Friday, March 16, 2012

जरूरत एक अदद आधुनिक प्रेक्षागृह की

-सुभाष मिश्र

विश्व की सबसे प्राचीन सरगुजा के रामगढ़ की रंगशाला के गौरव से सीना फुलाने वाले छत्तीसगढ़ के पास आज एक भी ऐसी रंगशाला/ प्रेक्षागृह नहीं है जिसमें नाटकों का/संगीत का या किसी गंभीर विषय पर चर्चाओं, गोष्ठियों का आयोजन किया जा सके। सभी स्थानों पर कहने के लिए कुछ प्रेक्षागृह/हाल बनाए गए हैं, किंतु तकनीकी रूप से ये सभी स्थान गंभीर प्रस्तुतियों के लिए अनुपयुक्त हैं। भरतमुनि ने अपने नाट्य शास्त्र में जिस तरह की रंगशाला की बात की, उसकी चर्चा तो साल में एक बार सरगुजा में उत्सव मनाकर कर ली जाती है, किंतु उसका व्यवहारिक धरातल पर क्रियान्वयन हो, इसकी जहमत कोई नहीं उठाना चाहता ।

पिछले दिनों पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुलकलाम का रायपुर आगमन हुआ। रविशंकर विश्वविद्यालय के प्रेक्षागृह में ध्वनि की गूंज के कारण हाल में बैठे बहुत से लोगों को उनकी बातें ठीक से सुनाई नहीं दीं। जबकि विश्वविद्यालय प्रशासन ने वहां ध्वनिदोष दूर करने के लिए  काफी पैसे खर्च किये थे। यही स्थिति विधानसभा सभागृह की रही। देश और प्रदेश का कोई भी गंभीर रंगकर्मी ध्वनिदोष के कारण छत्तीसगढ़ में उपलब्ध कथित प्रेक्षागृहों में नाट्य प्रस्तुति करने से हिचकिचाता है ।

यह अपने आप में एक बड़ी विडम्बना ही है कि नाटक के जरिए पूरी दुनिया में पहचान बनाने वाले पद्मभूषण हबीब तनवीर के शहर रायपुर में एक भी सर्वसुविधायुक्त प्रेक्षागृह नहीं है। पिछले दिनों मशहूर शायर-लेखक जावेद अख्तर का जगदलपुर आना हुआ। उनके लिए दो आयोजन अलग-अलग हाल में हुए, लेकिन वे ध्वनिदोष के कारण अपना वह प्रभाव नहीं छोड़ पाए जिसके लायक ये आयोजन थे। इसका मलाल स्वयं जावेद अख्तर को है।

नाटक में हर भाव, विचार, पात्र, स्थिति और वातावरण ऐसा होना आवश्यक है कि वह मूर्त रूपायित हो सके, तभी वह रंगमंच पर काम आ सकता है और दर्शक वर्ग तक पहुंच सकता है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कहने के लिए महाराष्ट्र मंडल का प्रेक्षागृह, कालीबाड़ी का रवीन्द्र मंच, शहीद स्मारक का प्रेक्षागृह, मेडिकल कालेज का प्रेक्षागृह और रंगमंदिर है, किन्तु इनमें से एक भी ऐसी जगह नहीं है, जिसे हम तकनीकी दृष्टि से नाट्य मंचन के लिए उपयुक्त कह सकते हैं।

गैर-व्यावसायिक रंगमंच से जुड़े कलाकार बहुत ही मजबूरी में किसी तरह साउंड सर्विस वालों की मेहरबानी से अपने नाटकों की प्रस्तुति कला के नाम पर बने इन बहुउद्देश्यीय प्रेक्षागृहों में कर पाते हैं। रंगमंदिर शहर के बीच है, किन्तु उसका किराया और प्रबंधकों का व्यावसायिक नजरिया रंगकर्मियों को निराश करता  है ।
प्रतिबद्ध रंगकर्मियों ने प्रेक्षागृहों की अनुपलब्धता और अधिक किराए को देखते हुए नुक्कड़ नाटकों का बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किया और आज भी कर रहे हैं, किन्तु एकाग्रता के साथ दर्शक नाटक देखकर उससे अपना तादात्म्य स्थापित कर सके, इसके लिए जरूरी है कि एक ऐसा स्थान हो जो दर्शक को वह सब दिखाए, सुनाए जो नाटक के जरिए कलाकार कहना चाहता है। इसके लिए एक अच्छे प्रेक्षागृह का होना जरूरी है। देश के महानगर मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता, बेंगलूर में पहले से बने प्रेक्षागृहों की तरह ये भले ही कम दर्शक के लिए हों, किन्तु यहां साउंड, लाइट, बैठने आदि की पर्याप्त व्यवस्था हो ।

पूर्ववर्ती मध्यप्रदेश में कुछ साल पहले ‘इप्टा‘ के आह्वान पर राज्यभर के कलाकारों, बुद्धिजीवियों, प्रदर्शनकारी कलाओं से जुड़े कलाकारों, नागरिकों ने रैली निकालकर सभी जिला मुख्यालयों पर सर्वसुविधायुक्त प्रेक्षागृह बनाने के लिए ज्ञापन सौंपा था। रायपुर में भी इसको लेकर सब एकजुट हुए थे, उसके बाद लगातार यहां के कलाकार प्रेक्षागृह की मांग को लेकर जनप्रतिनिधियों, प्रशासकों से मिलते रहे, किन्तु आज तक एक भी सर्वसुविधायुक्त प्रेक्षागृह नहीं बन पाया। यदि कहीं कुछ बना भी तो वह ऐसा है, जो कलाकारों की भावना, जरूरत के अनुकूल नहीं   है। मानव संसाधन मंत्रालय से प्राप्त अनुदान से देश की प्रत्येक राजधानी में एक एयरकंडीशंड, सर्वसुविधायुक्त रवीन्द्र सांस्कृतिक भवन बनाने का प्रावधान है। देश के अधिकांश हिस्सों में ऐसे रवीन्द्र सांस्कृतिक भवन बन गए हैं, जहां आए दिन कोई न कोई महत्वपूर्ण आयोजन होते रहते हैं, किंतु रायपुर में आज तक इस दिशा में कोई पहल नहीं हुई । संस्कृति विभाग के पुरातत्व संग्रहालय के परिसर में हाल ही में एक मुक्ताकाशी मंच बनाकर कुछ पहल की गयी है, किन्तु अभी भी राजधानी रायपुर सहित राज्य के सभी 16 जिले अच्छे, सर्वसुविधायुक्त प्रेक्षागृह की बाट जोह रहे हैं ।


(लेख कुछ पुराना है पर प्रासंगिक है, इसलिये इसकी पुनरप्रस्तुति की जा रही है।)

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