Monday, January 16, 2012

आजादी आंदोलन और पारसी थियेटर


आजादी आंदोलन में पारसी थियेटर का योगदान :
रणवीर सिंह

1905 ई. में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया उनका कहना था कि यह प्रशासनिक सुधार के लिये किया गया । मगर हमारे राजनेता, समाज   सुधारक, और थियेटर को यह बात अच्छी तरह से समझ आ गई थी कि यह हिन्दुस्तान के टुकड़े - टुकड़े करने की साजिश थी। सारे हिन्दुस्तान का थियेटर खुल कर सामने आया। उसके सामने यह सवाल था कि सेन्सरशिप के होते हुये अपनी बात कैसे कही जाये खुल कर हमलावर नहीं हो सकते थे। 1906 में के. पी. खाडिलकर मराठी बुद्धिजीवी - लेखक - पत्रकार - नाटककार और बाल गंगाधर तिलक के करीबी साथी ने कीचक वध नाटक लिखा। उन्होंने बहुत होशियारी और खूबसूरती से महाभारत की एक कहानी को लेकर कीचक वध नाटक लिखा। उन्होंने कीचक को लॉर्ड कर्जन बनाया, द्रोपदी को हिन्दुस्तान,           युधिष्ठर को नर्म और भीम को गर्म  बनाया। उन्होंने वो तमाम बातें -जो कर्जन ने हिन्दुस्तानियों के लिये गलत शब्द कहे थे- उन्हें संवाद के जरिये कीचक से कहलवाया और यह दिखाया कि कीचक (कर्जन) द्रोपदी (हिन्दुस्तान) के साथ बदसलूकी कर रहा है। उस वक्त कांग्रेस में दो खेमे थे - नर्म और गर्म। उन दोनों के बीच बहस होती है। बाद में भीम (गर्मदल) कीचक का वध कर देता  है। नाटक के ज़रिये दर्शकों के दिमाग में यह बात अच्छी तरह से भर दी गई कि कर्जन और उसके तमाम अधिकारियों की हत्या करना है। नाटक का असर इतना पुरजोर था कि नाटक देखने के बाद मुंबई के मि. जैक्सन जो नासिक का कलेक्टर था  और मिस्टर ऐश  जो किसी दक्षिणी जिले का कलेक्टर था और तीन आदमियों के साथ मौत के घाट उतार दिये गये। नाटक बंद हुआ, खाडिलकर को जेल। इस नाटक ने दूसरे नाटककारों को यह सिखा दिया कि अपनी बात नाटकों के ज़रिये कैसे कही जा सकती है।

इसके बाद हिन्दुस्तान के हर भाषा के थियेटर ने एकजुट होकर दुश्मन का बखूबी सामना किया। यह बड़े अफसोस और दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि उस गुलामी के दौर में और आज के दौर में कुछ ज्यादा फर्क नहीं  आया। मगर मर्ज और बढ़ता गया। जितनी हमारी कमजोरियां थीं जैसे एकता, जाति भेद, धर्म, मज़हब, वो आज भी नासूर की तरह मौजूद हैं और केंसर की तरह फैलती जा रही हैं। कुछ लोग धर्म को लेकर, जाति को लेकर, एकता तो तोड़ने की खातिर- गंगा-जमनी कल्चर को- जो हमारे समाज और देश की नींव है, उसे तार - तार करने की पुरजोर कोशिश में लगे हुए हैं ।
मैंने इस लेख में पारसी थियेटर को लेकर यह दिखाने की कोशिश की है कि किस तरह से उसने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ नाटकों के ज़रिये अपनी बात कही और थियेटर को एक ताकतवर- धारदार हथियार बनाया। इप्टा के साथियों से मेरी गुजारिश है कि उन्हें भी इसी तरह से उन तमाम ताकतों से जो हमारे भाईचारे और गंगा-जमनी कल्चर को बर्बाद कर रहे हैं, उनका मुकाबला अपने नाटकों से करना होगा। हमारे हथियार नाटक और गीत ही हैं। नये हथियार चुनने होगें , उन्हें धार देनी होगी,  क्योंकि यह लड़ाई मुश्किल है। दुश्मन साफ दिखाई नहीं दे रहा, हमारे बीच ही छुपा बैठा है। बाहरी घुसपैठ से अन्दरूनी घुसपैठ कहीं ज्यादा ख़तरनाक है।
आइये, अब जरा उन नाटकों की बात करें जो जंगे आज़ादी के दौरान लिखे गये ।

