Tuesday, November 11, 2014

रवींद्रनाथ ठाकुर के चार नाटक

-चंद्रकला
वींद्रनाथ ठाकुर के चार नाटकों का नाट्य-रूपांतरण करने वाली प्रतिभा अग्रवाल का नाम रंगमंच और नाट्यकर्म से जुड़े लोगों के लिए बहुत ही सम्माननीय है। अपनी रचनात्मक ऊर्जा से उन्होंने न सिर्फ नाट्य विधा को ही समृद्ध किया है, अपितु रंगमंच पर भी सक्रिय भूमिका निभाई है। कभी नाट्य रूपांतरण करके, तो कभी अभिनेत्री के रूप में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाकर। यथा नाम तथा गुण। साहित्यिक सक्रियता ने उनके इस स्वरूप को और अधिक मांजने का ही कार्य किया है। इस दिशा में प्रतिभा अग्रवाल का नि:स्वार्थ समर्पण ‘चार नाटक: रवींद्रनाथ ठाकुर’ के रूप में जिस प्रकार सामने आया है, वह हिंदी नाट्य साहित्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। हिंदी में नाटकों के अभाव का रोना रोने वालों के लिए ये नाटक एक चुनौती भी उपस्थित करते हैं। साहित्य में भाषाओं के कारण जो दूरी है, उसके लिए अनुवाद ही वह माध्यम है जिसके द्वारा हम आसानी से एक दूसरे के विचार ग्रहण करते हैं। नाटकों के लिए तो यह विधा सर्वाधिक उपयोगी रही ही है, हिंदी ने इस क्षेत्र में भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अन्य अंतरराष्ट्रीय भाषाओं को भी मुक्त रूप में स्वीकार कर अपनी उदारता और भंडार में श्रीवृद्धि की है।
अनुवाद कार्य अपने आप में ही श्रमसाध्य और दुष्कर है। वह भी पद्यात्मक गद्य का, जो लालित्य और सौंदर्यबोध से परिपूर्ण हो। जिसके लिए न सिर्फ लक्ष्य भाषा और स्रोत भाषा में पूर्ण पारंगत होना जरूरी है, अपितु उस रचनाकार के शिल्प के मर्म को आत्मसात करना भी जरूरी है। इस दृष्टि से भी यह पुस्तक न सिर्फ उल्लेखनीय है, बल्कि अनूदित पुस्तकों की श्रेणी में भी सर्वोपरि है। लेखिका ने चारों ही नाटकों की आत्मा को सुरक्षित रखते हुए जिस क्लेवर में इनको रूपांतरित किया है, उसको उन्होंने अपने शब्दों में स्वीकार भी किया है। ”रवींद्रनाथ की रचनाओं का अनुवाद कड़ी परीक्षा की तरह होता है। कथ्य के गूढ़ार्थ को समझना, उसे हृदयंगम करना, किसी अन्य भाषा में उसके लिए उपयुक्त शब्दावली पाना, लेखक के कवित्व को बरकरार रखते हुए और शिल्प के सौंदर्य को सुरक्षित रखते हुए अनुवाद करना साहसपूर्ण नहीं वरन एक साहसी काम होता है, फिर भी लोग करते रहते हैं।”
इस चुनौती को स्वीकार करते हुए ही लेखिका ने यह महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। यह इस पुस्तक को पढ़ते हुए लक्षित होता है। एक बार नहीं कई बार इनका नाट्य पाठ्य करके, उचित सुधार करते हुए इन्हें रंगमंचीयता की दृष्टि से परिष्कृत करके लेखिका ने अपनी नाट्यधर्मिता का ही परिचय दिया है, जो साहित्य और रंगमंच दोनों ही दृष्टियों से सराहनीय है। इसके अतिरिक्त इस पुस्तक में एक और आकर्षण है। वह है इसमें दिया गया मूलगीत और उनकी स्वर लिपि, जो बांग्ला भाषा के मूल आस्वाद को बनाए रखना चाहेंगे उसका यथास्थान प्रयोग कर सकते हैं।
