Monday, March 26, 2012

एक था अखबार

नयी दुनिया का पराभव

-हरिवंश
(हरिवंश जी वरिष्ठ पत्रकार तथा  "प्रभात खबर" अखबार के संपादक हैं। "नयी दुनिया" के बिकने की खबरों के बीच तीन किस्तों में उनकी यह लेखमाला  प्रभात खबर  में ही प्रकाशित हुई है। इस अत्यंत महत्वपूर्ण व विचारोत्तेजक लेखमाला को इप्टानामा के पाठकों के लिये पुनरप्रकाशित किया जा रहा है)
एक समय हिंदी पत्रकारिता का स्कूल कहे जानेवाले अखबार नई दुनिया का पराभव, पूरे हिंदी भाषी समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. इसकी स्थितियों, कारकों व कारणों को हम सबको समझना चाहिए. पत्रकारिता, पत्रकारिता के वित्तपोषण और बाजारवाद के इस दौर की प्रतिस्पर्धा में मुनाफ़े के अर्थशास्त्र पर स्वस्थ बहस शुरू होनी चाहिए. किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए इन सवालों से कतराना घातक ही साबित होता है. यह आलेख श्रृंखला इसी विमर्श को शुरू करने का प्रयास है.
65 साल पहले इंदौर से शुरू होने वाले अखबार, नई दुनिया के बिकने की खबर इन दिनों चर्चा में है. कुछेक पत्रकारों में (शेष अन्य को मतलब भी नहीं) चिंता और सरोकार है. एक मित्र ने वेबसाइट पर लिखा है, नई दुनिया केवल एक अखबार नहीं रहा है. बल्कि यह एक संस्कार की तरह पुष्पित और पल्लवित हुआ. हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में नई दुनिया ने वह मुकाम पाया, जो देश के नंबर एक और नंबर दो अखबार कभी सपने में भी नहीं सोच सकते. इस अखबार ने देश को सर्वाधिक संपादक और योग्य पत्रकार दिये हैं.
यह बिलकुल सटीक आकलन व निष्कर्ष है. पर इसमें जोड़ा जाना चाहिए कि नई दुनिया सिर्फ़ अच्छे पत्रकारों को देने के लिए ही नहीं जाना जायेगा. सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण बात यह है कि नई दुनिया ने अपने दौर, काल या युग के जलते-सुलगते सवालों को जिस बेचैनी और शिद्दत से उठाया, वह इस अखबार की पहचान और साख है.
इसने हिंदी पत्रकारिता को एक संस्कृति दी (जो आज की दुनिया के नंबर एक और नंबर दो बन जानेवाले हिंदी अखबार सपने में भी नहीं कर पायेंगे). बहुत पहले स्वर्गीय राजेंद्र माथुर ने (1983-84 के आसपास) राहुल बारपुते पर एक लेख लिखा था. उसमें उन्होंने मालवा की संस्कृति, पुणे के प्रभाव और गंगा किनारे की उत्तर प्रदेश-बिहार की भिन्न संस्कृति की चर्चा की थी. उनकी बातों का आशय था, अपने को हिंदी की मुख्यधारा माननेवाली पट्टी और उसके बौद्धिक, मालवा की संस्कृति और उसमें नई दुनिया का योगदान और राहुल बारपुते के व्यक्तित्व का आकलन नहीं कर पायेंगे.
यह सही है. एक शिष्टता, संस्कार और मर्यादा से राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, अभय छजलानी जैसे लोगों ने नई दुनिया को शीर्ष पर पहुंचाया. क्या इतने बड़े अखबार को सिर्फ़ चापलूसों की फ़ौज डुबा सकती है? नहीं, साम्राज्यों या संस्थाओं के पतन में षड्यंत्रकारी या दरबारी चापलूसों की एक सीमा तक ही भूमिका रहती है.
क्या सफ़लता से चल रहे बड़े या छोटे घरानों में ये चापलूस या षड्यंत्रकारी नहीं होते. दरअसल, साम्राज्यों या संस्थाओं के पतन के मूल में अन्य निर्णायक व मारक कारण होते हैं.समय की धार को न पहचानना और उसके अनुरूप कदम न उठाना, पतन का मूल कारण होता है. फ़िर सबसे बड़ा मारक कारक तो ओर्थक व्यवस्था है. इस तरह की किसी चीज के पतन के मूल में, ऐसी चीजों के प्रभाव जरूर होते हैं. पर इससे अधिक विध्वंसकारी तत्व अलग होते हैं.नई दुनिया का अवसान, इस युग के धाराप्रवाह का प्रतिफ़ल है. यह बड़ा और व्यापक सवाल है.
