संत समीर पत्रकार कम, एक्टिविस्ट ज्यादा हैं। दिल्ली में रहते हैं पर गांव-गंवई के ही इंसान नजर आते हैं। सादगी पसंद हैं व इसके लिये तरह-तरह के प्रयोग करते रहते हैं, कभी-कभार भोजन भी त्याग देते है। जाहिर है कि कुछ इसी किस्म का इंसान अदम जैसे देहाती जनकवि का इंटरव्यू इस बेबाकी के साथ ले सकता था। साथ में उन्हें याद करता एक लेख। इन्हें कादंबिनी से ज्यों का त्यों- बगैर नुक्तों के -साभार लिया जा रहा है । - संपादक
अदम गोंडवी। दो शब्दों का यह नाम साहित्यप्रेमियों ही नहीं, देश-समाज के प्रति जागरूक आमजन के बीच भी खासा लोकप्रिय है। सिर्फ पांचवीं तक पढ़े और खेती-किसानी में रमे अदम ने जब कविताई शुरू की तो जैसे हिंदी गजल की दुनिया में इंकलाब आ गया। दुष्यंत कुमार के बाद वही ऐसी शख्सियत हैं, जिनके तमाम अशआर नारे बन गए। हिंदी गजल को उन्होंने नया जनवादी मुहावरा दिया। पेश है उनका दिलचस्प साक्षात्कार
मुड़ा-तुड़ा-सिकुड़ा-सा कुर्ता और मटीली-सी धोती पहने वे अचानक सामने आ खड़े हुए तो महसूस हुआ कि असली जमीनी आदमी पर तमाम शोहरत कैसे बेअसर रहती है। शायद उन्हें अहसास है कि माटी के आदमी को इतनी सार-संभाल की जरूरत भी क्या? अपने गांव-जवार में हों अथवा महानगरीय चकाचौंध वाले किसी कवि सम्मेलन या मुशायरे में, ऐसे ही रफ-टफ वे हर कहीं होते हैं। एकदम खाटी गंवईपन की पहचान वाले इस शख्स की दोटूक बेबाकी आश्चर्य में डालती है। जी हां, बात ‘माशूक के जल्वों’ में खोई गजल को ‘विधवा के माथे की शिकन’ तक ले जाने के हामी हमारे समय के मशहूर गजलकार अदम गोंडवी की ही है। तबीयत खराब होने के बावजूद जरा-से आग्रह पर बीती 29 जुलाई को अदम जी कादम्बिनी के कार्यालय में आए तो एक नया अनुभव दे गए। सेहत और उम्र के खयाल से वे कम बोले, रुक-रुक कर बोले, पर बोले बिना लाग-लपेट बेबाक।
छंद के दायरे से बाहर निकलती कविता के दौर में आपने गजल विधा को क्यों चुना?
इसलिए चुना कि उस दौर में दुष्यंत की गजलें बहुत प्रभावी साबित हो रही थीं। कोई लाग-लपेट वाली बात नहीं थी उनमें। वे इतनी मकबूल हुईं, प्रसिद्ध हुईं कि मुझ पर भी असर हुआ और मैंने इस विधा को चुन लिया। इसके अलावा माहौल भी हमारे यहां का इस विधा के माफिक था ही। अली सरदार जाफरी, बेकल उत्साही, असगर गोंडवी-ये सब हमारे जिले के थे। मुझे लगा कि गजल के जरिये मैं अपनी बात ज्यादा प्रभावी तरीके से कह सकता हूं, तो यह भी एक बड़ा कारण है।
हिंदी गजलों में मीटर की गड़बड़ियां अक्सर दिखाई देती हैं। तर्क दिया जाता है कि इस दौर की बात कहने के लिए मीटर की बंदिश पर बहुत रूढ़ होने की जरूरत नहीं है। क्या सचमुच ऐसा ही है या हिंदी गजलकारों में उर्दू छंदों का ज्ञान कुछ कम है?
