Friday, November 30, 2012

इप्टा रायगढ़ और रंगमहोत्सव: कुछ अपनी बातें…

-अर्पिता श्रीवास्तव

ज के समय थियेटर में दर्शकों का रोना महानगर के साथ छोटे शहरों की भी प्रमुख समस्या है पर किसी भी समस्या को हल करने की बजाय सिरे से ख़ारिज़ कर देने का ख़्याल हमारी सतही सोच का परिचय देता है. संचार माध्यम, बाज़ार आज के दर्शकों की नब्ज़ पहचानते हैं तो थियेटर कर रहे पढे-लिखे रंगकर्मी इस पर विचार-मंथन करने में अयोग्य हैं क्या? इस प्रश्न के उत्तर में सोचने से किसी को गुरेज़ नहीं पर छोटे-छोटे कदम से रंगकर्म की शक्ति को समय और समाज की ज़रूरत पहचानते और बाज़ार की दबी-छिपी कुचेष्टाओं को पहचानते आगे बढ़ाने में ज्यादातर रंगसंस्थायें अपनी इच्छाशक्ति को अमली जामा पहनाने में नाकाम ही हैं.


इस दिशा में रायगढ इप्टा के रंगकर्मियों ने अपने सपने को आकार देने की कोशिश आज से 19 बरस पहले की जिसका बीज अंकुरित हो अब एक स्वस्थ पौधे के रूप में हमारे सामने हैं. अपने सपने के कैंद्र में समाज और उससे जुड़ी समस्याओं को रखा, आमजन की सुषुप्त संवेदनाओं को जाग्रत रखने के जोखिम में ही अपनी सार्थकता समझी, बच्चे हों, युवा हों या वरिष्ठजन, हर पीढ़ी की उपस्थिति को समान महत्व देने की परंपरा को आगे बढ़ाया और इन सबसे बढ़कर पूरे देश में थियेटर के सीमित दर्शकों के आलाप में हर तरह के दर्शक और हर एक की भागीदारी बढ़ाने के कठिन प्रयास को साकार करने की कोशिश की जो धीरे-धीरे अपना प्रभाव दिखा रही है. यह गर्व करने की बात है और पूरे देश में बताने की भी कि प्रारंभ में प्रेक्षागृह की हर खाली कुर्सी में दर्शक की चाह फिर प्रेक्षागृह से बाहर निकल खुले में वर्ष दर वर्ष पंडाल के आकार को बढ़ा अपनी चुनौतियों पर खरा उतरना आसान काम नहीं है.

इस दिशा में इप्टा ने न तो अपना विजन बदला और न अपने लक्ष्य को पाने बाज़ार की शक्तियों के आगे घुटने टेके. उपभोक्तावादी समय में अपनी शर्तों और अपने मूल्यों के साथ आगे बढ़ने का रास्ता बनाना साहस और जीवटता का परिचय देता है. पिछले तीन वर्षों से रायगढ़ में नाटक की प्रस्तुति से पूर्व एक लघु फ़िल्म दिखाने का क्रम जारी है जिसके पीछे छिपी मंशा स्पष्ट और सराहनीय है. आज के समय में इस पर किसी को संदेह नहीं कि फ़िल्में हमेशा से संवेदना की कोमल धरातल पर अपनी पैठ बनाने में आगे रही हैं आज से पहले जब जीवन एक तेज़ रफ़्तार रेलगाड़ी नहीं हुआ था तब और अब जबकि लोगों को अपने परिवार के लिये भी समय निकालना मुहाल है तब भी इसीलिये सिनेमा को दर्शकों की कमी का रोना रोना नहीं पड़ा. पर संचार माध्यमों की क्रांति के साथ यानि टेलीविजन के आगमन के साथ अन्य मनोरंजन माध्यमों पर दर्शकों की कमी के प्रभाव ने कई कला माध्यमों को अल्पसंख्यक की श्रेणी  और कुछ को विलुप्ति की कगार में खड़ा किया है. कई कला रूपों के कलाकार आज फाकाकशी में दिन गुज़ार रहे हैं उनकी जीवंत कलायें साहित्य, स्मृति और यदाकदा किसी डाक्यूमेंट्री का हिस्सा मात्र रह गया है जो हर संवेदनशील दिल के लिये उदासी का सबब है. सब इसी उधेड़बुन में अपने आप को खोज रहे हैं कि अपने जीवन के तमाम रंगों को हमेशा सहेज सकें, उनके स्वरों को गुंजायमान रख सकें.

अरे हां!! हम बात कर रहे थे फिल्मों की…मल्टीप्लेक्स पर प्रदर्शित होने वाली फुल लेंथ की फ़िल्मों की श्रेणी अलग है पर उनसे अलग लघु फ़िल्मों का संसार है जो हमारे व्यस्त जीवन में समय के छोटे से अंश को लेकर हमें गहरे झकझोरने का माद्दा रखती हैं. इस सामर्थ्य को पहचान रायगढ़ इप्टा 2010 से लघु फिल्मों का प्रदर्शन नाट्य-समारोह में शुरु किया. पांच दिन में पांच लघु फिल्में जिनके मनोरंजन और सार्थकता का शत प्रतिशत मेल नाट्य समारोह की उम्र में इज़ाफा हो रहा है.

पांच नाटक और पांच लघु फिल्मों का प्रदर्शन संभव होता है जनसहयोग से जिसके लिये हर सदस्य समारोह के डेढ़-दो महीने से पहले समय दान देता है जो आज के समय में अकल्पनीय है. यहां दो बातें महत्वपूर्ण हैं एक तो नाटकों के साथ ही फिल्म के प्रदर्शन का कांसेप्ट और दूसरा दरवाज़े-दरवाज़े जाकर वर्ष में एक बार अपने नियमित दर्शकों के हालचाल लेना जिससे मानवीय संबंधों की ऊष्मा की आंच में कमी नहीं आती है. आज जबकि पूरे देश में बड़े-बड़े चंदों और सहयोग के आधार पर रायगढ़ से कई गुना बड़े नाट्य समारोह आयोजित हो रहे हैं ऐसे समय में इस तरह के प्रयास कम जगहों में ही हो रहे होंगे ऐसा मेरा मानना है. यहां यह बताना आवश्यक है कि इप्टा के नाम से रायगढ़ में कोई भी अपरिचित नहीं और दूसरी बात यह कि जनसहयोग में समृद्ध लोगों की साथ-साथ दैनिक आजीविका में निर्भर लोगों का महत्वपूर्ण सहयोग एक उदाहरण है.

किसी विचारधारा को समय  के साथ आगे बढ़ाने में  ही उसकी सार्वकालिकता सिद्ध  होती है  उसमें निहित  परिवर्तन की आवश्यकता को सही  अवसर पर पहचान बदलने से उसकी जड़ता दूर हो सकती है. इस दिशा में भी रायगढ़ इप्टा  देश के जानेमाने रंगसमीक्षकों, निर्देशकों और नाटककारों  से खुले दिल से विचार विनिमय करता है जिससे अपने आप को देख पाने और गलतियों को सुधार पाने की निरंतरता कायम रहती है. हर वर्ष नाट्य समारोह में देश के संवेदनशील  प्रबुद्ध जन को ओब्ज़र्वर के रूप में आमंत्रित करती है जिनके फीडबैक से वो अगली योजना के लूपहोल भरती है. एक बात स्पष्ट है कि सिर्फ नाटक करना किसी भी सामान्यजन और दर्शक को रंगकर्मी का मुख्य किरदार लग सकता है पर इसके पीछे एक मनुष्य बनने की ऐसी रासायनिक प्रक्रिया छुपी है जिसमें मानवीयता के दुर्लभ होते जा रहे उत्पाद का रहस्य भी शामिल है जिसे हर ईमानदार रंगकर्मी बखूबी समझता है. इसी नब्ज़ को थामे रायगढ़ इप्टा अपना लंबा सफ़र तमाम उलझनों, परेशानियों और प्रतिगामी शक्तियों से लड़ते हुए जारी रखा है जिसके जज़्बे पर किसी का भी दिल आना सवाभाविक है. यह प्रतिबद्धता और कार्यशैली बने रहे इस के लिये दिल से शुभकामनायें!


Lala Hardaul is a tale valour and irony!

The fourth day of the National Theatre Festival witnessed another full house with an exceptionally beautiful bundeli play staged – Lala Hardaul – based on the man himself.

Lala Hardaul is a hero from folklores of Bundelkhand. The play directed by Balendra Singh, is a brief biopic of this strong warrior, and is based on a script by Komal Kalyan Jain. The folklore has been presented in its authentic language – Bundelkhandi, complete with accents, gestures and punches.
The play packs a lot of devices into one, the first one being the music. With a Harmonium and a Dholak, the play comes alive with Ranjana Tiwari’s strong voice everytime she sings. This biopic revolves around the innocent motherly love of Rani Champavati towards her brother in law – Hardaul. He is King Jujhar Singh’s step brother. King’s actual brother, Pahad Singh wants the throne and falsely frames the Rani and Hardaul for having an affair, which the king immediately reacts to and orders Hardaul’s death, to be sentenced by the Rani herself, if she wants to prove her innocence. The Rani does it, and the king eventually finds out that Hardaul was innocent.

This story is a very famous folktale, and Hardaul is a very honourable figure in a lot of states in India. Besides being brave, Hardaul also worked towards unification of Bundelkhand, throwing away descrimination and pushing for independance. After his death it is believed he served food at his sister’s wedding to help them meet the needs.

The play, amidst a lot of technical fuss and disturbance due to marriage processions, was so heartfelt that the audience could not leave their seats and they sat for the two odd hours to witness the story of this great warrior. Not to forget, the beautiful light design also contributed to some life on stage.

Thursday, November 29, 2012

Ladi Najariya hits us hard and strong!

The third day of the 19th National Theater Festival witnessed a very energetic play, Ladi Najariya, based on ‘Dus Din Ka Anshan’, a story by Harishankar Parsai. It is a signature Parsai play, which pokes you at the right places quite hard and strong. It was performed by the students of FLAME School of Performing Arts, Pune.

Ladi Najariya is a story of a hunger strike, by Namya, the lead of the story, who is smitten by Savitri, a married woman. The hunger strike is to pressurise Savitri to marry him. Savitri, of course does not want this to happen. Baba Sankidas, who takes advantage of this situation and pushes Namya to go on a hunger strike, uses varied tactics to make this a national issue. The government, after a lot has been done, passes an order to force Savitri to get married to Namya. The short story by Parsai deals with a time decades back, and this play has become more and more relevant today. With this thread, the play takes us on the journey of intimate feelings turning irrelevant.

Directed by Prasad Vanarase and the Music by Sameer Dublay, Ladi Najariya attacks a lot of forces around us with the simplest tool – music! The Music is layered into several metaphors and the tunes remind one of the freedom struggle, Mahatma Gandhi and the abuse of his name. The variations of the song, ‘Raghupati Raghav Raja Ram’ has been used very judiciously.

This play generates humour initially and suddenly takes the audience deep into the problems and the crisis which Savitri is trying to deal with. The music changes its chords too, with this sudden change in the tone of the play.

It runs for 1 hour and 20 minutes, and makes sure you do not feel it is that long. Every minute of this play is preciously crafted to take us through the emotional war which the protagonist is going through. The babas, politicians and even us, the ‘common man’ are not spared.

Wednesday, November 28, 2012

The story of struggle meticulously told, honesly felt

Fifty five minutes of pin drop silence. One woman narrates her own story. And slowly the silence grows and the painful struggle of this woman engulfs the people. Such is Irom Sharmila’s story, the story of a struggle since the last eleven years.

The second day of the National Theatre Festival witness this play, Le Mashaley.

The play takes you through the journey of Irom Sharmila’s life. She has been fasting since 2000 against the Armed Forces Special Powers Act, which takes away very basic human rights of the people of Manipur. The play blends stories of Manipur, folk tales and facts and asks the audience to reconsider the happenings around us and in this country.

Ojas S V plays Irom Sharmila in the play, and she has directed it as well. She slowly takes the audience into the loop, by asking them questions about Manipur and then duly answering them. She tells us folklores of Manipur which gradually turn red. She describes how these stories are being murdered and the women of Manipur have been struggling to save themselves, their land, but their voices are being captured by the law of India.

This tightly knit play reveals a lot of things we might not have known before, about Irom, her struggle, Manipur and even our National Anthem, which strangely mentions almost all the geographies in the country barring only the north eastern states. The play left the audience present awestruck with the powerful representation of a struggle.

“I consider myself a theater person. If I wanted you to protest, I would just tell you, I wouldn’t perform. Some time back, when I was performing in Manipur, and a small girl was terrorised to see an army uniform on the stage. But as the play developed, she started to enjoy the stories I was telling, she could relate and understand, and that is, what I believe, the power of theater and that is why I call myself a theatre person first and then an activist”, says Ojas, who performs the solo-play.

This play ends with the words and beautiful tune of Tagore’s ‘Jodi tor daak shune keu naa ashe tobe ekla cholo re’ (translated to – If they answer not to thy call, walk alone). This was one story which was honestly told and honestly felt. Many audience members came backstage to tell her how touched they were, but could not articulate, not due to lack of words, but the necessity of them. The power of theater it was, indeed.

Tuesday, November 27, 2012

Bramha Ka Swaang leaves you longing for more

The 19th National Theatre Festival was inaugurated by Shri Rakesh by declaring it open and welcoming the guests of the evening. It was followed by a short film on Jugal Kishore ji, which was well received.

Bramha ka swaang was staged right after this, with a special request by the director of the play, “Veda ji will be playing the character of Vrinda, she has been doing it since last 32 years, she would be on stage without the wig today and I hope you can imagine how she used to be that many years back.” This was the first time the play was staged this way.

The ideal husband has ideal thoughts, and he believes all human beings are equal and there should not be discrimination. The naive wife does not buy this. Neither does her stern father. But the ideal husband convinces them and thus begins the story of ‘Swang’. The naive wife starts believing in the ideal husband’s thoughts and starts implementing them in every single instance, this creates a lot of ethical dilemma for the husband. We very slowly realise the transformation of the ideal husband to the hypocrite one, and begin to relate suddenly with the whole premise.

The play, based on Premchand’s ‘Swang’ (roughly translated as Sham), is still very relevant and questions our inner hypocrisy which we usually overlook. It tries to underline this to the extent that the viewer starts to get who is being questioned. This questioning and talking to the audience continues towards the end.

Amongst laughter and applause this play successfully delivers what it initially promised, an intimate experience of the hypocrisy in each one of us.

ब्रह्म का स्वांग नाटक पर टिप्पणी

आइने में चेहरा दिखाता 'ब्रह्म का स्वांग'
प्रेमचंद की कहानी ब्रह्म का स्वांग पर आधारित नाटक रायगढ़ इप्टा के उन्नीसवें नाट्य समारोह की पहली प्रस्तुति रही.  रमेश उपाध्याय द्वारा नाट्य रूपांतरित इस नाटक का दर्शकों ने खुले दिल से स्वागत किया. कला जीवन की समस्त संवेदनाओं को स्पर्श करती ऐसी नदी है जो अविराम अपनी अजस्त्र धारा से हमें भिगोती रहती है. इस नदी में जब रंगकर्म की लहरों में हम गोते लगाते हैं तो नाटक के मनोरंजन पक्ष के साथ-साथ उसके वैचारिक पक्ष के संप्रेषण की गहराई का भी आभास होता है. रंगकर्म की ताकत का अनुभव देखकर ही किया जा सकता है इसे शब्दों में बांध न पाने की सामर्थ्य हमारी सीमा की तरफ इशारा करती है फिर भी अनुभूतियों को शब्द देने पर हम असल में एक बार फिर नाटक को अपनी स्मृति में जी रहे होते हैं, देख रहे होते हैं.

