Thursday, May 31, 2012

डोंगरगढ़ में बाल रंगकार्यशाला 1 जून से

विश्व बाल दिवस के अवसर पर डोंगरगढ़ इप्टा दिनांक 1 जून से रंगकर्म पर छात्रों के लिये एक निःशुल्क बाल रंग कार्यशाला का आयोजन करने जा रही है। कार्यशाला का संचालन मंजुल भारद्वाज करेंगे। आयोजन का उद्घाटन कल भिलाई इप्टा के वरिष्ठ साथी मणिमय मुखर्जी करेंगे। 15 दिनों की रंगशाला का समापन स्थानीय खालसा विद्यालय में बच्चों की एक नाट्य प्रस्तुति व उनके ही द्वारा तैयार की गयी एक लघु-पत्रिका के विमोचन के साथ होगा।

मंजुल भारद्वाज
कार्यशाला  के संचालन के लिये मुंबई के रंगकर्मी, निर्देशक व लेखक श्री मंजुल भारद्वाज को आमंत्रित किया गया है। श्री भारद्वाज देश के 28 राज्यों व विदेशों में भी अनेक कार्यशालाओं का संचालन कर चुके हैं तथा भारत व विदेश के कई संस्थानों, अकादमियों व संगठनों में विजिटिंग फैकल्टी हैं। उन्होंने महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘‘सिटिजन्स काउन्सिल फॉर बेटर टुमारो’’ सम्मान से विभूषित किया गया है। वे जर्मनी, आस्ट्रेलिया व यूरोप के कई देशों में अनेक कार्यशालाओं का संचालन करते आ रहे हैं। दिल्ली व गुजरात में भुज में कार्यशालाओं के संचालन के बाद श्री मंजुल 4 जून को डोंगरगढ़ पहुंच रहे हैं।

उक्त आयोजन में छत्तीसगढ़ इप्टा के अनेक वरिष्ठ साथियों के अतिरिक्त खैरागढ़ इंदिरा कला व संगीत विश्वविद्यालय में नाट्य विभाग से संबद्ध डॉ. योगेन्द्र चौबे भी प्रतिभागियों का मार्गदर्शन करेंगे। कार्यशाला के लिये स्थानीय खालसा विद्यालय ने प्रोजेक्टरयुक्त सभागृह व अन्य सुविधायें निःशुल्क प्रदान की हैं।




Tuesday, May 29, 2012

International Children's Day (1st June) at Agra


International Children's Day will be observed in Agra in the 36th Little IPTA (Indian People's Theatre Association) Summer Camp  being conducted at Soor Sadan on 1st June, 2011 at 8 AM.. Main feature of the celebrations will be painter "Chitta Prasad Memorial Drawing Competition". Topic of the Competition this year is: "Jab se Maine Aankhen Kholeen". Little IPTA Agra has been organizing events on this day since 1983.


International Children's Day

Regarding the International Children's Day, it is widely celebrated on June 1. Children's Day had its origin in the World Conference for the Wellbeing of Children in Geneva in 1925. The June 1 date has a Chinese-USA origin. In 1925, the Chinese consul-general in San Francisco gathered a number of Chinese orphans to celebrate the Dragon Boat Festival. This, of course, coincided with the conference mentioned above. June 1 somehow died out in the USA, only to be revived a couple of years ago. However, each country choses its own day to commemorate it.

The date, June 1st, has been adopted in the US as the official day. More than 30 states actively participate in the June 1st observance. The flag has been adopted by dozens of states and is being manufactured.

 The United Nations General Assembly adopted Declaration for the Rights of the Child in 1959. The Convention on the Rights of the Child was signed in 1989 and has been ratified by 191 countries.


International Children's Day Flag

The green background symbolizes growth, harmony, freshness, and fertility; we are surrounded by the ability to grow. All we have to do is reach out and embrace it. The red & yellow, black & white figures represent diversity and tolerance. Our children are the key to peace and tolerance of: race, religion, physical, mental, and social diversity. The star, which is made up of the figures' legs, represents light. We can be a light for the world, if we choose. The five points on the star represent the continents. We are all part of one true race, the human race. The earth figure, which is directly in the center, represents our earthly home and all the blessings on it, which God has given us all to share and respect. The large blue circle engulfing the figures symbolizes peace and God's universal love.  It also represents the unity that we can achieve if we reach out to one another in love. Blue symbolizes trust, loyalty, wisdom, confidence, intelligence, faith, truth, and heaven. The blue figure at the top represents God, who is the author & finisher of all things. God loves all of us equally and we should be striving to imitate that love (which is represented by the figures reaching out to each other).

आगरा में जन संस्कृति दिवस


आगरा। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की स्थापना की 70 वीं वर्षगांठ और जन संस्कृति दिवस के अवसर पर शुक्रवार को सूरसदन के बेसमेंट में लिटिल इप्टा ग्रीष्म शिविर का आयोजन किया गया। इसका उद्घाटन संरक्षक सुरेश चंद गुप्ता ने किया। कार्यक्रम में बच्चों ने कई मनमोहक प्रस्तुतियां दी।



सांस्कृतिक प्रस्तुतियों की शुरूआत बाल एवं तरूण कलाकारों के संयुक्त स्वरों से हुई। उन्होंने राजेन्द्र रघुवंशी लिखित और कुमार जसूजा द्वारा संगीतबद्ध ‘जागो हे जागो’ और जगजीत सिंह की रचना ‘मां सुनाओ मुझे एक कहानी, जिसमें राजा हो न रानी’ का गायन किया। बालिकाओं ने भरतनाट्यम की झलकियां पेश की। दो तरूणों ने अदम गोंडवी की ग़ज़लों पर आधारित कोलाज प्रस्तुत किया।

कार्यक्रम का विशेष आकर्षण नन्हें-मुन्हों की सामूहिक प्रस्तुति रही। उन्होंने ‘‘मैंने रंगों का डिब्बा जो खोला, तो सारे रंग भागकर चले गये’’ की प्रस्तुति से अतिथियों की वाहवाही बटोरी। कृष्णा सिसौदिया ने कविता मां का पाठ किया। संरक्षक ने बच्चों को संस्कारिक करने में इप्टा की भूमिका की सराहना की और प्रतिभागियों को शुभकामनायें दीं। अध्यक्षता कर रहे एम.एल. गुप्ता, विशिष्ट अतिथि रमेश मिश्रा, डॉ. शशि तिवारी, राम स्वरूप दीक्षित और ओ.पी. सरीन ने कामना की कि यह शिविर कला, विचार व प्रतिभा का उत्सव बनेगा।

इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी ने देशभर में आयोजित जन संस्कृति दिवस के कार्यक्रमों की जानकारी दी। शिविर के संयोजक सुबोध गोयल ने अतिथियों का स्वागत किया। बाल रंगमंच निर्देशिका डॉ. ज्योत्सना रघुवंशी ने धन्यवद ज्ञापन किया। कार्यक्रमों का निर्देशन सह संयोजक डॉ. विजय शर्मा, डिंपी मिश्रा, अल्का धाकड़, महेंद्र रागी, संजय वर्मा और रक्षा गोयल ने किया।

अमर उजाला की खबर पर आधारित

स्थापना दिवस पर रायगढ इप्टा की संगोष्ठी: ‘इप्टा और मैं’


राह दिखाती है इप्टा

25 मई को इप्टा के स्थापना दिवस पर इप्टा रायगढ़ द्वारा ‘‘इप्टा और मैं’’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम शुरु करने से पहले वरिष्ठ प्रगतिशील कवि भगवत रावत के दुःखद निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित की गई। उस के बाद ग्रीष्मकालीन बाल रंग शिविर की प्रतिभागी एवं इप्टा की सदस्य स्वप्निल नामदेव और प्रियंका बेरिया ने छत्तीसगढ़ी नृत्य प्रस्तुत किया। बाल रंग शिविर में शिरकत कर रहे बाल कलाकारों एवं शहर के रंगकर्मियों, दर्शकों, कलाकारों तथा वक्ताओं को इप्टा के इतिहास, विकास एवं वर्तमान स्थिति से परिचित कराने के लिए उषा आठले ने ‘‘इप्टा क्या, क्यों, कैसे, कौन, क्या और कहाँ’’ विषय पर पॉवर पॉइंट प्रेजेन्टेशन देते हुए 25 मई 1943 को मुम्बई के मारवाड़ी हॉल में आयोजित इप्टा के स्थापना सम्मेलन, सेन्ट्रल कल्चरल ट्रुप का गठन, इसके द्वारा घूम-घूम कर देश भर में प्रदर्शित की जाने वाली ‘स्पिरिट ऑफ इंडिया’, इंडिया इम्मॉर्टल’ जैसी नृत्य नाटिकाओं की जानकारी दी।

इप्टा की स्थापना से जुड़े बलराज साहनी, पं. उदयशंकर, शांतिवर्द्धन, दीना पाठक, ख्वाजा अहमद अब्बास, राजेन्द्र रघुवंशी आदि के छायाचित्र एवं अन्य विवरण प्रस्तुत किये। इप्टा के बैनर पर बनाई गई पहली फिल्म ‘‘धरती के लाल’’ के पोस्टर एवं कुछ दृश्यों के छायाचित्र भी दिखाये गये। सन् 1945 में इप्टा के तीसरे राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए इकबाल लिखित ‘‘सारे जहाँ से अच्छा, हिंदोस्ता हमारा’’ गीत की धुन पं. रविशंकर ने विशेष रूप से बनाई थी, वह भी सुनाई गई। 1974-75 तक की इप्टा की गतिविधियों पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया। कुछ वर्षों की निष्क्रियता के बाद राजेन्द्र रघुवंशी के नेतृत्व में इप्टा का पुनर्जन्म एवं 1986 में नवें राष्ट्रीय अधिवेशन से इप्टा की पूरे देश में सक्रियता की चर्चा की गई। 1986 से 2011 तक भिलाई में सम्पन्न हुए इप्टा के तेरहवें राष्ट्रीय सम्मेलन तक का विवरण प्रस्तुत किया गया। साथ ही देशभर में 24 प्रदेशों और केन्द्रशासित प्रदेशों में पाँच सौ से अधिक इकाइयाँ कार्यरत होने की जानकारी दी।

संगोष्ठी ‘इप्टा और मैं’ के पहले सत्र की शुरुआत करते हुए इप्टा रायगढ़ से आरम्भ से जुड़े हुए श्री प्रतापसिंह खोडियार ने कहा कि मध्यप्रदेश इप्टा का पहला राज्य सम्मेलन मई 1982 में रायगढ़ में हुआ था। इसके पहले ही मुमताज भारती, उमाशंकर चौबे, रवीन्द्र चौबे, अजय आठले आदि ने मिलकर इप्टा का गठन कर लिया था। तत्कालीन परिस्थिति में प्रबुद्ध वर्ग की क्या भूमिका हो सकती है तथा वे अन्य कला-विधाओं के माध्यम से समाज की बेहतरी के लिए क्या कर सकते हैं, इस पर चर्चा हुई। इस बात पर आम सहमति बनी कि नाटक ऐसी विधा है, जो अन्य विधाओं की तुलना में अधिक असर करती है। इसके माध्यम से बेहतर सोच विकसित होती है।

रायगढ़ के प्रगतिशील आंदोलन के पुरोधा मुमताज भारती ने बताया कि इप्टा रायगढ़ का दूसरा चरण बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें अनेक गतिविधियाँ तेज़ी से चलने लगीं। ग्रीष्मकालीन बाल नाट्य कार्यशाला, पाँच दिवसीय नाट्योत्सव, युवाओं के लिए प्रशिक्षण शिविर आदि आयोजित होने लगे। 1992 में ग्लोबलाइज़ेशन का दौर शुरु होने के साथ सभी कला-विधाओं पर प्रहार होने आरम्भ हुए, दर्शक कम होने लगे और आधुनिक मीडिया की ओर लोग आकर्षित होने लगे। जो जीवन का हिस्सा मानवीय जीवन से सम्बन्धित था, वह इन प्रहारों से कुचला जाने लगा। इन चुनौतियों का सामना इप्टा को करना पड़ रहा है, जो वह बखूबी कर रही है - ज़्यादा ताकत और समझबूझ के साथ। श्री हरकिशोर दास ने इप्टा को निरंतर गतिविधियों का संचालन करने के लिए बधाई देते हुए कहा कि दक्षिणपंथियों का ज़ोर बढ़ता जा रहा है, ऐसी स्थिति में नई पीढ़ी को प्रतिबद्ध ता से मतलब नहीं रह गया है फिर भी इप्टा बच्चों और युवाओं को लेकर काम कर रही है, यह महत्वपूर्ण है।