आगा हश्र कश्मीरी का यह मशहूर संवाद करीब से देखें तो यह दरअसल अंग्रेजों के खिलाफ लिखा है। इशारा उनकी तरफ है, सेन्सर इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकाः

‘‘ अगर रहम न हो तो हुकुमत किस काम की , 
 बेइन्साफ की बहादुरी किस नाम की।‘‘


‘‘ अगले वक्तों में हमारी कौम पर जो जुल्म किये हैं 
 वो दिल पर खून के हर्फों से लिखे हुये हैं।‘‘

आगे साफ तौर पर इशारा करते हैं:-
‘‘ हमारे सर पर हजारों सितम ढाये गये । 
 हमारे झोंपड़े तोड़े गये, जलाये गये ।। 
 तुम्हीं हो जो कि हमेशा हमें सताये गये।
 हमीं हैं जो कि तुम्हारे सितम उठाये गये ।।‘‘

‘यहूदी की लड़की‘ ड्रामा में जुल्मों सितम की बात करते हुये हर कौम के बीच मतभेद पैदा करने की ब्रिटिश सरकार की शातिराना हरक़त की तरफ इशारा किया हैः

तुम सितम करते रहे और हम सितम देखा किये
खानूमां बर्बाद होकर रंजोग़म देखा किये 
सर हुये तेरे अदावत से क़लम देखा किये
तुमने की लाखों जफायें और हम देखा किये।
जुल्म का हम पर मगर उल्टा असर होता गया 
छांटने से नख़्ले क़ौमी बारबरे होता गया

आगे तो आग़ा साहब ने ब्रिटिश सरकार पर खुल कर हमला किया हैः

 तुम्हीं हो जिसने फूंक डाला साथ दिल के वतन जिसने 
 बिगाड़ा है यह घर जिसने, उजाड़ा है चमन जिसने
 तुम अपना जुल्म इस आँख इस दिले रंजूर से देखो
 हमारा घर जले और तुम तमाशा दूर से देखो।

‘‘ सीता वनवास‘‘ नाटक में आग़ा साहब ने जाति के मसले को उठाया।  धोबी ने सीता के चरित्र पर सवाल उठाया था। यह सीन नाटक में बाद में 1921 में डाला गया था।
शत्रुघन राम से कहता है:

शत्रुघन:
वो शूद्र है और समाज शूद्र  को मनुष्य नहीं समझता। तब उसके बोलने को भी मनुष्य का बोलना नहीं समझा जाना चाहिए।
राम:
क्या ब्राम्हण, क्षत्रीय, वैश्य के समान शूद्र पुरुष और स्त्री से जन्म नहीं लेते. स्वाभाव, हृदय, बुद्धि, ज्ञान और विवेक नहीं रखते ? फिर शक्ति और शिक्षा के अभाव के सिवाय उनमें और दूसरे मनुष्यों के क्या भेद हैं? 

राम नसीहत देते हैं कि समाज के कमजोर होने पर क्या खतरा पैदा होता हैः

‘‘हे शत्रुघन, जड़ खोखली हो वो वृक्ष, जिसके स्तम्भ बोदे हों वो छत, जिसकी नींव हिल रही हो वो घर, जिसमें थोड़े आदमी उच्च जाति में जन्म लेने के कारण अपनी मातृभूमि के करोड़ों बच्चों को बलहीन, शिक्षाहीन, अधिकारहीन, व दास बना कर अपने पैरों के नीचे रखना चाहते हों, वो देश कभी दीर्घ समय तक सिर ऊँचा किये हुये अपनी जगह पर खड़ा नहीं रह सकता।‘‘ (अंक 1-सीन 6 )

आगा साहब ने अपने नाटक ‘‘भारत की पुकार‘‘ में विदेशी ताकतों को इस तरह से ललकारा थाः

 ‘‘ओ दुनिया वालो हिन्द के आते हैं दीवाने 
  तुम छोड़ दो रास्ता हुये हैं शेर खाने
  यह मुल्क हिन्दुस्तान हमारा है हमारा
  झण्डे पे सूरज व कहीं चाँद सितारा 
  मन्दिर के साथ खेलता मस्जिद का किनारा
  काशी में चूमता जिन्हें गंगा का किनारा
  अजान सुन के हम चले हैं शंख बजाने 
  ओ दुनिया वालो हिन्द के आते है दीवाने।‘‘


