- ओम थानवी
फ़िरोज़शाह कोटला के खंडहरों में भानु भारती के निर्देशन में खेला गया गिरीश कर्नाड का नाटक 'तुग़लक़' देखा। यही नाटक भारती के गुरु इब्राहीम अलकाज़ी ने कोई चार दशक पहले साल पहले पुराना क़िला में खेला था। अलकाज़ी के मंचन में लरज़ती आवाज़ वाले कद्दावर अभिनेता मनोहर सिंह तुग़लक़ की भूमिका में थे। उनके साथ पंकज कपूर, सुरेखा सीकरी, राजेश विवेक और भानु भारती सहित कई और ऐसे कलाकार थे जो तब दीक्षा के दौर में थे, आज प्रसिद्धि के मुक़ाम पर हैं।
मैं उन ख़ुशनसीब लोगों में हूँ जिन्होंने दोनों मंचन देखे। हालांकि मुझसे ख़ुशनसीब वे हैं जिन्होंने ओम शिवपुरी को 'तुग़लक़' के रूप में देखा और ख़ूब सराहा। मैंने ओम जी को फ़िल्मों में ही देखा और ख़ूब निराश हुआ। बहरहाल, मनोहर सिंह के अभिनय से तो मैं इतना अभिभूत हुआ था कि उनके कई संवाद मुझे उनके अंदाज़ में सदा के लिए कंठस्थ हो गए; भानु भारती के मंचन में कल मैं उन्हें नए 'तुग़लक़' यशपाल शर्मा के साथ बुदबुदाता जाता था। अब यह ज़रूर लगा कि अलकाज़ी के मंचन में मनोहर सिंह का 'तुग़लक़' अति-नाटकीय था; एक कुंठित सुलतान के क़द से बहुत बाहर आता हुआ। यशपाल शर्मा सहज और अधिक विश्वसनीय चरित्र जान पड़े। यों दोनों की तुलना करना दोनों के साथ ज़्यादती होगा। भावों की फ़ौरी तब्दीलियों और संवादों के उतार-चढ़ाव में मनोहर सिंह बेजोड़ थे। पर फिर भी वे हर क़दम पर मनोहर सिंह थे; जबकि कल कई दर्शकों ने यह शायद ही पहचाना होगा कि वही यशपाल हैं जिनको अभी 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' या पहले 'हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी' या 'लगान' आदि दर्ज़नों फ़िल्मों में देखा होगा।
बहरहाल, अलकाज़ी रंगमंच के देवता थे। उनकी हर प्रस्तुति एक मानक होती थी। 'तुग़लक़' भी थी। उसे छूना न किसी का मक़सद हो सकता है, न संभव है। मैंने कल की प्रस्तुति को उनके एक शिष्य की ओर से कृतज्ञता-ज्ञापन के रूप में ही देखा। यही उसका हासिल था। उसकी ख़ासियत यह लगी कि कुछ अलग करके दिखाने की चाह थी, जिसमें भानु निश्चय ही सफल रहे।
एक और बात अच्छी यह रही कि दर्शक बड़ी तादाद में थे। हालांकि सरकार का पैसा प्रस्तुति में था और कोई टिकट भी नहीं था (इसलिए भी पासों की मारामारी थी!) तो कई अफ़सर-नेता परिवार-मित्रों सहित पिकनिक की तरह भी आए होंगे। मेरा सोचना है कि नाटक की प्रतिष्ठा बढ़ानी है तो लोगों में टिकट ख़रीद कर नाटक देखने की आदत डालनी चाहिए। हमारे यहाँ सौ-डेढ़ सौ रुपये सिनेमा के लिए देने वाले नाटक के लिए अंटी ढीली करना कब सीखेंगे? और हाँ, दिल्ली सरकार की शिक्षा मंत्राणी किरण वालिया खंडहर में मंच के दरवाज़े पर ही अपनी गाड़ी ले आई थीं। नाटक के प्रति ऐसा मूर्खतापूर्ण लगाव तिरस्कार ही नहीं, भर्त्सना के क़ाबिल भी है।
(लेखक जनसत्ता के संपादक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। टिप्पणी व तस्वीर फेसबुक से साभार।)
फ़िरोज़शाह कोटला के खंडहरों में भानु भारती के निर्देशन में खेला गया गिरीश कर्नाड का नाटक 'तुग़लक़' देखा। यही नाटक भारती के गुरु इब्राहीम अलकाज़ी ने कोई चार दशक पहले साल पहले पुराना क़िला में खेला था। अलकाज़ी के मंचन में लरज़ती आवाज़ वाले कद्दावर अभिनेता मनोहर सिंह तुग़लक़ की भूमिका में थे। उनके साथ पंकज कपूर, सुरेखा सीकरी, राजेश विवेक और भानु भारती सहित कई और ऐसे कलाकार थे जो तब दीक्षा के दौर में थे, आज प्रसिद्धि के मुक़ाम पर हैं।