यह सिर्फ़ नई दुनिया तक सीमित नहीं है. देश की अर्थनीति और राजनीति से जुड़ा यह प्रसंग है. माक्र्स-एंगेल्स की अवधारणा सही थी. ओर्थक कारण और हालात ही भविष्य तय करते हैं. डार्विन का सिद्धांत ही बाजारों की दुनिया में चलता है. मार्केट इकोनॉमी का भी सूत्र है, बड़ी मछली, छोटी मछली को खा जाती है. निगल जाती है. आगे भी खायेगी या निगलेगी.
बाजार खुला होगा, अनियंत्रित होगा, तो यही होगा. जिसके पास पूंजी की ताकत होगी, वह अन्य पूंजीविहीन प्रतिस्पर्धियों को मार डालेगा.1983-85 के बीच, राजेंद्र माथुर का राहुल बारपुते पर एक लेख पढ़ा था. लेख का शीर्षक था- हिंदी पत्रकारिता संदर्भ राहुल बारपुते. माथुर जी से मुलाकात तो धर्मयुग में काम करते दिनों में हुई थी. 1980 के आसपास. गणेश मंत्री के साथ. तब से उनकी प्रतिभा से परिचित था. नई दुनिया की श्रेष्ठ परंपरा से भी. उस लेख में माथुर जी ने लिखा था, ’पांच साल दिल्ली में नवभारत टाइम्स की संपादकीय के बारे में कह सकता हूं कि नयी-पुरानी और दुर्लभ किताबों की दृष्टि से, बीसियों किस्म की पत्र-पत्रिकाओं की दृष्टि से, पत्रकारिता की ताजा पेशेवर सूचनाओं की दृष्टि से और संसार में जो ताना-बाना प्रतिक्षण बुना जा रहा है, उसे छूकर देखे जाने के सुख की दृष्टि से, जो 27 अखबारी वर्ष मैंने नई दुनिया में गुजारे, वे दिल्ली की तुलना में कतई दरिद्र नहीं थे.
एक माने में बेहतर ही थे, क्योंकि तब सार्थक पढ़ाई-लिखाई की फ़ुरसत ज्यादा मिलती थी.’यह थी नई दुनिया की परंपरा. नई दुनिया महज एक अखबार नहीं रहा है. वह हिंदी के बौद्धिक जगत का सांस्कृतिक आलोड़न कर रहा है. हिंदी क्षेत्र में संस्कार और संस्कृति गढ़ने-बताने-समझने और विकसित करने का मंच भी. आज अखबारों में बाइलाइन या क्रेडिट पाने की छीना-झपटी होती है.
उस अखबार ने कुछ मूल्य और प्रतिमान गढ़े. गंभीर और मर्यादित पत्रकारिता के लिए. माथुर साहब ने लिखा था कि ‘राहुल बारपुते हर रोज मेरे कॉलम के साथ, मेरा नाम छापने को तैयार थे. मुङो यह ईल लगा. मैंने आग्रह किया कि मैं प्रतिदिन अहस्ताक्षरित ही लिखूंगा’. क्योंकि माथुर साहब को प्रेरणा मिली थी उन दिनों के चोटी के स्तंभकारों से, जो अपना नाम नहीं छापते थे. तब ए. डी. गोरवाला जी, विवेक नाम से लिखते थे. शामलाल जी, अदिव के नाम से लिखते थे. दुर्गादास जी, इंसाफ़ के नाम से लिखते थे. तब शरद जोशी जी भी नई दुनिया में ब्रह्मपुत्र नाम से लिखते थे.यह संस्कार, और परिपाटी-मर्यादा विकसित करने का पालना रहा है, नई दुनिया. आज देख लीजिए, संपादक, अपने ही अखबार में अपनी तसवीर, अपने लोगों की फ़ोटो, अपने परिवार का गुणगान कर किस मर्यादा और अनुशासन का पालन करते हैं? यह दरअसल धाराओं की लड़ाई है.
