- पुंज प्रकाश
हिंदी रंगमंच की मूल समस्या उसका गैरपेशेवर चरित्र और कार्यपद्धति है। दूसरे किसी भी पेशा को लीजिए, उस पेशे को अपना व्यवसाय बनानेवाला व्यक्ति ज़्यादा से ज़्यादा वक्त उस पेशे में देता है और उस पेशे को व उस पेशे के लिए ख़ुद को बेहतर से बेहतर बनाने का प्रयत्न करता है।
जाड़ा हो, गर्मी हो, बरसात हो : एक चाय बेचनेवाला इंसान सुबह 6 बजे से पहले अपनी दुकान पर आ जाता है और देर रात तक चाय बेचता रहता है, तब वो उस पेशे से अपना और अपने परिवार का किसी प्रकार भरण-पोषण कर पाता है। वो पैसे के लिए सरकार या किसी और के पास हाथ नहीं फैलाता, किसी अड्डे पर जाकर समय काटने के लिए घंटे भर फालतू के गप्पें नहीं मरता बल्कि जो कुछ भी कमाना होता है, अपने पेशे से कमाता है। जितना भी वक्त बिताना होता है अपने पेशे के साथ बिताता है। दुनियां का वो कोई भी इंसान जो पेशेवर है उसके पास फालतू का वक्त होता ही नहीं। यहां तो आलम यह है कि फालतू के वक्त में से एकाध घंटे नाटक-वाटक भी कर लिए।
कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी का अधिकार रंगकर्मी व्यवहारिक रूप से दिनभर में रोज़ 2 घंटे भी अपने पेशे को नहीं देता। ना ढंग का कोई अभ्यास करता है, ना प्रशिक्षण में रुचि है (बल्कि प्रशिक्षण और प्रशिक्षित लोगों के प्रति हेय दृष्टिकोण है) और ना ही शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास में (बल्कि अज्ञानता का घमंड है) : बस कुछ जुगाड़ और जोड़-तोड़ करके साल में जैसे-तैसे कुछ नाटक खेलना है। मेरा नाटक तुम देखो, तुम्हारा नाटक हम देखेंगे। मेरे नाटक में ताली तुम पीटो, तुम्हारे में हम पीटेंगे! मुझे तुम पुरस्कार दो, हम तुम्हें पुरस्कृत करेगें। अपने नाट्योत्सव में तुम हमें बुलाओ, हम तुम्हें बुलाएगें। तुम हमें महान घोषित करो, हम तुम्हें महानता का तमगा देगें। और कोई एकाध अगर कुछ थोड़ा बहुत बेहतर करने की चेष्टा कर रहा है तो उसे कुज़ात घोषित कर दो और ऐसे माहौल बना दो कि मानसिक टॉर्चर होता रहे। इससे क्या हासिल होगा - आत्ममुग्धता, कुछ तालियां, कुछ गालियां और कुछ झूठी - सच्ची हाय-हाय, वाह-वाह के सिवा ?
इस दृष्टिकोण को दूर कर पेशेवर बनने की दिशा में प्रयास होना चाहिए। जानता हूँ इसमें बहुत वक्त लगेगा लेकिन पूरी ईमानदारी से गंभीरतापूर्वक प्रयास हुआ तो कुछ भी असंभव नहीं। भले ही हम अपने लिए कुछ ख़ास नहीं कर पाएं लेकिन हम भावी पीढ़ी के लिए एक सुंदर जगह ज़रूर छोड़ जाएगें जहां वो बड़ी आसानी से रंगमंच को अपना पेशा बना सकते हैं। 24 घंटे में किसी तरह 2 घंटे रंगमंच करने को रंगमंच करना नहीं कहते। यह बदलाव रंगमंच को पेशा बनानेवाले लोग ही कर सकते हैं, इसे शौकिया तौर पर करनेवालों का इसमें कोई रुचि नहीं है और हिंदी रंगमंच व्यवसायिक हो ही नहीं सकता का जाप भी करने लगेंगे क्योंकि उनकी दाल-रोटी, चिकन-मटन, घर-गाड़ी का जुगाड़ कहीं और से हुआ रहता है। प्रसिद्द जर्मन कवि रिल्के कहते हैं - "अपनी सारी इच्छाओं और मूल्यों कला को अपना आप समर्पित किए बिना कोई भी व्यक्ति किसी ऊंचे उद्देश्य तक नहीं पहुंच सकता। मैं कला को एक शहादत की तरह नहीं - एक युद्ध की तरह मानता हूं जहां कुछ चुनिंदा लोगों को अपने और अपने परिवेश के विरुद्ध लड़ना है ताकि वे शुद्ध मन से उच्चतम उद्देश्य तक पहुंच सकें और अपने उत्तराधिकारियों को खुले हाथों से यह सम्पदा सौंप सकें। ऐसा करने के लिए एक इंसान के समग्र जीवन की ज़रूरत है न कि थकान से भरे कुछ फुर्सती घंटों की।"
इसलिए चाहे जैसे भी हो, रंगमंच को पेशा और पेशा को पेशेवर बनाने की ओर प्रयास होना चाहिए। कुछ चुनिंदा लोगों के गालों पर लाली और पेट पर चर्बी और एकाउंट में चंद रुपए आ जाने को पेशेवर होना नहीं कहते। दूसरे का इंतज़ार मत कीजिए क्योंकि इस देश की एक और समस्या यह है कि यहां लगभग हर व्यक्ति दूसरे को बदलने में लगा है ख़ुद को नहीं। तो क्यों ना ख़ुद से ही शुरुआत हो और जो भी मुसीबत आए उससे सीना तानकर भीड़ जाया जाय। जो होगा देखा जाएगा; वैसे भी कौन सा भला हो रहा है ? रंगमंच का समृद्ध इतिहास का जाप किस काम का है, वो तो चटनी बनाने के भी काम नहीं आएगा !
