(कैफी आजमी : 19 जनवरी 1919-10 मई 2002)
- जयप्रकाश धूमकेतु
शादी से पहले जब 1947 में औरंगाबाद हमारे घर पर आए हुए थे, तो मैंने एक पेपर पर यह लिखकर उनके सामने बढ़ा दिया कि ‘काश जिंदगी में तुम मेरे हमसफर होते तो जिंदगी इस गुजर जाती जैसे फूलों पर से नीमसहर का झौंका’ और फिर 23 मई 1947 को कैफी आजमी की शादी शौकत आजमी के साथ संपन्न हुई। एक बेटी मुन्नी और एक बेटा बाबा आजमी के पिता बने कैफी आजमी। ग्यारह वर्ष तक बेटी मुन्नी बनी रही और फिर अली सरदार जाफरी ने मुन्नी को शबाना आजमी नाम दिया। कैफी के बेटे को ‘आया’ बाबा कहकर पुकारती थी, जिन्हें बाद में अहमर आजमी नाम दिया गया। परंतु आज भी व्यवहार में अहमर आजमी की अपेक्षा बाबा आजमी नाम ज्यादा प्रचलित है। कैफी आजमी की बेटी शबाना आजमी की शादी ख्यात शायर एवं गीतकार जावेद अख्तर के साथ तथा बेटे बाबा आजमी की शादी तन्वी के साथ संपन्न हुई।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले की फूलपुर तहसील से 5-6 किमी की दूरी पर स्थित एक छोटा गांव मिजवां। मिजवां गांव के एक प्रतिष्ठित जमींदार परिवार में 19 जनवरी 1919 को सैयद फतह हुसैन रिज्वी और कनिज फातमा के चौथे बेटे के रूप में अतहर हुसैन रिज्वी का जन्म हुआ। अतहर हुसैन रिज्वी ने आगे चल कर अदब की दुनिया में कैफी आजमी नाम से बेमिसाल शोहरत हासिल की। कैफी के तीन बड़े भाइयों की तालीम लखनऊ और अलीगढ़ में आधुनिक ढंग से हुई। कैफी की चार बहनों की असासमयिक मृत्यु टीबी रोग से हुई, जिसका असर कैफी के दिल व दिमाग पर पड़ा। कैफी बहुत दुखी हुए। कैफी साहब के पिता को आने वाले समय का अहसास हो चुका था। उन्होंने अपनी जमींदारी की देखभाल करने के बजाय गांव से बाहर निकल कर नौकरी करने का मन बना लिया। उन दिनों किसी जमींदार परिवार के किसी आदमी का नौकरी-पेशे में जाना सम्मान के खिलाफ माना जाता था। कैफी के पिता का निर्णय घर के सदस्यों को भी अच्छा नहीं लगा। वो लखनऊ चले आए और जल्द ही उन्हें अवध के बलहरी प्रान्त में तहसीलदारी की नौकरी मिल गई। कुछ ही दिनों बाद अपने बीवी बच्चों के साथ लखनऊ में एक किराये के मकान में रहने लगे। कैफी के पिता नौकरी करते हुए अपने गांव मिजवां से संपर्क बनाए हुए थे और गांव में एक मकान भी बनाया। जो उन दिनों हवेली कही जाती थी। कैफी की चार बहनों की असामयिक मृत्यु ने न केवल कैफी को विचलित किया, बल्कि उनके पिता का मन भी बहुत भारी हुआ। उन्हें इस बात की आशंका हुई कि लड़कों को आधुनिक तालीम देने के कारण हमारे घर पर विपत्ति आ पड़ी है। कैफी के माता-पिता ने निर्णय लिया कि कैफी को दीनी तालीम (धार्मिक शिक्षा) दिलाई जाए। कैफी का दाखिला लखनऊ के एक शिया मदरसा सुल्तानुल मदारीस में करा दिया गया। आयशा सिद्दीकी ने एक जगह लिखा है कि ‘कैफी साहब को उनके बुजुर्गों ने एक दीनी शिक्षा गृह में इसलिए दाखिल किया था कि वहां पर फातिहा पढ़ना सीख जाएंगे। कैफी साहब इस शिक्षा गृह में मजहब का फातिहा पढ़कर निकल गए’।
