Wednesday, January 11, 2012

प्रतिरोध का रंगकर्म


कोई भी कलाकर्म -दृश्य या श्रव्य- देवताओं द्वारा संभवतः शापित नहीं है,सिवाय रंगकर्म के। किस्सा कुछ यूं है कि स्वर्ग में पंचमवेद यानी नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरत मुनि की नियुक्ति देवताओं के मनोरंजन के लिये की गयी थी और जब वे अपनी कला में देवताओं का परिहास कर बैठे तो उन्हे कुपित होकर देवताओं ने सुविधाओं के परलोक से बेदखलकर दुविधाओं और संघर्षो के इहलोक में भेज दिया। वहां तब से अब तक उनकी संताने अपनी कला का प्रदर्शन कर रही हैं।

यह रूपक हमें रंगकर्म की सार्थकता और चुनौती को समझने में सहायक हो सकता है। अन्य प्रदर्शनकारी कलाओं में मतभेद यानी विचार की गुंजाइश बहुत कम है। वहां असली लक्ष्य आस्वाद है। अतः यदि वे मनोविनोद और रसिक के रस का प्रवर्तन करने में सफल हैं तो सार्थक है किन्तु रंगकर्म के साथ यह स्थिति नहीं है। रंगकर्म जहां अन्य कला माध्यमों से अपनी शक्ति और संवेदना ग्रहण करता हैं वहीं उन कला    माध्यमों से आगे जाकर समकालीन सत्य का उद्घाटक बन जाता है। वह अंतरविरोधों को उजागर करता है और सवाल खड़े करता है। यथा स्थिति को बदलने की मांग करता है और इस तरह प्रतिरोध का संवाहक बन जाता है। वह राजनैतिक नारेबाजी नहीं करता बल्कि एक राजनैतिक दर्शन को विकसित करता है।

ब्रेख्त के एपिक थियेटर, जोंबालिटिलवुड के थियेटर यूनियन, जूडिथा मलीना और जूलियन बैक के लिविंग थियेटर, बादल सरकार के तीसरा रंगमंच, हबीब तनवीर के नया थियेटर , गुरूशरण सिंह के नुक्कड नाट्य, जनम, और निशान्त की प्रस्तुतियों के परिप्रक्ष्य में उपर्युक्त वक्तव्य की सच्चाई को परखा जा सकता है ।
यूं तो किसी भी कला में प्रतिरोध का स्वर समाहित होता ही है अन्यथा वह अपने उद्देश्य से भटकी हुई होती  है । ‘ दूसरे तारसप्तक ‘ की भूमिका में शमशेर बहादुर सिंह ने उचित ही कहा था कि -‘ कला का संघर्ष समाज के संघर्ष से अलग नहीं होता । ‘इसी वक्तव्य को रघुवीर सहाय ने और विस्तार देते हुए कहा था कि -‘यह कला की जरूरत है कि वह अपने समय के विषय के प्रति वैज्ञानिक समझ को आगे बढ़ाए। ‘

रंगकर्म के साथ यह जरूरत और गहरी हो जाती   है। नतीजतन जब रंगकर्म व्यवस्था की यथास्थिति को चुनौती देता है तो व्यवस्था के पैरोकारों से उसकी टकराहट होती    है, जिसके परिणाम स्वरूप 1974 में पश्चिम बंगाल के कर्जन पार्क में नाट्य प्रदर्शन के दौरान हमला होता है, जिसमें प्रवीरदत्त की शहादत के साथ सैकड़ों दर्शक घायल होते हैं। दिल्ली में ‘हल्ला बोल‘ के दौरान सफदर हाशमी की हत्या कर दी जाती है। और ऐसा ही सब कुछ देश के विभिन्न हिस्सों में ‘और अन्त में प्रार्थना‘, ‘बहादुर कलारिन‘, ‘ मातादीन चांद पर ‘ आदि के साथ घटित होता है ।

तो इस तरह रंगकर्म पर हजारों खतरे शुरू से उसके साथ रहे हैं क्योंकि वह प्रतिरोध की कला है। इसीलिये किसी भी कला को प्रदर्शन के पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता कानून में वर्णित नहीं की गयी सिवाय रंगमंच के जैसा की अंग्रेजों के समय बनाया गया किन्तु आज भी लागू ‘ड्रामेटिक परफामेन्स एक्ट‘ प्रतिपादित करता है। रंगकर्म को यह नकेल आज से कोई 180 साल पहले ‘नीलदर्पण ‘ की कामयाबी से बौखलाकर अंग्रेजों ने लगाई थी।

