Tuesday, January 8, 2019

समकालीन कविता और कविता का रंगमंच


   
- शरद कोकास

     विता की सार्वजानिक प्रस्तुति हमारी परम्परा में शामिल है यदि हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो वैदिक काल में 'ऋषयो मंत्र दृष्टार: ' की अवधारणा में ऋषियों द्वारा मन्त्रों को देखे जाने का उल्लेख है श्रुति परंपरा में कविता का पाठ ऋषियों द्वारा अपने शिष्यों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता था जिसे वे इसी परंपरा में अपनी आनेवाली पीढ़ियों का सौंपते थे । संभवतः इस पाठ में अभिनय भी शामिल होता था जिसके प्रमाण हमें आगे चलकर इस विधा पर स्वतन्त्र रूप से लिखे गए नाट्य शास्त्र में मिलते हैं ।

      आदिमकाल में भाषा के अविर्भाव से पूर्व संकेत की भाषा विद्यमान थी भाषा के प्रवेश के पश्चात उसे चित्रात्मक लिपि में देखना प्रारंभ हुआ भाषा के प्रवेश के पश्चात जब काव्यकला का उद्भव हुआ तब भी कविता की प्रस्तुति में अंग संचालन और संकेतों का प्रभाव उपस्थित रहा प्रस्तुतकर्ता कविता का पाठ करते समय अंग संचालन एवं हाव-भाव द्वारा अपने लिखे शब्दों को दृश्यरूप प्रदान करता था कालांतर में इस एकल प्रस्तुति में कवि के अतिरिक्त अन्य लोगों का भी समावेश हुआ, भिन्न कविता पंक्तियों और वर्णित दृश्यों के अनुसार विभिन्न पात्रों की रचना की गई और मंच पर तदनुसार दृश्य उपस्थित किया गया

      इसी तारतम्य में लोक परम्परा का अवलोकन करते हुए हमें ज्ञात होता है कि आदिम मनुष्य के जीवन में भाषा के उद्भव के साथ जब जीवन के क्रियाकलापों को लेकर गीतों की रचना हुई तो उसने सर्वप्रथम श्रम के गीत रचे और शिकार, अन्न संग्रहण, पशुपालन एवं कृषि से सम्बंधित विभिन्न क्रियाकलापों को गीतों के माध्यम से प्रस्तुत किया । शिकार पा लेने की प्रसन्नता को वह नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करता था । हम अभी भी कुछ आदिवासी समाजों में यह परम्परा देखते हैं कि वे गीतों के माध्यम से शिकार और सम्बंधित क्रियाकलापों का साभिनय वर्णन प्रस्तुत करते हैं जिसमे एक व्यक्ति हिरण बनता है और एक शिकारी । उनकी वेशभूषा भी पात्र के अनुसार होती है जिसमे में सींग, खाल आदि धारण करते हैं इसी तरह कृषि सम्बंधित विभिन्न कार्यों को भी वे गीतों पर अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं जिसमें अनाज बोने से लेकर काटने, और उन्हें देवता को अर्पित किये जाने तक के दृश्य शामिल होते हैं ।

      नाट्यकला के उद्भव के पश्चात गध्य नाटकों के विकास से पूर्व काव्य नाटक ही मंच पर प्रस्तुत किये जाते थे । वाल्मीकि कृत महाकाव्य रामायण के मंचन से इस कला का प्रारम्भ हुआ जिसकी लोक में परिणति तुलसीदास की काव्य कृति रामचरित मानस की रामलीला मंचन के रूप में हुई । कृष्ण भक्ति पर आधारित रचनाओं का भी मंचन किया गया । यह परंपरा सर्वप्रथम उत्तर भारत में प्रारंभ हुई लेकिन दक्षिण भी इससे अछूता नहीं रहा और विभिन्न कलारूपों में इसकी प्रस्तुति होती रही । दक्षिण के लोक कवियों की प्रस्तुति तो पूर्व में ही होती रही । भव्य मंच और मंदिरों के प्रांगण इनके प्रस्तुति स्थल रहे ।

      कविता की लोक में प्रस्तुति के रूप में हम कालान्तर में आई नौटंकी विधा को भी रख सकते हैं जिसमे समस्त संवाद पद्यात्मक ही होते थे । सुल्ताना डाकू, गुलफ़ाम, अलिफ़ लैला जैसी नौटंकी में जहाँ शेरों शायरी में उर्दू, अरबी, फारसी का इस्तेमाल होता था वहीं आल्हा-उदल राजा हरिश्चंद्र जैसी नौटंकी में स्थानीय ब्रज, अवधि, भोजपुरी आदि भाषाओँ में लिखे छंदों का प्रयोग होता था । उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में पारसी नाटकों का भी अविर्भाव हुआ जो अनेक दशकों तक चलते रहे, इनमें भी शेरो शायरी का आधिक्य रहा और अभिनेता दर्शकों पर प्रभाव डालने के लिए ऊँचे स्वर में किसी कथा के साथ उन्हें प्रस्तुत करते रहे । कविता की मंच पर प्रस्तुति के सन्दर्भ में हम वैश्विक परिप्रेक्ष्य में यूनानी नाटकों की प्रस्तुति को देख सकते हैं जिनमे एक निश्चित संख्या में अभिनेता ऊँचे स्वर में कविता का गायन करते थे । पश्चिम में शेक्सपियर और मौलियर के युग में भी इस परंपरा का निर्वाह होता रहा ।

      हिंदी साहित्य में कविता के युग के आगमन के पश्चात भक्तिकाल, रीतिकाल से लेकर आधुनिक युग तक कविता अपने विभिन्न रूपों में आई । तत्पश्चात प्रगतिवाद, नई कविता जैसे आन्दोलन भी चले और यह सम्प्रति समकालीन कविता तक पहुंचे  । भक्तिकाल और रीति काल में कविताओं का मंचन नाट्य विधा का एक महत्वपूर्ण अंग था । मध्यकाल में जब अलग अलग बोलियों और भाषाओं में कविता रची जा रही थी लोक नाट्यों में भी वह उसी रूप में आई तथा संगीत इसका प्रमुख आलंबन रहा । अठारहवीं शताब्दी तक नाटक में कविता और संवाद का मिलाजुला रूप भी हम देख सकते हैं । आधुनिक काल तक आते आते नाट्य विधा का अपनी सम्पूर्णता में विकास हुआ और नाटक का मंच खड़ी बोली में लिखे जा रहे नाटकों से समृद्ध हुआ । उन्नीसवीं शताब्दी में गद्य नाटकों का लेखन प्रारम्भ हुआ जिसका विकास बीसवीं शताब्दी तक हुआ । यह माना जाने लगा कि कि नाटक के मंचन के लिए एक कहानी और गद्य में लिखे संवाद तथा उसमे बुने गए दृश्य ही पर्याप्त हैं यद्यपि संवादों में काव्यात्मकता का पुट भी शामिल रहा किन्तु उनका रूप कविता से भिन्न था । नाट्यलेखन का अपने आप में एक पूर्ण विधा के रूप में विकास हुआ और कवि, गीतकार, कथाकार की भांति नाटककार को भी साहित्य जगत में उचित स्थान प्राप्त हुआ ।

