Friday, February 10, 2017

दुर्ग में मुक्तिबोध जन्म शती समारोह का आयोजन

नवादी लेखक संघ दुर्ग ईकाई के संयोजन से कल्याण महाविद्यालय दुर्ग में मुक्ति बोध जन्म शती समारोह का आयोजन दिनांक 05-02-17 रविवार को किया .इस कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ जनवादी लेखक संघ के विभिन्न इकाइयों से ( दुर्ग, कोरबा, बागबाहरा,कवर्धा,जांजगीर,भिलाई आदि) सदस्यों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई.

इस कार्यक्रम की अध्यक्षता 'दुनिया इन दिनों' के संपादक श्री सुधीर सक्सेना ने तथा मुख्य आतिथ्य श्री कनक तिवारी ने की. विनोद साव ने संचालन किया .नासिर अहमद सिकंदर एवं अंजन के प्रयास से कार्यक्रम ब्यवस्थित रूप से संपन्न हुआ.

कार्यक्रम मुख्यत: तीन चरणों में संपन्न हुआ. पहले चरण में रजत कृष्ण और सियाराम शर्मा ने मुक्ति बोध के काव्य एवं काव्य कर्म पर, दूसरे चरण में बसंत त्रिपाठी औऱ कैलाश बनवासी ने उनकी कहानियों पर टिप्पणी की. अंतिम चरण में अजय चंद्र वंशी एवं जयप्रकाश ने उनके आलोचना कर्म पर गहन चर्चा की तथा कनक तिवारी ने मुक्ति बोध के साथ गुजारे क्षणों को याद किया. सुधीर सक्सेना ने अध्यक्षीय भाषण दिए तथा नासिर अहमद ने आभार प्रस्तुत किया. मुक्ति बोध के चित्र पर माल्यार्पण के साथ शुभारंभ हुए.

इस कार्यक्रम में रजत कृष्ण ने मुक्ति बोध को युग को पहचानने वाला, युगीन विसंगतियों की बारिकी से पड़ताल करने वाला, हरहाल में समझौता न करने वाला, विकास के दावों का पोल खोलने वाला साहसी कवि कहा. कविता के माध्यम से लोकतंत्र की कमियों को उजागर करने वाला कवि कहा. सियाराम शर्मा ने कवि निराला से साम्य स्थापित करते हुए उनकी जीवन शैली, लेखन शैली, दोनों की बेचैनी, स्वाभिमानी पर गहरा विश्लेषण किया. कहा, क्या गणतंत्र है जहां 1 प्रतिशत ब्यक्तियों के पास देश की 58 प्रतिशत पूंजी और 99 प्रतिशत के पास शेष पूंजी. बसंत त्रिपाठी ने कहा, जैसे टार्च की रौशनी में अंधेरे गैराज को देखें तो एक बार में कुछ ही वस्तुएं दिख पाती है. दूसरी बार में औऱ कुछ.. हर बार कुछ कुछ ..वैसे ही लगता है मुक्ति बोध की कहानियों को पढ़ते-पढ़ते. हर बार नए अर्थों को दीप्त करती है. उनकी कहानियां कुछ अर्थों में दोस्तोवस्की से मेल खाती है. बिष्णु चंद शर्मा की मुक्ति बोध की आत्मकथा में इनकी अधिकांश कहानियों की चर्चा हुई है. तालाब के संदर्भ को लेकर आत्महत्या को अलग तरह से परिभाषित करने वाले प्रसंग की चर्चा की.

कैलाश बनवासी मुक्ति बोध को किसी फ्रेम में बंध कर रहने वाला कहानीकार नहीं मानते, बल्कि वे उसे आम विधाओं से अलग अपने पथ के अलग कहानीकार कहते है. अजय चंद्रवंशी ने मुक्ति बोध की आलोचना शैली पर विस्तृत चर्चा की. जयप्रकाश ने वैश्विक परिदृश्य में मुक्ति बोध के काव्य कर्म को जोड़ते हुए कहा कि एक लेखक की डायरी ( दास्तोवस्की) एक साहित्यिकी की डायरी विषय पर चर्चा करते हुए दोनों के ब्यक्तित्व की एवं सोच की सीमाओं की विभिन्नता पर चर्चा की. कहा कि मुक्ति बोध का दृष्टिकोण दो महायुद्धो,शीत युद्धो से निर्मित होते है. कवि होने का अर्थ केवल कविता या कहानी आलोचना लिख लेना ही नहीं होता अपितु मुक्तिबोध के अनुसार यह एक सांस्कृतिक प्रकिया है. जीवन की गहराईयों में जाकर देखना होता है. इसीलिए लंबी कविता की जरूरत होती है. कविता केवल संवेदना की उत्पत्ति नहीं है अपितु ज्ञान और संवेदना का सम्मिश्रण है. संवेदनात्मक ज्ञान औऱ ज्ञानात्मक संवेदना के बिना कोई भी कवि कर्म इमानदारी से नहीं हो सकती.

