तीसरा सत्र: 18 नवंबर सुबह 10 बजे से दोपहर 1.30 बजे तक
विषय: प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठनों की
जरूरत और उनके कार्यभार
तीसरे दिन के पहले सत्र की शुरूआत अशोकनगर इप्टा के साथियों और दमोह के साथी दक्षेश की ओर से प्रस्तुत जनगीत से हुई। विचार सत्र की शुरूआत करते हुए श्री राम प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि प्रगतिशील संगठनों की जरूरत और उनके कार्यभार पर हम बहुत देर से विचार कर रहे हैं। यह उस वक्त है, जब विचार पर सीधे हमले हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि मध्यप्रदेश में खेती का रकबा घटा है, जबकि खेती के संसाधन बढ़े हैं, समर्थन मूल्य भी बढ़ा है, इस बीच बड़े किसानों की हालत भी सुधरी है। छोटे किसान और मजदूरों की हालत खस्ता हुई है। उनके सामने आत्महत्या की नौबत आ गई है। यह ऐसे समय में है, जब सरकार की ओर से जारी आंकड़ों में उत्पादन सरप्लस है। लेखक संगठन इस विरोधाभास को सामने लाकर हस्तक्षेप के लिए सक्रिय नहीं हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि प्रगतिशील संगठन युवाओं को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं, इसी वजह से हम मुकाबला करने में कमजोर हुए हैं। इस बारे में हमारे प्रयास भी सीमित, छोटे और नाकाफी हैं।
प्रख्यात कवि और प्रलेस मध्यप्रदेश के अध्यक्ष मंडल के सदस्य श्री कुमार अंबुज ने कहा कि प्रतिरोध की जगह आज लगातार कम हो रही है। प्रगतिशील संगठनों के सामने महज वहीं समस्याएं नहीं हैं, जो सीधे संबोधित हैं, बल्कि समाज के संकटों की पहचान भी आज का जरूरी कार्यभार है। लेखक संगठनांे के साथ ही स्त्री, किसान, ट्रेड यूनियन, दलित आदि से संबंधित प्रगतिशील संगठनों की समस्याएं भी हैं। समस्याएं हर तरफ हैं, इनसे हमें ही निपटना है।
उन्होंने कहा कि विचार की भी अनुवांशिकी होती है। जिस तरह फसल के बीज की अनुवांशिकी होती है। मनुष्य की प्रजाति की जो अनुवांशिकी है, उसकी प्रोडक्टिविटी को भी बचाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि युवाओं के विचलन भी इस दौर में अलग ढंग के हैं। साथ ही किसी लेखकीय लाभ के लिए हमारे 50 की उम्र के आसपास के साथी भी विचलन का शिकार हुए हैं। उन्होंने महात्मा बुद्ध का उदाहरण देते हुए कहा कि संसार में दुख हैं, तो उसके कारण भी हैं, और उनके उपाय भी हैं। उन्होंने कहा कि रचना और जीवन अलग नहीं होते हैं। जीवन और रचना के बीच की दूरी कम करने हुए हमें दिखना चाहिए। हमें अपने सहयोगियों की पहचान भी करनी चाहिए। उन्होंने रचना शिविर की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि लेखन सामाजिक कर्म है, जो कलावादी हैं, उन्हें भी कहानी, कविता का कथ्य लेने के लिए दुनिया के पास आना पड़ता है। लेखन कर्म किसी अकेली जगह पर दुनिया से कटकर संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि सवाल अमर होते हैं, और जवाब समकालीन होते हैं, इसलिए हमें अपने समय में इन सवालों के ईमानदार जवाब खोजने की जरूरत है।
सत्र का संचालन कर रहे श्री विनीत तिवारी ने कहा कि एक समय में ट्रेड यूनियन, किसान संगठन आदि ने लेखक संगठनों को आगे बढ़ाया था, आज वे खतरे में हैं, कमजोर हैं, तो लेखक संगठन भी प्रभावित हुए हैं। जब लेखक संगठनों को उनकी जरूरत थी, तो हमारे सहयोगी संगठनों ने मदद की, आज जब सहयोगी संगठन खतरे में हैं, तो यह लेखकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे उन्हें मजबूत करें, उनके बीच जाएं और उनके साथ कदमताल करें।
