-अर्पिता श्रीवास्तव
आज के समय थियेटर में दर्शकों का रोना महानगर के साथ छोटे शहरों की भी प्रमुख समस्या है पर किसी भी समस्या को हल करने की बजाय सिरे से ख़ारिज़ कर देने का ख़्याल हमारी सतही सोच का परिचय देता है. संचार माध्यम, बाज़ार आज के दर्शकों की नब्ज़ पहचानते हैं तो थियेटर कर रहे पढे-लिखे रंगकर्मी इस पर विचार-मंथन करने में अयोग्य हैं क्या? इस प्रश्न के उत्तर में सोचने से किसी को गुरेज़ नहीं पर छोटे-छोटे कदम से रंगकर्म की शक्ति को समय और समाज की ज़रूरत पहचानते और बाज़ार की दबी-छिपी कुचेष्टाओं को पहचानते आगे बढ़ाने में ज्यादातर रंगसंस्थायें अपनी इच्छाशक्ति को अमली जामा पहनाने में नाकाम ही हैं.
इस दिशा में रायगढ इप्टा के रंगकर्मियों ने अपने सपने को आकार देने की कोशिश आज से 19 बरस पहले की जिसका बीज अंकुरित हो अब एक स्वस्थ पौधे के रूप में हमारे सामने हैं. अपने सपने के कैंद्र में समाज और उससे जुड़ी समस्याओं को रखा, आमजन की सुषुप्त संवेदनाओं को जाग्रत रखने के जोखिम में ही अपनी सार्थकता समझी, बच्चे हों, युवा हों या वरिष्ठजन, हर पीढ़ी की उपस्थिति को समान महत्व देने की परंपरा को आगे बढ़ाया और इन सबसे बढ़कर पूरे देश में थियेटर के सीमित दर्शकों के आलाप में हर तरह के दर्शक और हर एक की भागीदारी बढ़ाने के कठिन प्रयास को साकार करने की कोशिश की जो धीरे-धीरे अपना प्रभाव दिखा रही है. यह गर्व करने की बात है और पूरे देश में बताने की भी कि प्रारंभ में प्रेक्षागृह की हर खाली कुर्सी में दर्शक की चाह फिर प्रेक्षागृह से बाहर निकल खुले में वर्ष दर वर्ष पंडाल के आकार को बढ़ा अपनी चुनौतियों पर खरा उतरना आसान काम नहीं है.
इस दिशा में इप्टा ने न तो अपना विजन बदला और न अपने लक्ष्य को पाने बाज़ार की शक्तियों के आगे घुटने टेके. उपभोक्तावादी समय में अपनी शर्तों और अपने मूल्यों के साथ आगे बढ़ने का रास्ता बनाना साहस और जीवटता का परिचय देता है. पिछले तीन वर्षों से रायगढ़ में नाटक की प्रस्तुति से पूर्व एक लघु फ़िल्म दिखाने का क्रम जारी है जिसके पीछे छिपी मंशा स्पष्ट और सराहनीय है. आज के समय में इस पर किसी को संदेह नहीं कि फ़िल्में हमेशा से संवेदना की कोमल धरातल पर अपनी पैठ बनाने में आगे रही हैं आज से पहले जब जीवन एक तेज़ रफ़्तार रेलगाड़ी नहीं हुआ था तब और अब जबकि लोगों को अपने परिवार के लिये भी समय निकालना मुहाल है तब भी इसीलिये सिनेमा को दर्शकों की कमी का रोना रोना नहीं पड़ा. पर संचार माध्यमों की क्रांति के साथ यानि टेलीविजन के आगमन के साथ अन्य मनोरंजन माध्यमों पर दर्शकों की कमी के प्रभाव ने कई कला माध्यमों को अल्पसंख्यक की श्रेणी और कुछ को विलुप्ति की कगार में खड़ा किया है. कई कला रूपों के कलाकार आज फाकाकशी में दिन गुज़ार रहे हैं उनकी जीवंत कलायें साहित्य, स्मृति और यदाकदा किसी डाक्यूमेंट्री का हिस्सा मात्र रह गया है जो हर संवेदनशील दिल के लिये उदासी का सबब है. सब इसी उधेड़बुन में अपने आप को खोज रहे हैं कि अपने जीवन के तमाम रंगों को हमेशा सहेज सकें, उनके स्वरों को गुंजायमान रख सकें.
