Friday, January 26, 2018

'अगरबत्ती': पितृसत्ता के खिलाफ़ स्त्री-चेतना का प्रतिकार

-कुणाल कुमार वर्मा
यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो,इतिहास समाज से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा विषय है। वस्तुतः समाज की सही तस्वीर इतिहास एवं साहित्य दोनों मिलकर ही रच सकते हैं।फूलन देवी के साथ सामूहिक बलात्कार और तदुपरांत प्रतिकार स्वरुप अंजाम दिया गया बेहमई हत्याकांड इस देश के सामाजिक यथार्थ को बयान करते,ऐतिहासिक तथ्य है।परन्तु नाटक ‘अगरबत्ती’ में दर्ज कार्यव्यापार (action),कितनी कल्पना और कितना यथार्थ है?दरअसल कल्पना और यथार्थ के मध्य एक साहित्यिक यथार्थ होता है,जिसे दर्ज करने का काम साहित्यकार करता है।दर्पण में दिखता अक्स झूठ होकर भी सत्य होता है,जिसकी सुध लेकर ही आदमी घर से बाहर निकलता है,दुनिया के बीच अपनी सामाजिकता गढ़ता है।परन्तु नाटक के विषय में चर्चा करते समय,ये बात अवश्य ज्ञातव्य रहे की ये विधा निरा साहित्य-रूप नहीं है।नेमिचन्द्र जैन के शब्दों में “प्रारम्भ में और एक स्तर पर,भाषा के साहित्यिक- काव्यात्मक रूप में अभिव्यक्त होने के साथ-साथ, नाटक में और भी बहुत से तत्व हैं,जो उसके अपने हैं,विशिष्ट हैं, जो सब एक साथ उस रूप में  अन्य किसी कलात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम में नहीं होते..”( रंग दर्शन,पृष्ठ 155)। समागम रांगमांडल,जबलपुर की प्रस्तुति ‘अगरबत्ती’,नाट्यविधा की इसी विशिष्टता को साधता- बेहद चतुराई से लिखा एवं कुशलता  से मंचित किया गया नाटक है।अतः इस दर्पण में रूपायित प्रतिबिम्ब के वैशिष्टय को समझना,दर्पण को समझने के लिए परम आव्यशक हैl

नाटक ‘अगरबत्ती’,बेहमई हत्याकांड(1981) और इस पुरे वाकये में अलक्षित रह गए उस पक्ष की सुध लेता है,जिसकी पीड़ा और अंतर्कलह को समझे बिना ‘फूलनदेवी’ नामक सामाजिक परिघटना को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता और ना ही उस बीहड़ से कभी भारतीय समाज को बाहर निकाला जा सकता है,जिसकी रचना वर्णवादी व्यवस्था,जातिगत पूर्वाग्रह और लिंगभेद की दुरभिसंधि  करती है ।हत्याकांड में मारे गए राजपूतों की विधिाएँ अब अगरबत्ती निर्माण का उद्यम कर अपना निर्वाह कर रही हैं और उनके इसी कर्म के साथ-साथ नाटक का विमर्श आगे बढ़ता है।लालाराम ठाकुर की विधवा या ठकुराइन अपनी पति की हत्या के प्रतिकार हेतु प्रणरत है, इससे पहले उसे मतृक की खारी का विसर्जन मंजूर नहीं।प्रतिकार से पहले तर्पण संभव नहीं। इस हेतु उसकी हल्दी ठाकुर की विधवा कल्ली पर निर्भरता है, जो की- “ ऊँची पूरी , ठेठ लट्ठमार है ” और “बाहर से शाांत और अंदर से गर्म भट्टी जैसी दिखती है”। “ जिस दिन कल्ली भली-चंगी होकर लौट आएगी, फूलन का अंत हो जाएगा, वो हटजोगन सी हो गयी है”।एक जैसी सोच और पूर्वाग्रहों से ग्रसित विधवाओं के बीच एक मिसफ़िट ‘दमयंती’ का प्रवेश नाटक में तनाव और द्वंद्व को जन्म देता है। ‘दमयंती’ का क़िरदार हेंस क्रिस्चन एंडरसन की प्रसिद्ध कहानी ‘ दी एम्पेरेर्स न्यू क्लोथ्ज’ के उस निर्दोष बच्चे की तरह है जिसमें नंगे राजा को नंगे कहने का सहज साहस है -“पापी नातेदार भी हो तो पापी ही होता है”। ऐसे में उसे उदारचरित पारवती का गीता-दर्शन, किंचित सम्बल देता है। विधवाओं के बीच दमयंती की सक्रीय उपस्थिति,उत्प्रेरक का काम करती है और धीरे-धीरे उन्हें सत्य के साक्षात्कार के लिए तैयार करती है।

ठाकुरों की ठकरास की क़लई भी धीरे-धीरे आपसी संवाद में खुलती जाती है। इस गहमागहमी में ठकुराइन के साथ बचपन में घटा एक हादसा हिस्टीरिया के दौरे की शक्ल में उस पर हावी होकर उसकी चिंतना की सारी सामंती प्रोग्रामिंग को उलट कर,उसके भीतर की स्त्री को पुनर्स्थापित कर देता है और नाटक के अंतिम दृश्य में वह अपने मतृ पति की खारी को अगरबत्ती के मसाले में मिलाती नज़र आती है,क्यूँकि -“ इनको तो जलना चाहिए, कई बार.. बार-बार थोड़ा-थोड़ा,तिल-तिल कर अगरबत्ती की तरह”।