सुल्तानुल मदारीस में पढ़ते हुए कैफी साहब 1933 ने प्रकाशित और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा प्रतिबंधित कहानी संग्रह ‘अंगारे’ पढ़ लिया था, जिसका संपादन सज्जाद जहीर ने किया था। उन्हीं दिनों मदरसे की अव्यवस्था को लेकर कैफी साहब ने छात्रों की यूनियन बना कर अपनी मांगों के साथ हड़ताल शुरू कर दी। डेढ़ वर्ष तक सुल्तानुल मदारीस बंद कर दिया गया। परंतु गेट पर हड़ताल व धरना चलता रहा। धरना स्थल पर कैफी रोज एक नज्म सुनाते। धरना स्थल से गुजरते हुए अली अब्बास हुसैनी ने कैफी की प्रतिभा को पहचान कर कैफी और उनके साथियों को अपने घर आने की दावत दे डाली। वहीं पर कैफी साहब की मुलाकात एहतिशाम साहब से हुई, जो उन दिनों सरफराज के संपादक थे। एहतिशाम साहब ने कैफी की मुलाकात अली सरदार जाफरी से करायी। सुल्तानुल मदारीस से कैफी साहब और उनके कुछ साथी निकाल दिए गए। 1932 से 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद कैफी साहब कानपुर चले गए और वहां मजदूर सभा में काम करने लगे। मजदूर सभा में काम करते हुए कैफी ने कम्यूनिस्ट लिट्रेचर का गंभीरता से अध्ययन किया। 1943 में जब बंबई में कम्यूनिस्ट पार्टी का आफिस खुला तो कैफी साहब बंबई चले गए और वहीं कम्यून में रहते हुए काम करने लगे।
सुल्तानुल मदारीस से निकाले जाने के बाद कैफी ने पढ़ना बंद नहीं किया। प्राइवेट परीक्षा में बैठते हुए उन्होंने दबीर माहिर (फारसी), दबीर कामिल (फारसी), आलिम (अरबी), आला काबिल (उर्दू), मुंशी (फारसी), मुंशी कामिल (फारसी) की डिग्री हासिल कर ली। कैफी साहब के घर का माहौल बहुत अच्छा था। शायरी का हुनर खानदानी था। उनके तीनों बड़े भाई शायर थे। आठ वर्ष की उम्र से ही कैफी साहब ने लिखना शुरू कर दिया था। 11 वर्ष की उम्र में पहली बार कैफी साहब ने बहराइच के मुशायरे में गजल पढ़ी। उस मुशायरे की अध्यक्षता मानी जयासी साहब कर रहे थे। कैफी साहब की गजल मानी साहब को बहुत पसंद आयी और उन्होंने कैफी को बहुत दाद दी। मंच पर बैठे बुजुर्ग शायरों को कैफी की प्रशंसा अच्छी नहीं लगी और फिर उनकी गजल पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया गया कि क्या यह उन्हीं की गजल है? कैफी साहब को इम्तिहान से गुजरना पड़ा। मिसरा दिया गया- ‘इतना हंसो कि आंख से आंसू निकल पड़े’ फिर क्या कैफी साहब ने इस मिसरे पर जो गजल कही वह सारे हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हुई। लोगों का शक दूर हुआ। कैफी साहब का पहला कविता संग्रह ‘झनकार’ 1943 में प्रकाशित हुआ। ‘आखिरे शब’ (1947), ‘आवारा सज्दे’ (1963) में प्रकाशित हुआ। 1992 में उनके पूर्व प्रकाशित संग्रहों की चुनी हुई कविताएं ‘सरमाया’ नाम से प्रकाशित हुर्इं। कैफी साहब ने फिल्मों में बहुत से गीत लिखे। उनके फिल्मी गीतों पर उनकी शायरी का रंग बदस्तूर रहा।
