Monday, May 29, 2023

किशोर मन में सामाजिक सरोकारों के बीज

भिलाई इप्टा का 25वां बाल रंग शिविर 

नन्हे कलाकारों ने मंच पर जब अपनी इंद्रधनुषी कलात्मक कल्पनाओं को मंच पर साकार होते देखा तो उनकी ही नहीं बल्कि उनके पालकों सहित सैकड़ों दर्शकों की खुशी का ठिकाना नहीं था। किसी की प्रतिभा नृत्य तो किसी की अभिनय के रूप में दिख रही थी। उनकी इस रचनात्मकता में लोकरंजन तो था ही जनचेतना का पैगाम भी था। नेहरु सांस्कृतिक भवन इप्टा द्वारा 25 मई, गुरुवार शाम ऐसा ही मोहक वें सांस्कृतिक नजारा यादगार ग्रीष्मकालीन बाल एवं तरुण नाट्य प्रशिक्षण शिविर का था। अवसर था इप्टा भिलाई के पच्चीसवें 25 दिवसीय ग्रीष्मकालीन बाल समापन समारोह का।

खुशनुमा माहौल में खचाखच भरे सदन में बच्चों ने अपनी प्रतिभा और लगन से तैयार नृत्य, नाटक और गीतों से लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। पहले दिन का आगाज इप्टा गीत व गीतकार शैलेंद्र, संगीतकार सलिल चौधरी व रंगकमी हबीब तनवीर की जन्म शताब्दी वर्ष स्मरण में "तू जिंदा है तू जिंदगी की जीत पर यकीन कर " और "पुराने दिन पुराने पल" मणिमय मुखर्जी व बीबी परगनिहा संगीत निर्देशित जनगीतों को बच्चों ने प्रस्तुत किया। इसके बाद बच्चों ने जब राजगीत "अरपा पैरी के धार" और "हमर सुघ्घर छत्तीसगढ़"लोकगीत की सुरीली प्रस्तुति दी तो सभी भावविभोर हो गये। 

रंगबिरंगे स्थानीय परिधान में सजे भानुराज, हर्ष, हामिद, आदर्श, विक्रम, मयंक, अंशुमन, संकेत, धान्या, श्रुति, वर्तिका, टिवंकल, सृष्टि, अर्पिता, चैतन्य अदिबा, कृष ने आकर्षक गरबा नृत्य का जादू बिखेरा जिसका निर्देशन बी किशोर अदिति व निकिता ने किया। इसके बाद चारु श्रीवास्तव, नरेंद्र पटनारे, प्रतिष्ठा, निहारिका, प्रशस्ति अनन्या ,सुजल, अक्षत, सुमेध, सिद्ध, ऋषभ दिलकश अंदाज में सूफी गीत "मेरा मुर्शिद खेले होली" से समां बांधा।लोकनृत्य व गरबा का जलवा फ्यूजन के रूप में तैयार रोहित व गौरी निर्देशित नृत्य डांस का भूत दर्शकों को खूब भाया। स्वरा, नैन्सी, दर्शन, श्रेया, नीतिज्ञ तान्या और अनितेज आदि बच्चों ने मोहक प्रस्तुति दी। संगवारी रे.. की लोकधुन पर थिरकते पारंपरिक परिधान में राजे वाणी, गोरी, निकिता, पलक, चारू, आकाश, प्रतिष्ठा, श्रीकांत, तनिष्क रिया आदि ने नयनाभिराम डंडा और करमा नृत्य से जमकर प्रशंसा बटोरी।  

कात्यायनी की कविता पर केंद्रित डॉ. विजय व नरेंद्र पटनारे निर्देशित "सात भाइयों की एक बहन चंपा" के प्रभावी नाट्य मंचन में आस्था, कुमकुम, अनन्या, अरीबा, संकेत व आदर्श और नरेंद्र ने अच्छा अभिनय किया। स्त्री शोषण पर आधारित इस माइम (मूकाभिनय) की कहानी में एक स्त्री पारिवारिक जिम्मेदारियों के दबाव के बीच किस तरह जीवन निर्वाह करती है। विवाह होने पर पति भी प्रताड़ित करता है और उसकी संतान को पैसे के लालच में बेच देता है लेकिन पुरुषप्रधान समाज में शोषित होने के बाद भी वह मुरझाती नहीं, बल्कि फूल की तरह पूरे सौंदर्य व माधुर्य के साथ खंदक से बाहर निकलती है और पूरी गरिमा के साथ जीवन आरंभ करती है।

इप्टा के प्रांतीय अध्यक्ष मणिमय मुखर्जी, राष्ट्रीय सचिव  राजेश श्रीवास्तव, सुचित्रा मुखर्जी और शिविर प्रभारी श्रीकांत ने शिविर व कार्यक्रम की भूमिका से अवगत कराया।
आरंभ में मुख्य अतिथि छत्तीस गढ़ हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रवि श्रीवास्तव और विशेष अतिथि वरिष्ठ रंगकर्मी डी.वी. रायचौधरी ने आयोजन को सरहना करते हुए नन्हे कलाकारों की हौसला अफजाई की। मणिमय मुखर्जी ने इप्टा भिलाई के 1982 से अब तक की यात्रा व राष्ट्रीय सचिव राजेश श्रीवास्तव ने 25 वे शिविर पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम में रंगकर्मी एसके मजूमदार, प्रदीप शर्मा, सुप्रियो सेन , शक्तिपद चक्रवर्ती व दुष्यंत हरमुख आदि उपस्थित थे। अतिथियों का स्वागत सुचित्रा मुखर्जी, चारु श्रीवास्तव, कार्यक्रम का संचालन इप्टा के रणदीप अधिकारी व आभार प्रदर्शन मिलाई इप्टा | अध्यक्ष रोशन घड़ेकर ने किया। 

दूसरे दिन शुक्रवार दूसरे दिन 26 मई को नेहरु सांस्कृतिक सदन में तीन नाटकों का मंचन हुआ। नाटक अंधेर नगरी चौपट राजा, स्कूटर और एक मोनोलाग वार्ड नं छ: की की प्रभावी प्रस्तुति हुई । समारोह के मुख्य अतिथि छत्तीसगढ़ साहित्य अकदमी के अध्यक्ष ईश्वर सिंह दोस्त और विशेष अतिथि रंगकर्मी अमिताभ पांडे दिल्ली, रंगकर्मी मिनहाज हसन व पत्रकार मृगेंद्र सिंह, कथाकार लोकबाबू तथा छग प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव परमेश्वर वैष्णव थे।

कार्यक्रम की शुरुआत मणिमय मुखर्जी के संगीत निर्देशन में गीतकार शैलेंद्र, सलिल चौधरी व हबीब तनवीर के जन्म शताब्दी स्मरण पर उनके जनगीत तू जिंदा है.. से इप्टा के कलाकारों ने की। इसके बाद बच्चों ने लोकबाबू लिखित और चित्रांश श्रीवास्तव व अपराजिता निर्देशित स्कूटर नामक नाटक का मंचन किया। निर्देशकीय कसावट और प्रभावी अभिनय के साथ कथानक भी रोचक था। नाटक में पति पत्नी और एक पुत्री और एक पुत्र वाले मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी दिखाई गई, जिसमें पुरानी चीजों से जुड़ी यादों के साथ दो पीढ़ियों केविचारों के अंतर को दिखाया गया । घर में पिता के पुराने स्कूटर के बिगड़ते रहने पर युवा बेटा इसे बेचकर नई बाइक खरीदने की बात कहता है लेकिन पिता इसी स्कूटर से पत्नी को बेटे के जन्म के दौरान अस्पताल पहुंचाने और आफिस जाने की जुड़ी यादों के चलते बेचने
से मना करते हैं पर बाद में बेटे का मन रखने के लिए व विवाह योग्य बेटी विवाह के बजट में कटौती कर नई बाईक खरीद लाते हैं और उसे सरप्राइज देना चाहते हैं। इसी दौरान घर पहुंचे समधी व होने वाले दामाद नई बाइक देखकर मजाकिया अंदाज में अपने लिए मांग बैठते हैं। इस बीच देखते हैं कि पुत्र पुरानी स्कूटर को साफ कर रहा है और पिता से कहता है कि बाइक की जरुरत नहीं है हम स्कूटर नहीं बेचेंगे। नाटक में भानूराज, निकिता, मिराज, चेतन्या, वाणी, अनितेज, विशाल, सुंजल, ट्विंकल, पलक, हर्षिका ने अभिनय किया। दरअसल ये कहानी मध्यवर्गीय आर्थिक संघर्ष की कहानी है जिसमे हर इच्छा आर्थिक और सामाजिक दबाब में दम तोड देती है और फिर यही दुराग्रह हमको आर्थिक संघर्ष को तेज कर देता है। 

 दूसरी प्रस्तुति डा. विजय निर्देशित मोनोलाग वार्ड नं छह था, इसमें मौजूदा व्यवस्था पर करारा कटाक्ष करते हुए दिखाया गया कि किस तरह पुलिस चैन अमन के नाम पर जनसरोकार से जुड़े निर्दोष लोगों को अपराधी बताकर जेल की सीखचों के पीछे डाल देती है। अदालत में आरोपपत्र पेश नहीं कर पाती। नाटक में इनकी दारुण व्यथा को जीवंतता से दिखाया गया। अवाम के हितों की आवाज बुलंद करने वाले पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं को बतौर कैदी बिना गुनाह बताते जेल में बंद कर दिया गया और पुलिस उनकी सजा माफ करने का प्रलोभन देकर और उनके परिवार की सुरक्षा का हवाला देकर उनसे जबरिया जुर्म कुबूलने का दबाव डालती है। कैदियों के पत्रों से उनकी बेगुनाही का खुलासा होता है। मोनोलाग में ऋषक्ष, अंशुमन, प्रशस्ति, कुमकुम रिया व सिद्धार्थ ने किरदार निभाए। 

चारु श्रीवास्तव निर्देशित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाटक अंधेर नगरी चौपट राजा के मंचन में सिस्टम की खामियों के यथार्थ को चुटीले अंदाज पेश किया गया। इसमें प्रतिभा (गुरु), निहारिका व अंशुमन (चेला) और नन्ही बालिका श्रेया (राजा) सहित दिव्यांश, पल्लवी, अक्षत, सिद्धांत, आकाश व ऋषत्र ने अभिनय किया। नाटक में दिखाया गया कि अपने दो चेलों को गुरु बोलता है कि जिसके राज मे भाजी से लेकर खाजा(मिठाई) तक टका सेर में मिलता है ऐसी जगह नहीं रहना है लेकिन एक चेला असहमत होता है। वह दीवार गिरने से बकरी के मरने पर बतौर आरोपी राज दरबार में पेश किया जाता है। मौत के लिए कसाई से लेकर मिस्त्री आदि पर इल्जाम लगाने व आखिरकार चेला को फांसी की सजा सुनाई जाती है। जब गुरु को पता लगता है तो वह राजा से बोलता है इस समय जो बहुत शुभ मुहुर्त है, जो फांसी चढ़ेगा वो सीधे स्वर्ग जाएगा। इस तरह राजा फांसी के लिए तैयार हो जाता है और चेला बच जाता है और इस तरह भारतेंदु के प्रसिद्ध नाटक को आज की व्यवस्था पर व्यंग के रूप में प्रस्तुत किया गया। 

कार्यक्रम के आरंभ में मुख्य अतिथि ईश्वर सिंह दोस्त व अन्य अतिथियों ने आयोजन की सराहना कर बच्चों का उत्साह बढ़ाया। इप्टा की सुचित्रा मुखर्जी, राजेश श्रीवास्तव, मणिमय मुखर्जी, श्रीकांत, देवनारायण साहू व चारू श्रीवास्तव ने अतिथियों का स्वागत किया। कार्यक्रम का संचालन रणदीप अधिकारी व आभार प्रदर्शन रोशन घड़ेकर ने किया।।

रिपोर्ट: चित्रांश, विजय

Sunday, May 28, 2023

हट्टमाला के उस पार ये दुनिया रंगीन

भारतीय जन नाट्य संघ, अशोक नगर (मध्य प्रदेश) की सत्रहवीं नाट्य कार्यशाला का हुआ भव्य समापन

