Thursday, November 8, 2012

जन बचेगा तो जन-संस्कृति बचेगी


गोरखपुर। ‘आज के सांस्कृतिक संकट का सीधा संबंध अमेरिकी साम्राज्यवाद और उच्छशृंखल वित्तीय पूंजी से है। यह जो आवारा, लपंट और उच्छृंखल पूंजी है वह लोभ लालच, अवसरवाद, लूट, बर्बरता और उच्छृखलता की संस्कृति का प्रसार कर रही है। 70 के दशक से अमेरिकी साम्राज्यवादी अर्थनीति ने पूरी दुनिया पर कब्जे के जिस अभियान की शुरूआत की थी उसका 90 के दशक में डंकल और गैट व नई आर्थिक नीतियों के जरिए भारत पर भी जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। आर्थिक उदारीकरण दरअसल अमेरिकीकरण ही है जिसके साथ भारत के तमाम शासक वर्गीय पार्टियों की पूरी सहमति है। इस साठगांठ ने पूरे देश को बाजार में तब्दील कर दिया है।’

ये बातें गोरखपुर के विजेन्द्र अनिल सभागार (गोकुल अतिथि भवन) में 3 नवम्बर को आयोजित जन संस्कृति मंच के 13वें राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रसिद्ध आलोचक प्रो रविभूषण ने कही। ‘ साम्राज्यवाद और समकालीन सांस्कृतिक संकट’ जसम के सम्मेलन का केन्द्रीय थीम था। उद्घाटन सत्र में प्रो रविभूषण ने कहा कि पूंजी की जो संस्कृति है, वह श्रम से निर्मित जनता की सामूहिकता की संस्कृति को नष्ट कर रही है। साम्राज्यवादी पूंजी साम्प्रदायिकता को भी बढावा दे रही है। समाज और भाषा का व्याकरण बदल रही है। देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो रही है। ऐसे में संस्कृतिकर्मियों की सामाजिक-राजनीतिक जिम्मेवारी बढ गई है। संघर्ष, प्रतिरोध, सच और न्याय के लिए उन्हें साम्राज्यवाद और उनकी सहायक राजनीतिक शक्तियों के खिलाफ एकजुट होना पड़ेगा।

उदघाटन सत्र को सम्बोधित करते हुए वरिष्ठ कवि डा केदारनाथ सिंह ने याद दिलाया कि वे जसम के पहले राष्ट्रीय सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष थे और कवि गोरख पांडेय से उनके गहरे संबंध थे। डा. सिंह ने कहा जन संस्कृति मंच युवा रचनाकारों व संस्कृतिकर्मियों को सर्वाधिक आकर्षित कर रहा है जो इसकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है। उन्होंने तीनों वामपंथी लेखक संगठनों की एकता पर जोर देते हुए इसे साम्राज्यवाद से मुकाबले के लिए जरूरी बताया। जनभाषाओं पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि भाषा की मुक्ति जनमुक्ति की पहली शर्त है। प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव राजेन्द्र राजन ने लेखक संगठनों की एकता के साथ-साथ भारतीय भाषाओं की एकता की जरूरत पर बल दिया। आजादी के आंदोलन की क्रांतिकारी इतिहास को पुनर्जीवित करने तथा कलम की हिफाजत को देश की हिफाजत के लिए उन्होंने जरूरी बताया।

जलेस के प्रमोद कुमार ने अपने महासचिव मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और चंचल चैहान के संदेश का पाठ किया। इस संदेश में अंतराष्ट्रीय पूंजी के प्रभाव में विचार और संस्कृति के क्षेत्र में किए जाने वाले संगठित प्रयासों के नकार या निषेध की प्रवृत्ति के प्रति चिंता जाहिर करते हुए वाम संस्कृतिकर्मियों की एकजुटता को आज के वक्त की जरूरत के तौर पर चिन्हित किया गया। उदघाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रख्यात आलोचक प्रो मैनेजर पांडेय ने कहा कि साम्राज्यवाद केवल राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था ही नहीं एक विचार व्यवस्था भी है। वह गुलाम देशों की बुद्धिजीवियों और जनता की चेतना पर विजय पाना चाहता है। विचारधारा का अंत, मुक्ति के आख्यान का अंत, इतिहास का अंत, साहित्य का अंत, भूमण्डलीकरण, सभ्यताओं का संघर्ष आदि सभी सिद्धान्त अमेरिकी साम्राज्यवाद के हित में बनाए गए।

