इप्टा के राष्ट्रीय महाधिवेशन (भिलाई) के लिए आधार-पत्र
- जावेद अख्तर खां
बात चाहे जितनी पुरानी लगे, मनुष्य की वेदना ही जन-संस्कृति का मूलाधार है । उस ‘वेदना’ से हमें जो कुछ अलग करे, वह जन-विरोधी है। संस्कृति के अनेक रूप अभी चमचमा रहे हैं, जिनसे हमारी आँखें चौंधिया रही हैं । ‘नया ज्ञानोदय’ के ताजा अंक में प्रकाशित अपनी एक रचना में ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखा है - ”इतनी तेज रोशनी है कि उसके सामने हम अंधे हो रहे हैं। उस तेज चमचमाती रोशनी के नीचे अंधकार का महासमुद्र खदबदा रहा है । तेज चौंधियाती रोशनी और खदबदाते अंधकार के महासमुद्र में हमें रास्ता नहीं दिखता ।“ जनता दुःख-पीड़ा के इस अंधेरे समुद्र में रास्ता टटोल रही है, ऐसे में जन-संस्कृति की चिंता करने वालों का काम ‘वेदना’ के असंख्य दिये जलाने से जुड़ा है ।
बर्लिन की दीवार टूटने और सोवियत संघ के पतन के बाद के दो दशकों में मनुष्य की वेदना को पीछे धकेल कर एक ऐसी संस्कृति सामने आयी है, जो हमेशा चमचमाती-चौंधती-दमकती रहती है । ‘वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो’ आंदोलन को ध्यान में रखकर एक चिंतक ने टिप्पणी की है कि विश्व-मानव एक बार फिर से दोराहे पर खड़ा है । पँूजीवाद विध्वंस के कगार पर है और समाजवाद के बिखर गये सपने अभी तक चुने नहीं गये हैं । ऐसे में मनुष्य की वेदना ही तो हमें सहारा दे सकती है, जिसमें प्रकृति भी शामिल है । या यों कहें, ‘प्रकृति की वेदना’ को ही धारण करने पर वह रास्ता खुल सकता है, जो अब तक अनदेखा है । स्वयं मनुष्य प्रकृति ही तो है । एक समय हमें बताया गया कि मनुष्य महाबली है । अब तो यह ‘बल’ भय ही पैदा करता है। मनुष्य ‘महाबली’ कैसे बना, पूरे ‘ग्लोब’ पर पाँव रखे उसका माथा तारों को छू रहा है (कितना विराट् बिंब है, लेकिन उतना ही भयोत्पादक), उसने धरती-आकाश सब को रौंद डाला, उसमें बला की ताकत है, जो ‘वेदना’ को कुचलती है । यह चहुँमुखी विकास उसने अपनी इसी ताकत के जोर से ही तो किया है । एक ऐसी संस्कृति जहाँ ‘ताकत’ से कोई भय न हो, वास्तविक जन-संस्कृति होगी ।
प्रकृति-मनुष्य की वेदना और अकूत संपदा-बल के सामने निर्भीक चेतना ही ‘जन-संस्कृति’ का वास्तविक रूप उभार सकती है । यह कहने में जितना आसान लग सकता है, वास्तविक संस्कृतिकर्म के धरातल पर यह उतना ही जटिल और संश्लिष्ट है । संस्कृति का एक वर्चस्वशाली और अधिकारिक पाठ तातकवरों की संस्कृति का अंग है । उसकी जगह जनतांत्रिक ‘स्पेस’ और अनेक पाठों का सृजन ‘जनसंस्कृति-कर्म’ की बुनियाद है । अभी हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम से ए. रामानुजन के लेख- ‘हंड्रेड रामायण.......’ को हटाया गया है, उसको ध्यान में रखने पर इसकी जरूरत समझ में आ सकती है । रामानुजन ने तो केवल लिखित परंपरा की बात की, हमारी मौखिक परंपरा में तो अनेक जीवंत लोक-रामायण हैं, जो अधिकारिक पाठ के लिए चुनौती हैं । मिथक से जितनी छेड़-छाड़ हमारी जनता करती है, बड़ा-से-बड़ा रचनाकार भी इतना निर्भीक नहीं है । जनता से सीख कर ही ‘जन-संस्कृति’ के रास्ते पर चला जा सकता है ।