उद्भावना के संपादक श्री अजेय कुमार ने कहा कि इस वक्त में संकट तो हैं, यह बात साफ है। मसला यह है कि हमें करना क्या है? हम किस प्राथमिकता के तहत जनता के बीच जाते हैं, यह सवाल महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि जब कोई व्यक्ति दूसरे को अपने पांव की जूती समझता है, तो हमें गुस्सा आता है, लेकिन जब एक देश, दूसरे देश को अपने पांव की जूती समझ लेता है, तो हम चुप रहते हैं। उन्होंने कहा कि अमेरिका के जुल्म को आज किसी टीवी सीरियल की तरह देखा जा रहा है, जिसके एक एपिसोड में सद्दाम का खात्मा हुआ, दूसरे में गद्दाफी को मार डाला गया, संभवतः तीसरे में अहमदीनेजाद को खत्म कर दिया जाएगा। अमेरिका ने पिछले दशक में जिन छह लाख लोगों की जिंदगी को तबाह किया है, वह हमारे मीडिया में नहीं है। मीडिया में इराक, अफगानिस्तान की किसी रोती हुई स्त्री, या अकेले अनाथ बच्चे का चित्र दिखाई नहीं देता, क्योंकि आज जो लोग तेल को नियंत्रित कर रहे हैं, वही मीडिया को भी नियंत्रण में लिये हुए हैं।
उन्होंने कहा कि छोटी-छोटी फिल्मों आदि के माध्यम से आज हमें जनता के बीच जाना चाहिए। उन्होंने लेखक और मध्यवर्ग के रिश्तों को रेखांकित करते हुए कहा कि ज्यादातर लेखक मध्यवर्ग से ही आए हैं, और इसी मध्यवर्ग का बड़ा वर्ग अमेरिका प्रेमी है। उन्होंने कहा कि इस मध्यवर्ग के भीतर अमेरिका ने जिस ढंग से घुसपैठ बनाई है, उसे देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि दुनिया की सबसे बड़ी आतंकी घटना के बारे में आम राय यह बना दी गई है कि वह 11 सितंबर का हमला था, जिसमें करीब 2500 लोग मारे गए थे। उन्होंने कहा कि इस बात को दरकिनार कर दिया गया है कि हिरोशिमा पर गिराया गया परमाणु बम दुनिया की सबसे बड़ी आतंकी घटना थी, जिसमें एक पूरा शहर एकाएक तबाह कर दिया गया। अमेरिका की इस आतंकी घटना में नींद के आगोश में लाखों लोगों से एक साथ उनकी जिंदगी छीन ली गई थी। उन्होंने कहा कि आतंकी घटनाओं के बारे में भी मध्यवर्ग की एक खास समझ विकसित कर दी गई है। आज आतंकी घटना उसे ही माना जाता है, जिसमें मुसलमान, बम, आरडीएक्स जैसे तथ्य सामने आएं, इसके अलावा मनुष्य की जान लेने वाली कार्रवाइयों को आतंकी घटना माना ही नहीं जाता। उन्होंने कहा कि इस तरह के सरलीकरण के खिलाफ माहौल तैयार करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी लेखक समाज पर है।
श्री कुंदन सिंह परिहार ने कहा कि आज लेखक संगठनों में युवा कम हो रहे हैं। हमें युवाओं की समस्याओं की ओर भी ध्यान देना होगा। आज युवाओं का जीवन सरल नहीं है। जीवन यापन की जरूरी ईकाई पढ़ाई में उसका काफी समय जाता है। यह बदलाव का समय है, जिसमें समस्याएं नए ढंग से सामने आ रही हैं, इसके उपचार खोजना आज के जरूरी कार्यभार में शामिल है।
श्री बहादुर सिंह परमार ने कहा कि जब लेखक जन से जुड़ेंगे, तभी जनता उनसे जुड़ेगी। जीवन में पारदर्शिता सबसे बड़ी पूंजी है। इस पूंजी को लेखक संगठनों को कम किया है, जिससे काफी नुकसान हुआ है। लोक हर तरफ से देखता है, वह देखता है, कि कौन उसके साथ खड़ा है, और कौन लेखकीय फायदे के लिए उसके करीब रहने का भ्रम पैदा कर रहा है।
श्री संतोष खरे ने कहा कि हमारे समय में हनुमान मंदिरों की संख्या में इजाफे से लेकर कुंभ मेलों में जाते जनसमूह तक पर जिस तरह की संस्कृति थोपी जा रही है, वह अपनी तरह का खतरा है। आज सारे शासकीय तामझाम के साथ कार्यालयों में वंदे मातरम् का गान कराया जाता है, लेकिन इसके तुरंत बाद ही अधिकारी-कर्मचारी रिश्वत लेने में मशगूल हो जाते हैं, तो ऐसे गान का क्या अर्थ है? उन्होंने स्कूलों में सूर्य नमस्कार से लेकर योग आदि तक कटाक्ष करते हुए कहा कि इस सरकारी संस्कृतिकरण के खतरे को पहचान इसके खिलाफ मजबूती से खड़ा होना, लेखकीय समाज की जिम्मेदारी है।
श्री सत्यम पांडे ने कहा कि हमारे कार्यभार बड़े हैं। हमें वंचित तबकों के दर्द को अपनी रचना प्रक्रिया में शामिल करना होगा। विस्थापन के सवाल पर भी लेखकों को सामने आना होगा। उन्होंने कहा कि मेहनतकश गरीब के सवालों को लेखन के केंद्र में लाये बिना किसी भी तरह के जनजुड़ाव की कल्पना करना बेमानी है।