प्रो पांडेय ने कहा कि अमेरिकी साम्राज्यवाद से चिंतित होना चाहिए, पर भयभीत होने की जरूरत नहीं है। एक अकेले असांजे ने उसका पर्दाफाश कर दिया है। लैटिन अमेरिकी देशों ने उसके धौंस को धता बता दिया है। बेशक जब पूंजीवाद खतरे में होता है तो वह आक्रामक होता है। अमेरिका भी आक्रामक हुआ है, पर हर जगह उसे मुंह की खानी पड़ रही है। अमेरिकन साम्राज्यवाद एक डूबता हुआ जहाज है।
उन्होंने कहा कि संस्कृति हमारे लिए एक राजनीतिक प्रश्न है। जन संस्कृति तभी बचेगी जब जन बचेगा। मानव सभ्यता के इतिहास के किसी भी दौर में 3 लाख किसानों ने आत्महत्या नहीं की होगी जैसा आज अपने देश में हुआ है। इसलिए कला साहित्य संस्कृति के सवालों से भी ज्यादा जरूरी है

जनता के सवालों पर आंदोलन खड़ा करना। पूर्वी उत्तर प्रदेश में इंसेफेलाइटिस के सवाल पर संस्कृतिकर्मियों को आंदोलन की पहल करनी चाहिए। जनांदोलन जरूरी है, उसी से जन संस्कृति निकलेगी और जनता के लिए हितकर राजनीति भी। राजनीति को निराशाजनक मानकर उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। प्रो पांडेय ने कहा कि भारत में पूंजीवाद सामंतवाद के कंधे पर चढकर चल रहा है, इसलिए संस्कृतिकर्मियों को दोनों के खिलाफ संघर्ष करना होगा। सम्मेलन में स्वागत वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ कथाकार एवं आलोचक प्रो रामदेव शुक्ल ने कहा कि संस्कृति की जो अभिजात्य परिभाषा है, उसे बदलकर संस्कृति को जनता की संस्कृति के तौर पर स्थापित करने के लिए जसम संघर्ष कर रहा है। इसी के जरिए जन की तबाही को रोका जा सकता है।

सम्मेलन की शुरुआत पश्चिम बंगाल गण सांस्कृतिक परिषद के निताई दा द्वारा भगत सिंह पर प्रस्तुत गीत से हुई। उदघाटन सत्र में तीन पुस्तकों का लोकार्पण भी हुआ। रामनिहाल गुंजन द्वारा सम्पादित ‘विजेन्द्र अनिल होने का अर्थ ’ का लोकार्पण डा. केदारनाथ सिंह ने, अरविंद कुमार द्वारा सम्पादित ‘प्रेमचंद विविध प्रसंग’ का प्रो मैनेजर पांडेय ने तथा दीपक सिन्हा के नाटक ‘कृष्ण उवाच’ का लोकार्पण प्रो रविभूषण ने किया। उदघाटन सत्र का संचालन के.के.पांडेय ने किया। कवि सम्मेलन में तीन दर्जन से अधिक कवियों ने रचनाएं पढ़ीं। जनगीत और झारखंडी आदिवासी नृत्य भी प्रस्तुत किए गए।

सम्मेलन के पहले दिन शाम को सांस्कृतिक संध्या की शुरुआत पत्रकार-संस्कृतिकर्मी अनिल सिन्हा की स्मृति में बने मंच पर हिरावल के कलाकारों ने कवि शमशेर की ‘यह शाम है’ और दिनेश शुक्ल की जाग मछन्दर की संगीतबद्ध प्रस्तुति से हुई। इसके बाद झारखंड जन संस्कृति मंच के कलाकारों ने झूमर नृत्य और जनगीत पेश किया। कवि सम्मेलन में बल्ली सिंह चीमा, राजेन्द्र कुमार, अष्टभुजा शुक्ल, रमाशंकर विद्रोही, पंकज चतुर्वेदी, देवेन्द्र आर्य, रंजना जायसवाल, जितेन्द्र कुमार, उस्मान, शंभू बादल, बलराज पांडेय, चन्द्रेश्वर, कौशल किशोर, बलभद्र, सुमन कुमार सिंह, भगवान स्वरूप कटियार, प्रमोद कुमार, सुरेश चन्द्र, महेश अश्क, श्रीधर मिश्र समेत तीन दर्जन से अधिक कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया।

गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संरक्षक रहे प्रो रामकृष्ण मणि त्रिपाठी की स्मृति में सभागार के बाहर एक गैलरी बनाई गई थी जिसमें गोरखपुर फिल्म सोसाइटी, अलख कला समूह, लेनिन पुस्तक केन्द्र और समकालीन जनमत की ओर से बुक स्टाल लगाए गए थे। आयोजन स्थल पर तथा सभागार में संभावना कला मंच गाजीपुर के राजकुमार और उनके साथियों द्वारा भोजपुरी के महत्वपूर्ण कवियों की रचनाओं पर आधारित पोस्टर लगाए गए थे तो अर्जुन और राधिक द्वारा तैयार किए गए हिन्दी के कई महत्वपूर्ण कवियों के कविता पोस्ट सम्मेलन में आकर्षण का केन्द्र थे।

सांस्कृतिक चिंतन और व्यवहार में प्रतिरोधी विमर्श को विकसित करने पर जोर सम्मेलन के दूसरे दिन 4 नवम्बर की सुबह सांगठनिक सत्र की शुरूआत हिरावल द्वारा जमुई खां आजाद के गीत ‘बड़ी-बड़ी कोठिया सजाए पूंजीपतिया’ तथा रमाकांत द्विवेदी रमता के गीत ‘हमनी देशवा के नया रचवइया हईंजा’ के गायन से हुई। इसके बाद महासचिव प्रणय कृष्ण द्वारा साम्राज्यवाद और समकालीन सांस्कृतिक संकट पर पेश दस्तावेज चर्चा शुरु हुई। दस्तावेज में आज के दौर को विश्व पूंजी के साम्राज्यवादी प्रसार के सबसे आक्रामक, खतरनाक और मानवद्रोही दौर के तौर पर चिन्हित किया गया है। दस्तावेज के अनुसार देश की संसद पहले किसी दौर के मुकाबले आज कहीं ज्यादा साख खोती जा रही है। बड़े-बड़े फैसले संसद की अवहेलना कर सीधे साम्राज्यवाद और बड़ी पूंजी के दबाव में लिए जा रहे हैं।

अदालतों ने साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ फैसले देने से लगातार गुरेज किया है। दमन के नए-नए रूप विकसित हुए हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से पूंजी के साम्राज्यवादी अभियान ने मनुष्य की सोचने, जीने और साथ-साथ रहने की क्षमता को बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया है। मनुष्य को भीतर से पराजित, विभाजित और विघटित करना, कर्ता के भाव से उसे वंचित करना यह साम्राज्य की संस्कृति की पहचान है। खंड-खंड कर इकाइयों में तब्दील की जा रही व्यक्तिगत मनुष्यता को फिर से समूहबद्ध करना और संस्कृति के क्षेत्र में सामूहिकता के मूल्यों को प्रतिष्ठित करना अपने आप में एक प्रतिरोधात्मक कार्रवाई है।

सांस्कृतिक चिंतन और व्यवहार में प्रतिरोधी विमर्श को विकसित करने और साम्राज्यवाद के दौर में सांस्कृतिक चुनौतियों से जूझने के लिए संगठन के ढांचे और कामकाज के तरीकों के संदर्भ में सांगठनिक सत्र में प्रतिनिधियों ने अपने विचार रखे। दस्तावेज पर बहस में जितेन्द्र कुमार (आरा-बिहार) जेवियर कुजूर, एसके राय (झारखंड), जय प्रकाश, कैलाश, बनवासी (छत्तीसगढ़) कौशल किशोर, मदन मोहन, चन्द्रेश्वर, पंकज चतुर्वेदी (उत्तर प्रदेश), मुकुल सरल, कपिल शर्मा, रंजीत वर्मा (दिल्ली), दीपक सिन्हा, राकेश दिवाकर (बिहार) आदि ने हिस्सा लिया। सांगठनिक सत्र की अध्यक्षता प्रो मैनेजर पांडेय, प्रो राजेन्द्र कुमार, रामजी राय और रविभूषण ने की।