कविता के अवतरित होने की तीन क्षणों पर भी जयप्रकाश चर्चा करते है. वैश्विक दृष्टिकोण का अर्थ केवल विश्व की घटनाओं की जानकारी रखना नहीं होता, बल्कि विश्व कल्याण के लिए स्वयं से सत्ता से हाथापाई करना होता है. 'कामायनी एक पुनर्विचार' मुक्ति बोध के जीवन में विचार धारा के सोता फूटने का समय है. यहाँ से उनके विचार अपनी लेखनी के स्वरूप ग्रहण करते है. प्रसाद औऱ मुक्ति बोध में वे प्रचंड बुद्धि औऱ बौद्धिक ईमानदारी देखते है.

कनक तिवारी पहले औऱ अंतिम व्यक्ति है जिन्हें मुक्ति बोध अपनी रचना 'अंधेरे में' सुनाते है, मुख्य अतिथि बनकर आते है औऱ 75 रू.सम्मान स्वरूप ग्रहण करते है. उनके साथ हिंदी का अध्यापन करते है. दिग्विजय कालेज में पढाते है और बूढा तालाब के पास जाकर साहित्य की चर्चा करते है. मुक्त बोध के पिता सिपाही थे किंतु इतने अनुशासित पिता के साथ होते हुए भी मुक्ति बोध उस काल में प्रेम विवाह करने का साहस रखते है. तिवारी जी बताते है कि तब मैं 23 का था, मुक्ति बोध 46 के और पदुम लाल पुन्नालाल 69 के. मुक्ति बोध की कामायनी मेरी कुछ कुछ समझ में आता, बख्शी जी कहते मुझे नहीं आता था.मु झसे कुछ अंग्रेजी की पुस्तकें मंगवाते लास्ट पैराडाईज आदि आदि... अद्भुत ब्यक्तितव के स्वामी थे मुक्ति बोध.

अपने अधयक्षीय भाषण में सुधीर सक्सेना मुक्ति बोध के चौथे डी यानी पत्रकारिता पर विस्तार से चर्चा की अपील करते है औऱ उपरोक्त रचनाकारों के व्कतव्य का स्मरण करते है. कार्यक्रम सफल रहा.

-संजय पराते

Wednesday, February 8, 2017

"Mulaqaat" by Jammu IPTA with "Baithak"

Indian People's Theatre Association, Jammu, in its monthly program series organized a program "Mulaqaat", in collaboration with "Baithak", on 29.01.2017.

In the program two eminent urdu poets, Dr. Haseeb Soz and Mehshar Afridi were invited to interact with the select audience.Later on they recited their ghazals.In the second session, a solo performance based on Gulzar's "Raavi Paar" was also performed.

In the month of February, a multilingual mushayra was organised, which was followed by Deepak Virdi's directed Gursharan Singh's Punjabi Play " Baba Bolda Hai".

The presidium in the first session comprised of Pt.Vidya Rayta "Aasi", a veteran urdu poet, Arvinder Singh "Amn", Additional Secy. J&K Academy of Art Culture and Languages, Janab Liaquat Jafri, Professor, Jammu University and a prominent Urdu poet and Sanjay Gupta, Gen. Secy. IPTA J&K. 

Gen. Secy. welcomed the guests and briefed the gathering regarding the activities of IPTA. The mushayra was conducted by Jb. Liaquat Jafri.The poets who recited their poems include Anwar Khan and Liaquat Jafri(urdu), Deepak 'Aarsi'(Digri),Kamal jeet, Krishan Kumar(Hindi),Dr. Baljeet Raina (Punjabi)and the mushayra concluded with the ghazals of Pt. Vidya Rattan.Hardeep Singh 'Deep' president IPTA Jammu presented the vote of thanks.

