वे 1956 बैच के आईएएस अफसर थे, पहली बार जब मैंने उन्हे देखा तो वे हमारी ऑफिस की सीढ़ियाँ चढ़ते खटाखट ऊपर चले आ रहे थे। घुटनों तक चढ़ी धोती और मोटा खद्दर का कुर्ता, बढ़ी हुई खिचड़ी दाढ़ी, हाथों मे दस बीस किताबें, कंधे पर टंगा हुआ खादी का झोला। ये बीडी शर्मा थे। मुझे क्या पता। सीधे मेरी टेबल पर आए और पूछा सर्वोदय जगत के संपादक आप ही हैं...? एकबुजुर्ग आदमी को सामने यूं झुकता देखकर मै भी खड़ा हो गया--जी, मै ही हूँ। ये आप ये 'ग्राम गणराज्य' पढ़ते हैं...? पढ़िये...! बारह पेज का एक टेब्लोएड अखबार जैसा कुछ। खोला तो पूरा ही हस्तलिखित....! बोले--जी मै ही लिखता हूँ...खुद से ही...! उस समय का उस पत्र का वार्षिक ग्राहक शुल्क मैंने 15 रूपये जमा करवा दिये। कई बार वे पंद्रह दुबारा भी भेजे गए और कई बार नही भी भेजे गए, पर ग्राम गणराज्य कभी नही आई हो, ऐसा कभी नही हुआ। ये आज से करीब ग्यारह साल पहले की बात है, जब बीडी शर्मा ग्राम गणराज्य की अपनी कल्पना को ही अपना मिशन बनाकर पूरे देश मे आँधी तूफान की तरह दौड़ रहे थे और रचनात्मक संघर्षों मे पड़ी शक्तियों को जोड़ रहे थे। अब वे नही हैं, इस खबर पर सहसा विश्वास नही होता।
बीडी शर्मा यानी हम सबके ब्रह्मदेव शर्मा। हमारे बड़े, हमारे अग्रज, हमारे मार्गदर्शक, अपनी तरह के अकेले, अनूठे और एकमात्र। मनुष्यों की इस बस्ती मे एक विशिष्ट इंसान, जिन्हे पद, पैसे या प्रभाव ने कभी विचलित नही किया और न ही वे कभी किसी बंधी बंधाई लीक पर चले। एक लोकसेवक के बतौर जिन्होने अपने पथ के फूल कांटे खुद चुने। अपनी जिम्मेदारियाँ खुद तय की और लोकाभिमुख होने के बजाय लोकोन्मुख होने को वरीयता दी, चाहे उनके रास्ते मे स्वयं इन्दिरा गांधी भी आ खड़ी हुई हों। डॉ बीडी शर्मा अपने आप मे हमारे वक़्त के इतिहास थे। उन्होने अपनी ज़िंदगी के सूत्र गांधी की जीवनी से ग्रहण किए। आइये उनके बारे मे कुछ जानें। 1968 के दौरान जब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ एक था. उस समय वे बस्तर जिले के कलेक्टर थे. निरीक्षण के दौरान उन्हें पता चला कि बैलाडीला में लौह अयस्क की खदानों में काम करने गए गैर जनजातीय पुरुषों ने शादी के नाम पर कई भोली-भाली आदिवासी युवतियों का दैहिक शोषण किया और फिर उन्हें छोड़ दिया.जिससे कई आदिवासी युवतियां गर्भवती हो गई और कुछ के तो बच्चों ने जन्म भी ले लिया था. ऐसी परिस्थिति में डॉक्टर ब्रह्मदेव ने ऐसी तमाम आदिवासी युवतियों का सर्वे कराया और उनके साथ यौन संबंध बनाने वाले लोगों, जिनमें कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी थे, को बुलाकर कह दिया कि या तो इन युवतियों को पत्नी के रूप में स्वीकार करो या आपराधिक मुकदमे के लिए तैयार हो जाओ.आखिर डॉक्टर ब्रह्मदेव के सख्त तेवर देख सबको शादी के लिए तैयार होना पड़ा और 300 से अधिक आदिवासी युवतियों की सामूहिक शादी करवाई गई.इस घटना और बस्तर में रहते हुए डॉक्टर ब्रह्मदेव का आदिवासियों से गहरा लगाव हो गया. यहां तक की आदिवासी भी उनसे गहरा लगाव रखने लगे.