एक सामाजिक धारा है, जिसका प्रतिबिंब नई दुनिया का पुराना अतीत रहा है. मूल्यों से गढ़ा गया. तब नई दुनिया ने वैदेशिक कालम की शुरुआत की. जब इसकी कोई खास जरूरत नहीं थी, पाठकों के बीच इसकी मांग नहीं थी. पर अपने पाठकों का संसार समृद्ध करना उसने अपना फ़र्ज समझा. आज बड़ी पूंजी से निकलने वाले अखबारों का फ़र्ज क्या है? वे पाठकों को उनकी रुचि का सर्वे करा कर फ़ूहड़ और ईल चीजें भी देने को तैयार हैं. पाठकों की इच्छा के विपरीत, उनके संस्कार गढ़ने, ज्ञान संसार समृद्ध करने का जोखिम लेने को तैयार नहीं. पर नई दुनिया ने यह किया. आज पहला मकसद है, अखबारों का, प्राफ़िट मैक्सीमाइजेशन. यह नयी पत्रकारिता बाजार को साथ लेकर चलती है. हर वर्ग को खुश रखना चाहती है.
उपभोक्तावादी संसार उसे ताकत देते हैं, इसलिए यह धारा आज ज्यादा प्रबल है. यह तामसिक है. पहली धारा (जिससे नई दुनिया का अतीत जुड़ा है) वह सात्विक रही है. आज सात्विक और तामसिक धाराओं के बीच संघर्ष है. फ़िलहाल तामसिक धारा का जोर है. सात्विक, कमजोर और उपहास के पात्र. पर अंतत: जय सात्विक धारा की होगी. इसमें भी किसी को शंका नहीं होनी चाहिए? उस दौर में हिंदी का सबसे अच्छा अखबार, नई दुनिया कहा गया. क्यों? क्योंकि माथुर साहब के शब्दों में, नातों-रिश्तों, ठेका और फ़ायदों का जमाना शुरू ही नहीं हुआ था. पत्रकारिता का पैमाना क्या था? माथुर साहब के ही शब्दों में ही पढ़िए-‘नई दुनिया में रह कर आप कह सकते हैं कि जो मैं लिखता हूं, वह मैं हूं. लेखन से जो सराहना की गूंज लौट कर आती है, वही मेरा पद है, और समाज निर्मित तथा समाज प्रदत्त होने के कारण यही सचमुच प्रमाणिक है.’
अखबारों का अर्थशास्त्र समझें

पूरे मीडिया उद्योग की तनख्वाह में बेशुमार इजाफ़े को अगर देश की अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखें, तो उत्पादन लागत और आय के आधार पर आंकें, तो यह कृत्रिम अर्थप्रणाली है. यह किसी भी दिन भहरायेगी. ध्वस्त होगी. भारत की पेट्रोलियम कंपनियों को देख लीजिए. उनके यहां मैनपावर कॉस्ट से लेकर स्टेब्लिशमेंट कॉस्ट इतने अधिक हैं कि हम पाकिस्तान, बांग्लादेश से भी प्रति लीटर 30 रुपये अधिक पर पेट्रोल बेचते हैं. ओएनजीसी जैसी महारत्न कंपनियों में चपरासी की भी तनख्वाह 60 हजार से अधिक है. -
नई दुनिया ’67 में, भारत का शायद पहला अखबार था, जिसने ऑफ़सेट प्रिंटिग पर अपनी छपाई शुरू की. तकनीक में भी यह औरों से आगे था. इन सबके पीछे एक पवित्र संकल्प और उद्देश्य था, क्योंकि उसके कर्ता-धर्ता लोगों में से एक राहुल बारपुते ‘क्षमता के अनुसार काम और आवश्यकता के अनुसार पारिश्रमिक’ सूत्र पर चलते थे. यह एक जीवन दर्शन या समाज दर्शन, जिसका वैचारिक प्रस्फ़ुटन था, नई दुनिया.
इसे भी पढ़िए माथुर जी के शब्दों में - ‘‘राहुल जी ने आठ साल से अपना वेतन डेढ़ सौ रुपये प्रतिमाह तय कर रखा था. और उनका कहना था कि इससे ज्यादा मैं लूंगा नहीं, क्योंकि यह मेरी जरूरत के लिए पर्याप्त है. स्वैच्छिक गरीबी को वे संपादकीय प्रामाणिकता के लिए जरूरी मानते थे. पांच सौ रुपये से ज्यादा पानेवाले को वे चोरों की श्रेणी में गिनते थे.’’