श्री दिनेश भट्ट ने कहा कि यदि हम समाज को बहुत ज्यादा नहीं बदल सकते तो जो जहां है, वहीं से काम करे। छोटी-छोटी कोशिशें आज महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपनी रचना प्रक्रिया के उदाहरण के साथ बताया कि अपने आसपास के माहौल को ही रचनात्मक अभिव्यक्ति देने से सक्रियता आती है।
श्री पंकज दीक्षित ने कहा कि लेव तोलस्ताय की मौत पर मजदूरों ने स्वप्रेरणा से हड़ताल की थी, तब लेनिन ने कहा था कि मजदूरों का अपना लेखक मिल गया है। इससे साफ होता है कि लेखक अपनी जनता नहीं चुनता, बल्कि जनता अपना लेखक चुनती है। उन्होंने कहा कि हम संवेदनशीलता से दूर होते जा रहे हैं, और इसी क्रम में जनता से दूर हटते जा रहे हैं। अगर कुछ पा लेने की कोशिश या ख्वाहिश नहीं है, तो आम जन लेखक से जरूर जुड़ता है। उन्होंने एक गांव में किए गए नाटक के उदाहरण से बताया कि लोगों के भीतर बेचैनी है, और वे अपनी बात कहने वाले रचनात्मक समूहों को पूरी शिद्धत से तलाश रहे हैं। अगर हम जनता के सवालों पर पूरी ईमानदारी से काम करें, तो निश्चित ही जनता के बीच से आवाज आएगी।
श्री ओमप्रकाश शर्मा ने कहा कि जब छात्र आंदोलन थे, तो युवाओं की संख्या भी प्रगतिशील संगठनों में खासी अच्छी थी। व्यवस्था ने छात्र आंदोलनों को खत्म कर दिया है और इसीलिए युवाओं और प्रगतिशील संगठनों के बीच का पुल टूट गया है। स्टूडेंट फेडरेशन के स्टडी सर्किल ने कई युवाओं की वैचारिक धार को तेज किया था। आज वह सब खत्म हो गया है। युवाओं से जुड़ने के नए तरीके खोजना आज का महत्वपूर्ण कार्यभार है। अगर प्रगतिशील संगठन यह काम नहीं करेंगे, तो जिस तरह अपने सबसे बड़े दुश्मन धर्म की सबसे बड़ी समर्थक महिलाएं होती जा रही हैं, युवा भी इस दुष्चक्र में फंसा रहेगा। श्री गफूर तायर ने कहा कि एफडीआई के आने से छोटी-छोटी ईकाइयों के मजदूर बेमौत मारे जाएंगे। इस सवाल पर प्रगतिशील ताकतों को एकजुट होकर हमला बोलना चाहिए। यह सवाल सिर्फ मजदूरों से ही नहीं जुड़ा है, एफडीआई के साथ अन्य कई बुराइयां आएंगी।
श्री अरविंद श्रीवास्तव ने कहा कि कोई भी आंदोलन जनता से जुड़ा न हो यह संभव नहीं है। अगर लेखक की भाषा का जनता से जुड़ाव नहीं है, उसके सरोकार नहीं हैं, तो वह जनता से दूर ही रहेगा। जनता से दूर रहकर आंदोलन नहीं हो सकता। आज लेखकीय अभिव्यक्ति पर लगातार हमले हो रहे हैं। जबलपुर में नाटक नहीं होने दिया जाता, आए दिन पुस्तकें जलाने की खबरें मिलती हैं। उन्होंने कहा कि लेखक को एक्टिविस्ट बनना होगा, तभी जनता के सवालों से वह सीधे संपर्क बना सकता है।
श्री महेंद्र फुसकेले ने कहा कि आज मुख्यधारा की बात लगातार की जा रही है। जानना चाहिए कि यह मुख्यधारा कहां है? मुख्यधारा क्या है? मुख्यधारा किसने बनाई है? उन्होंने कहा कि मुख्यधारा इस देश में रहने वाले आदिवासी और शूद्र हैं। इसके अलावा जो भी मुख्यधारा दिखाई देती है, वह भ्रम है। उन्होंने कहा कि वर्ण व्यवस्था का सबसे पहले विरोध बौद्ध और जैन भिक्षुओं ने किया था, इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता।
श्री अश्विनी दुबे ने कहा कि पिछले 20 वर्ष में कोई बड़ा प्रगतिशील आंदोलन खड़ा नहीं हो सका है, इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। श्री हरनाम सिंह ने कहा कि मार्क्सवाद ने आलोचना और आत्मालोचना की सीख दी है। आज प्रगतिशील संगठनों को अपने अंतर्विरोधों की पड़ताल करनी चाहिए। हम अपने अंतर्विरोध दूर नहीं कर पाए हैं। इसके लिए धरातल पर विचार करना आवश्यक है।
श्री वीएस नायक ने कहा कि साहित्यकार को उन फूलों को चुनने की जरूरत है, जो जनता के जीवन में खुशबू बिखेर सकें। श्री अभिषेक तिवारी ने कहा कि हिंदी पट्टी में सांप्रदायिकता के खिलाफ लगातार कार्य हुआ है, इसे सतत करने की जरूरत है। अकेले चलने के अपने खतरे हैं, जनता के बीच जाकर उसका हिस्सा बनकर ही प्रगतिशील शक्तियां ताकत हासिल कर सकती हैं। आज जो खतरे हमारे सामने हैं, उनसे लड़ने के लिए रणनीति और औजार दोनों ही बदलने की जरूरत है।