यह और बात है कि तमाम तरह की बंदिशों और जोर जबरदस्ती के होते हुए भी रंगकर्म प्रतिरोध का संवाहक बना रहा। तब भी और आज भी बना हुआ है और आज कुछ ज्यादा ही। आज अमेरिका के वालस्ट्रीट से जो संकेत आ रहे हैं यदि उन्हें खोलें तो सत्ता और पूंजी का वर्चस्व जहां बढ़ा है, वहीं उसके अन्तरविरोध भी गहरे हुए हैं और इस तरह प्रतिरोध की संस्कृति कि जरूरत भी बढ़ी है ।

प्रतिरोध का रंगकर्म अपना हस्तक्षेप दोनों जगहों पर दर्ज करता है, अर्थात सत्ता के वर्चस्व और रंगमंच के परम्परागत शास्त्रीय सौंदर्य-शास्त्र पर । रंगमंच का परम्परागत सौन्दर्य शास्त्र थोड़ी बहुत घट-बढ़ के साथ रंग द्वारी अर्थात प्रोसेनियम सौन्दर्य-शास्त्र ही रहा है । जिसे कॉलरिज ‘संस्पेंशन ऑफ दि डिसबिलीव‘ अर्थात ‘संदेह का स्थगन’ कहते हैं। जैसा कि किसी जादूगर के प्रदर्शन में होता है, यानी कि एक ऐसे मायालोक की रचना जिसमें घट रहे सब कुछ को स्वीकार कर लिया जाये। रंगमंच का परम्परागत सौंन्दर्य शास्त्र इसी तरह वास्तविकता का भम्र रचता है । वास्तविकता के इस भ्रम को रचने के लिये सभी तरह का तामझााम होता है- यानी सेट, पर्दे, प्रापर्टी, लाइट, साउण्ड, रिकॉर्डेड म्यूजिक, यहां तक कि पहियों पर घूमते चक्रानुक्रमी मंच । कुल जमा हर तरह की कोशिश, कि दर्शक दांतों तले उंगली दबा ले और अंधेरे में रूमाल से आंखें पोछता रहे। यानी कि ‘संसार का सबसे खूबसूरत छलावा ‘। यद्यपि यह बात लुई गोदार में कही तो सिनेमा के लिये थी, किन्तु मौजूं आधुनिक रंगमंच के लिये भी है। इस छलावे को सैद्धान्तिक और ग्लेमरस स्पर्श अपने नाट्य प्रशिक्षण और रंगदर्शन के माध्यम से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा दिया गया । आधुनिक रंगद्वारी रंगमंच का रंग व्याकरण उसी के द्वारा तैयार किया गया है । बकौल स्वंय प्रकाश -"इसने हिन्दी रंगमंच को भव्यता और आभिजात्य की चमकीली पन्नी में लपेट दिया और चुटकी भर होनहारों को दीक्षा देने के क्रम में देश की बहुसंख्यक छोटी और दूरस्थ जगहों के रंगकर्मियों को एलिएनेट करने का काम भी किया।"

यहां आकर आधुनिक शहरी रंगकर्म सिनेमा की तरह ही प्रतिरोध की शक्ति भी खो देता है। वह कला नहीं रह जाता , उद्योग हो जाता है, जहां रंगकर्मी और दर्शक के बीच संबंध उपभोक्ता और सेवा प्रदाता जैसे हो जाते हैं । यानी शो के मंहगे टिकट और दर्शक का पैसा वसूल करने की लालसा। यह रंगकर्म अपने अस्तित्व के लिये सरकारी अनुदान पर आश्रित हो जाता है या दानवीर की दया का मोहताज । प्रतिरोध की शक्ति से हीन इस रंगकर्म को शनैः शनैः कॉमेडी सर्कस में बदलते हुए चिन्हित किया जा सकता है । हालांकि समूचे शहरी या कस्बाई रंगकर्म को इस तरह हँकाल देना उचित नहीं होगा क्योंकि इसी में से बहुत-सा शहरी रंगकर्म हमारे समय के महत्वपूर्ण प्रश्नों को संवेदना के साथ मंच पर प्रस्तुत कर रहा है। उदाहरण के बतौर ‘शताब्दि’ कलकत्ता, ‘रंग विदूषक’ भोपाल, ‘समागम’ रंगमण्डल जबलपुर, ‘बहुरूपी’ मुम्बई, ‘नया थियेटर’, ‘इप्टा’ भिलाई, ‘नटबुन्देले’ भोपाल तथा पटना ‘इप्टा’, ‘विवेचना’ जबलपुर की प्रस्तुतियों में लोक जीवन के प्रतिरोध, संघर्ष और स्वप्न चिन्हित किये जा सकते हैं।