इप्टा रायगढ़ के पाँच दिवसीय नाट्योत्सव की श्रृंखला का शुभारम्भ अपने नाटक ‘उसकी जात’ से करने वाले वृंदावन यादव ने इप्टा के काम की तुलना मशाल से करते हुए कहा कि जो मशाल 1994 में जलाई गई, वह आज तक जल रही है, यह बड़ी बात है। रंगकर्मी विवेक तिवारी ने 1994-95 से इप्टा के साथ की गई शुरुआत का स्मरण करते हुए कहा कि शुरु में हम ग्लैमर में बह जाते थे, धीरे-धीरे परिपक्वता आ रही है। इप्टा ने कम संसाधनों में काम करते हुए शुरुआत की और बड़ा काम किया। डॉ. अरूण मिश्रा ने इप्टा से अपनी कम दिनों की पहचान होते हुए भी उसके नई दिशा दिखाने की प्रवृत्ति को रेखांकित किया। अंत में अजय आठले ने इप्टा के शुरुआती दिनों में मुमताज भारती ‘पापा’ से कविता पढने की तमीज़ सीखने की बात बताते हुए आगे कहा कि अपने जीवन के असफलता के दौर में इप्टा ने संघर्ष करने का माद्दा पैदा किया। निराशा के दौर में रंगमंच से मुझे प्रेरणा मिली, ताकत मिली इसीलिए मैं आज इस मकाम तक पहुँचा हूँ। संगोष्ठी में श्री एच.एल. ठक्कर, सुश्री कल्याणी मुखर्जी, श्री जगन्नाथ श्रीवास्तव आदि की उल्लेखनीय उपस्थिति रही।



संगोष्ठी के दूसरे सत्र में इप्टा के युवा एवं बाल सदस्यों ने इप्टा से जुड़ने के अपने-अपने अनुभवों को साझा किया। आलोक बेरिया ने कहा कि इप्टा में आने से उसकी बोलचाल की भाषा में सुधार हुआ है। घुल-मिल कर रहने और अपनी बातें खुलकर कहने की क्षमता पैदा हुई। ब्रजेश तिवारी का कहना था कि दो साल में इप्टा से जुड़कर मेरे भीतर का डर दूर हुआ। समझ विकसित हुई। मेरे व्यक्तित्व-विकास में इप्टा का बहुत बड़ा योगदान है। देवसिंह परिहार ‘मोनू’ ने कहा कि इप्टा में आने पर मुझे कभी भी अकेलापन महसूस नहीं हुआ। हर बार नया सीखने को मिलता है। मैं सबको यहाँ के बारे में बताता हूँ। बाबू खान ने ‘बकासुर’ नाटक देखकर इप्टा से जुड़ने की बात कही। संदीप स्वर्णकार ने कहा कि इप्टा में आने पर मुझे पहचान मिली। घर जैसा प्यार, आर्थिक सहयोग भी मिला। राजकिशोर पटेल ने इप्टा से जुड़ने का रोचक इतिहास बताते हुए कहा कि इप्टा मार्गदर्शक का काम करती है और रास्ता दिखाती है। मैं कहीं फँसता हूँ तो इप्टा ही मुझे रास्ता दिखाती है।

इप्टा रायगढ़ की सचिव अपर्णा ने बताया कि वह पहले बहुत अंतर्मुख स्वभाव की और डरपोक थी मगर इप्टा ने उसे मुखर बनाया, पढ़ने-लिखने की प्रेरणा दी। बचपन में ही इप्टा से बाल कलाकार के रूप में जुड़ चुके भरत निषाद ने कहा कि मैं अनजाने अनुशासन में बंधकर आया था। माँ ने वर्कशॉप में भेजा तो अनिच्छा से गया पर फिर मजा आने लगा। बाल कलाकार के रूप में आए और वर्तमान में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय, भोपाल में अध्ययनरत अजेश शुक्ला ने अपने शुरुआती नाटकों की स्मृतियाँ साझा कीं। अमित सोनी ने कहा कि उसे पहले कुछ भी नहीं आता था और अब वह काफी बदलाव महसूस करता है। स्वप्निल नामदेव ने बताया कि इप्टा ने उसके डर को दूर भगाया। दीपक यादव ने कहा कि इप्टा में आने से उसे अच्छे दोस्त मिले। सुरेन्द्र ने बताया कि यदि वह इप्टा में नहीं आता तो शायद किसी नकारात्मक रास्ते की ओर चला जाता।

उषा आठले ने बताया कि वह पहले मराठी रंगमंच से जुड़ी थी, इप्टा में आने से हिंदी रंगमंच की भी जानकारी मिली। इप्टा की विचारधारा और संगठन ने जीवन में बहुत-कुछ दिया है। अंत में इप्टा रायगढ़ के अध्यक्ष विनोद बोहिदार ने संगीत और रंगमंच के लगाव की चर्चा की और बिलासपुर इप्टा से जुडे़ होने की यादें साझा कीं। इसतरह इप्टा के स्थापना दिवस पर इप्टा से जुड़े नये-पुराने सदस्यों-कलाकारों को संभाषण-सम्प्रेषण ने एक सूत्र में बांधा।

Monday, May 28, 2012

इप्टा इंदौर द्वारा बच्चों की नाट्य कार्यशाला आरंभ


26 मई 2012, इंदौर। विगत दिनों भारतीय जन नाट्य संघ, इप्टा की  इंदौर इकाई द्वारा आयोजित ग्रीष्मकालीन शिविर में इप्टा का सत्तरवाँ स्थापना दिवस मनाया गया।  इस अवसर पर बच्चों के द्वारा बनाये चित्रों की प्रदर्शनी लगायी गई। बच्चों ने फैज अहमद फैज द्वारा लिखित गाना ”हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे“ और चकमक पत्रिका में आई कविता ”ये बात समझ में आयी नहीं, और अम्मी ने समझाई नहीं“ को कव्वाली के रूप में गाया।


बच्चों ने मूक अभिनय के जरिये तीनों मौसमों को प्रस्तुत करते हुए गरीब लोगों की परेशानियों का मार्मिक चित्रण किया, जिसमें नल में पानी भरने के दौरान होने वाले झगड़ों की बहुत ही मार्मिक तस्वीर पेश की। राज लोगरे ने नुक्कड़ नाटक की समाज में जरूरत बताते हुए कहा कि सभी नाटक करने वाले समूहों को समाज में फैली बुराइयों को नाटक के जरिये लोंगों के सामने लाना चाहिए और जनचेतना लानी चाहिए।



अनामिका पाल ने ”आदिवासी“, ”इप्टा का जन्मदिन“, ”मेरे पापा“, ”आजादी“ इत्यादी खुद के द्वारा लिखी कविताएँ सुनायीं। महिमा, शिवांगी, वर्षा, राज लोगरे ने भी अपनी कविताओं को सुनाया। अमन पाल ने विभिन्न जगहों पर इप्टा के संघर्षों के बारे में बताया। यह सारी गतिविधियां सारिका और नितिन ने बच्चों के साथ मिलकर कार्यशाला के दौरान ही तैयार करवायीं थीं।



जया मेहता ने बच्चों से सफदर हाशमी के नाटक ”मशीन“ की चर्चा करते हुए बताया कि  नाटक में मशीन बनाने के लिए किन-किन बातों का ध्यान रखना जरूरी है। साथ ही उन्होंने ये भी बताया कि नाटक में हम जिस पात्र को अभिनीत करते हैं उसी में डूब जाते हैं और इस तरह हम एक और जिंदगी का अनुभव कर लेते हैं। श्री विनीत तिवारी ने मुक्तिबोध कि कविता का मतलब बताते हुए अपनी गलतियों को दूसरों की अच्छाइयों से ऊपर नहीं रखना चाहिये, नहीं तो वह हमारी सारी अच्छाइयों को ढक लेती है।


इस अवसर पर जया मेहता, विनीत तिवारी, शषांक, नितिन, अनुराधा भी उपस्थित थे।
अंत में  मिठाई बांटकर इप्टा के स्थापना दिवस की खुशियाँ मनाईं गयीं।



झांसी में जन संस्कृति दिवस


झाँसी- 25.05.2012- ‘‘इप्टा का आन्दोलन कला और कलाकार के माध्यम से प्रारम्भ हुआ और जनता तक पहुँचा, इप्टा की कला लोगों के लिए है, इप्टा का रंगमंच लोक का रंगमंच है। भारतीय रंगमंच का इतिहास इप्टा के इतिहास के बगैर अधूरा है।’’ उपरोक्त विचार अखिल भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की स्थापना के 70वें वर्ष एवं इप्टा के संस्थापक सदस्य व मशहूर फिल्म अभिनेता स्वर्गीय बलराज साहनी जी की जन्मशती के मौके पर भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) झाँसी इकाई के तत्वाधान में राजकीय संग्रहालय, झाँसी के सभागार में जनसंस्कृति दिवस के अवसर पर ‘‘इप्टा आन्दोलन के 70 वर्ष व भारतीय रंगमंच का वर्तमान’’ विषयक संगोष्ठी को मुख्य अतिथि के रुप में सम्बोधित करते हुए पूर्व मुख्य चिकित्सा अधीक्षिका व प्रगतिशील लेखक संघ झांसी की सचिव डॉ0 अनामिका रिछारिया ने व्यक्त किये।

कार्यक्रम के मुख्य वक्ता व वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी मोहन नेपाली ने अपने सम्बोधन में कहा कि प्राचीन काल से ही भारत में रंगमंच विधा के माध्यम से नाटकों का मंचन होता रहा है। बुन्देलखण्ड में लोककला के माध्यम से जनजागरण का भी काम होता था। वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास झांसी की रानी में तत्कालीन रंगमंच के दर्शन होता है, जिसका प्रमाण झांसी के किले में देखा जा सकता है। जिस समाज में साहित्यकारों व कलाकारों
की अनदेखी होती है, वह समाज संवेदनहीन हो जाता है, अतएव हमें कलाकारों की अनदेखी नहीं करनी चाहिये।

गोष्ठी को इप्टा झांसी के संरक्षक हरगोविन्द कुशवाहा तथा राजकीय संग्रहालय, झांसी के कार्यवाहक निदेशक गिरिराज प्रसाद व उमेश शुक्ला ने भी सम्बोधित किया। इस अवसर पर इप्टा झाँसी द्वारा झाँसी शहर के रंगमंच के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने हेतु श्री नाथूराम साहू कक्का को इप्टा इकाई अध्यक्ष डॉ0 मोहम्मद इकबाल खान द्वारा, वयोवृद्ध रंगकर्मी राधाकृष्ण मिश्रा को इप्टा इकाई उपाध्यक्ष डॉ0 संदीप आर्य व इकाई संरक्षक हरगोविन्द कुशवाहा द्वारा, रंगकर्मी अभिलाषा सक्सेना को प्रलेस सचिव डॉ0 अनामिका रिछारिया तथा श्रीमती शशिप्रभा मिश्रा द्वारा तथा वरिष्ठ रंगकर्मी रामस्वरुप चक को प्रलेस संरक्षक दिनेश बैस व सन्तराम पेण्टर द्वारा जनसंस्कृति सम्मान से भी विभूषित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए इप्टा झांसी इकाई के अध्यक्ष डॉ0 मोहम्मद इकबाल खान ने कहा कि इप्टा ने अपने जन्म से ही साफ कर दिया था कि कला सिर्फ कला के लिए नहीं, बल्कि जीवन के लिए हो, बंगाल का अकाल हो या आजादी की लडाई या मजदूर-किसानों का संघर्ष, इप्टा ने हमेशा आगे बढ़कर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया है। इप्टा ने घोषणा की कि ‘‘कला की असली नायक जनता है।’’