Tuesday, February 7, 2017

" वे मुसलमान थे" का मंचन

खनऊ, 5 फ़रवरी।  "सच को सच की तरह कहा जाना चाहिये और उसे सच की तरह ही सुना जाना चाहिए" किसी एक सभ्यता में किसी दूसरे  सभ्यता के साझेपन से क्या बनता है और क्या नहीं बनता जब वो सभ्यता एकांगी होने लगती है किसी के होने का क्या फर्क पड़ता है ये उसके न होने से पता पड़ता है , देवी प्रसाद मिश्र की कविता" वे मुसलमान थे " का हिस्सा बनते हुए ये एहसास बहुत गहरे तक मन में समा गया कि अपनापा सिर्फ अपने लोग अपने रक्त अपनी जाति और अपने धर्म से पैदा नहीं होता अपनापा अपने जैसा दर्द झेलते लोगों के बीच भी पैदा होता है और अपने लिए ही नही सबके लिए रचने का अनहद भाव भी तभी पैदा होता है जब सूरतें नहीं सीरतें भी मिलती हों ये महत्त्वपूर्ण नहीं कि सभ्यता किसने रची ये भी महत्वपूर्ण है कि वो क्यों रची गयी और उसका इस्तेमाल कैसे हो रहा है , इतिहास अगर आपको अपने अतीत के प्रति संवेदनशील नहीं बनाता तो वो इतिहास नहीं सिर्फ मिथक है चाहे वो परात्पर ईश्वर की ही रचना क्यों न हो। भारतेंदु कश्यप द्वारा निर्देशित " वे मुसलमान थे" का मंचन कल संगीत नाटक अकादमी के संत गाडगे सभागार में हुआ ।

महिंदर पाल जी के संगीत और देवाशीष मिश्र  के रंग प्रकाश से सजी ये कविता आपकी नस्लीय कुंठा को छिन्न भिन्न कर देती है और आप इसको देखने के बाद एक नए मानव की दृष्टि पाते हैं। अनायास ही सही मुझे इस प्रस्तुति का हिस्सा बनने का मौका मिला ये इस दौर में उतना ही आवश्यक था जितना जलते हुये वन में अचानक घोर वर्षा का हो जाना, लखनऊ में हुए इस 2 दिवसीय कबीर महोत्सव के जो भी मानी हो पर ये कविता इस् उत्सव की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, कई मायनों में ये कविता हमारे अवचेतन में स्थापित किये जा रहे इतिहास को उद्घाटित करती है, मैं कहूंगा कि विश्वविद्यालयों को जिनके पास भारतीय इतिहास में मुसलमानों के योगदान को समझने केलिए वक़्त नहीं है उन शोधार्थियों के लिए ये #The_Mocking_Bird की 40 मिनट की प्रस्तुति देखना आवश्यक है। 

आज के साहित्य को बेहतर दुनिया के संघर्ष का हिस्सा होना होगा-प्रलेस

भोपाल 6 फरवरी।  प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेसं) की मध्य प्रदेश इकाई ने गत 4-5 फरवरी को राजधानी भोपाल में युवा कवियों के कविता शिविर का आयोजन किया। इस शिविर में भिन्न स्थानों से आये कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया. सभी शिविरार्थियों ने इन कविताओं के अच्छे बुरे पहलुओं पर और उन कविताओं की सामर्थ्य और सीमाओं पर चर्चा की। कविता शिविर का आगाज करते हुए वरिष्ठ कवि कुमार अंबुज ने सभी प्रतिभागियों से कहा कि कवि का वैज्ञानिक चेतना से लैस होना सबसे अधिक जरूरी है। क्योंकि अगर कवि अपने आसपास की घटनाओं को वैज्ञानिकता और तर्क की कसौटी पर नहीं कसता तो उसकी कविता का न तो उद्देश्य और न ही उसका फलक इतना बड़ा हो पायेगा कि वह समाज के अपने अनुभवों को सही परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्त कर सके। 

प्रलेसं, मध्य प्रदेश के महासचिव विनीत तिवारी ने कविता शिविर के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा कि साहित्य और कविता प्रतिरोध का उपकरण है। जो गलत है उसके विरोध का, फिर गलत को परास्त करने का और फिर सही समाज व्यवस्था को लागू करने का जो वृहत्तर उत्तरदायित्व सभी जागरूक  मनुष्यों का है, उसमें साहित्य को भी अपनी भूमिका निभानी होती है। उन्होंने हिंदी के महाकवि गजानन माधव  मुक्तिबोध का जिक्र करते हुए कहा कि मुक्तिबोध ने हर सामान्य मनुष्य और हर जागरूक मनुष्य से अपनी  कविता में अपना राजनीतिक पक्ष साफ़ करने की बात की है। जैसे जैसे हम साहित्य की समाज में भूमिका को समझते जाते हैं, हमारी चुनौती और ज़िम्मेदारी बढ़ती जाती है। तब साहित्य मात्र मनोरंजन नहीं रह जाता बल्कि वो बेहतरी के लिए संघर्ष का हिस्सा बन जाता है। 

