एक अधूरी पटकथा के लिये
उस दिन सुबह-सुबह यह मनहूस खबर मिली कि शरीफ भाई एक सड़क दुर्घटना में चल बसे। देर तक उनका चेहरा जेहन में मंद-मंद मुस्कुराता रहा। उन्हें हमेशा इसी तरह मुस्कुराते हुए ही देखा था। बहुत धीमे। शाइस्तगी के साथ। कभी खुलकर ठहाके लगाते भी नहीं देखा। बोलते भी बहुत कम थे-, उतना ही जितनी जरूरत हो। या इससे कम में भी काम चला लेते थे। ‘‘बात बोलगी हम नहीं’ की तर्ज पर उनका काम बोलता था। अभिनय हो, पटकथा लेखन हो, मंच आलोकन हो या निर्देशन, उनके हर काम में परफेक्शन होता था। ये बात और है कि उन्होंने इनमें से किसी भी चीज का औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया था।
वे सरकारी अनुदानों और कारपोरेट कंपनियों के चंदों से चलने वाली शहरी थियेटर संस्कृति की पैदावार नहीं थे जो नाटकों के नाम पर महज उलजलूल प्रयोग करते हैं और जिनके नाटक दर्शकों को झकझोरने के बदले उन्हें छू तक नहीं पाते। वे थियेटर के मजदूर थे जो सर्वहारा की तरह दिखते-रहते हुए पटकथा लेखन से लेकर निर्देशन-अभिनय के औजारों से नाटकों को गढ़ते थे और दर्शकों की चेतना को संवेदनाओं के उसी धरातल पर ले जाने का हुनर रखते थे, जिसकी अपेक्षा ऐसे किसी भी नाटककार को होती है जो अपने सरोकारों के लिये नाटक खेलता है।
शरीफ ताउम्र स्ट्रगल करते रहे। सब्जियां बेची, चाय का ठेला लगाया, लाइब्रेरी में काम किया, बिजली की दुकान में वाइडिंग का काम किया और आखिर में थियेटर के प्रति अपने जुनून के कारण मंच-आलोकन को ही अपने स्थायी व्यवसाय के रूप में चुना। इस काम में थोड़ी बरक्कत होने लगी थी। आर्थिक मोर्चे पर थोड़े निश्चिंत लगने लगे थे। आय के लिये फिल्मों में पटकथा लेखन का काम भी उन्होंने शुरू कर दिया था। उनकी पटकथा पर आधारित फिल्म अभी एक-दो दिनों पहले ही रिलीज हुई है। पर कैसी विडंबना है कि जब थोड़े अच्छे दिनों की शुरूआत हुई ऐन उसी समय एक दर्दनाक हादसे ने उनकी जान ले ली।
शरीफ को पहली बार ‘राई’ नाटक करते हुए देखा था। भिलाई इप्टा के इस नाटक ने पूरे मुल्क में लोकप्रियता का झंडे गाड़ दिये। कोई भी राष्ट्रीय स्तर का नाट्योत्सव ऐसा नहीं था जहां यह नाटक बतौर प्रतियोगिता खेला गया हो और वहां इसे पटकथा के लिये सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार हासिल न हुआ हो। एक तेलुगु कथा पर आधारित इस नाटक की पटकथा शरीफ भाई ने ही लिखी थी और वे इसमें मंजा हुआ अभिनय भी करते थे। पिछली मुलाकात में मैंने उन्हें उनके इस नाटक की रिकार्डिग दिखाई तो कहने लगे कि यह भूमिका अब मैंने बंद कर दी है। कुछ मोटापा-सा आने लगा है तो यह सर्वहारा की भूमिका अब मुझ पर जमती नहीं है।
शरीफ कोई बीसेक साल से भिलाई इप्टा से जुड़े थे। भिलाई के जिस इलाके से वे ताल्लुक रखते थे, ऐसा माना जाता है कि वहां गुंडे, मवाली व निहायत बदमाश किस्म के लोगों की ही पैदावार ज्यादा होती है। कहते हैं कि शरीफ का भी गेटअप शुरूआत में कुछ ऐसा ही था। औपचारिक शिक्षा महज उन्होंने तीसरी क्लास तक हासिल की थी और फिर पढ़ाई-लिखाई को धता बताकर सीधे दुनियादारी की पाठशाला में दाखिल हो गये थे। कथाकार मनोज रूपड़ा से लेकर शरीफ अहमद तक दुर्ग-भिलाई में ऐसे ‘अनपढ़’ लेखकों की भरमार है, जिन्होंने ‘पढ़े-लिखे’, विद्वान लेखकों के कान काट रखे हैं।