कार्यक्रम का प्रारम्भ इप्टा रंगकर्मियों द्वारा इप्टा गीत ‘‘बजा नगाडा शान्ति का’’ से हुआ। तत्पश्चात महासचिव डॉ0 मुहम्मद नईम द्वारा इप्टा आन्दोलन के 70 वर्षों के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इप्टा की स्थापना 25 मई 1943 को बंगाल के अकाल की विभीषिका के बाद मुम्बई में हुआ, इसके पहले अध्यक्ष एन.एम.जोशी तथा महासचिव अनिल डी. सिल्वा थी। इप्टा यानि भारतीय जन नाट्य संघ नाम सुझाया देश के सुप्रसिद्ध परमाणु वैज्ञानिक डॉ0 होमी जहांगीर ने तथा इप्टा का निशान नगाडा बजाता हुआ आम आदमी, मशहूर चित्रकार चित्त प्रसाद बसु की पेंटिग ‘‘दि कॉल ऑफ द ड्रम्स’’ से लिया गया। इप्टा रंगकर्मियों तनीषा, अनुरुद्ध, तरुण द्वारा इप्टा सचिव देवदत्त बुधौलिया के निर्देशन में मूक नाटिका का भी मंचन किया गया, जिसके माध्यम से रंगकर्मियों समाज में व्याप्त नशा की समस्या के दुष्प्रभावों का संदेश देने का प्रयास किया। कार्यक्रम के अन्त में इप्टा झांसी इकाई के अध्यक्ष डॉ0 मो0 इकबाल खान व मुख्य अतिथि डॉ0 अनामिका रिछारिया द्वारा पन्द्रह दिवसीय ग्रीष्मकालीन द्वितीय निःशुल्क नाट्य कार्यशाला के उद्घाटन की घोषणा की। कार्यशाला प्रतिदिन सांयकाल 05 बजे से 07 बजे तक राजकीय संग्रहालय के प्रांगण में आयोजित की जायेगी।

कार्यक्रम का संयुक्त संचालन इप्टा झाँसी इकाई महासचिव डॉ0 मुहम्मद नईम व कोषाध्यक्ष अर्जुन सिंह चांद द्वारा तथा आभार देवदत्त बुधौलिया द्वारा व्यक्त किया गया। इस अवसर पर समाज कल्याण बोर्ड की पूर्व सदस्या श्रीमती शशिप्रभा मिश्रा, मार्ग श्री संस्था के निदेशक ध्रुव सिंह यादव, कृषि वैज्ञानिक डॉ0 इकबाल हाशमी, अमीनउद्दीन, महमूद राही, सन्तोष गोयल, डॉ0 रमेश कुमार, नेहा मिश्रा, राधाकान्त, दिनेश बैस, मुकेश सिंघल, सुनील कुमार, आतिफ इमरोज, असगर रजा, वीरु वर्मा, धीरेन्द्र कुमार, मयंक श्रीवास्तव, आमिर अली, तलत खान, नावेद खान आदि साहित्यकार, रंगकर्मी, बुद्धिजीवी व कलाप्रेमी उपस्थित थे।

Saturday, May 26, 2012

अशोकनगर इप्टा के रंग शिविर का समापन

इप्टा के रंग शिविर का समापन, दो नाटक, नृत्य, जनगीत की प्रस्तुति और ‘‘बाल रंग संवाद’’ का विमोचन

अशोकनगर, 25 मई: भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की अशोकनगर इकाई द्वारा आयोजित आठवें 25 दिवसीय ग्रीष्मकालीन बाल एवं किशोर रंग शिविर का समापन समारोह स्थानीय माधव भवन में 25 मई को हुआ। इस अवसर पर शिविर में भाग लेने वाले बच्चे दो नाटक ‘‘पार्टीशन’’ और ‘‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’’, दो लोकनृत्य ‘‘राई’’ और ‘‘दादरिया’’ की प्रस्तुति दी। 


साथ ही 25 दिन की गतिविधियों, इप्टा के इतिहास, बच्चों के रचनाकर्म और अन्य जानकारियों से पूर्ण 24 प्रष्ठीय अखबार ‘‘बाल रंग संवाद’’ का विमोचन हुआ। इसके अलावा जनगीत भी प्रस्तुत किए गए। एक मई से शुरू हुए इस शिविर में बच्चों ने व्यायाम, नृत्य, नाट्य कला, पत्रकारिता, चित्रकारी, क्राफ्ट समेत कई कलाओं का प्रशिक्षण प्राप्त किया। सीमा राजोरिया के निर्देशन में स्वयं प्रकाश की कहानी ‘‘पार्टीशन’’ पर आधारित सत्येंद्र रघुवंशी का लिखा नाटक मंचित हुआ। 

दूसरा नाटक ‘‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’’ ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की कहानी पर आधारित था। इसका नाट्य रूपांतरण तपन बनर्जी ने किया है। नाटक का निर्देशन विनोद शर्मा और रामबाबू कुशवाह ने किया। समापन समारोह में इंद्र पांडे के मार्गदर्शन में दो लोकनृत्यों की प्रस्तुति दी गई। कार्यक्रम के दौरान बच्चों ने सचिन श्रीवास्तव के मार्गदर्शन में शहर की समस्याओं, डायरी, चित्र और नाटक आदि पर आधारित 24 पेज का ‘‘बाल रंग संवाद’’ अखबार तैयार किया, उसका विमोचन भी हुआ। शिविर में रतनलाल पटेल और रामदुलारी शर्मा के मार्गदर्शन में तैयार जनगीतों की प्रस्तुति दी गई।

मेदिनीनगर : इप्टा की बाल नाट्य कार्यशाला


गर्मियों की छुटी में स्कूली बच्चे सीख रहे हैं रंगकर्म के गुर

मेदिनीनगर। भारतीय जन नाट्य संघ, ‘इप्टा’ की स्थापना 25 मई 1943 ई. को हुई थी। शुक्रवार को इप्टा के 70 वें स्थापना दिवस पर इप्टा डालटजगंज शाखा की बाल टीम का गटन किया गया। इप्टा कार्यालय में आयोजित एक सादे समारोह में छोटे-छोटे नन्हें कलाकारों ने इप्टा की सदस्यता ग्रहण की।


आज से गर्मियों की छुट्टी में इप्टा कार्यालय में बाल रंग कार्यशाला आयोजन किया जा रहा है। इसमें बाल कलाकारों को नाटक, गीत-संगीत एवं चित्रांकन का प्रशिक्षण दिया जायेगा। यह प्रशिक्षण शिविर अगले दस दिनों तक चलेगा। इस दौरान बच्चों द्वारा दो नाटक  "देश आगे बढ़ाओ" और "सबसे सस्ता गोश्त" नाटक तैयार करवाया जा रहा है। नाटक तैयार होने के बाद इसकी प्रस्तुती विभिन्न नुक्कड़ों पर की जायेगी।

मौके पर उपस्थित इप्टा के महासचिव उपेन्द्र मिश्र ने बताया की बच्चों के अन्दर नाट्य कला के विकास के लिये इस नाट्य शिविर का आयोजन किया गया है। बच्चे इप्टा से जुड़ कर समाज में जगरूकता का काम नाटक और गीत के जरिये करेंगे। बाल कलाकारों को इप्टा के रंगकर्मी रविशंकर, राजीव रंजन, शशि विजेता संजू एवं अजित प्रशिक्षित कर रहे हैं।

इप्टा के बाल कलाकारों में पंकज, विशाल, सानू, सौरभ, समर, सोना, अंश, हरिओम, प्रांजल, अनुभव, छोटू अदि शामिल है। बाल कलाकारों का नेतृत्व पंकज एवं सानू कर रहे है। मौके पर इप्टा के शैलेन्द्र कुमार, शव्वीर अहमद, गौतम दा आदि उपस्थित थें।


Friday, May 25, 2012

इतनी बड़ी मृत्यु : भगवत रावत


वरिष्ठ हिंदी कवि और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े  एक मुख्य हस्ताक्षर भगवत रावत का आज भोपाल में निधन हो गया। 76 वर्षीय रावत जी पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे। 13 सितंबर 1939 को जन्मे भगवत रावत 1989 से 1994 तक मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे तथा तथा उन्होंने "वसुधा" का संपादन भी किया। आपको मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के "दुष्यंत कुमार सम्मान" तथा  मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के "वागीश्वरी" सम्मान से भी नवाजा गया था। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि के साथ यहां प्रस्तुत हैं उनकी  कुछ कवितायें :

इतनी बड़ी मृत्यु


आजकल हर कोई, कहीं न कहीं जाने लगा है
हर एक को पकड़ना है चुपके से कोई ट्रेन
किसी को न हो कानों कान ख़बर
इस तरह पहुँचना है वहीं उड़कर

अकेले ही अकेले होता है अख़बार की ख़बर में
कि सूची में पहुँचना है, नीचे से सबसे ऊपर
किसी मैदान में घुड़दौड़ का होना है
पहला और आख़िरी सवार
इतनी अजीब घड़ी हैं
हर एक को कहीं न कहीं जाने की हड़बड़ी है
कोई कहीं से आ नहीं रहा
रोते हुए बच्चे तक के लिए रुक कर
कहीं कोई कुछ गा नहीं रहा
यह केवल एक दृश्य भर नहीं है
बुझकर, फेंका गया ऐसा जाल है
जिसमें हर एक दूसरे पर सवार
एक दूसरे का शिकार है
काट दिए गए हैं सबके पाँव
स्मृति भर में बचे हैं जैसे अपने घर
अपने गाँव,
ऐसी भागमभाग
कि इतनी तेज़ी से भागती दिखाई दी नहीं कभी उम्र
उम्र के आगे-आगे सब कुछ पीछे छूटते जाने का
भय भाग रहा है
जिनके साथ-साथ जीना-मरना था
हँस बोलकर जिनके साथ सार्थक होना था
उनसे मिलना मुहाल
संसार का ऐसा हाल तो पहले कभी नहीं हुआ
कि कोई किसी को
हाल चाल तक बतलाता नहीं
जिसे देखो वही मन ही मन कुछ बड़बड़ा रहा है
जिसे देखो वही
बेशर्मी से अपना झंडा फहराए जा रहा है
चेहरों पर जीवन की हँसी कही दिख नहीं रहीं
इतनी बड़ी मृत्यु
कोई रोता दिख नहीं रहा
कोई किसी को बतला नहीं पा रहा
आखिर
वह कहाँ जा रहा है.

बदलते हुए मौसम का मिजाज़

जब से भू मंडल नहीं रहा भौगोलिक
चढ़ गया है भूमंडलीकरण का बुखार
जब से ग़ायब होना शुरू हुई उदारता
फैला प्लेग की तरह
उदारतावाद
जब से उजड़ गए गाँवों, कस्बों और शहरों के खुले मैदानों के बाज़ार
घर-घर में घुस गया नकाबपोश
बाज़ारवाद
यह अकारण नहीं कि तभी से प्रकृति ने भी
ताक पर रखकर अपने नियम-धरम
बदल दिए हैं अपने आचार-विचार
अब यही देखिए कि पता ही नहीं लगता
कि खुश या नाराज़ हैं ये बझल
जो शेयर दलालों के उछाले गए सेंसेक्स की तरह
बरसे हैं मूसलाधार इस साल
जैसे कोई अकूत धनवान
इस तरह मारे अपनी दौलत की मार
कि भूखे भिखारियों को किसी एक दिन
जबरदस्ती ठूँस ठूँसकर तब तक खिलाए सारे पकवान
जब तक वे खा-खाकर मर न जाएं
जैसे कोई जलवाद केवल अपने अभ्यास के लिए
बेवजह मातहतों पर तब तक बरसाए
कोड़े पर कोड़े लगातार
जब तक स्वयं थक-हारकर सो न जाए
दूसरी तरफ देखिए यह दृश्य
कि ऐसी बरसात में, नशे में झूमतीं,
अपनी ही खुमारी में खड़ी हैं अविचलित
ऊँची-नीची पहाड़ियों
स्थित-प्रज्ञों की तरह अपने ही दंभ में खड़े हैं
ऊँचे-ऊँचे उठते मकान
और दुख से भी ज़्यादा दुख में
डूबी हुईं है सारी की सारी निचली बस्तियाँ
बह गए जिनके सारे छान-छप्पर-घर-बार
इन्हें ही मरना है, हव से, पानी से, आग से
बदलते हुए मौसम के मिजाज़ से
कभी प्यास से, कभी डूबकर
कभी गैस से
कभी आग से.