रंगकर्म और सांस्कृतिक क्षेत्र में 35 वर्षों से सक्रिय भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) अशोकनगर की सत्रहवीं बाल, किशोर एवं युवा नाट्य कार्यशाला का भव्य समापन समारोह 27 मई को संपन्न हुआ। 1 मई से 27 मई तक चली इस नाट्य कार्यशाला में 50 से ज़्यादा प्रतिभागियों ने भागीदारी की है और नाटक, नृत्य, जनगीत, क्राफ्ट, चित्रकला, लोक संगीत आदि अनेक कलारूपों का प्रशिक्षण प्राप्त किया है।

इस कार्यक्रम का उद्घाटन प्रख्यात चित्रकार मुकेश बिजौले (उज्जैन) और कवयित्री आरती (भोपाल) ने किया। बता दें कि आरती "समय के साखी" पत्रिका की संपादक हैं। इस पत्रिका के कविता विशेषांक का विमोचन अनौपचारिक उद्घाटन के बाद कवि,लेखक और संपादक निरंजन श्रोत्रिय और मंच पर उपस्थित अतिथियों ने किया । इस विशेषांक में "2000 के बाद की युवा कविता" में अशोकनगर इप्टा के युवा कवि अभिषेक 'अंशु' और अरबाज खान की कविताएं भी प्रकाशित हुई हैं। 

कार्यक्रम की शुरुआत जन भावनाओं को प्रतिबिंबित करने वाले जनगीतों से हुई। इन गीतों में हरिओम राजोरिया द्वारा लिखित "पढ़ के हम तो इंकलाब लायेंगे" और आनंदमोहन द्वारा लिखित "ये फैसले का वक्त है" का सामूहिक गायन हुआ।

समापन समारोह में इस बार दो नाटकों का प्रदर्शन किया गया। पहला नाटक हैदराबाद से आये युवा रंगकर्मी रवि कुमार के निर्देशन में तैयार "हट्टमाला के उस पार" का मंचन हुआ। यह नाटक बांग्ला के ख्यात लेखक बादल सरकार ने लिखा है और इस नाटक का हिन्दी भावानुवाद अभिषेक गोस्वामी ने किया है। यह नाटक गैर-बराबरी पर खड़ी पूंजीवादी व्यवस्था के दोषों को उजागर करते हुए साम्यवादी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने का संदेश देता है। इस नाटक में एक ऐसे गांव का ज़िक्र है जहां ना तो पैसों की अवधारणा है और ना ही संपत्ति संग्रह करने का कोई चलन। यह समाज पारस्परिक सहयोग से कार्य करता है। परिणामवश एक ऐसे समाज का निर्माण होता है जहां हत्या, लूटपाट, झगड़े जैसी विसंगतियां पहुंच ही नहीं पाई हैं। हट्टमाला से आए दो चोर इस दुनिया के साथ सामंजस्य बिठाने का संघर्ष करते हैं। वो विश्वास नहीं कर पाते कि ऐसी दुनिया हो भी कैसे सकती है जहां धन और पैसा का चलन नहीं और जहां लोगों ने जेलखाना, पुलिस स्टेशन जैसे शब्द सुने तक नहीं। दोनों चोर अपने पुराने चोरी- चपाटी वाले जीवन के अनुभवों के अनुसार ही यहां भी चोरी करने का प्रयत्न करते हैं। नाटक उनके इसी नए समाज में होने वाले संघर्ष के बारे में है। यह नाटक एक नई और अनूठी दुनिया की संकल्पना करता है। आमजन का प्रतिनिधित्व करने वाला "कोरस" भी इसी विचार को दृढ़ता से स्थापित करने में सहयोग करता है। हालांकि ऐसे समाज की परिकल्पना करना आज के समय में बेहद आदर्शवादी लगता है, परंतु यह नाटक एक उम्मीद छोड़ जाता है कि अगर समाज समग्र रूप से एक हो जाए तो हम विसंगतियों का उन्मूलन ज़रूर कर सकते हैं।  एक स्वस्थ समाज वर्षों से चोरी के सिद्धांत में पारंगत लोगों को भी बदलने तथा उनके लिए समाज में जगह बनाकर उचित मार्ग पर लाने का माद्दा रखता है।

दूसरा नाटक इप्टा अशोकनगर के साथियों के संयुक्त प्रयास से निर्देशित "ये दुनिया रंगीन" (लेखक : सफदर हाशमी) में छोटी उम्र के अनेक अभिनेताओं ने अभिनय किया। इस नाटक का संगीत अशोकनगर के युवा रंगकर्मी हर्ष चौबे ने तैयार किया है। यह नाटक एकदम नए बच्चों को लेकर तैयार किया गया है। नाटक पूरी दुनिया में फैले हुए रंगों की विविधता और इसे बचाये रखने की बात करता है। विविध रंगों ने ही इस दुनिया को आशा, उम्मीद और जोश से परिपूर्ण बनाया है। यदि रंग न हों तो पूरी दुनिया नाउम्मीदी, निराशा से लबालब होकर बेरंगी हो जाएगी। इस नाटक की साधारणता और वैज्ञानिकता इसे रोचक और असाधारण बनाती है। नाटक में बच्चे अनेकता में एकता की बात करते हैं और संदेश देते हैं कि दुनिया में अगर ये रंग नहीं रहे तो ये दुनिया अपनी पहचान खो देगी। नाटक संगीत प्रधान है और इस नाटक में रंगों के गीत हैं और हर पात्र नाच और गाकर अपनी बात करता है। छोटे बच्चे रंगों की जरूरत को नाचकर , गाकर  बड़ी खूबसूरती से व्यक्त करते हैं  इस नाटक में विभिन्न रंगों के माध्यम से दुनिया को रंगीन दिखाकर यह संदेश दिया गया है कि जिस तरह कई रंगों से मिलकर एक सुंदर सतरंगी इंद्रधनुष बनता है उसी तरह विभिन्न देश, धर्म, संप्रदाय, जाति, भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, रीति-रिवाज, आचार-विचार जैसी विविधताओं से एक सुंदर और रंगीन दुनिया बनती है। इसी अनेकता में एकता से बनी दुनिया खुशहाल, रंगीन और खूबसूरत होती है।
नाटकों के अलावा "बधाई" लोकनृत्य की प्रस्तुति हुई। इस सामूहिक नृत्य का निर्देशन अशोकनगर इप्टा की युवा रंगकर्मी दीपिका शर्मा ने किया है।

इस अवसर पर बच्चों की रचनात्मकता को रेखांकित करने वाली रंग गतिविधियों तथा कलाकृतियों की फ़ोटो प्रदर्शनी भी पंकज दीक्षित के निर्देशन में लगाई गई। 
इप्टा अशोकनगर की अध्यक्ष सीमा राजोरिया ने बताया कि इप्टा अशोकनगर ने बच्चों के थिएटर पर पिछले वर्षों में 16 नाट्य कार्यशालाएं की हैं और बच्चों, किशोरों और युवाओं की सांस्कृतिक अभिरुचियों को परिष्कृत में मदद की। वहीं इप्टा अशोकनगर के सचिव अभिषेक अंशु ने कहा कि इप्टा ने अपनी सक्रियता से राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रेखांकित की है और अनेक अभिनेता, गायक, चित्रकार, संगीतकार, निर्देशक और लेखक तैयार किए हैं।
इस सांस्कृतिक और रचनात्मक कार्यक्रम में शहर भर के आम जन, रंगकर्मी, कलाकार, लेखक, कवि, छात्र आदि की सक्रिय उपस्थिति रही।

 रिपोर्ट: इप्टा, अशोक नगर

Saturday, May 27, 2023

केकरा केकरा नाम बताऊॅं इस जग में बड़ा लूटेरवा हो

लोक संगीत पर आधारित इप्टा जेएनयू  की प्रस्तुति - 'लोक विरासत'
भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के 80वें स्थापना दिवस (25 मई) के अवसर पर इप्टा की विभिन्न इकाइयों ने देशभर में सांस्कृतिक आयोजन किए। इसी कड़ी में इप्टा जेएनयू ने 26 मई को लोक संगीत पर आधारित कार्यक्रम ‘लोक विरासत’ का आयोजन किया जिसमें कबीर, बुल्ले शाह, फ़रीद के कलाम के साथ ही बिदेसिया और इप्टा की अपनी फिल्म ‘धरती के लाल’ में शामिल लोक गीतों की प्रस्तुति दी। प्रस्तुतियों के दौरान भारत में प्रगतिशील सांगीतिक परंपरा और उसमें इप्टा के योगदान पर वरिष्ठ कलाधर्मी और रंग-संगीतज्ञ काजल घोष ने दर्शकों से बातचीत की। 

वैश्वीकरण और बाज़ार की मार धीरे-धीरे ग्रामीण और लोक परिवेश को भी  खा रही है, इसकी लपटें आज देश से देस तक की यात्रा कर चुकी हैं। कबीर हों या बुल्ले शाह, या फिर अन्य मध्यकालीन प्रगतिशीलता के पुरोधा, वे लोक से सीधे जुड़े रहे। उन्होंने लोकधर्मिता को आगे बढ़ाया और देस में व्याप्त रूढ़ियों, ढकोसलों, भेद-भाव को चुनौती दी। उनके बोलों का तकाजा यह था कि अगर वे मौजूदा दौर में रहते तो शायद उन्हें भी फासीवादी सांप्रदायिक ताकतों द्वारा देश और संस्कृति का विरोधी ठहरा दिया जाता। इप्टा जेएनयू ने “लोक विरासत” की प्रस्तुति के लिए अपने इन्हीं प्रगतिशील पुरखों की रचनाओं का चयन किया था। लोक में प्रेम की पैरोकारी करने वाले कबीर के गीत ‘ज़रा हल्के गाड़ी हाँको मोरा राम गाड़ीवाला’ की संगीतमयी प्रस्तुति के साथ कार्यक्रम की शुरुआत हुई। इसके बाद भेद पैदा करने वाले तत्वों से आगाह करने वाले कबीर के ही गीत ‘होशियार रहना रे नगर में चोर आवेगा’, इंसान के इंसान से भेद को नकारती बाबा फ़रीद की रचना ‘वेख फ़रीदा मिट्टी खुल्ली’ व बुल्ले शाह रचित ‘माटी कुदम करेंदी यार’, बिदेसिया पर आधारित राममूर्ति चतुर्वेदी के गीत ‘दिनवा गिनत मोरी घिसली उमरिया’, राजस्थानी लोकगीत ‘कदी आवो नी रसीला म्हारे देस’ और अंत में इप्टा के बैनर तले 1946 में आई फिल्म ‘धरती के लाल’ के लोकगीत ‘केकरा केकरा नाम बताऊँ इस जग में बड़ा लूटेरवा हो’ की संगीतमयी प्रस्तुति इप्टा जेएनयू के कलाकारों ने दी। 
कार्यक्रम की प्रस्तुति में कोशिश यह रही कि बहुल लोक के गीतों को शामिल किया जाए साथ ही भारत में प्रगतिशील संगीत परंपरा में लोक संगीत के योगदान पर रंग-संगीतज्ञ काजल घोष से बात-चीत की जाए। गीतों की प्रस्तुति के बीच काजल दा से मंच संचालक रजनीश साहिल की बातचीत का यह दौर जारी रहा। 

कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए रजनीश साहिल ने कहा कि इप्टा के गठन के समय फासीवादी सांप्रदायिक राजनीति अपने पैर जमा रही थी, जिसके खिलाफ़ इप्टा ने आवाज़ उठाई और अपनी प्रस्तुतियाँ कीं। आज जब उसी राजनीति द्वारा संस्कृति का हवाला देते हुए हमें बार-बार एक ‘खास गौरवमयी अतीत’ की ओर देखने के लिए कहा जाता है तो हमने भी तय किया है कि हम अतीत की ओर देखेंगे, लेकिन नफरत की नजर से नहीं बल्कि प्रेम की नज़र से। हम अपने उन पुरखों को याद करेंगे जिन्होंने समाज में प्रेम की बात की और ग़लत को ग़लत कहा, जिन्होंने जन की तकलीफ़ों की बात की। 