आदिवासियों को नुकसान से बचाने के लिए ऐसे कई मौके आए जब वे सरकार के खिलाफ खड़े हो गए. 1973-74 में वो केन्द्रीय गृह मंत्रालय में निदेशक बने और फिर संयुक्त सचिव भी.इस दौरान सरकार बस्तर में जनजातीय इलाके में विश्व बैंक से मिले 200 करोड़ रुपये की लागत से 15 कारखाने लगाए जाने की योजना लाई. जिसका उन्होंने खुलकर विरोध किया.उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इससे सालों से उन इलाकों में रह रहे जनजातीय लोग दूसरे क्षेत्र में पलायन करने के लिए मजबूर हो जाएंगे, जो सही नहीं है. लेकिन सरकार उनसे सहमत नहीं हुई. आखिरकार 1980 में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देकर खुद को नौकरशाही से आजाद कर लिया.इस घटना के बाद वे व्यक्तिगत रूप में आदिवासियों की बेहतरी के लिए काम करने लगे. आदिवासियों के लिए इतना संघर्ष और उनके लिए लगातार काम करते रहने के समर्पण ने उन्हे आदिवासियों का मसीहा बना दिया. वे भारत के महानतम सिविलसर्वेंट्स में से एक थे. उनका आईएएस होना, गणित का पीएचडी, पूर्व एससी-एसटी कमिश्नर, पूर्व वाइस चांसलर या केंद्रीय गृह मंत्रालय मे सचिव होना भी कभी उनपर चढ़ नही पाया। वे उनमे से थे जो खुद ही अपने दायित्वों पर चढ़े रहते हैं। वे किसी भी पीढ़ी के लिए एक इंसान और एक सिविल सर्वेंट के तौर पर आदर्श व्यक्ति थे. वे ग़रीब आदमी की तरह रहते थे और खास बात ये कि अपने लिए ये गरीबी उनकी खुद की चुनी हुई थी। दिल्ली में अगर आप उनका मकान देखें तो वह एक झुग्गी झोपड़ी वाले इलाक़े में था.ऐसा नहीं था कि उनके पास पैसे नहीं थे लेकिन उनका मानना था कि जीना है तो एक साधारण आदमी की तरह जीना है. मेरे ख़्याल से भारत की प्रशासनिक सेवा के इतिहास में आपको ऐसा सिविल सर्वेंट नहीं मिलेगा जो बीडी शर्मा जैसा जिया हो। एकदम निर्वैर, एकदम अजातशत्रु।
जब वे अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग के प्रमुख थे तो उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से कहा था --मैं एक रुपए तन्ख़्वाह लूंगा लेकिन आप हमारे काम में दख़ल मत दीजिएगा.जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने एक दिन शर्मा जी से पूछा कि आपका काम और स्टेटस क्या है. उन्होंने कहा कि देखिए राजीव जी, स्टेटस तो मेरा कुछ नहीं है क्योंकि मैं सिर्फ़ एक रुपए की तन्ख़्वाह लेता हूं लेकिन मुझे कोई ख़रीद नहीं सकता. ये मेरा स्टेटस है. भारत के प्रधानमंत्री को जवाब देने का जो उनमें साहस था वो अद्भुत और असाधारण था.वे अक्सर कहा करते थे कि जब हमारा संविधान बना तो भारत आज़ाद हुआ लेकिन आदिवासियों की आज़ादी छिन गई. अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के आयुक्त के तौर जो रिपोर्ट उन्होंने तैयार की उसे देश के आदिवासियों की भयावह स्थिति बताने वाले और उनकी सिफ़ारिशों को आदिवसियों को न्याय दिलाने की ताक़त रखने वाले दस्तावेज़ के रूप में देखा जाता है.