      इस तरह के नाट्य मंचन में सम्पूर्ण संवाद गद्य में ही होते थे । धीरे धीरे कविता इस मंच से निष्काषित होती गई । लोक नाट्यों के मंचन में भी कविता के स्थान पर गद्य के वाक्यों का प्रयोग होने लगा । आधुनिक काल में महाभारत महाकाव्य पर आधारित पंडवानी, लोक नाट्य नाचा, नौटंकी और रामलीला में भी कविता का यह हश्र हम देख सकते हैं । रामलीला में मानस के दोहे केवल पूरक के रूप में शेष रहे । विभिन्न मिथकों पर आधारित खड़ी बोली में लिखे नाटकों से तो कविता के संवाद पूरी तरह गायब हो गए, उदाहरण के रूप में महाभारत महाकाव्य पर आधारित अंधायुग के संवादों को देख सकते हैं । बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रारंभिक दौर में प्रयोगधर्मी नाटकों में यद्यपि गीतों का प्रयोग जारी रहा किन्तु उसका कारण उनकी गेयता और छंदबद्ध होना था समकालीन कविता मुक्तछंद होने के कारण रंगकर्मियों के लिए असाध्य ही रही

      लेकिन आज प्रसन्नता इस बात की है कि समकालीन कविता के शिल्प में अब पुनः मंच पर कविता की वापसी हो रही है । ऐसा भी नहीं है कि समकालीन कविता के प्रारंभिक दौर में इसके मंचन हेतु प्रयास नहीं किये गये लेकिन नाट्य विधा से जुड़े लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या इसके सम्प्रेषण की थी । नाटकों के मंचन में गद्य में लिखे संवादों की दर्शकों को इतनी आदत हो गई थी कि वे उसे कविता के रूप में ग्रहण करने में असमर्थ थे । दूसरी समस्या समकालीन कविता का छन्दबद्ध न होना, इसका शिल्प संवाद के रूप में न होना तथा बिम्ब एवं प्रतीकों का आधिक्य होना था । रंगकर्मियों के लिए भी यह समस्या थी, इसलिए कि संवादों से युक्त नाटक का मंचन और उस पर अभिनय उनकी आदत में शामिल हो चुका था यह दर्शकों को भी पसंद आने लगा था और निर्देशक नए प्रयोग नहीं करना चाहते थे । यद्यपि पूर्व समय में छंदबद्ध कविता में भी संवादों की और दृश्यों की उपस्थिति थी और उसका मंचन भी सरल नहीं था किन्तु अपनी गीतात्मकता और लयबद्धता के कारण वह दर्शकों तक पहुँचती रही । अलावा इसके एक प्रमुख कारण यह भी था कि गद्य नाट्यलेखन का एक स्वतन्त्र विधा के रूप में विकास हो रहा था और वह अपनी शैशवावस्था में था ।

      शनैः शनैः दृश्य परिवर्तन होता है और कुछ प्रयोगगामी निर्देशक कविताओं के मंचन हेतु अग्रसर होते हैं । आधुनिक कविता और नाट्य कला के विकास के साथ कुछ नाट्य निर्देशकों ने समकालीन कविता के मंचन में अनंत संभावनाएं देखीं और सम्प्रेषणीयता का जोखिम उठाते हुए भी कुछ महत्वपूर्ण कविताओं के मंचन का सिलसिला प्रारंभ किया । समकालीन कविता को लेकर सर्वप्रथम प्रयास मुक्तिबोध की कविताओं को लेकर प्रारंभ हुए । मुक्तिबोध की कविता का मंचन आसान नहीं था । मुक्तिबोध को एक जटिल कवि माना जाता है और हिंदी साहित्य के अच्छे अच्छे अध्येता भी उनकी कविताओं को समझ पाने में कठिनाई का अनुभव करते हैं । लेकिन मुक्तिबोध की कविताओं की एक विशेषता यह भी है कि उनकी कविताओं में दृश्यात्मकता प्रमुख है जो एक नाट्य निर्देशक के लिए बहुत महत्वपूर्ण बिंदु है । कठिनाइयाँ अवश्य थीं लेकिन ऐसा भी नहीं था कि मुक्तिबोध की कविता का मंचन नहीं किया जा सकता था । निर्देशकों ने उनकी समझ में आने वाली कुछ पंक्तियाँ चुनीं , उदाहरण के लिए कुछ पंक्तियाँ देखिये ।

ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया जीवन क्या जिया
उदरम्भरि बन अनात्म बन गए
भूतों की शादी में कनात से तन गये
किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर
बहुत बहुत ज़्यादा लिया
दिया बहुत कम
अरे ! मर गया देश जीवित रह गए तुम   

      लगभग आठवें दशक में मुक्तिबोध से ही कविता के मंचन की शुरुआत हुई । प्रसिद्ध रंग निर्देशक अलखनंदन, अरुण पाण्डेय तथा जयंत देशमुख ने मुक्तिबोध की कविताओं को दृश्य रूप में मंच पर उपस्थित किया । आलोचक जयप्रकाश बताते हैं कि सन उन्नीस सौ अस्सी में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा राजनांदगाँव में आयोजित 'मुक्तिबोध संगम' में रंग निर्देशक मुकेश शर्मा के निर्देशन में मुक्तिबोध की रचना ' ओरांग उटांग ' का प्रभावशाली मंचन किया गया । मुक्तिबोध की कविताओं में उनकी लम्बी कविता ' अँधेरे में ' इन नाट्य निर्देशकों का प्रिय विषय रही । मुक्तिबोध की कविताओं का रहस्यमय संसार, उसमे बुनी गई वह फैंटासी, उनकी कविता में उपस्थित वह लम्बा जुलूस, बूढ़ा तालाब, ब्रह्मराक्षस सब कुछ मंच पर साकार होता गया । उनकी कुछ पंक्तियाँ जैसे ' स्वार्थों के टैरियर कुत्ते पाल लिए  ' 'भावना के कर्तव्य त्याग दिए ' लोकहित पिता को घर से निकाल दिया ' जन मन करुणा सी माँ को हकाल दिया ' तर्कों के हाथ उखाड़ दिए ' अपने ही कीचड़ में धँस गए ' विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में ' ' आदर्श खा गए खेल ही खेल में ' जैसी पंक्तियाँ तो अब सत्ता को कोंचने के मुहावरे के नाम पर जन जन की ज़ुबान पर हैं ।