लोक संगीत में प्रगतिशील मूल्यों और प्रतिरोध के बारे में बोलते हुए काजल घोष ने कहा कि ‘संगीत में सुर से पहले लय आती है और लय हमारे जीवन में, हमारे कामों में है। जब एक किसान फसल काटता है, एक कारीगर काम करता है या मछुआरा नाव चलाता है तो उसके काम में एक लय होती है। कोई भी व्यक्ति जब श्रम का काम करता है तो उस काम की एक लय होती है और उस लय पर वह अपने दुख-सुख, सपने गुनगुनाता है। जब यह लय और गुनगुनाहट एक व्यक्ति से निकलकर सामूहिकता में आती है तो वह लोक की धुन हो जाती है। कह सकते हैं कि लोक संगीत श्रम से उपजा संगीत है और इस संगीत के साथ कबीर, बुल्ले शाह आदि को गाना अपने आप में प्रगतिशील और प्रतिरोध का संगीत है क्योंकि इन सभी ने अपने समय में जो चीजें गलत थीं उनका विरोध किया, अपने समय से आगे देखते हुए समानता, भाईचारे और प्रगतिशील मूल्यों की बात की। 
अक्सर कहा जाता है कि युवा रील्स की दुनिया में मगन और हताश हो रहा है, वह अपनी जड़ों से दूर हो रहा है, लेकिन इस आयोजन में बतौर श्रोता/दर्शक शामिल होने के लिए निर्धारित समय से पहले ही युवा पहुँचने लगे थे जिससे साबित होता है कि लोक में किसी भी दीवार को ढहा देने की ताकत है। आज जब संकीर्ण राजनीति, पूंजी और तकनीक के गठजोड़ द्वारा तमाम तरह के भेद और वैचारिक अवरोध विश्वविद्यालय परिसर से लेकर आम जन के बीच तक खड़े किए जा रहे हैं तो उन्हे गलाने के लिए लोक कला और लोक संस्कृति का पानी ही इस्तेमाल करना होगा। नफ़रत की दीवारें कितनी ही ऊंची क्यों न हो जाएं, क्रोनि पूंजीवाद कुछ भी क्यों न परोस दे, उसका जवाब हम अपनी लोक विरासत से दे सकते हैं। 

यह वही दौर है जब सत्ता के गलियारों से सीधे तौर पर लोकतंत्र पर हमला जारी है और विश्वविद्यालय इसके पहले निशाने पर हैं। उचित और व्यवस्थित जगह न होने के बावजूद भी इप्टा जेएनयू के साथियों ने लगातार कई दिनों तक प्रस्तुति की तैयारी की। वर्षा आनंद, क्षितिज वत्स, रजनीश साहिल, विनोद कोष्टी ने मिलकर गीतों के बोल से लेकर धुन तक को तैयार किया। ढोलक पर रमेश और हारमोनियम पर अनुला की संगत में इन्द्रदीप, मेघा, वर्षा, कृतिका, वर्षा आनंद, क्षितिज वत्स और मनमोहन ने लोक धुनों पर आधारित गीतों की शानदार प्रस्तुति दी।  पूरे अभ्यास और प्रस्तुति के दरमियान विनोद कोष्टी व संतोष कुमार ने मिलकर तैयारी से संबंधित पहलुओं व व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी संभाली। कार्यक्रम का पोस्टर रजनीश साहिल ने तैयार किया और प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी सभी साथियों ने मिलकर उठाई। 

रिपोर्ट: संतोष कुमार 

Tuesday, April 26, 2022

'ढाई आखर प्रेम' की सांस्कृतिक यात्रा; देश के घायल होते मिजाज पर मरहम

- कुश कुमार

वर्तमान में हम आजादी की 75 वी वर्षगांठ मना रहे हैं और इसी उपलक्ष में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) द्वारा 'ढाई आखर प्रेम' सांस्कृतिक यात्रा आयोजित की गई है। इस यात्रा में जनवादी , प्रगतिशील विचारधारा वाले अन्य संगठनों का भी सहयोग है। यह यात्रा 9 अप्रैल को रायपुर से शुरू हो चुकी है तथा 22 मई को इंदौर में इसका समापन होगा । यह यात्रा बस के माध्यम से छत्तीसगढ़ , झारखंड , बिहार ,उत्तर प्रदेश तथा मध्यप्रदेश से होकर गुजरेगी । 

         आज आजादी के 75 साल होने पर तरह-तरह के कार्यक्रम किए जा रहे हैं इन सबके बीच इप्टा की यह यात्रा अलग ही तरह की एक सांस्कृतिक पहल है , क्योंकि यह आजादी के जश्न से ज्यादा आजादी और आजादी के मूल्य -  प्रेम, भाईचारे की हिफाज़त को महत्व देती है जो इस वक्त तेजी से धुंधले पड़ते जा रहे हैं। इप्टा अपने स्थापना काल (1943) से आज तक इन्हीं मूल्यों के लिए काम करती रही है। आजादी के आंदोलन में इप्टा की विशेष सांस्कृतिक और आंदोलनकारी भूमिका रही तथा बंगाल के अकाल जैसी समस्याओं से निपटने में भी इप्टा का रचनात्मक सहयोग रहा। इप्टा के कलाकार नाटकों, जनगीतों तथा चित्रों आदि के माध्यम से हमेशा जनवादी मूल्यों और मानवता के लिए काम करते आए हैं। 

        आज हम एक तरफ आज़ादी का 75 वाँ साल मना रहे हैं तो दूसरी तरफ जिन व्याधियों से आजादी के लिए हमने संघर्ष किया था वे इस देश को आज भी अपने शिकंजे में जकड़े हुए हैं। आज भी देश में गरीबी, सांप्रदायिकता, नफरत , ऊंच-नीच, भेदभाव , अत्याचार जैसी समस्याएं ना सिर्फ बनी हुई हैं बल्कि तेजी से बढ़ती जा रही हैं। आजादी के लिए लड़ने वाले हमारे पूर्वजों का सपना ऐसा समाज बनाने का था जहाँ सब को सम्मान तथा समान हक के साथ जीने का अधिकार हो , जहाँ नफरत , द्वेष ना हो तथा पंक्ति में खड़ा आखरी व्यक्ति भी अपनी मूलभूत जरूरतें पूरी कर सके । जबकि वर्तमान में मूलभूत मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने के लिए नफरत, सांप्रदायिकता की आग में देश को झोंका जा रहा है। ऐसे में जरूरत है इस आग से देश को बचाने की और यह कबीर, गुरु नानक, अंबेडकर, भगत सिंह, गांधी,सावित्रीबाई जैसों के पद चिन्हों पर चलकर ही संभव है। ढाई आखर प्रेम यात्रा इन ही महान व्यक्तित्व के पद चिन्हों पर चल रही है। आज जब नफरत, हिंसा को हमारी संस्कृति बता कर उस पर गर्व करने को कहा जा रहा है, ऐसे में यह यात्रा हमें हमारी उदार सहिष्णु और अहिंसक असली संस्कृति का स्मरण कराती है । उदारता, सहिष्णुता के गुणों के कारण ही हमारी सभ्यता और संस्कृति हमेशा मजबूती से खड़ी रहीं हैं और यह यात्रा इन्हीं गुणों को समर्पित है। 


      मैं इस यात्रा में रायपुर से भागलपुर तक13 दिन रहा। यात्रा की शुरुआत ही छत्तीसगढ़ के लोक नृत्य 'नाचा गम्मत' तथा कबीर के भजनों से हुई । यात्रा में हम 'ढाई आखर प्रेम के पढ़ने और पढ़ाने आए हैं ,  हम भारत से नफरत का हर दाग मिटाने आए हैं ...' जैसे गीत गाते चल रहे हैं।यह यात्रा 20-25 कलाकारों की टोली है जो राज्यवार बदलते रहते हैं तथा कुछ पूरी यात्रा में भी शामिल हैं । हर राज्य की इकाई अपने-अपने अंदाज में गीतों की प्रस्तुति दे रही है और आम लोगों तक बखूबी यात्रा का संदेश पहुंचा रही है । इप्टा की हर इकाई कुछ नए गीत, कविता, नाटक लेकर आ रही है जो यात्रा को और विविध और उत्साहपूर्ण बना देते हैं । इस यात्रा में रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की कविता 'मैं किसान हूं आसमान में धान वो रहा हूँ ' की प्रस्तुति दी जा रही है। इस यात्रा में पाखंड और कथित संस्कृति के नाम पर दबा दी गई स्त्री की मुक्ति के लिए महादेवी वर्मा द्वारा लिखित कविता 'मैं हैरान हूं यह सोचकर' की प्रस्तुति दी जा रही है। इस यात्रा में नेहरू के वक्तव्य 'भारत माता कौन?' की प्रस्तुति दी जा रही है , जिससे लोगों को बताया जा सके कि भारत माता वह नहीं जिसकी आजकल डरा धमका कर जय बुलबाई जा रही है, भारत माता सिर्फ देश की जमीन भी नहीं है।असली भारत माता तो यहां के लोग,मजदूर,किसान, संसाधन हैं और इन्हीं की सेवा करना तथा इनकी रक्षा करना भारत माता की जय बोलना है। यात्रा में हर इकाई द्वारा इसी तरह जागरूक करने वाली तथा प्रेम को बढ़ावा देने वाली प्रस्तुतियां दी जा रही हैं । यात्रा  शहीदों, कलाकारों , लेखकों तथा समाज को दिशा देने वाले व्यक्तियों से संबंधित स्थानों पर जरूर जा रही है और उन्हें याद करते हुए इन स्थलों की मिट्टी  एक कलश में जमा की जा रही है । यह कलश हमारी साझी सहादत साझी विरासत का ही प्रतीक है । यह यात्रा आदिवासियों से मुलाकात कर रही है, किसान मजदूरों से मुलाकात कर रही है , यह  विस्थापितों से मुलाकात कर रही है ,  यह यात्रा बच्चों एवं महिलाओं के साथ महिला मुक्ति के कार्यक्रम कर रही है तथा यह दलित बस्तियों की तंग गलियों में जा रही है और सांस्कृतिक कार्यक्रम कर रही है। इस यात्रा के दौरान हर इकाई अलग-अलग प्रयोग कर रही है। कहीं खुले मंच पर कार्यक्रम किया जा रहा है ताकि आम लोग ज्यादा से ज्यादा जुड़ पाएं तो कहीं स्कूलों में कार्यक्रम तय किया जा रहा है और बच्चों को इस यात्रा से परिचित कराया जा रहा है , तो कहीं रोचक भाषणों के माध्यम से लोगों को संदेश दिया जा रहा है तो कहीं सिर्फ नाटक और गीतों के माध्यम से अपनी बात रखी जा रही है । अब बस पर  लाउडस्पीकर पर 'गंगा की कसम,जमुना की कसम', 'ढाई आखर प्रेम के पढ़ने और पढ़ाने आये हैं' जैसे गीत भी चल रहे हैं , जिससे और भी लोगों का ध्यान खिंचने लगा है। बिलासपुर में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिजनों को सम्मानित किया गया तथा अंबिकापुर में सफाई कर्मियों को सम्मानित किया गया, यह  लोगों से जुड़ने का एक अच्छा तरीका है।

       


इस यात्रा के कलाकारों को लोगों का भरपूर प्यार और समर्थन मिल रहा है। हम झारखंड के लातेहार जिले के निंद्रा गांव में थे । ये आदिवासियों का गांव है । इस गांव के लोगों का आजादी के आंदोलन में योगदान रहा है जिनकी बड़ी-बड़ी मूर्तियां सड़क किनारे लगी हुई हैं ।जब हम यहां कार्यक्रम करने पहुंचे तो लोग हमें घेर कर खड़े हो गए तथा बड़े ध्यान से हमारी बातें सुनीं। इसके बाद एक युवती बाल्टी भरकर पीने का पानी ले आई। वह गांव में ही एक और  जगह जहां उनका सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था, चलने का बार- बार अनुरोध करती रही लेकिन समय के अभाव के कारण हम चाह कर भी वहां नहीं जा सके। यह लोग इतने प्रेम और स्नेह से पूर्ण हैं कि हम इन्हें क्या प्रेम सिखाएंगे? बल्कि हम ही इनसे सीखेंगे। वैसे भी यह यात्रा प्रेम भाईचारे को सिखाने ही नहीं सीखने भी निकली है । तभी तो इसका गीत है ढाई आखर प्रेम का पढ़नेऔर पढ़ाने आए हैं...।