लगभग पांच दशक के लंबे इतिहास में इन चारों नाटकों का लिखना, प्रस्तुत होना और कमियों का पुन: परिष्कार करते हुए भी संतुष्ट न होना लेखिका की कठिन जिजीविषा को ही दर्शाता है। या कह सकते हैं जिस रूप में आज यह पुस्तक पाठकों के हाथ में है, यह उसी मेहनत और लगन का परिणाम है। विसर्जन, लाल कनेर (रक्तकरबी), घर और बाहर (घरे बाहरे, उपन्यास) तथा शेष रक्षा, चारों ही नाटकों की रचनात्मक पृष्ठभूमि एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न है। उसके बाद भी अपने कलेवर में ये चारों नाटक अनेक महत्त्वपूर्ण समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में अपने उद्देश्य को सार्थक करते हैं।
विसर्जन जहां एक तरफ काली मंदिर में दी जाने वाली बलि से संबंधित है, वहीं लाल कनेर कोयला खदानों में चल रहे शोषण से मुक्त होने के संघर्ष को व्यंजित करता है। यहां यह अंतर अवश्य रेखांकित करने योग्य है कि इस संघर्ष के मूल में महिला शक्ति को केंद्र में रखा गया है। आजादी के आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को उभारने, उनकी क्षमता को घर की देहरी तकं सीमित न करके समाज में उपयोग में लाने की आवश्यकता है-यह उस समय की मांग को पूरा करने का उद्देश्य अपने में समाहित करके चला है। यही इस नाटक की सबसे बड़ी शक्ति है।
यह नाटककार रवींद्रनाथ ठाकुर की उद्दात्त सोच को भी सामने लाता है। साथ ही उस अनदेखे डर को भी दर्शाता है, जिसके बारे में सटीक जानकारी न होने की स्थिति में अनेक प्रकार के अंधविश्वास जन्म लेते हैं, जिसका फायदा बीच के अनेक दलाल और शोषणकारी तत्व उठाते हैं। यक्षपुरी में धरती के नीचे से सोना निकालने (पृथ्वी का दोहन), वहां काम करने वालों का निरंतर शोषण, उनको अनदेखे राजा का भय दिखाना, सारी स्थिति को समकालीन परिवेश से जोड़कर देखने से अंग्रेजों द्वारा भारत में उत्पन्न की गई स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है- ”नंदिनी… सरदार को श्रद्धा! वैसे ही जैसे पैर के तलवे के नीचे का कीचड़ पैर के तलवे को श्रद्धा करे। जो दास है वह क्या कभी श्रद्धा कर सकता है?।”
ब्रिटिश राज्य के न डूबने वाले सूरज को प्रतीकात्मक रूप में व्यंजित करता यह नाटक एक स्त्री द्वारा विजित होने की स्थिति को जिस रूप में दर्शाता है, जो सामंती शोषण से मुक्ति के लिए आगे आकर कार्य करती है। वह नाम न होकर मात्र एक नंबर होने की त्रासदी से उबारने का बीड़ा उठाती है, जो उसकी संघर्ष करने की क्षमता के साथ- साथ नारी शक्ति को भी दर्शाता है। जो एक व्यापक जनसमूह को यह संदेश देने का कार्य करता है कि अगर सोच एवं कार्य में दृढ़ निश्चय का समन्वय हो जाए, तो कैसी और किसी की भी सत्ता हो, उसे जड़ से उखाड़ा जा सकता है। जो उस परतंत्रता के परिवेश में एक बड़ी व गहरी सोच और दृष्टिकोण को सामने लाता है। एक-एक कथन जिस तरह विद्रोह की चिंगारी से युक्त है, वो उस समय की मांग भी थी। नाटक की कथावस्तु अपने समय से भी आगे की सोच को दर्शाती है। यह एक बड़े रचनाकार की रचनादृष्टि में ही संभव है।

