-राजेश चन्द्रा
रानावि इस भारंगम में दुनिया से यह पूछने जा रहा है कि "यह रंगमंच किसका है?" मानो यह सवाल उसके लिये बहुत कठिन हो! हैरत की बात नहीं कि जिस सवाल का जवाब आज देश के हर उस रंगकर्मी को मालूम है, जिसने रंगमंच में थोड़ा भी समय गुज़ारा है, उसकी तलाश में रानावि लाखों की कसरत करेगा! दुनिया से पूछेंगे पर एक बार अपने आप से नहीं पूछेंगे कि रंगमंच को हमने क्या से क्या और किनके हाथों का खिलौना बना डाला है! वह एक अमूर्त या हवा-हवाई सवाल उछाल रहा है, इन मूल सवालों को दबाने या उनसे लोगों का ध्यान भटकाने के लिये कि :1. "आज देश का रंगमंच इतना बदहाल, लाचार, परजीवी और विचारशून्य क्यों है?",
2. "करोड़ों रुपये ख़र्च कर रंगमंच के लिये प्रशिक्षित किये जाने वाले रानावि के 98 फ़ीसदी छात्र दशकों से सीधे मुम्बई का रुख क्यों करते हैं? इस विफलता के लिये रानावि को क्यों नहीं बन्द कर दिया जाना चाहिये और प्रशिक्षण के विकेन्द्रीकृत सस्ते वैकल्पिक मॉडल की तलाश करनी चाहिये?",
3. "रंगमंच के इन भयावह हालात के लिये कौन ज़िम्मेदार है, जबकि सरकार हर वर्ष सैकड़ों निर्देशकों को करोड़ों रुपये अनुदान के तौर पर बांट रही है?",
4. "हर साल कई करोड़ रुपये पानी की तरह बहा कर सिर्फ दिल्ली के मंडी हाउस में आयोजित किये जाने वाले भारंगम से भारतीय रंगमंच का क्या भला हुआ है या हो रहा है?" और
5. "देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे महोत्सवों के नाम पर करोड़ों रुपये लुटा देने वाली सरकारें रंगमंच के हित में बुनियादी ढांचे (जैसे सस्ते पर अत्याधुनिक सभागार, पूर्वाभ्यास-स्थल आदि) के निर्माण में रुचि क्यों नहीं लेतीं?"
ज़ाहिर-सी बात है कि ये सारे सवाल और इनके जवाब रानावि के लिये भी मुश्किल पैदा करने वाले हैं, क्योंकि रंगमंच से सम्बंधित लगभग सभी योजनाओं और अनुदान के वितरण के लिये सरकार की नोडल एजेन्सी के तौर पर रानावि सीधे ज़िम्मेदार है! इसलिये रानावि कभी भी इन सवालों पर बात नहीं करेगा! वह फ़िज़ूल के सवालों पर लोगों का वक़्त और उनकी मेहनत का पैसा ख़राब करेगा! उसे केवल यही करना आता है!
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