ऐतिहासिक नाटक ‘दुर्गा’ के एक प्रभावशाली दृश्य में सम्राट अकबर गोंड रानी दुर्गावती को भेंट में एक चरखा भिजवाते हैं। संकेत और संदेश यह कि राज-काज महिलाओं का काम नहीं है, कपड़े-वगैरह बूनो और घर का काम-काज संभालो। तब सम्राट अकबर ने कहाँ सोचा होगा कि वे प्रतीक के तौर पर जिस चरखे का इस्तेमाल सामा्रज्य के विस्तार के लिए कर रहे हैं, वही चरखा आगे चलकर गांधी नामक एक शख्स के हाथों साम्राज्यवाद के विस्तार के विरोध प्रतीक बन जाएगा। प्रतीकों-बिम्बों के मायने और उनकी अवधारणा कालखण्ड के हिसाब से बदलती रहती है। इसलिए एक ऐसे रंगचिंतक को, जिसकी आवाजाही ‘लोक’ और ‘आधुनिक’ के बीच लगातार बनी हुई हो, अपने हुनर को पतली रस्सी में चलने की तरह साधना होता है। बुंदेलखण्डी लोक-कला के तत्वों को अपने आदिम रंगो-बू के साथ सहेज कर उन्हें आधुनिक नाटकों में बरतने का हुनर अरूण पाण्डेय के यहाँ वैसा ही दिखाई पड़ता है, जैसा हबीब तनवीर के नाटकों में छत्तीसगढ़ी का। बनारस की रामलीला में सीता का कोमल अभिनय करने वांले अरूण पाण्डेय जब जबलपुर में हरिशंकर परसाई और अलखनंदन के संपर्क में आते हैं, तो उन्हें यथार्थ के खुरदुरेपन का एहसास होता है और वे, बकौल उनके, उदयप्रकाश के दिनेश मनोहर वाकणकर की तरह खुद को जीवन की प्रयोगशाला बनने से बच-बचाकर एक लंबी रंग-यात्रा में निकल चुके होते हैं। संभवतः वे हिंदी के अकेले ऐसे नाटककार हैं, जिनके रंगमंडल ‘विवेचना’ के पास कोई पचास से भी ज्यादा नाटक हमेशा प्रदर्शन के लिए तैयार होते हैं। ‘दुनिया इन दिनों’ के लिए अरूण पाण्डेय से हुई लंबी बातचीत के संपादित अंश इस प्रकार हैंः
रंगकर्म के अपने शुरूआती दिनों को आप किस तरह याद करते हैं?
व्यावसायिक तौर पर कहें तो रंगकर्म की शुरूआत जबलपुर से ही हुई। पर यहाँ मेरे साथ शुरू में कुछ वैसा ही अनुभव हुआ, जैसा मुंबई में उत्तर-भारतीयों के साथ होता है। मैं बनारस से यहाँ आया था। मुझे ‘आउट साइडर’ माना गया। तो जब आपको इस तरह की भावना के साथ इग्नोर किया जाए तब आपके ज्यादा ऊर्जा के साथ, ज्यादा क्षमताओं के साथ, ज्यादा रचनात्मकता और कलात्मकता के साथ अपने आपको साबित करके दिखाना होता है कि ‘प्रभु! हम खारिज कर दिए जाने लायक नहीं हैं!’ रंग-संस्कार लेकिन बनारस में ही पड़ गए थे। मेरी पढ़ाई भारतेंदु हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज में हुई। वहाँ हर साल भारतेंदु जयंती पर हरेक क्लास के हरेक सेक्शन को एक नाटक करना पड़ता था। यह अनिवार्य था। वहाँ एक गुलाबराय जी हुआ करते थे जो हरेक क्लास के मॉनिटर को बुलाकर भारतेेंदु समग्र से कोई एक आलेख थमा दिया करते थे। 4-5 दिनों का आयोजन हुआ करता था। छठी से लेकर इंटर कॉलेज तक यह सिलसिला चलता रहा तो नाटकों में रूचि स्वभाविक तौर पर पैदा हो गयी थी। फिर एनएसडी से निकलने के बाद बी.