श्री सचिन श्रीवास्तव ने कहा कि पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने जिस ढंग से मीडिया, फिल्म, बाजार आदि को औजार की तरह इस्तेमाल किया है, उससे यह भ्रम पैदा हो गया है कि असली दुश्मन यही हैं। इस बात को समझते हुए पूंजीवाद के औजारों पर धीरे-धीरे और लंबी रणनीति के तहत कब्जे की तैयारी करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अकेली लकड़ी के जल्दी टूट जाने की सीख को हमें फिर याद करना होगा, और प्रगतिशील संगठनों को अपनी एकता को कायम कर विरासत से सीख लेने की जरूरत है।
वरिष्ठ कवि श्री नरेश सक्सैना ने कहा कि आज किताबों की बिक्री घट रही है। 500 और 600 की संख्या में किताबों के संस्करण निकल रहे हैं। कोई किताब बहुत ज्यादा चर्चित हो जाए, तो भी हजार-1500 से अधिक बिकने की कल्पना नहीं की जा सकती। हिंदी पढ़ने की प्रवृत्ति कम होते जाना एक बड़ा खतरा है, और इसके लिए लेखकों को एकजुट प्रयास करने चाहिए। आज मध्यवर्ग हिंदी से नफरत कर रहा है, और जैसे-तैसे अंग्रेजी में अपने कार्य करने की अधूरी कोशिश कर रहा है। इस टूटते समाज में अंग्रेजी ने विचार प्रक्रिया को भी बाधित किया है। उन्होंने कहा कि आज सारा जोर कथ्य पर है, जबकि शिल्प पर कम ध्यान दिया जा रहा है। कथ्य अपने आप में बड़ी चीज है, लेकिन शिल्प के जरिये उसे अधिक संप्रेषणीय बनाया जा सकता है।
इस सत्र का संचालन श्री विनीत तिवारी ने किया।
11वें राज्य सम्मेलन में चुनी गई मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की कार्यकारिणी
संरक्षक मंडल: सर्वश्री चंद्रकांत देवताले, महेन्द्र फुसकेले, श्री प्रकाश दीक्षित, सुश्री नुसरतबानो रूही, इकबाल मजीद, श्यामसुंदर मिश्र, देवीशरण ग्रामीण, श्री रामशंकर मिश्र
अध्यक्ष: श्री राजेन्द्र शर्मा
अध्यक्ष मंडल: सर्वश्री मलय, के. बी. एल. पाण्डे, कृष्णकांत निलोसे, महेश कटारे, स्वयंप्रकाश, सेवाराम त्रिपाठी, कुंदनसिंह परिहार, कुमार अंबुज, संतोष खरे, महेंद्रसिंह, हरिओम राजोरिया
महासचिव: श्री विनीत तिवारी
कोषाध्यक्ष: केशरी सिंह चिड़ार
सचिव मंडल: श्री शैलेन्द्र शैली, श्री पवित्र सलालपुरिया, श्री ओमप्रकाश शर्मा, तरुणगुहा नियोगी, सत्येन्द्र रघुवंशी, कमल जैन, बाबूलाल दाहिया, सुश्री सुसंस्कृति परिहार, अभय नेमा, बहादुरसिंह परमार, शिवशंकर मिश्र सरस, टीकाराम त्रिपाठी, सत्यम पाण्डेय
कार्यकारिणी: पवन करण-ग्वालियर, प्रतापराव कदम-खंडवा, योगेश दीवान-विशेष आमंत्रित, हरिशंकर अग्रवाल-पिपरिया, सुरेश शर्मा-शहडोल, शैलेन्द्र जॉर्ज-शहडोल, दिनेश भट्ट -छिंदवाड़ा, हेमेन्द्र राय-छिंदवाड़ा, गफूर तायर-दमोह, राजनारायण बोहरे-दतिया, असद अंसारी-मंदसौर, पंकज दीक्षित- अशोकनगर, उत्पल बनर्जी-इंदौर, ब्रजेश कानूनगो-इंदौर-प्राची से मानद सदस्य, प्रज्ञा रावत-भोपाल, मुकेश बिजौले-विशेष आमंत्रित, ओम भारती-भोपाल, प्रेमशंकर रघुवंशी-हरदा, नीहार स्नातक-कोतमा, गोविंद श्रीवास्तव-अनूपपुर, मुन्नालाल मिश्र-टीकमगढ़, जाहिद खान-शिवपुरी, ब्रज श्रीवास्तव-विदिशा, रामनारायण सिंह राना-सतना, अरविंद मिश्र-भोपाल, सारिका श्रीवास्तव-इंदौर, अशोक दुबे-इंदौर, अरुण पाण्डे-जबलपुर, दीपा भट्ट-सागर, अनिल करमेले-भोपाल, महेश कटारे ‘सुगम’-बीना, दिनेश साहू-सागर, एल. एन. भट्ट-सागर, आशीष पाठक-जबलपुर, सचिन श्रीवास्तव-भोपाल, शिवेन्द्र शुक्ला-छतरपुर इप्टा से मानद सदस्य
कार्यकारी दल: विनीत तिवारी, राजेंद्र शर्मा, कुमार अंबुज, सत्येंद्र रघुवंशी, हरिओम राजोरिया, शैलेन्द्र शैली, तरुण गुहा नियोगी, महेंद्र सिंह, अभय नेमा, ओमप्रकाश शर्मा, सुसंस्कृति परिहार, हरनाम सिंह
(छूटी हुई इकाइयों में से उनके द्वारा प्रस्तावित नाम के आधार पर प्रति इकाई एक सदस्य कार्यकारिणी में लिया जाएगा।)
रिपोर्ट संकलन:
सीमा राजोरिया 09893723662,
सचिन श्रीवास्तव 09690020518,
अभिषेक तिवारी 09993656088