आगा साहब का नाटक ‘‘सुफैद खून‘‘ जो शेक्सपीयर के नाटक ‘‘किंग लीयर‘‘ का रूपान्तर है, उसमें बादशाह खाकान अमीर और गरीब के बीच जो फर्क़ है इसकी बात करता हैः

‘‘क्या आफबात अमीरों के महलों की तरह गरीबों की झोपड़ी पर रोशनी नहीं डालता ? क्या इस जमीन पर खुदा ने उन को चलने का हुक्म नहीं दिया है ? क्या आसमां अमीरों को अपनी छत के नीचे बैठाता है और गरीब को धक्के मार कर निकाल देता है।‘‘

अपने नाटक ‘‘सीता बनवास‘‘ में आग़ा साहब ने राजा के फर्ज का बयान किया है। जब राम से कहा जाता है कि एक धोबी के कहने से सीता को बनवास दिया जाये यह कहां का इंसाफ है, राम जवाब देते है:

‘‘ राजा अपने हर काम के लिये ईश्वर और प्रजा के सामने उत्तरदायी है, उसे न्याय सिंहासन पर बैठने के बाद बन्धु, पुत्र, पत्नी, सुख, स्वार्थ, मोह, माया सब से मुँह फेर कर केवल अपने कर्तव्य को देखना होता है।‘‘

अपने मशहूर ड्रामा ‘‘खूबसूरत बला’’ में आग़ा साहब ने समाज में नेकी क्या होती है उसके बारे में कहा है:

‘‘ दुनिया में सच्ची और सीधी राह फक़त नेकी है जो कब्र के दरवाजे से निकाल कर कयामत के मैदान से होती हुई बहिश्त के दरबार पहुँचाती है। बाकी हर एक राह ठोकरंे खिलाती हैं, काँटों में फँसाती हैं और आखिरकार जहुन्नम के अंधेरे गार में गिराती है।‘‘

उस जमाने के रईसजादों में यह फैशन चल पड़ा था कि शाम के वक़्त सजधज कर, इत्र लगा कर, गजरे हाथ में लिये, तवायफों के कोठों पर महफिल सजाने जाया करते   थे। कई रईसों के घर बर्बाद हुये। आगा साहब ने अपने सामाजिक ड्रामे ‘आँख का नशा’, ‘खूबसूरत बला’ में हर परिवार के बिगड़ते हुये रिश्तों की तस्वीर पेश की है, ‘बिलवा मंगल’ ड्रामे में चिन्तामणी एक वेश्या होकर वेश्या और बीवी में क्या फर्क़ होता है बताती हैः

 ‘‘आज उसकी है तो वो कल दूसरे की यार है 
  जब तलक पैसा है तब तक वेश्या का प्यार है
  स्वार्थ की तस्वीर में वो धर्म का उधार है 
  वो कहां और मैं कहां वो धर्म का अवतार है 
  याद रख दुःख पायेगा दुनिया में खोये करम से 
  घर का सुख देवी से है परलोक का सुख धरम से।’’

इसी नाटक में आग़ा साहब ने उन रईसजादों की महफिल का बयान इस खूबसूरती से किया हैः

 ‘‘परिपूर्ण पूर्ण के पाप हेतु भगवंत कथा न रुचे जिनको
  तै अंग कुसंग में खेल रहे नचावत है परनारिन को 
  मृदंग कहे धिक है धिक तो मंजीरा कहे किन को किन को
  तब हाथ उठा कर नारी कहे इनको, इनको इनको, इनको’’

आगा साहब को शायद आने वाले जमाने की तस्वीर का तसव्वुर हो चुका था। उसका बयान एक नज़्म में यूं किया हैः

 ‘‘जगह जगह पर खड़ी है सूली कदम कदम पर बिछे है फंदे 
  दूकान खोली है मासीयत की गुनाह के हो रहे हैं धंधे 
  निगाह नापाक, रूह मैली, जुबान झूठी, ख्याल गन्दे 
  कुछ आज आया अजब ज़माना न वो खुदा है न वो है बन्दे.
  रही यह हालत तो दीन ओ मज़हब को दूर ही से सलाम होगा
  कहाँ के हिंदू कहाँ के मुस्लिम रहीम होगा न राम होगा।’’