वे इसी पृथ्वी पर हैं

कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं ज़रूर
जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर
कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं
बचाए हुए हैं उसे
अपने ही नरक में डूबने से




वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं
इतने नामालूम कि कोई उनका पता
ठीक-ठीक बता नहीं सकता
उनके अपने नाम हैं लेकिन वे
इतने साधारण और इतने आमफहम हैं
कि किसी को उनके नाम
सही-सही याद नहीं रहते
उनके अपने चेहरे हैं लेकिन वे
एक दूसरे में इतने घुले-मिले रहते हैं
कि कोई उन्हें देखते ही पहचान नहीं पाता
वे हैं, और इसी पृथ्वी पर हैं
और यह पृथ्वी उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है
और सबसे मज़ेदार बात तो यह है कि उन्हें
रत्ती भर यह अंदेशा नहीं
कि उन्हीं की पीठ पर
टिकी हुई यह पुथ्वी.

रेखांकन व कवितायें बीबीसी हिंदी से साभार

भिलाई इप्टा के बाल एवं तरुण नाट्य शिविर का समापन 25 एवं 26 मई को

भिलाई, इप्टा भिलाई द्वारा आयोजित 16 वें बाल एवं तरुण नाट्य शिविर का समापन 25 मई को राष्ट्रीय इप्टा के 70 वें स्थापना दिवस "जन संस्कृति दिवस "के अवसर पर नेहरु सांस्कृतिक भवन सेक्टर 1 में तथा 26 मई को पायोनियर्स मानयूमेंट सिविक सेंटर में संध्या 7.30 बजे सम्पन्न होगा. इस अवसर पर भिलाई इस्पात संयंत्र के उप महा प्रबंधक श्री मनोरंजन दास मुख्य अतिथि तथा श्री सुभाष मिश्र महा प्रबंधक छत्तीसगढ़ पाठ्य पुस्तक निगम विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित रहेंगे.


ज्ञातव्य है कि भिलाई इस्पात संयंत्र के क्रीडा, सांस्कृतिक एवं नागरिक सुविधाएँ विभाग के सहयोग से हर वर्ष इप्टा द्वारा 5 मई से 25 मई के बीच बाल एवं तरुण नाट्य शिविर का आयोजन किया जाता है इस वर्ष प्रसिद्ध रंगकर्मी,सिने कलाकार बलराज साहनी की जन्म शताब्दी को समर्पित इस नाट्य शिविर में कुल 155 बच्चों ने भागीदारी की जिन्हें खेल खेल में अरुण पंडा ने योग, प्राची ने ड्राइंग एवं हस्तकला, दीपेन्द्र हालदार ,मणिमय मुखर्जी ,भारत भूषन परगनिहा ने गायन,स्वेता सरकार,भावना सिंह,अदिति खरे,अर्चना ध्रुव ने नृत्य का तथा अशफाक खान, नितेश केडिया,सोनी सिंह,सतीश ,चारू श्रीवास्तव ने अभिनय का प्रशिक्षण दिया.

समय समय पर प्रशिक्षार्थियों की अलग अलग विधा के विशेषज्ञों से मुलाकात भी करवाई गई जिनमे पदम भूषण तीजन बाई, प्रभाकर चौबे, संजय श्याम,योगेन्द्र चोबे.विनोद दाढ़ी प्रमुख हैं. सघन प्रशिक्षण के बाद 25 मई को 4 जनगीत,5 नृत्य तथा 4 नाटकों का मंचन प्रमुख आकर्षण रहेगा.इस अवसर पर बच्चो द्वारा तैयार ड्राइंग तथा हस्तकला प्रदर्शनी भी आयोजित की जायेगी. समापन अवसर पर भिलाई इस्पात संयंत्र के उप महा प्रबंधक महमूद हसन,बशीर खान,प्रभंजय चतुर्वेदी,भाल चन्द्र,लोकबाबू,रवि श्रीवास्तव, अशोक सिंघई विशेष रूप से उपस्थित रहेंगे.

Thursday, May 24, 2012

अशोकनगर इप्टा के रंग शिविर के समापन की तैयारी


दो नाटक, चार नृत्य, जनगीत की प्रस्तुति और 
‘‘बाल रंग संवाद’’ का होगा विमोचन

अशोकनगर, 24 मई: भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की अशोकनगर इकाई द्वारा आयोजित आठवें 25 दिवसीय ग्रीष्मकालीन बाल एवं किशोर रंग  शिविर  का समापन समारोह स्थानीय माधव भवन में 25 मई को शाम सात बजे होगा। इस अवसर पर  शिविर  में भाग लेने वाले बच्चे दो नाटक ‘‘पार्टीशन’’ और ‘‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’’, चार लोकनृत्य ‘‘राई’’, ‘‘पंथी’’, ‘‘दादरिया’’ और ‘‘कालबेलिया’’ की प्रस्तुति देंगे। साथ ही 25 दिन की गतिविधियों, इप्टा के इतिहास, बच्चों के रचनाकर्म और अन्य जानकारियों से पूर्ण 24 पृष्ठीय अखबार ‘‘बाल रंग संवाद’’ का विमोचन भी होगा। इसके अलावा जनगीत भी प्रस्तुत किए जाएंगे।

 नृत्य निर्देशक इंद्र पांडे से प्रशिक्षण प्राप्त करते शिविरार्थी
एक मई से शुरू हुए इस  शिविर में बच्चों ने व्यायाम, नृत्य, नाट्य कला, पत्रकारिता, चित्रकारी, क्राफ्ट समेत कई कलाओं का प्रशिक्षण विशेषज्ञों द्वारा प्राप्त किया। इस दौरान बच्चों ने इप्टा  अशोकनगर  की अध्यक्ष सीमा राजोरिया के निर्देशन में स्वयं प्रकाश  की कहानी  ‘‘पार्टीशन’’  पर आधारित सत्येंद्र रघुवंशी का लिखा नाटक तैयार किया है, जिसका प्रदर्शन समापन समारोह में किया जाएगा। नाटक के बारे में सीमा राजोरिया ने बताया कि हिंदुस्तान का विभाजन एक खास तारीख को हुआ बताया जाता है, लेकिन समाज में यह बंटवारा आज भी जारी है। इसे कुछ पात्रों के माध्यम से स्वयं  प्रकाश  ने पकड़ा और सत्येंद्र  रघुवंशी  ने इसका विस्तृत नाट्य आलेख तैयार किया है। नाटक में कोई भी नायक या खलनायक नहीं है, बल्कि परिस्थितियां और घटनाएं ही इंसान-इंसान के बीच दूरी पैदा कर रही हैं, इस कथ्य को बच्चों ने खूबसूरती के साथ सामने रखा है। 

 बच्चों को आधुनिक कला की प्रायोगिक जानकारी देते चित्रकार मुकेश बिजौले
दूसरा नाटक ‘‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’’ है, जो ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की कहानी पर आधारित है, इसका नाट्य रूपांतरण तपन बनर्जी ने किया है। इस नाटक का निर्देशन वरिष्ठ रंगकर्मी विनोद शर्मा ने किया है। नाटक के बारे में विनोद शर्मा ने बताया कि परसाई जी की इस कहानी में मातादीन नाम का एक इंस्पेक्टर चंद्रमा की पुलिस को प्रशिक्षित करने के लिए जाता है, और वहां वह एक ऐसी कार्यशैली विकसित करता है, जिससे पुलिस कमजोर, निर्दोष लोगों को सताने लगती है। व्यंग्य शैली का यह नुक्कड़ नाटक काफी प्रसिद्ध है और  अशोकनगर के दर्शकों के सामने यह इस नाटक की पहली प्रस्तुति है। 

समापन समारोह के अवसर पर बच्चे जाने माने लोक नृत्य निर्देशन इंद्र पांडे के मार्गदर्शन में तैयार चार लोकनृत्यों की प्रस्तुति भी देंगे। इंद्र पांडे ने बताया कि लोकनृत्य हमारी संस्कृति को तो दर्शाते ही हैं, साथ ही बच्चों में सामूहिक कार्य की भावना और जीवन की लय के साथ तालमेल का मुहावरा भी गढ़ते हैं। यह चारों नृत्य अपने आप में एक विचार हैं और इनमें संयोजन, शरीर संचालन, विश्वास और चेहरे के भावों का विशेष महत्व है। 

कार्यक्रम के दौरान बच्चों द्वारा तैयार शहर की समस्याओं, डायरी, चित्र और नाटक आदि पर आधारित 24 पेज का ‘‘बाल रंग संवाद’’ अखबार का विमोचन भी होगा। यह अखबार बच्चों ने मेरठ से आए पत्रकार सचिन श्रीवास्तव के मार्गदर्शन में तैयार किया है। अखबार के बारे में सचिन श्रीवास्तव ने बताया कि लोकतंत्र के तीन  स्तंभ के बारे में बच्चों को शुरुआत से ही जानकारी दी जाती है, लेकिन चौथे स्तंभ मीडिया के बारे में उनकी जानकारी अनुभव आधारित होती है। इसे प्रायोगिक ढंग से समझाकर पत्रकारिता के उद्देश्य और उसकी कार्यशैली से बच्चों को परिचित कराया गया है। यह लगातार तीसरा साल है, जब बच्चों ने उत्साह के साथ अखबार निकाला है। 

शिविर में रतनलाल पटेल और रामदुलारी शर्मा के मार्गदर्शन में तैयार जनगीत भी बच्चे प्रस्तुत करेंगे। इस संबंध में रतनलाल पटेल ने कहा कि शिविर में बच्चों को दस से अधिक ताल की जानकारी दी गई है। इस बीच बच्चों ने करीब 15 जनगीतों का अभ्यास किया है, और अशोकनगर के बच्चों में गायन की अनूठी प्रतिभा को इस माध्यम से उभारा जा सकता है।

कार्यक्रम के बारे में इप्टा के प्रदेश महासचिव हरिओम राजोरिया ने बताया कि 25 मई को इप्टा अपने गठन के 70वें साल में प्रवेश कर रही है और यह कार्यशला महान अभिनेता बलराज साहनी के कला अवदान को समर्पित थी। एक मई 1913 को जन्मे बलराज साहनी का यह शताब्दी वर्ष है। इस समय देश भर में इप्टा की 20 से अधिक बाल कार्यशालाएं चल रही हैं और अशोकनगर इकाई का कार्य पूरे देश में अलग से रेखांकित किया जा रहा है, यह पूरे शहर के लिए गर्व का विषय है।

इप्टा मंडी का यादगारे कैफी

मंडी। इप्टा मंडी ने यादगारे कैफी मनाते हुए प्रसिद्ध गीतकार, कवि और रंगकर्मी कैफी आजमी को याद किया। कैफी आजमी इप्टा के 1985 से 2000 तक राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। इस अवसर पर कला प्रेमी, गायक, कवि और रंगकर्मी आर्यन बैंग्लो में एकत्र हुए। 




इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध कवि दीनू कश्यप ने की। इस अवसर पर प्रो. शुक्ला शर्मा, रूपेश्वरी शर्मा, भूपेन्द्र, जय कुमार, प्रवेश तथा ईप्टा के अन्य सदस्यों ने कैफी आजमी के गीतों और कव्वालियों को गाया और कविताओं का पाठ किया। कार्यक्रम में वरिष्ठ अधिवक्ता रवि राणा शाहिन, एडवोकेट देशराज, एडवोकेट अमर चंद वर्मा ने भी कैफी आजमी के जीवन पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम का संचालन इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन के प्रदेश संयोजक लवण ठाकुर ने किया।