विषय: प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठनों की
जरूरत और उनके कार्यभार
तीसरे दिन के पहले सत्र की शुरूआत अशोकनगर इप्टा के साथियों और दमोह के साथी दक्षेश की ओर से प्रस्तुत जनगीत से हुई। विचार सत्र की शुरूआत करते हुए श्री राम प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि प्रगतिशील संगठनों की जरूरत और उनके कार्यभार पर हम बहुत देर से विचार कर रहे हैं। यह उस वक्त है, जब विचार पर सीधे हमले हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि मध्यप्रदेश में खेती का रकबा घटा है, जबकि खेती के संसाधन बढ़े हैं, समर्थन मूल्य भी बढ़ा है, इस बीच बड़े किसानों की हालत भी सुधरी है। छोटे किसान और मजदूरों की हालत खस्ता हुई है। उनके सामने आत्महत्या की नौबत आ गई है। यह ऐसे समय में है, जब सरकार की ओर से जारी आंकड़ों में उत्पादन सरप्लस है। लेखक संगठन इस विरोधाभास को सामने लाकर हस्तक्षेप के लिए सक्रिय नहीं हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि प्रगतिशील संगठन युवाओं को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं, इसी वजह से हम मुकाबला करने में कमजोर हुए हैं। इस बारे में हमारे प्रयास भी सीमित, छोटे और नाकाफी हैं।
प्रख्यात कवि और प्रलेस मध्यप्रदेश के अध्यक्ष मंडल के सदस्य श्री कुमार अंबुज ने कहा कि प्रतिरोध की जगह आज लगातार कम हो रही है। प्रगतिशील संगठनों के सामने महज वहीं समस्याएं नहीं हैं, जो सीधे संबोधित हैं, बल्कि समाज के संकटों की पहचान भी आज का जरूरी कार्यभार है। लेखक संगठनांे के साथ ही स्त्री, किसान, ट्रेड यूनियन, दलित आदि से संबंधित प्रगतिशील संगठनों की समस्याएं भी हैं। समस्याएं हर तरफ हैं, इनसे हमें ही निपटना है।
उन्होंने कहा कि विचार की भी अनुवांशिकी होती है। जिस तरह फसल के बीज की अनुवांशिकी होती है। मनुष्य की प्रजाति की जो अनुवांशिकी है, उसकी प्रोडक्टिविटी को भी बचाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि युवाओं के विचलन भी इस दौर में अलग ढंग के हैं। साथ ही किसी लेखकीय लाभ के लिए हमारे 50 की उम्र के आसपास के साथी भी विचलन का शिकार हुए हैं। उन्होंने महात्मा बुद्ध का उदाहरण देते हुए कहा कि संसार में दुख हैं, तो उसके कारण भी हैं, और उनके उपाय भी हैं। उन्होंने कहा कि रचना और जीवन अलग नहीं होते हैं। जीवन और रचना के बीच की दूरी कम करने हुए हमें दिखना चाहिए। हमें अपने सहयोगियों की पहचान भी करनी चाहिए। उन्होंने रचना शिविर की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि लेखन सामाजिक कर्म है, जो कलावादी हैं, उन्हें भी कहानी, कविता का कथ्य लेने के लिए दुनिया के पास आना पड़ता है। लेखन कर्म किसी अकेली जगह पर दुनिया से कटकर संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि सवाल अमर होते हैं, और जवाब समकालीन होते हैं, इसलिए हमें अपने समय में इन सवालों के ईमानदार जवाब खोजने की जरूरत है।
सत्र का संचालन कर रहे श्री विनीत तिवारी ने कहा कि एक समय में ट्रेड यूनियन, किसान संगठन आदि ने लेखक संगठनों को आगे बढ़ाया था, आज वे खतरे में हैं, कमजोर हैं, तो लेखक संगठन भी प्रभावित हुए हैं। जब लेखक संगठनों को उनकी जरूरत थी, तो हमारे सहयोगी संगठनों ने मदद की, आज जब सहयोगी संगठन खतरे में हैं, तो यह लेखकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे उन्हें मजबूत करें, उनके बीच जाएं और उनके साथ कदमताल करें।