विसर्जन नाटक का स्वयं गुरुदेव द्वारा भी अंग्रेजी रूपांतर सैक्रिफाइस, किया जा चुका है। फिर भी जिन परिस्थितियों में उसके रूपांतरण की आवश्यकता पड़ी, उससे यह भी सिद्ध होता है कि जिस रूप में मूल नाटक पद्यात्मक एवं गद्यात्मक कलेवर में था, उसके साथ स्टेज पर प्रस्तुति संभव नहीं थी। लेखिका द्वारा किए गए अनुवाद में पूरा नाटक मुक्त छंद में है, जिससे एकरूपता के साथ-साथ कथावस्तु में भी धाराप्रवाह बना रहता है।
काली मंदिर में होने वाली जिस बलिप्रथा को विषयवस्तु बनाया गया है, उसके कारण ही इस नाटक की प्रासंगिकता वर्तमान समय में अधिक है। जहां धर्म के नाम पर अनेक निरीह पशुओं की अनवरत बलि दी जाती है। कुछ इसी तरह की समस्या इंदिरा गोस्वामी ने अपने उपन्यास छिन्नमस्ता में जटाधारी योगी द्वारा कामाख्या देवी के मंदिर के प्रसंग में भी उठाई है। मगर यहां अंतर यह है कि राजा खुद जिस प्रथा पर रोक लगाना चाहता है, उसमें रानी और पुरोहित साथ न देकर राजा के विरुद्ध षड्यंत्र रच उसकी ह्त्या तक करवाने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस प्रथा को बनाए रखने से उनके पाखंड की सत्ता बनी रहती है, जिसे वे धर्म और प्रजा के विश्वास से जोड़कर अपने लिए तर्क का रक्षाकवच बुनते हैं। रानी भी संतान की चाहत में उनका साथ राजा के विरोध के बाद भी देती है।
दो मासूम बच्चों ध्रुव व अपर्णा के साथ राजा गोविन्द्माणिक्य का स्नेह संतान न होने की पूर्ति को सकारात्मक रूप में दिखाता है, जिनकी प्रत्येक खुशी के लिए वह हरसंभव कोशिश करता है। बात बहुत सीधी सी है। राजा तो वैसे भी पालक पिता होता है, जिसका पालन इस चरित्र में दिखाया भी गया है। उदार, प्रजा से प्यार करने वाला, खुद को प्रजा का सेवक मानकर शासन करने वाला। जरूरत पड़ने पर उनके लिए अपने प्राणों की बलि भी देने से न हिचकिचाने वाला…
गोविन्द्माणिक्य :वत्से, कोई उत्तर नहीं तुम्हारे इन प्रश्नों का।
पीड़ा इतनी, व्यथा, रक्त इतना क्यों?
मुझको भी तो ज्ञात नहीं है।
इस एक संवाद ने पूरी परंपरा, पूरा इतिहास जिसे धर्म के आलोक में देखने की लोगों को आदत सी हो गई है, पर ही प्रश्नचिह्न लगाया है। पूरा नाटक मानव और मानवीयता के सूक्ष्म संवेदनात्मक पहलुओं को बचाने की कोशिश के इर्द-गिर्द घूमता है। बिना आत्मबलिदान के कोई क्रांति सफल नहीं होती। यहां भी जयसिंह की आहुति के बाद ही पुरोहित रघुपति को किसी अपने को खोने की पीड़ा समझ में आती है। मानवीय मूल्यों से बड़ा कोई धर्म नहीं है। इस रूप में यह कथावस्तु अपने समय से बहुत आगे की सोच रखने के कारण जितनी तब मौलिक और प्रासंगिक थी, उससे कहीं ज्यादा आज इसकी सार्थकता है। मंच पर यह अपनी प्रस्तुति द्वारा ज्यादा व्यापक संदर्भों को व्यंजित करती है।