     
रंग निर्देशकों ने इन कविताओं की प्रस्तुति में प्रॉप, वेशभूषा, ध्वनि, प्रकाश और संगीत  के माध्यम से अनेक प्रयोग किये और मुक्तिबोध की कविता की फैंटेसी को मंच पर साकार किया । यद्यपि मुक्तिबोध की कविता में दृश्य परिवर्तन बहुत तेज़ी से होते है और दो पंक्तियों के बीच छुपे अर्थ को साकार करना बहुत कठिन कार्य होता है लेकिन रंगकर्मियों ने सायास इसे कर दिखाया है मुक्तिबोध की कविताओं के मंचन का यह सिलसिला अब तक चल रहा है । अस्सी के दशक के पश्चात तो देश की विभिन्न नाट्य संस्थाओं ने मुक्तिबोध की कविताओं का मंचन किया जिनमे मध्यप्रदेश की जबलपुर, रायपुर, भिलाई, राजनांदगाँव, डोंगरगढ़ सहित इप्टा की विभिन्न इकाइयां प्रमुख हैं । जबलपुर इप्टा ने अरुण पाण्डेय के निर्देशन में मुक्तिबोध की कविताओं पर 'तुम निर्भय ज्यों सूर्य गगन के ' की प्रस्तुति भोपाल में की । कुल्लू में मीनाल कल्चरल असोसिएशन द्वारा संगीत नाटक अकादमी के लिए मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' और विभिन्न कविताओं का मंचन किया गया । छत्तीसगढ़ में अग्रज नाट्य दल के सुनील चिपणे, रोहतक के जतन नाट्य मंच के अलावा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ की अनेक संस्थाओं द्वारा मुक्तिबोध का मंचन अब तक जारी है ।

       मुक्तिबोध के अलावा कई अन्य कवि भी रंग निर्देशकों के प्रिय कवि रहे । भोपाल के भारत भवन में रंग निर्देशक अलखनंदन ने श्रीकांत वर्मा के संकलन 'मगध' की कविताओं की प्रस्तुति की । जबलपुर इप्टा द्वारा अरुण पाण्डेय के निर्देशन में कवि ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं का 'भिनसार' नाम से मंचन हुआ । पहल सम्मान के अवसर पर नागपुर में कवि कथाकार उदय प्रकाश की कविताओं का 'ताना-बाना' शीर्षक से मंचन हुआ । 'विवेचना' द्वारा ही आलोक धन्वा को पहल सम्मान दिए जाने के अवसर पर दो हज़ार पाँच में उनकी कविताओं का मंचन भारतीय भाषा परिषद के सभागृह में कोलकाता में हुआ जिसमे देश के अनेक वरिष्ठ साहित्यकार उपस्थित रहे । इसी तरह भगवत रावत की कविताओं का मंचन 'शायद वह एक कवि था' के नाम से तथा सोमदत की कविता ' रेल बोगदे में ' का मंचन जबलपुर में किया गया ।

      अभी हाल फ़िलहाल रंग निर्देशक राजकमल नायक द्वारा रायपुर में  ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं का मंचन ' गंगातट ' शीर्षक से किया गया है । रायपुर इप्टा के मिन्हाज़ असद ने 'चकमक की चिंगारी ' शीर्षक से मुक्तिबोध की कविताओं की संगीतमय प्रस्तुति की जिसमे संगीत पक्ष रंग निर्देशक आबिद अली का था । जबलपुर इप्टा द्वारा गुलज़ार की कविताओं का मंचन ' रेशम का यह शायर ' नाम से भी किया गया । रंग निर्देशक अरुण पाण्डेय ने रघुवीर सहाय की कविताओं को भी मंच पर प्रस्तुत किया । मानव कौल द्वारा काफी पहले गोरख पाण्डेय की कविताओं का मंचन किया गया था इसके अलावा भी अनेक लोगों ने कविताओं का मंचन किया है जिनमे मनोज नायर, सौरभ अनंत, संजय मेहता आदि हैं । मनोज नायर ने कवि संतोष चौबे की कविताओं का मंचन किया है । कवि विनोद दास बताते हैं कि लखनऊ इप्टा द्वारा राकेश जी के निर्देशन में मुक्तिबोध,रघुवीर सहाय, लीलाधर जगूड़ी,राजेश शर्मा और विनोद दास की कविताओं का मंचन किया गया ।  

      इप्टा लखनऊ ने समकालीन कविता के मंचन की दिशा में अनेक प्रयोग किये हैं युवा रंगकर्मी और संगीतकार रवि नागर ने अनेक कवियों की कविताओं का चयन किया और इप्टा लखनऊ के स्वर्ण जयंती समारोह के अंतर्गत इनकी प्रस्तुति दी इनमे रघुवीर सहाय की चर्चित कविता 'अधिनायक' भी है जिसकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं 'राष्ट्रगीत में कौन भला वह भारत भाग्य विधाता है , फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है ।' इसके अलावा कुँवर नारायण की कविता ' टूटे हुए खंजर की मूठ' , लीलाधर जगूड़ी की कविता 'पाटा' , त्रिलोचन की कविता 'परिवर्तन'  केदारनाथ अग्रवाल की प्रसिद्ध कविता ' एक हथौड़े वाला घर में और हुआ ' शमशेर बहादुर सिंह की कविता ' प्रातः नभ था बहुत नीला ' और कैफ़ी आज़मी की नज़्म की भी संगीतमय प्रस्तुति की गई रवि नागर द्वारा कवि राजेश शर्मा की कविताओं की भी प्रस्तुति इनमे शामिल है  

      समकालीन कविता का मंचन अब रंग निर्देशकों का प्रिय विषय है और जिसमे अब अनेक नए नए नाम सामने आ रहे हैं जिनमे इप्टा रायपुर के निसार अली जिन्होंने ब्रह्मराक्षस कहानी व कविता का मंचन किया तथा मिन्हाज़ असद, दिनेश चौधरी जैसे नाम हैं । इसके अलावा अब अनेक युवा कवियों की कविताओं का मंचन भी विभिन्न रंग निर्देशकों द्वारा किया जा रहा है विगत दिनों महाराष्ट्र मंडल रायपुर द्वारा आचार्य रंजन मोड़क  के निर्देशन में लम्बी कविता 'पुरातत्ववेत्ता' और 'देह' के कवि शरद कोकास की कविता 'तितलियाँ गुम  हैं' का मंचन किया गया इसके अलावा युवतर कवि  पूर्णाक्षी साहू, आमना मीर , शिज्जू ठाकुर, मिताली , कल्पेश पटेल और सुजश शर्मा की कविताओं को लेकर एक कोलाज  'अंतर्द्वंद्व ' शीर्षक से प्रस्तुत किया गया । उसी तरह धमतरी में कवि विजय पंजवानी और त्रिलोक महावर की कविताओं का मंचन किया गया । युवा रंगकर्मी सिग्मा उपाध्याय ने हाल ही में नाज़िम हिकमत और कुँवर नारायण की कविताओं को लेकर एक प्रस्तुति भिलाई में दी है