नारायण प्रसाद ‘बेताब‘ ने ऊँच-नीच, छुआछूत के खिलाफ ‘महाभारत‘ नाटक में अपनी बात कहने के लिये चेता-चमार का एक खास सीन जोड़ा। वैसे उसका महाभारत से कोई लेना देना नहीं था, इस बात को लेकर उन्हें काफी कुछ सुनने को मिला मगर नारायण प्रसाद का कहना था कि नाटककार को इस बात का इख्तियार है कि वो अपनी बात समाज को कहने के लिये नाटक में जोड़-तोड़ कर सकता है। उनका कहना था कि नाटक कोई धर्मग्रन्थ या हर्फे-कुरान नहीं है। इस सीन को लेकर काफी खिलाफत हुई और बाद में इसे बदलना पड़ा। सीन कुछ इस तरह का था:

द्रोणाचार्य, चेता-चमार जो एक भजन मण्डली चलाता है और भगवान की पूजा करता है, उससे पूछते हैं कि उसे ठाकुर की पूजा करने की आज्ञा किसने दी? तो चेता-चमार जवाब देता है:

चेता :
महाराज आप जैसे गुरुओं ने।
द्रोणा :
हम जैसे गुरुओं ने ?
चेता : 
हाँ, देवता, पानी स्रोतों के रास्ते कुँए में आता है। कुँए से घड़े में, घड़े से नहाने धोने के काम में लिया जाता है तो वहां से बहकर मोरी के कीड़ों की प्यास भी बुझाता है।  
द्रोणा
इस उदाहरण का मतलब ?
चेता :
वेद जो ईश्वर का ज्ञान है, गुप्त रूप से ऋषियों के ह्दय में आया, ऋषियों ने मनुष्यों पर जहां तहां उपदेश किया तो मुझ जैसे, नीच ने भी सुन लिया।


यही नहीं बेताब साहब ने तो चमारों के झण्डे पर यजुर्वेद का मंत्र लिख डाला। बहुत से दकियानूसी लोगों ने इसका बड़ा एतराज किया। दुर्योधन चेता की भजन मण्डली का झण्डा देखकर उससे पूछता है:

दुर्योधन :
यह झण्डे पर क्या लिख छोड़ा है ।
सेवा :  
(जो चेता का शिष्य है) ययमां वाचं कल्याणी
चेता :   मावदानिजनेभ्य...
द्रोणा: 
चुप चण्डाल वेदमंत्र इस मुँह से न निकाल।
दुर्योधन : 
छीन लो यह झण्डा।
द्रोणा : 
धूर्तराज, क्या तुझे खबर नहीं कि तू जाति का चमार है। किसने कहा है कि शूद्रों को वेद मंत्र पढने का अधिकार है?
चेता
इसी वेद मंत्र ने। इसमें परमात्मा मनुष्य मात्र को अपनी कल्याणकारी वाणी का अधिकारी बताता है। राजा, प्रजा, स्त्री, पुरुष, शूद्र, प्रतिशूद्र, सबको भजन भक्ति में एक-सा हकदार ठहराता है।

इसी सीन को लेकर काफी विवाद खड़ा हुआ और बाद में इसकी जगह दूसरे सीन को डालना पड़ा । मगर जब महाभारत नाटक छपा तो इसमें दोनों सीन दिये गये।

1927-28 में एक अमरीकन महिला केथरीन मेयो  ने  जो मिस मेयो के नाम से जानी जाती थी, हिन्दुस्तान पर एक किताब लिखी उसका उनवान था, ‘मदर इण्डिया।’ उसमें जितनी भी बुराइयां उसकी नजर में आई उनका जिक्र किया। किताब पढ़ने से ऐसा मालूम होता है कि शायद वो इसी काम की खातिर आई थी । इस किताब को लाला लाजपत राय ने "गटर इंस्पेक्टर्स रिपोर्ट"  बताया था। नारायण प्रसाद ने नाटक के जरिये इस किताब का जवाब दिया। मेरी नज़र में शायद इस तरह पहली बार किसी किताब का जवाब नाटक से दिया गया।
लाला लाजपत राय से प्रेरणा लेते हुये बेताब साहब ने नाटक ‘किन्नर कुमारी’ में यह गीत लिखा, जो उस वक्त बहुत लोकप्रिय हुआः

