Thursday, November 20, 2014

40 साल बाद फिर रिलीज हुई 'गर्म हवा'

भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'गर्म हवा' को शुक्रवार को दोबारा रिलीज हुई। गर्म हवा वर्ष 1973 में बनी यह फिल्म आगरा के मुस्लिम परिवार की दास्तान को बयान करती है। मशहूर लेखिका इस्मत चुगताई की कहानी को कैफी आजमी और शमा जैदी ने पटकथा में बदला। बलराज साहनी ने मुख्य किरदार सलीम मिर्जा की भूमिका निभाई। ए.के. हंगल चरित्र भूमिका में दिखे। फिल्म के निर्माण में इप्टा के आगरा स्थित रंगकर्मियों और स्थानीय कलाकारों ने सक्रिय सहयोग दिया। प्रगतिशील विचारों से प्रेरित यह फिल्म समानधर्मी कलाकारों और तकनीशियनों का सामूहिक प्रयास थी। अपने समय में गर्म हवा हिंदी सिनेमा के मुख्यधारा से अलग बनी थी।

फिल्म का हुआ पुन: निर्माण
फिल्म फायनेंस कॉरपोरेशन के सहयोग से बनी ‘गर्म हवा’ आजादी के बाद पहली बार विभाजन के दुष्प्रभाव को  प्रस्तुत करती है। 1973 सीमित बजट में बनी ‘गर्म हवा’ आज के दौर के इंडेपेंडेट फिल्मकारों जैसी ही पहल कही जा सकती है। इप्टा मे सक्रिय एम.एस. सथ्यू ने समान विचार के तकनीशियनों और कलाकारों को जोड़ कर यह फिल्म पूरी की थी। दस लाख की लागत से बनी फिल्म को डिजिटली रिस्टोर करने में तकरीबन डेढ़ साल का वक्त लगा और दस गुना ज्यादा खर्च हुआ।

फिल्म के निर्देशक एमएस सथ्यू ने बताया कि फिल्म के निगेटिव खराब हो गए थे। ऐसे में उसे डिजिटली स्टोर करना जरूरी हो गया था। साउंड क्वालिटी को लॉस एंजिलिस के स्टूडियो में ठीक किया गया। उनके मुताबिक सच्चाई पर आधारित इस फिल्म के किरदार के बारे में जानते ही बलराज साहनी काम करने को तैयार हो गए थे।
फिल्म को तकरीबन चार दशक बाद रिलीज करने के सवाल पर सथ्यू ने कहा कि वह चाहते हैं कि आज की पीढ़ी भी इसे देखे। उन्होंने पुरानी अच्छी फिल्मों को फिर रिलीज करने की भी सलाह दी। हालांकि, उन्होंने आज की फिल्मों को लेकर नाखुशी जाहिर की। सथ्यू अगले साल एक क्लासिकल म्यूजिकल फिल्म बनाने की योजना बना रहे हैं।

फिल्म की कहानी
1973 में आई एम एस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ का हिंदी सिनेमा के इतिहास में खास महत्व है। यह फिल्म बड़ी सादगी और सच्चाई से विभाजन के बाद देश में रह गए मुसलमानों के द्वंद्व और दंश को पेश करती है। यह आगरा के मिर्जा परिवार की कहानी है।


हलीम मिर्जा और सलीम मिर्जा दो भाई हैं। दोनों भाइयों का परिवार मां के साथ पुश्तैनी हवेली में रहता है। हलीम मुस्लिम लीग के नेता हैं और पुश्तैनी मकान के मालिक भी। सलीम मिर्जा जूते की फैक्ट्री चलाते हैं। सलीम के दो बेटे हैं बाकर और सिकंदर। एक बेटी भी है अमीना। अमीना अपने चचेरे भाई कासिम से मोहब्बत करती है। विभाजन की वजह से उनकी मोहब्बत कामयाब नहीं होती। हलीम अपने बेटे को लेकर पाकिस्तान चले जाते हैं। कासिम शादी करने के मकसद से आगरा लौटता है, लेकिन शादी की तैयारियों के बीच कागजात न होने की वजह से पुलिस उन्हें जबरन पाकिस्तान भेज देती है। दुखी अमीना को फूफेरे शमशाद का सहारा मिलता है, लेकिन वह मोहब्बत भी शादी में तब्दील नहीं होती। दूसरी तरफ सलीम मिर्जा आगरा न छोड़ने की जिद्द पर अमीना की आत्महत्या और पाकिस्तानी जासूस होने के लांछन तक अड़े रहते हैं। संदेह और बेरूखी के बावजूद उनकी संजीदगी में फर्क नहीं आता। उन्हें उम्मीद है कि महात्मा गांधी की शहादत बेकार नहीं जाएगी। सब कुछ ठीक हो जाएगा।