शिविर की शुरुआत उरुग्वे के चर्चित लेखक एडवार्डो गैलियानो के महत्त्वपूर्ण लेख 'आखिर हम लिखते ही क्यों हैं' के पाठ से हुई। यह एक शाश्वत प्रश्न है जो एक लेखक के मन में कभी न कभी आता है। इस लेख तथा इस पर हुई चर्चा ने युवा कवियों के मन की तमाम दुविधाओं को दूर किया. शिविर के पहले दिन दीपाली चौरसिया, मानस भारद्वाज, प्रज्ञा शालिनी और अल्तमश जलाल ने अपनी कवितायें पढ़ीं। बाद में हुई चर्चा में इन कविताओं की खूबियों और खामियों पर हुई लंबी बातचीत ने सभी कवियों को उनकी रचनाओं के छुए-अनछुए पहलुओं के बारे में जानने में मदद की। नए कवियों को कुमार अम्बुज, विनीत तिवारी और अनिल करमेले और रवींद्र स्वप्निल प्रजापति ने कविता को पढ़ने और समझने के तथा विश्लेषण की दृष्टि विकसित करने के कुछ तरीके बताये कि कविता के अर्थ को किस कोण से बेहतर खोल जा सकता है।  

शिविर के दूसरे दिन एक सत्र मुक्तिबोध को समर्पित किया गया।  ये वर्ष मुक्तिबोध का जन्म शताब्दी वर्ष भी है और वे हिंदी कविता के एक अनिवार्य कवि हैं। इस सत्र में उन पर लिखे लेखों के पाठ के साथ ही उनके लेख 'जनता का साहित्य किसे कहते हैं' का भी पाठ हुआ। पाठ के पश्चात तमाम प्रतिभागियों ने लेख के कथ्य पर चर्चा की।  जिसका निष्कर्ष यही रहा कि जनता का साहित्य वह साहित्य है जो उसके जीवन की समस्याओं को संबोधित कर सकता है, उनका हल निकालने में मदद कर सकता है और अंततः समूची मानवता को मुक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। कुमार अम्बुज ने कहा कि जीवन विवेक को ही साहित्य विवेक कहा था और वही आज भी बड़ा पैमाना है। 

शिविर के दूसरे दिन श्रद्घा श्रीवास्तव, अभिदेव आजाद और संदीप कुमार ने अपनी कविताओं का पाठ किया। कुमार अंबुज, विनीत तिवारी, अनिल करमेले, आरती, दीपक और पूजा ने इन पर अपनी तात्कालिक प्रतिक्रिया भी दी जो अभ्यास के हिस्से के तौर पर की गयी। इसी तरह पाठ, तुकांत-अतुकांत, लयात्मकता, आंतरिक लयात्मकता, बिम्ब विधान आदि कविता से जुड़े मुद्दों पर बात हुई । इस दौरान प्रतिभागियों ने भी एक दूसरे की कविताओं पर टिप्पणियां कीं। इस बात पर बार बार ज़ोर दिया गया कि अच्छा लिखने के लिए ये जानना बहुत ज़रूरी है कि हमसे पहले के लोगों ने क्या क्या अच्छा और ख़राब लिखा है। एक कवि या साहित्यकार अपना कहन का तरीका, कहने की बात और भाषा का चुनाव केवल अपने ही समय और अपनी ही ज़मीन से नहीं करता। उसे अपने पूर्वज लेखकों से भी सीखना होता है। जीवन विवेक और साहित्य विवेक को रचने और मज़बूत करने वाली कुछ प्रमुख किताबों की सूची बनाई गयी जिसे प्रतिभागियों ने अगले एक वर्ष में पढ़ने का संकल्प किया।  इनमे गोर्की, टॉलस्टॉय, व्हिटमैन, चेखोव, जैक लन्दन, होवार्ड फास्ट, निकोलाई ओस्त्रोव्स्की से लेकर प्रेमचंद, मुक्तिबोध, परसाई, रेणु, श्रीलाल शुक्ल, पाश आदि की कृतियाँ शामिल थीं।  

शिविर का समापन पांच फरवरी की शाम कविता पाठ से हुआ. इसमें वरिष्ठ कवि और प्रलेसं की प्रदेश इकाई के अध्यक्ष एवं प्रगतिशील वसुधा के संपादक राजेंद्र शर्मा, वरिष्ठ कवि कुमार अंबुज, प्रलेसं के प्रदेश महासचिव विनीत तिवारी, प्रदेश सचिव मंडल सदस्य द्वय शैलेन्द्र शैली और अनिल करमेले तथा समय के साखी पत्रिका की संपादक आरती जी ने कविता पाठ किया।  इस मौके पर महाराष्ट्र से आये युवा कवि अनिल साबले ने भी अपनी कवितायेँ सुनाईं। 

- विनीत तिवारी 
महासचिव, मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ
इंदौर,  फोन : 9893192740 . 