ब्राह्मणवादी विचारों और परंपराओं के पोषक समाज की जड़ों को खोद सच्चाई दिखलाता, ऊपर से दिखते सुंदर-सभ्य समाज की मन की कुरुपता की पोल खोलता, स्त्रियों की स्वतंत्रता को अपनी इच्छा अनुसार कसते-ढीलते तथाकथित बुद्धिजीवी पुरुष के चेहरे को उघाड़ता नाटक है ब्रह्म का स्वांग. एक तरफ जहां जाति-वर्गभेद को उभारता स्वर हमें अपना ही चेहरा आईने में दिखाता है वहीं यह नाटक स्पष्ट रूप से स्त्री-पुरुष के मध्य पसरी अराजकता की साम्राज्य की चीख-पुकार से विचलित करता दर्शकदीर्घा में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज़ करता है.  संवेदना के महीन तागों में समाज की कुरीतियों को हम मनुष्य समाज ने ही प्रतिष्ठित किया. और उसके अंतहीन सिलसिले को शाश्वत सत्य मान सहज स्वीकार लेने की चालाकी को सदियों से छिपाने की कला को समृद्ध किया है. उन्हें कुरेद-कुरेद कर दरार पैदाकर सुराख़ बना स्पष्ट दिखाने की सफल कोशिश है नाटक ब्रह्म का स्वांग.

नाटक की पूरी कहानी पारंपरिक अनुशासन में पढी-लिखी वृंदा और वकील पति के इर्द-गिर्द घूमती है. पेशे की वजह से हर धर्म-जाति के लोगों के साथ खाने-पीने की सहजता को जीना वृंदा के पति की ओढी हुई समझदारी है जिसे वृंदा समझ नहीं पाती है सो अपने पिता को अपने मन की बात कहती है. पिता के आगमन पर अपने पति द्वारा दिया गया जीवन में समानता का वक्तव्य वृंदा को जीवन के ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा करता है जहां से कहानी को नया रोचक मोड़ मिलता है. वृंदा जैसी करनी वैसी भरनी पर विश्वास करने वाली स्त्री है सो वो समाज में समानता के उदबोधन से प्रेरित हो अपने जीवन के साथ-साथ परिवार में परिवर्तन आरंभ कर देती है जिसके प्रभाव से पति के असल चेहरे का पर्दाफाश होता है और उसके पुरुष अहं का फन उठ खड़ा होता है जिसके प्रतिकार में वृंदा साफ़ तौर पर मन की बात यूं कहती है जैसे वह समाज की हर स्त्री के मन के बर्फीले मौन को ऊष्मा दे रही हो.

अब आज की प्रस्तुति के बारे में बात की जाये तो इस नाटक में एक ओर जहां सूत्रधार समय के सूत्र को पिरोता वर्तमान को कहता है वहीं कहानी आगे बढाते वृंदा और उसके पति जीवन की दबी-छिपी सच्चाईयों की ऐसी छवियां दिखाते हैं जिन्हें देख हम स्वयं से प्रश्न न करें, स्वयं को न टटोलें, ऐसा असंभव है. हर दृश्य हमारे स्व को ललकारता जीवन के अखाड़े में उतरने को लालायित करता है. हमें अपने जीवन मूल्यों, दृष्टि, परंपराओं, शिक्षा, लिंग और वर्गभेद को स्वस्थ दृष्टि से देखने का जज़्बा देती है प्रेमचंद की यह कहानी.

आज की प्रस्तुति कुछ कारणों से विशेष रही जिसका उल्लेख अपेक्षित है. आज इस नाटक के निर्देशक जुगल किशोरजी को रायगढ़ इप्टा ने चतुर्थ शरदचंद्र वैरागकर सम्मान प्रदान किया. वहीं आज इसका ५२१ वां मंचन था जो आज के संस्कृति विरोधी समय में एक बड़ी उपलब्धि है. दर्शकों से बात करता....सोचने-विचारने के लिये सरल-सहज रूप में संप्रेषण, संवादों की बुनावट और सादगी पूर्ण प्रस्तुति इस नाटक की ख़ासियत रही. सामन्यतः संगीत किसी नाटक से ऐसे जुड़ा होता है जिसके बगैर हम किसी प्रस्तुति की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगा सकते हैं पर आज की प्रस्तुति संगीत और मेकअप के बिना भी अपने उद्देश्य में सफल रही जबकि अभिनय की दृष्टि से यह औसत ही रहा. सूत्रधार की ऊर्जा ने बांधा वहीं वृंदा के रोल में उतरी वैदा जी के इस नाटक के पहले प्रदर्शन से जुड़े होने की जानकारी ने सुखद अनुभूति दी. आज के समय में किसी नाटक के लगातार प्रदर्शन होने पर भी अच्छे से अच्छे अभिनेता अक्सर समय की नब्ज़ को नाप अपनी उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति तय करते हैं ऐसे में वैदा जी की ऐसी प्रतिबद्धता अभिनय जगत के लिये मिसाल है उनकी प्रतिबद्धता को हमारा सलाम!!

यह कचोटने वाला पहलू है कि प्रेमचंद ने समाज में व्याप्त सच्चाई को कहानी में उतारा. तब और आज के समाज में कोई ख़ास अंतर नहीं आया है तब भी समाज ऐसा ही था और आज भी कमोबेश ऐसा ही है यह ब्रह्म के स्वांग नाटक को देख सहज ही महसूस किया जा सकता. कहा जाता है और यह सच भी है कि वही बातें, विचार और कला ज़िंदा रहती हैं जिनमें अपने समय और समाज को देखने का माद्दा हो.  दैनंदिन जीवन में देखना हमारे विस्मय और औत्सुक्य से जुड़ा है न जाने हम कितनी चीज़ें न जाने कितनी सैकड़ों-हज़ारों बार देखते हैं पर किसी क्षण विशेष में उन्हें देखने पर हमारी संवेदना के सभी तार स्वर में बजते है. संवेदना की धरातल पर यह नाटक हमें हमारे भीतर ले जाकर अतीत से वर्तमान तक का सफ़र तय कराता है और यही बिंदु इस कहानी के मंचन की सार्वकालिकता और प्रासंगिकता को सिद्ध करती है इस नाटक के सन १९८० से चले आ रहे प्रदर्शन और उसकी सफलता के लिये लखनऊ इप्टा और निर्देशक को साधुवाद.

अर्पिता श्रीवास्तव
स्रोत : iptaraigarh.org

Monday, November 26, 2012

Jugal Kishore honoured with 4th Rangakarmi Samman

The 4th Sharadchandra Vairagkar Rangkarmi Samman was felicitated upon Shri Jugal Kishore ji on 26th November. The award was presented to him by Shri Rakesh, Secretary, IPTA’s national committee, Shri Prabhat Tripathy, renowned poet and critic of Hindi literature and Mumtaj Bharti, IPTA Raigarh’s patron.

Veda Rakesh, member of the national committee of IPTA, was also present at the ceremony. ‘We started our journey together years ago. We have been collaborating since a long time, and I feel proud that he has worked with me on some plays which I had directed’, said Veda ji. She has been playing the role of Vrinda in the play ‘Bramha ka Swang’ ever since its inception, and is the only original cast still playing the character. She also added that Jugal ji’s wife, Hemlata ji, has been the biggest contributor in his journey. She took care of all the other fronts, during his struggle as a theater artist.

Rakesh ji insisted how IPTA’s role as the sole organisation which takes up plays which have social relevance and theatrical entertainment. ‘This new face of entertainment, which is now being forced on to us, is fabricated. IPTA’s biggest challenge is to pick up plays which entertains the audience and deal with issues in greater depths’, he added.

Mumtaj Bharti talked about Jugal ji’s play ‘Dafn Karo’, which revolves around the surrealist story of dead soldiers who are about to be buried, and they revolt. Prabhat Tripathy ji underlined how most of the art forms and their focus has been restricted to the middle class.

Jugal ji was also felicitated by 12 different cultural organisations, social organisations and clubs from Raigarh.

“I feel now I will have to continue doing what I was, and this honour gives me more strength and willpower to move forward.”, said Jugal Kishore ji. He also said that he was still learning and this marks the most memorable moments of his life and theatrical journey.

He also added how stories of exploitation makes him feel restless and shared his interest of working with the story of a village in Chhattisgarh, which has been recently been charged in the court by for stealing water.

This honour is felicitated by IPTA Raigarh in memory of Shri Sharadchandra Vairagkar. The first three awards were felicitated upon Shri Rajkamal Nayak, Shri Sanjay Upadhyay and Shri Arun Pandey. 

sourced from iptaraigarh.org

प्रलेस, म.प्र. के 11 वें राज्य सम्मेलन की रिपोर्ट-1

मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के
11वें राज्य सम्मेलन की विस्तृत रिपोर्ट
17-18 नवंबर, 2012, सागर (मध्यप्रदेश)

माज में जाति और वर्ण व्यवस्था जितनी पुरानी है, उसका विरोध भी उतना ही पुराना है। पूंजीवाद का विकास भ्रम, भूत के पांव की तरह है। विकास के भ्रम में हम विनाश को बढ़ावा दे रहे हैं। भारत में शोषण का मूल ढांचा सामंतवाद है, इस पर प्रहार करने से, वायवीय ढांचा, यानी पूंजीवाद अपने आप टूट जाएगा। यह बात बनारस से आए प्रो चौथीराम यादव ने मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के 11वें राज्य सम्मेलन में कही।
17-18 नवंबर को सागर में हुए इस दो दिवसीय सम्मेलन के दूसरे दिन प्रदेश की नई कार्यकारिणी गठित हुई। कार्यकारिणी में सर्वसम्मति से वसुधा के संपादक और वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र शर्मा को अध्यक्ष एवं सामाजिक कार्यकर्ता एवं कवि श्री विनीत तिवारी को महासचिव चुना गया। दो दिवसीय सम्मेलन के दौरान तीन सत्रों में देश-प्रदेश के करीब 200 कवि, कथाकार, पत्रकार, रंगकर्मी शरीक हुए। सम्मेलन में मप्र प्रलेस की 21 ईकाइयों ने शिरकत की। इस दौरान उद्घाटन सत्र से पूर्व सभी रचनाकारों ने शहर में एक लंबी रैली निकाली, जिसमें जनगीत और नारे लगाए गए। स्थानीय लोगों ने भी लेखकों के साथ उत्साह के साथ हिस्सेदारी की। विभिन्न सत्रों की शुरुआत में अशोकनगर इप्टा, दमोह इप्टा एवं अन्य साथियों ने जनगीत गाए। सम्मेलन के दौरान दो लघु फिल्म ‘‘गांव छोड़ब नाही’’ और ‘‘अमेरिका-अमेरिका’’ का प्रदर्शन और प्रलेसं की विभिन्न इकाइयों से संबंद्ध 12 पुस्तकों एवं दो पत्रिकाओं का विमोचन भी किया गया। समापन अवसर पर हुए काव्यपाठ का संयोजन प्रख्यात कवि कुमार अंबुज ने किया। सम्मेलन के दौरान प्रख्यात चित्रकार पंकज दीक्षित, मुकेश बिजौले और अशोक दुबे की ओर से चित्र प्रदर्शनी लगाई गई थी।

सम्मेलन के दौरान तीन सत्रों में विभिन्न विषयों पर विमर्श किया गया। विमर्श के दौरान मप्र प्रलेस के महासचिव श्री विनीत तिवारी ने कहा कि एक समय में ट्रेड यूनियन, किसान संगठन आदि ने लेखक संगठनों को आगे बढ़ाया था, आज वे खतरे में हैं, तो लेखक संगठनों की जिम्मेदारी बनती है कि वे उन्हें मजबूत करें, उनके बीच जाएं।

प्रख्यात कथाकार सुश्री नूर जहीर ने कहा कि आदिवासी साहित्य लिखा जाए, पढ़ा जाए इस बात का सभी समर्थन करते हैं, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या हममें उसे उच्च और महान मानने का साहस भी है?
सम्मेलन में वरिष्ठ कवि श्री नरेश सक्सैना ने कहा कि आज किताबों की बिक्री घट रही है। हिंदी पढ़ने की प्रवृत्ति कम होते जाना एक बड़ा खतरा है, और इसके लिए लेखकों को एकजुट प्रयास करने चाहिए।
17 नवंबर को सम्मेलन के पहले सत्र में ‘‘वंचितों का समाज और साहित्य’’ विषय पर सुप्रसिद्ध कथाकर सुश्री नूर जहीर की अध्यक्षता में विमर्श किया गया। इस सत्र में मुख्य वक्तव्य महाराष्ट्र के नंदुरबार से आए कवि श्री वाहरू सोनवणे ने दिया। इसके अलावा वरिष्ठ आलोचक प्रो चौथीराम यादव, वरिष्ठ कवि श्री राजेश जोशी, उद्भावना के संपादक श्री अजेय कुमार, मप्र प्रलेसं के महासचिव श्री विनीत तिवारी, श्री ओमप्रकाश शर्मा, श्री महेंद्र सिंह, सुश्री सुसंस्कृति परिहार एवं श्री अभय नेमा ने भी संबोधित किया। सत्र का संचालन श्री तरूण गुहा नियोगी ने किया।

इसी दिन शाम में दूसरे और औपचारिक उद्घाटन सत्र में ‘‘शोषण के नये चेहरे और विकल्प की संस्कृति’’ विषय पर विमर्श किया गया। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक प्रो चौथीराम यादव ने की एवं आधार वक्तव्य प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव डॉ अली जावेद ने दिया। सत्र को जनवादी लेखक संघ मध्यप्रदेश के सचिव श्री राम प्रकाश त्रिपाठी, जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय सह सचिव सुधीर सुमन, प्रलेसं के राष्ट्रीय सचिव मंडल के सदस्य श्री राजेन्द्र राजन एवं प्रो चौथीराम यादव ने भी संबोधित किया। सत्र का संचालन श्री विनीत तिवारी ने किया।

18 नवंबर को ‘‘प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठनों की जरूरत और उनके कार्यभार’’ विषय पर विमर्श किया गया। इस सत्र की अध्यक्षता श्री राजेंद्र राजन ने की। सत्र को जलेस मप्र के सचिव श्री रामप्रकाश त्रिपाठी, मप्र प्रलेसं के अध्यक्ष मंडल के सदस्य और प्रख्यात कवि कुमार अंबुज, उद्भावना के संपादक और जलेस के महासचिव श्री अजेय कुमार, वरिष्ठ कवि श्री नरेश सक्सैना, श्री कुंदन सिंह परिहार, श्री बहादुर सिंह परमार, श्री संतोष खरे, श्री सत्यम पांडे, श्री दिनेश भट्ट, श्री पंकज दीक्षित, श्री ओमप्रकाश शर्मा, श्री गफूर तायर, श्री अरविंद श्रीवास्तव, श्री महेंद्र फुसकेले, श्री अश्विनी दुबे, श्री हरनाम सिंह, श्री वीएस नायक, श्री अभिषेक तिवारी और सचिन श्रीवास्तव  ने भी संबोधित किया। सत्र का संचालन श्री विनीत तिवारी ने किया।

पहला सत्र: 17 नवंबर सुबह 10 बजे से दोपहर 2 बजे तक
विषय: वंचितों का समाज और साहित्य

कार्यक्रम की शुरूआत में अशोकनगर इप्टा के साथी हरिओम राजोरिया, श्याम मुदगिल, निवेदिता शर्मा, सीमा राजोरिया, राजेश खैरा और विशंभर भास्कर ने कबीर के गीत गाए। हारमोनियम पर सुश्री रामदुलारी शर्मा और तबले पर सिद्धार्थ शर्मा ने संगत की।

