- वीर विनोद छाबड़ा
२५ अक्टूबर की शाम बहुत ग़मगीन थी। दिवंगत साथी जुगल किशोर को याद करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में लखनऊ के तमाम सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और साहित्यकार और उनसे सरोकार रखने वाले भारतेंदु नाट्य अकादेमी में जुटे थे। जुगल के अकस्मात् चले से जाने से हर शख़्स शोक में डूबा था।
संचालन करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय महसचिव राकेश भी आंसू नहीं रोक पा रहे थे। आज वो व्यवस्थित नहीं थे। वो बता रहे थे - कल तक जो सामने था आज नेपथ्य में चला गया है। पिछले ४० साल में मैंने उसमें एक बहुत अच्छे अभिनेता, निर्देशक, प्रशिक्षक, लेखक और इंसान के रूप में देखा।
जुगल को नाटक का ककहरा पढ़ाने वाले सुप्रसिद्ध वरिष्ठ प्रशिक्षक और रंगकर्मी राज बिसारिया ने कहा - वो मेरा बच्चा था। महबूब था। बरसों पहले इंटर पास एक दुबले-पतले नौजवान के रूप में भरपूर स्प्रिट के साथ आया था। उसकी स्प्रिट को सलाम। उसकी मसखरी का पात्र हमेशा मैं रहा। जो जितना दूर जाता है उतना ही पास रहता है। दुःख-दर्द बहुत गहरा होता है। उसकी ज़ुबान नहीं होती। आज का दिन रोने का नहीं, जश्न मनाने है। उसकी याद में खुद को मज़बूत करने का है। नाटक करो। यह ज़िंदगी का आईना है। अपने दौर में जुगल जितना कर गया, उसे मैं सलाम करता हूं। अपने फ़न से वो सबको हराता रहा, लेकिन खुद मौत से हार गया। जुगल हमारी सांसो में रहेगा।
सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव की नज़र में रंगकर्म समाज का आईना है और जुगल ने इस सरोकार से सदैव रिश्ता बनाये रखा। इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जीवंत रिश्ता रखा। साहित्य से बहुत गहरा जुड़ाव रहा उनका। सदैव संभावना खोजा करते थे कि अमूक साहित्यिक कृति का नाट्य रूपांतरण कैसे तैयार किया जाये। खुद को समृद्ध करने के लिए साहित्यिक गोष्ठियों में अक्सर मौजूद रहते। सिनेमा में जाने के बावजूद वो रंगमंच से प्रतिबद्ध रहे। संस्कृति के लिए आज का समय बहुत ख़राब है। ऐसे में एक बहुत अच्छे साथी का चले जाना बहुत ही कष्टप्रद है।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रंगकर्मी सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ ने कहा - अभी तक सुना था कि मौत बहुत बेरहम होती है। चुपके से आती है। लेकिन आज देख भी लिया। सुबह उसने संगीत नाटक अकादमी का ईनाम मिलने की मुबारक़बाद दी और शाम को रुला दिया। जुगल का जाना रंगमंच की क्षति है, समाज की भी क्षति है। उसके साथ कई नाटकों में काम किया। हंसी मज़ाक और गप्पें मारना बहुत अच्छा लगता था। यह संयोग है कि वो नाटकों में मौत का बहुत शानदार अभिनय करता रहा। उसका जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति है। मैंने एक दोस्त खोया है।
वरिष्ठ रंगकर्मी आतमजीत सिंह ने बताया - जुगल का जाना एक दर्दभरी घटना है। ऐसा लग रहा है जैसे कोई गंभीर रंगमंच चल रहा है। वो बड़ा स्तंभ था। उनका स्थान किसी के लिए लेना मुश्किल है। जुगल को याद करने का तरीका यही होगा कि नाटक चलता रहे।