वर्तमान परिदृश्य में संस्कृतिकर्मी की भूमिका


-उषा आठले

र्तमान समय ऐसा खतरनाक समय है जब मानव समाज में व्याप्त सामुदायिक हित की भावना खंडित होकर परिवारवाद और व्यक्तिवाद  तक जा पहुँची है। यहाँ तक कि व्यक्तिगत लाभ की इच्छा से प्रेरित होकर सामुदायिकता जातिवाद और सम्प्रदायवाद का नया रूप धारण कर रही है। इससे पहले समाज के अन्तर्गत ग्राम की समूची सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक संरचना आती थी, जिसमें विभिन्न जाति-धर्म-सम्प्रदाय-उम्र-लिंग के लोग विभिन्न इकाइयाँ बनाते थे और ये इकाइयाँ घनिष्ठ रूप से परस्पर सम्बद्ध होती थी। मनुष्य के व्यवहार का सामाजिक दायरा काफी विस्तृत था। परंतु समूचे समाजों में वैश्वीकरण के बाज़ारवादी अर्थशास्त्र के धीमे ज़हर की तरह  प्रविष्ट होने के कारण मनुष्य एक उपभोक्ता में बदलता जा रहा है। मनुष्य की पारस्परिकता परस्पर सहयोग, प्रेम, दया, करूणा के स्थान पर परस्पर लाभ-हानि के समीकरण में घटती जा रही है। कोई व्यक्ति (चाहे वह परिवार का ही बुजुर्ग, बच्चा या माँ-पिता ही क्यों न हो) कब, किस तरह लाभदायक या सहायक हो सकता है, इस पर परस्पर सम्बन्धों की नींव डाली जा रही है। कम कमाने वाला पुत्र या शारीरिक-आर्थिक रूप से अशक्त माँ-पिता अनुपयोगी कहलाते हुए उपेक्षित किये जा रहे हैं, उसी तरह, जिस तरह किसी पूँजी या राज्य के सत्ताधीश के लिए लाभदायी या चापलूस कर्मचारी ही उपयोगी होता है, अन्य उसके लिए आँख की किरकिरी बन जाते हैं।

मानव समाज के इस अवमूल्यन के दौर में संस्कृतिकर्मी की भूमिका पहले से कहीं अधिक संवेदक और जिम्मेदारी की हो गई है। संस्कृतिकर्मी का आशय उस व्यक्ति से है जो मनुष्य के ऐतिहासिक सामुदायिक विकास की परम्परा के श्रम और ज्ञानमूलक मूल्यों से परिचित है; जो वानर से नर बनने की प्रक्रिया में मनुष्य के हाथ के स्वतंत्र होने से लेकर तमाम कला-साहित्य-संस्कृति के अनगिनत रूपों को गढ़ने और अर्जित करने की जद्दोजहद को महसूस करता है। जिसके लिए संस्कृति सिर्फ नाच-गान-उत्सव-खान-पान तक सीमित नहीं है, वरन् वह विभिन्न मानव समूहों की विभिन्न भूखण्डों पर रहने, परन्तु फिर भी परस्पर सम्बद्ध होने की ऐतिहासिक विकास यात्रा की समझ रखता है। सिर्फ ताल-लय, रंगीन प्रकाश और विचित्र वेशभूषा को अपनाकर स्वतःस्फूर्त शारीरिक-मानसिक उत्तेजनाओं का शमन करने वाला व्यक्ति कभी भी संस्कृतिकर्मी नहीं हो सकता। संस्कृतिकर्मी मानवमात्र के बहुआयामी-बहुरंगी जीवन की छटाओं में निहित भावात्मक और विचारात्मक, संवेदनात्मक और भावनात्मक पक्षों से भी परिचित होता है। वह एक गंभीर, विचारवान, सहृदय, उदार दृष्टिसम्पन्न, व्यक्तिगत और सामूहिक अभिव्यक्ति में संतुलन स्थापित करनेवाला क्रियाशील इंसान होता है।

वर्तमान उपभोक्तावादी, बाज़ारवादी दौर में जब संस्कृतिकर्मीऔर उसकी भूमिका तय करने सम्बन्धी चर्चा की जाती है तो प्रायः संस्कृतिकर्मी को समाज  सुधारनेवाले ठेकेदार या मजबूत कंधोंवाला नेतृत्व-सक्षम व्यक्ति मान लिया जाता है, परंतु यथार्थ इतना आसान नहीं होता। व्यक्ति और समाज के द्वन्द्वात्मक रिश्तों के कारण वर्तमान समाज में व्याप्त सभी तरह के विचलन संस्कृतिकर्मी कहलाने वाले व्यक्ति पर भी प्रभाव डालते हैं, उसे भी कमोबेश विचलित करते हैं। अतः संस्कृतिकर्मी को जागरुक बनाने के लिए प्रतिबद्ध सांस्कृतिक संगठनों की आवश्यकता और भी बढ़ गई है। ये सांस्कृतिक संगठन जब तक मनुष्यकेन्द्रित विचारधारा, व्यावहारिक पारदर्शिता, आलोचना -आत्मालोचना, निरंतर विचार-विमर्श और उदार कार्यप्रणाली नहीं अपनायेंगे, तब तक ये अपने आप में सांस्कृतिक द्वीप बने रह जायेंगे और समाज की वास्तविक स्थिति में सक्रिय हस्तक्षेप करने के स्थान पर समाज को विभिन्न संकुचित दायरों में खींच ले जायेंगे। अतः वर्तमान परिस्थिति में संस्कृतिकर्मी की भूमिका के अंतर्गत निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जाना आवश्यक है:-

1. सही सांस्कृतिक संगठन का चयन एवं उसके साथ ईमानदार जुड़ाव - इससे संस्कृतिकर्मी को एक निश्चित उद्देश्य और मंच मिलता है, जिससे वह स्वयं भी अपने कार्य की दिशा तय कर सकता है। संगठन के साथ ईमानदारी से जुड़ने का मतलब है,  स्वयं के विकास और हित-साधन की बनिस्बत संगठन के सामूहिक विकास और उद्देश्य के अंतर्गत कार्य करना।

2. निरंतर अध्ययन-मनन-चिंतन को अपनी नियमित दिनचर्या में शामिल करना; खासकर अपने देश की संस्कृति के ऐतिहासिक विकास और बहुआयामी स्वरूप के बारे में वस्तुगत दृष्टि विकसित करना और विद्वान सहकर्मियों से अपनी जिज्ञासाओं, सवालों, भ्रमों का निराकरण करने की कोशिश करना।

3. सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों के परिवर्तनशील वैश्विक संदर्भों की साफ समझ विकसित करना।

4. एक मनुष्य के रूप में स्वयं के पारिवारिक-सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग रहना और हर संभव संवेदनशीलता के साथ उनका परिपालन करना।

5. साझा सांस्कृतिक मंच की स्थापना के लिए अपने व्यक्तिगत और सामूहिक अहम् को संतुलित रखना ताकि खुली दृष्टि से एकसाथ  मिलकर काम करने की परिस्थितियाँ पैदा हों।

6. छद्म सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों की पहचान के लिए वस्तुगत दृष्टि विकसित करना।

7. अन्य संस्कृतिकर्मियों से दोस्ताना और आत्मीय सहयोगपूर्ण रवैया अपनाना।

8. अवसरवादिता, ढुलमुलपन, दोहरापन, झूठ, पाखंड, आलस्य और कट्टरता से व्यक्तिगत और संगठन के स्तर पर बचना-बचाना।

9. विज्ञान और तकनालॉजी के नित नये अन्वेषणों से परिचित होकर अपने कलाकर्म में इनका भी सकारात्मक उपयोग करना ताकि सामयिकता और कलात्मक उत्कृष्टता बनी रहे।


मेरा दृढ़ विश्वास हे कि यदि मानव संस्कृति की नींव सुदृढ़ करने के संकल्प से प्रेरित संस्कृतिकर्मी आपस में निरंतरसंवाद बनाये रखें,   धीरज और खुलेपन के साथ परस्पर सुने-समझें, विसंगतियों और संकटों का मिलजुलकर प्रतिरोध करें और उसके स्थान पर स्वस्थ, सुदृढ़ और मनुष्यमात्र को महत्व देनेवाली संस्कृति को अपने व्यवहार और कलामाध्यमों से निरंतर सम्प्रेषित करें तो वर्तमान संकट से बाहर निकलने की कई राहें दिखाई देने लगेंगी।

- आठले हाउस, सिविल लाइन्स, रायगढ़ (छ.ग.) 496001

Tuesday, May 22, 2012

डोंगरगढ़ इप्टा द्वारा नाटक ‘‘बापू मुझे बचा लो’’ का मंचन

विगत दिनों भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की डोंगरगढ़ इकाई द्वारा बैंगलौर के ज्ञान ज्योति सभागार में नाटक ‘‘बापू मुझे बचा लो’’ का मंचन किया गया। राधेश्याम तराने द्वारा निर्देशित व दिनेश चौधरी द्वारा लिखित इस नाटक का संगीत निर्देशन मनोज गुप्ता ने किया था।




नाटक ‘बापू मुझे बचा लो’ मूलतः एक पारंपरिक व्यंग्य कथा पर आधारित है जो भ्रष्टाचारियों व भ्रष्ट व्यवस्था पर सीधी व गहरी चोट करता है। राजनेता किस तरह अपने पाखंड व दुष्कर्मों को छुपाने के लिये गांधीवाद का सहारा लेते हैं व किस तरह निहित स्वार्थों के लिये गांधी के आदर्शों को बार-बार अपमानित किया जाता है इसका बेबाक चित्रण उक्त नाटक के माध्यम से किया गया है। सरंपच की केंद्रीय भूमिका में मतीन अहमद व उनके सहायकों की भूमिका में नुरूद्दीन जीवा व शेखर सोनी ने बेहतरीन अभिनय किया। अन्य भूमिकाओं में अविनाश सोनी, आनंद शांडिल्य, राधेकृष्ण कनोजिया, विकास नामदेव, मनोज गुप्ता व संतोष ने भी उल्लेखनीय अदाकारी की।

इप्टा की टीम ऑल इंडिया लोको रनिंग स्टाफ एसोसिएशन के 19 वें द्विवार्षिक अधिवेशन के अवसर पर उनके बुलावे पर बैंगलौर गयी थी। अधिवेशन का उद्घाटन सांसद व माकपा संसदीय दल के नेता श्री वासुदेव आचार्या ने किया। अधिवेशन में देशभर से आये हुए प्रतिनिधियों, अतिथियों, विभिन्न केंद्रीय श्रमिक संगठनों के नेताओं व कर्नाटक राज्य के अनेक मजदूर संगठनों के नेताओं ने हिस्सा लिया।

Monday, May 21, 2012

हबीब तनवीर स्मृति नाट्य समारोह 2 जून से


भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) रायपुर द्वारा वर्ष 2010 से प्रतिवर्ष सुप्रसिद्ध विश्वविख्यात रंगकर्मी पद्मभूषण स्वर्गीय हबीब तनवीर की स्मृति में उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर  पिछले दो वर्षों से हबीब तनवीर स्मृति नाट्य समारोह आयोजित किया जा रहा है । इसी श्रृंखला में इप्टा द्वारा 02 से 04 जून 2012 को रायपुर में लोक कलाओं पर आधारित नाट्य समारोह आयोजित किया जा रहा है । इस समारोह में उत्तरप्रदेश की नौटंकी, लोक कलाओं पर आधारित नाटक, प्रसंगों की प्रस्तुति की जायेगी । छत्तीसगढ़ की समृद्ध लोक कलाओं को साथ रखकर यह आयोजन होगा । समारोह में लोक कलाओं पर बातचीत भी होगी ।