जिस छंद में यह मूल नाटक लिखा गया है, उसी काव्यात्मक शैली (मुक्त छंद) में यह रूपांतरित भी किया गया, जो सही मायने में अतिरिक्त मेहनत की मांग को पूरा करता है। रूपांतरण के बाद अभिनय पाठ, फिर एक अंतराल के बाद प्रस्तुति काम करने की जिजीविषा को ही नहीं, एक अच्छे रचनाकार के गुणों को भी दर्शाता है जो दूसरों की रचनाओं का भी उतना ही बड़ा गुणग्राहक होता है।
तीसरा नाटक जो उनके उपन्यास घरे बाहरे का रूपांतरण है। इस नाटक में भी नाटककार ने महात्मा गांधी के आह्वान को स्वीकारते हुए स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी को महत्ता देते हुए भी उन आंदोलनकारियों की नीयत को सामने रखा है, जो इस पुनीत कार्य में भी अपनी ही कुत्सित भावनाओं को पूरा करने का माध्यम तलाशते हैं। ”रुपया-रुपया। बहुत सा रुपया चाहिए। हर कदम पर रुपए की जरूरत है। कहां से लाऊं? चोरी करूं? डाका डालंू? नहीं, अभी उतने दूर क्यों जाऊं, अभी तो मक्खी रानी से ले सकता हूं… मैं विमला के द्वारा निकलवाऊंगा। काश, आज मैं धनी होता तो अपनी सारी साध मिटा लेता कोई बात नहीं, मैं दूसरे तरीके से अपनी साध मिटा लूंगा। मक्खी रानी से पचास हजार लेकर…।” बहुत से ऐसे आंदोलनकारी भी थे, जिन्होंने देशसेवा के नाम पर अपनी ही सेवा की और दूसरों से करवायी भी। यह बहुत ही सटीक व्यंग्य है। पूरे नाटक में इस तरह के दृश्यों के माध्यम से समसामयिक परिवेश में व्याप्त विसंगतियों को उभारा गया है।
उद्देश्य की दृष्टि से उपन्यास जितने विराट कलेवर में लिखा गया है, उतने विस्तृत फलक को नाट्य रूपांतरण द्वारा सीमित कर प्रस्तुत करना सहज नहीं है। संकलनत्रय को निभाना कम चुनौतीपूर्ण नहीं है, लेकिन जिस रूप में यह नाटक सामने आया है अगर उपन्यास की पृष्ठभूमि न दी गई होती तो इस नाटक को पढ़ने से कहीं भी यह आभास नहीं होता है कि एक पूरी पृष्ठभूमि में अनेक अवांतर कथाओं को अपने में समाहित करके चलने वाली विधा को बिना उसके पूरे स्वरूप को जाने हम कोई रचना पढ़ रहे हैं। यही इस नाट्य रूपांतरण की सबसे बड़ी सफलता है, जो इस नाटक के रूप में हिंदी नाट्य जगत को ही लाभांवित नहीं करती, अपितु टैगोर साहित्य से अनुराग रखने वालों के लिए भी एक अनुपम भेंट है। रंगमंचीयता की दृष्टि से भी यह नाटक महत्त्वपूर्ण है, जिसे एक ही स्टेज पर थोड़े से फेरबदल द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। सीमित पात्र संख्या इसकी अतिरिक्त विशेषता है।
शेषरक्षा इस संकलन के अन्य नाटकों की अपेक्षा हास्य-व्यंग्य प्रधान है। जहां तीनों नाटकों में समस्याओं को बड़े गंभीर ढंग से उठाया गया है, वहीं इस नाटक में उठाई गई समस्याएं भी कम महत्त्व की नहीं हैं, लेकिन इनकी प्रस्तुति जिस ढंग से की गई उसमें हास्य की प्रधानता अधिक है। महिलाओं को आगे लाना, बंगाली समाज में वैवाहिक समस्या से जुड़े पक्ष जैसे पढ़े-लिखे लड़कों का दहेज मांगना, उनके अधिकारों को और जरूरतों को महत्त्व देना, लेकिन प्रस्तुति इतनी काव्यात्मक है कि नीरस लगने वाले मुद्दे भी अपनी संवेदना में बहा ले जाने की क्षमता रखते हैं।
