्तुति दी। सीटियों और तालियों के साथ दर्शकदीर्घा में अधिकांश बिना सोचे समझे झूम रहे थे जिसमें मैं भी शामिल था। मेरे साथियों ने मुझे पास बुला के बैठाया। मेरे चिंतनशील साथियों के लिए चिंता का विषय ये था कि क्या युवा इप्टा मंच इसी आधार पर कला की आधारशिला रखने जा रहा है? अगर इप्टा के कलाकार जनगीतों की जगह पूंजीगत पितृसत्तात्मक मानसिकता के गीतों को प्रस्तुत करने लगे तो झूमने वाली जनता को क्या, कितना, किसके द्वारा और कैसे समझाया जाए?  बहरहाल, रात के खाने के बाद तनवीर के द्वारा निर्देशन पर कार्यशाला थी,जो उन्हीं के द्वारा अभिनय-सह-निर्देशन में बदल दी गयी। उन्होंने बताया कि एक कलाकार को खुद से वाकिफ होना चाहिए अपनी हर हरकत से जिस्म में आते हर बदलाव का पता होना चाहिए।

खुद को पहचान कर अपने अंदर के सकारात्मक और नकारात्मक पहलू को हर वक़्त खोजते रहना चाहिए।सीखने की प्रक्रिया लगातार जीवन के अंत तक चलती है। एक निर्देशक भी हर नाटक में कुछ नया सीखता है। निदेशक को पात्रों के संवाद तनाव  और मंचन के प्रभावपूर्ण पेस को समझना होगा। अभिनय में पाँचो इन्द्रियां मिल जाती है। मन छ्ठी इंद्री है मन की एकाग्रता अभिनय की पहली शर्त है। इसके बाद कार्यशाला सुबह तक स्थगित कर दी गई।

सुबह चाय नाश्ते के बाद फिर कार्यशाला शुरू हुई । कल की बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि अभिनय की पूरी पद्धति वायु पर टिकी है, हमे अपनी सांसो पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। हिंदी के वर्णों के उच्चारण स्थल पर बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि उच्चारण के तल और गति(पीच और स्पीड) के हिसाब से हवा को काबू करना होगा, वाक्यों को तोड़ना होगा। दो शब्दों के बीच में भाव के हिसाब से पॉज लेना होगा। पॉज को खाली जगह न समझे क्योंकि वही शब्दों को अर्थ देता है बशर्ते हम संवाद की गंभीरता के हिसाब से अपने पॉस्चर और वायु पर नियंत्रण रखें।

इसके बाद कल मंचित नाटकों के बारे मे निर्देशकों से सवाल करते हुए, साथियों ने कहा कि नाटक बहुत कुछ धारावाहिक जैसे हो गया था। नाम तहरीर होने के बाबजूद तहरीर की प्रक्रिया सिर्फ दो मिनट चली तो क्या नाम प्रासंगिक था? क्या प्रेमिका की हत्या के बाद बड़े पुरुष भाई का केवल यही दायित्व है कि वह बहन की शादी करा दे? बहन को एक जिम्मेवारी की तरह देखना क्या पितृसत्ता नही है? अगर उसे जिम्मेवारी ही समझ रहे है तो क्या शादी के बाद लड़कियों पर कोई अत्याचार नही होता? शादी को अंतिम परिणति समझना कहाँ तक उचित है? जिसका जवाब देते हुए उन्होंने बताया कि हमारा नाटक मुख्यतः प्रेम विवाह में ओनर कीलिंग पर केंद्रित था। आज समाज मे अधितर ऐसे ही परिवार देखे जाते इसलिए इस विषय पर हम इतना सोच नही पाये।

फिर बारी आयी रिफण्ड जिसके बारे में कहा गया कि नाटक की पेस कुछ ज्यादा हो गयी थी और नाटक में जिन संवादों को ज्यादा महत्व दिया गया था उससे उसकी गंभीरता ख़त्म सी हो गयी थी। 
कितने टोबा टेक सिंह के सरदार बने पात्र के मंचन के बीच ही आधी मूछ उखड़ जाने के बावजूद  हर संवाद को अच्छे से कर ले जाने और नाटक को जीवंत बनाये रखने के लिए सराहना की गई।

इसके बाद समापन सत्र था जिसमें तीन दिवसीय महोत्सव पर विभिन्न इकाइयों द्वारा सकारात्मक प्रतिक्रियाओं के साथ ही कई सुझाव भी दिए गए। आपसी तालमेल, जुड़ाव और विचारों के आदान-प्रदान के लिए इकाइयों को आपस में बातचीत बढ़ाने का निर्णय लिया गया। महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की बातचीत हुई जिसमे विभिन्न इकाइयो से आयी महिलाओं को बोलने का मौका दिया गया। महिलाओं के विषय में दिये गए वक्तव्यों में सबकान्शियस पितृसत्ता दिखायी दे रही थी। "हम महिलाओं को मौका देंगे", "केवल महिलाओं के लिए अगला महोत्सव रखा जाएगा", हमें अपनी बहन, बेटियों, पत्नियों को अपने नाटक में शामिल करना चाहिए" वगैरह वगैरह।