किन्तु  इन रंग समूहों का रंगकर्म प्रतिरोधी होते हुए भी आधुनिक शहरी रंगमंच की रूढ़ियों से मुक्त नही हैं ।उनका अपना सीमित दर्शक वर्ग होने से एक सीमा तक आकर आगे वे अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं । जैसा कि हर रंगद्वारी रंगमंच के साथ होता है । महंगी लाइट, प्रेक्षाग्रह के भारी शुल्क और प्र्रस्तुति के खर्चे के चलते, दो-चार प्रस्तुतियों के बाद वे सरकारी या कार्पोरेट के उत्सव के मुखापेक्षी हो जाते हैं। शहरी रंगमंच के उलट लोकरंगमंच है, जो नौटंकी, रामलीला, माच, नाचा, जात्रा आदि दर्जनों रूपों में उपस्थित है । इसकी घुसपैठ ठेठ देहात तक है और वो अपने दर्शक से उसकी बोली, मुहावरों कहानियों के जरिये सीधा संवाद करता है किन्तु उसकी अपनी दो सीमाएँ हैं। एक तो विषयों का नितान्त परम्परागत होने के कारण अवाम की समकालीन समस्याओं से सर्वथा कट जाना और दूसरे शहराती और सिनेमाई प्रभाव से तेजी से विकृत होते जाना । कुछ श्रृंगार, विरह-कथाओं और कुछ पौराणिक किस्सों के इर्दगिर्द चक्कर काटता लोक रंगमंच, लोक की धुरी से ही हिल गया है ।

प्रतिरोध का रंगकर्म राजनैतिक, सामाजिक सत्ता का प्रतिवाद मात्र नही है, अपितु रंगमंच के स्थापित सौन्दर्य और सीमाओं का प्रतिवाद भी है । वह मंच को शहरी रंगमंच के अनावश्यक तामझाम से मुक्त करता है तो लोक रंगमंच को उसकी विषयगत जड़ता से मुक्त करता है। प्रतिरोध का रंगकर्म अभिनेता को नये सिरे से प्रतिष्ठित करता है। रंगमंच उसी तरह अभिनय का माध्यम है जिस तरह से नृत्य शारीरिक गतियों का, संगीत नाद का और चित्रकला रंगों का माध्यम है किन्तु यह विडम्बना ही कही जाएगी की रंगमंच पर अभिनय को उभारने के लिये जिस अनुचर अर्थात तकनीक यथा लाइट, प्रॉप्स, सैट, मेकअप, प्रोजेक्टर को लाया गया था, वे अभिनय को पीछे धकेलकर प्रमुख हो गये। आधुनिक रंगमंच उसी अनुचर तकनीक के स्वामी बनने की कथा है। अभिनय ही रंगमंच का वह प्रधान तत्व रहा है जो उसे जीवन्त बनाता है। उसे सिनेमा से अलग और विशेष करता है, किन्तु   आधुनिक रंगमंच की रिकॉर्डेड तकनीक ने उसे सिनेमा की पुअर कार्बन कॉपी बना दिया है। रंगमंच ही वह माध्यम रहा है जहां दर्शक और अभिनेता का सीधा साहचर्य संभव होता है, जो सिनेमा जैसे माध्यम में संभव नहीं है। किन्तु आधुनिक रंगमंच में दर्शक नितांत अंधेरे में अनुपस्थित है। दर्शक और अभिनेता के आने जाने के दरवाजे तक अलग हैं । प्रस्तुति के दौरान और प्रस्तुति के बाद भी अभिनेता और दर्शक या दर्शक और दर्शक के बीच कोई संवाद नहीं है। यहां यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि क्या रंगमंच अभी भी जीवंत माध्यम कहा जा सकता है ? प्रतिरोध का रंगकर्म दर्शक और अभिनेता के बीच इसी जड़ता को तोड़ता है। दर्शक और अभिनेता के बीच एक संवाद स्थापित करता है, इस तरह से वह रंगकर्म में आयी उपर्युक्त विडम्बना का प्रतिरोध भी है।

