दिल्ली के ' सदा आर्ट्स सोसाइटी ' के दानिश इकबाल कला-जगत की एक प्रतिभाशाली हस्ती है. रंगमंच के साथ ही वे टीवी, फिल्म व रेडियो से भी जुड़े हैं. लेकिन रंगमंच ने उन्हें विशेष पहचान दी है. सारा का सारा आसमान, सारांश, कैदे-हयात, शास्त्रार्थ, डांसिंग विथ डैड, अ सोल सागा जैसे प्रसिद्ध नाटक उनके खाते में है. संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत तथा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित दानिश के तीन नाटक सर्वश्रेष्ठ नाटक के पुरस्कार से भी नवाजे जा चुके हैं. बाजारीकरण के इस दौर में भी दानिश रंगमंच से जुड़े हैं, तो यह उनका जूनून ही है.
रायपुर इप्टा द्वारा 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह के पांचवें दिन उनकी प्रस्तुति ' अकेली ' ने रंग-दर्शकों को बंबईया टीवी सीरियल का अहसास दिलाया. इस नाटक ने दिल्ली में खूब प्रसिद्धि पाई है, जहां लोग ऊंची दरों पर भी टिकेट खरीदकर नाटक देखने जाते हैं. रायपुर के मुक्ताकाशी मंच पर रंग-दर्शक मुक्त रूप से मुफ्त आवाजाही करते हैं. दोनों प्रकार के रंग-दर्शकों का रंग-मानस अलग-अलग होता है. क्योंकि दर्शक समुदाय के चरित्र की भिन्नता इसमें निहित रहती है. अतः यह जरूरी नहीं कि दिल्ली का प्रसिद्ध नाटक रायपुर के रंगमंच पर भी जमे. हुआ भी ऐसा ही, लेकिन इसमें निर्देशक दानिश इकबाल का कोई कसूर नहीं था.
वास्तव में विभिन्न शहरों और विभिन्न दर्शक-समुदायों का रंग-स्वाद अलग-अलग होता है.दिल्ली का जो रंग-दर्शक अल्पना की समस्या से जुड़ाव महसूस करता है, वैसा ही जुड़ाव रायपुर का रंग-दर्शक महसूस नहीं कर पाता और वह केवल नाटक के हास्य-व्यंग्य का मजा लेता है. दिल्ली का रंग-दर्शक ' एलीट ' है और रायपुर का मध्यम, मजदूर वर्गीय '. दिल्ली के दर्शक के लिए अल्पना की शादी की समस्या वास्तविक हो सकती है, लेकिन रायपुर के दर्शक के लिए नहीं. रायपुर की ' अकेली ' महिला की समस्या सिर्फ शादी की नहीं होती, वह घर-बाहर -- नाते-रिश्तेदारों के बीच, घर और ऑफिस के बीच, ऑफिस के अंदर -- सब जगह अलग किस्म की समस्याओं का सामना करती है. उसका ' अकेलापन ' सधवा अकेली से भी नितांत भिन्न होता है. इसीलिए दानिश की ' अकेली ' यहां रंग-दर्शकों को छू नहीं पाई.
(लेखक की टिप्पणी - बतौर एक दर्शक ही)
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