Saturday, February 4, 2017

इस तरह रखी इमरत खां साहब ने एक धरोहर की आबरू

सितार और सुर बहार के जादूगर उस्ताद इमरत खां जैसे ८२ वर्ष के विश्व-प्रसिद्ध कलाकार के सामने इस बार भारत सरकार ने पद्मश्री का टुकड़ा फेंका जबकि उनके कई शिष्य-शागिर्द और संगतिये-पंगतिये कभी के पद्मविभूषण और भारतरत्न हो गये ।

उस्ताद इमरत खां ने पद्मश्री अवार्ड को ठुकराते हुये भारत सरकार को जो पत्र लिखा है वह एक बड़े कलाकार की पीड़ा का दस्तावेज़ बन गया है । वेदना, व्यंग्य और कलाकार के आत्मस्वाभिमान में डूबा यह पत्र पढ़ने लायक ही नहीं संजो कर रखने लायक है ।

भाषा और शैली ऐसी जैसे सआदत हसन मंटो ने ख़ुद, इमरत खां के लिये, जन्नत या दोज़ख जहां भी उनकी हाल रिहाइश है, आकर यह लिखा हो !

-असद जैदी 

इमरत ख़ाँ साहब का वक्तव्य

(अनुवाद)
मेरी ज़िन्दगी के अाख़िरी दौर में, जबकि मैं ८२ साल का हो चला हूँ, भारत सरकार ने मुझे पद्मश्री अवार्ड देना तय किया है।

मैं इसके पीछे जो नेक इरादा है उसकी क़द्र करता हूँ, लेकिन इस अवार्ड के मक़सद को लेकर बिना किसी दुराग्रह के यह कह सकता हूँ कि यह मेरे लिए ख़ुशी की नहीं, उलझन की बात है। यह अवार्ड अगर मिलना था तो कई दशक पहले मिल जाना चाहिए था—जबकि मुझसे जूनियर लोगों को पद्मभूषण दिया जा चुका है।

मैंने भी हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में बहुत योगदान दिया है और उसके व्यापक प्रसार में लगा रहा हूँ। ख़ासकर सितारवादन की विकसित शैली और अपने पूर्वजों के सुरबहार वाद्य को दुनिया भर में फैलाने में मैंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। मुझे हिन्दुस्तानी कला और संस्कृति के अाधारस्तंभों, अपने समय की महान विभूतियों, के साथ बराबरी की सोहबत में संगीत बजाने का सौभाग्य हासिल हुअा। इनमें उस्ताद विलायत ख़ाँ साहब, उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ साहब, उस्ताद अहमद जान थिरकवा ख़ाँ साहब, पंडित वी जी जोग और अन्य बड़ी हस्तियाँ शामिल हैं। इनमें से हरेक निर्विवाद रूप से हिन्दुस्तानी संगीत के उच्चतम स्तर तक पहुँची हुई हस्ती है, और इन सभी को पद्मभूषण या पद्मविभूषण से नवाज़ा गया था।

मेरा काम और योगदान सबके सामने है और मेरे शिष्य, जिनमें मेरे बेटे भी शामिल हैं, अपने समय की कसौटी पर खरे उतरेंगे और इस बात का सबूत देंगे कि मैं किस हद तक अपने अादर्शों और अपनी जड़ों के प्रति सच्चा रहा हूँ। संगीत ही मेरा जीवन है, और मैंने एकनिष्ठता से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के रंग-रूप और रूह की पाकीज़गी को बचाए रखा है, और किसी भी तरह के बिगाड़ से उसकी हिफ़ाज़त की है। मैं और मेरे शिष्य विश्व के सभी अालातरीन मंचों पर सितार और सुरबहार के माध्यम से इस धरोहर को पेश करते रहे हैं। ये संगीतकार इसी रिवायत को अाज की पीढ़ी तक पहुँचाने में कामयाब रहे हैं।

ज़िंदगी के इस मुक़ाम पर मुझे यह ठीक नहीं लगता कि उम्र या शोहरत के पैमाने पर मेरे काम और ख़िदमत को मेरे शागिर्दों और बेटों के स्तर से कम करके अाँका जाए।मैंने अपनी ज़िंदगी में कभी समझौते नहीं किये। अब जाकर ऐसे अवार्ड को लेना, जो भारतीय संगीत में मेरे योगदान और मेरी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से क़तई मेल नहीं खाता, अपनी और अपनी कला की अवमानना करना होगा। मैं ख़ुदगर्ज़ नहीं हूँ, लेकिन भारतीय शास्त्रीय संगीत के सुनहरी दौर के महानतम संगीतज्ञ मुझे जो प्यार, भरोसा और इज़्ज़त बख़्श चुके हैं मुझे उसका भी ख़याल रखना है। मैं इसी धरोहर की अाबरू रखने के ख़याल से यह क़दम उठा रहा हूँ।

विनीत
इमरत ख़ाँ

Thursday, February 2, 2017

रायपुर में 'कर्णभारम' का मंचन

रायपुर। 31 जनवरी 17। सीमित संसाधनों मे प्रतिबद्ध और समर्पित कलाकारों कितनी बेहतर प्रस्तुति कर सकते है उसकी मिसाल रहा इंद्रवती नाट्य  समिति सीधी के कलाकारों द्वारा  रायपुर के रंगमंदिर मे मंचित नाटक 'कर्णभारम ।'