पहले सत्र की शुरूआत करते हुए श्री वाहरू सोनवणे ने कहा कि वंचित समाज के बारे में बात करते हुए हमें कुछ सवालों से गुजरना पड़ता है। वंचित कौन हैं? कहां रहते हैं? वे क्यों वंचित हैं? इन सवालों के साथ जो जवाब उभरते हैं, वे साफ करते हैं कि वर्ग, जाति और पुरुष प्रधानता वंचितों के दर्द की प्रमुख वजहें हैं। इन तीन कारणों से उनके इंसान होने को भी नकारा जाता है।

उन्होंने कहा कि हम जब आदिवासी की बात करते हैं, तो बड़े गर्व से कहते हैं कि आदिवासी इस धरती के पहले मानव थे। आदिवासी के संदर्भ में यह गर्व की बात नहीं है, गर्व की बात तो वे जीवन मूल्य हैं, जो आदिवासी संस्कृति में हैं। यह समूह की संस्कृति है, प्रकृति की गति से एकाकार होने की संस्कृति है, और यही गर्व करने लायक बात भी है। मानव जीवन में शोषण की संस्कृति का मुख्य आधार व्यक्तिगत जीवनशैली है। आज पूंजीवादी समाज में इसे ही बढ़ावा दिया जा रहा है, और मनुष्य भी इस जाल में फंसता चला जा रहा है। विकास की प्रक्रिया में समूह की जिंदगी को व्यक्तिगत उपलब्धियों के लिए छोड़ दिया गया, इसी से वंचित समाज का निर्माण भी हुआ। सामूहिक जीवन में वंचित समाज का निर्माण नहीं हुआ है। यह बाद में हुआ।
उन्होंने कहा कि आज लेखन का सबसे जरूरी सवाल है कि हम किसके लिए लिखते हैं। यह सवाल हर लेखक को अपने आप से पूछना होगा। वह समूह के लिए लिखता है, उसके दर्द को समझने और समझाने के लिए लिखता है, या फिर व्यक्तिगत उपलब्धि के लिए लिखता है।

श्री सोनवणे ने कहा कि आज साहित्य के साथ एक समस्या यह है कि जो साहित्य लिपिबद्ध नहीं है, उस पर बात ही नहीं हो रही है। आदिवासी समाज का विशाल साहित्य लिपिबद्ध ही नहीं हुआ है। आज साहित्यकारों का दायित्व है कि वे आदिवासी साहित्य को लिपिबद्ध करें, इसके लिए सामूहिक प्रयास ही कारगर होंगे।
उन्होंने कहा कि आदिवासियों के साथ नाइंसाफी हर जगह हुई है। साहित्य में तो उन्हें राक्षस की संज्ञा तक दी गई। आखिर यह देखना चाहिए कि जो ऋषि मुनि जंगल में यज्ञ-हवन करते थे, उसे वे लोग क्यों नहीं होने देते थे। असल में तो जंगल के मूल निवासियों के जीवन पर वह पहला अतिक्रमण था, जो उन्हें जंगल से बेदखल करके किया जा रहा था। आदिवासियों के पास न तो सेना थी, और न ही संसाधन, तो वे यज्ञ-हवन में विघ्न डालकर ही अपना गुस्सा जाहिर करते थे। इन्हीं सुदूर प्रदेशों के राजाओं को, हमारे साहित्य ने राक्षस बना दिया। वे नरभक्षी नहीं थे, उनके भी बच्चे थे, जिन्हें वे पालते-पोसते थे। उन्होंने कहा कि आदिवासियों के प्रति हमारे साहित्य का नजरिया गलत रहा है। आदिवासियों से अन्याय के उदाहरणों की भरमार है, एकलव्य तो महज उसकी शुरूआत है। एकलव्य से लेकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तक, ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। गांधी का जिक्र आता है, तिलक का आता है, बोस का भी स्वतंत्रता संग्राम में योगदान याद किया जाता है, लेकिन आदिवासी समाज उस समय क्या कर रहा था, इसके प्रति इतिहास चुप है? ऐसा क्यों है? इसे समझना चाहिए।
उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज के गीतों में साहित्य के जो सरोकार दिखाई देते हैं, वह समतामूलक समाज के सरोकार हैं। इनमें दहेज विरोध भी है, और संघर्ष की बात भी है। वंचित समाज के प्रति हमे अपने दृष्टिकोण को बदलना होगा, जो सामंती मूल्य दिमाग में पैठ बना चुके हैं, उनसे लड़ना होगा, उन्हें पहचानना होगा। जीवन व्यवहार में मूल्यों को अहमियत देकर ही हम वंचित समाज के पक्ष में खड़े हो सकते हैं।

बनारस से आए प्रो चौथीराम यादव ने कहा कि हमारे समाज में जाति और वर्ण व्यवस्था जितनी पुरानी है, उसका विरोध भी उतना ही पुराना है। साहित्य से लेकर समाज तक सामंती-ब्राम्हणवादी व्यवस्था का लगातार विरोध होता रहा है। कबीर ने 600 साल पहले वंचितों के दुख के लिए जिम्मेदार लोगों की शिनाख्त की थी, यह लोग थे- पंडे, पुरोहित, मुल्ला और मौलवी। कबीर ने बताया कि शोषण आधारित व्यवस्था को यही लोग पुष्ट करते हैं। साथ ही यह भी साफ किया कि शोषण का विरोध करने वालों को समाज से ही लगातार प्रताड़ित होना पड़ता है। उन्होंने कहा कि 600 साल बाद धूमिल ने अपने समय के शोषक वर्ग की पहचान की। फिर नागार्जुन ने भी उनकी शिनाख्त की। नागार्जुन ने बताया कि कैसे संसद में पहुंचने के बाद जनता के लोगों का भी चरित्र बदल जाता है। वे उसी व्यवस्था में शामिल हो जाते हैं, जो अन्याय, शोषण को बढ़ाती है। 70 के दशक में नागार्जुन ने लिखा- ‘‘आग उगलते थे, जो साथी, उनके चिकने गाल हो गए...’’

उन्होंने कहा कि जाति और लिंग भेद शोषण के प्रमुख हथियार हैं। लिंग भेद से स्त्री पर पुरुष की श्रेष्ठता को, और जाति भेद से पुरुष पर पुरुष की श्रेष्ठता पर आधारित शोषण को खाद-पानी मिलता है। स्त्री के शोषण के लिए अन्य तरह से भी मजबूत किया गया, उसके सौंदर्य की प्रशंसा और पतिव्रता के खोल बना दिये गए।
प्रो यादव ने कहा कि सवाल उठता है कि आखिर वह कौन सी भारतीय संस्कृति है, जो पुरुष को हर तरह की स्वछंदता देती है, और स्त्री पर सभी प्रकार से नियंत्रित करती है। मानसिकता में बदलाव लाए बिना हम स्त्री के शोषण और उसके दुख को नहीं समझ सकते।

उन्होंने कहा कि दलित साहित्य दो तरह का है, एक जो दलित खुद लिख रहे हैं, दूसरा गैर-दलितों की ओर से लिखा गया साहित्य। गैर-दलितों के दलित लेखन का केंद्र प्रेमचंद हैं। प्रेमचंद की परंपरा पुरानी है, वह सुदीर्घ है, लेकिन दलितों के लेखन का इतिहास महज 30 साल का है। इसे यह कहकर खारिज करने की कोशिश की जाती है कि इसमें तो सिर्फ विवरण हैं, महज आत्मकथाएं हैं, लेकिन यह आधा सच है। हैरत और खुशी इस बात की है कि महज 3 दशक में ही दलित लेखकों ने खूब लिखा है, वे अपना सौंदर्यशास्त्र भी गढ़ रहे हैं। तीन दशक में आलोचना की तीन-तीन महत्वपूर्ण किताबें आ चुकीं हैं। जिस समाज को पढ़ने से ही वंचित किया गया था, उसके लेखन की यह गति आश्वस्त करती है। दलित साहित्कार आकांक्षी भी नहीं है, उसे अपना दुख कहना है, अपने समाज के दर्द को सामने लाना है। यह वह बखूबी कर रहा है।

उन्होंने कहा कि दलित समाज ने हाल ही में एफडीआई का भी समर्थन किया है, संभवतः इसके पीछे वजह यही है कि दलित समाज में पूंजीवादी-भूमंडलीकरण का शोषण उतना नहीं है, जितना सामंती शोषण है। यह जो आंतरिक औपनिवेशवाद है, यानी सामंती औपनिवेशवाद, यह दलितों का बड़ा शत्रु है। स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक समझना भी इसी सामंती औपनिवेशवाद की देन है। इस तरह देखें, तो दलित-स्त्री समाज दोहरी गुलामी से पीड़ित रहा है। साम्राज्यवादी और सामंती गुलामी से। भारतीय समाज में इस मूल ढांचे, सामंतवाद पर प्रहार करने से, वायवीय ढांचा, जो पूंजीवाद का है, वह अपने आप टूट जाएगा।

वरिष्ठ कवि श्री राजेश जोशी ने कहा कि 80 के दशक के उत्तरार्ध और 90 के पूर्वार्ध में पांच घटनाएं एक साथ हुईं। सोवियत संघ का विघटन, नई अर्थ नीति, नई तकनीक, मुक्त बाजार और अस्मिता विमर्श का उभार। इसी दौरान विचारधारात्मक विमर्श कम होते गए, और उनकी जगह अस्मिता विमर्श ने ले ली। इस तरह अस्मिता विमर्श, विचारधारात्मक विमर्श का स्थानापन्न बना। इस बदलाव पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अस्मिता विमर्श के बारे में बात करते हुए या तो हम तुष्टिकरण करते हैं, या फिर उसके सुर में सुर मिलाने लगते हैं। यह दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं।

उन्होंने कहा कि अस्मिता विमर्श में यह बात दिखाई देती है कि स्त्री, दलित, आदिवासी जैसे मुद्दों पर मार्क्सवादी चिंतन ने सवाल ही नहीं किया है? यहां रोजा लिक्जम्बर्ग और लेनिन के बीच हुए पत्र व्यवहार और क्लारा जेटकिन तक के विमर्श को भुला दिया जाता है। 15वीं सदी में जो कबीर का काल है, वही काल समाज में कारीगर जातियों के उदय का भी वक्त है। इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि समाज में उस समय छोटी-छोटी कारीगर जातियां बाजार में जगह बना रही थीं। यह महत्वपूर्ण सवाल है।

उन्होंने कहा कि साथ ही एक और बात पर गौर करने की जरूरत है। हिंदी का जो दलित विमर्श है, उसका राजनीति से सीधा जुड़ाव नहीं है। उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति का सत्ता तक पहुंचने के बावजूद दलित साहित्य की अलग धारा है। जबकि मराठी में ऐसा नहीं है। मराठी में दलित साहित्य और राजनीति के बीच रिश्ता रहा है। इस रिश्ते में मार्क्सवादी साहित्यकार किनारे कर दिए गए और अंबेडकरवादी सामने आए। देखना चाहिए कि आखिर उनकी परिणति कहां हुई, कुछ शिवसेना में चले गए और फैलोशिप में बिखर गए। नामदेव ढसाल का नाम जिस तेजी से उभरा और फिर उनका हश्र हमारे सामने है, यह राजनीति क्यों हुई? इस सवाल पर भी गौर करना चाहिए।

उन्होंने कहा कि इसी के समानांतर दलित साहित्य के दिग्गज आलोचक डॉ धर्मवीर अपना रचनाकर्म कर रहे थे। उनके निशाने पर मुख्यतः प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ रामविलास शर्मा रहे। ये तीनों ही मूलतः वाम विचार के लेखक हैं, इस तरह वाम वैचारिकी का विरोध भी अपने आप में एक सवाल है।
श्री जोशी ने कहा कि इन सवालों के साथ देखें तो लगता है कि अस्मिता विमर्श बेहद खतरनाक बिंदू पर आ गए हैं। वे कभी भी समाज को बदलने की बड़ी राजनीति का हिस्सा बने हों, ऐसा दिखाई नहीं देता है। ऐसा हुआ भी नहीं है। इन सवालों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
श्री ओमप्रकाश शर्मा ने कहा कि आज जीवन मूल्य बदल रहे हैं, इसके साथ ही दलित, स्त्री प्रश्न भी उभर रहे हैं। इन पर तथ्यात्मक दृष्टि से विचार करना होगा। श्री महेंद्र सिंह ने कहा कि हालिया लेखन में कृषि और मजदूर समाज हाशिए पर डाले जा रहे हैं। एक वायवीय प्रणाली विकसित हो रही है, जिसमें मूल मुद्दे बेहद सफाई से पीछे धकेले जा रहे हैं। मूल मुद्दा किसान-मजदूरों का है, जबकि उनके बारे में लिखे जा रहे साहित्य की मात्रा बेहद कम है। आज किसान-मजदूरों का बहुसंख्यक समाज निहत्था अपनी लड़ाई लड़ रहा है, लेखकों से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे उनके अस्त्र बनें और लड़ाई में साझेदारी करें।

सुश्री सुसंस्कृति परिहार ने कहा कि बुंदेली समाज भी आदिवासी समाज की ही तरह लोक से परिपूर्ण है। वंचितों की मुक्ति की बात करते हुए अपने घर से ही इसकी शुरूआत करनी होगी। अपनी लड़ाई कोई दूसरा नहीं लड़ सकता, इसलिए स्त्रियों को अपना लेखन, अपनी बात स्वयं करनी होगी। स्त्रियों को आदिवासी समाज से इसकी प्रेरणा लेनी चाहिए।
श्री अभय नेमा विभिन्न राजनीतिक उदाहरणों के तहत स्त्री, दलित और आदिवासी आंदोलनों के अंतर्द्वंद्व सामने रखे। उन्होंने कहा कि आदिवासी समुदाय में उप समूहों का लोप हो रहा है, उनकी पहचान मिट रही है। महाराष्ट्र में दलित आंदोलन मजबूत रहा है, उसकी राजनीति से भी संबंद्धता है, लेकिन वहां कोई भी दलित सत्ता में नहीं है।

श्री योगेश दीवान ने कहा कि वंचित तबकों की जो लड़ाई है, उसका आर्थिक नजरिया अब तक विकसित नहीं हो सका है? उन्होंने सवाल उठाया कि यह महज पहचान की ही लड़ाई क्यों बनी रह गई। उन्होंने कहा कि अस्मिता तोड़ने का काम करती है। देश में अलग-अलग अस्मिताओं की लड़ाई चल रही है, जबकि मूल सवाल भिन्न है। खदान, जमीन के सवालों को केंद्र में लाकर अस्मिता संघर्षों को एक साथ लाया जा सकता है, जो बड़े बदलाव की भूमिका तैयार कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि पहचान की लड़ाई में एक किस्म की कट्टरता भी होती है, यह गर्व की भाषा को प्रश्रय देती है, जो अन्य सवालों को गौड़ कर देती है।  यहां समझना होगा कि विस्थापित की पहचान विस्थापित क्यों नहीं है, या फिर मजदूर की पहचान मजदूर ही क्यों नहीं है। अस्मिता संघर्ष को वर्ग की लड़ाई से जोड़ना आज का प्रमुख कार्यभार है।