        हर तरह की नफरत, सांप्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता के खिलाफ निकली इस यात्रा को कुछ लोग समझते हैं कि हम सिर्फ हिंदुओं को प्रेम भाईचारे की जिम्मेदारी दे रहे हैं और आज की बनाई गई साजिश पूर्ण तस्वीर के मुसलमानों को नहीं। वे मानते हैं कि प्रेम भाईचारे ने उनके देश , धर्म को बर्बाद कर दिया है तथा उनकी संस्कृति खतरे में है । कुछ को यह यात्रा आश्चर्य पूर्ण काम लगती है , उन्हें आश्चर्य होता है कि ऐसे समय में भी प्रेम की बातें होती हैं ! जबकि कुछ को मानो ऐसे कार्यों का ही इंतजार था । वह यात्रा का समर्थन करते हैं और इसका कारण यही है कि वह प्रेम की ताक़त को पहचानते हैं।

      यह यात्रा इसी तरह प्रेम का संदेश देते हुए आगे बढ़ रही है और आज देश के घायल होते मिजाज पर मरहम की तरह है । यह अपने उद्देश्य में अवश्य सफल होगी।




(कुश भारतीय जन नाट्य संघ (IPTA) की अशोक नगर (मध्य प्रदेश) इकाई से संबद्ध युवा स्केच आर्टिस्ट हैं. इस यात्रा के कई पड़ावों को उन्होंने अपनी कला के माध्यम से चित्रों में दर्ज किया है.)


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Sunday, January 19, 2020

The Censorship

- Satyabhama Rajoria


In all civilized societies, censorship has been a contentious issue. In a crude sense, censorship is synonymous with banning. It can be understood as restricting those expressions in spoken, written or performed form, which are considered to be against the order of the day, incumbent regime and or
against much more vague formations like public morality. In India, formal censorship has existed since colonial times. Many books, plays, films, writers, were censored at that time. Our white rulers repeatedly invoked draconian penal provisions of the IPC like Section 153, 124 and 99. Independent India also inherited many of these forms of formal censorship, although the Right to Freedom of Speech and Expression was enshrined in the Constitution, but with vaguely defined exceptions of course.

Significant here is also the issue of censorship imposed by extra-legal means, that is societal censorship and norms. Jacques Derrida, when discussing literary censorships in democratic polities and societies, he asserts that “Without literature, democracy is not possible and with lack of democracy, literature is also not possible” Here Derrida very significantly underlines the correlation
between the democratic functioning of a society and the production of knowledge and literary expression. He strongly argues that under any circumstance literature (or any kind of cultural expression) and democracy cannot be separated neatly. 

From Colonial Times to our day, the instances of imposing censorships are literally uncountable. Lord Lytton’s notorious Vernacular Press Act serves as a perfect example of the state’s attempts at gagging non-conforming voices. Munshi Premchand’s first collection of short stories, Soz-E-Vatan was banned. Similarly, Angarey, a collection of stories by four firebrands like Sajjad Zaheer,
Ahmed Ali, Rashid Jahan and Mahmuduz Zafar was banned by the Government of the United Province under Section 295A of IPC after a wave of protest by the orthodox Muslim opinion of that time. The writers of Angarey, were intimidated and the only woman contributor to the collection, Rashid Jahan was threatened with an acid attack if she would dare show her face in public. Even the Nobel laureate Rabindranath Tagore was not spared and his book Letters from Russia was banned.

Post-independence too, challenges to the established norms of the society, however decadent they may be, and opposition to the government was never taken lightly. Hindi poet Gajanan Madhav Muktibodh's book Bharat: Itihaas aur Sanskriti which was written as a history textbook for Madhya Pradesh schools was targeted by the fundamentalists. They got the book banned and
Muktibodh never recovered from that trauma till his untimely demise at the meagre age of 46. The emergency of the 1970s remains a dark chapter of choking free voice. A painter of the statue of M.F Hussain had to choose self-exile from his own country because he “violated” the established norms of the society.

Attempts to stifle the free voice (read, the proper functioning of democracy) have also taken extreme forms. Nearly 30 years ago, Safdar Hashmi's theater group JANAM was attacked while performing a street play Halla Bol in a program organised by the Centre of Indian Trade Unions (CITU) in support of workers demands in UP's Jhandapur village. Safdar was beaten with iron rods and he succumbed to his injuries the next day. Restrictions on the free flow of ideas have taken a more assertive, more violent form in recent times. Writers like Narendra Dabholkar, Govind Pansare, M.M. Kalburgi and Gauri Lankesh were killed in cold blood for the “sin” of saying or writing things which were not in conformity with the established. The Tamil writer Perumal Murugan declared himself dead as a writer because of the harassment he faced. The instance of IIT-Kanpur authorities accusing the poem Hum Dekhenge by Faiz Ahmed “Faiz” to be anti-Hindu, is fresh in public memory.

Freedom of expression, cultural or otherwise is intrinsically linked with the proper functioning of a democracy. The Capability Approach to development advocates that people should be able to exercise their “freedoms” in order to realize their potential or capabilities. Liberty is a fundamental characteristic of a democracy and the attempts to constrict it can produce disastrous consequences for the well being of democracy itself and the citizens. As the saying goes “Literature is the mirror of society”, the curtailing of free speech cracks this mirror and blunts the artistic expression’s potential to produce a healthy criticism of the prevailing order. The prophetic George Orwell famously said “If liberty means anything at all, it means the right to tell people what they do not want to hear.” Without informed debates on people’s issues, there cannot be an introspection and course correction and art is what ingrains all these ideas in the collective consciousness, whether it be in the form of a protest song or a political cartoon.

In these times when the legitimacy of questioning is being threatened by authoritarian populism, it is an imperative to fiercely protect our hard-earned rights and liberties. An anecdote in this regard is worth mentioning here. When Safdar Hashmi died after receiving fatal blows on the 1 st of January 1989 while performing his play, his troupe went to the same place in Jhandapur and staged the same play Halla Bol as a way of protest. This was also an attempt to reclaim our freedom to perform, sing, paint or write and to regain our spaces. We should be especially alert in our grim times, when legal and extra-legal forces are snatching our freedoms and trying to impose external and internal censors on us. The famous writer and critic Henry Loius Gates Jr. said “Censorship is to art as lynching is to justice” Vigilance and resistance is necessary because we are seeing both of them are frequent today.

Tuesday, January 8, 2019

समकालीन कविता और कविता का रंगमंच


   
- शरद कोकास

     विता की सार्वजानिक प्रस्तुति हमारी परम्परा में शामिल है यदि हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो वैदिक काल में 'ऋषयो मंत्र दृष्टार: ' की अवधारणा में ऋषियों द्वारा मन्त्रों को देखे जाने का उल्लेख है श्रुति परंपरा में कविता का पाठ ऋषियों द्वारा अपने शिष्यों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता था जिसे वे इसी परंपरा में अपनी आनेवाली पीढ़ियों का सौंपते थे । संभवतः इस पाठ में अभिनय भी शामिल होता था जिसके प्रमाण हमें आगे चलकर इस विधा पर स्वतन्त्र रूप से लिखे गए नाट्य शास्त्र में मिलते हैं ।

      आदिमकाल में भाषा के अविर्भाव से पूर्व संकेत की भाषा विद्यमान थी भाषा के प्रवेश के पश्चात उसे चित्रात्मक लिपि में देखना प्रारंभ हुआ भाषा के प्रवेश के पश्चात जब काव्यकला का उद्भव हुआ तब भी कविता की प्रस्तुति में अंग संचालन और संकेतों का प्रभाव उपस्थित रहा प्रस्तुतकर्ता कविता का पाठ करते समय अंग संचालन एवं हाव-भाव द्वारा अपने लिखे शब्दों को दृश्यरूप प्रदान करता था कालांतर में इस एकल प्रस्तुति में कवि के अतिरिक्त अन्य लोगों का भी समावेश हुआ, भिन्न कविता पंक्तियों और वर्णित दृश्यों के अनुसार विभिन्न पात्रों की रचना की गई और मंच पर तदनुसार दृश्य उपस्थित किया गया

      इसी तारतम्य में लोक परम्परा का अवलोकन करते हुए हमें ज्ञात होता है कि आदिम मनुष्य के जीवन में भाषा के उद्भव के साथ जब जीवन के क्रियाकलापों को लेकर गीतों की रचना हुई तो उसने सर्वप्रथम श्रम के गीत रचे और शिकार, अन्न संग्रहण, पशुपालन एवं कृषि से सम्बंधित विभिन्न क्रियाकलापों को गीतों के माध्यम से प्रस्तुत किया । शिकार पा लेने की प्रसन्नता को वह नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करता था । हम अभी भी कुछ आदिवासी समाजों में यह परम्परा देखते हैं कि वे गीतों के माध्यम से शिकार और सम्बंधित क्रियाकलापों का साभिनय वर्णन प्रस्तुत करते हैं जिसमे एक व्यक्ति हिरण बनता है और एक शिकारी । उनकी वेशभूषा भी पात्र के अनुसार होती है जिसमे में सींग, खाल आदि धारण करते हैं इसी तरह कृषि सम्बंधित विभिन्न कार्यों को भी वे गीतों पर अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं जिसमें अनाज बोने से लेकर काटने, और उन्हें देवता को अर्पित किये जाने तक के दृश्य शामिल होते हैं ।

      नाट्यकला के उद्भव के पश्चात गध्य नाटकों के विकास से पूर्व काव्य नाटक ही मंच पर प्रस्तुत किये जाते थे । वाल्मीकि कृत महाकाव्य रामायण के मंचन से इस कला का प्रारम्भ हुआ जिसकी लोक में परिणति तुलसीदास की काव्य कृति रामचरित मानस की रामलीला मंचन के रूप में हुई । कृष्ण भक्ति पर आधारित रचनाओं का भी मंचन किया गया । यह परंपरा सर्वप्रथम उत्तर भारत में प्रारंभ हुई लेकिन दक्षिण भी इससे अछूता नहीं रहा और विभिन्न कलारूपों में इसकी प्रस्तुति होती रही । दक्षिण के लोक कवियों की प्रस्तुति तो पूर्व में ही होती रही । भव्य मंच और मंदिरों के प्रांगण इनके प्रस्तुति स्थल रहे ।

      कविता की लोक में प्रस्तुति के रूप में हम कालान्तर में आई नौटंकी विधा को भी रख सकते हैं जिसमे समस्त संवाद पद्यात्मक ही होते थे । सुल्ताना डाकू, गुलफ़ाम, अलिफ़ लैला जैसी नौटंकी में जहाँ शेरों शायरी में उर्दू, अरबी, फारसी का इस्तेमाल होता था वहीं आल्हा-उदल राजा हरिश्चंद्र जैसी नौटंकी में स्थानीय ब्रज, अवधि, भोजपुरी आदि भाषाओँ में लिखे छंदों का प्रयोग होता था । उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में पारसी नाटकों का भी अविर्भाव हुआ जो अनेक दशकों तक चलते रहे, इनमें भी शेरो शायरी का आधिक्य रहा और अभिनेता दर्शकों पर प्रभाव डालने के लिए ऊँचे स्वर में किसी कथा के साथ उन्हें प्रस्तुत करते रहे । कविता की मंच पर प्रस्तुति के सन्दर्भ में हम वैश्विक परिप्रेक्ष्य में यूनानी नाटकों की प्रस्तुति को देख सकते हैं जिनमे एक निश्चित संख्या में अभिनेता ऊँचे स्वर में कविता का गायन करते थे । पश्चिम में शेक्सपियर और मौलियर के युग में भी इस परंपरा का निर्वाह होता रहा ।