विभाजन पर बनी हैं कई फिल्में
एम एस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ पहली बार विभाजन के दर्द और स्पष्ट दृष्टिकोण के साथ पर्दे पर पेश करती है। हिंदी फिल्मों में इसके पहले भी विभाजन के संदर्भ मिलते हैं, लेकिन कोई भी निर्देशक सतह से नीचे उतर कर सच्चाई के तल तक जाने की कोशिश नहीं करता। देश के विभाजन और आजादी के बाद ‘लाहौर’ (1949), ‘अपना देश’ (1949), ‘फिरदौस’ (1950), ‘नास्तिक’ (1959), ‘छलिया’ (1960), ‘अमर रहे तेरा प्यार’ (1961) और ‘धर्मपुत्र’ (1961) में विभाजन के आघात से प्रभावित चरित्र हैं। इनमें से कुछ में अपहृत महिलाओं की कहानियां है तो कुछ में सिर्फ जिक्र है। दशकों बाद गोविंद निहलानी के धारावाहिक ‘तमस’ और डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के ‘पिंजर’ में फिर विभाजन की पृष्ठभूमि मिलती है। ‘पिंजर’ में डॉ. द्विवेदी ने अपहृत पारो के प्रेम और द्वंद्व को एक अलग संदर्भ और निष्कर्ष दिया, जो मुख्य रूप से ‘पिंजर’ उपन्यास की लेखिका अमृता प्रीतम की मूल सोच पर आधारित है।

साल 2000 में अनिल शर्मा की ‘गदर’ में भी विभाजन का संदर्भ है, लेकिन यह फिल्म भारत के वर्चस्व से प्रेरित अंधराष्ट्रवादी किस्म की है। ‘गदर’ अतिरंजना से बचती तो सार्थक फिल्म हो सकती थी। हिंदी फिल्मों में देश के विभाजन पर फिल्मकारों की लंबी चुप्पी को ‘गर्म हवा’ तोड़ती है। इस फिल्म में लेखक-निर्देशक ने विभाजन की पृष्ठभूमि में आगरा के सलीम मिर्जा और उनके परिवार के सदस्यों के मार्फत मुसलमानों की सोच, दुविधा, वास्तविकता और सामाजिकता को ऐतिहासिक संदर्भ में संवेदनशील तरीके से समझने और दिखाने की कोशिश की।
सत्यजित राय ने ‘गर्म हवा’ के बारे में लिखा है, ‘विषयहीन हिंदी सिनेमा के संदर्भ में ‘गर्म हवा’ ने इस्मत चुगताई की कहानी लेकर दूसरी अति की। यह फिल्म सिर्फ अपने विषय की वजह से मील का पत्थर बन गई, जबकि फिल्म में अन्य कमियां थीं। सचमुच, इस फिल्म में तकनीकी गुणवत्ता और बारीकियों से अधिक ध्यान कहानी के यथार्थ धरातल और चित्रण पर दिया गया। 1973 में प्रदर्शित हुई अन्य हिंदी फिल्मों की तुलना में ‘गर्म हवा’ छोटी फिल्म कही जा सकती है, जिसमें न कोई पॉपुलर स्टार था और न हिंदी फिल्मों के प्रचलित मसाले।’

