-परवेज अख्तर
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय या दूसरे प्रशिक्षण केन्द्र जिस प्रशिक्षण-पद्धति का अनुसरण करते हैं, वह पश्चिमोन्मुखी है। इससे किसी को एतराज़ नहीं होगा कि प्रशिक्षण के दौरान प्रशिक्षुओं को पश्चिमी तकनीक का भी ज्ञान दिया जाए। स्तानिस्लावस्की, ब्रेख्त, ग्रोतोवस्की, पीटर ब्रुक सहित, सभी पश्चिमी विचारकों से हमारे रंगकर्मी परिचित हों। लेकिन यहाँ तो प्रशिक्षण की पूरी अवधारणा ही अमेरिकापरस्त है। तकनीक के साथ ही, नाट्य-सौन्दर्य की कलावादी अवधारणा इसप्रकार से प्रशिक्षुओं के ज़ेहन में डाली जाती है कि वह अपने व्यावहारिक रंगमंच मेंं केवल रूप और अभिकल्पना (design) को महत्त्व दें। ऐसा लगता है कि इन प्रशिक्षण केन्द्रों का प्राथमिक लक्ष्य ही एक ऐसे रंगमंच की स्थापना है, जिसमें जनता की आशाओं-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति को महत्व न देकर, केवल तकनीक और अभिकल्पना को प्रोत्साहित किया जाए। जबकि एन.एस.डी. जैसे संस्थानों को अपने प्रशिक्षण के दौरान इस तथ्य को रेखांकित करना चाहिए कि 'सार्थक कथ्य' के बिना शिल्प या डिजाईन का कोई महत्त्व नहीं है।
तकनीक और डिजाईन मात्र रंगमंच नहीं है !
इसके विपरीत, हमें एक ऐसी प्रशिक्षण-पद्धति विकसित करने पर विचार करना चाहिए, जो प्रशिक्षुओं को 'कथ्य' और 'शिल्प' (जिसमें तकनीक और डिजाईन शामिल हैं) का संतुलन करना सिखाए।
रंगमंच में शिल्प-तकनीक-डिजाईन के प्रशिक्षण के साथ, जो कुछ महत्वपूर्ण कार्य प्रशिक्षण केन्द्र द्वारा किये जाने होते हैं – वे हैं, उचित परिप्रेक्ष्य में रंगमंच-कला के मूल्यांकन करने की क्षमता विकसित करना और इस समझ को विकसित करना, जो ‘कथ्य’ और ‘शिल्प’ के संतुलन के बुनियादी उसूल से प्रशिक्षुओं को परिचित कराये।
आशु-रचना (improvisation) की कला, रंगमंच का सबसे विशिष्ट कौशल है। प्रशिक्षण के दौरान विभिन्न छवि, ध्वनि, विचार, भावना (emotion, sentiment), शब्द और अन्य सभी दृश्य-श्रव्य अवयवों के रंगमंचीय उपयोग के प्रसंग में आशु-रचना के अभ्यास करवाये जाते हैं। इसी क्रम में यह भी बताया जाता है कि परिस्थिति के अनुसार किस प्रकार अपनी नाट्य-रचना को संयोजित किया जाए।
सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता और कल्पनाशीलता नाट्य-कला की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। यह, वह विशिष्टता है, जो नाट्य-सृजन को काव्यात्मक ऊँचाई देती है। यह स्पष्ट है कि नाट्य-प्रशिक्षण संस्थान; शिल्प कौशल, डिजाईन और तकनीक के प्रशिक्षण के साथ; नाट्य-कला की विशिष्टताओं से प्रशिक्षुओं को परिचित कराते हैं। उनका यह दायित्व भी है कि भावी नाट्य नेतृत्व अपने क्षेत्र के दर्शकों के रंगमंच की ज़रुरत का अनुमान लगाने और अपने दर्शकों की आशाओं-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति, उनकी नाट्य-भाषा में करने में सक्षम हों।
लेकिन स्थिति ऐसी है नहीं। दुर्भाग्यवश हिन्दी रंगमंच में अभिनेता स्थायी नहीं है, जबकि यह उसीका माध्यम है। हाँ, निर्देशक का वर्चस्व हिन्दी रंगमंच में बढ़ता गया है। इसलिए रंगमंच की त्रयी - नाटककार, दर्शक और अभिनेता के दबाव से मुक्त; निर्देशक NSD के नेतृत्त्व में और उसकी प्रेरणा से, ‘शिल्प’ और ‘तकनीक’ के अतिरेक या आतंक के माध्यम से अपनी सत्ता की स्थापना की दिशा में प्रयासरत दीखता है। यह रंगमंच और दर्शकों दोनों के हित में नहीं है।
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