हबीब तनवीर स्मृति इस नाट्य समारोह में हबीब साहब द्वारा निर्देशित प्रसिद्ध नाटकों के अलग-अलग दृश्यों का कोलाज बनाकर एक समग्र प्रस्तुति स्मृति स्वरूप की जायेगी । यह आयोजन ‘‘मुक्ताकाशी मंच‘‘ संस्कृति विभाग परिसर, रायपुर में होगा । नाट्य समारोह के दौरान 03 जून को प्रातः 10ः30 से वृन्दावन हॉल, सिविल लाईन्स, रायपुर में "मीडिया और रंगमंच‘" विषय पर गोष्ठी का आयोजन किया गया है ।

समारोह कर उद्घाटन शनिवार 2 जून को संध्या 07.30 बजे किया जायेगा।  इसके पश्चात लटिया, सेमरिया द्वारा नाचा व विभिन्न संस्थाओं द्वारा हबीब तनवीर के नाटकों के नाट्यशों की प्रस्तुति की जायेगी। 03 जून रविवार को डीग्रेट गुलाब थ्रिटिकल पार्टी, कानपुर द्वारा ‘सत्यवादी महाराजा हरिश्चन्द्र’ की प्रस्तुति की जायेगी, जिसका निर्देशन मधु अग्रवाल ने किया है। 04 जून सोमवार को रंग संगीत व ‘पंचम वेद’ इप्टा, रायपुर द्वारा प्रस्तुत किया जायेगा।

सौ ग्राम जिंदगी है, जी भर के जी है


-विनोद अनुपम
हिंदी सिनेमा के दस सर्वश्रेष्ठ दृश्य याद करने हो तो उनमें निश्चय ही एक आवारा का स्वप्न दृश्य भी होगा, जिसने राजकपूर को हिंदी सिनेमा का शोमैन बनाने की जमीन तैयार की. कल्पनातीत भव्य सेट और उस पर भारतीय जीवन दर्शन को साकार करते सैकड़ों नर्तक. इस दृश्य को साकार करने में जिस एक व्यक्ति की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी, वह है जोहरा सहगल.
पद्म विभूषण जोहरा सहगल. वाकई यह जानना एक सुखद अहसास देता है कि हम वर्षों से एक अभिनेत्री के रूप में, एक सक्रि य रंगकर्मी के रूप में जिनका सम्मान करते आ रहे हैं, वास्तव में उन्हें आवारा के उस ऐतिहासिक नृत्य नाटिका के कोरियोग्राफर के रूप में याद किया जाना चाहिए. आवारा ही नहीं, बाजी में भी नृत्य निर्देशन कर जोहरा सहगल ने गुरुदत्त को अपना प्रशंसक बना लिया था. भारत में सिनेमा के साथ जब जोहरा सहगल भी अपनी उम्र की शताब्दी मना रही होती हैं तो बरबस चीनी कम की उस वृद्धा, लेकिन जिंदादिल मां की याद आ जाती है जो अपने प्रौढ़ हो रहे बेटे को जिम भेजने के पीछे पड़ी रहती हैं.
वाकई तय करना मुश्किल है कि जोहरा के किस रूप को याद किया जाय. उसने वह सबकुछ किया जो कर सकती थी और जो करना चाहा. न तो उन्हों ने कभी सफलता की कामना की, न सराहना की. कला के लिए जोहरा थी, कला को उन्होंने कभी साधन नहीं बनाया. कला के अनंत विस्तार में निरंतर उड़ान भरती रहीं शायद सब कुछ जान लेने की जिद में. पड़ाव उनके स्वभाव में नहीं था, शायद अभी भी नहीं है.
कला के प्रति अभी भी वही असीम बेचैनी और संकल्प उनके चेहरे पर अभी भी देखी जा सकती है, जो शायद तब होगी जब 1935 में उन्होंने उदय शंकर की नृत्य मंडली के साथ जापान, मिस्र, यूरोप और अमेरिका की यात्र पर निकलने के निर्णय लिया होगा. 27अप्रैल 1912को उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में जन्मी साहिबजादी जोहरा बेगम मुमताज उल खान ने क्वींस मेरी कॉलेज, लाहौर से पढ़ाई की और यहीं से एक संबंधी के यहा उन्हें ड्रेसडेन जाने का अवसर मिला.
ड्रेसडेन में ही नृत्य की आरंभिक शिक्षा इन्होंने हासिल की, उसी दौरान इन्होने उदय शंकर की नृत्य नाटिका शिव पार्वती देखी और नृत्य विधा में पूर्णता हासिल करने के लिए उदय शंकर की शिष्या बन गयी. 1940में उदय शंकर जब स्वदेश लौटकर अल्मोड़ा में ‘उदय शंकर इंडिया कल्चर सेंटर की स्थापना की तो जोहरा भी बतौर शिक्षिका वहा जुड़ गयी. इनके बहुआयामी व्यक्तित्व को साथ मिला एक और बहुआयामी व्यक्तित्व का.
14 अगस्त 1942 को इंदौर के एक वैज्ञानिक, चित्रकार और नर्तक कामेश्वर सहगल के साथ ये विवाह बंधन में बंध गयी. उल्लेखनीय है कि इस अवसर पर पंडित जवाहर लाल नेहरू भी उपस्थित होते यदि ऐन मौके पर उन्हें जेल में नहीं बंद कर दिया गया होता. विवाह के बाद लाहौर में इन्होंने जोहरा डांस इंस्टिटय़ूट की शुरूआत की लेकिन विभाजन के तनाव को देखते हुए उन्हें मुंबई आना पड़ा. यहां 400 रुपये मासिक पर वे पृथ्वी थियेटर से जुड़ गयी.
और 14 साल तक सक्रि य रहीं. इसी समय इप्टा से भी वे जुड़ीं और इप्टा द्वारा निर्मित ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा निर्देशित धरती के लाल में अभिनय किया.
इसके बाद गोर्की की कहानी पर बनी चेतन आनंद की नीचा नगर में भी इन्होंने एक अहम भूमिका निभायी. 1959में पति कामेश्वर सहगल के निधन के बाद वे दिल्ली आ गयी और यहां एक नाट्य अकादमी की स्थापना की. 1962 में एक स्कालरशिप के अंतर्गत इन्हें लंदन जाने का अवसर मिला वहीं बीबीसी के एक धारावाहिक से टेलिविजन पर अभिनय की इन्होंने शुरूआत की.
1982में लंदन में इन्हें पहली फिल्म मिली मर्चेन्ट आइवरी की द कोटसीन ऑफ मुंबई इनके लिए काम की कभी कमी वहां नहीं थी, न तो टेलीविजन पर, न ही फिल्मों में. लेकिन रुकना जोहरा ने सीखा कहां था?
1990में ये भारत लौट आयी. और लाहोर में अपनी बहन उर्जा के साथ एक थी नानी का मंचन किया. इब्राहीम अल्काजी का चर्चित नाटक दिन के अंधेरे जोहरा के लिए अभी भी याद की जाती है. जोहरा विदेश छोड़कर चली आयीं, लेकिन विदेश उनकी प्रतिभा को नहीं भूल सका, ज्वेल इन द क्राउन, तंदूरी नाइट्स, अम्मा एंड फैमली जैसे धारावाहिकों के साथ भाजी ऑन द बीच, बेंड इट लाइक बेकहम, मिस्ट्रेस ऑफ स्पाइसेज जैसी फिल्मों के लिए भी इन्हें आमंत्रित किया जाता रहा.
दिल से, वीर जारा, कल हो न हो, सांवरिया या चलो इश्क लड़ाये जैसी पचासों फिल्में. जोहरा सहगल को कभी फिल्मों के लिए याद नहीं किया जा सकता. जोहरा सहगल की बस एक ही पहचान है, जोहरा सहगल की. कहने को इन्हें संगीत नाटक अकादमी सम्मान, कालिदास सम्मान, पद्मश्री, संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप और अब पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया. लेकिन जिसे ईश्वर ने ही सम्मानित किया हो उसके लिए इन सम्मानों का क्या अर्थ?
95वर्ष की उम्र में चीनी कम में जब वे युवतम खिलंदड़े उत्साह से भरपूर दिखती हैं तो मानना पड़ता है यह बगैर ईश्वरीय वरदान के तो संभव नहीं. या कह सकते हैं जोहरा के जीवट ने ईश्वर को भी मजबूर कर दिया है उनके लिए अपनी वक्त की रफ्तार थाम लेने को. विश्वास है हमें कायम रहेगा जोहरा का यह जीवट और थमी रहेगी उनके लिए वक्त की रफ्तार.
प्रभात खबर से साभार

अशोकनगर के बच्चे करेंगे "पार्टीशन"

शोकनगर इप्टा के किशोर एवं बाल नाट्य कार्यशाला में किशोर बच्चों द्वारा  पूर्णकालिक नाटक " पार्टीशन " तैयार करवाया जा रहा हैं | जाने-माने हिन्दी कथाकार स्वयं प्रकाश की इस चर्चित कहानी का नाट्य रूपांतरण सत्येन्द्र रघुवंशी ने किया है | सत्येन्द्र रघुवंशी मूल रूप से कवि हैं , यह खबर आपको भी सुखद लगे कि बीस साल की चुप्पी के बाद सत्येन्द्र लेखन में फिर नए सिरे से सक्रिय हुये हैं | इस नाटक का निर्देशन इप्टा की साथी सीमा कर रही हैं | नाटक का प्रदर्शन 25 मई को स्थानीय माधव भवन में किया जाएगा |



 उधर इप्टा के साथियों और बाल रंग शिविर के बच्चों के बीच वरिष्ठ कथाकार और कवि महेश कटारे " सुगम " ने बुन्देली गज़लों का पाठ भी किया | सुगमजी सबसे पहले ऐसे कवि हैं जिन्होंने बुन्देली में गज़लें लिखना शुरू किया | वे सही मायनों में किसान चेतना के कवि हें | अनेक नामी गजलकारों से वे बहुत आगे के कवि हैं | हिन्दी की इसे बिडम्बना ही कहेंगे की ऐसे सच्चे कवि आज हाशिये पर हैं  जो काम तो करते हैं पर उन्हें नाम बनाना नहीं आता |


इंदौर इकाई द्वारा ग्रीष्मकालीन बाल रंग शिविर


भारतीय जन नाट्य संघ की इंदौर इकाई द्वारा आयोजित ग्रीष्मकालीन शिविर का उद्घाटन 10 मई 2012 को किया गया। इस अवसर पर बच्चों ने जनगीत गाये, सफदर की कविता ‘‘ये कैसा घोटाला’’ का लघु नाटक के रूप में मंचन हुआ व बच्चों ने स्वरचित कविताओं का पाठ भी किया। कुछ बच्चों ने कत्थक नृत्य पेश किया तो वाही राज ने टेबल पर ही तीन ताल बजाकर सुनाया।



उद्घाटन के अवसर पर श्री कृष्णकांत निलोसे जी ने बाल मजदूरों पर अपनी लिखी एक कविता बच्चों को सुनाई, कामरेड शैला शिन्त्रे ने नदी की कहानी सुनाई और उस पर नाटक कैसे किया जा सकता है, यह बताया। इस अवसर पर कामरेड वसंत शिन्त्रे, श्री अशोक दुबे, श्री एस. के. दुबे, विनीत, अनुराधा, हेमंत आदि साथी बच्चों की हौसला-अफजा़ई के लिये मौजूद थे। इस मौके पर इप्टा के भिलाई सम्मेलन में शामिल हुये इंदौर इप्टा के सदस्यों को स्मारिका का वितरण भी किया गया।