बहारे गुल को बुलबुल ही खुशी से देख सकती है 
हमेशा चील तकती है तो मुरदारों को तकती है 
शराबी ढूँढ लेता है जहाँ होता है मयखाना 
सूए दैरो-हरम जाते हैं जिनके दिल में भक्ति है 
हवन कुण्डों को देखेगा न दारोग़ा सफाई का 
फक़त कूड़े के ढेरों पर नज़र उसकी लपकती है 
शिवालय और मस्जिद के खुले हैं गो कि दरवाजे 
कुमारी किन्नरी लेकिन वहां जाते झिझकती है।

‘किन्नर कुमारी’ नाटक कलकत्ते में उस वक्त खेला गया जब कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। पंडित मोतीलाल नेहरू सभापति थे। नाटक की शुरूआत में पर्दे पर भारत का नक्शा, उस पर भारत माता की तस्वीर, एक ओर हिन्दू लीडरों की और दूसरी ओर मुस्लिम लीडरों की तस्वीरें थीं। एकता को लेकर भारतमाता यह गीत गाती हैः

 ‘‘दिखाई देते हैं जिनके चेहरे ये एक मां के दिलो जिगर हैं
  जो एक बैठे हैं सर ब जानूं तो दूसरे भी ब चश्मेतर हैं 
  वही समालोचना पढ़ी है इसी से यह वेदना बढ़ी है
  हुए है दिलगीर दोनांे भाई, न क्यों हो आखिर तो वो बशर हैं 
  न कुछ मजाले सुखन रही है, तो जान पर इनके बन रही है
  सितम रसीदा हैं आबदीदा ज़बां बुरीदा शिकस्तापर हैं।’’


बेताब साहब ने यही नसीहत दी थी कि किताब की खिलाफत गाली गलौज से न करें - तोड़ फोड़ न करें - उनका कहना थाः

 नाटक द्वारा करो सफाई इन निर्मूल कंलकों की 
 यही मन्त्र है परम औषधि इन बिच्छु के डंकों की।

राधेश्याम कथा वाचक जिन्होंने ज्यादातर धार्मिक नाटक लिखे, उन्होंने भी अपने तरीकों से धार्मिक नाटकों के जरिये उस वक्त के सामाजिक मुद्दों को उठाया। राधेश्यामजी के किसी भी नाटक पर सेन्सर बोर्ड पाबन्दी नहीं लगा सका। उन्हें समझ ही नहीं आता था कि इशारा ब्रिटिश सरकार की तरफ है या कहीं और।
अपने नाटक ‘भक्त प्रहलाद’ जो 1921 में खेला गया था, उसमें किसानों की जिन्दगी के हालात की तस्वीर पेश की। किसानों का वैसे भक्त प्रहलाद से कोई वास्ता नहीं है, मगर राधेश्यामजी को किसानों की बुरी हालत को दिखाना था। उन्होंने पारसी थियेटर में पहली बार नट और नटि का इस्तेमाल किया। नट और नटि के जरिये उन्होंने हिरण्यकश्यप को जगदीश बना दिया। जगदीश और कोई नहीं अग्रेजी हुकुमत का प्रतीक था। आज वो हमारी सरकार का हो सकता है। जगदीश से मिलने किसानों का डेलीगेशन आता है। जगदीश अपने आप को ईश्वर समझने लगता है। आज भी सत्ता की ताक़त के सबब से लोगों में घमण्ड पैदा होता है । यह सीन आज भी किसानों की असली तस्वीर पेश करता हैः

हिरण्य :
( पूछता है ) यह कौन है ।
किसान :
तेरे अन्याय की सच्ची तस्वीरें! गरीब किसानों की सूखी हड्डियां । तू यदि जगदीश है तो देश में अकाल क्यों है ? तू यदि लक्ष्मीपति है तो देश आज कंगाल क्यों है ? तू यदि न्यायकारी परमात्मा है तो प्रजा अन्याय से बेहाल क्यों है ? झूठे जगदीश का दावा करने वाले राजा शर्म कर और हम बेकसों की मुर्झाइ हुई हालत को देख जिस क़ौम की कमाई हुई दौलत से तू जगदीश होने का दावा करता है उसी किसान क़ौम की मुर्दा सूरतों को देख।

 ‘‘जुल्म हम पर हो रहे हैं और तू खुशहाल है 
  धिक है उस जगदीश पे जिसकी प्रजा पामाल है।’’  