सैंकड़ों वर्षों तक संस्कृति के केन्द्र में ‘ईश्वर’ रहा, पूँजीवाद ने ‘मनुष्य’ को केन्द्र में ला दिया, लेकिन कैसा मनुष्य, अकूत बल-सम्पदा एकत्र करने वाला मनुष्य ! समाजवाद के प्रयोग के केन्द्र में ‘मनुष्य की ताकत’ ही तो राज करती रही । ‘महाबली’ की यह परिकल्पना प्रकृति-मनुष्य-विरोधी है, यह समझ पैदा किये बिना हम कैसी जनसंस्कृति का निर्माण कर पायेंगे ? ऐसे में सिर्फ ताकतवरों को खुश करने की जनविरोधी संस्कृति का निर्माण होता है, जहॉं सिर्फ ‘चापलूसी’ बची रह जाती है, जो वेदना का ध्वंस करती है ।
गाँधी जो बात बहुत पहले समझ चुके थे, उसे फिर से समझने की जरूरत है कि जब भी तुम अपने लक्ष्य और रास्ते को लेकर भ्रम में हो, तब संसार के सबसे दुखी-लाचार-गरीब व्यक्ति का चेहरा अपनी आंखों के सामने लाओ और खुद से पूछो कि यह जो मैं करने जा रहा हूं, उससे उसे कोई लाभ है, या नहीं, तुम देखोगे कि तुम्हारे सारे भ्रम दूर हो रहे हैं । जनसंस्कृति-कर्म में लगे लोगों की आंखों के सामने उस सबसे हताश-दुखी-गरीब व्यक्ति का चेहरा हमेशा मौजूद रहना चाहिए । राजनीतिक विचार एक हद तक ही हमारा साथ दे सकते हैं, और उस समय तो सारे क्रांतिकारी विचार भी निरर्थक हो जाते हैं, जब हमारी आँखों के सामने से उस व्यक्ति का चेहरा ओझल हो जाता है । हमारे नाटक, हमारे गीत बच्चों के उदास-मुरझाए चेहरे पर हँसी न बिखेर सके, तो वे किस काम के हैं, ताकत के सामने की गिड़गिड़ाहट को निर्भीक स्वर न दे पाने वाले नाटक और गीत हमें नहीं चाहिए ।
जन-संस्कृति के क्षेत्र में ‘विनम्रता’ का कोई विकल्प नहीं है, ‘घमंड’ सड़े हुए दिमाग की उपज है, जिसकी हमें जरूरत नहीं । हमारा लक्ष्य बहुत उँचा है और उसके सामने हमारी योग्यता बहुत ही कम है, लक्ष्य के अनुरूप लगातार योग्य बनने की तरफ बढ़ना विनम्रता के रास्ते पर ही तो संभव है । क्या मनुष्य के बहुत गहरे नैतिक सवाल हमारी संस्कृति-चिंता में शामिल नहीं होने चाहिए? क्या हमारे समय का संकट एक भारी नैतिक संकट भी नहीं है ? क्या ‘सचादारी’ होना, पिछड़ा चिंतन है? विनम्रता दब्बूपन नहीं, निर्भीकता का मतलब अहंकारी होना नहीं है - ये बातें क्या गुजरे जमाने की हैं और अब इन्हें अपने समय के बाहर कर देना चाहिए ? इतना तो स्पष्ट है कि संकीर्णता किसी मायने में हमारा साथ नहीं दे सकती । विचारहीनता के भय से विचार की संकीर्णता में फँसे रहना बुद्धिमत्ता नहीं है । स्वाधीन मस्तिष्क ही वास्तविक सर्जक है, दिमागी गुलामी सृजन के सारे रास्ते बन्द कर देती है । हमें ‘औसत’ दर्जे की संस्कृति नहीं चाहिए। अभी तो हर