Monday, October 26, 2015

अलविदा जुगल किशोर !!!

- वीर विनोद छाबड़ा 

अभी थोड़ी देर पहले ही लौटा हूं मित्र जुगल किशोर का विदा करके। जुगल मेरे ही नहीं लखनऊ के हर रंगकर्मी के मित्र थे। साहित्य प्रेमियों के मित्र थे। समाज कर्मियों के मित्र थे।जुगल किसी परिचय के मोहताज़ कभी नहीं रहे। उनका बोलता और हंसता हुआ चेहरा ही पर्याप्त होता था। कल शाम तक वो भले-चंगे थे। अचानक ही सीने में दर्द उठा। परिवारजन अस्पताल ले जा रहे थे कि रास्ते में ही.…

जुगुल किशोर से मेरी पहली मुलाक़ात कई साल पहले आकाशवाणी लखनऊ में हुई। मैं वहां बच्चों के कार्यक्रम में कहानी पाठ के लिए जाता था। कार्यक्रम संचालन में कई बार सुषमा श्रीवास्तव 'दीदी' के साथ जुगल 'भैया' जुगलबंदी करते होते थे। जुगल की मौजूदगी से राहत मिलती थी। उन दिनों प्रसारण लाइव होता था। कई बार कहानी पढ़ते-पढ़ते मैं कहीं अटक जाता या असहज हो जाता था तो जुगल भैया तुरंत कुछ न कुछ बोल कर संभाल लेते थे। 

आगे चले कर अनेक अवसरों पर स्टेज पर और स्टेज के पीछे देखा इनको। बहुत अच्छे अभिनेता ही नहीं बड़े दिल वाले थे। और प्रशिक्षक भी थे। भारतेंदु नाट्य अकादमी में प्रशिक्षक के रूप में कई साल तक रहे। इसके निदेशक का भी काम अरसे तक देखा। पिता, अंधा युग, राज, ताशों के देश में, जूलियस सीज़र, कंजूस, अंधेरे में, वासांसि जीर्णानि, बालकल विमन आदि दर्जनों नाटकों में काम किया। लखनऊ रंगमच ही नहीं दूसरे प्रदेशों में भी उन्होंने अपने अभिनय की छाप छोड़ी। उन्हें परफेक्शनिस्ट कहा जाता था। 


एक दिन मैंने उन्हें 'पीपली लाईव' में देखा। उसमें मुख्य मंत्री की भूमिका की थी उन्होंने। उन्होंने बताया था दबंग-२ में भी काम किया है। जब कभी मैं उन्हें देखता मुझे बड़ा गर्व होता था। अपने शहर लखनऊ के होनहार हैं। राजपाल यादव और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी जैसे फ़िल्म आर्टिस्टों को भी अभिनय के गुर सिखाये।
साहित्यिक गोष्ठियों में वो जाना-माना चेहरा थे। सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति रहे। इप्टा के साथ साथ सांप्रदायिकता के विरुद्ध लड़ते रहे। 


लखनऊ मंच से उनका जाना बहुत बड़ा सदमा है। भारतेंदु नाट्य अकादमी और फिर गुलाला घाट पर उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए रंगकर्मियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जुटी भारी भीड़ इसका प्रमाण है। हर व्यक्ति व्यथित और शोक में डूबा हुआ। सबके पास उनका कोई न कोई यादगार लम्हा था। सबके पास कुछ न कुछ सुनाने को संस्मरण थे। शब्दों की कमी पड़ रही थी। महज़ ६१ साल के थे जुगल। यह भी जाने की कोई उम्र होती है। 


मैं जब भी उन्हें देखता मेरा मोबाईल कैमरा उनकी और देख कर बोलता था - शॉट प्लीज़। कई बार उन्हें सोच में डूबे देखा, किसी दृश्य को विसुलाईज़ करते हुए या किसी किरदार की काया में प्रवेश करने की कवायद करते हुए या पूरी तन्मयता से सुनते हुए। मैंने बिना बताये ही शॉट ले लिया। एक आध बार ध्यान भंग हुआ उनका। मुझे देख वो चौंके। फिर मुस्कुरा दिए। कमाल के अदाकार। 

सोचा, एक दिन उनसे कहूंगा - आपका चेहरा बहुत अच्छा है। एक दिन फोटो सेशन हो जाए। लेकिन अरमान दिल में रह गये। मुझे नहीं मालूम था कि एक दिन उनकी विदाई का शॉट भी लेना पड़ेगा। 
अलविदा जुगल जी। आपका जिस्म नहीं होगा। शो तो चलता ही रहेगा। लेकिन यह भी सच है कि रंगमंच पहले जैसा नहीं रहेगा। साहित्यिक गोष्ठियों में आपकी कमी बहुत खलेगी। 

२६-१०-२०१५

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