उन्होंने गांवों की ग़रीबी का राज़ बताते हुए किसानों की सुनियोजित लूट का विस्तृत ब्योरा दिया था. भारत जनांदोलन और किसानी प्रतिष्ठा मंच का गठन कर उन्होंने आदिवासी और किसानों के मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा. अक्सर सामाजिक आंदोलन पहले संस्था बनाते हैं फिर विचारों को फैलाने का काम करते हैं लेकिन डॉ. शर्मा के मुताबिक़ संस्था नहीं विचारों को पहले आमजन तक पहुंचना चाहिए. "जल जंगल ज़मीन" का नारा और इस संबंध में उनकी लिखी हुई किताबों ने भी अहम भूमिका अदा की और "गांव गणराज" की परिकल्पना ने ठोस रूप लिया जिसके तहत ये स्पष्ट हुआ कि गांव के लोग अपने संसाधनों का एक हिस्सा नहीं चाहते, वे उसकी मिल्कियत चाहते हैं. मुलताइ पुलिस फ़ायरिंग के बाद वे सरकार के नज़दीक होने के बावजूद किसानों की ओर से लगातार लड़ते रहे. उन्होंने किसानों के पक्ष में गवाही भी दी थी. देश के सभी दलों और सरकारों के लिए वे आजीवन आदरणीय बने रहे हालांकि बस्तर में औद्योगीकरण का विरोध करने के कारण राजनीतिक दल से जुड़े लोगों ने उन्हें अपमानित करने और उन पर हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
उनके सामाजिक अवदानों पर एक गहरी नज़र डालिए तो उन्हे प्रणाम करने के लिए हाथ स्वतः जुडने लगते हैं.
Prem Prakash
बीडी शर्मा यानी हम सबके ब्रह्मदेव शर्मा। हमारे बड़े, हमारे अग्रज, हमारे मार्गदर्शक, अपनी तरह के अकेले, अनूठे और एकमात्र। मनुष्यों की इस बस्ती मे एक विशिष्ट इंसान, जिन्हे पद, पैसे या प्रभाव ने कभी विचलित नही किया और न ही वे कभी किसी बंधी बंधाई लीक पर चले। एक लोकसेवक के बतौर जिन्होने अपने पथ के फूल कांटे खुद चुने। अपनी जिम्मेदारियाँ खुद तय की और लोकाभिमुख होने के बजाय लोकोन्मुख होने को वरीयता दी, चाहे उनके रास्ते मे स्वयं इन्दिरा गांधी भी आ खड़ी हुई हों। डॉ बीडी शर्मा अपने आप मे हमारे वक़्त के इतिहास थे। उन्होने अपनी ज़िंदगी के सूत्र गांधी की जीवनी से ग्रहण किए। आइये उनके बारे मे कुछ जानें। 1968 के दौरान जब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ एक था. उस समय वे बस्तर जिले के कलेक्टर थे. निरीक्षण के दौरान उन्हें पता चला कि बैलाडीला में लौह अयस्क की खदानों में काम करने गए गैर जनजातीय पुरुषों ने शादी के नाम पर कई भोली-भाली आदिवासी युवतियों का दैहिक शोषण किया और फिर उन्हें छोड़ दिया.जिससे कई आदिवासी युवतियां गर्भवती हो गई और कुछ के तो बच्चों ने जन्म भी ले लिया था. ऐसी परिस्थिति में डॉक्टर ब्रह्मदेव ने ऐसी तमाम आदिवासी युवतियों का सर्वे कराया और उनके साथ यौन संबंध बनाने वाले लोगों, जिनमें कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी थे, को बुलाकर कह दिया कि या तो इन युवतियों को पत्नी के रूप में स्वीकार करो या आपराधिक मुकदमे के लिए तैयार हो जाओ.आखिर डॉक्टर ब्रह्मदेव के सख्त तेवर देख सबको शादी के लिए तैयार होना पड़ा और 300 से अधिक आदिवासी युवतियों की सामूहिक शादी करवाई गई.इस घटना और बस्तर में रहते हुए डॉक्टर ब्रह्मदेव का आदिवासियों से गहरा लगाव हो गया. यहां तक की आदिवासी भी उनसे गहरा लगाव रखने लगे.