      इसी तारतम्य में इलाहाबाद की नाट्य संस्था बैक स्टेज द्वारा प्रवीण शेखर के निर्देशन में वामिक जौनपुरी की कविता 'नीला परचम', राही मासूम रज़ा की 'बावन साल पुरानी आँखें ' भवानी प्रसाद मिश्र की रचना 'गीत फ़रोश', आदम गोंडवी की रचना 'चमारों की गली', तथा धर्मवीर भारती की रचना 'मुनादी' का मंचन किया गया । प्रवीण शेखर ने इसके अलावा इमन्यूएल आर्तेज की प्रसिद्ध कविता 'एक मिनट का मौन' तथा पोलैंड की कवयित्री क्रिस्टीना रोजीटी की कविता 'गोब्लिन मार्केट' को 'माया बाज़ार' के नाम से मंचित किया ।      

      मंच पर कविताओं की प्रस्तुति के अलावा इन दिनों नाट्य समीक्षकों द्वारा कविताओं के मंचन का दर्शकों पर प्रभाव का भी आकलन किया जा रहा है । सामान्यतः दर्शकों का परिचय कवि के नाम से होता है लेकिन उनकी कविताएँ उन्होंने पढ़ी नहीं होती । कविताओं के नाम पर उन्होंने हास्य व्यंग्य के मंच पर और चैनलों में प्रस्तुत कविताएँ ही सुनी होती हैं किन्तु गंभीर कविताओं से मंच पर जब उनका साक्षात्कार होता है तो वे इसका स्वागत करते हैं और इसे बहुत गंभीरता से लेते हैं । आश्चर्य यही है कि मुक्तिबोध जैसे कवि की गंभीर कविताएँ सबसे अधिक सराही गईं । यह अलग बात है कि इप्टा के द्वारा किये जा रहे कविता के मंचन में सामान्यतः बुद्धिजीवियों और रंगकर्म से जुड़े लोगों की संख्या अधिक होती है किन्तु इसके अलावा दर्शकों में जन आन्दोलनों से जुड़े लोग तथा मजदूर वर्ग के भी अनेक लोग होते हैं जिनकी साहित्य की समझ पर संदेह नहीं किया जा सकता । इप्टा द्वारा अब कविताओं को अभिनय के माध्यम से सडकों और चौराहों पर भी प्रस्तुत किया जा रहा है जिनका दर्शक आम व्यक्ति है

      वर्तमान में समकालीन कविता के मंचन को लेकर रंग निर्देशकों द्वारा विभिन्न प्रयोग जारी हैं । इन निर्देशकों द्वारा बहुत अध्ययन के पश्चात कविताएँ चुनी जाती हैं । समकालीन कविता के अंतर्गत अधिकाँश रूप से प्रगतिशील और जनवादी कवियों की कविता का चयन किया जाता है साथ ही कविता में विजुअल्स की संभावना को ध्यान में रखा जाता है । यदि सम्पूर्ण कविता का मंचन संभव न हो तो कविता के किसी एक अंश का चयन किया जाता है । यद्यपि सम्पूर्ण गद्य नाटक में बीच बीच में कविताओं के प्रयोग का चलन तो काफी समय से है और इसकी सराहना भी दर्शकों द्वारा की जाती रही है लेकिन सम्पूर्ण कविता की काव्य पंक्तियों पर अभिनय के साथ प्रस्तुति उल्लेखनीय है ।  गद्य नाटक में बीच बीच में कविताओं की प्रस्तुति के विषय में रंग निर्देशक निसार अली ने ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा है कि "यह दुःख का विषय है कि अनेक बार मंचन के समय ऐसे कवियों का उल्लेख भी नहीं किया जाता न ब्रोशर में उनका नाम होता है बल्कि यह कविताएँ एक फिलर के रूप में उपयोग में लाई जाती हैं ।" बहरहाल यह सम्पूर्ण कविता के मंचन से अलग विषय है ।

      सम्पूर्ण कविता की नाट्य रूप में प्रस्तुति निर्देशक की सूझ बूझ और कलाकारों के अभिनय से ही सफल हो सकती है । इसके लिए निर्देशक की कविता की समझ भी बहुत मायने रखती है । निर्देशक कवि के लिखे को एक्सप्लोर करता है, कविता में उपस्थित बिम्ब और प्रतीकों को दृश्य रूप प्रदान करता है तथा उसमे निहित कथ्य और विचार को दर्शकों तक संप्रेषित करता है । वस्तुतः यह जोख़िम भरा कार्य है और ज़रा सी नासमझी से अर्थ का अनर्थ हो सकता है । ध्यातव्य है कि कविता की नाट्य रूप में प्रस्तुति का उद्देश्य सामान्य मनोरंजन से अलग है और दर्शकों पर इसका एक अलग प्रभाव होता है । सामान्य रूप से पाठ करने पर अथवा श्रवण मात्र से कविता का जो भाव व्यक्त नहीं होता है वह दृश्य, अभिनय, ध्वनि और पाठ की विविधता आदि के माध्यम से सरलता से व्यक्त हो जाता है और जन जन तक संप्रेषित होता है । बावज़ूद इसके समकालीन कविताओं के मंचन की यह विधा अभी लोकप्रिय विधा नहीं बन पाई है । अनेक कवियों की कविताओं का मंचन करने वाले रंग निर्देशक अरुण पाण्डेय का कहना है कि "कविताओं का मंचन बहुत श्रमसाध्य कार्य है । दुःख की बात है कि नाटकों की तरह अनेक बार इनका मंचन संभव नहीं होता और श्रम व्यर्थ हो जाता है ।" उनके द्वारा प्रस्तुत की गई कविताओं में केवल उदय प्रकाश, आलोक धन्वा और गुलज़ार की कविताएँ ही दोबारा प्रस्तुत की गईं, शेष कवियों की कविताओं का मंचन केवल एक बार ही हुआ । लेकिन राकेश जी इस स्थिति को लेकर निराश नहीं हैं उनका कहना है कि कविता की नाट्यरूप में प्रस्तुति ही क्या बल्कि कई बार एक नाटक का भी दूसरी बार मंचन संभव नहीं हो पाता