1974 में ‘मेरी आवाज सुनो’ का प्रकाशन हुआ, जिसमें कैफी साहब के 240 फिल्मी नग्मे संग्रहीत हैं। ‘इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा दूसरा इजलास’ का प्रकाशन 1983 में किया गया। कैफी आजमी बंबई से निकलने वाले अखबार ‘ब्लिट्ज’ में करीब एक दशक तक व्यंग्य कॉलम लिखते रहे। कैफी का यह एक तरह से गद्य लेखन था, जिसका प्रकाशन 2001 में ‘नई गुलिस्तां’ के नाम से दो खंडों में किया गया। शौकत आजमी के चलते कैफी थियेटर से भी जुड़ गए। 1943 में बंबई में इप्टा का गठन हुआ। कैफी बंबई इप्टा के अध्यक्ष बने। बाद में कैफी को पूरे देश में इप्टा के गठन और फैलाव की जिम्मेदारी दी गई। लंबे समय तक इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। 1985 में वह इप्टा के पुनर्गठन के बाद इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए और आजीवन इस पद पर रहे। कैफी ने इप्टा के लिए बहुत गीत और नाटक लिखे। बाल इप्टा के लिए भी नाटक व गीत लिखे। कैफी के दो नाटक ‘हीर-रांझा’ और ‘जहर-ए-इश्क’ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘आखिरी शमा’ का प्रकाशन किया जाना बाकी है।
कैफी आजमी बहुआयामी प्रतिभा से संपन्न थे। शायर, गद्यकार (तंज), नाटककार, फिल्मकार (गीत, कहानी, पटकथा, संवाद, अभिनय) के साथ ही साथ कैफी मजदूर सभा, ट्रेड यूनियन में काम करते हुए कम्यूनिस्ट पार्टी के एक कुशल संगठनकर्ता थे। कैफी एक पुख्ता कामरेड थे और जीवन के अंतिम समय तक कम्यूनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर बने रहे। कैफी लाल कार्ड को हमेशा सीने से लगाकर रखते थे। बंबई में कैफी के घर ख्वाजा अहमद अब्बास, भीष्म साहनी, बेगम अख्तर, मजरूह सुल्तानपुरी, जोश मलीहाबादी, फैज अहमद फैज, फिराक गोरखपुरी जैसी तमाम बड़ी हस्तियों का आना-जाना रहता था। मजे की बात तो यह है कि अली सरदार जाफरी का पहला संग्रह, परवाज मखदूम मोहीउद्दीन का पहला संग्रह ‘सुर्ख सबेरा’, जज्बी का पहला संग्रह ‘फरोजां’ और कैफी आजमी का पहला संग्रह ‘झनकार’ 1943 में लगभग एक साथ प्रकाशित हुए।
भारत-पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर जितनी फिल्में आज तक बनी हैं, उनमें ‘गरम हवा’ को आज भी सर्वोत्कृष्ट फिल्म का दर्जा हासिल है। ‘गरम हवा’ फिल्म की कहानी, पटकथा, संवाद कैफी आजमी ने लिखे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि ‘गरम हवा’ पर कैफी आजमी को तीन-तीन फिल्म फेयर अवार्ड दिए गए। पटकथा, संवाद पर बेस्ट फिल्म फेयर अवार्ड के साथ ही कैफी को ‘गरम हवा’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। पद्म श्री के साथ ही कैफी आजमी को ‘आवारा सज्दे’ कविता संग्रह पर उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी और साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, अफ्रो-एशियाई लेखक संघ का लोटस पुरस्कार, गालिब पुरस्कार, हिंदी अकादमी दिल्ली का शताब्दी सम्मान, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी सम्मान मिला। विश्व भारती विश्वविद्यालय ने कैफी साहब को डी लिट. की मानद उपाधि से सम्मानित किया।