चंद्रकांत : ”जी हां, वह सहधर्मिणी नहीं चाहता था। वह तो रुपए की कल्पलता से ब्याह कर रहा है जो उसके विलायत जाने के लिए पाथेय की व्यवस्था करेगी। खैर, अब अपने गदाई बाबू का मत जान लिया जाय। कहीं इस बीच फिर ना पलट गया हो।”
रंगमंचीय दृष्टि से इस संकलन के सभी नाटकों में प्रस्तुत होने की पूरी संभावना है, वह भी कई दृष्टिकोण या अलग-अलग मुद्दों को केंद्र में लाकर हर बार प्रस्तुति को विविधता देते हुए। नए आस्वाद में ढालकर। रंग निर्देशक को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर देते हुए। सीमित सुविधाओं, कम खर्च और सादे ढंग की मंचसज्जा से भी ये नाटक स्टेज पर अपनी पूरी पकड़ बनाने में सक्षम हैं, जिसका यथास्थान संकेत भी दिया गया है। यह इनके प्रकाशित होने से पूर्व पाठ- प्रस्तुति व मंचन ने सिद्ध भी किया है। जो कठिनाइयां थीं, उनका समाधान निकालकर एक मार्गदर्शन देने का यथासंभव प्रयास भी किया है, जिसमें प्रतिभा अग्रवाल का मंचन में स्वयं अभिनय करना इसकी रंगशैली व रंगमंचीयता की सफलता को निश्चित करता है। यह पूर्ण अनुभव से युक्त है। हां, भाषा की दृष्टि से सभी नाटक अवश्य चुनौतीपूर्ण हैं।
जहां काव्यात्मक संवादों के साथ बीच-बीच में बराबर गीतों की लड़ी पिरोई गई है, उनका समाधान भी पुस्तक की भूमिका में दिया गया है, जिसे समयानुपात में कम या ज्यादा किया जा सकता है। नाट्यधर्मिता की पहचान भी यही है, जो अनेक संभानाओं से युक्त हो, जो इन सभी नाटकों में अंतर्भूत है। इस समस्या को भी मंझे हुए अभिनेताओं द्वारा दूर किया जा सकता है, जो अपनी प्रतिभा के बल पर काव्यात्मक शैली में नाटक को जीवंत कर उचित अर्थ संप्रेषित कर सकते हैं।

निष्कर्षत: यह कह सकते हैं कि आज समय की मांग भी है कि सिर्फ अपने महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों को शब्दों में याद करने या विशेषांक निकालना ही सच्ची श्रद्धांजलि नहीं है। यह तभी संभव है जब इतनी मेहनत से रूपांतरित किए गए नाटकों को मंच पर प्रस्तुत करने की चुनौती स्वीकारने वाली संस्थाएं, नाट्य मंडलियां सामने आएं। नहीं तो उनके नाट्य कर्म पर भी प्रश्नचिह्न लगता है, जो नाटक न होने का रोना रोकर बार-बार मंचित हुए नाटकों को ही लेकर सामने आते हैं या फिर विदेशी नाटकों में अपनी जरूरतों का पैबंद लगाते हैं, ऐसे लोगों के लिए यह नाट्य संग्रह चुनौती भी है।
इस बात की पूरी संभावना ही नहीं उम्मीद भी जगती है कि इनके पांडुलिपी से बाहर निकल पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होने से रंगप्रेमियों द्वारा जरुर इन नाटकों का मंचन होगा। जिस प्रकार टैगोर के अन्य अनुदित साहित्य का हिंदीप्रेमियों ने बराबर स्वागत किया है, उसी तरह यह पुस्तक भी न सिर्फ संग्रह करने योग्य है, अपितु नाट्य साहित्य की एक अमूल्य धरोहर है। 
चार नाटक : रवींद्रनाथ ठाकुर; अनु. तथा नाट्य रूपांतरण : प्रतिभा अग्रवाल; पृष्ठ संख्या : 344; मूल्य : 600 रुपए; राजकमल प्रकाशन
साभार: www.samayantar.com

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