उद्भावना के संपादक श्री अजेय कुमार ने दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण देते हुए बताया कि रंग भेद की लड़ाई ने भी वर्ग भेद को नहीं मिटाया है। आज भी अफ्रीका में बाजार, अर्थ, और राजनीति पर गोरों का ही कब्जा है। उन्होंने 1952 के तेलंगाना का उदाहरण देते हुए कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और डॉ अंबेडकर ने कम्यूनिस्ट सरकार की जमीन बांटने की मुहिम को अंजाम तक नहीं पहुंचने दिया। उन्होंने कहा कि हमारे संविधान में भी राइट टू प्रापर्टी है, लेकिन राइट टू एजुकेशन राइट टू फूड, राइट टू हाउसिंग नहीं है। उन्होंने कहा कि कमाई के साधनों का जब तक सही बंटवारा नहीं होता, तब तक वर्ण भेद की लड़ाई का कोई अर्थ नहीं है। वर्ग की लड़ाई के जरिए ही वंचित समूहों की लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है।
प्रलेस मप्र के महासचिव श्री विनीत तिवारी ने कहा कि साहित्य के जरिये वंचितों से संवेदनात्मक समन्वय कायम करना होगा, और लेखक समुदाय को वंचितों के साथ जीवंत रिश्ता बनाना होगा। सैद्धांतिकी को इस समाज के अनुभवों के भीतर रिश्ता खोजना जरूरी है। यह हमारे समाज का सच है कि यहां अस्मिताएं हैं, उन्हें नकारा नहीं जा सकता। अस्मिताओं के संघर्ष का गलत इस्तेमाल होने के खतरे तो बने रहेंगे, यह हमें तय करना है कि इस संघर्ष के सहभागी कैसे बनें, जिससे कि शोषण के दायरे सिमट सकें। अस्मिता संघर्ष का इस्तेमाल पूंजीवाद अपने ढंग से करता रहा है, और कर रहा है। जरूरत इस बात की है कि हम अपने सवालों के साथ वंचितों के बीच जायें और वहीं उनके जवाब खोजें।

अध्यक्षीय भाषण में प्रख्यात कथाकार सुश्री नूर जहीर ने कहा कि आज हाशिये के लोगों की परिभाषा बदलने की जरूरत है। वंचितों का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है, उनका शोषण करने के तरीके भी बदलते जा रहे हैं। नए तरीकों में कम लोग ज्यादा लोगों का शोषण कर रहे हैं, वंचितों की संपत्ति पर अधिकार रखने वाला समूह, जो पहले ही मुट्ठी भर था, शोषण के नए औजारों के साथ और कम होता जा रहा है। यानी जो खाई थी, उसके एक तरफ दायरा बढ़ रहा है, तो दूसरी तरफ लगातार कम हो रहा है। वंचितों की संपत्ति पर कम से कम लोगों का अधिकार शोषण को अधिक भयावह बना रहा है। पूंजीवाद अपने ढंग से यह शोषण कर रहा है। शहरी जिंदगी में अलगाववाद के जरिये समूहों को भी तोड़ा जा रहा है।

उन्होंने उदाहरण के साथ बताया कि कैसे पहले सामूहिक उत्सवों में ज्यादा से ज्यादा लोग शरीक होते थे, जो अब एक बिल्डिंग या एक घर तक ही सीमित हो गए हैं। त्यौहार मनाने वाले समूह के सदस्य भी सीमित होते जा रहे हैं। पूरे समाज के एक साथ उत्सव मनाने की परंपरा को छोटे-छोटे समूहों में बांट दिया गया है।
उन्होंने हाल में हाजी अली की दरगाह पर महिलाओं के प्रतिबंध का उदाहरण देते हुए बताया कि स्त्रियों के मिलने-जुलने के स्थानों को भी लगातार सीमित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि भाषाओं के साथ भी यही हो रहा है, उर्दू जो साझा सांस्कृत की, इस्मत और मंटो की भाषा थी, उसे आज मदरसों की भाषा बना दिया गया है। उन्होंने सवाल उठाया कि क्यों मुसलमानों की पहचान बुरका है?

उन्होंने कहा कि आदिवासी साहित्य लिखा जाए, पढ़ा जाए इस बात का सभी समर्थन करते हैं, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या हममें उसे उच्च और महान मानने का साहस भी है? उन्होंने एक किन्नौरी कहानी का उदाहरण देते हुए बताया कि यह लोककथा सीता हरण की नई व्याख्या प्रस्तुत करती है। इस कहानी में बताया गया है कि रावण ने सीता का अपहरण नहीं किया था, बल्कि जब वह जंगल में पखावज बजा रहा था, तो सीता उसकी थाप पर नृत्य करने लगती हैं। नृत्य करती सीता को देखकर रावण उस पर मोहित हो जाता है, लेकिन वह जबरदस्ती उन्हें अपने साथ नहीं ले जाना चाहता है। वह पखावज बजाते हुए धीरे-धीरे अपने विमान की ओर बढ़ता है, और संगीत के सहारे सीता भी खिंची चली आती हैं। उन्हे सुध तब आती है, जब वे पुष्पक विमान तक पहुंच जाती हैं।

सुश्री नूर ने कहा कि इस आदिवासी कहानी से पांच प्रमुख बातें सामने आती हैं, पहली कि सीता जंगल में अकेली थीं, तन्हा थीं, और संगीत से उन्हें सुकून मिलता है। दूसरी, शूर्पणखा  जैसा कोई किरदार नहीं है, जिसका बदला लेने के लिए रावण ने सीता का अपहरण किया हो। यह उस सामंती सोच पर भी चोट है, जिसमें स्त्री के अपमान का बदला स्त्री से लिया जाता है। तीसरी बात, रावण को खलनायक नहीं है, सीता पर रीझा था, उनका अपहरण नहीं किया था। चौथी बात यह है कि लक्ष्मण रेखा जैसी कोई लकीर नहीं है, जो पुरुषवादी मर्यादा में स्त्री को बांधती हो। पांचवी और सबसे महत्वपूर्ण बात, सीता को पास अपना चुनाव करने का हक है।
उन्होंने कहा कि हमें अपने साहित्य को आदिवासी नजरिये से भी देखनेे की जरूरत है। आखिर विचार बदलते हैं, तभी समाज बदलता है।

इस सत्र का संचालन श्री तरूण गुहा नियोगी ने किया।

दूसरा सत्र: 17 नवंबर शाम 5 बजे से रात्रि 8 बजे तक
विषय: शोषण के नये चेहरे और विकल्प की संस्कृति

औपचारिक उद्घाटन सत्र की शुरूआत में श्रीमति मीना पिंपलापुरे का स्वागत वक्तव्य सीमा राजोरिया ने पढ़ा। इसके बाद श्री महेंद्र फुसकेले ने स्वागत भाषण दिया। इस दौरान दो लघु फिल्मों ‘‘गांव छोड़ब नाही’’ और ‘‘अमेरिका-अमेरिका’’ का प्रदर्शन किया गया। इससे पहले रामचरन यादव ने बुंदेली कवि ईसुरी और कबीर के गीत गाए। दमोह प्रलेस से संबंद्ध बाल गायक दक्षेश ने भी जनगीत गाए।इसके बाद भोपाल से प्रकाशित पत्रिका ‘‘राग भोपाली’’ के प्रलेस के वरिष्ठ कथाकार पुन्नी सिंह पर केंद्रित अंक का लोकार्पण किया गया। साथ ही सहारनपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘‘शीतलवाणी’’ के कमला प्रसाद जी पर केंद्रित अंक का लोकार्पण किया गया। इसके अलावा राम आश्रय पांडे ‘‘विद्रोही’’, तरूण गुहा नियोगी, केवीएल पांडे, कृष्णकांत निलोसी आदि की किताबों का लोकार्पण किया गया।

उद्घाटन भाषण में प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव डॉ अली जावेद ने कहा कि उर्दू ने हमेशा फिरकापरस्ती का विरोध किया है। उर्दू प्रगतिशील परंपरा की भाषा है। यह गालिब और मीर की परंपरा को सामने लाती है। उन्होंने कहा कि भाषा का कोई धार्मिक आधार नहीं होता। जिस तरह धार्मिक कर्मकांड की भाषा बनाकर संस्कृत को नष्ट कर दिया गया, उसी तरह उर्दू से मदरसों को जोड़कर उसे खत्म करने की साजिश अंजाम दी गई। धर्म से जोड़ने के कारण इन दोनों भाषाओं के साहित्य को भी खत्म करने की साजिश रची गई। उन्होंने विभिन्न उदाहरणों के जरिये भाषाओं को हर तरह के हमलों से बचाकर उनकी परंपरा और साहित्य को जीवंत बनाए रखने की जरूरत पर बल दिया।

जनवादी लेखक संघ मध्यप्रदेश के सचिव श्री रामप्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि आज जब आसुरी शक्तियां पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, भूमंडलीकरण एकजुट होकर नये हथियार विकसित कर रही हैं, तो शोषण के चेहरे में भी बदलाव आया है। नाम वही हैं, लेकिन तौर-तरीके बदल गए हैं। इनकी षड़यंत्रकारी ताकत बढ़ गई है। जनविरोधी ताकतें एक हो गई हैं, और वे जनता की चेतना पर सबसे तीखा प्रहार कर रही हैं। टीवी, इंटरनेट के जरिये नए-नए औजारों से यह हमले हो रहे हैं, और हम सावधान नहीं हैं। उन्होंने कहा कि इस शोषण से निपटने के लिए आंतरिक तैयारी की जरूरत है, तभी इस लड़ाई में निर्णायक जीत हासिल की जा सकती है।
जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय सह सचिव श्री सुधीर सुमन ने कहा कि पहचान के विमर्श यदि सचमुच मुक्ति की दिशा में बढ़ेंगे, तो वे लोगों जोड़ेंगे ही, जिससे एकता हासिल की जा सकेगी। उन्होंने कहा कि जनता की लड़ाई में इस एकता की नैतिक और सामाजिक कसौटियां तय करनी होंगी। वंचना, शोषण, उत्पीड़न, भेदभाव जहां-जहां है, उसका प्रतिरोध करना लेखक का दायित्व है। उसी से हमारी शक्ति का निर्माण होगा। उन्होंने कहा कि साम्राज्यवाद की वैचारिकी विभिन्न ढंगों से आ रही है, उससे लेखक को लड़ना होगा।

बेगूसराय से आए सुप्रसिद्ध लेखक श्री राजेंद्र राजन ने कहा कि भाषा की गुलामी शोषण करने वाली ताकतों को मजबूत करती है। भाषा गुलाम नहीं होगी, तो कोई समाज गुलाम नहीं बनाया जा सकता। हम अपनी भाषाओं की हिफाजत करना भूल गए हैं, इसलिए हमारी आजादी खतरे में है। उन्होंने कहा कि रंगभेद और वर्गभेद का अंतर समझना आज जरूरी हो जाता है। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी गठजोड़ का सरगना अमेरिका भी रंगभेद को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है। वहां काले समुदाय के एक व्यक्ति को पहली बार सत्ता के सर्वोच्च पद पर बैठाया जाता है, आखिर देखना चाहिए कि कैसे ओबामा अन्य अमेरिकी राष्ट्रपतियों से भिन्न हैं? यह नस्लभेद का अंतर नहीं है। उन्होंने कहा कि पूंजी का रंग नहीं बदला है, और इसी संदर्भ में पूंजीवाद का रंग भी नहीं बदला है। भारत में भी अटल बिहारी वाजपेयी हों, या फिर मनमोहन सिंह, दोनों ही साम्राज्यवाद के आगे नतमस्तक हैं।

उन्होंने कहा कि आज वाम लेखकों ने कई घर बना लिये हैं। इस घर में भी दीवारें खींच ली हैं। आज जरूरत इस बात की है कि यह दीवारें तोड़ी जाएं। उन्होंने उदाहरण के साथ कहा कि किसी कवि का नाम हटाकर उसकी रचना को पढ़ें, तो यह फर्क ही नहीं रह जाता है कि वह जसम का है, या जलेस का, या फिर प्रलेस का, तब यह दीवारें क्यों हैं?

बनारस से आए सुप्रसिद्ध आलोचक प्रो चौथीराम यादव ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि आज शोषण के ऐसे कई चेहरे हैं, जिनकी शिनाख्त मुश्किल है। किसानों की आत्महत्या के बारे में हाल ही में कई खबरें आईं, लेकिन असल में यह हत्याएं थीं। पूंजीवाद ने उनकी हत्या की है। पहले पूंजी की ललक पैदा की गई, और जब इससे वे कर्ज के तले दब गए, तो कोई और रास्ता सामने न पाकर आत्महत्या को मजबूर हुए। इस खतरे की पहचान करनी जरूरी है। भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की त्रयी का जो अदृश्य भूत है इसके पांव पीछे की ओर हैं। जिस तरह भूत जब उत्तर की ओर चलता है, तो दक्षिण की ओर जाता दिखाई देता है, और पूर्व की ओर चलने पर पश्चिम में जाने का भ्रम पैदा करता है, उसी तरह विकास की ओर जाता दिखाई दे रहा साम्राज्यवाद का भूत समाज को शोषण के अंधकार की ओर ले जा रहा है। यूरोपीय साम्राज्यवाद के पांव दिखाई देते थे, लेकिन वाशिंगटन से संचालित पूंजी व्यवस्था के पांव दिखाई नहीं दे रहे हैं, इनकी शिनाख्त आज का महत्वपूर्ण काम है। इस सत्र का संचालन श्री विनीत तिवारी ने किया।

जारी


प्रलेस, म.प्र. के 11 वें राज्य सम्मेलन की रिपोर्ट-2

तीसरा सत्र: 18 नवंबर सुबह 10 बजे से दोपहर 1.30 बजे तक

विषय: प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठनों की 
जरूरत और उनके कार्यभार

तीसरे दिन के पहले सत्र की शुरूआत अशोकनगर इप्टा के साथियों और दमोह के साथी दक्षेश की ओर से प्रस्तुत जनगीत से हुई। विचार सत्र की शुरूआत करते हुए श्री राम प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि प्रगतिशील संगठनों की जरूरत और उनके कार्यभार पर हम बहुत देर से विचार कर रहे हैं। यह उस वक्त है, जब विचार पर सीधे हमले हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि मध्यप्रदेश में खेती का रकबा घटा है, जबकि खेती के संसाधन बढ़े हैं, समर्थन मूल्य भी बढ़ा है, इस बीच बड़े किसानों की हालत भी सुधरी है। छोटे किसान और मजदूरों की हालत खस्ता हुई है। उनके सामने आत्महत्या की नौबत आ गई है। यह ऐसे समय में है, जब सरकार की ओर से जारी आंकड़ों में उत्पादन सरप्लस है। लेखक संगठन इस विरोधाभास को सामने लाकर हस्तक्षेप के लिए सक्रिय नहीं हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि प्रगतिशील संगठन युवाओं को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं, इसी वजह से हम मुकाबला करने में कमजोर हुए हैं। इस बारे में हमारे प्रयास भी सीमित, छोटे और नाकाफी हैं।
प्रख्यात कवि और प्रलेस मध्यप्रदेश के अध्यक्ष मंडल के सदस्य श्री कुमार अंबुज ने कहा कि प्रतिरोध की जगह आज लगातार कम हो रही है। प्रगतिशील संगठनों के सामने महज वहीं समस्याएं नहीं हैं, जो सीधे संबोधित हैं, बल्कि समाज के संकटों की पहचान भी आज का जरूरी कार्यभार है। लेखक संगठनांे के साथ ही स्त्री, किसान, ट्रेड यूनियन, दलित आदि से संबंधित प्रगतिशील संगठनों की समस्याएं भी हैं। समस्याएं हर तरफ हैं, इनसे हमें ही निपटना है।

उन्होंने कहा कि विचार की भी अनुवांशिकी होती है। जिस तरह फसल के बीज की अनुवांशिकी होती है। मनुष्य की प्रजाति की जो अनुवांशिकी है, उसकी प्रोडक्टिविटी को भी बचाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि युवाओं के विचलन भी इस दौर में अलग ढंग के हैं। साथ ही किसी लेखकीय लाभ के लिए हमारे 50 की उम्र के आसपास के साथी भी विचलन का शिकार हुए हैं। उन्होंने महात्मा बुद्ध का उदाहरण देते हुए कहा कि संसार में दुख हैं, तो उसके कारण भी हैं, और उनके उपाय भी हैं। उन्होंने कहा कि रचना और जीवन अलग नहीं होते हैं। जीवन और रचना के बीच की दूरी कम करने हुए हमें दिखना चाहिए। हमें अपने सहयोगियों की पहचान भी करनी चाहिए। उन्होंने रचना शिविर की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि लेखन सामाजिक कर्म है, जो कलावादी हैं, उन्हें भी कहानी, कविता का कथ्य लेने के लिए दुनिया के पास आना पड़ता है। लेखन कर्म किसी अकेली जगह पर दुनिया से कटकर संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि सवाल अमर होते हैं, और जवाब समकालीन होते हैं, इसलिए हमें अपने समय में इन सवालों के ईमानदार जवाब खोजने की जरूरत है।