तरफ औसत प्रतिभावालों की धौंस-पट्टी है । गहन विचार-मंथन बीते जमाने की बात लगती है । एक अति-सामान्य प्रतिभावाली संस्कृति, जिसमें भाषा भी कामचलाऊ है और मनुष्य का व्यवहार भी, जन-संस्कृति का आधार नहीं बन सकती है । पढ़े-लिखे-अति-सामान्य-औसत प्रतिभावालों की एक बड़ी फौज शासक-वर्ग के लिए बहुत फायदेमंद है । इसीलिए जन-संस्कृति का प्रश्न एक तरफ एक बहुत गहरा नैतिक प्रश्न भी है, दूसरी तरफ शक्तिशाली मेधा को सामने के लाने के एजेंडे से भी जुड़ा है ।
एक समय संस्कृति के कुछ ही गिने-चुने केन्द्र होते थे, अब भी हैं, संस्कृति की राजधानी भी है । संस्कृति की स्थानीयता ही हमें वास्तविक सार्वभौमिकता देगी । जनसंस्कृति का सबसे बड़ा कार्यभार इन कथित केन्द्रों का ध्वंस करना है और इसके लिए, मुक्तिबोध के शब्दों में, अभिव्यक्ति के खतरे उठाने होंगे । इसलिए सांस्कृतिक मठों पर हमले करो-हमारा नया नारा होना चाहिए। विकास के चमचमाते मॉडल को जैसे पूरे देश पर थोपा गया है, चमचमाती संस्कृति का मॉडल भी हम पर थोपा गया है । हमें अनेकशः प्रयोगों की तरफ एक साथ बढ़ना होगा । किसी के प्रति छुआछूत नहीं, लेकिन किसी की धौंस भी यहाँ नहीं चलेगी, न नाटक की प्रस्तुति के एक ढाँचे की धौंस, न ही उसमें एक विचार की धौंस ।
जन-संस्कृति: समय के साथ मुठभेड़
- जावेद अख्तर खां
बात चाहे जितनी पुरानी लगे, मनुष्य की वेदना ही जन-संस्कृति का मूलाधार है । उस ‘वेदना’ से हमें जो कुछ अलग करे, वह जन-विरोधी है। संस्कृति के अनेक रूप अभी चमचमा रहे हैं, जिनसे हमारी आँखें चौंधिया रही हैं । ‘नया ज्ञानोदय’ के ताजा अंक में प्रकाशित अपनी एक रचना में ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखा है - ”इतनी तेज रोशनी है कि उसके सामने हम अंधे हो रहे हैं। उस तेज चमचमाती रोशनी के नीचे अंधकार का महासमुद्र खदबदा रहा है । तेज चौंधियाती रोशनी और खदबदाते अंधकार के महासमुद्र में हमें रास्ता नहीं दिखता ।“ जनता दुःख-पीड़ा के इस अंधेरे समुद्र में रास्ता टटोल रही है, ऐसे में जन-संस्कृति की चिंता करने वालों का काम ‘वेदना’ के असंख्य दिये जलाने से जुड़ा है ।
बर्लिन की दीवार टूटने और सोवियत संघ के पतन के बाद के दो दशकों में मनुष्य की वेदना को पीछे धकेल कर एक ऐसी संस्कृति सामने आयी है, जो हमेशा चमचमाती-चौंधती-दमकती रहती है । ‘वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो’ आंदोलन को ध्यान में रखकर एक चिंतक ने टिप्पणी की है कि विश्व-मानव एक बार फिर से दोराहे पर खड़ा है । पँूजीवाद विध्वंस के कगार पर है और समाजवाद के बिखर गये सपने अभी तक चुने नहीं गये हैं । ऐसे में मनुष्य की वेदना ही तो हमें सहारा दे सकती है, जिसमें प्रकृति भी शामिल है । या यों कहें, ‘प्रकृति की वेदना’ को ही धारण करने पर वह रास्ता खुल सकता है, जो अब तक अनदेखा है । स्वयं