साभार : हिंदुस्तान

Stealing the Icons

-Ranbir Singh
All national and regional political parties have their own icons. One wonders how  come BJP does not have an icon. They do have, in Veer Savarkar, Golwalkar,  Hedgawar, but do not owe them in public. It is not a secret that BJP is one of the  tentacles of the Octopus RSS. For all these years BJP appeared as the shadow of  RSS. But not now they have  come out in open, have won the election, have formed the government, and many members of RSS have joined BJP, and the fatwa has been given that only loyal  members of RSS will be appointed as the ministers in the central cabinet and  in the regional governments, Vice Chancellors of the Universities ,Head of all Art and Cultural institutions. Once they have come out openly on the apron in front of the curtain, why are they shy, and are forced to  steal the icons of congress. They should be bold enough to owe their mentors and announce firmly the agenda of Hindutatva which was taught to them in the Shkhas of RSS. 

How could they avoid Father of the Nation. I wonder whether it was boldness or foolishness on their part to forget the three gun shots which  were fired on the 3o January 1948,which  shook the World ,and stole Gandhiji. But not having a wider vision ,intellect, and ability they failed to choose the most important thing that Gandhiji stood for, the Unity among all., the teachings of Gita, the Truth, the self respect, and allow the good thoughts to come from all directions. For which he gave up his life. They took cleanliness{Swatch Bharat} and brought Gandhi on the roads. It was not dignified, respectful, honourable, to see the Prime Minister, and his army of sycophants sweeping the roads with large brooms. In my eyes it was down right insult of Gandhiji. If they had to steal Gandhi there were better things to take, which would have given strength to the society and lead it to glory and not to chaos as it is now. Gandhiji was for the poor, his eyes  saw the blood of the poor in the jewels of the princes, he abhorred everything foreign, he burnt the foreign clothes ,today the foreigners are being invited to make things in India,while Nehru wanted things to be made by India. Gandhiji  was against the mafia of the rich. The roads are being cleaned, the social media covers the incident to make money, headlines are given in the press, while the poor are left uncared, Ganga-Jamani culture is in dire danger, the rich are making hay while the sun shines, Universities and Cultural Institutions are systematically being destroyed. There is nothing of Gandhi left but his spectacles on the government advertisement. Is it this treatment that Father of the Nation should get. Shameful.  Jawahar lal Nehru trusted RSS and invited them to participate in the celebrations of the first independence in 1947. But it stabbed him on his back on 30 January, which enraged Nehru who ordered the ban on it for lifetime. Since then Nehru has been enemy number one for them. Whatever the spokesperson of BJP and others say, it is absolutely true, that, it is the agenda number one, that, to destroy everything that Nehru stood for and did. This is very systematically being done. 

They had no icon to put against Nehru, so once again they had to steal Sardar Patel from Congress. It was on his feet that the  leaders of RSS did dandwat and seeked his pardon, and gave it in writing that RSS will never indulge in politics. Although he was an iron man, but had a soft heart and made a big mistake of pardoning them. One of the spokesman or the Parcharak of BJP, one must admire the training that they have received that to blabber without logic and reasoning, at a speed without a pause. Their speech in the words of Shakespeare is “a Tale told by an idiot, full of sound and fury, signifying nothing.”  in a debate on T.V. remarked that the chaos of Ayodhya was made by Nehru, and the renovation of the temple of Somnath was done by Patel. The human memory is very weak. People have forgotten that the scheme of renovating Somnath was that of K.M.Munshi and Jam Sahib Digvijaysinhji of Jamnagar. Attributing it to Patel is Undoubtedly Sardar played a very important role in integrating  the Indian Princes to the Indian Union, but could he have done alone, without the consent of 

Jawaharlal Nehru, the Prime Minister and his cabinet. There are very few eyewitnesses of the time left to tell the story as how Nehru and Patel played the game of Love and hate to bring the 530 odd Indian princes, members of the Chamber of Princes. It was the combined effort of both of them which was most successfully achieved. To isolate one or the other will be a historical mistake. If the BJP continues to steal more icons of congress they will expose themselves more. I do not know who are the think tank of BJP, but lately they have stolen  

Maulana Azad on the Education day. Any one who sees the advertisement the question comes to mind, that in Nehru’s cabinet was such a great scholar who wrote several books and “GHUBAR-I-KHATIR” is a masterpiece, But Modi’s cabinet has a minister who have not received any formal education from any University , and some others are who have tampered their marksheets. I request the social media to spare some time and make a comparative study of the cabinet of Nehru and of Modi. Realisation will dawn upon them that there is something wrong in 

However BJP and its sycophants try to demolish Nehru, they will never, never succeed, but will expose themselves. One can not compare Nehru and other big leaders of those days, with the present ones, who are just the passing shadows.