इस अर्थशास्त्र और सोच के तहत नई दुनिया आगे बढ़ा. जब राजेंद्र माथुर से पूछा गया, आपको क्या तनख्वाह चाहिए, तो उनका उत्तर भी उन्हीं के शब्दों में
-‘‘मैंने कहा कि पांच साल पहले जब मैं हास्टल में रहता था और फ़र्स्ट इयर में था, तब मुझे खर्च के लिए 75 रुपये महीना मिलते थे, और मेरी आवश्यताएं इन पांच सालों में ज्यों की त्यों है. इसलिए आप मुझे 75 रुपये दे दीजिएगा, और वे राजी हो गये.’’ बारपुते जी का जीवन कैसा था? वर्षो तक वे लीपे हुए दलान में जमीन पर सोते थे और चटाई के पत्तों पर खाते और खिलाते थे.
यह सब पत्रकारिता के सतयुग की बातें हैं. जब-जब पत्रकारिता में ऐसे चरित्र थे, तब ऐसे आविष्कार जिंदा रहे. मैं खुद गणेश मंत्री, नारायण दत्त जी जैसे लोगों की सोहबत में रहा हूं. गणेश मंत्री धर्मयुग के स्टार पत्रकार थे, तब चिंतक, लेखक व विचारक भी. ईमानदारी, सात्विकता और साधन-साध्य की शुचिता के प्रतिमान. पिता, जनता पार्टी शासन में राजस्थान में राजस्व मंत्री रहे. अत्यंत सम्मानित व प्रतिष्ठित. पर गणेश मंत्री कभी उनकी गाड़ी पर नहीं चढ़े, क्योंकि वह सरकारी होती थी.
नारायण दत्त जी नवनीत के संपादक रहे. हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वैचारिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक-आध्यात्मिक पत्रकार. इंदिरा जी के लंबे समय तक प्रेस सलाहकार रहे, अद्वितीय और अनोखे गांधीवादी विद्वान. एचवाइ शारदा प्रसाद के छोटे भाई. श्री दत्त आज भी मौजूद हैं, बेंगलुरु में रहते हैं. अकेले. कई भाषाओं के जानकार. सच्चे गांधीवादी. इन दोनों के घर, सत्ता के ताकतवर केंद्र रहे, दोनों अपने-अपने क्षेत्र में अपने कार्यकाल में, देश के चोटी के पत्रकार-संपादक रहे, पर इन दोनों का जीवन, नितांत गांधीवादी, सामान्य और सरल रहा.
अपने जीवन के दो मेंटर (पथ प्रदर्शक) इन दोनों को पाता हूं. नजदीक से इन्हें देखा कि कैसे ये सभी 24 कैरेट का सोना रहे. ताउम्र. आज इस पत्रकारिता में पैसे की हवस है. रातोंरात धनकुबेर बनने की भूख है. जायज-नाजायज कोई प्रतिमान नहीं रह गया. न आदर्श, न मूल्य. इस धारा का जोर इन दिनों ज्यादा सशक्त और प्रबल है. हर शहर से लेकर दिल्ली तक देख लीजिए, जो स्वनाम-धन्य पत्रकार खुद को समाज का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति मानने लगे हैं, उनकी योग्यता क्या है? आमद क्या है? उनकी कुल संपत्ति क्या है? ठाठ-बाट कैसे हैं? क्या समाज में कोई मूल्य रह गया है या नहीं? क्या कोई उसूल बचा है? जब लड़ाई, सिद्धांत और सिद्धांतविहीनता के बीच हो, साधु और गैर साधु के बीच हो, नीति और अनीति के बीच हो, तो अनीति-षडयंत्र को ही कामयाबी मिलेगी. आज के संसार में. यही हो रहा है.