जानकी कुटीर, बंबई में रहते हुए कैफी साहब को वह सब कुछ हासिल हुआ, जो अदब की दुनिया में किसी बड़ी से बड़ी हस्ती को हासिल हो सकता है। 1973 में फालिज के शिकार कैफी आजमी ने मिजवां की राह पकड़ ली। शौकत आजमी को तो साथ-साथ चलना ही था। कैफी बंबई महानगर (जानकी कुटीर) से निकल कर अपने पिछड़े साधनहीन गांव मिजवां (फतेह मंजिल) के हो गए। अपनी धरती अपने लोग का भावनात्मक लगाव और मिजवां के विकास का सपना कैफी के मन में बैठ गया। लकवाग्रस्त कैफी अपनी व्हील चेयर के साथ हर छोटे-बड़े कार्यक्रम में उपस्थित होते रहे। चाहे कोई साहित्यिक आयोजन हो, इप्टा की प्रस्तुति हो, कम्यूनिस्ट पार्टी की सभा हो, किसानों मजदूरों की सभा हो, या सांप्रदायिकता विरोधी कोई मार्च हो या सांस्कृतिक जागरण के लिए निकाली पदचीन्ह कबीर यात्रा हो, कैफी हर किसी कार्यक्रम के आमंत्रण को स्वीकार करते थे। फूलपुर (खुरासन रोड) रेलवे स्टेशन के बंद किए जाने के निर्णय के विरुद्ध कैफी आजमी अपनी व्हील चेयर के साथ रेल की पटरियों के बीच बैठकर जनता की अगुवाई करने से पीछे नहीं हटे। शाहगंज-मऊ रेलवे लाइन का ब्राडगेज में परिवर्तन और देश के प्रमुख नगरों से जोड़ने वाली ट्रेनों का संचालन हर कहीं कैफी संघर्ष में खड़े मिले।
जब कुछ लोगों ने कैफी पर यह इल्जाम लगाया कि अपने फायदे के लिए सड़क बनवा रहे हैं, तो उन्हें बहुत दुख हुआ। लखनऊ के एक होटल में कैफी गिर पड़े और कूल्हे की हड्डी में तीन जगह फै्रक्चर हो गया। चार महीने तक उन्हें लखनऊ मेडिकल कॉलेज में भरती होना पड़ा।
अजीब आदमी था वो, एक ऐसा आदमी जिसके शरीर का पूरा बायां अंग फालिज से प्रभावित हो चुका हो। कूल्हे की हड्डी में तीन-तीन फ्रैक्चर हो चुके हों, व्हील चेयर के बिना न चल पाने की स्थिति में हो फिर भी जिंदगी की आखिरी सांस तक जूझता रहा हो। अपने गांव को मॉडल विलेज बनाने के लिए, सड़कें, अस्पताल, डाकघर, टेलीफोन, प्रशिक्षण केंद्र, कम्यूनिटी सेंटर, लड़कियों का प्राथमिक, जूनियर, हायर सैकेंड्री स्कूल, जो कुछ भी मिजवां में दिख रहा है, कैफी के संकल्प और सपनों का प्रतिफल नहीं तो और क्या है? इतना ही नहीं मृत्यु के 2-3 वर्ष पूर्व कैफी मिजवां की एक जनसभा में अपनी बेटी शबाना से एक वादा भी करा लेते हैं कि मेरे न होने की स्थिति में मेरी लड़ाई को आगे बढ़ाती रहोगी और अधूरा काम पूरा करोगी। अदब की दुनिया का यह रोशन ख्याल शायर 10 मई 2002 को जसलोक अस्पताल बंबई में सब को अलविदा कर इस दुनिया से चल दिया।
- जयप्रकाश धूमकेतु