अरे हां!! हम बात कर रहे थे फिल्मों की…मल्टीप्लेक्स पर प्रदर्शित होने वाली फुल लेंथ की फ़िल्मों की श्रेणी अलग है पर उनसे अलग लघु फ़िल्मों का संसार है जो हमारे व्यस्त जीवन में समय के छोटे से अंश को लेकर हमें गहरे झकझोरने का माद्दा रखती हैं. इस सामर्थ्य को पहचान रायगढ़ इप्टा 2010 से लघु फिल्मों का प्रदर्शन नाट्य-समारोह में शुरु किया. पांच दिन में पांच लघु फिल्में जिनके मनोरंजन और सार्थकता का शत प्रतिशत मेल नाट्य समारोह की उम्र में इज़ाफा हो रहा है.
पांच नाटक और पांच लघु फिल्मों का प्रदर्शन संभव होता है जनसहयोग से जिसके लिये हर सदस्य समारोह के डेढ़-दो महीने से पहले समय दान देता है जो आज के समय में अकल्पनीय है. यहां दो बातें महत्वपूर्ण हैं एक तो नाटकों के साथ ही फिल्म के प्रदर्शन का कांसेप्ट और दूसरा दरवाज़े-दरवाज़े जाकर वर्ष में एक बार अपने नियमित दर्शकों के हालचाल लेना जिससे मानवीय संबंधों की ऊष्मा की आंच में कमी नहीं आती है. आज जबकि पूरे देश में बड़े-बड़े चंदों और सहयोग के आधार पर रायगढ़ से कई गुना बड़े नाट्य समारोह आयोजित हो रहे हैं ऐसे समय में इस तरह के प्रयास कम जगहों में ही हो रहे होंगे ऐसा मेरा मानना है. यहां यह बताना आवश्यक है कि इप्टा के नाम से रायगढ़ में कोई भी अपरिचित नहीं और दूसरी बात यह कि जनसहयोग में समृद्ध लोगों की साथ-साथ दैनिक आजीविका में निर्भर लोगों का महत्वपूर्ण सहयोग एक उदाहरण है.
किसी विचारधारा को समय के साथ आगे बढ़ाने में ही उसकी सार्वकालिकता सिद्ध होती है उसमें निहित परिवर्तन की आवश्यकता को सही अवसर पर पहचान बदलने से उसकी जड़ता दूर हो सकती है. इस दिशा में भी रायगढ़ इप्टा देश के जानेमाने रंगसमीक्षकों, निर्देशकों और नाटककारों से खुले दिल से विचार विनिमय करता है जिससे अपने आप को देख पाने और गलतियों को सुधार पाने की निरंतरता कायम रहती है. हर वर्ष नाट्य समारोह में देश के संवेदनशील प्रबुद्ध जन को ओब्ज़र्वर के रूप में आमंत्रित करती है जिनके फीडबैक से वो अगली योजना के लूपहोल भरती है. एक बात स्पष्ट है कि सिर्फ नाटक करना किसी भी सामान्यजन और दर्शक को रंगकर्मी का मुख्य किरदार लग सकता है पर इसके पीछे एक मनुष्य बनने की ऐसी रासायनिक प्रक्रिया छुपी है जिसमें मानवीयता के दुर्लभ होते जा रहे उत्पाद का रहस्य भी शामिल है जिसे हर ईमानदार रंगकर्मी बखूबी समझता है. इसी नब्ज़ को थामे रायगढ़ इप्टा अपना लंबा सफ़र तमाम उलझनों, परेशानियों और प्रतिगामी शक्तियों से लड़ते हुए जारी रखा है जिसके जज़्बे पर किसी का भी दिल आना सवाभाविक है. यह प्रतिबद्धता और कार्यशैली बने रहे इस के लिये दिल से शुभकामनायें!