 महाकवि भास के आलेख पर बघेली आलेख- नरेंद्र सिंह ने तैय्यार किया है जिसे समझने मे दर्शकों को कोई कठिनाई नही हुई । नरेन्द्र सिहं ने नाटक मे कर्ण की प्रभावी भूमिका गायन शैली के साथ निभाई । नाटक का निर्देशन- नीरज कुंदेर, रौशनी प्रसाद मिश्रा ने किया था

छत्तीसगढ़ फ़िल्म एंड विजुअल आर्ट सोसाइटी और भातखंडे ललित कला शिक्षा समिति रायपुर के सहयोग से आयोजित इस नाटक के कलाकारों को आकाशवाणी के समाचार संपादक श्री विकल्प शुक्ला और छत्तीसगढ़ फ़िल्म एंड विजुअल सोसाइटी की श्रीमती रचना मिश्रा सम्मानित किया ।कर्ण भारम के कलाकारों का अभिनय , संगीत और देह गति अविस्मरणीय थी ।

-सुभाष मिश्रा

थिएटर ऑफ़ रेलेवंस की “राजनीति’ विषय पर नाट्य पूर्वाभ्यास कार्यशाला

मुंबई. थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “राजनीति’ विषय पर नाट्य पूर्वाभ्यास कार्यशाला – पड़ाव -1 उत्प्रेरक – रंग चिन्तक मंजुल भारद्वाज कब : 10 -14 फरवरी , 2017 कहाँ : शांतिवन , पनवेल ( मुंबई) सहभागी : वो सभी देशवासी जो स्वयं को लोकतंत्र का पैरोकार और रखवाले समझते और मानते हैं विवरण हमारा जीवन हर पल ‘राजनीति’ से प्रभावित और संचालित होता है पर एक ‘सभ्य’ नागरिक होने के नाते हम केवल अपने ‘मत का दान’ कर अपनी राजनैतिक भूमिका से मुक्त हो जाते हैं और हर पर ‘राजनीति’ को कोसते हैं ...और अपना ‘मानस’ बना बैठे हैं की राजनीति ‘गंदी’ है ..कीचड़ है ...हम सभ्य हैं ‘राजनीति हमारा कार्य नहीं है ... आओ अब ज़रा सोचें की क्या बिना ‘राजनैतिक’ प्रकिया के विश्व का सबसे बड़ा ‘लोकतंत्र’ चल सकता है ... नहीं चल सकता ... और जब ‘सभ्य’ नागरिक उसे नहीं चलायेंगें तो ... बूरे लोग सत्ता पर काबिज़ हो जायेगें ...और वही हो रहा है ... आओ ‘एक पल विचार करें ... की क्या वाकई राजनीति ‘गंदी’ है ..या हम उसमें सहभाग नहीं लेकर उसे ‘गंदा’ बना रहे हैं ... 

10 -14 फरवरी , 2017 को “राजनीति’ विषय पर नाट्य पूर्वाभ्यास कार्यशाला – पड़ाव 1 का आयोजन कर हमने एक सकारात्मक पहल की है .रंग चिन्तक मंजुल भारद्वाज की उत्प्रेरणा में सभी सहभागी उपरोक्त प्रश्नों पर मंथन करेगें . हम सब अपेक्षा करते हैं की ‘गांधी , भगत सिंह , सावित्री और लक्ष्मी बाई’ इस देश में पैदा तो हों पर मेरे घर में नहीं ... आओ इस पर मनन करें और ‘राजनैतिक व्यवस्था’ को शुद्ध और सार्थक बनाएं ! आपकी सहभागिता के प्रतीक्षारत !

राजेश कुमार कृत ‘बापू ने कहा था‘ नाटक का मंचन

दिनांक 30 जनवरी, 2017। इलाहाबाद, उ.प्र.। महत्मा गांधी जी के परिनिर्वाण दिवस पर उत्तर प्रदेश खादी तथा ग्रामोद्योग बोर्ड द्वारा आयोजित खादी महोत्सव 2017 में रंगपाखी संस्था द्वारा राजेश कुमार कृत ‘बापू ने कहा था‘ नाटक का मंचन 30 जनवरी सायं 6:30 बजे परेड मैदान संगम इलाहाबाद में हुआ।