 हम बारिश धूप में मर - मर कर पैदा इस देश को नाज करें 
 और राज के जालिम अधिकारी हमको दिन दिन मोहताज करें 
 जगदीश हमारा ही खाकर अन्याय का हम  पर राज करें 
 इंसाफ इसी को कहते हैं ? तुम काट करो हम काज करें।

भक्त प्रहलाद में ही राधेश्यामजी ने समाज में जो भेदभाव था, उसे भी नट- नटि के जरिये दर्शकों के सामने पेश किया और सोचने को मजबूर कियाः

नट :
( नटि से कहता है ) एक पिता के दो पुत्र हैं । निराकार और साकार को मानने वाले जुदा जुदा पसन्द रखते हुए भी हैं तो एक ही पिता के पुत्र। एक जननी जन्मभूमि के लाल।  एक ही रक्त, एक ही मांस, एक ही मज्जा के बने हुए। फिर झगड़ा कैसा ?

रास्ते तो हैं अनेक पर स्थान एक है
कोटानुकोट भक्त हैं भगवान एक है 
हो आर्य या सनातनी, ईसाई या इस्लाम
आंखे तो हैं जुदा जुदा पहचान एक है।
शोभा यही है मिलके परस्पर रहें सभी 
धर्मानुकूल धर्म - धुरन्धर रहें सभी
है सम्प्रदाय- भेद तो लड़ने की क्या है बात ?
डोरी में जाति- प्रेम की बंध कर रहें सभी।

राधेश्यामजी ने अपने नाटक ‘‘उषा अनिरूद्ध’’ में अलग-अलग धर्मो में जो विवाद था, उसकी बात करते हुये संगठन पर जोर देते हैं । वाणासुर को ब्रिटिश सरकार बनाते हैं, उसका वध करने के लिये संगठन की अहमियत पर जोर देते हैं।कृष्णदास जो कृष्ण भक्त है, उसकी जुबां से अपनी बात आवाम तक पहुंचाते हैं:

‘‘संगठन का तत्व समझना हो तो जल के बिन्दुओं से पूछो। एक-एक बिन्दु मिल कर जब नदी बन जाती है तो बड़े पर्वत को बहा देती है, संगठन की शक्ति जानना हो तो आग की चिनगारियों से पूछो, एक-एक चिंगारी मिलकर जब प्रचण्ड ज्वाला बन जाती है तो बड़े से बड़े राजमहल को जला देती है। संगठन का बल देखना है तो प्रकाश की किरणों से पूछो, एक-एक किरण मिल कर जब तीव्र धूप का स्वरूप बन जाती हैं तो ऊँचे से ऊँचे हिमशिखर को पिघला देती है।’’

लोगों में जोश पैदा करने, उन्हें हिम्मत दिलाने उन्होंने ‘रूक्मणी मंगल’  नाटक में एक गीत लिखा:

 तभी जग में विजय होगी तभी विजयी कहलाओगे
 फतह दुश्मन से पहले आप पर तुम जब कि पाओगे 
 नहीं है जिसमें बल साहस कहां वह नाव खेता है 
 जो खुद को जीत लेता है जगत को जीत लेता है।

इसी नाटक में यह दोहा भी कहा:-

मर के भी रहता है जीता बान का मारा हुआ 
पर है जीते जी मरा, अपमान का मारा हुआ। 

मैं अपनी बात भक्त प्रहलाद नाटक के एक गीत से खत्म करता हूँ:

अब नहीं नवकर चलेंगे नौकराई देखली
मालिक के मन में थी जितनी सफाई देखली
बेचकर स्वाधीनता जो की कमाई देखली
किस तरह होती भलाई में बुराई देखली .
घोंट दो चाहे गला इससे न जी घबरायेगा
पर गुलामी का फन्दा अब न गले को भायेगा।

हमने साम्राज्यवाद से आजादी हासिल की, मगर आज हालात कुछ ऐसे बन रहे हैं कि नवसाम्राज्यवाद का फन्दा हमारे गले में पड़ चुका है। उससे आजादी हासिल करना बेहद जरूरी है। जरूरी है थियेटर मूवमेंट का जो अवाम तक इस बात को पहुंचा सके। ‘इप्टा’ जो हिन्दुस्तान के हर कोने में बसी है, इस काम को अंजाम दे सकती और देना चाहिये । यही वक्त की आवाज है और हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी ।

रेखांकन : पंकज दीक्षित

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