आज के समय थियेटर में दर्शकों का रोना महानगर के साथ छोटे शहरों की भी प्रमुख समस्या है पर किसी भी समस्या को हल करने की बजाय सिरे से ख़ारिज़ कर देने का ख़्याल हमारी सतही सोच का परिचय देता है. संचार माध्यम, बाज़ार आज के दर्शकों की नब्ज़ पहचानते हैं तो थियेटर कर रहे पढे-लिखे रंगकर्मी इस पर विचार-मंथन करने में अयोग्य हैं क्या? इस प्रश्न के उत्तर में सोचने से किसी को गुरेज़ नहीं पर छोटे-छोटे कदम से रंगकर्म की शक्ति को समय और समाज की ज़रूरत पहचानते और बाज़ार की दबी-छिपी कुचेष्टाओं को पहचानते आगे बढ़ाने में ज्यादातर रंगसंस्थायें अपनी इच्छाशक्ति को अमली जामा पहनाने में नाकाम ही हैं.
इस दिशा में रायगढ इप्टा के रंगकर्मियों ने अपने सपने को आकार देने की कोशिश आज से 19 बरस पहले की जिसका बीज अंकुरित हो अब एक स्वस्थ पौधे के रूप में हमारे सामने हैं. अपने सपने के कैंद्र में समाज और उससे जुड़ी समस्याओं को रखा, आमजन की सुषुप्त संवेदनाओं को जाग्रत रखने के जोखिम में ही अपनी सार्थकता समझी, बच्चे हों, युवा हों या वरिष्ठजन, हर पीढ़ी की उपस्थिति को समान महत्व देने की परंपरा को आगे बढ़ाया और इन सबसे बढ़कर पूरे देश में थियेटर के सीमित दर्शकों के आलाप में हर तरह के दर्शक और हर एक की भागीदारी बढ़ाने के कठिन प्रयास को साकार करने की कोशिश की जो धीरे-धीरे अपना प्रभाव दिखा रही है. यह गर्व करने की बात है और पूरे देश में बताने की भी कि प्रारंभ में प्रेक्षागृह की हर खाली कुर्सी में दर्शक की चाह फिर प्रेक्षागृह से बाहर निकल खुले में वर्ष दर वर्ष पंडाल के आकार को बढ़ा अपनी चुनौतियों पर खरा उतरना आसान काम नहीं है.
इस दिशा में इप्टा ने न तो अपना विजन बदला और न अपने लक्ष्य को पाने बाज़ार की शक्तियों के आगे घुटने टेके. उपभोक्तावादी समय में अपनी शर्तों और अपने मूल्यों के साथ आगे बढ़ने का रास्ता बनाना साहस और जीवटता का परिचय देता है. पिछले तीन वर्षों से रायगढ़ में नाटक की प्रस्तुति से पूर्व एक लघु फ़िल्म दिखाने का क्रम जारी है जिसके पीछे छिपी मंशा स्पष्ट और सराहनीय है. आज के समय में इस पर किसी को संदेह नहीं कि फ़िल्में हमेशा से संवेदना की कोमल धरातल पर अपनी पैठ बनाने में आगे रही हैं आज से पहले जब जीवन एक तेज़ रफ़्तार रेलगाड़ी नहीं हुआ था तब और अब जबकि लोगों को अपने परिवार के लिये भी समय निकालना मुहाल है तब भी इसीलिये सिनेमा को दर्शकों की कमी का रोना रोना नहीं पड़ा. पर संचार माध्यमों की क्रांति के साथ यानि टेलीविजन के आगमन के साथ अन्य मनोरंजन माध्यमों पर दर्शकों की कमी के प्रभाव ने कई कला माध्यमों को अल्पसंख्यक की श्रेणी और कुछ को विलुप्ति की कगार में खड़ा किया है. कई कला रूपों के कलाकार आज फाकाकशी में दिन गुज़ार रहे हैं उनकी जीवंत कलायें साहित्य, स्मृति और यदाकदा किसी डाक्यूमेंट्री का हिस्सा मात्र रह गया है जो हर संवेदनशील दिल के लिये उदासी का सबब है. सब इसी उधेड़बुन में अपने आप को खोज रहे हैं कि अपने जीवन के तमाम रंगों को हमेशा सहेज सकें, उनके स्वरों को गुंजायमान रख सकें.