मनुष्य प्रकृति ही तो है । एक समय हमें बताया गया कि मनुष्य महाबली है । अब तो यह ‘बल’ भय ही पैदा करता है। मनुष्य ‘महाबली’ कैसे बना, पूरे ‘ग्लोब’ पर पाँव रखे उसका माथा तारों को छू रहा है (कितना विराट् बिंब है, लेकिन उतना ही भयोत्पादक), उसने धरती-आकाश सब को रौंद डाला, उसमें बला की ताकत है, जो ‘वेदना’ को कुचलती है । यह चहुँमुखी विकास उसने अपनी इसी ताकत के जोर से ही तो किया है । एक ऐसी संस्कृति जहाँ ‘ताकत’ से कोई भय न हो, वास्तविक जन-संस्कृति होगी ।
प्रकृति-मनुष्य की वेदना और अकूत संपदा-बल के सामने निर्भीक चेतना ही ‘जन-संस्कृति’ का वास्तविक रूप उभार सकती है । यह कहने में जितना आसान लग सकता है, वास्तविक संस्कृतिकर्म के धरातल पर यह उतना ही जटिल और संश्लिष्ट है । संस्कृति का एक वर्चस्वशाली और अधिकारिक पाठ तातकवरों की संस्कृति का अंग है । उसकी जगह जनतांत्रिक ‘स्पेस’ और अनेक पाठों का सृजन ‘जनसंस्कृति-कर्म’ की बुनियाद है । अभी हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम से ए. रामानुजन के लेख- ‘हंड्रेड रामायण.......’ को हटाया गया है, उसको ध्यान में रखने पर इसकी जरूरत समझ में आ सकती है । रामानुजन ने तो केवल लिखित परंपरा की बात की, हमारी मौखिक परंपरा में तो अनेक जीवंत लोक-रामायण हैं, जो अधिकारिक पाठ के लिए चुनौती हैं । मिथक से जितनी छेड़-छाड़ हमारी जनता करती है, बड़ा-से-बड़ा रचनाकार भी इतना निर्भीक नहीं है । जनता से सीख कर ही ‘जन-संस्कृति’ के रास्ते पर चला जा सकता है ।
सैंकड़ों वर्षों तक संस्कृति के केन्द्र में ‘ईश्वर’ रहा, पूँजीवाद ने ‘मनुष्य’ को केन्द्र में ला दिया, लेकिन कैसा मनुष्य, अकूत बल-सम्पदा एकत्र करने वाला मनुष्य ! समाजवाद के प्रयोग के केन्द्र में ‘मनुष्य की ताकत’ ही तो राज करती रही । ‘महाबली’ की यह परिकल्पना प्रकृति-मनुष्य-विरोधी है, यह समझ पैदा किये बिना हम कैसी जनसंस्कृति का निर्माण कर पायेंगे ? ऐसे में सिर्फ ताकतवरों को खुश करने की जनविरोधी संस्कृति का निर्माण होता है, जहॉं सिर्फ ‘चापलूसी’ बची रह जाती है, जो वेदना का ध्वंस करती है ।
गाँधी जो बात बहुत पहले समझ चुके थे, उसे फिर से समझने की जरूरत है कि जब भी तुम अपने लक्ष्य और रास्ते को लेकर भ्रम में हो, तब संसार के सबसे दुखी-लाचार-गरीब व्यक्ति का चेहरा अपनी आंखों के सामने लाओ और खुद से पूछो कि यह जो मैं करने जा रहा हूं, उससे उसे कोई लाभ है, या नहीं, तुम देखोगे कि तुम्हारे सारे भ्रम दूर हो रहे हैं । जनसंस्कृति-कर्म में लगे लोगों की आंखों के सामने उस सबसे हताश-दुखी-गरीब व्यक्ति का चेहरा हमेशा मौजूद रहना चाहिए । राजनीतिक विचार एक हद तक ही हमारा साथ दे सकते हैं, और उस समय तो सारे क्रांतिकारी विचार भी निरर्थक हो जाते हैं, जब हमारी आँखों के सामने से उस व्यक्ति का चेहरा ओझल हो जाता है । हमारे नाटक, हमारे गीत बच्चों के उदास-मुरझाए चेहरे पर हँसी न बिखेर सके, तो वे किस काम के हैं, ताकत के सामने की गिड़गिड़ाहट को निर्भीक स्वर न दे पाने वाले नाटक और गीत हमें नहीं चाहिए ।