Tuesday, November 11, 2014

रवींद्रनाथ ठाकुर के चार नाटक

-चंद्रकला
वींद्रनाथ ठाकुर के चार नाटकों का नाट्य-रूपांतरण करने वाली प्रतिभा अग्रवाल का नाम रंगमंच और नाट्यकर्म से जुड़े लोगों के लिए बहुत ही सम्माननीय है। अपनी रचनात्मक ऊर्जा से उन्होंने न सिर्फ नाट्य विधा को ही समृद्ध किया है, अपितु रंगमंच पर भी सक्रिय भूमिका निभाई है। कभी नाट्य रूपांतरण करके, तो कभी अभिनेत्री के रूप में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाकर। यथा नाम तथा गुण। साहित्यिक सक्रियता ने उनके इस स्वरूप को और अधिक मांजने का ही कार्य किया है। इस दिशा में प्रतिभा अग्रवाल का नि:स्वार्थ समर्पण ‘चार नाटक: रवींद्रनाथ ठाकुर’ के रूप में जिस प्रकार सामने आया है, वह हिंदी नाट्य साहित्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। हिंदी में नाटकों के अभाव का रोना रोने वालों के लिए ये नाटक एक चुनौती भी उपस्थित करते हैं। साहित्य में भाषाओं के कारण जो दूरी है, उसके लिए अनुवाद ही वह माध्यम है जिसके द्वारा हम आसानी से एक दूसरे के विचार ग्रहण करते हैं। नाटकों के लिए तो यह विधा सर्वाधिक उपयोगी रही ही है, हिंदी ने इस क्षेत्र में भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अन्य अंतरराष्ट्रीय भाषाओं को भी मुक्त रूप में स्वीकार कर अपनी उदारता और भंडार में श्रीवृद्धि की है।
अनुवाद कार्य अपने आप में ही श्रमसाध्य और दुष्कर है। वह भी पद्यात्मक गद्य का, जो लालित्य और सौंदर्यबोध से परिपूर्ण हो। जिसके लिए न सिर्फ लक्ष्य भाषा और स्रोत भाषा में पूर्ण पारंगत होना जरूरी है, अपितु उस रचनाकार के शिल्प के मर्म को आत्मसात करना भी जरूरी है। इस दृष्टि से भी यह पुस्तक न सिर्फ उल्लेखनीय है, बल्कि अनूदित पुस्तकों की श्रेणी में भी सर्वोपरि है। लेखिका ने चारों ही नाटकों की आत्मा को सुरक्षित रखते हुए जिस क्लेवर में इनको रूपांतरित किया है, उसको उन्होंने अपने शब्दों में स्वीकार भी किया है। ”रवींद्रनाथ की रचनाओं का अनुवाद कड़ी परीक्षा की तरह होता है। कथ्य के गूढ़ार्थ को समझना, उसे हृदयंगम करना, किसी अन्य भाषा में उसके लिए उपयुक्त शब्दावली पाना, लेखक के कवित्व को बरकरार रखते हुए और शिल्प के सौंदर्य को सुरक्षित रखते हुए अनुवाद करना साहसपूर्ण नहीं वरन एक साहसी काम होता है, फिर भी लोग करते रहते हैं।”
इस चुनौती को स्वीकार करते हुए ही लेखिका ने यह महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। यह इस पुस्तक को पढ़ते हुए लक्षित होता है। एक बार नहीं कई बार इनका नाट्य पाठ्य करके, उचित सुधार करते हुए इन्हें रंगमंचीयता की दृष्टि से परिष्कृत करके लेखिका ने अपनी नाट्यधर्मिता का ही परिचय दिया है, जो साहित्य और रंगमंच दोनों ही दृष्टियों से सराहनीय है। इसके अतिरिक्त इस पुस्तक में एक और आकर्षण है। वह है इसमें दिया गया मूलगीत और उनकी स्वर लिपि, जो बांग्ला भाषा के मूल आस्वाद को बनाए रखना चाहेंगे उसका यथास्थान प्रयोग कर सकते हैं।