छंदों की कम जानकारी का तो सवाल छोड़िए। असल में गुजराती में, पंजाबी में-सब में गजलें कही गई हैं। फिर भी, उर्दू की परंपरा सात सौ साल पुरानी है तो स्वाभाविक रूप से छंद की परंपरा भी वहां समृद्ध है। खैर, बात चाहे जो भी हो, छंद का निर्वाह तो होना ही चाहिए। आप जिस भी विधा में लिखें, उसके छंद का ज्ञान तो रखकर चलिए ही। बगैर मीटर के गजल कैसे हो सकती है? वैसे, कहने को तो गालिब और मीर के यहां भी चूक हुई है, पर यह कोई खास बात नहीं है।
गजल पैदा हुई मुहब्बत की बातें या तगज्जुल के लिए, पर आज क्रांति की बातों के लिए भी इसकी महज चंद लाइनें अन्य विधाओं की तुलना में ज्यादा असरदार साबित हो रही हैं। आखिर गजल में यह विरोधाभासी समन्वय कैसे संभव हुआ?
विरोधाभास जैसी कोई बात नहीं है। गजल में शुरू से ही यह होता रहा है। मीर ने तो लिखा ही है-शायरी है मेरी खवाश.....। कई पुराने शायरों ने भी आम आदमी का दर्द लिखा। तो, कोई नई बात नहीं है। शुरू से ही गजल क्रांतिकारी रही है।
ऐसा नहीं लगता कि जितनी जगह मिलनी चाहिए थी गजल को अभी उतनी नहीं मिली उसे?
आलोचकों ने इसके साथ अत्याचार किया। हमारे बड़े-बड़े आलोचक रातोरात जिसको चाहें आसमान में बैठा दें, पर गजल जैसी विधा की ओर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। बहरहाल, गजल तो अपना स्थान अपने ही बूते बनाती जा रही है और बना ही लेगी। इन टुंटपुजिया आलोचकों के कहने से कुछ नहीं होगा। इनके कहने से कौन महाकवि हो गया है? इन लोगों ने जिन दर्जनों कवियों को लोर्का, गोर्की कह-कहकर प्रचारित किया था, आज कहां है वे लोग!
थोड़ी भी शोहरत मिल जाय तो लोग दिल्ली-मुंबई का रुख करने लगते हैं, लेकिन आपके पांव अपने गांव-जमीन में ही जमे रहे?
(खिलखिलाकर हंसते हुए) अरे भाई, पूरा हिंदीभाषी क्षेत्र जानता है कि प्राइमरी तक मेरी शिक्षा है। भला कौन घास डालता मुझे! ये तो आप जैसे युवा लोग हैं, जिन्होंने मुझे आंदोलनों से जोड़ा। उस वक्त जब मेरी कोई किताब तक नहीं छपी थी तो देश भर में आंदोलनों के लोगों ने ही मेरी गजलों को नारे बनाकर गली-गली तक पहुंचाया।
एक लंबा दौर आपने देखा और आज के युवाओं के साथ भी आप मंच पर काव्यपाठ करते हैं। उस दौर और इस दौर में क्या फर्क देखते हैं?
उस दौर का हाल यह है कि हम अक्सर कोने में फेंक दिए जाते थे। आज भी वही स्थिति है। जो चुटकुलेबाज हैं, वे आगे आ गए हैं। कोई खास फर्क नहीं पड़ा है।
हिंदी गजल की जब भी बात आती है तो बिना कहे-सुने ही उसमें उर्दू का एक मिजाज आ जाता है। क्या सीधे-सीधे हिंदी में गजलों का प्रभाव नहीं बन पाता?
सीधे-सीधे हिंदी में गजल का प्रभाव ज्यादा दूर तक नहीं जा पाता है। हर भाषा का अपना अलग मिजाज होता है। कबीर, निराला से लेकर बहुत सारे लोगों ने गजलें कही हैं, पर वह बात नहीं आ पाई। अब दोहा को लीजिए, गीत को लीजिए, ये हिंदी की विधाएं हैं। फैज तक ने कोशिश की उर्दू में गीत लिखने की, पर सफल नहीं हुए। वैसे ही प्रभावी गजल के लिए उर्दू की जमीन तो चाहिए ही। यह मूल रूप से उर्दू की विधा है तो उर्दूपन तो झलकेगा ही।
इधर कई मुद्दे उभरे। अन्ना हजारे जैसे लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ लगातार लड़ रहे हैं। पर, साहित्यकार बिरादरी की ओर से प्रभावी ढंग से प्रतिरोध के स्वर नहीं उभरे?