      बहरहाल, हम उम्मीद करते हैं कि समकालीन कविताओं के मंचन की यह अल्पजीविता कभी न कभी विराम लेगी और रंगमंच के इस नवीन और अभिनव प्रयोग की ओर दर्शकों का ध्यान आकृष्ट होगा । केवल बुद्धिजीवी ही नहीं अपितु सामान्य दर्शक भी कविता के मंचन की गंभीरता को समझेंगे और रंग निर्देशकों तथा रंग कर्मियों का उत्साह वर्धन करेंगे । कविताओं के मंचन से आम दर्शकों और जनसामान्य की साहित्य के प्रति रूचि भी जागृत होगी । यही नहीं युवा रंगकर्मी भी परम्परा से अलग हटकर की जाने वाली इन प्रस्तुतियों के माध्यम से साहित्य और कला के सामाजिक सरोकारों से परिचय प्राप्त करेंगे और कला के संसार में वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ संस्कारित होंगे । इन युवाओं का नाटक के अलावा साहित्य की अन्य विधाओं कविता, कहानी आदि से भी परिचय होगा और वे आगे चलकर कला के एक सिपाही के रूप में भविष्य के संसार में सम्भावनाओं की तलाश करेंगे ।

-शरद कोकास
स्ट्रीट 7 ज़ोन 3
न्यू आदर्श नगर
दुर्ग छत्तीसगढ़
491001
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Friday, January 4, 2019

रंगकर्म की निरंतरता ही उसे बचा सकती है

तिहासिक नाटक ‘दुर्गा’ के एक प्रभावशाली दृश्य में सम्राट अकबर गोंड रानी दुर्गावती को भेंट में एक चरखा भिजवाते हैं। संकेत और संदेश यह कि राज-काज महिलाओं का काम नहीं है, कपड़े-वगैरह बूनो और घर का काम-काज संभालो। तब सम्राट अकबर ने कहाँ सोचा होगा कि वे प्रतीक के तौर पर जिस चरखे का इस्तेमाल सामा्रज्य के विस्तार के लिए कर रहे हैं, वही चरखा आगे चलकर गांधी नामक एक शख्स के हाथों साम्राज्यवाद के विस्तार के विरोध प्रतीक बन जाएगा। प्रतीकों-बिम्बों के मायने और उनकी अवधारणा कालखण्ड के हिसाब से बदलती रहती है। इसलिए एक ऐसे रंगचिंतक को, जिसकी आवाजाही ‘लोक’ और ‘आधुनिक’ के बीच लगातार बनी हुई हो, अपने हुनर को पतली रस्सी में चलने की तरह साधना होता है। बुंदेलखण्डी लोक-कला के तत्वों को अपने आदिम रंगो-बू के साथ सहेज कर उन्हें आधुनिक नाटकों में बरतने का हुनर अरूण पाण्डेय के यहाँ वैसा ही दिखाई पड़ता है, जैसा हबीब तनवीर के नाटकों में छत्तीसगढ़ी का। बनारस की रामलीला में सीता का कोमल अभिनय करने वांले अरूण पाण्डेय जब जबलपुर में हरिशंकर परसाई और अलखनंदन के संपर्क में आते हैं, तो उन्हें यथार्थ के खुरदुरेपन का एहसास होता है और वे, बकौल उनके, उदयप्रकाश के दिनेश मनोहर वाकणकर की तरह खुद को जीवन की प्रयोगशाला बनने से बच-बचाकर एक लंबी रंग-यात्रा में निकल चुके होते हैं। संभवतः वे हिंदी के अकेले ऐसे नाटककार हैं, जिनके रंगमंडल ‘विवेचना’ के पास कोई पचास से भी ज्यादा नाटक हमेशा प्रदर्शन के लिए तैयार होते हैं। ‘दुनिया इन दिनों’ के लिए अरूण पाण्डेय से हुई लंबी बातचीत के संपादित अंश इस प्रकार हैंः 

रंगकर्म के अपने शुरूआती दिनों को आप किस तरह याद करते हैं?
व्यावसायिक तौर पर कहें तो रंगकर्म की शुरूआत जबलपुर से ही हुई। पर यहाँ मेरे साथ शुरू में कुछ वैसा ही अनुभव हुआ, जैसा मुंबई में उत्तर-भारतीयों के साथ होता है। मैं बनारस से यहाँ आया था। मुझे ‘आउट साइडर’ माना गया। तो जब आपको इस तरह की भावना के साथ इग्नोर किया जाए तब आपके ज्यादा ऊर्जा के साथ, ज्यादा क्षमताओं के साथ, ज्यादा रचनात्मकता और कलात्मकता के साथ अपने आपको साबित करके दिखाना होता है कि ‘प्रभु! हम खारिज कर दिए जाने लायक नहीं हैं!’ रंग-संस्कार लेकिन बनारस में ही पड़ गए थे। मेरी पढ़ाई भारतेंदु हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज में हुई। वहाँ हर साल भारतेंदु जयंती पर हरेक क्लास के हरेक सेक्शन को एक नाटक करना पड़ता था। यह अनिवार्य था। वहाँ एक गुलाबराय जी हुआ करते थे जो हरेक क्लास के मॉनिटर को बुलाकर भारतेेंदु समग्र से कोई एक आलेख थमा दिया करते थे। 4-5 दिनों का आयोजन हुआ करता था। छठी से लेकर इंटर कॉलेज तक यह सिलसिला चलता रहा तो नाटकों में रूचि स्वभाविक तौर पर पैदा हो गयी थी। फिर एनएसडी से निकलने के बाद बी.वी. कारंथ ने अपनी पहली वर्कशाप सन् 1973 में बनारस में की तो स्थानीय कलाकारों की भीड़ में मैं भी शामिल हो गया था। कारंथ साहब ने तब ‘चंद्रगुप्त’ नाटक तैयार किया। यह बारहवीं की बात रही होगी। इसके बाद पिताजी के ट्रांसफर के कारण मुझे जबलपुर आना पड़ा। यहाँ एक दिन यूँ ही राह चलते हुए अलखनंदन जी से भेंट हो गयी। उन्होंने मुझे एकाध नाटक करते हुए देखा था, सो पूछ लिया कि क्या मैं नाटकों में काम करना चाहता हूँ? मैंने हामी भर दी तो कहा कि शाम को ज्ञानरंजन जी के घर पहुँच जाना। तब ज्ञान जी अग्रवाल कालोनी वांले मकान में अपने मुहल्ले में ही रहते थे। जब पहली बार वहाँ गया तो ‘विवेचना’ फजल ताबिश के नाटक ‘डरा हुआ आदमी’ पर काम कर रही थी। तपन बेनर्जी, सीताराम सोनी, राजकुमार कामले, अजय घोष, राजेेंद्र दानी, हिमांशु राय वगैरह से इसी दौरान मुलाकात हुई। फिर ‘बकरी’, ‘दुलारीबाई’, ‘अखाड़े से बाहर’ आदि नाटकों में काम करते हुए मैं अलखनंदन जी का दुलरूआ अभिनेता बन गया था। 
आगे चलकर सुबह-शाम अलखनंदन जी के सोहबत में गुजरने लगी थी और धीरे-धीरे वे मुझे निर्देशन के गुर भी सिखाने लगे थे। ‘अखाड़े से बाहर’ में काम करते हुए उन्होंने मुझे असिस्टेंट डायरेक्टर का जिम्मा सौंप दिया था। इसमें आलोक चटर्जी भी थे। आलोक को एक तरह से मैं ही लेकर आया था। मैंने उनकी क्रिकेट कॉमेंट्री सुनी थी जो बड़ी अद्भुत हुआ करती थी। कभी संजीव कुमार की आवाज में, कभी अमिताभ बच्चन की आवाज में तो कभी शशि कपूर की। कॉमेंट्री और मिमिक्री साथ-साथ चलती थी। आलोक के पास अद्भुत कला थी पर अलखनंदन जी उन पर ज्यादा भरोसा नहीं करते थे। उन्हें लगता था कि यह कभी भी फिल्मों में भाग जाएगा। इसलिए सहायक निर्देशन के साथ-साथ उन्होंने मुझसे यह भी कह रखा था कि जरूरत पड़ने पर मैं आलोक की भूमिका करने के लिये तैयार रहूँ। 1980 में भारत भवन का गठन हुआ। रंगमंडल बना। 
अलखनंदन के भारत भवन चले जाने से जबलपुर में सन्नाटा पसर गया। लोगों का एकत्र करने वाला कोई रह नहीं गया था। विवेचना में यह सवाल उठने लगा कि जब अलखनंदन नहीं है तो कौन नाटक करेगा-करायेगा? उस समय यों ही रंगकर्म की बहुत बुरी हालत थी। तब विेवेचना स्वतंत्र रंगमंडल नहीं था। इप्टा से तो यह 84 के सम्मेलन के बाद जुड़ा। असल में विवेचना की शुरूआत सन् 1961 में परसाई जी ने की थी। यहाँ एक उषा भार्गव कांड हुआ था। तरह तरह से अफवाहें फैलायी गयी थीं। कहा गया कि इलाहाबाद से हजारो-लाखों की तादाद में ‘विधर्मी’ आ गये हैं। मार-काट डालेंगे-वगैरह। तब परसाई जी जन-जागरण के लिये सांप्रदायिकता पर, बजट-आदि पर ‘विवेचना’ के नाम से सालाना गोष्ठियाँ किया करते थे। सन् 1975 में पहली बार अलखनंदन ने शशांक का लिखा हुआ नाटक ‘जैसे हम लोग’ तैयार किया। इसमें कुल 5 लोग थे। पहली बार मई दिवस के रोज फैक्ट्री के सामने और मालवीय चौक में इसका प्रदर्शन हुआ। फिर अलखनंदन ने ‘वेटिंग फॉर गोदो’, ‘बहुत बड़ा सवाल’ वगैरह किया। तो अलखनंदन के भारत भवन, भोपाल चले जाने पर उनकी जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई।