उदारीकरण के बाद विभिन्न सरकारी या गैरसरकारी अनुदानों के तहत कुछ पैसों का आगमन रंगमंच में हुआ है। यह पैसे क्यों बांटे जा रहे हैं, यह एक राजनैतिक खेल है जो इतनी आसानी से समझ में नहीं आनेवाला। एक पुरानी कहावत है, कह देता हूँ - समझ में आ जाए तो ठीक और ना आए तो भी ठीक - "किसी को बेकार बनाना हो तो उसे ख़ैरात की आदत डाल दो।" फिर क्या है वो ख़ुद की सलाम बजाने को तैयार रहेगा।
ख़ैर, इस प्रक्रिया में कुछ का भला भी हुआ है। कुछ की दाल रोटी चल गई है, तो कुछ के घर में सामान बढ़ गए हैं, कुछ ने नई बाइक ले ली है, कुछ के घर में नल की टंकी लग गई है, कुछ के दादा बढ़ गए हैं तो कुछ के चमचे बढ़ गए हैं, तो कुछ ने कुछ बेहतरीन नाटक भी किए हैं। लेकिन साथ ही कुछ ऐसे लोग भी उग आए हैं जिनका दूर-दूर तक कोई भी सरोकार ना कभी रंगमंच से रहा है और ना है। वो रंगमंच के "शुभचिंतक" के रूप में अवतरित हुए हैं और दिन रात इन अनुदानों की वेबसाइट की ख़ाक छानते और अप्लाई करते रहते हैं। रंगमंच के विकास के लिए आए इस पैसे से ये कौन सा विकास कर रहे हैं यह बात जग ज़ाहिर है! वैसे सरल भाषा में इन्हें परजीवी कहते हैं।
साथ ही यह भी एक आम चलन और हर अड्डे पर सुनने को मिल जाता है कि रंग-समूह का मुखिया रंगमंडल ग्रांट के तहत मिलनेवाले अभिनेताओं का पैसा विभिन्न कुतर्कों को देकर डकार जाता है। ऐसा बहुत कम ही समूह है जो पैसे का हिसाब साफ़-साफ़ और सार्वजनिक रखता हो और अभिनेता को महीने का पूरा पैसा देता हो। जो भी समूह ऐसा कर रहा है उसे मेरा सलाम। बहरहाल, क्या इसके लिए केवल उस ग्रुप का मुखिया ही ज़िम्मेदार है? क्या अभिनेता या बाकी लोग उसके लिए ज़िम्मेदार नहीं जो केवल अपना स्वार्थ देखते हैं? 6 हज़ार की जगह 2 या 3 हज़ार पाकर 6 हज़ार के कागज़ पर या ख़ाली पन्ने पर साइन करते हैं और जबतक आपको यह पैसा मिलता रहता है तबतक सब ठीक और जब किसी वजह से नहीं मिलता तब "क्रांतिकारी" हो जाते हैं या फिर किसी और मुखिया को खोजने लगते हैं जो अनुदान के चंद टुकड़े आपके मुंह में डाल सके और साथ ही समय-समय पर चाय-पानी या मुर्गा-दारू की व्यवस्था भी देख ले। चाहे रंगमंडल अनुदान हो या व्यक्तिगत अनुदान शुरू में ही एक कानूनी एग्रीमेंट पेपर पर साइन क्यों नहीं होता, यह बात समझ के परे तो बिल्कुल ही नहीं है!
