Wednesday, March 7, 2012

नज़ीर व परसाई की होली


जब फागुन रंग झमकते हों 

- नज़ीर अकबराबादी
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।

हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।

और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।

ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।।

अश्लील साहित्य की होली
- हरिशंकर परसाई
शहर में ऐसा शोर था कि अश्लील साहित्य का बहुत प्रचार हो रहा है। अखबारों में समाचार और नागरिकों के पत्र छपते कि सड़कों के किनारे खुले आम अश्लील पुस्तकें बिक रही हैं। दस बारह उत्साही समाज सुधारक युवकों ने टोली बनाई और तय किया कि जहाँ भी मिलेगा हम ऐसे साहित्य को छीन लेंगे और उसकी सार्वजनिक होली जलाएँगे।

उन्होंने एक दूकान पर छापा मारकर बीस-पच्चीस अश्लील पुस्तकें हाथों में की। हरेक के पास दो या तीन किताबें थीं। मुखिया ने कहा-'आज तो देर हो गई। कल शाम को अखबार में सूचना देकर परसों किसी सार्वजनिक स्थान में इन्हें जलाएँगे। प्रचार करने से दूसरे लोगों पर भी असर पड़ेगा। कल शाम को सब मेरे घर पर मिलो। पुस्तकें मैं इकट्ठी अभी घर नहीं ले जा सकता। बीस-पच्चीस हैं। पिताजी और चाचाजी हैं। देख लेंगे तो आफत हो जाएगी। ये दो-तीन किताबें तुम लोग छिपाकर घर ले जाओ। कल शाम को ले आना।'

दूसरे दिन शाम को सब मिले पर कोई किताब नहीं लाया था। मुखिया ने कहा-'किताबें दो तो मैं इस बोरे में छिपाकर रख दूँ। फिर कल जलाने की जगह बोरे ले चलेंगे।'

किताबें कोई नहीं लाया था।
एक ने कहा-'कल नहीं परसों जलाना पढ़ तो लें।'

दूसरे ने कहा-'अभी हम पढ़ रहे हैं। अब तो किताबें जब्त कर ही ली हैं। कभी भी जला देंगे।
उस दिन जलाने का कार्यक्रम नहीं बन सका। तीसरे दिन फिर किताबें लेकर मिलने का तय हुआ। तीसरे दिन भी कोई किताब नहीं लाया।

एक ने कहा-'अरे यार फादर के हाथों किताब पढ़ गई। वे पढ़ रहे हैं।'

दूसरे ने कहा-'भाभी उठाकर ले गई। बोली कि दो-तीन दिनों में पढ़कर वापस कर दूँगी।'

चौथे ने कहा-'अरे पड़ोस की चाची मेरी गैरहाजिरी में उठा ले गई। पढ़ लें तो दो-तीन दिन में जला देंगे।'

अश्लील पुस्तकें कभी नहीं जलाई गई। वे अब अधिक व्यवस्थित ढंग से पढ़ी जा रही हैं।


1 comment:

  1. परसाई जी वाली रचना पढी है... सच को मारक अंदाज में पेश किया था उन्होंने!

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