शरीफ की नियति में चूंकि नाटककार बनना लिखा हुआ था, इसलिये वे भिलाई के नेहरू कल्चरल हाउस की खिड़की से झांक-झांककर नाटकों की रिहर्सल देखा करते थे। एक बार भिलाई इप्टा के वरिष्ठ साथी राजेश श्रीवास्तव ने उन्हें खिड़की से झांककर नाटक देखते हुए ‘रंगेहाथों’ पकड़ लिया। कहा कि नाटक देखना है तो अंदर आओ। बहुत सकुचाते हुए शरीफ अंदर आये। राजेश भाई ने सवाल दागा, ‘नाटक में काम करोगे?’ शरीफ ने प्रतिप्रश्न किया, ‘ मैं नाटक में काम करने वाला लगता हूँ?’ राजेश भाई ने कहा, ‘तुम हां कर दो, बाकी हम देख लेंगे।’ शरीफ ने हां कर दी और उनके इस ‘हाँ’ ने भिलाई ‘इप्टा’ की कीर्ति में चार चाँद लगा दिये।
अब यह बताना बेमानी है कि ‘समर’, ‘पंचलेट’, ‘फांसी के बाद’, ‘प्लेटफॉर्म’ व ‘राई’ जैसे नाटकों की लोकप्रियता के पीछे शरीफ का कितना बड़ा हाथ था। पटकथा लेखन से लेकर, अभिनय-निर्देशन तक, सभी पहलुओं में उनका दखल हुआ करता था, लेकिन नाम व शोहरत जैसी चीजों से उन्हें दस्तकशी-सी थी। लेखन व निर्देशन में बहुत छोटी-छोटी चीजों का भी बारीक विश्लेषण करते थे।
कुछ दिनों पहले मैं छत्तीसगढ़ के अग्रणी नाटककार प्रेम साइमन की एक किताब पर काम कर रहा था। प्रेम साइमन अपनी पटकथाओं की पांडुलिपि के मामले में लापरवाही की हद तक उदासीन थे। ड्रामा लिखते और उसकी कॉपी ‘नेकी कर दरिया में डाल’ की तर्ज पर नाटक मंडलियों को सौंप देते थे। जब कोई दूसरी नाटक मंडली उनसे स्क्रिप्ट मांगती तो खुद अपना लिखा हुआ ढूंढते फिरते थे। उनका एक बेहद प्रभावशाली ड्रामा है-‘अरण्यगाथा।’ फिलहाल यह नाटक मुद्रित रूप में उपलब्ध नहीं है। ‘इप्टा’ के स्वर्गीय साथी पूरन हार्डी इन नाटक की पटकथा को अपनी हस्तलिपि में कहीं से उतार लाये थे। एक संवाद पर मामला अटक रहा था। अहिल्या से छलात्कार (सौजन्य मन्नू भंडारी) के बाद उसका बूढ़ा बाप दोषी राजपुरुषों के विरूद्ध कुछ भी कहने से इंकार कर देता है। राम को क्रोध आता है, कहते हैं, ‘‘अभागे बूढ़े, अब भी नहीं जागे तो कब जागोगे।’’ पूरन ने ‘अभागे बूढ़े’ की जगह ‘हरामजादे बूढे़’ का इस्तेमाल किया था। मुझे खटका लगा कि भगवान गाली कैसे दे सकते हैं? और देंगे भी तो नीच-नराधम वगैरह कुछ कहेंगे, उर्दू में कैसे गाली देंगे?
शरीफ भाई से बात की। उन्होंने कहा कि ‘‘बतौर लेखक वे भी ‘अभागे बूढ़े’ ही लिखते। लेकिन राम के मन में क्रोध है। अन्याय, दमन व शोषण की हद पार हो जाने पर भी जब सर्वहारा जागता नहीं है तो संगठनकर्ता को गुस्सा आता है और इस गुस्से की अभिव्यक्ति के लिये बतौर निर्देशक ‘हरामजादे बूढ़े’ का उपयोग ज्यादा सटीक लगता है। आगे आपकी मर्जी......’’ यह थी एक ‘‘तीसरी पास’’ लेखक की समझ!
पिछली बार जमशेदपुर के पुस्तक मेले से शरीफ भाई के लिये दो किताबें खरीदकर लाया था, एक मंच-आलोकन पर थी और एक पटकथा लेखन पर। शरीफ भाई इन्हें देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। कहा कि ‘‘ पढ़ने के लिये समय लगेगा।’’ मैनें कहा कि आपके ही लिये ये किताबें लेकर आया हूँ, लौटाने की जरूरत नहीं है। साथ में दिल्ली से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका थी। उत्तर प्रदेश के गांवों पर एक आमुख कथा थी। मुझे लगा कि इस थीम पर एक बढिया नाटक लिखा जा सकता है। शरीफ भाई भी इससे पूरी तरह सहमत हुए। वायदा किया कि पटकथा लेखन का काम जल्दी शुरू कर दूंगा। शायद कर भी दिया था, पर यह पटकथा अधूरी रह गयी। अफसोस इस एक अधूरी पटकथा के लिये नहीं है। दुख उस पूरे जीवन के लिये है जो शरीफ भाई को अभी जीना था। आखिर चालीस बरस की उमर होती ही कितनी है?
-दिनेश चौधरी
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