सही कहें तो ज्यादातर साहित्यकार लोग तो नपुंसकता वाली स्थिति में पहुंच गए हैं। जबकि, सबसे बड़ा दारोमदार इन्हीं पर था। हम लोगों ने (साहित्यकारों) ने एक मुकाम पर आकर कहा था कि अब व्यवस्था को बदल लेना है, पर चलते-चलते अपनी बीवियां बदल लीं। कहा कि हमारी शादी माता-पिता ने की थी सामंजस्य नहीं बैठ रहा था। व्यवस्था-बदलाव बस इतने तक ही समझ में आया।
साहित्य में विचारधारा को आप कितनी अहमियत देते हैं?
साहित्य में विचारधारा बेहद जरूरी है। यह इस नजर से भी जरूरी है कि इसे हर काल में जरूरी समझा गया है। रीतिकाल को देखिए। एक साथ कलकत्ता से लेकर पंजाब तक एक ही धारा में लोग चल रहे थे। इसके बाद प्रगतिशील लेखक संघ की शुरुआत हुई। उस दौर में भी अप्रतिम लिखा गया। हां, विचारधारा का अर्थ यह भी नहीं है कि आप सिर्फ किसी पार्टी के प्रचारक बनकर रह जाएं। और, यों तो पार्टी प्रचारक होना भी कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन एक दृष्टि तो होनी चाहिए। ऐसा न हो कि आज यहां हैं, कल वहां चले गए। दरअसल, आजकल की यही कमी है। प्रतिबद्धता तो कहीं-न-कहीं होनी ही चाहिए, पर इस नाम पर स्वार्थ साधना गलत है।
साहित्य की मूल चिंताएं आज के समय में क्या होनी चाहिए?
साहित्य की मूल चिंता यह होनी चाहिए कि समान रूप से सबको अधिकार मिले। साहित्य का तो मूल उद्देश्य ही है कि हमारे समाज में समानता आए, समान रूप से सब खुशहाल रहें। लेकिन आज यही नहीं हो रहा है। आज जो भी गड़बड़ियां हो रही हैं, उनके लिए हम साहित्य वाले लोग राजनेताओं को दोष दे रहे हैं, पर हमें चाहिए कि सबसे पहले अपने दामन में तो झांककर देखें। साहित्यकार क्या नहीं कर सकता है, पर वह अपने ही स्वार्थ में लिप्त है। आपका कहना ठीक है कि हमारे समाज में अभी भी सामंतवाद मौजूद है, जातिवाद है, विषमताएं हैं, उदारीकरण की चुनौतियां हैं। इन सब पर साहित्यकार बहुत कुछ कर सकता है।
हिंदी का भला कैसे होगा?
सत्तर-अस्सी साल हुए हैं अभी हिंदी को ठीक से आए हुए। इतने समय में हिंदी कहां से कहां पहुंच गई, यह हम खुद देख सकते हैं। हिंदी में एक-से-एक विद्वान हुए हैं। समस्या यही है कि संपन्न लोग अंग्रेजी की दौड़ में लग गए हैं। यह गलत परंपरा शुरू हो गई कि हिंदी को लगातार बेदखल किया जा रहा है। इसे ही ठीक करने की जरूरत है।
पुरस्कारों-सम्मानों को कितनी अहमियत देते हैं?
रचनाकार के लिए सम्मान की अहमियत तो बहुत है, पर इसके लिए जो जालबट्टे किए जा रहे हैं, वह गलत है। असल में यह सब बहुत पहले से ही किया जाता रहा है, कोई नई बात नहीं है इसमें। पर, पुरस्कारों में ईमानदारी तो होनी ही चाहिए।
हिंदी गजल में त्रिलोचन से लेकर शमशेर, दुष्यंत और खुद अपने तक आपने परिवर्तन का जो दौर देखा है, उसमें नई पौध से कितनी उम्मीद रखते हैं?