अरे हां!! हम बात कर रहे थे फिल्मों की…मल्टीप्लेक्स पर प्रदर्शित होने वाली फुल लेंथ की फ़िल्मों की श्रेणी अलग है पर उनसे अलग लघु फ़िल्मों का संसार है जो हमारे व्यस्त जीवन में समय के छोटे से अंश को लेकर हमें गहरे झकझोरने का माद्दा रखती हैं. इस सामर्थ्य को पहचान रायगढ़ इप्टा 2010 से लघु फिल्मों का प्रदर्शन नाट्य-समारोह में शुरु किया. पांच दिन में पांच लघु फिल्में जिनके मनोरंजन और सार्थकता का शत प्रतिशत मेल नाट्य समारोह की उम्र में इज़ाफा हो रहा है.
पांच नाटक और पांच लघु फिल्मों का प्रदर्शन संभव होता है जनसहयोग से जिसके लिये हर सदस्य समारोह के डेढ़-दो महीने से पहले समय दान देता है जो आज के समय में अकल्पनीय है. यहां दो बातें महत्वपूर्ण हैं एक तो नाटकों के साथ ही फिल्म के प्रदर्शन का कांसेप्ट और दूसरा दरवाज़े-दरवाज़े जाकर वर्ष में एक बार अपने नियमित दर्शकों के हालचाल लेना जिससे मानवीय संबंधों की ऊष्मा की आंच में कमी नहीं आती है. आज जबकि पूरे देश में बड़े-बड़े चंदों और सहयोग के आधार पर रायगढ़ से कई गुना बड़े नाट्य समारोह आयोजित हो रहे हैं ऐसे समय में इस तरह के प्रयास कम जगहों में ही हो रहे होंगे ऐसा मेरा मानना है. यहां यह बताना आवश्यक है कि इप्टा के नाम से रायगढ़ में कोई भी अपरिचित नहीं और दूसरी बात यह कि जनसहयोग में समृद्ध लोगों की साथ-साथ दैनिक आजीविका में निर्भर लोगों का महत्वपूर्ण सहयोग एक उदाहरण है.
किसी विचारधारा को समय के साथ आगे बढ़ाने में ही उसकी सार्वकालिकता सिद्ध होती है उसमें निहित परिवर्तन की आवश्यकता को सही अवसर पर पहचान बदलने से उसकी जड़ता दूर हो सकती है. इस दिशा में भी रायगढ़ इप्टा देश के जानेमाने रंगसमीक्षकों, निर्देशकों और नाटककारों से खुले दिल से विचार विनिमय करता है जिससे अपने आप को देख पाने और गलतियों को सुधार पाने की निरंतरता कायम रहती है. हर वर्ष नाट्य समारोह में देश के संवेदनशील प्रबुद्ध जन को ओब्ज़र्वर के रूप में आमंत्रित करती है जिनके फीडबैक से वो अगली योजना के लूपहोल भरती है. एक बात स्पष्ट है कि सिर्फ नाटक करना किसी भी सामान्यजन और दर्शक को रंगकर्मी का मुख्य किरदार लग सकता है पर इसके पीछे एक मनुष्य बनने की ऐसी रासायनिक प्रक्रिया छुपी है जिसमें मानवीयता के दुर्लभ होते जा रहे उत्पाद का रहस्य भी शामिल है जिसे हर ईमानदार रंगकर्मी बखूबी समझता है. इसी नब्ज़ को थामे रायगढ़ इप्टा अपना लंबा सफ़र तमाम उलझनों, परेशानियों और प्रतिगामी शक्तियों से लड़ते हुए जारी रखा है जिसके जज़्बे पर किसी का भी दिल आना सवाभाविक है. यह प्रतिबद्धता और कार्यशैली बने रहे इस के लिये दिल से शुभकामनायें!