मेरा मानना है जब भी आप मौका देने की बात करते है तभी आप ऑथराइज़्ड पोजीशन में होते है। आप ये पॉज़िशन लेकर क्यों बैठे है? आप मौका देने वाले कोई नहीं होते ये उनका हक़ है और एक साथी ने कहा हमें छीनना होगा, मगर हमें कुछ छीनने की जरूरत है नहीं वह हमारे पास है ही बस आपकी सत्ता से हम डरना बंद करने वाले है। केवल महिलाओं के लिए महोत्सव रख हमे अलग खाँचे में दिखने पर आमादा है। पत्नी, बहन, बेटी आदि सम्बन्धों के खाँचे में डालकर आप उन सम्बन्धों के माध्यम से परोक्ष रूप से उन शब्दों की पितृसत्तात्मक संस्कृति को क्यों बार-बार याद दिलाना चाहते है? क्या हमारे लिए सिर्फ साथी शब्द अनुचित है? महिलाओं को केवल मनुष्य की तरह देखने की आदत हमें डालनी होगी।

कोफ्ता-राजमे के साथ बूंदी रायते -मटर पुलाव और गुलाब जामुन ने चोला फिर से हरा कर दिया और शरद कोकास के साथ स्वरचित गीतों और कविताओं की शमा जल उठी। सभी लोगों ने अपनी-अपनी जनवादी कविताओं का पाठ किया उसके बाद अंत में शरद ने रचना प्रक्रिया पर अपनी लम्बी कविता के संदर्भ से नवरचनाकरों को  रचना प्रक्रिया की बारीकियां समझायी। रचनाक्रम में किन मूल बातों का ध्यान रखना चाहिए ये समझाते हुए, युवा रचनाकारों के दायित्व से परिचित कराया। चाय के बाद नेहरू सभागार में अंतिम दिन की पहली प्रस्तुति इप्टा छत्तीसगढ़ की ओर से "राम सजीवन की प्रेमकथा" थी। गवईं पृष्ठभूमि के राम सजीवन को उसके बालकनी के ठीक सामने रहने वाली विदेशी छात्रा से प्रेम हो जाता है, जो अपनी बालकनी में आकर निसंकोच अपने पड़ोसी को हाय हेलो कर लेती है। राम सजीवन एकतरफा प्रेम में पड़कर देशी-विदेशी प्रेम कविताएं चिठ्ठियों में लिखकर उस छात्रा को भेजने लगते हैं जिसकी शिकायत वह वार्डन से कर देती है,अतः उसके साथी उसे जबरन गाँव भेज देते है। गांव लौटने पर भी राम सजीवन से अपना प्यार नहीं भूल पाता। वह साल भर बाद वापिस आता है लेकिन वह छात्रा लंदन चली जा चुकी होती है और उनके कमरे की तरह ही विश्वविद्यालय का माहौल भी बदल चुका होता है।

इसके बाद इप्टा पंजाब ने महिलाओं द्वारा झेली जा रही यातना-प्रताड़ना पर एक कोरियोग्राफि प्रस्तुत की  फिर इप्टा पटना ने हरसरन सिंह के मूल पंजाबी नाटक 'निज़ाम सक्का' को दीपक के निर्देशन में प्रस्तुत किया। लगभग सात दशक पूर्व लिखित यह नाटक वर्तमान समय से शुरू होकर 16वी सदी में पहुचता है,जहाँ एक भिश्ती पानी भरते वक़्त दरिया में डूबते आदमी को देख उसे बचाता है और उसे अपने घर लाता है। उसके पेट से पानी निकाल उसे होश में लाता है। जिंदा होंने पर उसे ढाई पहर की हुकूमत दी जाती है। हुकुमत मिलते ही सक्का आम आदमी के हितों की बात करते हुए उनके लिए बहुत से ऐलान करता है। यह दरबारियों को नागवार गुजरता है और वह दरबार छोड़ चले जाते हैं । सक्का की हुकूमत का वक्त ख़त्म होते ही उसे दरबार से भगा कर उसके सारे फरमान रद्द कर दिए जाते है।

अंतिम प्रस्तुति मध्यप्रदेश इप्टा द्वारा की गयी। "तितली" एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसके बारे में बताया गया कि वो अपने मां के यहां से किसी लड़के के साथ भाग गई थी। जिस दूसरी जगह पे उसे लौटने के बाद लाया जाता है। वहाँ रहने वाला पुरुष परिवार में भला मानुष बना रहता है और उस लड़की से बातचीत करते हुए उससे बार बार यह सवाल पूछता है कि वहाँ हुआ क्या था। वस्तुतः वह अपने महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण के घटियापे से लदा उस लड़की से अपनी कुंठित यौनेच्छाओं की पूर्ति चाहता है। जब पानी सर से ऊपर होने लगता है तो लड़की कहती है कि आपको जानना था न वहाँ क्या हुआ था आप जो करना चाहते है वहीं मेरे मामा मेरे साथ कर रहे थे, उस लड़के और उसके परिवार ने उनके चंगुल से मुक्त होने में सहायता की इसलिए मुझपर ऐसे आरोप लगे। महिलाओं के प्रति पुरुषों की संकुचित मानसिकता और भारतीय समाज की एक गंभीर समस्या को उजागर करता हुआ प्रथम युवा नाट्य महोत्सव पूरा हुआ।
लगा की आते ही तीन दिन बीत गए। अलविदा से बेहतर है फिर मिलेंगे भिलाई!