      हिंदी साहित्य में कविता के युग के आगमन के पश्चात भक्तिकाल, रीतिकाल से लेकर आधुनिक युग तक कविता अपने विभिन्न रूपों में आई । तत्पश्चात प्रगतिवाद, नई कविता जैसे आन्दोलन भी चले और यह सम्प्रति समकालीन कविता तक पहुंचे  । भक्तिकाल और रीति काल में कविताओं का मंचन नाट्य विधा का एक महत्वपूर्ण अंग था । मध्यकाल में जब अलग अलग बोलियों और भाषाओं में कविता रची जा रही थी लोक नाट्यों में भी वह उसी रूप में आई तथा संगीत इसका प्रमुख आलंबन रहा । अठारहवीं शताब्दी तक नाटक में कविता और संवाद का मिलाजुला रूप भी हम देख सकते हैं । आधुनिक काल तक आते आते नाट्य विधा का अपनी सम्पूर्णता में विकास हुआ और नाटक का मंच खड़ी बोली में लिखे जा रहे नाटकों से समृद्ध हुआ । उन्नीसवीं शताब्दी में गद्य नाटकों का लेखन प्रारम्भ हुआ जिसका विकास बीसवीं शताब्दी तक हुआ । यह माना जाने लगा कि कि नाटक के मंचन के लिए एक कहानी और गद्य में लिखे संवाद तथा उसमे बुने गए दृश्य ही पर्याप्त हैं यद्यपि संवादों में काव्यात्मकता का पुट भी शामिल रहा किन्तु उनका रूप कविता से भिन्न था । नाट्यलेखन का अपने आप में एक पूर्ण विधा के रूप में विकास हुआ और कवि, गीतकार, कथाकार की भांति नाटककार को भी साहित्य जगत में उचित स्थान प्राप्त हुआ ।

      इस तरह के नाट्य मंचन में सम्पूर्ण संवाद गद्य में ही होते थे । धीरे धीरे कविता इस मंच से निष्काषित होती गई । लोक नाट्यों के मंचन में भी कविता के स्थान पर गद्य के वाक्यों का प्रयोग होने लगा । आधुनिक काल में महाभारत महाकाव्य पर आधारित पंडवानी, लोक नाट्य नाचा, नौटंकी और रामलीला में भी कविता का यह हश्र हम देख सकते हैं । रामलीला में मानस के दोहे केवल पूरक के रूप में शेष रहे । विभिन्न मिथकों पर आधारित खड़ी बोली में लिखे नाटकों से तो कविता के संवाद पूरी तरह गायब हो गए, उदाहरण के रूप में महाभारत महाकाव्य पर आधारित अंधायुग के संवादों को देख सकते हैं । बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रारंभिक दौर में प्रयोगधर्मी नाटकों में यद्यपि गीतों का प्रयोग जारी रहा किन्तु उसका कारण उनकी गेयता और छंदबद्ध होना था समकालीन कविता मुक्तछंद होने के कारण रंगकर्मियों के लिए असाध्य ही रही

      लेकिन आज प्रसन्नता इस बात की है कि समकालीन कविता के शिल्प में अब पुनः मंच पर कविता की वापसी हो रही है । ऐसा भी नहीं है कि समकालीन कविता के प्रारंभिक दौर में इसके मंचन हेतु प्रयास नहीं किये गये लेकिन नाट्य विधा से जुड़े लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या इसके सम्प्रेषण की थी । नाटकों के मंचन में गद्य में लिखे संवादों की दर्शकों को इतनी आदत हो गई थी कि वे उसे कविता के रूप में ग्रहण करने में असमर्थ थे । दूसरी समस्या समकालीन कविता का छन्दबद्ध न होना, इसका शिल्प संवाद के रूप में न होना तथा बिम्ब एवं प्रतीकों का आधिक्य होना था । रंगकर्मियों के लिए भी यह समस्या थी, इसलिए कि संवादों से युक्त नाटक का मंचन और उस पर अभिनय उनकी आदत में शामिल हो चुका था यह दर्शकों को भी पसंद आने लगा था और निर्देशक नए प्रयोग नहीं करना चाहते थे । यद्यपि पूर्व समय में छंदबद्ध कविता में भी संवादों की और दृश्यों की उपस्थिति थी और उसका मंचन भी सरल नहीं था किन्तु अपनी गीतात्मकता और लयबद्धता के कारण वह दर्शकों तक पहुँचती रही । अलावा इसके एक प्रमुख कारण यह भी था कि गद्य नाट्यलेखन का एक स्वतन्त्र विधा के रूप में विकास हो रहा था और वह अपनी शैशवावस्था में था ।

      शनैः शनैः दृश्य परिवर्तन होता है और कुछ प्रयोगगामी निर्देशक कविताओं के मंचन हेतु अग्रसर होते हैं । आधुनिक कविता और नाट्य कला के विकास के साथ कुछ नाट्य निर्देशकों ने समकालीन कविता के मंचन में अनंत संभावनाएं देखीं और सम्प्रेषणीयता का जोखिम उठाते हुए भी कुछ महत्वपूर्ण कविताओं के मंचन का सिलसिला प्रारंभ किया । समकालीन कविता को लेकर सर्वप्रथम प्रयास मुक्तिबोध की कविताओं को लेकर प्रारंभ हुए । मुक्तिबोध की कविता का मंचन आसान नहीं था । मुक्तिबोध को एक जटिल कवि माना जाता है और हिंदी साहित्य के अच्छे अच्छे अध्येता भी उनकी कविताओं को समझ पाने में कठिनाई का अनुभव करते हैं । लेकिन मुक्तिबोध की कविताओं की एक विशेषता यह भी है कि उनकी कविताओं में दृश्यात्मकता प्रमुख है जो एक नाट्य निर्देशक के लिए बहुत महत्वपूर्ण बिंदु है । कठिनाइयाँ अवश्य थीं लेकिन ऐसा भी नहीं था कि मुक्तिबोध की कविता का मंचन नहीं किया जा सकता था । निर्देशकों ने उनकी समझ में आने वाली कुछ पंक्तियाँ चुनीं , उदाहरण के लिए कुछ पंक्तियाँ देखिये ।

ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया जीवन क्या जिया
उदरम्भरि बन अनात्म बन गए
भूतों की शादी में कनात से तन गये
किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर
बहुत बहुत ज़्यादा लिया
दिया बहुत कम
अरे ! मर गया देश जीवित रह गए तुम   

      लगभग आठवें दशक में मुक्तिबोध से ही कविता के मंचन की शुरुआत हुई । प्रसिद्ध रंग निर्देशक अलखनंदन, अरुण पाण्डेय तथा जयंत देशमुख ने मुक्तिबोध की कविताओं को दृश्य रूप में मंच पर उपस्थित किया । आलोचक जयप्रकाश बताते हैं कि सन उन्नीस सौ अस्सी में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा राजनांदगाँव में आयोजित 'मुक्तिबोध संगम' में रंग निर्देशक मुकेश शर्मा के निर्देशन में मुक्तिबोध की रचना ' ओरांग उटांग ' का प्रभावशाली मंचन किया गया । मुक्तिबोध की कविताओं में उनकी लम्बी कविता ' अँधेरे में ' इन नाट्य निर्देशकों का प्रिय विषय रही । मुक्तिबोध की कविताओं का रहस्यमय संसार, उसमे बुनी गई वह फैंटासी, उनकी कविता में उपस्थित वह लम्बा जुलूस, बूढ़ा तालाब, ब्रह्मराक्षस सब कुछ मंच पर साकार होता गया । उनकी कुछ पंक्तियाँ जैसे ' स्वार्थों के टैरियर कुत्ते पाल लिए  ' 'भावना के कर्तव्य त्याग दिए ' लोकहित पिता को घर से निकाल दिया ' जन मन करुणा सी माँ को हकाल दिया ' तर्कों के हाथ उखाड़ दिए ' अपने ही कीचड़ में धँस गए ' विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में ' ' आदर्श खा गए खेल ही खेल में ' जैसी पंक्तियाँ तो अब सत्ता को कोंचने के मुहावरे के नाम पर जन जन की ज़ुबान पर हैं ।

     
रंग निर्देशकों ने इन कविताओं की प्रस्तुति में प्रॉप, वेशभूषा, ध्वनि, प्रकाश और संगीत  के माध्यम से अनेक प्रयोग किये और मुक्तिबोध की कविता की फैंटेसी को मंच पर साकार किया । यद्यपि मुक्तिबोध की कविता में दृश्य परिवर्तन बहुत तेज़ी से होते है और दो पंक्तियों के बीच छुपे अर्थ को साकार करना बहुत कठिन कार्य होता है लेकिन रंगकर्मियों ने सायास इसे कर दिखाया है मुक्तिबोध की कविताओं के मंचन का यह सिलसिला अब तक चल रहा है । अस्सी के दशक के पश्चात तो देश की विभिन्न नाट्य संस्थाओं ने मुक्तिबोध की कविताओं का मंचन किया जिनमे मध्यप्रदेश की जबलपुर, रायपुर, भिलाई, राजनांदगाँव, डोंगरगढ़ सहित इप्टा की विभिन्न इकाइयां प्रमुख हैं । जबलपुर इप्टा ने अरुण पाण्डेय के निर्देशन में मुक्तिबोध की कविताओं पर 'तुम निर्भय ज्यों सूर्य गगन के ' की प्रस्तुति भोपाल में की । कुल्लू में मीनाल कल्चरल असोसिएशन द्वारा संगीत नाटक अकादमी के लिए मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' और विभिन्न कविताओं का मंचन किया गया । छत्तीसगढ़ में अग्रज नाट्य दल के सुनील चिपणे, रोहतक के जतन नाट्य मंच के अलावा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ की अनेक संस्थाओं द्वारा मुक्तिबोध का मंचन अब तक जारी है ।

       मुक्तिबोध के अलावा कई अन्य कवि भी रंग निर्देशकों के प्रिय कवि रहे । भोपाल के भारत भवन में रंग निर्देशक अलखनंदन ने श्रीकांत वर्मा के संकलन 'मगध' की कविताओं की प्रस्तुति की । जबलपुर इप्टा द्वारा अरुण पाण्डेय के निर्देशन में कवि ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं का 'भिनसार' नाम से मंचन हुआ । पहल सम्मान के अवसर पर नागपुर में कवि कथाकार उदय प्रकाश की कविताओं का 'ताना-बाना' शीर्षक से मंचन हुआ । 'विवेचना' द्वारा ही आलोक धन्वा को पहल सम्मान दिए जाने के अवसर पर दो हज़ार पाँच में उनकी कविताओं का मंचन भारतीय भाषा परिषद के सभागृह में कोलकाता में हुआ जिसमे देश के अनेक वरिष्ठ साहित्यकार उपस्थित रहे । इसी तरह भगवत रावत की कविताओं का मंचन 'शायद वह एक कवि था' के नाम से तथा सोमदत की कविता ' रेल बोगदे में ' का मंचन जबलपुर में किया गया ।

      अभी हाल फ़िलहाल रंग निर्देशक राजकमल नायक द्वारा रायपुर में  ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं का मंचन ' गंगातट ' शीर्षक से किया गया है । रायपुर इप्टा के मिन्हाज़ असद ने 'चकमक की चिंगारी ' शीर्षक से मुक्तिबोध की कविताओं की संगीतमय प्रस्तुति की जिसमे संगीत पक्ष रंग निर्देशक आबिद अली का था । जबलपुर इप्टा द्वारा गुलज़ार की कविताओं का मंचन ' रेशम का यह शायर ' नाम से भी किया गया । रंग निर्देशक अरुण पाण्डेय ने रघुवीर सहाय की कविताओं को भी मंच पर प्रस्तुत किया । मानव कौल द्वारा काफी पहले गोरख पाण्डेय की कविताओं का मंचन किया गया था इसके अलावा भी अनेक लोगों ने कविताओं का मंचन किया है जिनमे मनोज नायर, सौरभ अनंत, संजय मेहता आदि हैं । मनोज नायर ने कवि संतोष चौबे की कविताओं का मंचन किया है । कवि विनोद दास बताते हैं कि लखनऊ इप्टा द्वारा राकेश जी के निर्देशन में मुक्तिबोध,रघुवीर सहाय, लीलाधर जगूड़ी,राजेश शर्मा और विनोद दास की कविताओं का मंचन किया गया ।  