उद्भावना के संपादक श्री अजेय कुमार ने कहा कि इस वक्त में संकट तो हैं, यह बात साफ है। मसला यह है कि हमें करना क्या है? हम किस प्राथमिकता के तहत जनता के बीच जाते हैं, यह सवाल महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि जब कोई व्यक्ति दूसरे को अपने पांव की जूती समझता है, तो हमें गुस्सा आता है, लेकिन जब एक देश, दूसरे देश को अपने पांव की जूती समझ लेता है, तो हम चुप रहते हैं। उन्होंने कहा कि अमेरिका के जुल्म को आज किसी टीवी सीरियल की तरह देखा जा रहा है, जिसके एक एपिसोड में सद्दाम का खात्मा हुआ, दूसरे में गद्दाफी को मार डाला गया, संभवतः तीसरे में अहमदीनेजाद को खत्म कर दिया जाएगा। अमेरिका ने पिछले दशक में जिन छह लाख लोगों की जिंदगी को तबाह किया है, वह हमारे मीडिया में नहीं है। मीडिया में इराक, अफगानिस्तान की किसी रोती हुई स्त्री, या अकेले अनाथ बच्चे का चित्र दिखाई नहीं देता, क्योंकि आज जो लोग तेल को नियंत्रित कर रहे हैं, वही मीडिया को भी नियंत्रण में लिये हुए हैं।
उन्होंने कहा कि छोटी-छोटी फिल्मों आदि के माध्यम से आज हमें जनता के बीच जाना चाहिए। उन्होंने लेखक और मध्यवर्ग के रिश्तों को रेखांकित करते हुए कहा कि ज्यादातर लेखक मध्यवर्ग से ही आए हैं, और इसी मध्यवर्ग का बड़ा वर्ग अमेरिका प्रेमी है। उन्होंने कहा कि इस मध्यवर्ग के भीतर अमेरिका ने जिस ढंग से घुसपैठ बनाई है, उसे देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि दुनिया की सबसे बड़ी आतंकी घटना के बारे में आम राय यह बना दी गई है कि वह 11 सितंबर का हमला था, जिसमें करीब 2500 लोग मारे गए थे। उन्होंने कहा कि इस बात को दरकिनार कर दिया गया है कि हिरोशिमा पर गिराया गया परमाणु बम दुनिया की सबसे बड़ी आतंकी घटना थी, जिसमें एक पूरा शहर एकाएक तबाह कर दिया गया। अमेरिका की इस आतंकी घटना में नींद के आगोश में लाखों लोगों से एक साथ उनकी जिंदगी छीन ली गई थी। उन्होंने कहा कि आतंकी घटनाओं के बारे में भी मध्यवर्ग की एक खास समझ विकसित कर दी गई है। आज आतंकी घटना उसे ही माना जाता है, जिसमें मुसलमान, बम, आरडीएक्स जैसे तथ्य सामने आएं, इसके अलावा मनुष्य की जान लेने वाली कार्रवाइयों को आतंकी घटना माना ही नहीं जाता। उन्होंने कहा कि इस तरह के सरलीकरण के खिलाफ माहौल तैयार करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी लेखक समाज पर है।
श्री कुंदन सिंह परिहार ने कहा कि आज लेखक संगठनों में युवा कम हो रहे हैं। हमें युवाओं की समस्याओं की ओर भी ध्यान देना होगा। आज युवाओं का जीवन सरल नहीं है। जीवन यापन की जरूरी ईकाई पढ़ाई में उसका काफी समय जाता है। यह बदलाव का समय है, जिसमें समस्याएं नए ढंग से सामने आ रही हैं, इसके उपचार खोजना आज के जरूरी कार्यभार में शामिल है।
श्री बहादुर सिंह परमार ने कहा कि जब लेखक जन से जुड़ेंगे, तभी जनता उनसे जुड़ेगी। जीवन में पारदर्शिता सबसे बड़ी पूंजी है। इस पूंजी को लेखक संगठनों को कम किया है, जिससे काफी नुकसान हुआ है। लोक हर तरफ से देखता है, वह देखता है, कि कौन उसके साथ खड़ा है, और कौन लेखकीय फायदे के लिए उसके करीब रहने का भ्रम पैदा कर रहा है।
श्री संतोष खरे ने कहा कि हमारे समय में हनुमान मंदिरों की संख्या में इजाफे से लेकर कुंभ मेलों में जाते जनसमूह तक पर जिस तरह की संस्कृति थोपी जा रही है, वह अपनी तरह का खतरा है। आज सारे शासकीय तामझाम के साथ कार्यालयों में वंदे मातरम् का गान कराया जाता है, लेकिन इसके तुरंत बाद ही अधिकारी-कर्मचारी रिश्वत लेने में मशगूल हो जाते हैं, तो ऐसे गान का क्या अर्थ है? उन्होंने स्कूलों में सूर्य नमस्कार से लेकर योग आदि तक कटाक्ष करते हुए कहा कि इस सरकारी संस्कृतिकरण के खतरे को पहचान इसके खिलाफ मजबूती से खड़ा होना, लेखकीय समाज की जिम्मेदारी है।
श्री सत्यम पांडे ने कहा कि हमारे कार्यभार बड़े हैं। हमें वंचित तबकों के दर्द को अपनी रचना प्रक्रिया में शामिल करना होगा। विस्थापन के सवाल पर भी लेखकों को सामने आना होगा। उन्होंने कहा कि मेहनतकश गरीब के सवालों को लेखन के केंद्र में लाये बिना किसी भी तरह के जनजुड़ाव की कल्पना करना बेमानी है।