सुप्रसिद्ध लेखक-कवि नलिन रंजन सिंह ने बताया कि बहुत नज़दीकी रिश्ता था जुगल से। एक हंसता हुआ चेहरा। ज़िंदादिल इंसान थे वो। जब भी मिले, नए लोगों को रंगमंच से जोड़ने की संभावनाएं हमेशा तलाशते हुए। चिंतित रहते थे कि नई पीढ़ी रंगमंच के दायित्व का कैसे निर्वहन करेगी। ज़रुरत है कि उनकी चेतना से जुड़ कर या वैचारिक रूप से या लेखन के माध्यम से आगे बढ़ाया जाये।
अलग दुनिया के केके वत्स ने बताया - सिनेमा से जुड़ने के बावजूद जुगल ने लखनऊ नहीं छोड़ा। याद नहीं आता कि उनका किसी से कोई मतभेद रहा हो। जुगल की याद में प्रत्येक वर्ष २५ हज़ार का एक पुरुस्कार मंच पर सामने या नेपथ्य में शानदार काम करने केलिए दिया जाएगा। इसकी शुरुआत उनके जन्मदिन २५ फरवरी से होगी।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ अभिनेता अरुण त्रिवेदी का कहना था - मेरा जुगल से पिछले ३५-३६ साल से दिन-रात का साथ रहा। हम भारतेंदु नाट्य अकादमी में लगभग एकसाथ आये। रंगमंच से जुड़ी अनेक व्याधियों और कष्टों को एकजुटता से झेला। स्टेज ही नहीं बाहर भी हम एकसाथ रहे। प्रशासनिक अड़चनों के बावजूद हमने अकादमी की प्रस्तुतियों पर कोई आंच नहीं आने दी, उसकी शान को कभी धूमिल नहीं होने दिया। जुगल अपनी स्टाईल में बिना बताये और बिना किसी से सेवा कराये, चुपके से बहुत दूर चले गए।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रंगकर्मी वेदा राकेश ने कहा - बहुत पुराना साथ है जुगल से। उन दिनों रंगमंच के काम से जब भी कहीं जाना होता था तो जुगल अपनी साईकिल लिये हाज़िर मिलते। वो हीरो हुआ करते हम लोगों के। बहुत चंचल और शैतान थे। अपने साथियों का बहुत ख्याल रखते थे वो। यह गुण उनकी आदतों में शामिल थे। मैं उनकी मुस्कान, उसके खुशनुमा चेहरे और बोलती आंखों को याद करते रहना चाहूंगी।
वरिष्ठ रंगकर्मी मृदुला भारद्वाज ने कहा - मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल है जुगल के बारे में बात करना। वो बहुत अच्छा नहीं, बहुत ख़राब एक्टर था। बिना बताये चला गया। जिस तरीके से गया, वो तो बहुत ही ख़राब था। गज़ब का परफेक्शनिस्ट एक्टर था वो। अपने से बहुत प्यार करता था। शायद इसलिये भी बहुत अच्छा एक्टर था। जितनी देर काम करता था अपने पर बहुत ध्यान देता रहा। हर एक्ट के बाद पूछता था, कैसा रहा? हमें जब भी किसी कार्यक्रम में जाना होता था तो जुगल को फ़ोन करते थे कि पहुंच रहे हो न। लेकिन आज तो उसी की याद में आना था। कोई फ़ोन नहीं कर पाये।
वरिष्ठ रंगकर्मी प्रदीप घोष ने बताया - मैं पिछले ४० साल से जानता था जुगल को। बंदे में बहुत दम था। उसकी सोच बहुत बड़ी थी। मैंने उसे बहुत अच्छी एक्टिंग करते हुए देखा है। बहुत कम होते ऐसे एक्टर।
युवा रंगकर्मी और समाजसेवी दीपक कबीर ने बताया - बहुत कुछ सीखा है मैंने जुगलजी से। नाटक को लेकर बहुत चिंतित देखा है उनको। सेलेब्रटी होने के बावजूद उनमें ईगो नहीं था। कहीं भी बैठ जाते। सादगी की मिसाल थे वो। सामजिक कार्यकर्ता भी थे वो। इसीलिए कार्यक्रमों में उनको अक्सर बुलाया जाता था। लेकिन वो बोलने के इच्छुक कतई नहीं रहे। एक दिन बोले, आजकल हम कंडोलेंस बहुत करते हैं। क्या यही करते रहेंगे ज़िंदगी भर?