लगभग पांच दशक के लंबे इतिहास में इन चारों नाटकों का लिखना, प्रस्तुत होना और कमियों का पुन: परिष्कार करते हुए भी संतुष्ट न होना लेखिका की कठिन जिजीविषा को ही दर्शाता है। या कह सकते हैं जिस रूप में आज यह पुस्तक पाठकों के हाथ में है, यह उसी मेहनत और लगन का परिणाम है। विसर्जन, लाल कनेर (रक्तकरबी), घर और बाहर (घरे बाहरे, उपन्यास) तथा शेष रक्षा, चारों ही नाटकों की रचनात्मक पृष्ठभूमि एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न है। उसके बाद भी अपने कलेवर में ये चारों नाटक अनेक महत्त्वपूर्ण समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में अपने उद्देश्य को सार्थक करते हैं।
विसर्जन जहां एक तरफ काली मंदिर में दी जाने वाली बलि से संबंधित है, वहीं लाल कनेर कोयला खदानों में चल रहे शोषण से मुक्त होने के संघर्ष को व्यंजित करता है। यहां यह अंतर अवश्य रेखांकित करने योग्य है कि इस संघर्ष के मूल में महिला शक्ति को केंद्र में रखा गया है। आजादी के आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को उभारने, उनकी क्षमता को घर की देहरी तकं सीमित न करके समाज में उपयोग में लाने की आवश्यकता है-यह उस समय की मांग को पूरा करने का उद्देश्य अपने में समाहित करके चला है। यही इस नाटक की सबसे बड़ी शक्ति है।
यह नाटककार रवींद्रनाथ ठाकुर की उद्दात्त सोच को भी सामने लाता है। साथ ही उस अनदेखे डर को भी दर्शाता है, जिसके बारे में सटीक जानकारी न होने की स्थिति में अनेक प्रकार के अंधविश्वास जन्म लेते हैं, जिसका फायदा बीच के अनेक दलाल और शोषणकारी तत्व उठाते हैं। यक्षपुरी में धरती के नीचे से सोना निकालने (पृथ्वी का दोहन), वहां काम करने वालों का निरंतर शोषण, उनको अनदेखे राजा का भय दिखाना, सारी स्थिति को समकालीन परिवेश से जोड़कर देखने से अंग्रेजों द्वारा भारत में उत्पन्न की गई स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है- ”नंदिनी… सरदार को श्रद्धा! वैसे ही जैसे पैर के तलवे के नीचे का कीचड़ पैर के तलवे को श्रद्धा करे। जो दास है वह क्या कभी श्रद्धा कर सकता है?।”
ब्रिटिश राज्य के न डूबने वाले सूरज को प्रतीकात्मक रूप में व्यंजित करता यह नाटक एक स्त्री द्वारा विजित होने की स्थिति को जिस रूप में दर्शाता है, जो सामंती शोषण से मुक्ति के लिए आगे आकर कार्य करती है। वह नाम न होकर मात्र एक नंबर होने की त्रासदी से उबारने का बीड़ा उठाती है, जो उसकी संघर्ष करने की क्षमता के साथ- साथ नारी शक्ति को भी दर्शाता है। जो एक व्यापक जनसमूह को यह संदेश देने का कार्य करता है कि अगर सोच एवं कार्य में दृढ़ निश्चय का समन्वय हो जाए, तो कैसी और किसी की भी सत्ता हो, उसे जड़ से उखाड़ा जा सकता है। जो उस परतंत्रता के परिवेश में एक बड़ी व गहरी सोच और दृष्टिकोण को सामने लाता है। एक-एक कथन जिस तरह विद्रोह की चिंगारी से युक्त है, वो उस समय की मांग भी थी। नाटक की कथावस्तु अपने समय से भी आगे की सोच को दर्शाती है। यह एक बड़े रचनाकार की रचनादृष्टि में ही संभव है।