वी. कारंथ ने अपनी पहली वर्कशाप सन् 1973 में बनारस में की तो स्थानीय कलाकारों की भीड़ में मैं भी शामिल हो गया था। कारंथ साहब ने तब ‘चंद्रगुप्त’ नाटक तैयार किया। यह बारहवीं की बात रही होगी। इसके बाद पिताजी के ट्रांसफर के कारण मुझे जबलपुर आना पड़ा। यहाँ एक दिन यूँ ही राह चलते हुए अलखनंदन जी से भेंट हो गयी। उन्होंने मुझे एकाध नाटक करते हुए देखा था, सो पूछ लिया कि क्या मैं नाटकों में काम करना चाहता हूँ? मैंने हामी भर दी तो कहा कि शाम को ज्ञानरंजन जी के घर पहुँच जाना। तब ज्ञान जी अग्रवाल कालोनी वांले मकान में अपने मुहल्ले में ही रहते थे। जब पहली बार वहाँ गया तो ‘विवेचना’ फजल ताबिश के नाटक ‘डरा हुआ आदमी’ पर काम कर रही थी। तपन बेनर्जी, सीताराम सोनी, राजकुमार कामले, अजय घोष, राजेेंद्र दानी, हिमांशु राय वगैरह से इसी दौरान मुलाकात हुई। फिर ‘बकरी’, ‘दुलारीबाई’, ‘अखाड़े से बाहर’ आदि नाटकों में काम करते हुए मैं अलखनंदन जी का दुलरूआ अभिनेता बन गया था।
आगे चलकर सुबह-शाम अलखनंदन जी के सोहबत में गुजरने लगी थी और धीरे-धीरे वे मुझे निर्देशन के गुर भी सिखाने लगे थे। ‘अखाड़े से बाहर’ में काम करते हुए उन्होंने मुझे असिस्टेंट डायरेक्टर का जिम्मा सौंप दिया था। इसमें आलोक चटर्जी भी थे। आलोक को एक तरह से मैं ही लेकर आया था। मैंने उनकी क्रिकेट कॉमेंट्री सुनी थी जो बड़ी अद्भुत हुआ करती थी। कभी संजीव कुमार की आवाज में, कभी अमिताभ बच्चन की आवाज में तो कभी शशि कपूर की। कॉमेंट्री और मिमिक्री साथ-साथ चलती थी। आलोक के पास अद्भुत कला थी पर अलखनंदन जी उन पर ज्यादा भरोसा नहीं करते थे। उन्हें लगता था कि यह कभी भी फिल्मों में भाग जाएगा। इसलिए सहायक निर्देशन के साथ-साथ उन्होंने मुझसे यह भी कह रखा था कि जरूरत पड़ने पर मैं आलोक की भूमिका करने के लिये तैयार रहूँ। 1980 में भारत भवन का गठन हुआ। रंगमंडल बना।
अलखनंदन के भारत भवन चले जाने से जबलपुर में सन्नाटा पसर गया। लोगों का एकत्र करने वाला कोई रह नहीं गया था। विवेचना में यह सवाल उठने लगा कि जब अलखनंदन नहीं है तो कौन नाटक करेगा-करायेगा? उस समय यों ही रंगकर्म की बहुत बुरी हालत थी। तब विेवेचना स्वतंत्र रंगमंडल नहीं था। इप्टा से तो यह 84 के सम्मेलन के बाद जुड़ा। असल में विवेचना की शुरूआत सन् 1961 में परसाई जी ने की थी। यहाँ एक उषा भार्गव कांड हुआ था। तरह तरह से अफवाहें फैलायी गयी थीं। कहा गया कि इलाहाबाद से हजारो-लाखों की तादाद में ‘विधर्मी’ आ गये हैं। मार-काट डालेंगे-वगैरह। तब परसाई जी जन-जागरण के लिये सांप्रदायिकता पर, बजट-आदि पर ‘विवेचना’ के नाम से सालाना गोष्ठियाँ किया करते थे। सन् 1975 में पहली बार अलखनंदन ने शशांक का लिखा हुआ नाटक ‘जैसे हम लोग’ तैयार किया। इसमें कुल 5 लोग थे। पहली बार मई दिवस के रोज फैक्ट्री के सामने और मालवीय चौक में इसका प्रदर्शन हुआ। फिर अलखनंदन ने ‘वेटिंग फॉर गोदो’, ‘बहुत बड़ा सवाल’ वगैरह किया। तो अलखनंदन के भारत भवन, भोपाल चले जाने पर उनकी जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई।
हमारे यहाँ, खासतौर पर हिंदी पट्टी में, मध्यमवर्गीय परिवारों में नाटकों में काम करने को बहुत अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। आपके यहाँ यह कैसा रहा?
