लखनऊ, 5 फ़रवरी। "सच को सच की तरह कहा जाना चाहिये और उसे सच की तरह ही सुना जाना चाहिए" किसी एक सभ्यता में किसी दूसरे सभ्यता के साझेपन से क्या बनता है और क्या नहीं बनता जब वो सभ्यता एकांगी होने लगती है किसी के होने का क्या फर्क पड़ता है ये उसके न होने से पता पड़ता है , देवी प्रसाद मिश्र की कविता" वे मुसलमान थे " का हिस्सा बनते हुए ये एहसास बहुत गहरे तक मन में समा गया कि अपनापा सिर्फ अपने लोग अपने रक्त अपनी जाति और अपने धर्म से पैदा नहीं होता। अपनापा अपने जैसा दर्द झेलते लोगों के बीच भी पैदा होता है और अपने लिए ही नही सबके लिए रचने का अनहद भाव भी तभी पैदा होता है जब सूरतें नहीं सीरतें भी मिलती हों ये महत्त्वपूर्ण नहीं कि सभ्यता किसने रची ये भी महत्वपूर्ण है कि वो क्यों रची गयी और उसका इस्तेमाल कैसे हो रहा है , इतिहास अगर आपको अपने अतीत के प्रति संवेदनशील नहीं बनाता तो वो इतिहास नहीं सिर्फ मिथक है चाहे वो परात्पर ईश्वर की ही रचना क्यों न हो। भारतेंदु कश्यप द्वारा निर्देशित " वे मुसलमान थे" का मंचन कल संगीत नाटक अकादमी के संत गाडगे सभागार में हुआ ।
महिंदर पाल जी के संगीत और देवाशीष मिश्र के रंग प्रकाश से सजी ये कविता आपकी नस्लीय कुंठा को छिन्न भिन्न कर देती है और आप इसको देखने के बाद एक नए मानव की दृष्टि पाते हैं। अनायास ही सही मुझे इस प्रस्तुति का हिस्सा बनने का मौका मिला ये इस दौर में उतना ही आवश्यक था जितना जलते हुये वन में अचानक घोर वर्षा का हो जाना, लखनऊ में हुए इस 2 दिवसीय कबीर महोत्सव के जो भी मानी हो पर ये कविता इस् उत्सव की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, कई मायनों में ये कविता हमारे अवचेतन में स्थापित किये जा रहे इतिहास को उद्घाटित करती है, मैं कहूंगा कि विश्वविद्यालयों को जिनके पास भारतीय इतिहास में मुसलमानों के योगदान को समझने केलिए वक़्त नहीं है उन शोधार्थियों के लिए ये #The_Mocking_Bird की 40 मिनट की प्रस्तुति देखना आवश्यक है।
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