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रंगकर्मी पुनीत अस्थाना ने बताया - जुगल बहुत पुराने साथी थे उनके। ज़बरदस्त पोटेंशियल था उनमें। जब पहली बार देखा तो हम तभी समझ गए थे कि लंबी रेस का घोड़ा हैं जुगल। परकाया में घुस कर एक्टिंग करते थे वो। वो अक्सर कहा करते थे कि लोग एक्टिंग करना चाहते हैं, पढ़ना नहीं चाहते हैं। मैंने उनके हाथ में हमेशा कोई न कोई किताब देखी। वो किसी भी विषय से संबंधित होती थी। उनकी टाईमिंग गज़ब की थी, लेकिन यह आख़िरी वाली टाईमिंग बिलकुल पसंद नहीं आई।
वरिष्ठ रंगकर्मी गोपाल सिन्हा ने बताया - जुगल अक्सर फ़ोन करते थे। बहुत लंबी लंबी बातें होती थीं। साथ-साथ उठना-बैठना बहुत रहा। लेकिन हमने नाटक साथ-साथ नहीं किया था। एक दिन फ़ोन आया कि एक रोल है। मैं सकुचाया। जुगल ज़बरदस्त ही एक्टर ही नहीं, प्रशिक्षक भी थे। मेरी अपनी सीमायें थीं। डर लगाकि मैं उन्हें संतुष्ट नहीं करा पाया तो? खुद को जुगल के सामने एक्सपोज़ नहीं करना चाहता था। लेकिन जुगल ने मुझे सहज कर दिया। पिछले दो-तीन महीने से मैं जुगल के संपर्क में नहीं था। मुझे इसका ताउम्र मलाल रहेगा।
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी चित्रा मोहन ने कहा - जुगल की ढेर यादें हैं। जब वो अंदर ही अंदर बहुत भर जाते थे तो एकदम से फट पड़ते थे। घंटा-डेढ़ घंटा लगातार बोलते रहते। ऐसी-वैसी ढेर बातें कर जाते। बहुत पसेज़िव थे वो। मंच पर हमेशा सही वक्त पर एंट्री और एग्ज़िट करते थे। लेकिन ज़िंदगी के मंच पर रांग एग्ज़िट कर गए।
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२८-१०-२०१५
२५ अक्टूबर की शाम बहुत ग़मगीन थी। दिवंगत साथी जुगल किशोर को याद करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में लखनऊ के तमाम सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और साहित्यकार और उनसे सरोकार रखने वाले भारतेंदु नाट्य अकादेमी में जुटे थे। जुगल के अकस्मात् चले से जाने से हर शख़्स शोक में डूबा था।
संचालन करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय महसचिव राकेश भी आंसू नहीं रोक पा रहे थे। आज वो व्यवस्थित नहीं थे। वो बता रहे थे - कल तक जो सामने था आज नेपथ्य में चला गया है। पिछले ४० साल में मैंने उसमें एक बहुत अच्छे अभिनेता, निर्देशक, प्रशिक्षक, लेखक और इंसान के रूप में देखा।
जुगल को नाटक का ककहरा पढ़ाने वाले सुप्रसिद्ध वरिष्ठ प्रशिक्षक और रंगकर्मी राज बिसारिया ने कहा - वो मेरा बच्चा था। महबूब था। बरसों पहले इंटर पास एक दुबले-पतले नौजवान के रूप में भरपूर स्प्रिट के साथ आया था। उसकी स्प्रिट को सलाम। उसकी मसखरी का पात्र हमेशा मैं रहा। जो जितना दूर जाता है उतना ही पास रहता है। दुःख-दर्द बहुत गहरा होता है। उसकी ज़ुबान नहीं होती। आज का दिन रोने का नहीं, जश्न मनाने है। उसकी याद में खुद को मज़बूत करने का है। नाटक करो। यह ज़िंदगी का आईना है। अपने दौर में जुगल जितना कर गया, उसे मैं सलाम करता हूं। अपने फ़न से वो सबको हराता रहा, लेकिन खुद मौत से हार गया। जुगल हमारी सांसो में रहेगा।
सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव की नज़र में रंगकर्म समाज का आईना है और जुगल ने इस सरोकार से सदैव रिश्ता बनाये रखा। इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जीवंत रिश्ता रखा। साहित्य से बहुत गहरा जुड़ाव रहा उनका। सदैव संभावना खोजा करते थे कि अमूक साहित्यिक कृति का नाट्य रूपांतरण कैसे तैयार किया जाये। खुद को समृद्ध करने के लिए साहित्यिक गोष्ठियों में अक्सर मौजूद रहते। सिनेमा में जाने के बावजूद वो रंगमंच से प्रतिबद्ध रहे। संस्कृति के लिए आज का समय बहुत ख़राब है। ऐसे में एक बहुत अच्छे साथी का चले जाना बहुत ही कष्टप्रद है।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रंगकर्मी सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ ने कहा - अभी तक सुना था कि मौत बहुत बेरहम होती है। चुपके से आती है। लेकिन आज देख भी लिया। सुबह उसने संगीत नाटक अकादमी का ईनाम मिलने की मुबारक़बाद दी और शाम को रुला दिया। जुगल का जाना रंगमंच की क्षति है, समाज की भी क्षति है। उसके साथ कई नाटकों में काम किया। हंसी मज़ाक और गप्पें मारना बहुत अच्छा लगता था। यह संयोग है कि वो नाटकों में मौत का बहुत शानदार अभिनय करता रहा। उसका जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति है। मैंने एक दोस्त खोया है।
वरिष्ठ रंगकर्मी आतमजीत सिंह ने बताया - जुगल का जाना एक दर्दभरी घटना है। ऐसा लग रहा है जैसे कोई गंभीर रंगमंच चल रहा है। वो बड़ा स्तंभ था। उनका स्थान किसी के लिए लेना मुश्किल है। जुगल को याद करने का तरीका यही होगा कि नाटक चलता रहे।
सुप्रसिद्ध लेखक-कवि नलिन रंजन सिंह ने बताया कि बहुत नज़दीकी रिश्ता था जुगल से। एक हंसता हुआ चेहरा। ज़िंदादिल इंसान थे वो। जब भी मिले, नए लोगों को रंगमंच से जोड़ने की संभावनाएं हमेशा तलाशते हुए। चिंतित रहते थे कि नई पीढ़ी रंगमंच के दायित्व का कैसे निर्वहन करेगी। ज़रुरत है कि उनकी चेतना से जुड़ कर या वैचारिक रूप से या लेखन के माध्यम से आगे बढ़ाया जाये।
अलग दुनिया के केके वत्स ने बताया - सिनेमा से जुड़ने के बावजूद जुगल ने लखनऊ नहीं छोड़ा। याद नहीं आता कि उनका किसी से कोई मतभेद रहा हो। जुगल की याद में प्रत्येक वर्ष २५ हज़ार का एक पुरुस्कार मंच पर सामने या नेपथ्य में शानदार काम करने केलिए दिया जाएगा। इसकी शुरुआत उनके जन्मदिन २५ फरवरी से होगी।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ अभिनेता अरुण त्रिवेदी का कहना था - मेरा जुगल से पिछले ३५-३६ साल से दिन-रात का साथ रहा। हम भारतेंदु नाट्य अकादमी में लगभग एकसाथ आये। रंगमंच से जुड़ी अनेक व्याधियों और कष्टों को एकजुटता से झेला। स्टेज ही नहीं बाहर भी हम एकसाथ रहे। प्रशासनिक अड़चनों के बावजूद हमने अकादमी की प्रस्तुतियों पर कोई आंच नहीं आने दी, उसकी शान को कभी धूमिल नहीं होने दिया। जुगल अपनी स्टाईल में बिना बताये और बिना किसी से सेवा कराये, चुपके से बहुत दूर चले गए।
तरुण राज ने कहा - जो रोज़ मिलते हैं, वो दिल में समा जाते हैं। पिछले हफ़ते ही जुगल ने कहा था, बहुत साल हो चुके हैं अब बैठकें नहीं होतीं। इस सिलसिले को फिर से क़ायम किया जाये।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रंगकर्मी वेदा राकेश ने कहा - बहुत पुराना साथ है जुगल से। उन दिनों रंगमंच के काम से जब भी कहीं जाना होता था तो जुगल अपनी साईकिल लिये हाज़िर मिलते। वो हीरो हुआ करते हम लोगों के। बहुत चंचल और शैतान थे। अपने साथियों का बहुत ख्याल रखते थे वो। यह गुण उनकी आदतों में शामिल थे। मैं उनकी मुस्कान, उसके खुशनुमा चेहरे और बोलती आंखों को याद करते रहना चाहूंगी।