‘बापू ने कहा था’ नाटक गांधी की विचारधारा, उनके सत्य के प्रयोगों का व्यक्तिगत जीवन में एक प्रयोग है। तारकेश्वर पाण्डेय एक आम आदमी है जो दंगे की ज्वाला में अपने इकलौते बेटे सूरज को खो देता है। इसी हिंसक माहौल में उसकी मुलाकात गांधी से होती है। जो दंगा रोकने के लिए उपवास पर बैठे हैं। वो पीड़ा के असहनीय आवेश में गांधी को ललकारते हुए यह बताता है कि अहिंसा और सत्याग्रह की उनकी विचारधारा खोखली है। गांधी उसे समझाते हैं कि एक अनाथ मुसलमान बच्चे को गोद लेकर उसकी परवरिश करो। तुम्हारे दुःख, घृणा और विश्वास को दूर करने का एकमात्र यही रास्ता है।

तारकेश्वर गांधी की बात मानकर एक अनाथ मुसलमान बच्चे की परवरिश करता है। आफ़ताब नाम का यह बच्चा बड़ा होकर घृणा और द्वेष की आंधी का शिकार होता है। एक बार फिर गांधीवादी विचारधारा धार्मिक उन्माद के समक्ष दम तोड़ती हुई दिखाई देती है। आफ़ताब एक आतंकवादी संगठन से जुड़ जाता है। एक आतंकवादी घटना को अंजाम देने के बाद वो अन्दर तक तड़प जाता है और इस बात का अहसास करता है कि बापू का रास्ता ही सही रास्ता है।

यह नाटक इस बात की पुष्टि करता है कि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में दोनों में ही गांधीवादी विचारधारा ही सर्वश्रेष्ठ है।नाटक में मंच पर अभिनय करने वालों में आशीष गुप्ता - गांधी, शुभम दुबे - तारकेश्वर पाण्डे, गौरांशी श्रीवास्तव - सुमित्रा, अमन वर्मा - आफ़ताब आदि कलाकारों ने अभिनय किया।
राजेश कुमार द्वारा लिखित इस नाटक का निर्देशन प्रिवेन्द्र सिंह ने किया।

यह रंगमंच किसका है?

-राजेश चन्द्रा
रानावि इस भारंगम में दुनिया से यह पूछने जा रहा है कि "यह रंगमंच किसका है?" मानो यह सवाल उसके लिये बहुत कठिन हो! हैरत की बात नहीं कि जिस सवाल का जवाब आज देश के हर उस रंगकर्मी को मालूम है, जिसने रंगमंच में थोड़ा भी समय गुज़ारा है, उसकी तलाश में रानावि लाखों की कसरत करेगा! दुनिया से पूछेंगे पर एक बार अपने आप से नहीं पूछेंगे कि रंगमंच को हमने क्या से क्या और किनके हाथों का खिलौना बना डाला है! वह एक अमूर्त या हवा-हवाई सवाल उछाल रहा है, इन मूल सवालों को दबाने या उनसे लोगों का ध्यान भटकाने के लिये कि :

1. "आज देश का रंगमंच इतना बदहाल, लाचार, परजीवी और विचारशून्य क्यों है?",

2. "करोड़ों रुपये ख़र्च कर रंगमंच के लिये प्रशिक्षित किये जाने वाले रानावि के 98 फ़ीसदी छात्र दशकों से सीधे मुम्बई का रुख क्यों करते हैं? इस विफलता के लिये रानावि को क्यों नहीं बन्द कर दिया जाना चाहिये और प्रशिक्षण के विकेन्द्रीकृत सस्ते वैकल्पिक मॉडल की तलाश करनी चाहिये?",

3. "रंगमंच के इन भयावह हालात के लिये कौन ज़िम्मेदार है, जबकि सरकार हर वर्ष सैकड़ों निर्देशकों को करोड़ों रुपये अनुदान के तौर पर बांट रही है?",

4. "हर साल कई करोड़ रुपये पानी की तरह बहा कर सिर्फ दिल्ली के मंडी हाउस में आयोजित किये जाने वाले भारंगम से भारतीय रंगमंच का क्या भला हुआ है या हो रहा है?" और

5. "देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे महोत्सवों के नाम पर करोड़ों रुपये लुटा देने वाली सरकारें रंगमंच के हित में बुनियादी ढांचे (जैसे सस्ते पर अत्याधुनिक सभागार, पूर्वाभ्यास-स्थल आदि) के निर्माण में रुचि क्यों नहीं लेतीं?"

ज़ाहिर-सी बात है कि ये सारे सवाल और इनके जवाब रानावि के लिये भी मुश्किल पैदा करने वाले हैं, क्योंकि रंगमंच से सम्बंधित लगभग सभी योजनाओं और अनुदान के वितरण के लिये सरकार की नोडल एजेन्सी के तौर पर रानावि सीधे ज़िम्मेदार है! इसलिये रानावि कभी भी इन सवालों पर बात नहीं करेगा! वह फ़िज़ूल के सवालों पर लोगों का वक़्त और उनकी मेहनत का पैसा ख़राब करेगा! उसे केवल यही करना आता है!