मैं ऐसा कहके अभिनेताओं के मजबूरियों पर कटाक्ष नहीं कर रहा हूँ और ना ही उन निर्देशकों पर उंगली ही उठा रहा हूँ जो अपनी पूरी ऊर्जा रंगमंच की भावी पीढ़ी को गढ़ने में खर्च कर रहे हैं। मैं ख़ुद एक अभिनेता-निर्देशक हूँ और हिंदी रंगमंच में मैंने एक अभिनेता-निर्देशक होने की पीड़ा और अकेलेपन को बड़े ही शिद्दत से महसूस किया ही नहीं बल्कि कर रहा हूँ। बहुत अच्छे और खरे लोग भी मिले लेकिन कुछ ऐसे निर्देशकों और आयोजकों से भी पाला पड़ा है जो काम कराकर पैसे देने भूल गए हैं या फिर बार-बार मांगने पर एहसानी मुद्रा में पैसे दिए हैं। कुछ बेचारे ने तो बेशर्मी की हद पार करते हुए ना केवल पैसे डकारे बल्कि यह कोशिश भी की कि बतौर कलाकार मेरा वजूद ही ख़त्म हो जाए! लेकिन ग़लती मेरी ही थी कि मैंने "दोस्ती-यारी" के चक्कर में आकर इन कार्यों को अंजाम दिया था। मुझे पहले ही दिन से सबकुछ साफ़-साफ़ बात करना चाहिए था, फिर उस निर्देशक को अच्छा लगता तो मेरे साथ काम करता, नहीं अच्छा लगता तो न करता। बहरहाल, ग़लती करना कोई गुनाह नहीं है बल्कि एक ग़लती को दुहराना गुनाह है। अब अगर कोई भी मेरे साथ काम करना चाहता है तो उसे मेरी फीस पहले तय करनी पड़ती है। हां, उन गुरुओं के लिए मैं आज भी सहज और फ्री में उपलब्ध हूँ जिन्होने मेरी उंगली पकड़कर मुझे इस महान कला के क्षेत्र में चलना सिखलाया है और उन दोस्तों के लिए भी जो दोस्ती का अर्थ जानते हैं या फिर उन लोगों के लिए भी जो एक मुहिम के तहत सामाजिक सरोकार से लैश होकर "सेवाभाव" से रंगकर्म कर रहे हैं और नए साथियों के लिए तो मेरे दिल के दरवाज़े हमेशा ही खुले हैं।
एक सच्चे कलाकार को हर क़ीमत पर अपने आत्मसम्मान की रक्षा करना ही चाहिए। बाद में हाय-हाय करने से बेहतर है कि पहले ही दूध का दूध और पानी का पानी कर लिया जाय। रीढ़ की हड्डी सीधी रखो मेरे अभिनेता/अभिनेत्री मित्रों; क्योंकि ग़लत का साथ देना भी ग़लत ही कहलाता है। आप इस्तेमाल करके दूध में पड़ी मक्खी की तरह फेंक दिए जाओ इससे पहले ही सचेत हो जाओ। तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए खूब मेहनत से अपने को गढ़ों। बौद्धिक, शारीरिक और रचनात्मक रूप से अपने को खूब लगन और किसी अच्छे मार्गदर्शक के सानिध्य में तैयार करो। इस क़ाबिल बनो कि लोगों को आपकी क़ाबिलियत पर फ़क्र हो। झूठी प्रशंसा और फ़र्ज़ी निंदा से अपने को सचेत रखो। अपने काम का सही-सही और सत्य से आंकलन तुम खुद करो। दुनियां भर की चीज़ें देखों, सुनो, पढ़ों और ख़ूब चिंतन करो। साथ ही रंगमंच एक सामूहिक कार्य है तो समूह के हर कार्य में अपना रचनात्मक और सक्रिय योगदान दो। किसी के भी पीछे मत भागो बल्कि उसकी अच्छी बातों को आत्मसात और बुरी बातों को त्याग कर उसके आगे या कंधे से कंधा मिलाकर चलने का जोश भरो - अपने अंदर। किसी भी ऐसे इंसान चाहे वो कितना भी पहुँचवाला क्यों ना हो, का साथ छोड़ दो जिसके पास अपने लिए अलग और तुम्हारे लिए अलग संविधान हो। एक सच्चा मार्गदर्शक अपने शागिर्दों को हर तरह से रचनात्मक बनाता है पिछलग्गू नहीं।
जैसी दुनियां, रंगमंच या समूह तुम्हें चाहिए - गढ़ो - रोका किसने है ? कोशिश करो, अपने लिए कुछ ना गढ़ पाए तो भावी पीढ़ी के लिए तो कुछ ना कुछ सार्थक कर ही जाओगे। बस इतना ख्याल रखना कि तुम्हारी दुनियां ऐसी हो जहां कोई मनुष्य किसी और मनुष्य का शोषण ना कर रहा हो।
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