      इप्टा लखनऊ ने समकालीन कविता के मंचन की दिशा में अनेक प्रयोग किये हैं युवा रंगकर्मी और संगीतकार रवि नागर ने अनेक कवियों की कविताओं का चयन किया और इप्टा लखनऊ के स्वर्ण जयंती समारोह के अंतर्गत इनकी प्रस्तुति दी इनमे रघुवीर सहाय की चर्चित कविता 'अधिनायक' भी है जिसकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं 'राष्ट्रगीत में कौन भला वह भारत भाग्य विधाता है , फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है ।' इसके अलावा कुँवर नारायण की कविता ' टूटे हुए खंजर की मूठ' , लीलाधर जगूड़ी की कविता 'पाटा' , त्रिलोचन की कविता 'परिवर्तन'  केदारनाथ अग्रवाल की प्रसिद्ध कविता ' एक हथौड़े वाला घर में और हुआ ' शमशेर बहादुर सिंह की कविता ' प्रातः नभ था बहुत नीला ' और कैफ़ी आज़मी की नज़्म की भी संगीतमय प्रस्तुति की गई रवि नागर द्वारा कवि राजेश शर्मा की कविताओं की भी प्रस्तुति इनमे शामिल है  

      समकालीन कविता का मंचन अब रंग निर्देशकों का प्रिय विषय है और जिसमे अब अनेक नए नए नाम सामने आ रहे हैं जिनमे इप्टा रायपुर के निसार अली जिन्होंने ब्रह्मराक्षस कहानी व कविता का मंचन किया तथा मिन्हाज़ असद, दिनेश चौधरी जैसे नाम हैं । इसके अलावा अब अनेक युवा कवियों की कविताओं का मंचन भी विभिन्न रंग निर्देशकों द्वारा किया जा रहा है विगत दिनों महाराष्ट्र मंडल रायपुर द्वारा आचार्य रंजन मोड़क  के निर्देशन में लम्बी कविता 'पुरातत्ववेत्ता' और 'देह' के कवि शरद कोकास की कविता 'तितलियाँ गुम  हैं' का मंचन किया गया इसके अलावा युवतर कवि  पूर्णाक्षी साहू, आमना मीर , शिज्जू ठाकुर, मिताली , कल्पेश पटेल और सुजश शर्मा की कविताओं को लेकर एक कोलाज  'अंतर्द्वंद्व ' शीर्षक से प्रस्तुत किया गया । उसी तरह धमतरी में कवि विजय पंजवानी और त्रिलोक महावर की कविताओं का मंचन किया गया । युवा रंगकर्मी सिग्मा उपाध्याय ने हाल ही में नाज़िम हिकमत और कुँवर नारायण की कविताओं को लेकर एक प्रस्तुति भिलाई में दी है

      इसी तारतम्य में इलाहाबाद की नाट्य संस्था बैक स्टेज द्वारा प्रवीण शेखर के निर्देशन में वामिक जौनपुरी की कविता 'नीला परचम', राही मासूम रज़ा की 'बावन साल पुरानी आँखें ' भवानी प्रसाद मिश्र की रचना 'गीत फ़रोश', आदम गोंडवी की रचना 'चमारों की गली', तथा धर्मवीर भारती की रचना 'मुनादी' का मंचन किया गया । प्रवीण शेखर ने इसके अलावा इमन्यूएल आर्तेज की प्रसिद्ध कविता 'एक मिनट का मौन' तथा पोलैंड की कवयित्री क्रिस्टीना रोजीटी की कविता 'गोब्लिन मार्केट' को 'माया बाज़ार' के नाम से मंचित किया ।      

      मंच पर कविताओं की प्रस्तुति के अलावा इन दिनों नाट्य समीक्षकों द्वारा कविताओं के मंचन का दर्शकों पर प्रभाव का भी आकलन किया जा रहा है । सामान्यतः दर्शकों का परिचय कवि के नाम से होता है लेकिन उनकी कविताएँ उन्होंने पढ़ी नहीं होती । कविताओं के नाम पर उन्होंने हास्य व्यंग्य के मंच पर और चैनलों में प्रस्तुत कविताएँ ही सुनी होती हैं किन्तु गंभीर कविताओं से मंच पर जब उनका साक्षात्कार होता है तो वे इसका स्वागत करते हैं और इसे बहुत गंभीरता से लेते हैं । आश्चर्य यही है कि मुक्तिबोध जैसे कवि की गंभीर कविताएँ सबसे अधिक सराही गईं । यह अलग बात है कि इप्टा के द्वारा किये जा रहे कविता के मंचन में सामान्यतः बुद्धिजीवियों और रंगकर्म से जुड़े लोगों की संख्या अधिक होती है किन्तु इसके अलावा दर्शकों में जन आन्दोलनों से जुड़े लोग तथा मजदूर वर्ग के भी अनेक लोग होते हैं जिनकी साहित्य की समझ पर संदेह नहीं किया जा सकता । इप्टा द्वारा अब कविताओं को अभिनय के माध्यम से सडकों और चौराहों पर भी प्रस्तुत किया जा रहा है जिनका दर्शक आम व्यक्ति है

      वर्तमान में समकालीन कविता के मंचन को लेकर रंग निर्देशकों द्वारा विभिन्न प्रयोग जारी हैं । इन निर्देशकों द्वारा बहुत अध्ययन के पश्चात कविताएँ चुनी जाती हैं । समकालीन कविता के अंतर्गत अधिकाँश रूप से प्रगतिशील और जनवादी कवियों की कविता का चयन किया जाता है साथ ही कविता में विजुअल्स की संभावना को ध्यान में रखा जाता है । यदि सम्पूर्ण कविता का मंचन संभव न हो तो कविता के किसी एक अंश का चयन किया जाता है । यद्यपि सम्पूर्ण गद्य नाटक में बीच बीच में कविताओं के प्रयोग का चलन तो काफी समय से है और इसकी सराहना भी दर्शकों द्वारा की जाती रही है लेकिन सम्पूर्ण कविता की काव्य पंक्तियों पर अभिनय के साथ प्रस्तुति उल्लेखनीय है ।  गद्य नाटक में बीच बीच में कविताओं की प्रस्तुति के विषय में रंग निर्देशक निसार अली ने ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा है कि "यह दुःख का विषय है कि अनेक बार मंचन के समय ऐसे कवियों का उल्लेख भी नहीं किया जाता न ब्रोशर में उनका नाम होता है बल्कि यह कविताएँ एक फिलर के रूप में उपयोग में लाई जाती हैं ।" बहरहाल यह सम्पूर्ण कविता के मंचन से अलग विषय है ।

      सम्पूर्ण कविता की नाट्य रूप में प्रस्तुति निर्देशक की सूझ बूझ और कलाकारों के अभिनय से ही सफल हो सकती है । इसके लिए निर्देशक की कविता की समझ भी बहुत मायने रखती है । निर्देशक कवि के लिखे को एक्सप्लोर करता है, कविता में उपस्थित बिम्ब और प्रतीकों को दृश्य रूप प्रदान करता है तथा उसमे निहित कथ्य और विचार को दर्शकों तक संप्रेषित करता है । वस्तुतः यह जोख़िम भरा कार्य है और ज़रा सी नासमझी से अर्थ का अनर्थ हो सकता है । ध्यातव्य है कि कविता की नाट्य रूप में प्रस्तुति का उद्देश्य सामान्य मनोरंजन से अलग है और दर्शकों पर इसका एक अलग प्रभाव होता है । सामान्य रूप से पाठ करने पर अथवा श्रवण मात्र से कविता का जो भाव व्यक्त नहीं होता है वह दृश्य, अभिनय, ध्वनि और पाठ की विविधता आदि के माध्यम से सरलता से व्यक्त हो जाता है और जन जन तक संप्रेषित होता है । बावज़ूद इसके समकालीन कविताओं के मंचन की यह विधा अभी लोकप्रिय विधा नहीं बन पाई है । अनेक कवियों की कविताओं का मंचन करने वाले रंग निर्देशक अरुण पाण्डेय का कहना है कि "कविताओं का मंचन बहुत श्रमसाध्य कार्य है । दुःख की बात है कि नाटकों की तरह अनेक बार इनका मंचन संभव नहीं होता और श्रम व्यर्थ हो जाता है ।" उनके द्वारा प्रस्तुत की गई कविताओं में केवल उदय प्रकाश, आलोक धन्वा और गुलज़ार की कविताएँ ही दोबारा प्रस्तुत की गईं, शेष कवियों की कविताओं का मंचन केवल एक बार ही हुआ । लेकिन राकेश जी इस स्थिति को लेकर निराश नहीं हैं उनका कहना है कि कविता की नाट्यरूप में प्रस्तुति ही क्या बल्कि कई बार एक नाटक का भी दूसरी बार मंचन संभव नहीं हो पाता

      बहरहाल, हम उम्मीद करते हैं कि समकालीन कविताओं के मंचन की यह अल्पजीविता कभी न कभी विराम लेगी और रंगमंच के इस नवीन और अभिनव प्रयोग की ओर दर्शकों का ध्यान आकृष्ट होगा । केवल बुद्धिजीवी ही नहीं अपितु सामान्य दर्शक भी कविता के मंचन की गंभीरता को समझेंगे और रंग निर्देशकों तथा रंग कर्मियों का उत्साह वर्धन करेंगे । कविताओं के मंचन से आम दर्शकों और जनसामान्य की साहित्य के प्रति रूचि भी जागृत होगी । यही नहीं युवा रंगकर्मी भी परम्परा से अलग हटकर की जाने वाली इन प्रस्तुतियों के माध्यम से साहित्य और कला के सामाजिक सरोकारों से परिचय प्राप्त करेंगे और कला के संसार में वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ संस्कारित होंगे । इन युवाओं का नाटक के अलावा साहित्य की अन्य विधाओं कविता, कहानी आदि से भी परिचय होगा और वे आगे चलकर कला के एक सिपाही के रूप में भविष्य के संसार में सम्भावनाओं की तलाश करेंगे ।

-शरद कोकास
स्ट्रीट 7 ज़ोन 3
न्यू आदर्श नगर
दुर्ग छत्तीसगढ़
491001
मोबा 8871665060      

Friday, January 4, 2019

रंगकर्म की निरंतरता ही उसे बचा सकती है

तिहासिक नाटक ‘दुर्गा’ के एक प्रभावशाली दृश्य में सम्राट अकबर गोंड रानी दुर्गावती को भेंट में एक चरखा भिजवाते हैं। संकेत और संदेश यह कि राज-काज महिलाओं का काम नहीं है, कपड़े-वगैरह बूनो और घर का काम-काज संभालो। तब सम्राट अकबर ने कहाँ सोचा होगा कि वे प्रतीक के तौर पर जिस चरखे का इस्तेमाल सामा्रज्य के विस्तार के लिए कर रहे हैं, वही चरखा आगे चलकर गांधी नामक एक शख्स के हाथों साम्राज्यवाद के विस्तार के विरोध प्रतीक बन जाएगा। प्रतीकों-बिम्बों के मायने और उनकी अवधारणा कालखण्ड के हिसाब से बदलती रहती है। इसलिए एक ऐसे रंगचिंतक को, जिसकी आवाजाही ‘लोक’ और ‘आधुनिक’ के बीच लगातार बनी हुई हो, अपने हुनर को पतली रस्सी में चलने की तरह साधना होता है। बुंदेलखण्डी लोक-कला के तत्वों को अपने आदिम रंगो-बू के साथ सहेज कर उन्हें आधुनिक नाटकों में बरतने का हुनर अरूण पाण्डेय के यहाँ वैसा ही दिखाई पड़ता है, जैसा हबीब तनवीर के नाटकों में छत्तीसगढ़ी का। बनारस की रामलीला में सीता का कोमल अभिनय करने वांले अरूण पाण्डेय जब जबलपुर में हरिशंकर परसाई और अलखनंदन के संपर्क में आते हैं, तो उन्हें यथार्थ के खुरदुरेपन का एहसास होता है और वे, बकौल उनके, उदयप्रकाश के दिनेश मनोहर वाकणकर की तरह खुद को जीवन की प्रयोगशाला बनने से बच-बचाकर एक लंबी रंग-यात्रा में निकल चुके होते हैं। संभवतः वे हिंदी के अकेले ऐसे नाटककार हैं, जिनके रंगमंडल ‘विवेचना’ के पास कोई पचास से भी ज्यादा नाटक हमेशा प्रदर्शन के लिए तैयार होते हैं। ‘दुनिया इन दिनों’ के लिए अरूण पाण्डेय से हुई लंबी बातचीत के संपादित अंश इस प्रकार हैंः 