जर्जीग्रोटोवस्की ने ‘ लेबोरेटरी थियेटर ‘ में अभिनेता की प्रतिष्ठा उसके आंगिक और वाचिक अभिनय के द्वारा की और उसे बाहरी तकनीक से पूर्णतः मुक्त किया। बादल सरकार ने इसे अधिक तार्किक नाम से पुकारा अर्थात ‘ फ्री थियेटर’ याने मुक्त रंगमंच। प्रतिरोध का रंगकर्म यही मुक्त रंगकर्म है जो संदेहों का स्थगन नहीं करता अपितु संदेह खड़े करता है। यहां वह तकनीक विरोधी नहीं है अपितु उनका जरूरत भर उपयोग करता है। वह कल्पनाशीलता से मुक्त नहीं है और न ही सौन्दर्य से शुष्क। बल्कि उसका अपना विशिष्ट सौन्दर्य शास्त्र है और सृजनशील विषयजनित कल्पना शीलता । जाहिर है वहां विषय ही रूप को निर्धारित करता है रूप को लेकर कोई रूपवादी आग्रह वहां नहीं है। वह लोकरंगकर्म से उसकी ऊर्जा और जीवन्तता ग्रहण करता है तो शहरी रंगकर्म से संश्लेषण और विश्लेषण की बौद्धिकता। यह सही अर्थो में डायलेक्टिकल रंगकर्म है। विकासक्रम के किसी सोपान पर स्थित । सभी तरह के परम्परागत रंगकर्म की शक्ति से युक्त किन्तु सीमाओं से मुक्त इसकी बेहतरीन मिसाल हबीब तनवीर के ‘नया थियेटर‘ में देखी जा सकती है, जहां शहरी यहां तक की विदेश में प्रशिक्षित अभिनेता ठेठ छत्तीसगढ़ी कलाकारों के साथ अपनी प्रस्तुति देते हैं । जिसमें लोक की महक होती है तो समकालीन यथार्थ का विश्लेषण भी। यह एक साथ मनोगत और वस्तुगत सत्य को छूता है । इसी क्रम में परवेज अख्तर के निर्देशन में पटना ‘ इप्टा ‘ की प्रस्तुतियों को भी देखा जा सकता है,  जहां वे पौर्वत्य और पाश्चात्य, लोक और शहरी हर तरह की युक्ति का सहारा लेकर अपना राजनैतिक दर्शन खड़ा करते हैं । उनकी प्रस्तुतियां बताती है कि प्रतिरोध का रंगमंच टाइप्ड रंगमंच नहीं है। न चरित्र के स्तर पर और न सिचुएशन के स्तर पर। यहां राजनीतिक वक्तव्य तो आता है, किन्तु कलात्मक सौन्दर्य के साथ, जो उसकी प्रभावोत्पादकता को बहुगुणित कर देता  है । इसे बादल सरकार के ‘ खड़िया का घेरा ‘ के माध्यम से और बेहतर समझा जा सकता है, जहां आखिर में राजा यह न्याय करता है कि -‘जिस औरत ने  बच्चे को पाला है बच्चा उसी का है न कि उसका जिसने उसे जन्म दिया।’ बादल सरकार इस वक्तव्य को राजनैतिक वक्तव्य में बदल देते हैं कि -‘इस तरह जमीन भी उसी की है जो उसे जोतता है खेती करता है।’ यह कलात्मक सौन्दर्य के साथ राजनैतिक वक्तव्य की एक बानगी भर है और यही प्रतिरोध के रंगकर्म का मर्म भी है । यही भविष्य में प्रतिरोध के रंगकर्म की जरूरत है और यही रंगकर्म का भविष्य भी है ।


-हनुमंत किशोर

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