चूँकि हमारे यहाँ बनारस वाली पंरपरा रही है, तो यह नहीं हुआ। हमारे यहाँ रामलीला होती थी। अब रामलीला तो 15-20 दिनों में खत्म हो जाती थी पर उसका सारा साजो-सामान नाना के घर में रखा होता था। नाना का परिवार 5 भाइयों वाला था। पांच नानाओं में से एक डॉक्टर थे, एक मुनीम का काम करते थे और बाकी तीन कर्मकांडी थे। ये सभी अपने काम पर निकल जाते थे। संयुक्त परिवार था तो 60-65 लोगों का खाना बनना सामान्य बात थी, महिलाएं रसोई में व्यस्त हो जातीं। तो गर्मी की दोपहरी में हम सारे बच्चे ओवर साइज कपड़े पहनकर, गदा और मुकुट वगैरह लेकर रामलीला करते थे। जो देखा था उसे ही दोहराते या कभी कुछ इंप्रोवाइजेशन भी लाते। नाटक वाली यह परंपरा घर में थी ही, पर पिताजी इसे पसंद नहीं करते थे। वे चाहते थे कि ग्रेजुएशन कर मैं कोई नौकरी कर लूँ। यहाँ जबलपुर में ज्ञान जी ने ‘पहल’ का तेरहवा अंक निकाला था। मुझे भी एक प्रति दी। घर लेकर आया तो पिताजी ने कहा ‘अच्छा! तो तुम कम्युनिस्ट बन गये हो।’ वे एलआईसी के बड़े अधिकारी थे। उनके मातहत रहे अधिकारियों ना नाटक ‘डरा हुआ आदमी’ देख रखा था। उन्होंने मेरी प्रशंसा भी की तो धीरे-धीरे उनका सहयोग मिलता गया।
और बनारस की रामलीला के क्या अनुभव रहे?
वहाँ मैंने कोई 7-8 सालों तक काम किया। रामलीला तो नानाजी की ही थी। कभी भरत का रोल करता, कभी लक्ष्मण का तो कभी-कभी सीता की भी भूमिका की। हमारे साथ एक होरी यादव थे। वहाँ की गल्ला-मंडी में लोडिंग-अनलोडिंग का काम करते थे। कृष्ण वर्ण, बहुत बलिष्ठ और कोई 6 फीट से भी ज्यादा की ऊँचाई। मोहल्ले में हम लोग पतंगबाजी भी करते थे। पतंग काटकर मंजा के साथ उसे लूट लेने में बड़ा मजा आता था। मैंने होरी यादव की पतंग दो-तीन बार काट ली थी। शाम को बताया गया कि आज सीताहरण का दृश्य है और सीता की भूमिका मुझे करनी है। मैंने मेकअप वगैरह कर लिया। अभी तैयार हुआ ही था कि देखा कि रावण की भूमिका में सामने होरी यादव खड़ा है। अब मेरी हालत खराब! बनारस की रामलीला गाकर खेली जाती है, दोहे-चौपाई गाये जाते हैं। इधर मेरी रूलाई और हिचकी फूटती थी और उधर ‘रावण’ आकर कह जाता था, ‘आज तो गुरू, तोहे न छोडौं! आज हम बताई तोहें!’ तो इस तरह के ढेर सारे खट्टे-मीठे अनुभव वहाँ के रहे हैं।
परसाई जी की रचनाओं पर आधारित ‘निठल्ले की डायरी’ आपके सबसे चर्चित नाटकों में से एक है। इसका ख्याल किस तरह से आया?