 हमारे यहाँ, खासतौर पर हिंदी पट्टी में, मध्यमवर्गीय परिवारों में नाटकों में काम करने को बहुत अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। आपके यहाँ यह कैसा रहा?
चूँकि हमारे यहाँ बनारस वाली पंरपरा रही है, तो यह नहीं हुआ। हमारे यहाँ रामलीला होती थी। अब रामलीला तो 15-20 दिनों में खत्म हो जाती थी पर उसका सारा साजो-सामान नाना के घर में रखा होता था। नाना का परिवार 5 भाइयों वाला था। पांच नानाओं में से एक डॉक्टर थे, एक मुनीम का काम करते थे और बाकी तीन कर्मकांडी थे। ये सभी अपने काम पर निकल जाते थे। संयुक्त परिवार था तो 60-65 लोगों का खाना बनना सामान्य बात थी, महिलाएं रसोई में व्यस्त हो जातीं। तो गर्मी की दोपहरी में हम सारे बच्चे ओवर साइज कपड़े पहनकर, गदा और मुकुट वगैरह लेकर रामलीला करते थे। जो देखा था उसे ही दोहराते या कभी कुछ इंप्रोवाइजेशन भी लाते। नाटक वाली यह परंपरा घर में थी ही, पर पिताजी इसे पसंद नहीं करते थे। वे चाहते थे कि ग्रेजुएशन कर मैं कोई नौकरी कर लूँ। यहाँ जबलपुर में ज्ञान जी ने ‘पहल’ का तेरहवा अंक निकाला था। मुझे भी एक प्रति दी। घर लेकर आया तो पिताजी ने कहा ‘अच्छा! तो तुम कम्युनिस्ट बन गये हो।’ वे एलआईसी के बड़े अधिकारी थे। उनके मातहत रहे अधिकारियों ना नाटक ‘डरा हुआ आदमी’ देख रखा था। उन्होंने मेरी प्रशंसा भी की तो धीरे-धीरे उनका सहयोग मिलता गया। 

 और बनारस की रामलीला के क्या अनुभव रहे?
वहाँ मैंने कोई 7-8 सालों तक काम किया। रामलीला तो नानाजी की ही थी। कभी भरत का रोल करता, कभी लक्ष्मण का तो कभी-कभी सीता की भी भूमिका की। हमारे साथ एक होरी यादव थे। वहाँ की गल्ला-मंडी में लोडिंग-अनलोडिंग का काम करते थे। कृष्ण वर्ण, बहुत बलिष्ठ और कोई 6 फीट से भी ज्यादा की ऊँचाई। मोहल्ले में हम लोग पतंगबाजी भी करते थे। पतंग काटकर मंजा के साथ उसे लूट लेने में बड़ा मजा आता था। मैंने होरी यादव की पतंग दो-तीन बार काट ली थी। शाम को बताया गया कि आज सीताहरण का दृश्य है और सीता की भूमिका मुझे करनी है। मैंने मेकअप वगैरह कर लिया। अभी तैयार हुआ ही था कि देखा कि रावण की भूमिका में सामने होरी यादव खड़ा है। अब मेरी हालत खराब! बनारस की रामलीला गाकर खेली जाती है, दोहे-चौपाई गाये जाते हैं। इधर मेरी रूलाई और हिचकी फूटती थी और उधर ‘रावण’ आकर कह जाता था, ‘आज तो गुरू, तोहे न छोडौं! आज हम बताई तोहें!’ तो इस तरह के ढेर सारे खट्टे-मीठे अनुभव वहाँ के रहे हैं। 