शादी से पहले जब 1947 में औरंगाबाद हमारे घर पर आए हुए थे, तो मैंने एक पेपर पर यह लिखकर उनके सामने बढ़ा दिया कि ‘काश जिंदगी में तुम मेरे हमसफर होते तो जिंदगी इस गुजर जाती जैसे फूलों पर से नीमसहर का झौंका’ और फिर 23 मई 1947 को कैफी आजमी की शादी शौकत आजमी के साथ संपन्न हुई। एक बेटी मुन्नी और एक बेटा बाबा आजमी के पिता बने कैफी आजमी। ग्यारह वर्ष तक बेटी मुन्नी बनी रही और फिर अली सरदार जाफरी ने मुन्नी को शबाना आजमी नाम दिया। कैफी के बेटे को ‘आया’ बाबा कहकर पुकारती थी, जिन्हें बाद में अहमर आजमी नाम दिया गया। परंतु आज भी व्यवहार में अहमर आजमी की अपेक्षा बाबा आजमी नाम ज्यादा प्रचलित है। कैफी आजमी की बेटी शबाना आजमी की शादी ख्यात शायर एवं गीतकार जावेद अख्तर के साथ तथा बेटे बाबा आजमी की शादी तन्वी के साथ संपन्न हुई।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले की फूलपुर तहसील से 5-6 किमी की दूरी पर स्थित एक छोटा गांव मिजवां। मिजवां गांव के एक प्रतिष्ठित जमींदार परिवार में 19 जनवरी 1919 को सैयद फतह हुसैन रिज्वी और कनिज फातमा के चौथे बेटे के रूप में अतहर हुसैन रिज्वी का जन्म हुआ। अतहर हुसैन रिज्वी ने आगे चल कर अदब की दुनिया में कैफी आजमी नाम से बेमिसाल शोहरत हासिल की। कैफी के तीन बड़े भाइयों की तालीम लखनऊ और अलीगढ़ में आधुनिक ढंग से हुई। कैफी की चार बहनों की असासमयिक मृत्यु टीबी रोग से हुई, जिसका असर कैफी के दिल व दिमाग पर पड़ा। कैफी बहुत दुखी हुए। कैफी साहब के पिता को आने वाले समय का अहसास हो चुका था। उन्होंने अपनी जमींदारी की देखभाल करने के बजाय गांव से बाहर निकल कर नौकरी करने का मन बना लिया। उन दिनों किसी जमींदार परिवार के किसी आदमी का नौकरी-पेशे में जाना सम्मान के खिलाफ माना जाता था। कैफी के पिता का निर्णय घर के सदस्यों को भी अच्छा नहीं लगा। वो लखनऊ चले आए और जल्द ही उन्हें अवध के बलहरी प्रान्त में तहसीलदारी की नौकरी मिल गई। कुछ ही दिनों बाद अपने बीवी बच्चों के साथ लखनऊ में एक किराये के मकान में रहने लगे। कैफी के पिता नौकरी करते हुए अपने गांव मिजवां से संपर्क बनाए हुए थे और गांव में एक मकान भी बनाया। जो उन दिनों हवेली कही जाती थी। कैफी की चार बहनों की असामयिक मृत्यु ने न केवल कैफी को विचलित किया, बल्कि उनके पिता का मन भी बहुत भारी हुआ। उन्हें इस बात की आशंका हुई कि लड़कों को आधुनिक तालीम देने के कारण हमारे घर पर विपत्ति आ पड़ी है। कैफी के माता-पिता ने निर्णय लिया कि कैफी को दीनी तालीम (धार्मिक शिक्षा) दिलाई जाए। कैफी का दाखिला लखनऊ के एक शिया मदरसा सुल्तानुल मदारीस में करा दिया गया। आयशा सिद्दीकी ने एक जगह लिखा है कि ‘कैफी साहब को उनके बुजुर्गों ने एक दीनी शिक्षा गृह में इसलिए दाखिल किया था कि वहां पर फातिहा पढ़ना सीख जाएंगे। कैफी साहब इस शिक्षा गृह में मजहब का फातिहा पढ़कर निकल गए’।