श्री दिनेश भट्ट ने कहा कि यदि हम समाज को बहुत ज्यादा नहीं बदल सकते तो जो जहां है, वहीं से काम करे। छोटी-छोटी कोशिशें आज महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपनी रचना प्रक्रिया के उदाहरण के साथ बताया कि अपने आसपास के माहौल को ही रचनात्मक अभिव्यक्ति देने से सक्रियता आती है।
श्री पंकज दीक्षित ने कहा कि लेव तोलस्ताय की मौत पर मजदूरों ने स्वप्रेरणा से हड़ताल की थी, तब लेनिन ने कहा था कि मजदूरों का अपना लेखक मिल गया है। इससे साफ होता है कि लेखक अपनी जनता नहीं चुनता, बल्कि जनता अपना लेखक चुनती है। उन्होंने कहा कि हम संवेदनशीलता से दूर होते जा रहे हैं, और इसी क्रम में जनता से दूर हटते जा रहे हैं। अगर कुछ पा लेने की कोशिश या ख्वाहिश नहीं है, तो आम जन लेखक से जरूर जुड़ता है। उन्होंने एक गांव में किए गए नाटक के उदाहरण से बताया कि लोगों के भीतर बेचैनी है, और वे अपनी बात कहने वाले रचनात्मक समूहों को पूरी शिद्धत से तलाश रहे हैं। अगर हम जनता के सवालों पर पूरी ईमानदारी से काम करें, तो निश्चित ही जनता के बीच से आवाज आएगी।
श्री ओमप्रकाश शर्मा ने कहा कि जब छात्र आंदोलन थे, तो युवाओं की संख्या भी प्रगतिशील संगठनों में खासी अच्छी थी। व्यवस्था ने छात्र आंदोलनों को खत्म कर दिया है और इसीलिए युवाओं और प्रगतिशील संगठनों के बीच का पुल टूट गया है। स्टूडेंट फेडरेशन के स्टडी सर्किल ने कई युवाओं की वैचारिक धार को तेज किया था। आज वह सब खत्म हो गया है। युवाओं से जुड़ने के नए तरीके खोजना आज का महत्वपूर्ण कार्यभार है। अगर प्रगतिशील संगठन यह काम नहीं करेंगे, तो जिस तरह अपने सबसे बड़े दुश्मन धर्म की सबसे बड़ी समर्थक महिलाएं होती जा रही हैं, युवा भी इस दुष्चक्र में फंसा रहेगा। श्री गफूर तायर ने कहा कि एफडीआई के आने से छोटी-छोटी ईकाइयों के मजदूर बेमौत मारे जाएंगे। इस सवाल पर प्रगतिशील ताकतों को एकजुट होकर हमला बोलना चाहिए। यह सवाल सिर्फ मजदूरों से ही नहीं जुड़ा है, एफडीआई के साथ अन्य कई बुराइयां आएंगी।
श्री अरविंद श्रीवास्तव ने कहा कि कोई भी आंदोलन जनता से जुड़ा न हो यह संभव नहीं है। अगर लेखक की भाषा का जनता से जुड़ाव नहीं है, उसके सरोकार नहीं हैं, तो वह जनता से दूर ही रहेगा। जनता से दूर रहकर आंदोलन नहीं हो सकता। आज लेखकीय अभिव्यक्ति पर लगातार हमले हो रहे हैं। जबलपुर में नाटक नहीं होने दिया जाता, आए दिन पुस्तकें जलाने की खबरें मिलती हैं। उन्होंने कहा कि लेखक को एक्टिविस्ट बनना होगा, तभी जनता के सवालों से वह सीधे संपर्क बना सकता है।
श्री महेंद्र फुसकेले ने कहा कि आज मुख्यधारा की बात लगातार की जा रही है। जानना चाहिए कि यह मुख्यधारा कहां है? मुख्यधारा क्या है? मुख्यधारा किसने बनाई है? उन्होंने कहा कि मुख्यधारा इस देश में रहने वाले आदिवासी और शूद्र हैं। इसके अलावा जो भी मुख्यधारा दिखाई देती है, वह भ्रम है। उन्होंने कहा कि वर्ण व्यवस्था का सबसे पहले विरोध बौद्ध और जैन भिक्षुओं ने किया था, इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता।
श्री अश्विनी दुबे ने कहा कि पिछले 20 वर्ष में कोई बड़ा प्रगतिशील आंदोलन खड़ा नहीं हो सका है, इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। श्री हरनाम सिंह ने कहा कि मार्क्सवाद ने आलोचना और आत्मालोचना की सीख दी है। आज प्रगतिशील संगठनों को अपने अंतर्विरोधों की पड़ताल करनी चाहिए। हम अपने अंतर्विरोध दूर नहीं कर पाए हैं। इसके लिए धरातल पर विचार करना आवश्यक है।
श्री वीएस नायक ने कहा कि साहित्यकार को उन फूलों को चुनने की जरूरत है, जो जनता के जीवन में खुशबू बिखेर सकें। श्री अभिषेक तिवारी ने कहा कि हिंदी पट्टी में सांप्रदायिकता के खिलाफ लगातार कार्य हुआ है, इसे सतत करने की जरूरत है। अकेले चलने के अपने खतरे हैं, जनता के बीच जाकर उसका हिस्सा बनकर ही प्रगतिशील शक्तियां ताकत हासिल कर सकती हैं। आज जो खतरे हमारे सामने हैं, उनसे लड़ने के लिए रणनीति और औजार दोनों ही बदलने की जरूरत है।