जन-संस्कृति के क्षेत्र में ‘विनम्रता’ का कोई विकल्प नहीं है, ‘घमंड’ सड़े हुए दिमाग की उपज है, जिसकी हमें जरूरत नहीं । हमारा लक्ष्य बहुत उँचा है और उसके सामने हमारी योग्यता बहुत ही कम है, लक्ष्य के अनुरूप लगातार योग्य बनने की तरफ बढ़ना विनम्रता के रास्ते पर ही तो संभव है । क्या मनुष्य के बहुत गहरे नैतिक सवाल हमारी संस्कृति-चिंता में शामिल नहीं होने चाहिए? क्या हमारे समय का संकट एक भारी नैतिक संकट भी नहीं है ? क्या ‘सचादारी’ होना, पिछड़ा चिंतन है? विनम्रता दब्बूपन नहीं, निर्भीकता का मतलब अहंकारी होना नहीं है - ये बातें क्या गुजरे जमाने की हैं और अब इन्हें अपने समय के बाहर कर देना चाहिए ? इतना तो स्पष्ट है कि संकीर्णता किसी मायने में हमारा साथ नहीं दे सकती । विचारहीनता के भय से विचार की संकीर्णता में फँसे रहना बुद्धिमत्ता नहीं है । स्वाधीन मस्तिष्क ही वास्तविक सर्जक है, दिमागी गुलामी सृजन के सारे रास्ते बन्द कर देती है । हमें ‘औसत’ दर्जे की संस्कृति नहीं चाहिए। अभी तो हर तरफ औसत प्रतिभावालों की धौंस-पट्टी है । गहन विचार-मंथन बीते जमाने की बात लगती है । एक अति-सामान्य प्रतिभावाली संस्कृति, जिसमें भाषा भी कामचलाऊ है और मनुष्य का व्यवहार भी, जन-संस्कृति का आधार नहीं बन सकती है । पढ़े-लिखे-अति-सामान्य-औसत प्रतिभावालों की एक बड़ी फौज शासक-वर्ग के लिए बहुत फायदेमंद है । इसीलिए जन-संस्कृति का प्रश्न एक तरफ एक बहुत गहरा नैतिक प्रश्न भी है, दूसरी तरफ शक्तिशाली मेधा को सामने के लाने के एजेंडे से भी जुड़ा है ।
एक समय संस्कृति के कुछ ही गिने-चुने केन्द्र होते थे, अब भी हैं, संस्कृति की राजधानी भी है । संस्कृति की स्थानीयता ही हमें वास्तविक सार्वभौमिकता देगी । जनसंस्कृति का सबसे बड़ा कार्यभार इन कथित केन्द्रों का ध्वंस करना है और इसके लिए, मुक्तिबोध के शब्दों में, अभिव्यक्ति के खतरे उठाने होंगे । इसलिए सांस्कृतिक मठों पर हमले करो-हमारा नया नारा होना चाहिए। विकास के चमचमाते मॉडल को जैसे पूरे देश पर थोपा गया है, चमचमाती संस्कृति का मॉडल भी हम पर थोपा गया है । हमें अनेकशः प्रयोगों की तरफ एक साथ बढ़ना होगा । किसी के प्रति छुआछूत नहीं, लेकिन किसी की धौंस भी यहाँ नहीं चलेगी, न नाटक की प्रस्तुति के एक ढाँचे की धौंस, न ही उसमें एक विचार की धौंस ।
i have become a member yours. congratulations it is a good job that you are doing.keep it up.i will send you news of rajasthan etc.but i am sorry it will have to be in english or romam you can do the needful.
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