सत्र का संचालन कर रहे श्री विनीत तिवारी ने कहा कि एक समय में ट्रेड यूनियन, किसान संगठन आदि ने लेखक संगठनों को आगे बढ़ाया था, आज वे खतरे में हैं, कमजोर हैं, तो लेखक संगठन भी प्रभावित हुए हैं। जब लेखक संगठनों को उनकी जरूरत थी, तो हमारे सहयोगी संगठनों ने मदद की, आज जब सहयोगी संगठन खतरे में हैं, तो यह लेखकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे उन्हें मजबूत करें, उनके बीच जाएं और उनके साथ कदमताल करें।

उद्भावना के संपादक श्री अजेय कुमार ने कहा कि इस वक्त में संकट तो हैं, यह बात साफ है। मसला यह है कि हमें करना क्या है? हम किस प्राथमिकता के तहत जनता के बीच जाते हैं, यह सवाल महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि जब कोई व्यक्ति दूसरे को अपने पांव की जूती समझता है, तो हमें गुस्सा आता है, लेकिन जब एक देश, दूसरे देश को अपने पांव की जूती समझ लेता है, तो हम चुप रहते हैं। उन्होंने कहा कि अमेरिका के जुल्म को आज किसी टीवी सीरियल की तरह देखा जा रहा है, जिसके एक एपिसोड में सद्दाम का खात्मा हुआ, दूसरे में गद्दाफी को मार डाला गया, संभवतः तीसरे में अहमदीनेजाद को खत्म कर दिया जाएगा। अमेरिका ने पिछले दशक में जिन छह लाख लोगों की जिंदगी को तबाह किया है, वह हमारे मीडिया में नहीं है। मीडिया में इराक, अफगानिस्तान की किसी रोती हुई स्त्री, या अकेले अनाथ बच्चे का चित्र दिखाई नहीं देता, क्योंकि आज जो लोग तेल को नियंत्रित कर रहे हैं, वही मीडिया को भी नियंत्रण में लिये हुए हैं।

उन्होंने कहा कि छोटी-छोटी फिल्मों आदि के माध्यम से आज हमें जनता के बीच जाना चाहिए। उन्होंने लेखक और मध्यवर्ग के रिश्तों को रेखांकित करते हुए कहा कि ज्यादातर लेखक मध्यवर्ग से ही आए हैं, और इसी मध्यवर्ग का बड़ा वर्ग अमेरिका प्रेमी है। उन्होंने कहा कि इस मध्यवर्ग के भीतर अमेरिका ने जिस ढंग से घुसपैठ बनाई है, उसे देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि दुनिया की सबसे बड़ी आतंकी घटना के बारे में आम राय यह बना दी गई है कि वह 11 सितंबर का हमला था, जिसमें करीब 2500 लोग मारे गए थे। उन्होंने कहा कि इस बात को दरकिनार कर दिया गया है कि हिरोशिमा पर गिराया गया परमाणु बम दुनिया की सबसे बड़ी आतंकी घटना थी, जिसमें एक पूरा शहर एकाएक तबाह कर दिया गया। अमेरिका की इस आतंकी घटना में नींद के आगोश में लाखों लोगों से एक साथ उनकी जिंदगी छीन ली गई थी। उन्होंने कहा कि आतंकी घटनाओं के बारे में भी मध्यवर्ग की एक खास समझ विकसित कर दी गई है। आज आतंकी घटना उसे ही माना जाता है, जिसमें मुसलमान, बम, आरडीएक्स जैसे तथ्य सामने आएं, इसके अलावा मनुष्य की जान लेने वाली कार्रवाइयों को आतंकी घटना माना ही नहीं जाता। उन्होंने कहा कि इस तरह के सरलीकरण के खिलाफ माहौल तैयार करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी लेखक समाज पर है।

श्री कुंदन सिंह परिहार ने कहा कि आज लेखक संगठनों में युवा कम हो रहे हैं। हमें युवाओं की समस्याओं की ओर भी ध्यान देना होगा। आज युवाओं का जीवन सरल नहीं है। जीवन यापन की जरूरी ईकाई पढ़ाई में उसका काफी समय जाता है। यह बदलाव का समय है, जिसमें समस्याएं नए ढंग से सामने आ रही हैं, इसके उपचार खोजना आज के जरूरी कार्यभार में शामिल है।

श्री बहादुर सिंह परमार ने कहा कि जब लेखक जन से जुड़ेंगे, तभी जनता उनसे जुड़ेगी। जीवन में पारदर्शिता सबसे बड़ी पूंजी है। इस पूंजी को लेखक संगठनों को कम किया है, जिससे काफी नुकसान हुआ है। लोक हर तरफ से देखता है, वह देखता है, कि कौन उसके साथ खड़ा है, और कौन लेखकीय फायदे के लिए उसके करीब रहने का भ्रम पैदा कर रहा है।

श्री संतोष खरे ने कहा कि हमारे समय में हनुमान मंदिरों की संख्या में इजाफे से लेकर कुंभ मेलों में जाते जनसमूह तक पर जिस तरह की संस्कृति थोपी जा रही है, वह अपनी तरह का खतरा है। आज सारे शासकीय तामझाम के साथ कार्यालयों में वंदे मातरम् का गान कराया जाता है, लेकिन इसके तुरंत बाद ही अधिकारी-कर्मचारी रिश्वत लेने में मशगूल हो जाते हैं, तो ऐसे गान का क्या अर्थ है? उन्होंने स्कूलों में सूर्य नमस्कार से लेकर योग आदि तक कटाक्ष करते हुए कहा कि इस सरकारी संस्कृतिकरण के खतरे को पहचान इसके खिलाफ मजबूती से खड़ा होना, लेखकीय समाज की जिम्मेदारी है।

श्री सत्यम पांडे ने कहा कि हमारे कार्यभार बड़े हैं। हमें वंचित तबकों के दर्द को अपनी रचना प्रक्रिया में शामिल करना होगा। विस्थापन के सवाल पर भी लेखकों को सामने आना होगा। उन्होंने कहा कि मेहनतकश गरीब के सवालों को लेखन के केंद्र में लाये बिना किसी भी तरह के जनजुड़ाव की कल्पना करना बेमानी है।
श्री दिनेश भट्ट ने कहा कि यदि हम समाज को बहुत ज्यादा नहीं बदल सकते तो जो जहां है, वहीं से काम करे। छोटी-छोटी कोशिशें आज महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपनी रचना प्रक्रिया के उदाहरण के साथ बताया कि अपने आसपास के माहौल को ही रचनात्मक अभिव्यक्ति देने से सक्रियता आती है।

श्री पंकज दीक्षित ने कहा कि लेव तोलस्ताय की मौत पर मजदूरों ने स्वप्रेरणा से हड़ताल की थी, तब लेनिन ने कहा था कि मजदूरों का अपना लेखक मिल गया है। इससे साफ होता है कि लेखक अपनी जनता नहीं चुनता, बल्कि जनता अपना लेखक चुनती है। उन्होंने कहा कि हम संवेदनशीलता से दूर होते जा रहे हैं, और इसी क्रम में जनता से दूर हटते जा रहे हैं। अगर कुछ पा लेने की कोशिश या ख्वाहिश नहीं है, तो आम जन लेखक से जरूर जुड़ता है। उन्होंने एक गांव में किए गए नाटक के उदाहरण से बताया कि लोगों के भीतर बेचैनी है, और वे अपनी बात कहने वाले रचनात्मक समूहों को पूरी शिद्धत से तलाश रहे हैं। अगर हम जनता के सवालों पर पूरी ईमानदारी से काम करें, तो निश्चित ही जनता के बीच से आवाज आएगी।

श्री ओमप्रकाश शर्मा ने कहा कि जब छात्र आंदोलन थे, तो युवाओं की संख्या भी प्रगतिशील संगठनों में खासी अच्छी थी। व्यवस्था ने छात्र आंदोलनों को खत्म कर दिया है और इसीलिए युवाओं और प्रगतिशील संगठनों के बीच का पुल टूट गया है। स्टूडेंट फेडरेशन के स्टडी सर्किल ने कई युवाओं की वैचारिक धार को तेज किया था। आज वह सब खत्म हो गया है। युवाओं से जुड़ने के नए तरीके खोजना आज का महत्वपूर्ण कार्यभार है। अगर प्रगतिशील संगठन यह काम नहीं करेंगे, तो जिस तरह अपने सबसे बड़े दुश्मन धर्म की सबसे बड़ी समर्थक महिलाएं होती जा रही हैं, युवा भी इस दुष्चक्र में फंसा रहेगा। श्री गफूर तायर ने कहा कि एफडीआई के आने से छोटी-छोटी ईकाइयों के मजदूर बेमौत मारे जाएंगे। इस सवाल पर प्रगतिशील ताकतों को एकजुट होकर हमला बोलना चाहिए। यह सवाल सिर्फ मजदूरों से ही नहीं जुड़ा है, एफडीआई के साथ अन्य कई बुराइयां आएंगी।

श्री अरविंद श्रीवास्तव ने कहा कि कोई भी आंदोलन जनता से जुड़ा न हो यह संभव नहीं है। अगर लेखक की भाषा का जनता से जुड़ाव नहीं है, उसके सरोकार नहीं हैं, तो वह जनता से दूर ही रहेगा। जनता से दूर रहकर आंदोलन नहीं हो सकता। आज लेखकीय अभिव्यक्ति पर लगातार हमले हो रहे हैं। जबलपुर में नाटक नहीं होने दिया जाता, आए दिन पुस्तकें जलाने की खबरें मिलती हैं। उन्होंने कहा कि लेखक को एक्टिविस्ट बनना होगा, तभी जनता के सवालों से वह सीधे संपर्क बना सकता है।

श्री महेंद्र फुसकेले ने कहा कि आज मुख्यधारा की बात लगातार की जा रही है। जानना चाहिए कि यह मुख्यधारा कहां है? मुख्यधारा क्या है? मुख्यधारा किसने बनाई है? उन्होंने कहा कि मुख्यधारा इस देश में रहने वाले आदिवासी और शूद्र हैं। इसके अलावा जो भी मुख्यधारा दिखाई देती है, वह भ्रम है। उन्होंने कहा कि वर्ण व्यवस्था का सबसे पहले विरोध बौद्ध और जैन भिक्षुओं ने किया था, इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता।
श्री अश्विनी दुबे ने कहा कि पिछले 20 वर्ष में कोई बड़ा प्रगतिशील आंदोलन खड़ा नहीं हो सका है, इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। श्री हरनाम सिंह ने कहा कि मार्क्सवाद ने आलोचना और आत्मालोचना की सीख दी है। आज प्रगतिशील संगठनों को अपने अंतर्विरोधों की पड़ताल करनी चाहिए। हम अपने अंतर्विरोध दूर नहीं कर पाए हैं। इसके लिए धरातल पर विचार करना आवश्यक है।

श्री वीएस नायक ने कहा कि साहित्यकार को उन फूलों  को चुनने की जरूरत है, जो जनता के जीवन में खुशबू बिखेर सकें। श्री अभिषेक तिवारी ने कहा कि हिंदी पट्टी में सांप्रदायिकता के खिलाफ लगातार कार्य हुआ है, इसे सतत करने की जरूरत है। अकेले चलने के अपने खतरे हैं, जनता के बीच जाकर उसका हिस्सा बनकर ही प्रगतिशील शक्तियां ताकत हासिल कर सकती हैं। आज जो खतरे हमारे सामने हैं, उनसे लड़ने के लिए रणनीति और औजार दोनों ही बदलने की जरूरत है।

श्री सचिन श्रीवास्तव ने कहा कि पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने जिस ढंग से मीडिया, फिल्म, बाजार आदि को औजार की तरह इस्तेमाल किया है, उससे यह भ्रम पैदा हो गया है कि असली दुश्मन यही हैं। इस बात को समझते हुए पूंजीवाद के औजारों पर धीरे-धीरे और लंबी रणनीति के तहत कब्जे की तैयारी करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अकेली लकड़ी के जल्दी टूट जाने की सीख को हमें फिर याद करना होगा, और प्रगतिशील संगठनों को अपनी एकता को कायम कर विरासत से सीख लेने की जरूरत है।

वरिष्ठ कवि श्री नरेश सक्सैना ने कहा कि आज किताबों की बिक्री घट रही है। 500 और 600 की संख्या में किताबों के संस्करण निकल रहे हैं। कोई किताब बहुत ज्यादा चर्चित हो जाए, तो भी हजार-1500 से अधिक बिकने की कल्पना नहीं की जा सकती। हिंदी पढ़ने की प्रवृत्ति कम होते जाना एक बड़ा खतरा है, और इसके लिए लेखकों को एकजुट प्रयास करने चाहिए। आज मध्यवर्ग हिंदी से नफरत कर रहा है, और जैसे-तैसे अंग्रेजी में अपने कार्य करने की अधूरी कोशिश कर रहा है। इस टूटते समाज में अंग्रेजी ने विचार प्रक्रिया को भी बाधित किया है। उन्होंने कहा कि आज सारा जोर कथ्य पर है, जबकि शिल्प पर कम ध्यान दिया जा रहा है। कथ्य अपने आप में बड़ी चीज है, लेकिन शिल्प के जरिये उसे अधिक संप्रेषणीय बनाया जा सकता है।
इस सत्र का संचालन श्री विनीत तिवारी ने किया।

11वें राज्य सम्मेलन में चुनी गई मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की कार्यकारिणी
संरक्षक मंडल: सर्वश्री चंद्रकांत देवताले, महेन्द्र फुसकेले, श्री प्रकाश दीक्षित, सुश्री नुसरतबानो रूही, इकबाल मजीद, श्यामसुंदर मिश्र, देवीशरण ग्रामीण, श्री रामशंकर मिश्र
अध्यक्ष: श्री राजेन्द्र शर्मा
अध्यक्ष मंडल: सर्वश्री मलय, के. बी. एल. पाण्डे, कृष्णकांत निलोसे, महेश कटारे, स्वयंप्रकाश, सेवाराम त्रिपाठी, कुंदनसिंह परिहार, कुमार अंबुज, संतोष खरे, महेंद्रसिंह, हरिओम राजोरिया
महासचिव: श्री विनीत तिवारी
कोषाध्यक्ष: केशरी सिंह चिड़ार
सचिव मंडल: श्री शैलेन्द्र शैली, श्री पवित्र सलालपुरिया, श्री ओमप्रकाश शर्मा, तरुणगुहा नियोगी, सत्येन्द्र रघुवंशी, कमल जैन, बाबूलाल दाहिया, सुश्री सुसंस्कृति परिहार, अभय नेमा, बहादुरसिंह परमार, शिवशंकर मिश्र सरस, टीकाराम त्रिपाठी, सत्यम पाण्डेय
कार्यकारिणी: पवन करण-ग्वालियर, प्रतापराव कदम-खंडवा, योगेश दीवान-विशेष आमंत्रित, हरिशंकर अग्रवाल-पिपरिया, सुरेश शर्मा-शहडोल, शैलेन्द्र जॉर्ज-शहडोल, दिनेश भट्ट -छिंदवाड़ा, हेमेन्द्र राय-छिंदवाड़ा, गफूर तायर-दमोह, राजनारायण बोहरे-दतिया, असद अंसारी-मंदसौर, पंकज दीक्षित- अशोकनगर, उत्पल बनर्जी-इंदौर, ब्रजेश कानूनगो-इंदौर-प्राची से मानद सदस्य, प्रज्ञा रावत-भोपाल, मुकेश बिजौले-विशेष आमंत्रित, ओम भारती-भोपाल, प्रेमशंकर रघुवंशी-हरदा, नीहार स्नातक-कोतमा, गोविंद श्रीवास्तव-अनूपपुर, मुन्नालाल मिश्र-टीकमगढ़, जाहिद खान-शिवपुरी, ब्रज श्रीवास्तव-विदिशा, रामनारायण सिंह राना-सतना, अरविंद मिश्र-भोपाल, सारिका श्रीवास्तव-इंदौर, अशोक दुबे-इंदौर, अरुण पाण्डे-जबलपुर, दीपा भट्ट-सागर, अनिल करमेले-भोपाल, महेश कटारे ‘सुगम’-बीना, दिनेश साहू-सागर, एल. एन. भट्ट-सागर, आशीष पाठक-जबलपुर, सचिन श्रीवास्तव-भोपाल, शिवेन्द्र शुक्ला-छतरपुर इप्टा से मानद सदस्य
कार्यकारी दल: विनीत तिवारी, राजेंद्र शर्मा, कुमार अंबुज, सत्येंद्र रघुवंशी, हरिओम राजोरिया, शैलेन्द्र शैली, तरुण गुहा नियोगी, महेंद्र सिंह, अभय नेमा, ओमप्रकाश शर्मा, सुसंस्कृति परिहार, हरनाम सिंह
(छूटी हुई इकाइयों में से उनके द्वारा प्रस्तावित नाम के आधार पर प्रति इकाई एक सदस्य कार्यकारिणी में लिया जाएगा।)