नाटकों के समानांतर मेरी पत्रकारिता तो चल ही रही थी। सन् 80 में मैं हितवाद में आ चुका था। फिर ‘नई दुनिया’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘स्वतंत्र मत’ ‘भास्कर टीवी’ वगैरह में कोई 30-35 साल तक पत्रकारिता करता रहा और इसी सिलसिले में रायपुर, बिलासपुर, इंदौर वगैरह में रहना हुआ। ‘नई दुनिया’ वांले दिनों में अखबार में परसाई जी का कॉलम छपता था और वह बेहद लोकप्रिय था। तो मैंने खुद ही यह जिम्मेदारी ली कि उनके कॉलम में कभी कोई बाधा नहीं आए। परसाई जी के घर से सामग्री लाता, उसकी कंपोजिंग की जाती, प्रूफ की जाँच होती, छपाई से पहले उसे परसाई जी को दिखाता और उनकी अंतिम स्वीकृति के बाद ही सामग्री छपा करती थी। ये परसाई जी से सघन निकटता वाला दौर था, तो इसी दौरान एक बार मैंने उनसे कहा कि आप व्यंग्य इतना बढ़िया लिखते हैं तो नाटक क्यों नहीं लिखते? यह मेरे अपने मतलब की बात थी। उन्होंने कहा कि ‘नाटक बिल्कुल अलग विधा है, यह मुझसे सधता नहीं है।’ मैंने कहा कि ‘नाटक तो आप लिख ही रहे हैं! उसमें संवाद हैं, घटना है, कास्टयूम और प्रापर्टी भी आप बता ही देते हैं क्योंकि आपका ऑब्जर्वेशन बहुत बढ़िया है।’ परसाई जी ने कहा कि ‘नाटक ही लिखा है तो खेल डालो।’ तो उनकी रचनाओं से यहाँ-वहाँ से घटनाएँ और संवाद उठाकर ‘निठल्ले की डायरी’ का जो पहला ड्राफ्ट तैयार किया वह लगभग 8 घंटे की अवधि वाला था। इसे कसते-कसाते पहली प्रस्तुति हुई जिसमें ‘कक्काजी’ स्थिर चरित्र वांले थे और ‘निठल्ला’ चलायमान था। यही नाटक के सूत्रधार भी थे।
इन मंचनों पर परसाई जी की क्या प्रतिक्रिया रही?
वे खुश थे पर मुझे लेकर चिंता व्यक्त करते थे। दरअसल तब मेरा कोई स्थायी ठौर-ठिकाना नहीं था। आज इस अखबार में तो कल उस अखबार में। परसाई जी ने डॉ. रामशंकर मिश्रा जी से कहा भी कि मुझे इस लड़के की बड़ी चिंता लगी रहती है। तब तक मेरा विवाह भी हो चुका था। डॉ. मिश्रा ने उन्हें आश्वस्त किया कि नहीं चिंता की कोई बात नहीं है। ‘लडके’ की माली हालत ठीक-ठाक चल रही है।
‘इसुरी’ पर आधारित नाटक ने भी आपको बड़ी पहचान दी। इसका अनुभव कैसा रहा?
बुदेली कवि इसुरी को लेकर मैंने बड़ा शोध किया। उनके जन्म स्थान पर भी गया। नाटक लिखा। 30 लड़के जुटाए। नाटक के लड़के चूंकि शहर के थे तो उन्हें बुंदेलखण्डी सिखाई। इस बीच संगीत नाटक अकादमी का यंग डायरेक्टर्स प्रमोशन स्कीम भी आया। तब कारंत जी को यह काम बहुत पसंद आया। वे कमेटी में थे। 9 महीने हमने रिहर्सल की। बुदेंलखण्ड का कल्चर, यहाँ की भाषा, यहाँ का नृत्य-संगीत, पहनावा-आदि को समझने की कोशिश की। लंबी रिहर्सल हुई जो टुकड़ों में चलती थी। फिर इसे जोड़ा तो वह कोई चार घंटों का बना। फिर मुश्किल से इसकी काट-छाँट कर अंतिम रूप दिया गया। शहडोल के बाणसागर में इसकी पहली प्रस्तुति हुई। कोई इंडोर स्टेडियम जैसा था। भीड़ खूब थी पर देखने वालों में नाटक के संस्कार नहीं थे। गाने और नृत्य आते तो झूमने लगते और संवादों पर हूट करने लगते। इसके बाद जयपुर से बुलावा आया। इस बीच एक अच्छा काम यह हुआ कि नाटक में काम करने वांले 30 लोगों में जबरदस्त आपसी समझदारी विकसित हुई। नाटक के एक-एक पहलू पर गौर किया गया। कास्ट्यूम भी खुद सिलकर तैयार किए। प्रापर्टी तैयार की। शो बहुत बढ़िया रहा पर यह भी कोई ढाई घंटों का था। बीच में एक अंतराल भी दिया गया। नाटक की आलोचना हुई तो बस इसी बात को लेकर, अन्यथा बाकी चीजों की खूब सराहना हुई। हमारे सामने संकट था कि किस हिस्से को रखें और किसे काटें। सभी दृश्यों पर खूब मेहनत की गयी थी, एक-एक चीज पर गहन चर्चा हुई थी। संगीत भी लाइव था। लोकवाद्यों में नगाड़े थे, अलगोजा था, मृदंग था, मोरचंग था। इनके लिए दूर-दराज के हल्कों से साजिन्दे जुटाए गए थे क्योंकि शहर में तो कोई था ही नहीं। कालिदास समारोह से लेकर इप्टा के राष्ट्रीय महोत्सव तक में इसके प्रदर्शन हुए। इस प्रस्तुति ने एक तरह से धूम मचा दी थी।
कलाओं की विविध लोक-शैलियों को जिस तरह से शासकीय संरक्षण मिलता है, क्या वह इनमें प्रतिरोध के अभाव को दर्शाता है? क्या ‘लोक’ से व्यवस्थाओं को खतरा महसूस नहीं होता?