मैं उन ख़ुशनसीब लोगों में हूँ जिन्होंने दोनों मंचन देखे। हालांकि मुझसे ख़ुशनसीब वे हैं जिन्होंने ओम शिवपुरी को 'तुग़लक़' के रूप में देखा और ख़ूब सराहा। मैंने ओम जी को फ़िल्मों में ही देखा और ख़ूब निराश हुआ। बहरहाल, मनोहर सिंह के अभिनय से तो मैं इतना अभिभूत हुआ था कि उनके कई संवाद मुझे उनके अंदाज़ में सदा के लिए कंठस्थ हो गए; भानु भारती के मंचन में कल मैं उन्हें नए 'तुग़लक़' यशपाल शर्मा के साथ बुदबुदाता जाता था। अब यह ज़रूर लगा कि अलकाज़ी के मंचन में मनोहर सिंह का 'तुग़लक़' अति-नाटकीय था; एक कुंठित सुलतान के क़द से बहुत बाहर आता हुआ। यशपाल शर्मा सहज और अधिक विश्वसनीय चरित्र जान पड़े। यों दोनों की तुलना करना दोनों के साथ ज़्यादती होगा। भावों की फ़ौरी तब्दीलियों और संवादों के उतार-चढ़ाव में मनोहर सिंह बेजोड़ थे। पर फिर भी वे हर क़दम पर मनोहर सिंह थे; जबकि कल कई दर्शकों ने यह शायद ही पहचाना होगा कि वही यशपाल हैं जिनको अभी 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' या पहले 'हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी' या 'लगान' आदि दर्ज़नों फ़िल्मों में देखा होगा।
बहरहाल, अलकाज़ी रंगमंच के देवता थे। उनकी हर प्रस्तुति एक मानक होती थी। 'तुग़लक़' भी थी। उसे छूना न किसी का मक़सद हो सकता है, न संभव है। मैंने कल की प्रस्तुति को उनके एक शिष्य की ओर से कृतज्ञता-ज्ञापन के रूप में ही देखा। यही उसका हासिल था। उसकी ख़ासियत यह लगी कि कुछ अलग करके दिखाने की चाह थी, जिसमें भानु निश्चय ही सफल रहे।
एक और बात अच्छी यह रही कि दर्शक बड़ी तादाद में थे। हालांकि सरकार का पैसा प्रस्तुति में था और कोई टिकट भी नहीं था (इसलिए भी पासों की मारामारी थी!) तो कई अफ़सर-नेता परिवार-मित्रों सहित पिकनिक की तरह भी आए होंगे। मेरा सोचना है कि नाटक की प्रतिष्ठा बढ़ानी है तो लोगों में टिकट ख़रीद कर नाटक देखने की आदत डालनी चाहिए। हमारे यहाँ सौ-डेढ़ सौ रुपये सिनेमा के लिए देने वाले नाटक के लिए अंटी ढीली करना कब सीखेंगे? और हाँ, दिल्ली सरकार की शिक्षा मंत्राणी किरण वालिया खंडहर में मंच के दरवाज़े पर ही अपनी गाड़ी ले आई थीं। नाटक के प्रति ऐसा मूर्खतापूर्ण लगाव तिरस्कार ही नहीं, भर्त्सना के क़ाबिल भी है।
(लेखक जनसत्ता के संपादक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। टिप्पणी व तस्वीर फेसबुक से साभार।)
एक और बात अच्छी यह रही कि दर्शक बड़ी तादाद में थे। हालांकि सरकार का पैसा प्रस्तुति में था और कोई टिकट भी नहीं था (इसलिए भी पासों की मारामारी थी!) तो कई अफ़सर-नेता परिवार-मित्रों सहित पिकनिक की तरह भी आए होंगे। मेरा सोचना है कि नाटक की प्रतिष्ठा बढ़ानी है तो लोगों में टिकट ख़रीद कर नाटक देखने की आदत डालनी चाहिए। हमारे यहाँ सौ-डेढ़ सौ रुपये सिनेमा के लिए देने वाले नाटक के लिए अंटी ढीली करना कब सीखेंगे? और हाँ, दिल्ली सरकार की शिक्षा मंत्राणी किरण वालिया खंडहर में मंच के दरवाज़े पर ही अपनी गाड़ी ले आई थीं। नाटक के प्रति ऐसा मूर्खतापूर्ण लगाव तिरस्कार ही नहीं, भर्त्सना के क़ाबिल भी है।
(लेखक जनसत्ता के संपादक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। टिप्पणी व तस्वीर फेसबुक से साभार।)
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