Sunday, May 20, 2012

दूसरा बनवास: पाठ और सन्दर्भ


"कैफ़ी महकूम (ग़ुलाम) भारत में पैदा हुए, आजाद हिंदुस्तान में बूढ़े हुए. उनका विश्वास था कि वे सोशिलिस्ट हिन्दुस्तान में मरेंगे. जब तक समाजवादी हिंदुस्तान का सपना  इस देश, इस दूनिया में जिंदा है, तब तक कैफ़ी आज़मी हमारे बीच जिंदा रहेगे." कैफ़ी आज़मी की 10 वीं पुण्यतिथि पर पटना इप्टा द्वारा आयोजित संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए वरिष्ठ रंगकर्मी डा. जावेद अख्तर खान ने उक्त बातें कहीं. डा० अख्तर ने "दूसरा बनवास: पाठ और सन्दर्भ" विषय पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि वर्त्तमान सन्दर्भ में सामाजिक मर्यादायों और मूल्यों के मायने और उसकी अभिव्यक्ति में परिवर्तन आये हैं. इस सन्दर्भ में हमें आस्था और धर्म से सम्बंधित प्रतीक चिन्हों को भी देखना, समझाना और प्रयोग करना होगा. हमें यह सोचना चाहिए कि क्या धार्मिक प्रतीक सिर्फ नफरत और उन्माद फ़ैलाने वाले लोगो की ही जागीर हैं? जिस प्रकार कैफ़ी आज़मी ने 6 दिसंबर 1992 की घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए "दूसरा बनवास" नज़्म की रचना की और राम को अभी अभिव्यक्ति का हीरो बनाया, यह सशक्त उदाहरण है. कैफ़ी ने यह साहस उस समय किया जब बाबरी मस्जिद ढहायी गई थी और पूरा देश और देश की धर्मनिरपेक्ष मर्यादा धूमिल हो चुकी थी. उन्होंने आगे कहा के कैफ़ी को याद करने का मतलब उन सभी सपनों को याद करना हैं, जो कैफ़ी ने देखे थे. वो उस मिटटी से आते थे, जहाँ कृषण-कन्हैया भी हैं और हसन भी. धर्मनिरपेक्ष राजनीति से क्या मतलब है? क्या सारे प्रतीकों, सारे चिन्हों को नष्ट कर देना चाहिए? आज हम भागीरथ के तस्वीर के साथ सहज क्यों नहीं हो पाते हैं; जब कि वह आम आदमी के संघर्ष और लगन का प्रतीक चिन्ह है. हमें भारतीय सभ्यता को समझना होगा. अपनी अभिव्यक्ति का हिस्सा बनाना होगा. डा० जावेद ने कहा कि राम संघर्ष के उदहारण हैं, उनका पूरा जीवन एक संघर्ष रहा और जनता भी इसे स्वीकार करती है. और यह कोई धार्मिक आधार नहीं है. "सबे भूमि गोपाल की' हिंदी की एक लोकौक्ति है, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं समझना चाहिए कि यह पूरी दुनिया ईश्वर अर्थात भगवन श्री कृष्ण की नहीं है. राम जन्मभूमि - बाबरी मस्जिद विवाद में देश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की केवल इसी कारण हार हुई कि उसने एक एक कर सारे चिन्ह और प्रतीक एक फासीवादी सोंच वाली विचारधारा को सौप दिए. 

अल खैर चरिटेबल ट्रस्ट के अरशद अजमल ने कहा कि बाबरी माजिद के विध्वंस ने देश में इतने घर जलाये और लाखों को बेघर किया कि हिन्दुस्तानी राम को दुबारा वनवास जाना पड़ता है. अयोध्या कि आग ने उन तमाम वेश बदले अलोकतांत्रिक, फासीवादी और मौकापरस्त ताकतों को बेनकाब कर दिया जो राम नाम की राजनीति करते थें. कैफ़ी ने "दूसरा बनवास" नज़्म से वही आग फिर जलाई और हिन्दुस्तानी फासीवाद की कलाई खोल दी. वरिष्ट संस्कृतिकर्मी विनोद कुमार ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हमें शब्दों के माया जाल से निकल कर समझाना होगा. खुद से सवाल करना होगा. यह जानना होगा कि हिंसा क्या है? एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के साथ क्या सम्बन्ध है? हमें अब यह तो समझ ही लेना चाहिए कि परिभाषाएं कोई जीव-जंतु नहीं हम मानव ही बनाते हैं.

संगोष्ठी का संचालन करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव डा० फीरोज़ अशरफ खान ने कहा कि कैफ़ी आज़मी इप्टा की राजनीति और सामाजिक प्रतिबद्धता के प्रतीक थे. इप्टा की स्वर्ण जयंती के अवसर पर दिए सन्देश में कैफ़ी ने कहा था की "राजनीतिज्ञ अपना हर एक कदम यह सोच कर उठाते हैं कि इस कदम से उनके कितने वोट बढ़ेंगे या घटेंगे". उनकी पुण्यतिथि मनाने के पीछे हमारा ध्येय अपनी जनसान्स्कृतिक अभिव्यक्ति का प्रकटीकरण है. उन्होंने आगे कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के निर्णय और उसके बाद समाज के एक खेमे में ख़ुशी और एक खेमे में चुप्पी ने हमें परेशां किया था. हम यह समझाना चाह रहे थें कि यह ख़ामोशी, यह चुप्पी क्यों है. हमने इस सवाल को अपने संगठन, सार्वजानिक मंचों पर जानने-समझाने की कोशिश कि. इसी क्रम में हम कैफ़ी कि इस रचना "दूसरा बनवास" में ढूढने की कोशिश की है. आज का आयोजन एक बड़ी चर्चा की तैयारी है जहाँ हम आपसी समझ को समाज के हर एक वर्ग, हर तबके के साथ संवाद स्थापित करने का प्रयास करेंगे. कैफ़ी ने जिस प्रकार सांप्रदायिक ताक़तों को उन्ही के हथियार से जवाब दिया वह ना सिर्फ अद्वतीय है बल्कि असंभव है. बिहार इप्टा के महासचिव तनवीर अख्तर ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता और समाज समरसता के अंतर्संबंध को एक पार फिर से समझने और जनता के बीच जाने की ज़रूरत है.

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक आसिफ अली ने कहा कि आज जब दुनिया के सारे बाज़ार आपस में जुड़ गए हैं और सारे निर्णय बाज़ार में तय हो रहे हैं, तो हमें धर्म, धार्मिकता और धर्मनिरेपेक्षता को फिर से देखना समझना होगा. संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरीय सामाजिक कार्यकर्ता श्री रुपेश जी ने कहा कि बाज़ार ने जहा एक और हमें ग्लोबल बनाया है वही हमें बेड रूम तक भी सीमित कर दिया है. सामजिक सरोकार घटे हैं और मूल्यों का ह्रास हुआ है. संस्कृति की मर्यादाएं तक भंग हुए हैं. ऐसे संदर्भ में "दूसरा बनवास" का पाठ एक साहसिक काम है.

संगोष्ठी में युवा रंगकर्मी रवि कान्त, पटना इप्टा की सचिव डा उषा वर्मा, पियूष सिंह, विशाल तिवारी, राजनन्दन,  राष्ट्रीय नाट्य विधालय के स्नातक वंदना बशिष्ठ, दीपक, विनय कुमार, सहित कई रंगकर्मी, संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार उपस्थित थे. संगोष्ठी की शुरुआत में सीताराम सिंह ने "दूसरा बनवास" का गायन किया.

इस अवसर पर बिहार इप्टा की अन्य इकाइयों ने भी विशेष कार्यक्रम आयोजित किये. आरा इप्टा, मधेपुरा इप्टा, बेगुसराई (बीहट) इप्टा, सिवान इप्टा, पटना सिटी इप्टा, छपरा इप्टा, कटिहार इप्टा सहित अन्य शाखाओं से कार्यक्रम आयोजित करने कि सूचना मिली हैं.

प्रस्तुति : संजय सिन्हा

Monday, May 14, 2012

IPTA : BHILAI DECLARATION


INDIAN PEOPLE’S THEATRE ASSOCIATION (IPTA)
XIII NATIONAL CONFERENCE

26 – 28 DECEMBER, 2011 : KAMLA PRASAD NAGAR, BHILAI


BHILAI DECLARATION


Representatives of people’s culture in all its manifestations from all over India, meeting at the 13th National Conference of the Indian People’s Theatre Association (IPTA), 26 – 28 December, 2011, at Bhilai with its rich historical associations manifest in the Bhilai Steel Plant, the first monument of an agenda mooted by Prime Minister Jawaharlal Nehru for building a democratic, socialist economy by strengthening the public sector, on one hand; and the rich convergence of traditional folk culture, tribal history and memory, and progressive creativity, best achieved in the militant experimentation of our late lamented fellow activist Habib Tanveer, on the other hand; share a common concern over the threat to the secular, humanist, composite culture that has been the cherished heritage of the IPTA, spelt by the assault on these values by a profit-hungry, mercilessly market-driven aggressive capitalism, operating through a State-capital-media nexus vaunting the slogan of the liberal reforms, riding roughshod over the rights and sustenance of the underprivileged; and reiterate their firm commitment to a culture dedicated to the empowerment of humanity in its quest for Socialism, equality, and social justice; and drawing on, repeating with greater vigor the declaration of the earlier conference, and developing on them, resolve
To work through continuous exchange and sharing and mobilization among constituents and fellow activists in other likeminded organizations and similarly engaged individuals, and through their concerted creative endeavour:
1.      To broaden the perception and vision of people and emancipate them from all fears and prejudices;
2.      To spread awareness of the operation of the capitalist forces and consumerist drivers aimed at weakening people’s resistance;
3.      To ensure communal harmony among all denominations, religious or otherwise;
4.      To contribute to and engage in the struggle of the working classes, the marginalized tribal communities, women suffering from gender discrimination and persecution, the underprivileged and dispossessed;
5.      To resist all forms of censorship imposed by the State or other reactionary bodies and uphold the freedom of creative expression;
6.      To encourage and support creative experimentation and rigorous training in both artistic and technical skills and appreciation, to enrich the artistic vocabulary and repertoire and make it accessible meaningful to people;
7.      To discover, disseminate, archive, critically examine and analyze, revive, restore, develop and promote the traditional and folk idioms in every region and community in the country;
8.      To seek ways and means to intervene in film and media scene ruled by regressive, commercial values in the form of dissemination of film packages representative of the values projected by the Soviet and Latin American cinema, the Indian New Wave of the 19060s-70s, and the great tradition of the progressive documentary cinema, and workshops allowing activists access to digital filmmaking with a purpose;
9.      To break down the artificial divides between the elite and the popular and improvise bridges between the two; exploring the possibility of a simplicity in idiom and expression for the representation of the more complex realty confronting the people today;
10.  To carry the scientific temper and the Marxist approach into the study and practice of the arts and their relation to society; consistently related to the historical process;
11.  To carry forward the great legacy of Progressive Cultural Movement founded in 1936 in the name of Progressive Writers’ Association;
12.  To examine, imbibe and disseminate the great works of Faiz Ahmed Faiz, Kedarnath Agrawal, Shamsher Bahadur Singh, Majaz Lucknowavi, Nagarjun, Vamik Jaunpuri, Bhagavati Panigrahi, Vishnu Prabhakar, Aashapurna Devi, Vishnuprasad Rabha, Makhdoom Mohiuddin, Shree Shree, Jyotirindra Moitra, Hemango Biswas, K. K. Hebbar, Ramvilas Sharma, Debabrata Biswas, Ashok Kumar, Upendra Nath Ashq, Gopal Singh Nepali, Bhubhaneshwar, Dr. Dwarikanath Kotnis, whose centenaries we are celebrating, and Rabindranath Tagore, whose 150th birthday and the centenary of the national anthem that we owe to him are also being celebrated; and the values they embody;
13.  To critique, challenge and carry on a persistent struggle the inroads into the art and pressures that are being brought to bear upon culture by the forces of the new aggressive globalizing capitalism, endangering the survival of our most cherished human concerns and values;
14.  To improve the connections and coordination between the central office of the IPTA and all the units at every level through the development of an interactive website and blogging;
15.  To improvise, consolidate and pursue a comprehensive agenda towards achieving the maximum understanding, appreciation, and sharing of all the cultural expressions of the country by the people of India divided by economic, linguistic, territorial and cultural barriers; accomplishing in the process a cultural integration that can give the country a single voice in its assertion of the rights of the people and the undying hope of Socialism.