रंगकर्म के अपने शुरूआती दिनों को आप किस तरह याद करते हैं?
व्यावसायिक तौर पर कहें तो रंगकर्म की शुरूआत जबलपुर से ही हुई। पर यहाँ मेरे साथ शुरू में कुछ वैसा ही अनुभव हुआ, जैसा मुंबई में उत्तर-भारतीयों के साथ होता है। मैं बनारस से यहाँ आया था। मुझे ‘आउट साइडर’ माना गया। तो जब आपको इस तरह की भावना के साथ इग्नोर किया जाए तब आपके ज्यादा ऊर्जा के साथ, ज्यादा क्षमताओं के साथ, ज्यादा रचनात्मकता और कलात्मकता के साथ अपने आपको साबित करके दिखाना होता है कि ‘प्रभु! हम खारिज कर दिए जाने लायक नहीं हैं!’ रंग-संस्कार लेकिन बनारस में ही पड़ गए थे। मेरी पढ़ाई भारतेंदु हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज में हुई। वहाँ हर साल भारतेंदु जयंती पर हरेक क्लास के हरेक सेक्शन को एक नाटक करना पड़ता था। यह अनिवार्य था। वहाँ एक गुलाबराय जी हुआ करते थे जो हरेक क्लास के मॉनिटर को बुलाकर भारतेेंदु समग्र से कोई एक आलेख थमा दिया करते थे। 4-5 दिनों का आयोजन हुआ करता था। छठी से लेकर इंटर कॉलेज तक यह सिलसिला चलता रहा तो नाटकों में रूचि स्वभाविक तौर पर पैदा हो गयी थी। फिर एनएसडी से निकलने के बाद बी.वी. कारंथ ने अपनी पहली वर्कशाप सन् 1973 में बनारस में की तो स्थानीय कलाकारों की भीड़ में मैं भी शामिल हो गया था। कारंथ साहब ने तब ‘चंद्रगुप्त’ नाटक तैयार किया। यह बारहवीं की बात रही होगी। इसके बाद पिताजी के ट्रांसफर के कारण मुझे जबलपुर आना पड़ा। यहाँ एक दिन यूँ ही राह चलते हुए अलखनंदन जी से भेंट हो गयी। उन्होंने मुझे एकाध नाटक करते हुए देखा था, सो पूछ लिया कि क्या मैं नाटकों में काम करना चाहता हूँ? मैंने हामी भर दी तो कहा कि शाम को ज्ञानरंजन जी के घर पहुँच जाना। तब ज्ञान जी अग्रवाल कालोनी वांले मकान में अपने मुहल्ले में ही रहते थे। जब पहली बार वहाँ गया तो ‘विवेचना’ फजल ताबिश के नाटक ‘डरा हुआ आदमी’ पर काम कर रही थी। तपन बेनर्जी, सीताराम सोनी, राजकुमार कामले, अजय घोष, राजेेंद्र दानी, हिमांशु राय वगैरह से इसी दौरान मुलाकात हुई। फिर ‘बकरी’, ‘दुलारीबाई’, ‘अखाड़े से बाहर’ आदि नाटकों में काम करते हुए मैं अलखनंदन जी का दुलरूआ अभिनेता बन गया था। 
आगे चलकर सुबह-शाम अलखनंदन जी के सोहबत में गुजरने लगी थी और धीरे-धीरे वे मुझे निर्देशन के गुर भी सिखाने लगे थे। ‘अखाड़े से बाहर’ में काम करते हुए उन्होंने मुझे असिस्टेंट डायरेक्टर का जिम्मा सौंप दिया था। इसमें आलोक चटर्जी भी थे। आलोक को एक तरह से मैं ही लेकर आया था। मैंने उनकी क्रिकेट कॉमेंट्री सुनी थी जो बड़ी अद्भुत हुआ करती थी। कभी संजीव कुमार की आवाज में, कभी अमिताभ बच्चन की आवाज में तो कभी शशि कपूर की। कॉमेंट्री और मिमिक्री साथ-साथ चलती थी। आलोक के पास अद्भुत कला थी पर अलखनंदन जी उन पर ज्यादा भरोसा नहीं करते थे। उन्हें लगता था कि यह कभी भी फिल्मों में भाग जाएगा। इसलिए सहायक निर्देशन के साथ-साथ उन्होंने मुझसे यह भी कह रखा था कि जरूरत पड़ने पर मैं आलोक की भूमिका करने के लिये तैयार रहूँ। 1980 में भारत भवन का गठन हुआ। रंगमंडल बना। 
अलखनंदन के भारत भवन चले जाने से जबलपुर में सन्नाटा पसर गया। लोगों का एकत्र करने वाला कोई रह नहीं गया था। विवेचना में यह सवाल उठने लगा कि जब अलखनंदन नहीं है तो कौन नाटक करेगा-करायेगा? उस समय यों ही रंगकर्म की बहुत बुरी हालत थी। तब विेवेचना स्वतंत्र रंगमंडल नहीं था। इप्टा से तो यह 84 के सम्मेलन के बाद जुड़ा। असल में विवेचना की शुरूआत सन् 1961 में परसाई जी ने की थी। यहाँ एक उषा भार्गव कांड हुआ था। तरह तरह से अफवाहें फैलायी गयी थीं। कहा गया कि इलाहाबाद से हजारो-लाखों की तादाद में ‘विधर्मी’ आ गये हैं। मार-काट डालेंगे-वगैरह। तब परसाई जी जन-जागरण के लिये सांप्रदायिकता पर, बजट-आदि पर ‘विवेचना’ के नाम से सालाना गोष्ठियाँ किया करते थे। सन् 1975 में पहली बार अलखनंदन ने शशांक का लिखा हुआ नाटक ‘जैसे हम लोग’ तैयार किया। इसमें कुल 5 लोग थे। पहली बार मई दिवस के रोज फैक्ट्री के सामने और मालवीय चौक में इसका प्रदर्शन हुआ। फिर अलखनंदन ने ‘वेटिंग फॉर गोदो’, ‘बहुत बड़ा सवाल’ वगैरह किया। तो अलखनंदन के भारत भवन, भोपाल चले जाने पर उनकी जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई।

 हमारे यहाँ, खासतौर पर हिंदी पट्टी में, मध्यमवर्गीय परिवारों में नाटकों में काम करने को बहुत अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। आपके यहाँ यह कैसा रहा?
चूँकि हमारे यहाँ बनारस वाली पंरपरा रही है, तो यह नहीं हुआ। हमारे यहाँ रामलीला होती थी। अब रामलीला तो 15-20 दिनों में खत्म हो जाती थी पर उसका सारा साजो-सामान नाना के घर में रखा होता था। नाना का परिवार 5 भाइयों वाला था। पांच नानाओं में से एक डॉक्टर थे, एक मुनीम का काम करते थे और बाकी तीन कर्मकांडी थे। ये सभी अपने काम पर निकल जाते थे। संयुक्त परिवार था तो 60-65 लोगों का खाना बनना सामान्य बात थी, महिलाएं रसोई में व्यस्त हो जातीं। तो गर्मी की दोपहरी में हम सारे बच्चे ओवर साइज कपड़े पहनकर, गदा और मुकुट वगैरह लेकर रामलीला करते थे। जो देखा था उसे ही दोहराते या कभी कुछ इंप्रोवाइजेशन भी लाते। नाटक वाली यह परंपरा घर में थी ही, पर पिताजी इसे पसंद नहीं करते थे। वे चाहते थे कि ग्रेजुएशन कर मैं कोई नौकरी कर लूँ। यहाँ जबलपुर में ज्ञान जी ने ‘पहल’ का तेरहवा अंक निकाला था। मुझे भी एक प्रति दी। घर लेकर आया तो पिताजी ने कहा ‘अच्छा! तो तुम कम्युनिस्ट बन गये हो।’ वे एलआईसी के बड़े अधिकारी थे। उनके मातहत रहे अधिकारियों ना नाटक ‘डरा हुआ आदमी’ देख रखा था। उन्होंने मेरी प्रशंसा भी की तो धीरे-धीरे उनका सहयोग मिलता गया। 

 और बनारस की रामलीला के क्या अनुभव रहे?
वहाँ मैंने कोई 7-8 सालों तक काम किया। रामलीला तो नानाजी की ही थी। कभी भरत का रोल करता, कभी लक्ष्मण का तो कभी-कभी सीता की भी भूमिका की। हमारे साथ एक होरी यादव थे। वहाँ की गल्ला-मंडी में लोडिंग-अनलोडिंग का काम करते थे। कृष्ण वर्ण, बहुत बलिष्ठ और कोई 6 फीट से भी ज्यादा की ऊँचाई। मोहल्ले में हम लोग पतंगबाजी भी करते थे। पतंग काटकर मंजा के साथ उसे लूट लेने में बड़ा मजा आता था। मैंने होरी यादव की पतंग दो-तीन बार काट ली थी। शाम को बताया गया कि आज सीताहरण का दृश्य है और सीता की भूमिका मुझे करनी है। मैंने मेकअप वगैरह कर लिया। अभी तैयार हुआ ही था कि देखा कि रावण की भूमिका में सामने होरी यादव खड़ा है। अब मेरी हालत खराब! बनारस की रामलीला गाकर खेली जाती है, दोहे-चौपाई गाये जाते हैं। इधर मेरी रूलाई और हिचकी फूटती थी और उधर ‘रावण’ आकर कह जाता था, ‘आज तो गुरू, तोहे न छोडौं! आज हम बताई तोहें!’ तो इस तरह के ढेर सारे खट्टे-मीठे अनुभव वहाँ के रहे हैं। 

 परसाई जी की रचनाओं पर आधारित ‘निठल्ले की डायरी’ आपके सबसे चर्चित नाटकों में से एक है। इसका ख्याल किस तरह से आया?
नाटकों के समानांतर मेरी पत्रकारिता तो चल ही रही थी। सन् 80 में मैं हितवाद में आ चुका था। फिर ‘नई दुनिया’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘स्वतंत्र मत’ ‘भास्कर टीवी’ वगैरह में कोई 30-35 साल तक पत्रकारिता करता रहा और इसी सिलसिले में रायपुर, बिलासपुर, इंदौर वगैरह में रहना हुआ। ‘नई दुनिया’ वांले दिनों में अखबार में परसाई जी का कॉलम छपता था और वह बेहद लोकप्रिय था। तो मैंने खुद ही यह जिम्मेदारी ली कि उनके कॉलम में कभी कोई बाधा नहीं आए। परसाई जी के घर से सामग्री लाता, उसकी कंपोजिंग की जाती, प्रूफ की जाँच होती, छपाई से पहले उसे परसाई जी को दिखाता और उनकी अंतिम स्वीकृति के बाद ही सामग्री छपा करती थी। ये परसाई जी से सघन निकटता वाला दौर था, तो इसी दौरान एक बार मैंने उनसे कहा कि आप व्यंग्य इतना बढ़िया लिखते हैं तो नाटक क्यों नहीं लिखते? यह मेरे अपने मतलब की बात थी। उन्होंने कहा कि ‘नाटक बिल्कुल अलग विधा है, यह मुझसे सधता नहीं है।’ मैंने कहा कि ‘नाटक तो आप लिख ही रहे हैं! उसमें संवाद हैं, घटना है, कास्टयूम और प्रापर्टी भी आप बता ही देते हैं क्योंकि आपका ऑब्जर्वेशन बहुत बढ़िया है।’ परसाई जी ने कहा कि ‘नाटक ही लिखा है तो खेल डालो।’ तो उनकी रचनाओं से यहाँ-वहाँ से घटनाएँ और संवाद उठाकर ‘निठल्ले की डायरी’ का जो पहला ड्राफ्ट तैयार किया वह लगभग 8 घंटे की अवधि वाला था। इसे कसते-कसाते पहली प्रस्तुति हुई जिसमें ‘कक्काजी’ स्थिर चरित्र वांले थे और ‘निठल्ला’ चलायमान था। यही नाटक के सूत्रधार भी थे।