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में 750 रुपये, ट्रेनी के रूप में प्रतिमाह हमें मिलता था. 1977-78 के दौर में. तब कई लोगों ने इससे अधिक की नौकरी छोड़ कर पत्रकारिता को चुना और पत्रकारिता को ही कैरियर अपनाया. रिजर्व बैंक व अन्य संस्थाओं की नौकरी (अधिक तनख्वाह) छोड़ कर हमने भी यही पेशा चुना. आज खुद मैं लाखों पाता हूं, जो कभी सोचा नहीं था. वह भी क्षेत्रीय अखबार में (इससे कई गुना अधिक के ऑफ़र मिले, यह अलग बात है कि यहीं रहा), पर अपने काम से जोड़ कर देखता हूं, तो तब (धर्मयुग, रविवार या प्रभात खबर के आरंभिक दिनों में) जितना परिश्रम कर पाता था. पूरा डट कर. जुट कर. डूब कर. उतना ही आज भी करता हूं. पर तनख्वाह कई गुना अधिक. राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के प्रतिमान से खुद को सोचता हूं, तो अपराध बोध होता है. कई बार खुद से पूछा, क्यों गलत मानते हुए इतनी तनख्वाह लेता हूं. कारण, सुरक्षा का सवाल है. पहले समाज में ‘सेफ्टीनेट’ (सुरक्षाजाल) था. संयुक्त परिवार, उदार परिवार, एक दूसरे की देखभाल करनेवाला. आज एकल परिवार (न्यूक्लीयर परिवार) हैं, स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च और इस पेशे में नौकरी की असुरक्षा, शाश्वत चुनौतियां हैं.
साक्षी जैसी पूंजी व सरकारी समर्थन
नई दुनिया के बहाने दो किस्तों में आपने पढ़ा, छोटे व मझोले क्षेत्रीय अखबारों की चुनौतियां. इन चुनौतियों में बढ़ती कर्ज की कीमत (यानी सूद) मारक है. फ़िर सबसे घातक है, न्यूज प्रिंट की लगातार बढ़ती कीमतें. कागज की मिलों का बंद होना, डॉलर के मुकाबले रुपये का कमजोर होना.
एक छोटे अखबार में कुल टर्न ओवर का 70 फ़ीसदी सिर्फ़ न्यूज प्रिंट पर खर्च होता है. विज्ञापन बाजार भी अनेक संस्करण वाले अखबारों के पक्ष में है. इस तरह क्षेत्रीय पत्रकारिता के सामने कई मारक चुनौतियां हैं. भविष्य में कोई अखबार ताकतवर बनना चाहता है, तो उसे कैसा सपोर्ट चाहिए, पढ़िए अंतिम किस्त में.
अब यह कतई आवश्यक नहीं है कि आप सर्वश्रेष्ठ अखबार निकाल रहे हैं. बेस्ट (सर्वश्रेष्ठ) टीवी चैनल हैं, तो आप अपनी गुणवत्ता के आधार पर कायम रह पायेंगे. आपका प्रतिस्पद्र्धी अगर आपसे कम कीमत पर अखबार निकालता है, जिसमें अच्छी साज-सज्जा है, कंटेंट भी ठीकठाक है, वह पाठकों को पुरस्कार देता है, लाटरी ड्रा जैसे कार्यक्रम कराता है, उसके मल्टीस्टेट संस्करण हैं, तो वह बाजार में टिकेगा. गणित इस तरह बन गया है कि कुछेक घराने अंगरेजी से लेकर अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशन और साथ ही साथ कई हिंदी राज्यों से प्रकाशन कर रहे हैं. इंटरनेट, रेडियो, टीवी या लोकल चैनलों पर भी उपस्थित हैं.
एक ही घराना. इस तरह के घरानों की ताकत के पीछे एक बाजार है. देहाती कहावत है, कहां राजा भोज कहां गंगू तेली. माफ़ कीजिएगा, यह जाति पर कोई टिप्पणी नहीं है. गंगू तेली कितना भी अच्छा इंसान हो. सच का पुंज हो. नैतिकता का अवतार हो. अनुशासित हो. मर्यादित हो. देश, समाज और दुनिया के बारे में सोचता हो. इसके विपरीत राजा भोज, हर अवगुण की खान हो. पर हम इतिहास के जिस मोड़ पर जी रहे हैं, उसमें राजा भोज ही कारगर, सम्मानित और आदर्श है. इसलिए बाजार की ताकत व इन आर्थिक नियमों का खेल समझना जरूरी है.क्या यह शुद्ध रूप से पूंजी की लड़ाई है? नई दुनिया ने अगर दो सौ करोड़ की पूंजी लगायी, तो वह पूंजी इस बाजार की कठिन लड़ाई से है.