सुल्तानुल मदारीस में पढ़ते हुए कैफी साहब 1933 ने प्रकाशित और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा प्रतिबंधित कहानी संग्रह ‘अंगारे’ पढ़ लिया था, जिसका संपादन सज्जाद जहीर ने किया था। उन्हीं दिनों मदरसे की अव्यवस्था को लेकर कैफी साहब ने छात्रों की यूनियन बना कर अपनी मांगों के साथ हड़ताल शुरू कर दी। डेढ़ वर्ष तक सुल्तानुल मदारीस बंद कर दिया गया। परंतु गेट पर हड़ताल व धरना चलता रहा। धरना स्थल पर कैफी रोज एक नज्म सुनाते। धरना स्थल से गुजरते हुए अली अब्बास हुसैनी ने कैफी की प्रतिभा को पहचान कर कैफी और उनके साथियों को अपने घर आने की दावत दे डाली। वहीं पर कैफी साहब की मुलाकात एहतिशाम साहब से हुई, जो उन दिनों सरफराज के संपादक थे। एहतिशाम साहब ने कैफी की मुलाकात अली सरदार जाफरी से करायी। सुल्तानुल मदारीस से कैफी साहब और उनके कुछ साथी निकाल दिए गए। 1932 से 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद कैफी साहब कानपुर चले गए और वहां मजदूर सभा में काम करने लगे। मजदूर सभा में काम करते हुए कैफी ने कम्यूनिस्ट लिट्रेचर का गंभीरता से अध्ययन किया। 1943 में जब बंबई में कम्यूनिस्ट पार्टी का आफिस खुला तो कैफी साहब बंबई चले गए और वहीं कम्यून में रहते हुए काम करने लगे।
सुल्तानुल मदारीस से निकाले जाने के बाद कैफी ने पढ़ना बंद नहीं किया। प्राइवेट परीक्षा में बैठते हुए उन्होंने दबीर माहिर (फारसी), दबीर कामिल (फारसी), आलिम (अरबी), आला काबिल (उर्दू), मुंशी (फारसी), मुंशी कामिल (फारसी) की डिग्री हासिल कर ली। कैफी साहब के घर का माहौल बहुत अच्छा था। शायरी का हुनर खानदानी था। उनके तीनों बड़े भाई शायर थे। आठ वर्ष की उम्र से ही कैफी साहब ने लिखना शुरू कर दिया था। 11 वर्ष की उम्र में पहली बार कैफी साहब ने बहराइच के मुशायरे में गजल पढ़ी। उस मुशायरे की अध्यक्षता मानी जयासी साहब कर रहे थे। कैफी साहब की गजल मानी साहब को बहुत पसंद आयी और उन्होंने कैफी को बहुत दाद दी। मंच पर बैठे बुजुर्ग शायरों को कैफी की प्रशंसा अच्छी नहीं लगी और फिर उनकी गजल पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया गया कि क्या यह उन्हीं की गजल है? कैफी साहब को इम्तिहान से गुजरना पड़ा। मिसरा दिया गया- ‘इतना हंसो कि आंख से आंसू निकल पड़े’ फिर क्या कैफी साहब ने इस मिसरे पर जो गजल कही वह सारे हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हुई। लोगों का शक दूर हुआ। कैफी साहब का पहला कविता संग्रह ‘झनकार’ 1943 में प्रकाशित हुआ। ‘आखिरे शब’ (1947), ‘आवारा सज्दे’ (1963) में प्रकाशित हुआ। 1992 में उनके पूर्व प्रकाशित संग्रहों की चुनी हुई कविताएं ‘सरमाया’ नाम से प्रकाशित हुर्इं। कैफी साहब ने फिल्मों में बहुत से गीत लिखे। उनके फिल्मी गीतों पर उनकी शायरी का रंग बदस्तूर रहा।