अच्छा लिख रहे हैं युवा गजलकार। नाम तो मैं किसी का नहीं लेना चाहूंगा, पर कई लोग हैं जो बढ़िया कर रहे हैं। हां, कुछ खास कहने के लिए एक दृष्टि होनी चाहिए और उसी की सबसे बड़ी कमी है इस पीढ़ी में। नयों में नएपन की कमी है।
छिनना कविताई की जुबान का
जिंदगी और मौत के बीच तमाम जद्दोजहद के बाद आखिरकार हमारे दौर की शायरी का अदम दम तोड़ गया। और असल में, दम अदम का नहीं अंदाजेबयां की उस अलहदा-सी रवायत का ही टूट गया, जिसे दुष्यंत कुमार के बाद रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी ने अपने ही दम-खम पर पाला-पोसा और संभाला था। 18 दिसंबर की सुबह जब खबर आई कि अदम गोंडवी नहीं रहे तो तो क्रांतिधर्मा शायरी के मुरीदों के लिए यह किसी सदमे से कम नहीं था।
अदम गोंडवी का जाना सिर्फ हिंदी, हिंदवी या हिंदुस्तानी जुबान के एक शायर का चले जाना नहीं है। समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े मुश्किलजदा आदमी की चिंता करने वालों, सार्थक बदलाव की उम्मीदें लिए संघर्ष की राह पर बढ़ रहे लोगों की तो जैसे कविताई की जुबान ही छिन गई।
अदम की समूची शख्सीयत में औपचारिकता जैसी कोई चीज नहीं थी। एकदम रफ-टफ। जैसे भीतर वैसे बाहर। बनावटी दुनिया से दूर। मुड़ा-तुड़ा-सिकुड़ा-सा कुरता, मटीली-सी धोती और गले में मफलर डाले एकदम ठेठ गंवई रंग-ढंग में ही वे बड़े-बड़े सभा-सम्मेलनों से लेकर महानगरों के चकाचौंध भरे मुशायरे-कवि सम्मेलनों तक में दिखाई दे जाते थे। वे असली माटी के पूत थे। यह कहन का मोल था कि उनकी शायरी की गूंज वैश्विक बन गई, पर तमाम शोहरत के बावजूद वे इसका कोई निजी लाभ लेने का मानस नहीं बना पाए और न ही अपने गांव-जवार, अपनी मिट्टी का मोह छोड़ पाए। समझौतापरस्ती फितरत में नहीं थी तो मुफलिसी अदम के संग-साथ ताउम्र रही, पर उनके कथ्य की अमीरी के आगे बड़े-बड़े भी दूर-दूर तक टिकते दिखाई नहीं देते। अदबी दुनिया में इस दौर का कबीर तलाशना हो तो बस यही एक नाम है-अदम गोंडवी। शायरी हो या बातचीत एकदम दोटूक, न कोई लाग-लपेट न कोई दुराव-छिपाव। हां, अदम को कबीर की तरह ‘मसि कागद छुयौ नहीं’ तो नहीं कहा जा सकता, पर उनकी प्राइमरी तक की पढ़ाई को आज के जमाने में ‘पढ़े-लिखे’ के पैमाने पर भी भला कहां फिट बैठाया जा सकता है। सोचिए तो, पढ़ाई-लिखाई से लेकर माली हालत तक मुश्किलों के माहौल में पले-बढे़ इस अजीम शायर को अंदाजे-बयां की लाजवाब ताकत कहां से मिली, यह किस आश्चर्य से कम नहीं लगेगी। उर्दू वाले भी कहते हैं कि हिंदी गजलों में उर्दू शब्दों की ताकत पहचाननी हो अदम गोंडवी को पढ़िए-
गजल को ले चलो अब गांव के दिलकश नजारों में,
मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में।
अदीबों ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ,
मुलम्मे के सिवा क्या है फलक के चांद तारों में।
अदम काव्य के व्यंजना धर्म की बहुत परवाह नहीं करते और न इस बाबत आलोचकों की नुक्ताचीं का। उनकी अभिधा, व्यंजना की तमाम शक्तियों पर भारी पड़ती है। उनकी दोटूक बयानी शायरी में उतरती है तो धीमी आंच की तरह सुलगने के बजाय यकबयक धधकते अंगार के मानिंद असर करती है। अदम के यहां लुका-छिपी नहीं, सीधा विद्रोह है-
काजू भुने पलेट में ह्विस्की गिलास में,
रामराज उतरा है विधायक निवास में।
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत,
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।
जनता के पास एक ही चारा है बगावत,
यह बात कह रहा हूं मैं होशों हवास में।
‘धरती की सतह पर’ खड़े हो ‘समय से मुठभेड़’ करते हुए आप उनकी शायरी पर ‘वाह’ करना चाहें, पर भिंचने लगें आपकी मुट्ठियां और दिल में भड़कने लगें बगावत के शोले, तो कोई हैरत की बात न होगी। यही तो अदम के फन की खासियत थी, जो अब देखने-सुनने को न मिलेगी।
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