 परसाई जी की रचनाओं पर आधारित ‘निठल्ले की डायरी’ आपके सबसे चर्चित नाटकों में से एक है। इसका ख्याल किस तरह से आया?
नाटकों के समानांतर मेरी पत्रकारिता तो चल ही रही थी। सन् 80 में मैं हितवाद में आ चुका था। फिर ‘नई दुनिया’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘स्वतंत्र मत’ ‘भास्कर टीवी’ वगैरह में कोई 30-35 साल तक पत्रकारिता करता रहा और इसी सिलसिले में रायपुर, बिलासपुर, इंदौर वगैरह में रहना हुआ। ‘नई दुनिया’ वांले दिनों में अखबार में परसाई जी का कॉलम छपता था और वह बेहद लोकप्रिय था। तो मैंने खुद ही यह जिम्मेदारी ली कि उनके कॉलम में कभी कोई बाधा नहीं आए। परसाई जी के घर से सामग्री लाता, उसकी कंपोजिंग की जाती, प्रूफ की जाँच होती, छपाई से पहले उसे परसाई जी को दिखाता और उनकी अंतिम स्वीकृति के बाद ही सामग्री छपा करती थी। ये परसाई जी से सघन निकटता वाला दौर था, तो इसी दौरान एक बार मैंने उनसे कहा कि आप व्यंग्य इतना बढ़िया लिखते हैं तो नाटक क्यों नहीं लिखते? यह मेरे अपने मतलब की बात थी। उन्होंने कहा कि ‘नाटक बिल्कुल अलग विधा है, यह मुझसे सधता नहीं है।’ मैंने कहा कि ‘नाटक तो आप लिख ही रहे हैं! उसमें संवाद हैं, घटना है, कास्टयूम और प्रापर्टी भी आप बता ही देते हैं क्योंकि आपका ऑब्जर्वेशन बहुत बढ़िया है।’ परसाई जी ने कहा कि ‘नाटक ही लिखा है तो खेल डालो।’ तो उनकी रचनाओं से यहाँ-वहाँ से घटनाएँ और संवाद उठाकर ‘निठल्ले की डायरी’ का जो पहला ड्राफ्ट तैयार किया वह लगभग 8 घंटे की अवधि वाला था। इसे कसते-कसाते पहली प्रस्तुति हुई जिसमें ‘कक्काजी’ स्थिर चरित्र वांले थे और ‘निठल्ला’ चलायमान था। यही नाटक के सूत्रधार भी थे।

 इन मंचनों पर परसाई जी की क्या प्रतिक्रिया रही?
वे खुश थे पर मुझे लेकर चिंता व्यक्त करते थे। दरअसल तब मेरा कोई स्थायी ठौर-ठिकाना नहीं था। आज इस अखबार में तो कल उस अखबार में। परसाई जी ने डॉ. रामशंकर मिश्रा जी से कहा भी कि मुझे इस लड़के की बड़ी चिंता लगी रहती है। तब तक मेरा विवाह भी हो चुका था। डॉ. मिश्रा ने उन्हें आश्वस्त किया कि नहीं चिंता की कोई बात नहीं है। ‘लडके’ की माली हालत ठीक-ठाक चल रही है। 

 ‘इसुरी’ पर आधारित नाटक ने भी आपको बड़ी पहचान दी। इसका अनुभव कैसा रहा?
बुदेली कवि इसुरी को लेकर मैंने बड़ा शोध किया। उनके जन्म स्थान पर भी गया। नाटक लिखा। 30 लड़के जुटाए। नाटक के लड़के चूंकि शहर के थे तो उन्हें बुंदेलखण्डी सिखाई। इस बीच संगीत नाटक अकादमी का यंग डायरेक्टर्स प्रमोशन स्कीम भी आया। तब कारंत जी को यह काम बहुत पसंद आया। वे कमेटी में थे। 9 महीने हमने रिहर्सल की। बुदेंलखण्ड का कल्चर, यहाँ की भाषा,  यहाँ का नृत्य-संगीत, पहनावा-आदि को समझने की कोशिश की। लंबी रिहर्सल हुई जो टुकड़ों में चलती थी। फिर इसे जोड़ा तो वह कोई चार घंटों का बना। फिर मुश्किल से इसकी काट-छाँट कर अंतिम रूप दिया गया। शहडोल के बाणसागर में इसकी पहली प्रस्तुति हुई। कोई इंडोर स्टेडियम जैसा था। भीड़ खूब थी पर देखने वालों में नाटक के संस्कार नहीं थे। गाने और नृत्य आते तो झूमने लगते और संवादों पर हूट करने लगते। इसके बाद जयपुर से बुलावा आया। इस बीच एक अच्छा काम यह हुआ कि नाटक में काम करने वांले 30 लोगों में जबरदस्त आपसी समझदारी विकसित हुई। नाटक के एक-एक पहलू पर गौर किया गया। कास्ट्यूम भी खुद सिलकर तैयार किए। प्रापर्टी तैयार की। शो बहुत बढ़िया रहा पर यह भी कोई ढाई घंटों का था। बीच में एक अंतराल भी दिया गया। नाटक की आलोचना हुई तो बस इसी बात को लेकर, अन्यथा बाकी चीजों की खूब सराहना हुई। हमारे सामने संकट था कि किस हिस्से को रखें और किसे काटें। सभी दृश्यों पर खूब मेहनत की गयी थी, एक-एक चीज पर गहन चर्चा हुई थी। संगीत भी लाइव था। लोकवाद्यों में नगाड़े थे, अलगोजा था, मृदंग था, मोरचंग था। इनके लिए दूर-दराज के हल्कों से साजिन्दे जुटाए गए थे क्योंकि शहर में तो कोई था ही नहीं। कालिदास समारोह से लेकर इप्टा के राष्ट्रीय महोत्सव तक में इसके प्रदर्शन हुए। इस प्रस्तुति ने एक तरह से धूम मचा दी थी।

 कलाओं की विविध लोक-शैलियों को जिस तरह से शासकीय संरक्षण मिलता है, क्या वह इनमें प्रतिरोध के अभाव को दर्शाता है? क्या ‘लोक’ से व्यवस्थाओं को खतरा महसूस नहीं होता?
अगर ऐसा है तो कबीर क्या हैं? क्या उनमें प्रतिरोध का अभाव है? अगर आप बिरसा मुंडा को अपना विषय बनाते हैं तो उनके प्रतिरोध के बगैर आपकी बात पूरी हो सकेगी? दरअसल मामला यह है कि आप प्रस्तुति के लिए किन चीजों का चयन करते हैं। समझदार या चालाक कलाकार लोक-शैलियों से उन्हीं चीजों को उठाते हैं, जहाँ कोई खतरा महसूस न हो।  ‘इसुरी’ को ही ले लें। इनका वर्णन क्या कम श्रृंगारिक है? पर जब आप जरा गहरे जाकर पैठ करते हैं तो जबरदस्त प्रतिरोध के तत्व भी निकल कर सामने आते हैं। हमने इसी पर शोध किया कि किस तरह इसुरी अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के बीज बोते हैं। उन्होंने सिर्फ श्रृगांर नहीं रचा, विद्रोह को भी स्वर दिया। फिर इसुरी की प्रस्तुति को लेकर एक अन्य पहलू पर भी बात करें जो कि मैं समझता हूँ कि बहुत जरूरी है। बुंदेली शहरों में विस्मृत हो गयी थी। 78-79 तक ‘राई’ नृत्य शहरों में एक तरह से वर्जित-सा हो गया था। मैं इसुरी में तब की विख्यात कथक नृत्यांगना स्वाति मोदी को लेकर आया। उनके गुरू तालमणि भट्ट जी ने कहा कि यह नृत्य तो बेड़नियों द्वारा किया जाता है। वे वेश्याएँ होती हैं। अगर यह करना हो तो मैं तुम्हें नहीं सिखा पाऊँगा। लेकिन वे अडिग रहीं और शहरों में राई नृत्य को लेकर वर्जना टूटी। एक साथ कोई तीन-तीन सौ लड़कियों ने राई नृत्य किया और शहरी लड़कों में बुंदेली बोलने की हिचक कम हुई। तो समकालीन जनमानस और लोक के बीच में जो एक गहरी खाई आ चुकी थी उसे इसुरी ने पाटने का काम किया। यह भी एक तरह से अधकचरी शहरी मानसिकता के विरू़़द्ध प्रतिरोध को ही तो दर्शाता है।