LONG LIVE PEOPLE’S CULTURE !

The history of IPTA


IPTA is the short form for Indian People’s Theatre Association. In the Hindi belt it is called Bhartiya Jan Natya Sangh, in Assam and West Bengal, Bhartiya Gana Natya Sangh (Gana Sanskriti Sangh)and in Andhra Pradesh, Praja Natya Mandali. The mission statement of IPTA is ‘People’s Theatre Stars the People’. The symbol/logo designed by the famous painter Chitta Prasad is a drummer (nagara vadak), which is a reminder of one of the oldest medium of communication. IPTA was established at the national level on May 25, 1943 in Bombay (now Mumbai). The Government of India issued a commemorative stamp in 1993 on the occasion of its Golden Jubilee.

The history of IPTA runs parallel to the people’s cultural movement in the country and relates to the independence and the anti-fascist movements.

The origin of IPTA followed the first Progressive Writer’s Association Conference in 1936, the Establishment of Youth Cultural Institute at Calcutta in 1940, and setting up of the People’s Theatre at Bangalore by Anil De’ Silva of Sri Lanka in 1941. Anil De’ Silva assisted in formation of IPTA in Bombay in 1942. Various progressive cultural troupes, theatre groups and other progressive cultural activists came together spontaneously and at their own initiative for the formation of IPTA. The name People’s Theatre was suggested by the renowned scientist Homi Jahangir Bhabha who was inspired by Romain Rolland’s book on the concepts of People’s Theatre.

The devastating man-made famine of Bengal in 1942 inspired many a progressive writers and artists. One of them was Binoy Roy who organized Bengal Cultural Squad to sensitize about the impact of famine on the people and to collect money to support the victims. The Squad traveled through the breadth of the country presenting their choir ‘Bhookha Hai Bengalcreated by Vamik Jaunpuri and other songs and plays. Musician Prem Dhawan , drum player Dashrath Lal, singer Reva Roy, actress Usha Dutt were also a part of the Squad. Motivated by the Squad, several cultural groups were formed, including the Agra Cultural Squad. When these groups became effective in their regions, a need was felt to organize them at the national level. Ideologically these groups were inspired by the left movement and the then General Secretary of the Communist Party of India, P.C. Joshi, played an instrumental role to bring these groups on a common forum. General Secrtetary of Progressive Writers’ Association Sajjad Zaheer also contributed a lot.The Indian People’s Theatre Association was thus born.

IPTA came into existence on May 25, 1943 at the National Conference at the Marwari School in Bombay. It was attended by creative artists from all over the country. In his Presidential Address, Professor Hiren Mukherjee gave a call to all those present: “Come writer and the artist, come actor and the play-wright, come all who work by hand or by brain,dedicate yourselves to the task of building a brave new world of freedom and social justice.” The first National Committee comprised of Trade Union Leader N.M. Joshi as the President, Anil De’ Silva as the General Secretary, Khwaja Ahmed Abbas as the Treasurer, Binoy Roy and K.D. Chandi as the Joint Secretaries. The National Committee and regional committees comprised of leading progressive artists from Bombay, Bengal, Punjab, Delhi, Uttar Pradesh, Malabar, Mangalore, Hyderabad, Andhra Pradesh, Tamil Nadu and Karnataka and representatives of various mass organizations. Pt. Jawahar Lal Nehru had sent his message for the Conference. In Conferences that followed Smt. Sarojini Naidu, Dr. Rajendra Prasad and other leaders also sent their messages.

The second and the third Conferences were also held in Bombay in 1944 and 1945. The fourth Conference was held at Calcutta in 1946, fifth at Ahmedabad in 1948, sixth at Allahabad in 1949 and seventh at Bombay in 1953. During this period many progressive thinkers took organizational roles including Anna Bhau Sathe, Khwaja Ahmed Abbas, Vallathol, Manoranjan Bhattacharya, Niranjan Sen, Dr. Raja Rao, Rajendra Raghuvanshi, M. Nagabhushanam, Balraj Sahani, Eric Cyprian, Sarla Gupta, Dr. S.C. Jog, Binoy Roy, V.P. Sathe, Sudhi Pradhan, Bimal Roy, Tera Singh Chann, Amritlal Nagar, K. Subramaniam, K.V.J. Namboodri, Shiela Bhatia, Dina Gandhi (Pathak), Surinder Kaur, Abdul Malik, R.M. Singh, Vishnu Prasad Rawa, Nagen Kakoti, Janardan Kurup, Nemi Chandra Jain, Venkat Rao Kandilker, Salil Chaudhry, Hemang Biswas, and Amar Sheikh.

The eighth National Conference was held at Natraj Nagri - Ramleela Maidan, Delhi from December 23, 1957 to January 1, 1958. The conference was attended by more than 1000 artists from all over India and inaugurated by the then Vice President Dr. S. Radhakrishnan. The National Committee comprised of Sachin Sen Gupta (Calcutta) as the President, Vishnu Prasad Rava (Gauhati), Rajendra Raghuvanshi (Agra) and K. Subramaniam (Madras) as the Vice Presidents, Niranjan Sen (Calcutta) as the General Secretary, Nirmal Ghosh (Calcutta), Radheyshyam Sinha (Patna), Dr. Raja Rao (Andhra Pradesh) Mughani Abbasi (Bombay) as the Joint Secretaries, and Sajalrao Chaudhary as the Treasurer. Other members of the committee comprised leading artists from Bombay, Assam, Manipur, Bihar, Orissa, Delhi, Punjab, Madhya Pradesh, Uttar Pradesh, Mysore, Rajasthan, Gujarat, Tamil Nadu and West Bengal.

IPTA’s cultural movement portrayed contemporary reality through visual art, traditional art forms with modern thought. It created awareness for socio-political change. The members of IPTA who favoured Art for life (Kala Jeevan Ke Liye) developed a new vision towards arts and aesthetics. They established a new definition of the relationship between art, artists and the audience. IPTA absorbed the live elements of Indian culture, established relationship with the progressive assets of world culture and itself contributed to the world of art by its creativity. IPTA members were oppressed time and again by the power for their progressive and revolutionary ideas and expressions.

The modern choir singing in India was initiated by IPTA. Pt. Ravi Shankar composed Iqbal’s ‘Sare Jahan Se Achha…..’ for the Central Cultural Troupe of IPTA established in 1944. Binoy Roy, Salil Chaudhary, Hemang Vishwas, Prem Dhawan, Narendra Sharma, Sahir Ludhianvi, Shankar Shailendra, Makhdoom Muhiuddin, Sheel, Vallathol, Jyotirmai Moitra, Jyoti Prasad Agrawal, Bhupen Hazarika, Anil Biswas and many others penned and composed songs in different languages. They were responsible for initiating Janasangeet (people’s music) and led it to new heights.
                                                                                                                               
The dance drama of the Central Troupe, namely, Bharat ki Atma (The Spirit of India) and Amar Bharat (Etenal India) made a historic contribution. These presentations involved Ravi Shankar, Binoy Roy, and Aboni Das Gupta as musicians, Shantivardhan and Nagesh as dance directors and Prem Dhawan as lyricist. Simultaneously, traditional folk forms were provided contemporary context by Jyotirmai Moitra in his ‘Navjeevner Gaan’ (dance drama), and by Dr. Raja Rao of Andhra Pradesh in Burra Katha, Veethi Natak, and Hari Katha. The Machhua dance of Malabar and folk dances of North India also gave a new identity to the people’s art. Amar Sheikh’s folk songs in Marathi and Magai Ojha’s Assamese folk instrumental music also found their place in the movement.

IPTA gave a new direction to Indian theatre. It presented people’s pains and sorrows, dreams and ambitions in a new form breaking down the existing and conventional forms. Bijon Bhattacharya’s play ‘Navaanna’ (The New Crop) proved to be path breaking. Shankar-Vasireddy’s ‘Maa Bhumi’, Toppil Bhasi’s ‘Tumne Mujhe Communist Banaya’ (You Made Me a Communist) along with the plays of Dr. Rashid Jahan, Khwaja Ahmed Abbas, Ali Sardar Jafri, T. Sarmalkar, Balwant Gargi, Jaswant Thakkar, Mama Varerkar, Acharya Atrey, and others established the realistic theatre in the country. Directors and actors included Balraj Sahni, Shambhu Mitra, Habib Tanvir, Bhishma Sahni, Dina Pathak, Rajendra Raghuvanshi, R.M. Singh, Uttpal Dutt, A.K. Hangal, Rameshwar Singh Kashyap, Shiela Bhatia and others. Shadow plays and extempore plays were experimented. Tapas Sen made his contribution in stage light effects and Shilpi Kumar in set design. The professional repertory KPAC (Kerala People’s Art Club) is celebrating its diamond jubilee (60th) this year.

IPTA produced a film Dharti Ke Lal in 1946. This was based on Bijon Bharttacharya’s dramas ‘Navaann’ and ‘Antim Abhilasha’. This film was directed by Khwaja Ahmed Abbas with music direction by Pt. Ravi Shankar, dance direction by Shanti Vardhan and lyrics by Ali Sardar Jafri and Prem Dhawan. Shambhu Mitra, Tripti Mitra, Balraj Sahni, Damayanti Sahni, Usha Dutt, and hundreds of farmers, students, and labourers acted in the film. Many other artists of IPTA including Ritwik Ghatak established their own identity in the film world and affected the realistic cinema stream.

The phase of disintegration (1960-1984)

Around 1960, IPTA disintegrated at the national level though units in Bombay, Uttar Pradesh, Bihar, Kerala, Andhra Pradesh and some other places continued their activities. Many theatre groups continued to extend their progressive ideology working independently. During this period Shambhu Mitra’s theatre group ‘Bahuroopi’, Habib Tanvir’s ‘New Theatre’, Ruma Guha Thakurta’s ‘Calcutta Youth Choir’ ,M.B.Shrinivasan’s ‘Madras Youth Choir’ made a mark. Shanti Vardhan, Uttpal Dutt and many others also had performing groups. Inspired by the legacy of People’s Cultural Movement, Jan Natya Manch, Jan Sanskriti Manch, and many other organizations also came into being. In early 1980’s a dialogue was established between IPTA units across the country and attempts were made to reconstitute the National organization.

Resurgence


IPTA’s national convention was called in 1985 at Agra, where 300 representatives from 15 states participated. This was an initiative to reconstitute IPTA at the National level. After more than two decades, in 1986, the ninth National Conference was held at Hyderabad. The noted film director Shyam Benegal inaugurated the Conference. Kaifi Azmi was elected as the President. Hemang Viswas, Rajendra Raghuvanshi, C. Nagabhushnam, A.K. Hangal, Dina Pathak, M.S. Sathyu, Bhishm Sahni, Subrat Banerjee, Sayyad Abdul Malik, Toppil Bhasi, Rameshwar Singh Kashyap, Narayan Surve, M.V. Sriniwasan, Jaswant Thakkar, Surinder Kaur and Ruma Guha Thakurta were elected as Vice Presidents. Other office bearers were: Govind Vidyarthi as General Secretary, Abid Razvi, K. Pratap Reddy, Jitendra Raghuvanshi, Tanvir Akhtar, and Amitabh Pandey as Secretaries.

The Conference declaration said: We, the old and new workers of IPTA re-dedicate ourselves to organize IPTA into a powerful and effective National Movement. We trust the people of India who are countering the divisive forces in the country and we take pride in building live cultural relationships by joining hands.

The Tenth National Conference was held at Jaipur in 1992, the eleventh at Trissure (Kerala) in 2001,  the Twelfth at Lucknow in 2005 and The Thirteenth at Bhilai(Chhattisgarh) in 2011. Freedom fighter, renowned theatre and film artist Padma Bhushan Shri. A. K. Hangal is currently the President of IPTA National Committee and Senior dramatist–director Ranbir Singh is the Working President. Presently more than 600 units of IPTA are active in 24 states and union territories across the country.


- Jitendra Raghuvanshi
General Secretary
IPTA