 इन मंचनों पर परसाई जी की क्या प्रतिक्रिया रही?
वे खुश थे पर मुझे लेकर चिंता व्यक्त करते थे। दरअसल तब मेरा कोई स्थायी ठौर-ठिकाना नहीं था। आज इस अखबार में तो कल उस अखबार में। परसाई जी ने डॉ. रामशंकर मिश्रा जी से कहा भी कि मुझे इस लड़के की बड़ी चिंता लगी रहती है। तब तक मेरा विवाह भी हो चुका था। डॉ. मिश्रा ने उन्हें आश्वस्त किया कि नहीं चिंता की कोई बात नहीं है। ‘लडके’ की माली हालत ठीक-ठाक चल रही है। 

 ‘इसुरी’ पर आधारित नाटक ने भी आपको बड़ी पहचान दी। इसका अनुभव कैसा रहा?
बुदेली कवि इसुरी को लेकर मैंने बड़ा शोध किया। उनके जन्म स्थान पर भी गया। नाटक लिखा। 30 लड़के जुटाए। नाटक के लड़के चूंकि शहर के थे तो उन्हें बुंदेलखण्डी सिखाई। इस बीच संगीत नाटक अकादमी का यंग डायरेक्टर्स प्रमोशन स्कीम भी आया। तब कारंत जी को यह काम बहुत पसंद आया। वे कमेटी में थे। 9 महीने हमने रिहर्सल की। बुदेंलखण्ड का कल्चर, यहाँ की भाषा,  यहाँ का नृत्य-संगीत, पहनावा-आदि को समझने की कोशिश की। लंबी रिहर्सल हुई जो टुकड़ों में चलती थी। फिर इसे जोड़ा तो वह कोई चार घंटों का बना। फिर मुश्किल से इसकी काट-छाँट कर अंतिम रूप दिया गया। शहडोल के बाणसागर में इसकी पहली प्रस्तुति हुई। कोई इंडोर स्टेडियम जैसा था। भीड़ खूब थी पर देखने वालों में नाटक के संस्कार नहीं थे। गाने और नृत्य आते तो झूमने लगते और संवादों पर हूट करने लगते। इसके बाद जयपुर से बुलावा आया। इस बीच एक अच्छा काम यह हुआ कि नाटक में काम करने वांले 30 लोगों में जबरदस्त आपसी समझदारी विकसित हुई। नाटक के एक-एक पहलू पर गौर किया गया। कास्ट्यूम भी खुद सिलकर तैयार किए। प्रापर्टी तैयार की। शो बहुत बढ़िया रहा पर यह भी कोई ढाई घंटों का था। बीच में एक अंतराल भी दिया गया। नाटक की आलोचना हुई तो बस इसी बात को लेकर, अन्यथा बाकी चीजों की खूब सराहना हुई। हमारे सामने संकट था कि किस हिस्से को रखें और किसे काटें। सभी दृश्यों पर खूब मेहनत की गयी थी, एक-एक चीज पर गहन चर्चा हुई थी। संगीत भी लाइव था। लोकवाद्यों में नगाड़े थे, अलगोजा था, मृदंग था, मोरचंग था। इनके लिए दूर-दराज के हल्कों से साजिन्दे जुटाए गए थे क्योंकि शहर में तो कोई था ही नहीं। कालिदास समारोह से लेकर इप्टा के राष्ट्रीय महोत्सव तक में इसके प्रदर्शन हुए। इस प्रस्तुति ने एक तरह से धूम मचा दी थी।

 कलाओं की विविध लोक-शैलियों को जिस तरह से शासकीय संरक्षण मिलता है, क्या वह इनमें प्रतिरोध के अभाव को दर्शाता है? क्या ‘लोक’ से व्यवस्थाओं को खतरा महसूस नहीं होता?
अगर ऐसा है तो कबीर क्या हैं? क्या उनमें प्रतिरोध का अभाव है? अगर आप बिरसा मुंडा को अपना विषय बनाते हैं तो उनके प्रतिरोध के बगैर आपकी बात पूरी हो सकेगी? दरअसल मामला यह है कि आप प्रस्तुति के लिए किन चीजों का चयन करते हैं। समझदार या चालाक कलाकार लोक-शैलियों से उन्हीं चीजों को उठाते हैं, जहाँ कोई खतरा महसूस न हो।  ‘इसुरी’ को ही ले लें। इनका वर्णन क्या कम श्रृंगारिक है? पर जब आप जरा गहरे जाकर पैठ करते हैं तो जबरदस्त प्रतिरोध के तत्व भी निकल कर सामने आते हैं। हमने इसी पर शोध किया कि किस तरह इसुरी अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के बीज बोते हैं। उन्होंने सिर्फ श्रृगांर नहीं रचा, विद्रोह को भी स्वर दिया। फिर इसुरी की प्रस्तुति को लेकर एक अन्य पहलू पर भी बात करें जो कि मैं समझता हूँ कि बहुत जरूरी है। बुंदेली शहरों में विस्मृत हो गयी थी। 78-79 तक ‘राई’ नृत्य शहरों में एक तरह से वर्जित-सा हो गया था। मैं इसुरी में तब की विख्यात कथक नृत्यांगना स्वाति मोदी को लेकर आया। उनके गुरू तालमणि भट्ट जी ने कहा कि यह नृत्य तो बेड़नियों द्वारा किया जाता है। वे वेश्याएँ होती हैं। अगर यह करना हो तो मैं तुम्हें नहीं सिखा पाऊँगा। लेकिन वे अडिग रहीं और शहरों में राई नृत्य को लेकर वर्जना टूटी। एक साथ कोई तीन-तीन सौ लड़कियों ने राई नृत्य किया और शहरी लड़कों में बुंदेली बोलने की हिचक कम हुई। तो समकालीन जनमानस और लोक के बीच में जो एक गहरी खाई आ चुकी थी उसे इसुरी ने पाटने का काम किया। यह भी एक तरह से अधकचरी शहरी मानसिकता के विरू़़द्ध प्रतिरोध को ही तो दर्शाता है।

 इसी क्रम में आपका नाटक ‘हंसा कर दे किलोल’ भी बड़ा लोकप्रिय रहा। इसकी पृष्ठभूमि क्या थी?
बुंदेला विद्रोह सन् 1857 से भी पहले हुआ था, 1824 के आस-पास, जिसमें मधुकर शाह और छत्रसाल वगैरह शामिल थे। इसमें एक बड़ी अद्भुत और रोचक घटना थी जो एक मृदंगिये के इर्द-गिर्द घूमती थी। इस मृदंग-वादक की एक प्रेयसी थी, जिसे वह जी-जान से चाहता था। वह राई नर्तकी है और एक तरह से मधुकर शाह की रखैल भी। मधुकर शाह के दरबार में उसका नृत्य चल रहा था और एक अंग्रेज अधिकारी, जो बतौर अतिथि दरबार में शामिल है, नर्तकी पर फिदा हो जाता है। अग्रेज मधुकर शाह से उसे अपने घर भेजने को कहता है पर मधुकर शाह साफ इंकार कर देते हैं। अंग्रेज नर्तकी का अपहरण कर लेते हैं और बलात्कार के बाद उसकी हत्या हो जाती है। इस घटना से मृदंगिये का खून खौल उठता है और वह कुल्हाड़ी लेकर अंग्रेजों की छावनी में पहुँच जाता है और एक साथ कई लोगों का काम तमाम कर देता है। गिरफ्तारी के बाद उसे फाँसी की सजा सुनाई जाती है। संयोग से जिस जेल में उसे रखा जाता है, उसके जेलर की पत्नी को बुंदेलखण्ड की कला व संस्कृति से बड़ा लगाव था। उसे पता था कि मृदंगिया बहुत ऊँचे दर्जे का कलाकार है। वह उसकी फाँसी की सजा रद्द करवाने के लिए लंदन की हुकुमत को खत भेजती है। अब यहाँ जो बात अनायास उभर कर सामने आती है वह यह है कि बुंदेलखण्ड का कल्चर बरतानिया के कल्चर से कितना आगे है। गौरतलब है कि यह शेक्सपियर और तुलसी का भी काल है जहाँ उनके सॉनेट के सामने अपनी चौपाई खड़ी नजर आती हैं। नाटक एक तरह से वर्चस्ववाद को चुनौती देता नजर आता है। बहरहाल, मृदंगिया बहुत पापुलर था और उसकी फाँसी का समय नजदीक आ गया। उससे उसकी आखिरी इच्छा पूछी गयी। मृदंगिये ने कहा कि वह मृदंग बजाना चाहता है और मृदंग बजाते हुए नाचना चाहता है, साथ के लिए दो बेड़नियाँ बुला दी जाएँ। इस बात के ऐलान पर समूचे बुंदेलखण्ड की बेड़नियाँ टूट पड़ती हैं। जितने गाने-बजाने वांले लोग थे, वे भी इकट्ठा हो गये। जेल में तिल धरने भर की जगह भी बाकी नहीं रही। उधर वह दल भी आ पहुँचा है, जिसे फाँसी मुआफी की मांग पर फैसला देना है। ‘‘हँसा कर ले किलोल, जाने कभेरे मर जाने’’ इस पंक्ति पर आखिरी नृत्य चल रहा है। यह हुकुमत की ताकत के आगे कला का प्रतिरोध है, जो हमारे ‘लोक’ की बड़ी शक्ति को रेखांकित करता है। 

 आखिर में यक्ष-प्रश्न यह कि क्या हिंदी पट्टी का रंगकर्म भाषायी थियेटर की तरह कभी व्यावसायिक नहीं हो पायेगा?
अब इसमें दो-तीन बातें हैं। पहली तो यह कि हिंदी पट्टी के रंगकर्म में, कारण चाहे जो हों, निरंतरता का अभाव रहा। सबसे ज्यादा विस्थापन के शिकार यहीं के लोग हुए। सुगम मैदानी क्षेत्र होने की वजह से कभी बाहरी हमलों के कारण, तो कभी मल्टीनेशनल की हवस के कारण तो कभी कथित रूप से ‘विकास’ के कारण। मिसाल के तौर पर म.प्र. के सीधी-सिंगरौली के पास कुछ परिवार आपको ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्होंने अपने जीवन-काल में पाँच-छः विस्थापन झेले। अब इनमें कोई लोक-कलाकार हो तो वह अपना काम कैसे जारी रख पायेगा? मान लें कि वह गवैया है तो उसका साजिंदा तो कहीं और चला गया है। दूसरे टेलीविजन के विस्तार ने ‘देखने’ का अभ्यास तो हमारे युवाओं को दिया पर इस ‘देखने’ का वक्त वही है, जिसमें हमारी रंगमंचीय गतिविधियाँ होती हैं। सारे पापुलर सीरियल इसी वक्त में आते हैं। पूँजी का बाजार उनके अपने कंटेंट के साथ हर कहीं सक्रिय है। इनसे विलग कर युवाओं को खींचना उस तरह संभव नहीं हो पाया, जैसा मराठी या बांग्ला थियेटर के साथ है। इनके साथ उनकी जातीय अस्मिता जुड़ी हुई है। वे अपनी जड़ों से गर्भ-नाल की तरह जुड़े रहे। दक्षिण हो या उत्तर-पूर्व के राज्य, यहाँ कलाएँ अपने उत्कृष्ट रूप में इसलिए भी बची रहीं क्योंकि बाहरी हमलों से सुरक्षित होने के कारण इन्हें स्थापित होने में पर्याप्त लंबी अवधि हासिल हो सकी। अगर आप धैर्य के साथ गुणवत्ता बनाए रखते हुए निरंतर रंगकर्म करते हैं तो कोई कारण नहीं कि यह अपने बूते खड़ा न हो सके।  

- दिनेश चौधरी