रिपोर्ट संकलन:
सीमा राजोरिया 09893723662,
सचिन श्रीवास्तव 09690020518,
अभिषेक तिवारी 09993656088

Saturday, November 24, 2012

इप्टा रायगढ़ का 19 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह 26 नवंबर से


रायगढ़। इप्टा रायगढ़ के 19 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का शुभारंभ दिनांक 26 नवंबर 2012 से होने जा रहा है। इस बार के आयोजन में प्रसिद्ध रंगकर्मी, अभिनेता व इप्टा की राष्ट्रीय कार्य-समिति के सदस्य श्री जुगलकिशोर को चतुर्थ शरदचन्द्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान से सम्मानित किया जायेगा। साथ ही इप्टा रायगढ़ द्वारा प्रकाशित रंग-विमर्श की पत्रिका ‘रंगकर्म’ का विमोचन भी किया जायेगा। ‘रंगकर्म’ का यह अंक रंगकर्मियों के व्यक्तित्व व इस क्षेत्र में उनके योगदान पर केंद्रित किया गया है।

आयोजन के प्रथम दिन 26 नवंबर को लखनऊ इप्टा के नाटक ‘ब्रह्म का स्वांग’ का मंचन किया जायेगा जो जुगलकिशोर द्वारा ही निर्देशित है। दूसरे दिन 27 नवंबर को ‘ओजस’ पुणे द्वारा नाटक ‘ले मशाले’ का मंचन किया जायेगा। इसी तरह दिनांक 28 नवंबर को फ्लेम स्कूल, पुणे द्वारा नाटक ‘लड़ी नज़रिया’, 29 नवंबर को हम थियेटर ग्रुप, भोपाल द्वारा ‘लला हरदौल’ व 30 नवंबर को निर्माण कला मंच पटना द्वारा नाटक ‘कंपनी उस्ताद’ का मंचन किया जायेगा। सभी नाटक स्थानीय नटवर स्कूल प्रांगण में शाम सात बजे से खेले जायेंगे व नाटक से पूर्व लघु फिल्मों का प्रदर्शन किया जायेगा।


चतुर्थ शरदचन्द्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान से सम्मानित होने वाले जुगलकिशोर: एक परिच

इप्टा रायगढ़ द्वारा आयोजित उन्नीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के अवसर पर दि. 26 नवम्बर 2012 को सुबह दस बजे होटल साँईश्रद्धा के सभागार में लखनऊ के प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं फिल्म अभिनेता, इप्टा की राष्ट्रीय समिति के सदस्य, पीपुल्स थियेटर अकादमी, आजमगढ़ के सदस्य तथा भारतेन्दु नाट्य अकादमी, लखनऊ के पूर्व निदेशक श्री जुगल किशोर को चतुर्थ शरदचन्द्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान प्रदान किया जाने वाला है। श्री जुगल किशोर का जन्म  21 जनवरी 1954 को हुआ। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक तथा भारतेन्दु नाट्य अकादमी से नाट्यकला में डिप्लोमा प्राप्त किया। लगभग तीस वर्षों से आप रंगमंच के क्षेत्र में अभिनय, निर्देशन, लेखन एवं अध्यापन कर रहे हैं। जुगल किशोर ने विलुप्तप्राय लोकनाट्यों - भांड तथा बुंदेलखंड के तालबद्ध मार्शल आर्ट ‘पई दंडा’ को प्रेक्षागृही रंगमंच पर पहचान प्रदान की। उन्होंने निर्देशक के रूप में नौटंकी शैली में प्रयोग किये तथा समसामयिक दृष्टि से अनेक राजनैतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विषयवस्तुओं पर केन्द्रित लगभग 30 नाटकों का निर्देशन किया। जिनमें प्रमुख हैं - एक आतंकवादी की मौत, ताशों का देश, कालिगुला, अंधेर नगरी, खोजा नसीरूद्दीन, मटिया बुर्ज, तिकड़मबाज, अलीबाबा, आला अफसर, माखन चोर, होली, रात तथा अंधारयात्रा। भारतेन्दु नाट्य अकादमी के रंगमंडल के कलाकारों और पारम्परिक नौटंकी कलाकारों के साथ ‘सत्यवक्ता हरिश्चन्द्र’ का प्रयोगशील मंचन कर उन्होंने एक मिसाल पेश की तथा भारतेन्दु नाट्य अकादमी के रंगमंडल प्रमुख के रूप में हिंदी कहानीकार अमरकांत की प्रसिद्ध कहानी ‘हल होना एक कठिन समस्या का’ पर आधारित नाटक ‘दाखला डॉट कॉम’ का निर्देशन भी किया। प्रेमचंद की कहानी पर आधारित प्रसिद्ध नाटक ‘ब्रम्ह का स्वांग’ के पूरे देश भर में 500 से अधिक मंचन किया, जिसकी प्रस्तुति उनको सम्मान प्रदान करने के साथ 26 नवम्बर की शाम सात बजे उन्नीसवे राष्ट्रीय नाट्य समारोह के उद्घाटन अवसर पर की जाएगी। जुगलकिशोर ने लगभग 30 नाटकों में उल्लेखनीय अभिनय किया है, जिन्हें समीक्षकों द्वारा बार-बार सराहना प्राप्त हुई है, इनमें प्रमुख हैं - अंधेर नगरी, अंधा युग, उरूभंगम, जूलियस सीज़र, गुफावासी, आधे अधूरे, गार्बो, राज़, ट्रोजन वूमन, वासांसि जीर्णानि, एंटीगनी तथा बाल्कन्स वूमेन आदि। हिंदी, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषा पर समान अधिकार प्राप्त जुगल किशोर ने दूरदर्शन की लगभग एक दर्ज़न प्रस्तुतियों में अभिनय किया है।

निर्देशन एवं अभिनय के अलावा जुगलकिशोर ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं और आकाशवाणी के लिए भारतीय और लोक रंगमंच पर लेखन भी किया है। साथ ही भारतेन्दु नाट्य अकादमी, महिला समाख्या और रामानन्द सरस्वती पुस्तकालय के लिए अनेक कार्यशालाओं का संचालन भी किया है। वे सन् 1986 से 2012 तक भारतेन्दु नाट्य अकादमी, संस्कृति विभाग, उत्तर प्रदेश शासन में अभिनय का अध्यापन कर रहे थे। रंगमंच के अलावा पर्दे पर भी आपने एक पहचान कायम की है। उन्होंने एक दर्जन से ज़्यादा हिंदी और भोजपुरी फीचर फिल्मों व टेलिफिल्मों में अभिनय किया है, जिनमें पीपली लाइव, बब्बर, कॉफी हाउस, माई, मेरी पत्नी और वो, कफन, हमका अइसन वइसन ना समझा आदि उल्लेखनीय हैं। अभी-अभी उनकी दो बहुचर्चित फिल्में आ रही हैं - दबंग दो और अता पता लापता। 1993 में उन्होंने सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार गोल्डन लोटस से सम्मानित जी.वी.अय्यर की संस्कृत फिल्म ‘श्रीमद् भगवद् गीता’ के हिंदी संस्करण में भी सहयोग किया है।

इप्टा रायगढ़ द्वारा प्रदत्त इस सम्मान के लिए रंगकर्मी-चयन के लिए एक पाँच सदस्यीय समिति तीन साल के लिए मनोनीत की गई थी, जिसके सदस्य थे - श्री हृषिकेश सुलभ, पटना, श्री सत्यदेव त्रिपाठी, मुम्बई, श्री राकेश, लखनऊ, श्री अजय आठले एवं श्री विनोद बोहिदार, रायगढ़। इस चयन समिति के द्वारा श्री जुगल किशोर का चयन चतुर्थ शरदचन्द्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान के लिए किया गया है।

स्व. शरदचन्द्र वैरागकर इप्टा रायगढ़ के प्रशंसक रहे हैं। आपका जन्म 1 अगस्त 1928 को महाराष्ट्र के बुलढाणा में हुआ था। वे एसबीआर महाविद्यालय, बिलासपुर में गणित के प्राध्यापक रहे हैं। उनकी मराठी रंगमंच के प्रति गहरी रूचि थी। उन्होंने बिलासपुर में अनेक मराठी नाटकों का निर्देशन किया था, जिनमें प्रमुख हैं - रायगडाला जेव्हा जाग येते, घरात फुलला पारिजात, अश्रुंची झाली फुले,  प्रेमा तुझा रंग कसा, दोन ध्रुवांवर दोघे आपण, मंतरलेली चैत्रवेल आदि। आपकी स्मृति में इप्टा रायगढ़ ने प्रतिवर्ष किसी भी समर्पित रंगकर्मी को रू. 21000 तथा सम्मान पत्र से सम्मानित करने का निर्णय लिया है। पिछले वर्षों में यह सम्मान श्री राजकमल नायक, रायपुर, श्री संजय उपाध्याय, पटना तथा श्री अरूण पाण्डे, जबलपुर को प्रदान किया जा चुका है।

इप्टा रायगढ़ के राष्ट्रीय नाट्योत्सव की अनवरत उन्नीस कड़ियाँ
इप्टा रायगढ़ अपनी रंगमंचीय गतिविधियों में विगत उन्नीस वर्षों से पाँच दिवसीय राष्ट्रीय नाट्य समारोहों का आयोजन कर रही है। सन् 1994 में आरम्भ हुआ यह सिलसिला आज तक बिना किसी व्यतिक्रम के निरंतर जारी है। इप्टा अपने स्तर पर तो विभिन्न भाषाओं, शैलियों के नाटक करती ही है, परंतु देश के विभिन्न भागों में किये जाने वाले रंगकर्म से अपने कलाकारों और रायगढ़ के दर्शकों को भी परिचित कराने के लिए प्रत्येक वर्ष कम से कम पाँच नाट्य दलों को देश के अलग-अलग प्रदेशों से आमंत्रित करती है। अब तक काठमांडू नेपाल, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, पटना, गया, बेगुसराय, औरंगाबाद, भोपाल, जबलपुर, उज्जैन, रायपुर, बिलासपुर, भिलाई, कोरबा, डोंगरगढ़, खैरागढ़ आदि स्थानों के अनेक नाट्य दल अपने नाटकों का प्रदर्शन कर चुके हैं।

1994 का वर्ष इप्टा का स्वर्णजयंती वर्ष था। इस वर्ष के प्रथम नाट्योत्सव में रंग अभिनय शाला, रायगढ़ का ‘उसकी जात’, प्रयास इप्टा बाल्कों का ‘रामलीला’, स्टेट बैंक नाट्य मंच रायपुर का ‘मारीच संवाद’, इप्टा रायपुर का ‘बंदिनी’ तथा अवंतिका रायपुर का ‘कोर्टमार्शल’ नाटक खेले गए। यह नाट्योत्सव पॉलिटेक्निक सभागृह में आयोजित हुआ था। 1995 में पाँच नाटक मंचित हुए थे। तृतीय नाट्योत्सव के साथ मध्यप्रदेश इप्टा का पाँचवाँ राज्य सम्मेलन भी सम्पन्न हुआ था, जिसमें इप्टा रायगढ़, बिलासपुर, इप्टा भिलाई, प्रयास इप्टा बाल्को तथा विवेचना जबलपुर के नाटकों का मंचन हुआ। चौथे नाट्योत्सव में भी पाँच नाटक मंचित हुए। पाँचवें नाट्योत्सव तक दर्शकों की संख्या के बढ़ जाने के कारण नाट्य प्रदर्शन का स्थान बदलकर टाउन हॉल प्रांगण करना पड़ा। इस प्रांगण में कनातों की सहायता से बंद प्रेक्षागृह बनाकर नाटक मंचित होने लगे, जो आज तक जारी है। बस, इस वर्ष टाउन हॉल प्रांगण भी छोटा हो जाने के कारण इसे नटवर स्कूल प्रांगण में स्थानांतरित किया गया है।

सन् 1999 के पाँचवें नाट्योत्सव से लेकर 2011 तक के अठारहवें नाट्योत्सव तक दिल्ली से एक्ट वन के ‘खुशअंजाम’, ‘आओ साथी सपना देखे’, ‘अनहद बाजा बाज्यो’ तथा ‘कश्मीर’ के मंचन हुए। जे.एन.यू.इप्टा दिल्ली के ‘मोहनदास’ और ‘बाकी इतिहास’; सिद्धा दिल्ली का नाटक ‘असि बहरी अलंग’; दानिश इकबाल नई दिल्ली का ‘डांसिंग विथ डैड’, संभव आर्ट ग्रुप दिल्ली का संक्रमण’ नाटक हुए। मुम्बई से अंक का ‘मैं बिहार से चुनाव लड़ रहा हूँ’, एनएसडी एलुमनीज़ मुम्बई का ‘एक अराजक का मौत’; कोलकाता से रंगकर्मी का ‘कोर्टमार्शल’, इफ्टा का ‘होरी खेला’ तथा ऑल्टरनेटिव लिविंग थियेटर का ‘विषादकाल’ मंचित हुए। सन् 2003 में इप्टा रायगढ़ का ऐतिहासिक नाट्य समारोह सम्पन्न हुआ जिसमें हबीब तनवीर के पाँच नाटक ‘चरनदास चोर’, ‘मोर नांव दमांद गांव के गांव ससुरार’, ‘वेणीसंहार’, ‘ज़हरीली हवा’ तथा ‘जिन लाहौर नहीं वेख्या’ देखने का सौभाग्य रायगढ़ के कलाकारों एवं दर्शकों को मिला। पटना से निर्माण कला मंच के ‘अंधों का हाथी’, ‘एक था चिड़ा’, ‘बिदेसिया’, ‘कहाँ गए मेरे उगना’, ‘हरसिंगार’; द फैक्ट बेगुसराय का ‘समझौता’, द रेनासाँ गया का  तथा इप्टा पटना का ‘मुझे कहाँ ले आए कोलम्बस’ का मंचन हुआ। इसीतरह लखनऊ इप्टा का ‘रात’ और ‘माखनचोर’ मंचित हुए थे। मराठवाड़ा लोकोत्सव औरंगाबाद का ‘पटकथा’ कविता के रंगमंच के रूप में पहली बार देखने को मिला था।