1974 में ‘मेरी आवाज सुनो’ का प्रकाशन हुआ, जिसमें कैफी साहब के 240 फिल्मी नग्मे संग्रहीत हैं। ‘इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा दूसरा इजलास’ का प्रकाशन 1983 में किया गया। कैफी आजमी बंबई से निकलने वाले अखबार ‘ब्लिट्ज’ में करीब एक दशक तक व्यंग्य कॉलम लिखते रहे। कैफी का यह एक तरह से गद्य लेखन था, जिसका प्रकाशन 2001 में ‘नई गुलिस्तां’ के नाम से दो खंडों में किया गया। शौकत आजमी के चलते कैफी थियेटर से भी जुड़ गए। 1943 में बंबई में इप्टा का गठन हुआ। कैफी बंबई इप्टा के अध्यक्ष बने। बाद में कैफी को पूरे देश में इप्टा के गठन और फैलाव की जिम्मेदारी दी गई। लंबे समय तक इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। 1985 में वह इप्टा के पुनर्गठन के बाद इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए और आजीवन इस पद पर रहे। कैफी ने इप्टा के लिए बहुत गीत और नाटक लिखे। बाल इप्टा के लिए भी नाटक व गीत लिखे। कैफी के दो नाटक ‘हीर-रांझा’ और ‘जहर-ए-इश्क’ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘आखिरी शमा’ का प्रकाशन किया जाना बाकी है।
कैफी आजमी बहुआयामी प्रतिभा से संपन्न थे। शायर, गद्यकार (तंज), नाटककार, फिल्मकार (गीत, कहानी, पटकथा, संवाद, अभिनय) के साथ ही साथ कैफी मजदूर सभा, ट्रेड यूनियन में काम करते हुए कम्यूनिस्ट पार्टी के एक कुशल संगठनकर्ता थे। कैफी एक पुख्ता कामरेड थे और जीवन के अंतिम समय तक कम्यूनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर बने रहे। कैफी लाल कार्ड को हमेशा सीने से लगाकर रखते थे। बंबई में कैफी के घर ख्वाजा अहमद अब्बास, भीष्म साहनी, बेगम अख्तर, मजरूह सुल्तानपुरी, जोश मलीहाबादी, फैज अहमद फैज, फिराक गोरखपुरी जैसी तमाम बड़ी हस्तियों का आना-जाना रहता था। मजे की बात तो यह है कि अली सरदार जाफरी का पहला संग्रह, परवाज मखदूम मोहीउद्दीन का पहला संग्रह ‘सुर्ख सबेरा’, जज्बी का पहला संग्रह ‘फरोजां’ और कैफी आजमी का पहला संग्रह ‘झनकार’ 1943 में लगभग एक साथ प्रकाशित हुए।
भारत-पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर जितनी फिल्में आज तक बनी हैं, उनमें ‘गरम हवा’ को आज भी सर्वोत्कृष्ट फिल्म का दर्जा हासिल है। ‘गरम हवा’ फिल्म की कहानी, पटकथा, संवाद कैफी आजमी ने लिखे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि ‘गरम हवा’ पर कैफी आजमी को तीन-तीन फिल्म फेयर अवार्ड दिए गए। पटकथा, संवाद पर बेस्ट फिल्म फेयर अवार्ड के साथ ही कैफी को ‘गरम हवा’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। पद्म श्री के साथ ही कैफी आजमी को ‘आवारा सज्दे’ कविता संग्रह पर उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी और साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, अफ्रो-एशियाई लेखक संघ का लोटस पुरस्कार, गालिब पुरस्कार, हिंदी अकादमी दिल्ली का शताब्दी सम्मान, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी सम्मान मिला। विश्व भारती विश्वविद्यालय ने कैफी साहब को डी लिट. की मानद उपाधि से सम्मानित किया।