अगर ऐसा है तो कबीर क्या हैं? क्या उनमें प्रतिरोध का अभाव है? अगर आप बिरसा मुंडा को अपना विषय बनाते हैं तो उनके प्रतिरोध के बगैर आपकी बात पूरी हो सकेगी? दरअसल मामला यह है कि आप प्रस्तुति के लिए किन चीजों का चयन करते हैं। समझदार या चालाक कलाकार लोक-शैलियों से उन्हीं चीजों को उठाते हैं, जहाँ कोई खतरा महसूस न हो। ‘इसुरी’ को ही ले लें। इनका वर्णन क्या कम श्रृंगारिक है? पर जब आप जरा गहरे जाकर पैठ करते हैं तो जबरदस्त प्रतिरोध के तत्व भी निकल कर सामने आते हैं। हमने इसी पर शोध किया कि किस तरह इसुरी अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के बीज बोते हैं। उन्होंने सिर्फ श्रृगांर नहीं रचा, विद्रोह को भी स्वर दिया। फिर इसुरी की प्रस्तुति को लेकर एक अन्य पहलू पर भी बात करें जो कि मैं समझता हूँ कि बहुत जरूरी है। बुंदेली शहरों में विस्मृत हो गयी थी। 78-79 तक ‘राई’ नृत्य शहरों में एक तरह से वर्जित-सा हो गया था। मैं इसुरी में तब की विख्यात कथक नृत्यांगना स्वाति मोदी को लेकर आया। उनके गुरू तालमणि भट्ट जी ने कहा कि यह नृत्य तो बेड़नियों द्वारा किया जाता है। वे वेश्याएँ होती हैं। अगर यह करना हो तो मैं तुम्हें नहीं सिखा पाऊँगा। लेकिन वे अडिग रहीं और शहरों में राई नृत्य को लेकर वर्जना टूटी। एक साथ कोई तीन-तीन सौ लड़कियों ने राई नृत्य किया और शहरी लड़कों में बुंदेली बोलने की हिचक कम हुई। तो समकालीन जनमानस और लोक के बीच में जो एक गहरी खाई आ चुकी थी उसे इसुरी ने पाटने का काम किया। यह भी एक तरह से अधकचरी शहरी मानसिकता के विरू़़द्ध प्रतिरोध को ही तो दर्शाता है।
इसी क्रम में आपका नाटक ‘हंसा कर दे किलोल’ भी बड़ा लोकप्रिय रहा। इसकी पृष्ठभूमि क्या थी?