रंगविदूषक भोपाल के प्रसिद्ध निर्देशक बंसी कौल के ‘कहन कबीर’, ‘तुक्के पे तुक्का’, ‘बेढब थानेदार’, ‘समझौता’, ‘नाक’ नाटकों का मंचन हुआ। विवेचना जबलपुर के भोले भड्या’, ‘हानूश’, ‘ईसुरी’, ‘निठल्ले की डायरी’, ‘मैं नर्क से बोल रहा हूँ’; अभिनव रंगमंडल उज्जैन के नाटक ‘मालविकाग्निमित्र’, ‘रावण’, ‘मियाँ की जूती मियाँ के सर’ तथा ‘बड़ा नटकिया कौन’ का मंचन हुआ। छत्तीसगढ़ की रायपुर इप्टा, भिलाई इप्टा, बाल्को इप्टा, डोंगरगढ़ इप्टा तथा बिलासपुर इप्टा के अनेक नाटकों का मंचन हुआ। अन्य संस्थाओं में अग्रज नाट्य दल बिलासपुर, आर्टिस्ट कम्बाइन रायपुर, अवंतिका रायपुर, इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ के नाट्य विभाग के नाटकों के भी अनेक मंचन हुए।

सन् 2010 से इन नाट्योत्सवों में लघु फिल्मों के प्रदर्शन को भी जोड़ा गया है। प्रत्येक वर्ष कम से कम चार लघु फिल्मों का प्रदर्शन किया जा रहा है। इस वर्ष भी चार लघु फिल्में दिखाई जाएंगी। इस तरह इन अठारह वर्षों में पचास से ज़्यादा नाट्य संस्थाओं ने लगभग सौ नाटकों मंचन इप्टा रायगढ़ के नाट्योत्सवों में किया।



Monday, November 19, 2012

90th Anniversory of Sri-la-Sri T.T.Sankaradoss Swamigal 'Father of Tamil Stage Drama'


90th Anniversory of Sri-la-Sri T.T.Sankaradoss Swamigal, Father of Tamil Stage Drama Celebrated by IPTA Puducherry, and Puducherry Kalai Ilakkiya Perumandram

On 13th November, IPTA Puducherry and Puducherry Kalai Ilakkiya Perumandram celebrated the 90th anniversory of Sri-la-Sri T.T.Sankaradoss Swamigal, Father of Tamil Stage Drama. The state commitee of the both units arranged for a rally from Vedhapuriswarar Temple with the picture of Sankaradoss Swamigal in a decorated car followed by drama artists, musicians, folk artists and writers. At the morial of Sankaradoss Swamigal at Karuvadikuppam homage was given by the artists and writers.


M.Adhiraman, President IPTA Puducherry welcomed the gatherings. M.K.Raman, Honerory President Puducherry Kalai Ilakkiya Perumandram preside over the function in the presence of Murugaiyan president. Prof. P.Murugavel, R.Thangamani Vice-Presidents of IPTA, k.Sakthikurunathan Secretary IPTA, M.S.Radhakrishnan, Secretary ,T.N.Kalai Ilakkiya Perumandram, R.Viswanathan, CPI State Secretary, S.Malakannan, Director of Art and Culture Department, Incharges of TN stage Drama units P.L.Gandhi, S.Isai Arasan,Nedumaran, Eeti Ganesan M.Balasubramaniyam Secretary Puducherry Tamil Sangam has deleverd their homage to Sankaradoss Swamigal.

Drama artists from Puducherry,Karur, Pudukottai, Karaikudi and Mannargudi Nadaga Mandrams, Makkal Kalai Kazhagam of Konery P.Ramasamy, Puducherry, Students from the Deportment of Drama- Puducherry University and Ramalingam's Sivagana Poodhagana Sabha were participated in the functions.

News by M.Adhiraman,President IPTA, Puducherry

Thursday, November 15, 2012

फैजाबाद में साम्प्रदायिकता के विरुद्ध सद्भावना मार्च

फैज़ाबाद, 13 नवम्बर 2012। पिछले दिनों फैज़ाबाद में साम्प्रदायिक तत्वों ने दुर्गापूजा के अवसर पर शहर के चौक क्षेत्र में और जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में उपद्रव मचाया और आगजनी की और बहुत से घरों और दुकानों को जला डाला जिससे भारी आर्थिक क्षति हुई। इन घटनाओं से शहर की गंगा -जमुनी संस्कृति को भी गंभीर क्षति पहुची ।

शहर में इस प्रकार की साम्प्रदायिक गतिविधियों के विरुद्ध और सद्भावना के पक्ष में भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा), भारतीय नौजवान सभा और अन्य सांस्कृतिक संस्थाओं ने 18 नवम्बर, दिन रविवार को दिन के दो बजे से गुलाबबाड़ी से गाँधी  पार्क तक सद्भावना मार्च निकालने का निर्णय लिया है। यह मार्च चौक  होते हुए गाँधी  पार्क पहुंच कर समाप्त होगा।

इस शांति मार्च में मुख्य रूप से प्रो. रूपरेखा वर्मा (सांझी दुनिया), भारतीय जननाट्य संघ के महासचिव राकेश, आतमजीत सिंह एवं दीपक कबीर (कलम नाट्य संघ), वीरेन्द्र यादव (प्रगतिशील लेखक संघ), वंदना मिश्र (पी.यू.सी.एल.), रमेश दीक्षित, युगल किशोर (इप्टा), अनिल कुमार सिंह एवं विशाल श्रीवास्तव (जनवादी लेखक संघ), आफा़क (अवध पीपुल्स फोरम), शाह आलम (अयोध्या फिल्म सोसायटी), मो. तुफैल एवं युगल किशोर शरण शास्त्री (अयोध्या की आवाज़), आर. डी. आनन्द एवं रवि चतुर्वेदी (बीमा कर्मचारी संघ), नितिन मिश्रा (मूवमेन्ट फार राइट्स) अन्य साथियों के साथ उपस्थित रहेंगे।
 
फैज़ाबाद की सांस्कृतिक संस्थाओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों एवं प्रबुद्ध नागरिकों से अपील है कि वे अधिक से अधिक संख्या में इस मार्च में भाग लेकर साम्प्रदायिकता के प्रति अपना विरोध दर्ज करें और सद्भावना मार्च को सफल बनावें।

Tuesday, November 13, 2012

सावधान! आगे सांप्रदायिकता है (अंतिम किस्त)



रघुवंशमणि की लंबी रपट की अंतिम किस्त

फैज़ाबाद-लखनऊ मार्ग पर स्थित रुदौली नामक जगह पर अबीर फेंकने की घटना को लेकर दंगे और आगजनी की घटनाएं हुईं। यहॉं भारतीय जनता पार्टी के विधायक रामचन्द्र यादव और बीस अन्य लोगों पर प्राथमिकी दर्ज हुई है। इससे उनके दंगे में शामिल होने की बात की पुष्टि होती है। भदरसा के निकट फुलवरिया नामक गॉंव में आगजनी की घटनाएं अधिक हुई हैं। यहॉं और निकट के गॉंवों में लगभग तीस झोपड़ियों में आग लगा दी गयी हैं। वहॉं परिस्थितियॉं इतनी तनावपूर्ण थीं कि कॉंग्रेसी सांसद निर्मल खत्री को प्रशासन ने गॉंव तक नहीं जाने दिया। परिस्थितियों के सामान्य होने पर ही यह पता लगाया जा सकेगा कि यहॉं जन-धन की वास्तविक हानि कितनी हुई है। सूचना यह है कि यहॉं पुलिस ने काफी लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की है।

फिलहाल सरकारी मुवावजा सूची से प्राप्त नाम एवं संभावित क्षति इस प्रकार हैं-

भदरसा क्षेत्र

नगर पंचायत भदरसा
1.  श्री दुर्गाप्रसाद भोला, मृत्यु हुई। जीवन की क्षति।
2.  श्री इरफान खान, चाय की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 40,000 रूपये।
3.  श्री रफीक खॉं, चाय की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति, 25,000 रूपये।
4.  श्री पप्पू , नाई की दुकान में तोड़फोड़, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये।
5.  श्री कफील खॉं, मेडिकल स्टोर में लूटपाट, अनुमानित क्षति, 1,25,000 रूपये।
6.  श्री मोबीन खॉं, मोबाइल की दुकान में लूटपाट। अनुमानित क्षति, 50,000 रूपये।
7.  श्री मुस्तकीन, सिलाई दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति, 50,000 रूपये।
8.  श्री लक्ष्मी प्रसाद, चाय एवं पान की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति, 50,000 रूपये।
9.  श्री खुर्शीद अहमद, बिसातखाने में आगजनी, अनुमानित क्षति, 50,000रूपये।
10. श्री मोहम्मद कासिम, सब्जी की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति, 40,000 रूपये।
11. श्री मोहम्मद रफीक, सब्जी की दुकान में आगजनी अनुमानित क्षति, 25,000 रूपये।
12. श्री मोहम्मद यासीन,  मोबाइल की दुकान में लूटपाट, अनुमानित क्षति, 50,000 रूपये।
13. श्री अहमद फिजर, जूता-चप्पल की दुकान अनुमानित क्षति, में लूटपाट, 1,50,000 रूपये।
14. श्री खादिम हुसैन, सिलाई एवं रेडीमेड स्टोर में आगजनी, अनुमानित क्षति 100000 रूपये।
15  श्री इरफान, मोबाइल और कम्प्यूटर की दुकान में लूटपाट, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये
16. श्री अब्दुल हमीद, नानवेज की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 1,00,000 रूपये।
17.  श्री अब्दुल मुख्तार, साइकिल की दुकान में लूटपाट, अनुमानित क्षति 10,000 रूपये।
18.  श्री अम्बिका, बिजली की दुकान में तोड़-फोड़, अनुमानित क्षति 1000 रूपये।
19.  श्री इम्तियाज, बक्सा दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 3000 रूपये।
20.  श्री आलम, चाय मिठाई की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 10,000 रूपये।
21.   श्री चॉंद अली, बिसातखाने में आगजनी, अनुमानित क्षति 15,000।
22.  श्री मिथिलेश, गल्ले की दुकान में आगजनी, 15000।
23.  श्री हाजी इफतेखार अहमद, रेडीमेड की दुकान पर आगजनी, अनुमानित क्षति 1,50,000।
24.  श्री आफताब आलम, रेडीमेड की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 2,00,000 रूपये।
25.   श्री गुलाम मोहम्मद, बीज दुकान को में लूटपाट, अनुमानित क्षति 15000।
26.  श्री अब्दुल समद, सिलाई की  दुकान में लूट, अनुमानित क्षति 15000 रूपये।
27. श्री अख्तर, किराने की दुकान में आगजनी , अनुमानित क्षति 2,00,000 रूपये।
28. श्री कुद्दूस, जनरल स्टोर में आगजनी, अनुमानित क्षति 1,50,000 रूपये।
29.  श्री मोहम्मद उमर, नाई की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 5,000 रूपये।
30.  श्री तौहीद, कपड़े की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 2,00,000 रूपये।
31.  श्री मोहम्मद आरिफ, कपड़े की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 2,00,000 रूपये।
32.  श्री आफताब, किराना की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 2,00,000 रूपये।
33.  श्री मोहम्मद हुसैन, जनरल स्टोर में लूटपाट, अनुमानित क्षति 25,000 रूपये।
34.  श्री मोईद खान, पान की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 25,000 रूपये।
35.  श्री शुएब खॉं, बिसातखाने की दुकान में लूटपाट, अनुमानित क्षति 20,000 रूपये।
36.  श्री नसीम अहमद, दवाखाने में आगजनी, अनुमानित क्षति 20,000 रूपये।
37.  श्री चन्दन कुमार, बेकरी में लूटपाट, अनुमानित क्षति 30,000 रूपये।
38.  श्री इरफान खॉं, आगजनी, अनुमानित क्षति 30,000 रूपये।
39.  श्री जमालुद्दीन, मिठाई की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 1,00,000 रूपये।
40.  श्री अब्दुल गफ्फार, मकान एवं सब्जी की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 10,000 रूपये।
41.  श्री खुबैद, जूता चप्पल की दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 15,000 रूपये।
42.  श्री जाहिद, पक्के मकान लूटपाट, अनुमानित क्षति 1,00,000 रूपये।
43.  श्री अब्दुल मुनाफ, सिलाई की दुकान में तोड़फोड़, अनुमानित क्षति 40,000 रूपये।
44.  श्री फैयाज हुसैन, मिठाई की दुकान में लूटपाट, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये।
45   रजिया बेगम, घर में लूटपाट, अनुमानित क्षति 80,000 रूपये।
46.  श्री वैदउल्लाह, मकान व जूता दुकान में आगजनी, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये।
47.  श्री शेरे यजदा, मकान और दुकान में लूटपाट, अनुमानित क्षति 30,000 रूपये।
48.  श्री असगर, आगजनी, अनुमानित क्षति 70,000 रूपये।
49.  श्री मन्नू , आगजनी, अनुमानित क्षति 90,000 रूपये।
50.  श्री नजीर, आगजनी, अनुमानित क्षति 60,000 रूपये।
51.  श्री मुन्ना, आगजनी, अनुमानित क्षति 70,000 रूपये।
52.  श्री रामकुमार, आगजनी, अनुमानित क्षति 80,000 रूपये।
53.  श्री खुशियाल, आगजनी, अनुमानित क्षति 70,000 रूपये।
54.  श्री पप्पू,  आगजनी, अनुमानित क्षति 65,000 रूपये।
55.  श्री श्यामलाल, आगजनी, अनुमानित क्षति 70,000 रूपये।
56.  श्री इश्तियाक अहमद, आगजनी, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये।
57.  श्री इमाम अली, आगजनी, अनुमानित क्षति 60,000 रूपये।
58.  श्री मुश्ताक, आगजनी, अनुमानित क्षति 70,000 रूपये।
59.  श्री बालकराम, आगजनी, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये।
60.  श्री रामानन्द, आगजनी, अनुमानित क्षति 5,000 रूपये।
61.   जिन्नतुलनिशा, आगजनी, अनुमानित क्षति 40,000 रूपये।
62.  श्रीमती मंगला देवी, आगजनी, अनुमानित क्षति 40,000 रूपये।

ग्राम भदरसा बाहर
1. श्री मोहम्मद लईक खॉं, आगजनी, अनुमानित क्षति 6,00,000 रूपये।
2. श्रीमती अहमदुल, आगजनी, अनुमानित क्षति 80,000 रूपये।
3.  श्री कलीम, आगजनी, अनुमानित क्षति 80,000 रूपये।
4.  श्री महमूद, आगजनी, अनुमानित क्षति 1,00,000 रूपये।

ग्राम -नन्दी ग्राम
1. श्री मोहम्मद इश्तियाक, आगजनी, अनुमानित क्षति 2,50,000 रूपये।
2. श्री मोहम्मद नसीम खान, लूटपाट, अनुमानित क्षति 2,00,000 रूपये।
3. श्री मोहम्मद फैसल आगजनी, अनुमानित क्षति 1,50,000 रूपये।
4. श्री मोहम्मद मेराज उर्फ अल्लू, लूटपाट, अनुमानित क्षति 1,50,000 रूपये।
5. श्री नारायण तिवारी, तोड़फोड़, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये।
6. श्री खादिम खॉं, आगजनी, अनुमानित क्षति 2.50,000 रूपये।
7. श्री हसीब खॉं, लूटपाट, अनुमानित क्षति 1,50,000 रूपये।
8. श्री सत्यनारायण, तोड़फोड़, अनुमानित क्षति 30,000 रूपये।
9. श्री भरतलाल, तोड़फोड़, अनुमानित क्षति 20,000 रूपये।
10. श्री शौकत उल्ला, आगजनी, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये।