इस प्रकार ‘अगरबत्ती’,पितृसत्ता के खिलाफ़ स्त्री-चेतना के प्रतिकार  का रूपक बन जाता है। ठकुराइन का घर की महरी ‘नन्ही बाई’ को कसा गया तंज-“ साली नीच! का होत है अत्याचार जानत हो? तेने देखे कभऊ अत्याचार?”- उसकी दबी,कुचली चेतना पर एक ललकार की तरह चोट करता है, और एक हुंकार के साथ वह जो उसमें प्रकट होकर विकट हो जाता है और जिसके सामने ठकरास की हवा निकल जाती है,मंच पर उपस्थित सभी स्त्रियों में जातिभेद का अतिक्रमण कर,वर्ग-चेतना को जन्म देता है।एक तरफ़ ठकरास की धौंस और एक तरफ़ लोकगीतों में निहित ‘लोक’ की हूक।नाटक में प्रयुक्त लोकगीत,नाटक के रचना-विधान से
आव्यविक (organic) रूप से जुड़े हैं, वे नाटक के विमर्श को स्वतःस्फूर्त करते हैं। सुमन का फागुन के गीत को अपने स्वर देना और तत्पश्चात उसका बदला सुर। नाटक के पांचवे दृश्य में ठकुराइन और सुमन के बीच जन्मी तनातनी यूँ ही नहीं। ठकुराइन को किस बात का खटका लगता है,दरअसल उसे विद्रोह की बू आती है -“जे कौन सी भाषा बोलन लगी सुमन ? आज कै रई ई की ग़लती नई थी, कल को कहेगी ऊ चुड़ैल की ग़लती नई थी।यह कथानक में आए ढलान का घोतक है।लोक के स्वर,दरअसल,स्त्रियों में जो सहज है,स्वाभाविक है और जो कृत्रिम है,अध्यारोपित है,के बीच के फ़र्क़ को पुष्ट करने का काम करते हैं।

और अंत में एक आवश्यक हस्तक्षेप।नाटककार के द्वारा प्रस्तुत अंत, क्या कथानक की तार्किक परिणती भी है? या, अभीष्ट अंत पाने के लिए नाटककार के द्वारा किसी युक्ति का सहारा लिया गया है।पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में इस युक्ति को Dues ex Machina या God out of Machine ( यंत्रजनित ईश्वर) का नाम दिया गया है। यानि की,कथानक में मौजूद किसी दुर्निवार सी दिखती समस्या या परिस्थिति का कोई अनापेक्षित,अप्रत्याशित हल प्रस्तुत कर, कथानक को अभीष्ट मोड़ देना।यहाँ बात,नाटक के अंतिम दृश्य में ठकुराईन की चिंतना में आए क्रन्तिकारी परिवर्तन की,की जा रही है।परसाई भवन में भी एक दफ़ा ये बात उठी थी, अतः इस पर यहाँ चर्चा कर लेना उचित होगा। प्रथम दृष्टव्या,यह आकस्मिक लग सकता है,परन्तु यह अप्रत्याशित नहीं।नाटक में इसके लिए संक्रमण की स्थिति धीरे-धीरे निर्मित होती रहती है और ठकुराईन चौतरफ़ा घिरती नज़र आती है।धीरे-धीरे सबका अपने क़दम पीछे करते जाना और जब बीहड़ ने कल्ली को भी नहीं बख़्शा,वह बिलकुल अकेली पड़ जाती है, ऐसे में जब उसके मुख्य प्रयोजन ‘ठकरास’ की पोल,नन्ही बाई की गवाही खोल कर रख देती है, तब उसके अवचेतन में दबी यंत्रणा भी अपना असर दिखाती है।एक बीहड़ है,जो नाटक के बाहर स्थित है,एक दूसरा बीहड़ भी है ,जो गाँव में है, गाँव के अंदर है;गाँव के बाहर स्थित बीहड़ को,गाँव के अंदर स्थित 'बीहड़’ ही आबाद करता है।अंदर या बाहर, कम या ज़्यादा, जब इस बीहड़ ने किसी को नहीं बख़्शा, तब ऐसे में ठकुराईन का इस बीहड़ से,अपवाद बनकर बचे रह जाना आश्चर्य का विषय होता।परन्तु प्रश्न यह नहीं की ठकुराईन की सोच में परिवर्तन के क्या कारक है,अपितु असल प्रश्न यह है की, क्या पीड़ित विधवाओं ने,अपने व्यक्तिगत दुःख और पीड़ा का अतिक्रमण कर,एक क्षण के लिए भी,मात्र स्त्री होकर, सत्य का साक्षात्कार किया होगा? यह तो उन विधवाओं से बात कर, या फिर उनके समक्ष ‘अगरबत्ती’ का मंचन कर और उनकी प्रतिक्रियाओं का अध्ययन कर ही जाना जा सकता है। हो सकता है हमें इस बीहड़ से बाहर निकलने के सूत्र मिल सकें। आशीष पाठक अपने साहसिक लेखन एवं कुशल निर्देशन हेतु,साधुवाद के पात्र है।


No comments:

Post a Comment