बुंदेला विद्रोह सन् 1857 से भी पहले हुआ था, 1824 के आस-पास, जिसमें मधुकर शाह और छत्रसाल वगैरह शामिल थे। इसमें एक बड़ी अद्भुत और रोचक घटना थी जो एक मृदंगिये के इर्द-गिर्द घूमती थी। इस मृदंग-वादक की एक प्रेयसी थी, जिसे वह जी-जान से चाहता था। वह राई नर्तकी है और एक तरह से मधुकर शाह की रखैल भी। मधुकर शाह के दरबार में उसका नृत्य चल रहा था और एक अंग्रेज अधिकारी, जो बतौर अतिथि दरबार में शामिल है, नर्तकी पर फिदा हो जाता है। अग्रेज मधुकर शाह से उसे अपने घर भेजने को कहता है पर मधुकर शाह साफ इंकार कर देते हैं। अंग्रेज नर्तकी का अपहरण कर लेते हैं और बलात्कार के बाद उसकी हत्या हो जाती है। इस घटना से मृदंगिये का खून खौल उठता है और वह कुल्हाड़ी लेकर अंग्रेजों की छावनी में पहुँच जाता है और एक साथ कई लोगों का काम तमाम कर देता है। गिरफ्तारी के बाद उसे फाँसी की सजा सुनाई जाती है। संयोग से जिस जेल में उसे रखा जाता है, उसके जेलर की पत्नी को बुंदेलखण्ड की कला व संस्कृति से बड़ा लगाव था। उसे पता था कि मृदंगिया बहुत ऊँचे दर्जे का कलाकार है। वह उसकी फाँसी की सजा रद्द करवाने के लिए लंदन की हुकुमत को खत भेजती है। अब यहाँ जो बात अनायास उभर कर सामने आती है वह यह है कि बुंदेलखण्ड का कल्चर बरतानिया के कल्चर से कितना आगे है। गौरतलब है कि यह शेक्सपियर और तुलसी का भी काल है जहाँ उनके सॉनेट के सामने अपनी चौपाई खड़ी नजर आती हैं। नाटक एक तरह से वर्चस्ववाद को चुनौती देता नजर आता है। बहरहाल, मृदंगिया बहुत पापुलर था और उसकी फाँसी का समय नजदीक आ गया। उससे उसकी आखिरी इच्छा पूछी गयी। मृदंगिये ने कहा कि वह मृदंग बजाना चाहता है और मृदंग बजाते हुए नाचना चाहता है, साथ के लिए दो बेड़नियाँ बुला दी जाएँ। इस बात के ऐलान पर समूचे बुंदेलखण्ड की बेड़नियाँ टूट पड़ती हैं। जितने गाने-बजाने वांले लोग थे, वे भी इकट्ठा हो गये। जेल में तिल धरने भर की जगह भी बाकी नहीं रही। उधर वह दल भी आ पहुँचा है, जिसे फाँसी मुआफी की मांग पर फैसला देना है। ‘‘हँसा कर ले किलोल, जाने कभेरे मर जाने’’ इस पंक्ति पर आखिरी नृत्य चल रहा है। यह हुकुमत की ताकत के आगे कला का प्रतिरोध है, जो हमारे ‘लोक’ की बड़ी शक्ति को रेखांकित करता है।
आखिर में यक्ष-प्रश्न यह कि क्या हिंदी पट्टी का रंगकर्म भाषायी थियेटर की तरह कभी व्यावसायिक नहीं हो पायेगा?
अब इसमें दो-तीन बातें हैं। पहली तो यह कि हिंदी पट्टी के रंगकर्म में, कारण चाहे जो हों, निरंतरता का अभाव रहा। सबसे ज्यादा विस्थापन के शिकार यहीं के लोग हुए। सुगम मैदानी क्षेत्र होने की वजह से कभी बाहरी हमलों के कारण, तो कभी मल्टीनेशनल की हवस के कारण तो कभी कथित रूप से ‘विकास’ के कारण। मिसाल के तौर पर म.प्र. के सीधी-सिंगरौली के पास कुछ परिवार आपको ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्होंने अपने जीवन-काल में पाँच-छः विस्थापन झेले। अब इनमें कोई लोक-कलाकार हो तो वह अपना काम कैसे जारी रख पायेगा? मान लें कि वह गवैया है तो उसका साजिंदा तो कहीं और चला गया है। दूसरे टेलीविजन के विस्तार ने ‘देखने’ का अभ्यास तो हमारे युवाओं को दिया पर इस ‘देखने’ का वक्त वही है, जिसमें हमारी रंगमंचीय गतिविधियाँ होती हैं। सारे पापुलर सीरियल इसी वक्त में आते हैं। पूँजी का बाजार उनके अपने कंटेंट के साथ हर कहीं सक्रिय है। इनसे विलग कर युवाओं को खींचना उस तरह संभव नहीं हो पाया, जैसा मराठी या बांग्ला थियेटर के साथ है। इनके साथ उनकी जातीय अस्मिता जुड़ी हुई है। वे अपनी जड़ों से गर्भ-नाल की तरह जुड़े रहे। दक्षिण हो या उत्तर-पूर्व के राज्य, यहाँ कलाएँ अपने उत्कृष्ट रूप में इसलिए भी बची रहीं क्योंकि बाहरी हमलों से सुरक्षित होने के कारण इन्हें स्थापित होने में पर्याप्त लंबी अवधि हासिल हो सकी। अगर आप धैर्य के साथ गुणवत्ता बनाए रखते हुए निरंतर रंगकर्म करते हैं तो कोई कारण नहीं कि यह अपने बूते खड़ा न हो सके।
- दिनेश चौधरी
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