तकनीक और डिजाईन मात्र रंगमंच नहीं है !

-परवेज अख्तर
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय या दूसरे प्रशिक्षण केन्द्र जिस प्रशिक्षण-पद्धति का अनुसरण करते हैं, वह पश्चिमोन्मुखी है। इससे किसी को एतराज़ नहीं होगा कि प्रशिक्षण के दौरान प्रशिक्षुओं को पश्चिमी तकनीक का भी ज्ञान दिया जाए। स्तानिस्लावस्की, ब्रेख्त, ग्रोतोवस्की, पीटर ब्रुक सहित, सभी पश्चिमी विचारकों से हमारे रंगकर्मी परिचित हों। लेकिन यहाँ तो प्रशिक्षण की पूरी अवधारणा ही अमेरिकापरस्त है। तकनीक के साथ ही, नाट्य-सौन्दर्य की कलावादी अवधारणा इसप्रकार से प्रशिक्षुओं के ज़ेहन में डाली जाती है कि वह अपने व्यावहारिक रंगमंच मेंं केवल रूप और अभिकल्पना (design) को महत्त्व दें। ऐसा लगता है कि इन प्रशिक्षण केन्द्रों का प्राथमिक लक्ष्य ही एक ऐसे रंगमंच की स्थापना है, जिसमें जनता की आशाओं-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति को महत्व न देकर, केवल तकनीक और अभिकल्पना को प्रोत्साहित किया जाए। जबकि एन.एस.डी. जैसे संस्थानों को अपने प्रशिक्षण के दौरान इस तथ्य को रेखांकित करना चाहिए कि 'सार्थक कथ्य' के बिना शिल्प या डिजाईन का कोई महत्त्व नहीं है।
तकनीक और डिजाईन मात्र रंगमंच नहीं है !
इसके विपरीत, हमें एक ऐसी प्रशिक्षण-पद्धति विकसित करने पर विचार करना चाहिए, जो प्रशिक्षुओं को 'कथ्य' और 'शिल्प' (जिसमें तकनीक और डिजाईन शामिल हैं) का संतुलन करना सिखाए।
रंगमंच में शिल्प-तकनीक-डिजाईन के प्रशिक्षण के साथ, जो कुछ महत्वपूर्ण कार्य प्रशिक्षण केन्द्र द्वारा किये जाने होते हैं – वे हैं, उचित परिप्रेक्ष्य में रंगमंच-कला के मूल्यांकन करने की क्षमता विकसित करना और इस समझ को विकसित करना, जो ‘कथ्य’ और ‘शिल्प’ के संतुलन के बुनियादी उसूल से प्रशिक्षुओं को परिचित कराये। 
आशु-रचना (improvisation) की कला, रंगमंच का सबसे विशिष्ट कौशल है। प्रशिक्षण के दौरान विभिन्न छवि, ध्वनि, विचार, भावना (emotion, sentiment), शब्द और अन्य सभी दृश्य-श्रव्य अवयवों के रंगमंचीय उपयोग के प्रसंग में आशु-रचना के अभ्यास करवाये जाते हैं। इसी क्रम में यह भी बताया जाता है कि परिस्थिति के अनुसार किस प्रकार अपनी नाट्य-रचना को संयोजित किया जाए।
सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता और कल्पनाशीलता नाट्य-कला की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। यह, वह विशिष्टता है, जो नाट्य-सृजन को काव्यात्मक ऊँचाई देती है। यह स्पष्ट है कि नाट्य-प्रशिक्षण संस्थान; शिल्प कौशल, डिजाईन और तकनीक के प्रशिक्षण के साथ; नाट्य-कला की विशिष्टताओं से प्रशिक्षुओं को परिचित कराते हैं। उनका यह दायित्व भी है कि भावी नाट्य नेतृत्व अपने क्षेत्र के दर्शकों के रंगमंच की ज़रुरत का अनुमान लगाने और अपने दर्शकों की आशाओं-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति, उनकी नाट्य-भाषा में करने में सक्षम हों।
लेकिन स्थिति ऐसी है नहीं। दुर्भाग्यवश हिन्दी रंगमंच में अभिनेता स्थायी नहीं है, जबकि यह उसीका माध्यम है। हाँ, निर्देशक का वर्चस्व हिन्दी रंगमंच में बढ़ता गया है। इसलिए रंगमंच की त्रयी - नाटककार, दर्शक और अभिनेता के दबाव से मुक्त; निर्देशक NSD के नेतृत्त्व में और उसकी प्रेरणा से, ‘शिल्प’ और ‘तकनीक’ के अतिरेक या आतंक के माध्यम से अपनी सत्ता की स्थापना की दिशा में प्रयासरत दीखता है। यह रंगमंच और दर्शकों दोनों के हित में नहीं है।