श्री सचिन श्रीवास्तव ने कहा कि पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने जिस ढंग से मीडिया, फिल्म, बाजार आदि को औजार की तरह इस्तेमाल किया है, उससे यह भ्रम पैदा हो गया है कि असली दुश्मन यही हैं। इस बात को समझते हुए पूंजीवाद के औजारों पर धीरे-धीरे और लंबी रणनीति के तहत कब्जे की तैयारी करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अकेली लकड़ी के जल्दी टूट जाने की सीख को हमें फिर याद करना होगा, और प्रगतिशील संगठनों को अपनी एकता को कायम कर विरासत से सीख लेने की जरूरत है।
वरिष्ठ कवि श्री नरेश सक्सैना ने कहा कि आज किताबों की बिक्री घट रही है। 500 और 600 की संख्या में किताबों के संस्करण निकल रहे हैं। कोई किताब बहुत ज्यादा चर्चित हो जाए, तो भी हजार-1500 से अधिक बिकने की कल्पना नहीं की जा सकती। हिंदी पढ़ने की प्रवृत्ति कम होते जाना एक बड़ा खतरा है, और इसके लिए लेखकों को एकजुट प्रयास करने चाहिए। आज मध्यवर्ग हिंदी से नफरत कर रहा है, और जैसे-तैसे अंग्रेजी में अपने कार्य करने की अधूरी कोशिश कर रहा है। इस टूटते समाज में अंग्रेजी ने विचार प्रक्रिया को भी बाधित किया है। उन्होंने कहा कि आज सारा जोर कथ्य पर है, जबकि शिल्प पर कम ध्यान दिया जा रहा है। कथ्य अपने आप में बड़ी चीज है, लेकिन शिल्प के जरिये उसे अधिक संप्रेषणीय बनाया जा सकता है।
इस सत्र का संचालन श्री विनीत तिवारी ने किया।
11वें राज्य सम्मेलन में चुनी गई मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की कार्यकारिणी
संरक्षक मंडल: सर्वश्री चंद्रकांत देवताले, महेन्द्र फुसकेले, श्री प्रकाश दीक्षित, सुश्री नुसरतबानो रूही, इकबाल मजीद, श्यामसुंदर मिश्र, देवीशरण ग्रामीण, श्री रामशंकर मिश्र
अध्यक्ष: श्री राजेन्द्र शर्मा
अध्यक्ष मंडल: सर्वश्री मलय, के. बी. एल. पाण्डे, कृष्णकांत निलोसे, महेश कटारे, स्वयंप्रकाश, सेवाराम त्रिपाठी, कुंदनसिंह परिहार, कुमार अंबुज, संतोष खरे, महेंद्रसिंह, हरिओम राजोरिया
महासचिव: श्री विनीत तिवारी
कोषाध्यक्ष: केशरी सिंह चिड़ार
सचिव मंडल: श्री शैलेन्द्र शैली, श्री पवित्र सलालपुरिया, श्री ओमप्रकाश शर्मा, तरुणगुहा नियोगी, सत्येन्द्र रघुवंशी, कमल जैन, बाबूलाल दाहिया, सुश्री सुसंस्कृति परिहार, अभय नेमा, बहादुरसिंह परमार, शिवशंकर मिश्र सरस, टीकाराम त्रिपाठी, सत्यम पाण्डेय
कार्यकारिणी: पवन करण-ग्वालियर, प्रतापराव कदम-खंडवा, योगेश दीवान-विशेष आमंत्रित, हरिशंकर अग्रवाल-पिपरिया, सुरेश शर्मा-शहडोल, शैलेन्द्र जॉर्ज-शहडोल, दिनेश भट्ट -छिंदवाड़ा, हेमेन्द्र राय-छिंदवाड़ा, गफूर तायर-दमोह, राजनारायण बोहरे-दतिया, असद अंसारी-मंदसौर, पंकज दीक्षित- अशोकनगर, उत्पल बनर्जी-इंदौर, ब्रजेश कानूनगो-इंदौर-प्राची से मानद सदस्य, प्रज्ञा रावत-भोपाल, मुकेश बिजौले-विशेष आमंत्रित, ओम भारती-भोपाल, प्रेमशंकर रघुवंशी-हरदा, नीहार स्नातक-कोतमा, गोविंद श्रीवास्तव-अनूपपुर, मुन्नालाल मिश्र-टीकमगढ़, जाहिद खान-शिवपुरी, ब्रज श्रीवास्तव-विदिशा, रामनारायण सिंह राना-सतना, अरविंद मिश्र-भोपाल, सारिका श्रीवास्तव-इंदौर, अशोक दुबे-इंदौर, अरुण पाण्डे-जबलपुर, दीपा भट्ट-सागर, अनिल करमेले-भोपाल, महेश कटारे ‘सुगम’-बीना, दिनेश साहू-सागर, एल. एन. भट्ट-सागर, आशीष पाठक-जबलपुर, सचिन श्रीवास्तव-भोपाल, शिवेन्द्र शुक्ला-छतरपुर इप्टा से मानद सदस्य
कार्यकारी दल: विनीत तिवारी, राजेंद्र शर्मा, कुमार अंबुज, सत्येंद्र रघुवंशी, हरिओम राजोरिया, शैलेन्द्र शैली, तरुण गुहा नियोगी, महेंद्र सिंह, अभय नेमा, ओमप्रकाश शर्मा, सुसंस्कृति परिहार, हरनाम सिंह
(छूटी हुई इकाइयों में से उनके द्वारा प्रस्तावित नाम के आधार पर प्रति इकाई एक सदस्य कार्यकारिणी में लिया जाएगा।)
रिपोर्ट संकलन:
सीमा राजोरिया 09893723662,
सचिन श्रीवास्तव 09690020518,
अभिषेक तिवारी 09993656088
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