इस बाजार में यह 200 करोड़ कोई बड़ी पूंजी नहीं है. दफ्तर के अंदर अक्षमता, चापलूसी, अयोग्यता वगैरह बाद में आते हैं. इसलिए बड़े अखबारों के सामने अच्छा प्रोडक्ट लेकर, अच्छी मार्केटिंग कर, प्रोफ़ेशनल बन कर भी आप बेहतरीन ब्रांड को आसानी से बचा नहीं सकते. यह छोटे अखबारों की सफ़ाई-धुलाई का दौर है. बड़े अखबारों के संचालक मानते हैं कि यह मार्केट कांसोलिडेशन का दौर है. कुछ ही दिनों की बात है. इसके बाद कुछेक ही बड़े अखबार बचेंगे.
क्योंकि यहां बेमेल मुकाबला है. शुद्ध पत्रकारिता और बाजार बल से पोषित पत्रकारिता के बीच असामान्य मुकाबले की स्थिति है.अर्थशास्त्र में इकोनॉमिक स्टेज ऑफ़ ग्रोथ (आर्थिक विकास के अलग-अलग दौर) पढ़ाया जाता है. उसी तरह मीडिया में भी आर्थिक विकास का दौर आया. उस आर्थिक दौर में, जिन लोगों ने अपना फ़ैलाव तेजी से कर लिया. जो बाहरी-भीतरी या शेयर बाजार से पूंजी जुटा कर पसर गये. बढ़ गये. बाजार पर कब्जा जमा लिया. वे सिकंदर हैं. एक ही अखबार घराना 50-50 जगहों से फ़ैल कर अखबार निकालने लगा.
वह दौर ही पत्रकारिता में आनेवाले भविष्य की नींव तैयार कर गया. 1990-2000 के बीच जो अखबार पसर गये. फ़ैल गये और ताकतवर हो गये. अब वे बड़े घराने बन कर उभर चुके हैं. बैठने और जमने की दृष्टि से, व्यवसाय की दृष्टि से, वह हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग रहा. कम निवेश में तब वे नयी जगह चले गये. आज किसी बाजार में निवेश कर मुकाबला करना, पहले से ज्यादा खर्चीला और कठिन हो गया है. नया संस्करण खोलना और अखबार जमाना लगातार ‘कास्ट इंटेंसिव’ (अधिक खर्चीला) हो गया है. पैसे वाले प्रतिस्पद्र्धी हैं. ब्रेक इवन पीरियड (खर्च और आय बराबर होने की स्थिति) का समय अब पांच वर्ष माना जाने लगा है.
पहले वह तीन वर्ष माना जाता था. विशेषज्ञों का यह भी अनुमान है कि हिंदी प्रिंट मीडिया का विज्ञापन बाजार अब धीरे-धीरे ठहराव (स्टेगनेंट) की स्थिति में होगा या घटेगा. क्योंकि मीडिया में कई नये माध्यम आ गये हैं. इंटरनेट, रेडियो, रोज बढ़ते टीवी चैनल्स वगैरह. अब बाजार हासिल करना कठिन हो गया है.
90 के दशक में एम. जे. अकबर ने एशियन एज निकाला. अपने ढंग का अनूठा और नया अखबार. कठिन प्रतिस्पर्धा में. भारी मुसीबतों से उस अखबार को भी गुजरना पड़ा. कई जगहों पर अनेक प्रकाशक, इंवेस्टर, निवेशक बदल गये. कुछेक वर्षो में ही. एक दौर आया, जब उन्होंने इसे डेक्कन क्रानिकल को बेच दिया. तब शेयर बाजार की स्थिति अच्छी थी. देश की आर्थिक स्थिति के भी अच्छे दिन थे.
उन्हें इस अखबार की अच्छी कीमत मिली. याद है, उन्होंने इस सौदे पर अपनी टिप्पणी दी थी- इस दिन के लिए मैं बहुत दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था. अपने हुनर, कौशल और योग्यता से उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में अखबार को सींचा, जमाया और बेच डाला. एक व्यक्ति के जीवन में आर्थिक स्थायित्व की दृष्टि से यह अत्यंत ईमानदार प्रयास था. शायद यह पहली बारहुआ कि किसी योग्य पत्रकार ने अपनीयोग्यता के आधार पर कंपनी बना कर, उसकी कीमत पायी.
प्रभात खबर से साभार

1 comment:

  1. http://hindibhojpuri.blogspot.in/2011/11/blog-post_10.html

    हरिवंश के प्रभात खबर का हाल बिहार में क्या है! पता कर के देखें, नफरत होने लगेगी!

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