विसर्जन नाटक का स्वयं गुरुदेव द्वारा भी अंग्रेजी रूपांतर सैक्रिफाइस, किया जा चुका है। फिर भी जिन परिस्थितियों में उसके रूपांतरण की आवश्यकता पड़ी, उससे यह भी सिद्ध होता है कि जिस रूप में मूल नाटक पद्यात्मक एवं गद्यात्मक कलेवर में था, उसके साथ स्टेज पर प्रस्तुति संभव नहीं थी। लेखिका द्वारा किए गए अनुवाद में पूरा नाटक मुक्त छंद में है, जिससे एकरूपता के साथ-साथ कथावस्तु में भी धाराप्रवाह बना रहता है।
काली मंदिर में होने वाली जिस बलिप्रथा को विषयवस्तु बनाया गया है, उसके कारण ही इस नाटक की प्रासंगिकता वर्तमान समय में अधिक है। जहां धर्म के नाम पर अनेक निरीह पशुओं की अनवरत बलि दी जाती है। कुछ इसी तरह की समस्या इंदिरा गोस्वामी ने अपने उपन्यास छिन्नमस्ता में जटाधारी योगी द्वारा कामाख्या देवी के मंदिर के प्रसंग में भी उठाई है। मगर यहां अंतर यह है कि राजा खुद जिस प्रथा पर रोक लगाना चाहता है, उसमें रानी और पुरोहित साथ न देकर राजा के विरुद्ध षड्यंत्र रच उसकी ह्त्या तक करवाने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस प्रथा को बनाए रखने से उनके पाखंड की सत्ता बनी रहती है, जिसे वे धर्म और प्रजा के विश्वास से जोड़कर अपने लिए तर्क का रक्षाकवच बुनते हैं। रानी भी संतान की चाहत में उनका साथ राजा के विरोध के बाद भी देती है।
दो मासूम बच्चों ध्रुव व अपर्णा के साथ राजा गोविन्द्माणिक्य का स्नेह संतान न होने की पूर्ति को सकारात्मक रूप में दिखाता है, जिनकी प्रत्येक खुशी के लिए वह हरसंभव कोशिश करता है। बात बहुत सीधी सी है। राजा तो वैसे भी पालक पिता होता है, जिसका पालन इस चरित्र में दिखाया भी गया है। उदार, प्रजा से प्यार करने वाला, खुद को प्रजा का सेवक मानकर शासन करने वाला। जरूरत पड़ने पर उनके लिए अपने प्राणों की बलि भी देने से न हिचकिचाने वाला…
गोविन्द्माणिक्य :वत्से, कोई उत्तर नहीं तुम्हारे इन प्रश्नों का।
पीड़ा इतनी, व्यथा, रक्त इतना क्यों?
मुझको भी तो ज्ञात नहीं है।
इस एक संवाद ने पूरी परंपरा, पूरा इतिहास जिसे धर्म के आलोक में देखने की लोगों को आदत सी हो गई है, पर ही प्रश्नचिह्न लगाया है। पूरा नाटक मानव और मानवीयता के सूक्ष्म संवेदनात्मक पहलुओं को बचाने की कोशिश के इर्द-गिर्द घूमता है। बिना आत्मबलिदान के कोई क्रांति सफल नहीं होती। यहां भी जयसिंह की आहुति के बाद ही पुरोहित रघुपति को किसी अपने को खोने की पीड़ा समझ में आती है। मानवीय मूल्यों से बड़ा कोई धर्म नहीं है। इस रूप में यह कथावस्तु अपने समय से बहुत आगे की सोच रखने के कारण जितनी तब मौलिक और प्रासंगिक थी, उससे कहीं ज्यादा आज इसकी सार्थकता है। मंच पर यह अपनी प्रस्तुति द्वारा ज्यादा व्यापक संदर्भों को व्यंजित करती है।
जिस छंद में यह मूल नाटक लिखा गया है, उसी काव्यात्मक शैली (मुक्त छंद) में यह रूपांतरित भी किया गया, जो सही मायने में अतिरिक्त मेहनत की मांग को पूरा करता है। रूपांतरण के बाद अभिनय पाठ, फिर एक अंतराल के बाद प्रस्तुति काम करने की जिजीविषा को ही नहीं, एक अच्छे रचनाकार के गुणों को भी दर्शाता है जो दूसरों की रचनाओं का भी उतना ही बड़ा गुणग्राहक होता है।
तीसरा नाटक जो उनके उपन्यास घरे बाहरे का रूपांतरण है। इस नाटक में भी नाटककार ने महात्मा गांधी के आह्वान को स्वीकारते हुए स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी को महत्ता देते हुए भी उन आंदोलनकारियों की नीयत को सामने रखा है, जो इस पुनीत कार्य में भी अपनी ही कुत्सित भावनाओं को पूरा करने का माध्यम तलाशते हैं। ”रुपया-रुपया। बहुत सा रुपया चाहिए। हर कदम पर रुपए की जरूरत है। कहां से लाऊं? चोरी करूं? डाका डालंू? नहीं, अभी उतने दूर क्यों जाऊं, अभी तो मक्खी रानी से ले सकता हूं… मैं विमला के द्वारा निकलवाऊंगा। काश, आज मैं धनी होता तो अपनी सारी साध मिटा लेता कोई बात नहीं, मैं दूसरे तरीके से अपनी साध मिटा लूंगा। मक्खी रानी से पचास हजार लेकर…।” बहुत से ऐसे आंदोलनकारी भी थे, जिन्होंने देशसेवा के नाम पर अपनी ही सेवा की और दूसरों से करवायी भी। यह बहुत ही सटीक व्यंग्य है। पूरे नाटक में इस तरह के दृश्यों के माध्यम से समसामयिक परिवेश में व्याप्त विसंगतियों को उभारा गया है।