रामजी राय ने जसम के सम्मेलन में युवाओं की अच्छी-खासी मौजूदगी को सकारात्मक बताया और कहा कि संस्कृति मूल्यों और विचारों का क्षेत्र है। आज साम्राज्यवाद की विचार पद्धति और स्त्री विरोधी सामंती पितृसत्तात्मक मूल्यों के पुनरूत्थान के खिलाफ संघर्ष बेहद जरूरी है। नगराभिमुख संस्कृतिकर्म को गांवों की ओर ले जाने तथा प्रमुख सामाजिक प्रश्नों पर संस्कृतिकर्मियों की भूमिका बढ़ाने को उन्होंने साम्राज्यवाद के मुकाबले के लिए जरूरी बताया।

प्रो राजेन्द्र कुमार ने संस्कृतिकर्मियों के विचारधारात्मक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए कार्यशालाएं आयोजित करने का सुझाव दिया। प्रो. रविभूषण ने स्कूल कालेजों में जनसांस्कृतिक गतिविधियां बढ़ाने पर जोर दिया। प्रो मैनेजर पांडेय ने कहा कि जनता से गहरा सम्बन्ध बनाते हुए उसकी प्रगतिशीलता, अनुभव पर आधारित उसके यथार्थबोध को विकसित करना होगा। साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों को जनता से सीखने की भी आदत डालनी पड़ेगी। सांगठनिक सत्र में खाप पंचायतों के हिंसक रवैये, महिला हिंसा की बढ़ती घटनाओं के प्रति चिंता जाहिर की गई तथा स्त्रियों की सुरक्षा व सम्मान के लिए पूंजीवादी सामंतवादी मूल्यों के खिलाफ संघर्ष को जरूरी बताया गया।

कहानी, कविता, लोककला, जनभाषा और चित्रकला-मूर्तिकला के लिए केन्द्रीय निकाय जसम के सांगठनिक सत्र में कहानी, कविता, लोक कला, जनभाषा और चित्रकला-मूर्तिकला के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर विशेष समूह बनाए गए। इन विशेष समूहों के संयोजकों और प्रस्तावकों ने इन क्षेत्र में कामकाज के दृष्टिकोण से विजन डाक्यूमेंट प्रस्तुत किया। इसमें बताया गया है कि किस तरह सृजन के इन क्षेत्रों में वैचारिक-सांस्कृतिक धार को तेज किया जाए। इन प्रस्तावों को सुभाषचन्द्र कुशवाहा, आशुतोष कुमार, बलभद्र, अशोक भौमिक, विनीत, अंकुर और प्रज्ञा की ओर से तैयार किया गया था। सिनेमा के क्षेत्र में पहले से कार्य कर रहे विशेष समूह द ग्रुप के संयोजक संजय जोशी का भी विजन डाक्यूमेंट रखा गया, जिसमें प्रतिरोध के सिनेमा की सात वर्ष की यात्रा की उपलब्धियों की चर्चा की गई है और इस क्षेत्र में आने वाली चुनौतियों और आने वाले दिनों में कामकाज को और सुदृढ़ करने के बारे में रणनीति का ब्यौरा दिया गया है।

प्रो मैनेजर पांडेय ने साहित्य-कला की विधा में केन्द्रित कामकाज के लिए बनाए गए समूहों के निर्माण का स्वागत किया। उन्होंने पुनः जनता और जनांदोलनों से रचनाकारों के जुड़ाव को जरूरी बताते हुए याद दिलाया कि किस तरह अपने समय में नक्सलबाड़ी आंदोलन ने साहित्य को बदलकर रख दिया था। उन्होंने कहा कि लोकप्रियता यदि विचारहीनता पर आधारित हो तो खतरनाक होती है, लेकिन जन संस्कृतिकर्मियों को लोकप्रियता को एक मूल्य के रूप में स्थापित करना होगा।

-सुधीर सुमन /मनोज कुमार सिंह द्वारा जारी

यहां भी देखें : http://news.bhadas4media.com/index.php/dekhsunpadh/1812-2012-11-07-14-57-07

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