ग्राम कैल
1. श्री समसुद्दीन, आगजनी, अनुमानित क्षति 90,000 रूपये।
2. श्री बदरुद्दीन, आगजनी, अनुमानित क्षति 90,000 रूपये।
3. श्री मस्तूर अहमद, आगजनी, अनुमानित क्षति 70,000 रूपये।
4. श्री कैसर खॉं, आगजनी, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये।
5. श्री इजराइल खॉं, आगजनी, अनुमानित क्षति 1,50,000 रूपये।
6. श्री अब्दुल वहीद, आगजनी, अनुमानित क्षति 1,50,000 रूपये।
7. श्री इस्माइल, आगजनी, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये।
8. श्रीमती बदरुन्निसा, आगजनी, अनुमानित क्षति 1,000 रूपये।
9. श्री कलीम, आगजनी, अनुमानित क्षति 10,000 रूपये।
10 श्री अरमान आगजनी, अनुमानित क्षति 12,000 रूपये।
11. श्री सब्बीर, आगजनी, अनुमानित क्षति 1,00,000 रूपये।
12. श्री राजेश, आगजनी, अनुमानित क्षति 12,000 रूपये।

ग्राम छतरिया

1.  श्री मुश्ताक खॉं, आगजनी, अनुमानित क्षति 2,50,000 रूपये।
2.  श्री पवन कुमार, आगजनी, अनुमानित क्षति 75,000 रूपये।
3.  श्री रामशंकर वर्मा, आगजनी, अनुमानित क्षति 1,00,000 रूपये।
4.  श्री निजाममुद्दीन, तोड़फोड़, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये।

ग्राम खम्हौरा मजरे सरैया

1. श्री शाह मोहम्मद, तोड़फोड़, अनुमानित क्षति 1,90,000 रूपये।
2. श्री ताज मोहम्मद, आगजनी, अनुमानित क्षति 40,000 रूपये।

ग्राम पिपरी

1. श्री मोहम्मद अकरम, तोड़फोड़ , अनुमानित क्षति 1,00,000 रूपये।
2. श्री नईम खॉं, आगजनी, अनुमानित क्षति 8,000 रूपये।
3. श्री मोहम्मद शब्बीर, आगजनी, अनुमानित क्षति 15,000 रूपये।
4. श्रीमती नाजरीन, आगजनी, अनुमानित क्षति 1,00,000 रूपये।
5. श्री अब्दुल मन्नान, आगजनी, अनुमानित क्षति 60,000 रूपये।
6. श्री अब्दुल गफूर, आगजनी, अनुमानित क्षति 25,000 रूपये।
7. श्री लल्लन, आगजनी, अनुमानित क्षति 15,000 रूपये।
8. श्री शौकत, आगजनी, अनुमानित क्षति 8,000 रूपये।
9. श्री मोहम्मद यासीन, आगजनी, अनुमानित क्षति 50,000 रूपये।

शाहगंज क्षेत्र

शाहगंज बाजार क्षेत्र
क्रं सं.   नाम/फर्म का नाम   क्षति का प्रकार    अनुमानित क्षति (लाख में)
1 मो. हामिद आगजनी     0.18
मो. नवी आगजनी     0.14
3 मो. सफी आगजनी     0.17
4 कलीमुल्ला आगजनी     0.16
5 मो. इदरीश  आगजनी     0.52
6 मो. इश्तियाक आगजनी     0.68
7 छेदी       आगजनी     0.06
8 मो. अकबर आगजनी     0.53
9 मो.जलील आगजनी     0.38
10 मो. शकील   आगजनी            0.18
11 श्रीमती  शहनाज आगजनी     0.12
12 बख्तियार अहमद आगजनी     0.15
13 मो.जाकिर आगजनी     0.16
ग्राम हल्ले द्वारिका (शाहगंज)
14 मो. मोबीन आगजनी     0.29
ग्राम बरांव (थाना तारून)
15 कुददुरा आगजनी     0.01
16 निजाम आगजनी     0.04
ग्राम पडरी (थाना इनायतनगर)
17     सैयद मुन्तजिर अब्बास      आगजनी             7.43
ग्राम रूरूखास ( थाना बीकापुर)
18 नसीरूददीन आगजनी     0.73
19 उस्मान आगजनी     0.06
20 महमूद अहमद आगजनी     1.60
21 मो. अजीज           आगजनी      2.10
22 रहमतउल्ला   आगजनी         0.28
23 रशीद आगजनी    0.16
ग्र्राम उमरपुर (थाना बीकापुर)
24 शकील अहमद आगजनी    1.04
25  मो. यूनिस           आगजनी     0.06
26 मो. हनीफ आगजनी    1.60
27 जही आगजनी    0.50
28 आफताब आलम आगजनी    0.05
29 अनबर बेग आगजनी    0.05
30 मुस्तकीम आगजनी   0.05
31 इम्तियाज आगजनी   0.02
ग्राम परमानन्दपुर (थाना तारून)
32 लुकमान अली आगजनी  0.02
ग्राम गयासपुर (थाना तारून)
33 मो. अमीन आगजनी  0.50
34 तिलकराम आगजनी  0.18
35 ओम प्रकाश          आगजनी 0.18
36 सत्यदेव सिंह आगजनी  0.35
37 रामपाल बर्मा आगजनी  0.12
38 देवानन्द पाण्डेय आगजनी  0.12
39 पीर अली आगजनी  0.25
ग्राम जलालपुर माफी
40 जुबेर आगजनी 0.10
41 रामराज आगजनी 0.40
42 अब्दुल सलाम आगजनी 4.50
ग्राम पूरे बजाज (कोतवाली बीकापुर)
43 मो. हनीस आगजनी 0.65
44 मो. वसीम आगजनी 0.79
45 जगन्नाथ आगजनी 0.20
ग्राम बबुरिहा ओंधा (कोतवाली बीकापुर)
46 इबरार आगजनी 0.12
ग्राम रामपुर भगन (थाना तारून)
47 इम्तियाज आगजनी 0.20
ग्राम तोरोमाफी (थाना बीकापुर)
48 कृपा शंकर           आगजनी 0.18
ग्राम तेंदुआमाफी (थाना बीकापुर)
49 मो. इकराम आगजनी 0.05
50 मो. मुस्ताक आगजनी 0.18
ग्राम पुहुंपी (थाना बीकापुर)
51 मो. नवीसुल्लाह आगजनी 0.76
ग्राम शेरपुर इछौरी  (थाना बीकापुर)
52 मो.इसरारूल आगजनी 1.15
ग्राम शेरपुर कोतवाली (थाना बीकापुर)
53 मो.यूसूफ आगजनी 0.78
ग्राम दशरथपुर (थाना बीकापुर)
54 मो कासिम आगजनी 0.25
तहसील मिल्कीपुर
ग्राम सेमरा चिखडी
1 मो. रफीक आगजनी 1.02
2 मो. अकबर अली आगजनी 0.06
ग्राम पलिया लोहानी
3 श्री मो. नसीर आगजनी 0.06
ख् भदरसा और शाहगंज क्षेत्र के प्र्रस्तुत ऑंकड़ों के लिए हम फैज़ाबाद से प्रकाशित होने वाले दैनिक जनमोर्चा  समाचारपत्र के आभारी हैं।,


फैज़ाबाद के साम्प्रदायिक उपद्रवों से कुछ रेखांकित करने योग्य तथ्य सामने आये हैं:

राजनीति प्रेरित इन उपद्रवी साम्प्रदायिक तत्वों की गतिविधियों को फैज़ाबाद के कुछ लोगों ने विडियो क्लिप्स के रूप रिकार्ड भी किया जिसके आधार पर पुलिस को कार्यवाही करने में सहूलियत हुई। चौक की मस्जिद में भी क्लोज सर्किट कैमरा था जिसमें तमाम उपद्रवियों के चित्र आ गये। परिणाम स्वरूप कुछ लोग गिरफ्तार भी हुए हैं। अभी तक गिरफ्तार होने वाले लोगों की संख्या 85 बतायी जा रही है। बाद में प्रकाश में आये वीडियो क्लिप्स के नकली और फर्जी होने की बात कही जा रही है। फोरेंसिक जॉंच में ये बातें स्पष्ट हो सकती हैं। दंगाइयों के विरुद्ध इस प्रकार के प्रमाण महत्वपूर्ण हैं, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता।

साम्प्रदायिकता को फैलाने के लिए जिस युक्ति का इस्तेमाल लगभग हर जगह देखने को मिला वह था मुस्लिम धर्मानुयायियों को किसी तरह से उत्तेजित करना। इस कार्य के लिए अबीर का प्रयोग किया गया। मुस्लिम लोगों और मुस्लिम धर्मस्थलों पर अबीर फेककर यह कार्य किया गया। उदाहरण के लिए चौक में स्थित मस्जिद पर अबीर दिखायी दी। भदरसा, रुदौली जैसी जगहों पर भी यह प्रयोग किया गया। फैज़ाबाद में पूरा उपद्रव एकतरफा रहा क्योंकि यहॉं लोग या तो उत्तेजित ही नहीं हुए या फिर वे उपद्रव के स्थानों पर थे ही नहीं। मगर अन्य जगहों पर उन्हें उत्तेजित किया गया और टकराव की स्थितियॉं भी आयीं। मुस्लिम धर्म की संवेदनशीलता को लेकर किया गया यह प्रयोग ज्यादा सफल नहीं रहा। धर्मनिरपेक्ष तत्वों को यह विचार करना चाहिए कि किस प्रकार इन प्रयोगों को निष्फल किया जाय।

साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोगों ने भीड़-भाड़ के समय का उपयोग किया ताकि प्रशासन के लिए कार्यवाही कर पाना संभव न हो। चौक यातायात की दृष्टि से बेहद समस्याग्रस्त रहता है क्योंकि यहॉं सड़क काफी संकरी है और सामान्य स्थितियों में भी यहॉं से गुजरना कठिन हो जाता है। दुर्गापूजा के अवसर पर यहॉं बहुत भीड़ हो जाती है और किसी प्रकार की प्रशासनिक कार्यवाही कठिन हो जाती है। इस बात को देखते हुए आगे के आने वाले त्यौहारों में प्रशासन को सचेत रहना चाहिए। कायदे से तो होना यह चाहिए कि चौक में किसी प्रकार के धार्मिक या राजनीतिक कार्यक्रमों पर रोक हो क्योंकि यह जगह काफी संकरी है। 18वीं शताब्दी के इसके निर्माण काल के समय फैज़ाबाद की जनसंख्या बहुत कम थी। अब यह जनसंख्या दस गुने से भी ज्यादा है। चौक में भारी वाहनों का प्रवेश पहले से ही वर्जित है। तो सवाल यह है कि प्रशासन द्वारा यहॉं धार्मिक और राजनीतिक कार्यक्रमों को क्यों नहीं वर्जित किया जाता। दुर्गापूजा के मार्ग को बदलना जरूरी है ताकि इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके।

 जैसा पहले कहा जा चुका है प्रशासन के लिए जो संभव कार्यवाही थी वह नहीं की गयी। उदाहरण के लिए फैजाबाद में चौक क्षेत्र जहॉं उपद्रव हुए वहॉं से कुछ सौ मीटर की दूरी पर कोतवाली है और 2 किलोमीटर के भीतर ही पुलिस लाईन है। मगर वहॉं से कोई भी मदद नहीं पहुंची। वहॉं अतिसीमित मात्रा मे पुलिस थी। अग्नशामकों का सही प्रयोग न हो सका क्योंकि उनमे पानी ही नहीं था। सवाल यह जरूर उठता है कि तत्काल पानी भरे अग्निशामकों का उपयोग क्यों नहीं किया गया। बाद में दूकानों में लग चुकी आग को बुझाना और मुश्किल हो गया। दुकानों में आग सुबह तक सुलगती रही।

रात में आगजनी की इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद भी सुबह तक चौक में सुरक्षा का कोई इन्तजाम नहीं था। कर्फ्यू की घोषणा भी तब हुई जब क्रोधित भीड़ ने शहर के विधायक पवन पाण्डे पर आपना आक्रोश जाहिर किया और उन्हें वहॉं से भाग जाना पड़ा। प्रशासन की निष्क्रियता आलोचना का विषय है। बाद में एडीजी ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया कि प्रशासन की ओर से लापरवाही हुई। इस प्रकार की प्रशासनिक निष्क्रियता के अलग-अलग अर्थ लगाये जा रहे हैं। नवीनतम सूचना मिलने तक फैज़ाबाद के डी. एम. दीपक अग्रवाल और एस.एस.पी. रमेश शर्मा हटाये जा चुके हैं और उनके स्थान पर क्रमशः अजय शुक्ला और धर्मेन्द्र सिंह को कार्यभार दिया जा चुका है।

इलेक्ट्रानिक मीडिया ने फैज़बाद की घटनाओं को विशेष नोटिस में नहीं लिया। मीडिया के चैनल्स उन दिनों गडकरी और वाड्रा के प्रसंगों को लेकर चटखारे मार रहे थे। उन्हें इस मानवीय त्रासदी से कुछ लेना-देना नहीं था। अखबारों में छपने वाले समाचार नयी व्यवस्था के चलते फैजाबाद तक में ही सीमित रह जाते थे। बस्ती जैसे करीबी शहर में केवल संक्षिप्त सूचनाएं मिलती थीं।

साम्प्रदायिकता को उद्वेलित करने के लिए अफवाहों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया गया। उदाहरण के लिए तनाव की घटनाओं को तोड़-मरोड़कर और बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया। कुछ लोगों ने भदरसा में हिन्दुओं की सामूहिक हत्याओं की अफवाह फैलायी तो कुछ ने हिन्दू गॉवों के बीच स्थिति मुस्लिम गॉंवों के खात्में का प्रचार किया। वास्तव में दोनों बातें सच्चाई से कोई सम्बन्ध नहीं रखती थीं। दोनों समुदाय के लोगों को चाहिए कि इस प्रकारकी अपुष्ट और भ्रामक सूचनाओं को सही न मानें और शान्ति बनाए रखें।

फैज़ाबाद में हुए साम्प्रदायिक उपद्रव इस ओर स्पष्ट संकेत करते हैं कि हमारे समाज और राजनीति से साम्प्रदायिकता समाप्त नहीं हुई है। फैज़ाबाद जैसे शान्तिप्रिय शहर में दंगों का होना एक बुरा संकेत है क्योंकि यह शहर बड़ी विपरीत परिस्थितियों में भी शान्त और संयत रहा है। ऐसे में हमें यह जान लेना

चाहिए कि आगे साम्प्रदायिकता की राजनीति खड़ी है जिसके रास्ते में हिंसा ही हिंसा है। मिशन 2014 में साम्प्रदायिक राजनीति हावी हो सकती है और वह अपार जन और धन की हानि की ओर ले जा सकती है, यदि उसका ठीक से मुकाबला न किया गया। निश्चित रूप से हमें साम्प्रदायिकता से विभिन्न स्तरों पर निपटना पड़ेगा। समाज, संस्कृति और राजनीति इन तीनों स्तर पर संघर्ष किये बिना उसे पराजित या कमजोर कर पाना संभव न होगा। धर्मनिरपेक्षता तब तक साम्प्रदायिकता पर विजय न प्राप्त कर सकेगी जब तक उसकी संस्कृति को जनसामान्य तक न पहुंचाया जाय। यह कार्य सिर्फ साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीति नहीं कर सकती, इसके लिए साहित्य, नाटक, कला और संस्कृति के लोगों को भी जुटना होगा। इस अर्थ में राजनीतिज्ञों के अतिरिक्त बुद्धिजीवियों, विचारकों, लेखको और संस्कृतिकर्मियों की महती साम्प्रदायिकता विरोधी भूमिका बनती है।

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