उद्देश्य की दृष्टि से उपन्यास जितने विराट कलेवर में लिखा गया है, उतने विस्तृत फलक को नाट्य रूपांतरण द्वारा सीमित कर प्रस्तुत करना सहज नहीं है। संकलनत्रय को निभाना कम चुनौतीपूर्ण नहीं है, लेकिन जिस रूप में यह नाटक सामने आया है अगर उपन्यास की पृष्ठभूमि न दी गई होती तो इस नाटक को पढ़ने से कहीं भी यह आभास नहीं होता है कि एक पूरी पृष्ठभूमि में अनेक अवांतर कथाओं को अपने में समाहित करके चलने वाली विधा को बिना उसके पूरे स्वरूप को जाने हम कोई रचना पढ़ रहे हैं। यही इस नाट्य रूपांतरण की सबसे बड़ी सफलता है, जो इस नाटक के रूप में हिंदी नाट्य जगत को ही लाभांवित नहीं करती, अपितु टैगोर साहित्य से अनुराग रखने वालों के लिए भी एक अनुपम भेंट है। रंगमंचीयता की दृष्टि से भी यह नाटक महत्त्वपूर्ण है, जिसे एक ही स्टेज पर थोड़े से फेरबदल द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। सीमित पात्र संख्या इसकी अतिरिक्त विशेषता है।
शेषरक्षा इस संकलन के अन्य नाटकों की अपेक्षा हास्य-व्यंग्य प्रधान है। जहां तीनों नाटकों में समस्याओं को बड़े गंभीर ढंग से उठाया गया है, वहीं इस नाटक में उठाई गई समस्याएं भी कम महत्त्व की नहीं हैं, लेकिन इनकी प्रस्तुति जिस ढंग से की गई उसमें हास्य की प्रधानता अधिक है। महिलाओं को आगे लाना, बंगाली समाज में वैवाहिक समस्या से जुड़े पक्ष जैसे पढ़े-लिखे लड़कों का दहेज मांगना, उनके अधिकारों को और जरूरतों को महत्त्व देना, लेकिन प्रस्तुति इतनी काव्यात्मक है कि नीरस लगने वाले मुद्दे भी अपनी संवेदना में बहा ले जाने की क्षमता रखते हैं।
चंद्रकांत : ”जी हां, वह सहधर्मिणी नहीं चाहता था। वह तो रुपए की कल्पलता से ब्याह कर रहा है जो उसके विलायत जाने के लिए पाथेय की व्यवस्था करेगी। खैर, अब अपने गदाई बाबू का मत जान लिया जाय। कहीं इस बीच फिर ना पलट गया हो।”
रंगमंचीय दृष्टि से इस संकलन के सभी नाटकों में प्रस्तुत होने की पूरी संभावना है, वह भी कई दृष्टिकोण या अलग-अलग मुद्दों को केंद्र में लाकर हर बार प्रस्तुति को विविधता देते हुए। नए आस्वाद में ढालकर। रंग निर्देशक को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर देते हुए। सीमित सुविधाओं, कम खर्च और सादे ढंग की मंचसज्जा से भी ये नाटक स्टेज पर अपनी पूरी पकड़ बनाने में सक्षम हैं, जिसका यथास्थान संकेत भी दिया गया है। यह इनके प्रकाशित होने से पूर्व पाठ- प्रस्तुति व मंचन ने सिद्ध भी किया है। जो कठिनाइयां थीं, उनका समाधान निकालकर एक मार्गदर्शन देने का यथासंभव प्रयास भी किया है, जिसमें प्रतिभा अग्रवाल का मंचन में स्वयं अभिनय करना इसकी रंगशैली व रंगमंचीयता की सफलता को निश्चित करता है। यह पूर्ण अनुभव से युक्त है। हां, भाषा की दृष्टि से सभी नाटक अवश्य चुनौतीपूर्ण हैं।
जहां काव्यात्मक संवादों के साथ बीच-बीच में बराबर गीतों की लड़ी पिरोई गई है, उनका समाधान भी पुस्तक की भूमिका में दिया गया है, जिसे समयानुपात में कम या ज्यादा किया जा सकता है। नाट्यधर्मिता की पहचान भी यही है, जो अनेक संभानाओं से युक्त हो, जो इन सभी नाटकों में अंतर्भूत है। इस समस्या को भी मंझे हुए अभिनेताओं द्वारा दूर किया जा सकता है, जो अपनी प्रतिभा के बल पर काव्यात्मक शैली में नाटक को जीवंत कर उचित अर्थ संप्रेषित कर सकते हैं।