वरिष्ठ रंगकर्मी मृदुला भारद्वाज ने कहा - मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल है जुगल के बारे में बात करना। वो बहुत अच्छा नहीं, बहुत ख़राब एक्टर था। बिना बताये चला गया। जिस तरीके से गया, वो तो बहुत ही ख़राब था। गज़ब का परफेक्शनिस्ट एक्टर था वो। अपने से बहुत प्यार करता था। शायद इसलिये भी बहुत अच्छा एक्टर था। जितनी देर काम करता था अपने पर बहुत ध्यान देता रहा। हर एक्ट के बाद पूछता था, कैसा रहा? हमें जब भी किसी कार्यक्रम में जाना होता था तो जुगल को फ़ोन करते थे कि पहुंच रहे हो न। लेकिन आज तो उसी की याद में आना था। कोई फ़ोन नहीं कर पाये।
वरिष्ठ रंगकर्मी प्रदीप घोष ने बताया - मैं पिछले ४० साल से जानता था जुगल को। बंदे में बहुत दम था। उसकी सोच बहुत बड़ी थी। मैंने उसे बहुत अच्छी एक्टिंग करते हुए देखा है। बहुत कम होते ऐसे एक्टर।
युवा रंगकर्मी और समाजसेवी दीपक कबीर ने बताया - बहुत कुछ सीखा है मैंने जुगलजी से। नाटक को लेकर बहुत चिंतित देखा है उनको। सेलेब्रटी होने के बावजूद उनमें ईगो नहीं था। कहीं भी बैठ जाते। सादगी की मिसाल थे वो। सामजिक कार्यकर्ता भी थे वो। इसीलिए कार्यक्रमों में उनको अक्सर बुलाया जाता था। लेकिन वो बोलने के इच्छुक कतई नहीं रहे। एक दिन बोले, आजकल हम कंडोलेंस बहुत करते हैं। क्या यही करते रहेंगे ज़िंदगी भर?
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ रंगकर्मी पुनीत अस्थाना ने बताया - जुगल बहुत पुराने साथी थे उनके। ज़बरदस्त पोटेंशियल था उनमें। जब पहली बार देखा तो हम तभी समझ गए थे कि लंबी रेस का घोड़ा हैं जुगल। परकाया में घुस कर एक्टिंग करते थे वो। वो अक्सर कहा करते थे कि लोग एक्टिंग करना चाहते हैं, पढ़ना नहीं चाहते हैं। मैंने उनके हाथ में हमेशा कोई न कोई किताब देखी। वो किसी भी विषय से संबंधित होती थी। उनकी टाईमिंग गज़ब की थी, लेकिन यह आख़िरी वाली टाईमिंग बिलकुल पसंद नहीं आई।
वरिष्ठ रंगकर्मी गोपाल सिन्हा ने बताया - जुगल अक्सर फ़ोन करते थे। बहुत लंबी लंबी बातें होती थीं। साथ-साथ उठना-बैठना बहुत रहा। लेकिन हमने नाटक साथ-साथ नहीं किया था। एक दिन फ़ोन आया कि एक रोल है। मैं सकुचाया। जुगल ज़बरदस्त ही एक्टर ही नहीं, प्रशिक्षक भी थे। मेरी अपनी सीमायें थीं। डर लगाकि मैं उन्हें संतुष्ट नहीं करा पाया तो? खुद को जुगल के सामने एक्सपोज़ नहीं करना चाहता था। लेकिन जुगल ने मुझे सहज कर दिया। पिछले दो-तीन महीने से मैं जुगल के संपर्क में नहीं था। मुझे इसका ताउम्र मलाल रहेगा।
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी चित्रा मोहन ने कहा - जुगल की ढेर यादें हैं। जब वो अंदर ही अंदर बहुत भर जाते थे तो एकदम से फट पड़ते थे। घंटा-डेढ़ घंटा लगातार बोलते रहते। ऐसी-वैसी ढेर बातें कर जाते। बहुत पसेज़िव थे वो। मंच पर हमेशा सही वक्त पर एंट्री और एग्ज़िट करते थे। लेकिन ज़िंदगी के मंच पर रांग एग्ज़िट कर गए।
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२८-१०-२०१५
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