आदिवासियों को नुकसान से बचाने के लिए ऐसे कई मौके आए जब वे सरकार के खिलाफ खड़े हो गए. 1973-74 में वो केन्द्रीय गृह मंत्रालय में निदेशक बने और फिर संयुक्त सचिव भी.इस दौरान सरकार बस्तर में जनजातीय इलाके में विश्व बैंक से मिले 200 करोड़ रुपये की लागत से 15 कारखाने लगाए जाने की योजना लाई. जिसका उन्होंने खुलकर विरोध किया.उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इससे सालों से उन इलाकों में रह रहे जनजातीय लोग दूसरे क्षेत्र में पलायन करने के लिए मजबूर हो जाएंगे, जो सही नहीं है. लेकिन सरकार उनसे सहमत नहीं हुई. आखिरकार 1980 में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देकर खुद को नौकरशाही से आजाद कर लिया.इस घटना के बाद वे व्यक्तिगत रूप में आदिवासियों की बेहतरी के लिए काम करने लगे. आदिवासियों के लिए इतना संघर्ष और उनके लिए लगातार काम करते रहने के समर्पण ने उन्हे आदिवासियों का मसीहा बना दिया. वे भारत के महानतम सिविलसर्वेंट्स में से एक थे. उनका आईएएस होना, गणित का पीएचडी, पूर्व एससी-एसटी कमिश्नर, पूर्व वाइस चांसलर या केंद्रीय गृह मंत्रालय मे सचिव होना भी कभी उनपर चढ़ नही पाया। वे उनमे से थे जो खुद ही अपने दायित्वों पर चढ़े रहते हैं। वे किसी भी पीढ़ी के लिए एक इंसान और एक सिविल सर्वेंट के तौर पर आदर्श व्यक्ति थे. वे ग़रीब आदमी की तरह रहते थे और खास बात ये कि अपने लिए ये गरीबी उनकी खुद की चुनी हुई थी। दिल्ली में अगर आप उनका मकान देखें तो वह एक झुग्गी झोपड़ी वाले इलाक़े में था.ऐसा नहीं था कि उनके पास पैसे नहीं थे लेकिन उनका मानना था कि जीना है तो एक साधारण आदमी की तरह जीना है. मेरे ख़्याल से भारत की प्रशासनिक सेवा के इतिहास में आपको ऐसा सिविल सर्वेंट नहीं मिलेगा जो बीडी शर्मा जैसा जिया हो। एकदम निर्वैर, एकदम अजातशत्रु।
जब वे अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग के प्रमुख थे तो उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से कहा था --मैं एक रुपए तन्ख़्वाह लूंगा लेकिन आप हमारे काम में दख़ल मत दीजिएगा.जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने एक दिन शर्मा जी से पूछा कि आपका काम और स्टेटस क्या है. उन्होंने कहा कि देखिए राजीव जी, स्टेटस तो मेरा कुछ नहीं है क्योंकि मैं सिर्फ़ एक रुपए की तन्ख़्वाह लेता हूं लेकिन मुझे कोई ख़रीद नहीं सकता. ये मेरा स्टेटस है. भारत के प्रधानमंत्री को जवाब देने का जो उनमें साहस था वो अद्भुत और असाधारण था.वे अक्सर कहा करते थे कि जब हमारा संविधान बना तो भारत आज़ाद हुआ लेकिन आदिवासियों की आज़ादी छिन गई. अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के आयुक्त के तौर जो रिपोर्ट उन्होंने तैयार की उसे देश के आदिवासियों की भयावह स्थिति बताने वाले और उनकी सिफ़ारिशों को आदिवसियों को न्याय दिलाने की ताक़त रखने वाले दस्तावेज़ के रूप में देखा जाता है.
उन्होंने गांवों की ग़रीबी का राज़ बताते हुए किसानों की सुनियोजित लूट का विस्तृत ब्योरा दिया था. भारत जनांदोलन और किसानी प्रतिष्ठा मंच का गठन कर उन्होंने आदिवासी और किसानों के मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा. अक्सर सामाजिक आंदोलन पहले संस्था बनाते हैं फिर विचारों को फैलाने का काम करते हैं लेकिन डॉ. शर्मा के मुताबिक़ संस्था नहीं विचारों को पहले आमजन तक पहुंचना चाहिए. "जल जंगल ज़मीन" का नारा और इस संबंध में उनकी लिखी हुई किताबों ने भी अहम भूमिका अदा की और "गांव गणराज" की परिकल्पना ने ठोस रूप लिया जिसके तहत ये स्पष्ट हुआ कि गांव के लोग अपने संसाधनों का एक हिस्सा नहीं चाहते, वे उसकी मिल्कियत चाहते हैं. मुलताइ पुलिस फ़ायरिंग के बाद वे सरकार के नज़दीक होने के बावजूद किसानों की ओर से लगातार लड़ते रहे. उन्होंने किसानों के पक्ष में गवाही भी दी थी. देश के सभी दलों और सरकारों के लिए वे आजीवन आदरणीय बने रहे हालांकि बस्तर में औद्योगीकरण का विरोध करने के कारण राजनीतिक दल से जुड़े लोगों ने उन्हें अपमानित करने और उन पर हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
उनके सामाजिक अवदानों पर एक गहरी नज़र डालिए तो उन्हे प्रणाम करने के लिए हाथ स्वतः जुडने लगते हैं.
Prem Prakash
No comments:
Post a Comment