निष्कर्षत: यह कह सकते हैं कि आज समय की मांग भी है कि सिर्फ अपने महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों को शब्दों में याद करने या विशेषांक निकालना ही सच्ची श्रद्धांजलि नहीं है। यह तभी संभव है जब इतनी मेहनत से रूपांतरित किए गए नाटकों को मंच पर प्रस्तुत करने की चुनौती स्वीकारने वाली संस्थाएं, नाट्य मंडलियां सामने आएं। नहीं तो उनके नाट्य कर्म पर भी प्रश्नचिह्न लगता है, जो नाटक न होने का रोना रोकर बार-बार मंचित हुए नाटकों को ही लेकर सामने आते हैं या फिर विदेशी नाटकों में अपनी जरूरतों का पैबंद लगाते हैं, ऐसे लोगों के लिए यह नाट्य संग्रह चुनौती भी है।
इस बात की पूरी संभावना ही नहीं उम्मीद भी जगती है कि इनके पांडुलिपी से बाहर निकल पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होने से रंगप्रेमियों द्वारा जरुर इन नाटकों का मंचन होगा। जिस प्रकार टैगोर के अन्य अनुदित साहित्य का हिंदीप्रेमियों ने बराबर स्वागत किया है, उसी तरह यह पुस्तक भी न सिर्फ संग्रह करने योग्य है, अपितु नाट्य साहित्य की एक अमूल्य धरोहर है। 
चार नाटक : रवींद्रनाथ ठाकुर; अनु. तथा नाट्य रूपांतरण : प्रतिभा अग्रवाल; पृष्ठ संख्या : 344; मूल्य : 600 रुपए; राजकमल प्रकाशन
साभार: www.samayantar.com