 इसी क्रम में आपका नाटक ‘हंसा कर दे किलोल’ भी बड़ा लोकप्रिय रहा। इसकी पृष्ठभूमि क्या थी?
बुंदेला विद्रोह सन् 1857 से भी पहले हुआ था, 1824 के आस-पास, जिसमें मधुकर शाह और छत्रसाल वगैरह शामिल थे। इसमें एक बड़ी अद्भुत और रोचक घटना थी जो एक मृदंगिये के इर्द-गिर्द घूमती थी। इस मृदंग-वादक की एक प्रेयसी थी, जिसे वह जी-जान से चाहता था। वह राई नर्तकी है और एक तरह से मधुकर शाह की रखैल भी। मधुकर शाह के दरबार में उसका नृत्य चल रहा था और एक अंग्रेज अधिकारी, जो बतौर अतिथि दरबार में शामिल है, नर्तकी पर फिदा हो जाता है। अग्रेज मधुकर शाह से उसे अपने घर भेजने को कहता है पर मधुकर शाह साफ इंकार कर देते हैं। अंग्रेज नर्तकी का अपहरण कर लेते हैं और बलात्कार के बाद उसकी हत्या हो जाती है। इस घटना से मृदंगिये का खून खौल उठता है और वह कुल्हाड़ी लेकर अंग्रेजों की छावनी में पहुँच जाता है और एक साथ कई लोगों का काम तमाम कर देता है। गिरफ्तारी के बाद उसे फाँसी की सजा सुनाई जाती है। संयोग से जिस जेल में उसे रखा जाता है, उसके जेलर की पत्नी को बुंदेलखण्ड की कला व संस्कृति से बड़ा लगाव था। उसे पता था कि मृदंगिया बहुत ऊँचे दर्जे का कलाकार है। वह उसकी फाँसी की सजा रद्द करवाने के लिए लंदन की हुकुमत को खत भेजती है। अब यहाँ जो बात अनायास उभर कर सामने आती है वह यह है कि बुंदेलखण्ड का कल्चर बरतानिया के कल्चर से कितना आगे है। गौरतलब है कि यह शेक्सपियर और तुलसी का भी काल है जहाँ उनके सॉनेट के सामने अपनी चौपाई खड़ी नजर आती हैं। नाटक एक तरह से वर्चस्ववाद को चुनौती देता नजर आता है। बहरहाल, मृदंगिया बहुत पापुलर था और उसकी फाँसी का समय नजदीक आ गया। उससे उसकी आखिरी इच्छा पूछी गयी। मृदंगिये ने कहा कि वह मृदंग बजाना चाहता है और मृदंग बजाते हुए नाचना चाहता है, साथ के लिए दो बेड़नियाँ बुला दी जाएँ। इस बात के ऐलान पर समूचे बुंदेलखण्ड की बेड़नियाँ टूट पड़ती हैं। जितने गाने-बजाने वांले लोग थे, वे भी इकट्ठा हो गये। जेल में तिल धरने भर की जगह भी बाकी नहीं रही। उधर वह दल भी आ पहुँचा है, जिसे फाँसी मुआफी की मांग पर फैसला देना है। ‘‘हँसा कर ले किलोल, जाने कभेरे मर जाने’’ इस पंक्ति पर आखिरी नृत्य चल रहा है। यह हुकुमत की ताकत के आगे कला का प्रतिरोध है, जो हमारे ‘लोक’ की बड़ी शक्ति को रेखांकित करता है। 

 आखिर में यक्ष-प्रश्न यह कि क्या हिंदी पट्टी का रंगकर्म भाषायी थियेटर की तरह कभी व्यावसायिक नहीं हो पायेगा?
अब इसमें दो-तीन बातें हैं। पहली तो यह कि हिंदी पट्टी के रंगकर्म में, कारण चाहे जो हों, निरंतरता का अभाव रहा। सबसे ज्यादा विस्थापन के शिकार यहीं के लोग हुए। सुगम मैदानी क्षेत्र होने की वजह से कभी बाहरी हमलों के कारण, तो कभी मल्टीनेशनल की हवस के कारण तो कभी कथित रूप से ‘विकास’ के कारण। मिसाल के तौर पर म.प्र. के सीधी-सिंगरौली के पास कुछ परिवार आपको ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्होंने अपने जीवन-काल में पाँच-छः विस्थापन झेले। अब इनमें कोई लोक-कलाकार हो तो वह अपना काम कैसे जारी रख पायेगा? मान लें कि वह गवैया है तो उसका साजिंदा तो कहीं और चला गया है। दूसरे टेलीविजन के विस्तार ने ‘देखने’ का अभ्यास तो हमारे युवाओं को दिया पर इस ‘देखने’ का वक्त वही है, जिसमें हमारी रंगमंचीय गतिविधियाँ होती हैं। सारे पापुलर सीरियल इसी वक्त में आते हैं। पूँजी का बाजार उनके अपने कंटेंट के साथ हर कहीं सक्रिय है। इनसे विलग कर युवाओं को खींचना उस तरह संभव नहीं हो पाया, जैसा मराठी या बांग्ला थियेटर के साथ है। इनके साथ उनकी जातीय अस्मिता जुड़ी हुई है। वे अपनी जड़ों से गर्भ-नाल की तरह जुड़े रहे। दक्षिण हो या उत्तर-पूर्व के राज्य, यहाँ कलाएँ अपने उत्कृष्ट रूप में इसलिए भी बची रहीं क्योंकि बाहरी हमलों से सुरक्षित होने के कारण इन्हें स्थापित होने में पर्याप्त लंबी अवधि हासिल हो सकी। अगर आप धैर्य के साथ गुणवत्ता बनाए रखते हुए निरंतर रंगकर्म करते हैं तो कोई कारण नहीं कि यह अपने बूते खड़ा न हो सके।  

- दिनेश चौधरी