जानकी कुटीर, बंबई में रहते हुए कैफी साहब को वह सब कुछ हासिल हुआ, जो अदब की दुनिया में किसी बड़ी से बड़ी हस्ती को हासिल हो सकता है। 1973 में फालिज के शिकार कैफी आजमी ने मिजवां की राह पकड़ ली। शौकत आजमी को तो साथ-साथ चलना ही था। कैफी बंबई महानगर (जानकी कुटीर) से निकल कर अपने पिछड़े साधनहीन गांव मिजवां (फतेह मंजिल) के हो गए। अपनी धरती अपने लोग का भावनात्मक लगाव और मिजवां के विकास का सपना कैफी के मन में बैठ गया। लकवाग्रस्त कैफी अपनी व्हील चेयर के साथ हर छोटे-बड़े कार्यक्रम में उपस्थित होते रहे। चाहे कोई साहित्यिक आयोजन हो, इप्टा की प्रस्तुति हो, कम्यूनिस्ट पार्टी की सभा हो, किसानों मजदूरों की सभा हो, या सांप्रदायिकता विरोधी कोई मार्च हो या सांस्कृतिक जागरण के लिए निकाली पदचीन्ह कबीर यात्रा हो, कैफी हर किसी कार्यक्रम के आमंत्रण को स्वीकार करते थे। फूलपुर (खुरासन रोड) रेलवे स्टेशन के बंद किए जाने के निर्णय के विरुद्ध कैफी आजमी अपनी व्हील चेयर के साथ रेल की पटरियों के बीच बैठकर जनता की अगुवाई करने से पीछे नहीं हटे। शाहगंज-मऊ रेलवे लाइन का ब्राडगेज में परिवर्तन और देश के प्रमुख नगरों से जोड़ने वाली ट्रेनों का संचालन हर कहीं कैफी संघर्ष में खड़े मिले।
जब कुछ लोगों ने कैफी पर यह इल्जाम लगाया कि अपने फायदे के लिए सड़क बनवा रहे हैं, तो उन्हें बहुत दुख हुआ। लखनऊ के एक होटल में कैफी गिर पड़े और कूल्हे की हड्डी में तीन जगह फै्रक्चर हो गया। चार महीने तक उन्हें लखनऊ मेडिकल कॉलेज में भरती होना पड़ा।
अजीब आदमी था वो, एक ऐसा आदमी जिसके शरीर का पूरा बायां अंग फालिज से प्रभावित हो चुका हो। कूल्हे की हड्डी में तीन-तीन फ्रैक्चर हो चुके हों, व्हील चेयर के बिना न चल पाने की स्थिति में हो फिर भी जिंदगी की आखिरी सांस तक जूझता रहा हो। अपने गांव को मॉडल विलेज बनाने के लिए, सड़कें, अस्पताल, डाकघर, टेलीफोन, प्रशिक्षण केंद्र, कम्यूनिटी सेंटर, लड़कियों का प्राथमिक, जूनियर, हायर सैकेंड्री स्कूल, जो कुछ भी मिजवां में दिख रहा है, कैफी के संकल्प और सपनों का प्रतिफल नहीं तो और क्या है? इतना ही नहीं मृत्यु के 2-3 वर्ष पूर्व कैफी मिजवां की एक जनसभा में अपनी बेटी शबाना से एक वादा भी करा लेते हैं कि मेरे न होने की स्थिति में मेरी लड़ाई को आगे बढ़ाती रहोगी और अधूरा काम पूरा करोगी। अदब की दुनिया का यह रोशन ख्याल शायर 10 मई 2002 को जसलोक अस्पताल बंबई में सब को अलविदा कर इस दुनिया से चल दिया।
Hamare Agra Vishwavidyalaya(ab Dr. B.R.Ambedkar Vishwavidyalaya)ne bhiKaifi Sb. ko D.Litt. ki Manad upadhi pradan ki.
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