खुलना एक रंगशाला का
प्रेमचन्द रंगशाला का जनता के लिए खोला जाना
पटने में प्रेमचन्द रंगशाला के जनता के लिए खोले जाने की खबर राष्ट्रीय महत्व की नहीं मालूम पड़ेगी . अगर यह कहा जाए कि इसके फिर से खोले जाने की कहानी का प्रेस की आज़ादी के संघर्ष से गहरा रिश्ता है तो शायद पाठकों को ताज्जुब ही होगा. लेकिन इसके बनने, बन्द होने, सैन्य बल की पनाहगाह में तब्दील होने और सामाजिक स्मृति के तलघर मेँ दीर्घ अंतराल तक पड़े रहने, और फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आकांक्षा की आभा में जनचेतना में इसके उभर उठने और फिर इसे सैन्य बल के कब्जे से मुक्त कर रंगशाला के रूप में वापस बहाल करने की संघर्ष गाथा के अभिप्राय एक प्रदेश मात्र तक सीमित नहीं, उनकी एक सार्वभौमिक व्यापकता है.
पिछली सदी के छठे दशक में प्रेमचन्द रंगशाला के निर्माण को एक नई राष्ट्रीय सांस्कृतिक सांस्थानिक गतिविधि का परिणाम कहा जा सकता है. इसकी परिकल्पना प्रख्यात नाटककार और बिहार सरकार में उच्च पदाधिकारी जगदीश चन्द्र माथुर की बताई जाती है. वह दौर नई सांस्थानिक कल्पना का था. इसलिए आश्चर्य नहीं कि यह रंगशाला बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के ठीक बगल में बनाई गई. परिषद की योजना से भी माथुर साहब का जुड़ाव रहा था. इन दोनों के बीच बिहार ग्रंथ अकादमी दिखलाई पड़ जाती थी. रंगशाला का नाम प्रेमचन्द पर होने का कोई कारण नहीं था, सिवाय इसके कि इसके करीब चौराहे पर प्रेमचंद की एक प्रतिमा लगाई गई और उसके अनावरण के समय, अमृत राय और महादेवी वर्मा की उपस्थिति में ही राजकीय रंगशाला को प्रेमचंद राजकीय रंगशाला घोषित करने का निर्णय लिया गया. लेकिन रंगशाला के बनने के फौरन बाद, यानी 1971-72 में इसके पहले कार्यक्रम में ही किसी अव्यवस्था के चलते भड़क उठे लोगों द्वारा इसमें आग लगा दी गई. कायदे से इसे दुबारा ठीक करके नाट्य-प्रदर्शन के लिए उपलब्ध करने का प्रयास किया जाना चाहिए था. पर ऐसा हुआ नहीं. छठे दशक की समाप्ति को भारतीय नव राष्ट्रीय रोमांटिक दौर की समाप्ति का समय भी कहा जा सकता है. संस्थाओं के स्थापित होने और जनता के साथ उनके रिश्ते बनने के पहले ही उनके प्रति अविश्वास जड़ जमाने लगा था और सामान्य जन का किसी भी राजकीय सांस्थानिक प्रयास के साथ एक प्रकार का उपयोगितावादी और सिनिक, संदेह से भरा संबंध बन गया था. यह बात शिक्षा से लेकर संस्कृति के क्षेत्र तक देखी जा सकती है. छठे दशक में राजकीय संस्था-तंत्र को ही ध्वस्त कर देने के विचार ने युवाओं के बीच बौद्धिक प्रतिष्ठा हासिल कर ली थी. राज्य और राजनीतिक दलों का तंत्र भी जल्दी ही असली राजनीति में व्यस्त होने वाला था . साथ ही नव-निर्माण के लिए जो जीवट चाहिए था उसकी कमी के कारण उस परियोजना से ही उदासीन होता चला जाना उसके लिए स्वाभाविक था. नाटक यों भी समाज के लिए हाशिये की चीज़ है और जब तक किसी राष्ट्रीय हित पूर्त्ति के साधन के रूप में उसकी उपयोगिता स्पष्ट न हो, राज्य के लिए वह महत्वपूर्ण नहीं. प्रेमचन्द रंगशाला के जन्म के साथ ही उसके साथ हुई यह दुर्घटना एक रूपक के तौर पर देखी जा सकती है.
1974 बिहार के छात्र आंदोलन के लिए याद किया जाता है. इसका सामना करने के लिए बिहार सरकार ने जो अर्ध-सैन्य बल (सी. आर. पी.एफ.) मंगाया था , उसे रखने के लिए इस बेकार पड़ी रंगशाला से बेहतर जगह और क्या हो सकती थी! इस पर आपत्ति करने का वह समय भी नहीं था. आपातकाल लगाया गया, उठा भी, चुनाव हुए और इन्दिरा गांधी को जनता ने सत्ता से बेदखल भी कर दिया. जनता पार्टी की जो सरकार सत्ता में आई , उसके लिए भी रंगशाला में सी.आर.पी.एफ. का होना सांस्कृतिक विसंगति न थी. इस तरह एक नई संस्था बनने के तुरत बाद अवचेतन का अंग बन गई. समाज ने उसे फिर आंख उठा कर देखना ज़रूरी नहीं समझा.
मार्क्सवाद की सरल समझ के मुताबिक भौतिक अवस्था से चेतना का स्तर निर्धारित होता है.लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि चेतना या कल्पना नई भौतिक परिस्थिति को जन्म देती है. ऐसा ही कुछ प्रेमचन्द रंगशाला के साथ हुआ. कौन जानता था कि प्रेस की आज़ादी का मसला इस रंगशाला को सामूहिक स्मृति के तलघर से निकाल कर सतह पर ले आएगा. 1982 में बिहार में जगन्नाथ मिश्र के मुख्यमंत्रित्व वाली सरकार ने प्रेसबिल लागू करने की घोषणा की . यह एक विडंबनापूर्ण संयोग था कि प्रेमचन्द के जन्मदिवस , 31 जुलाई , 1982 को बिहार की विधान सभा ने सिर्फ पांच मिनट में एक ऐसा अधिनियम पारित कर दिया जो प्रेस को पूरी तरह से निष्प्रभावी कर दे सकता था. इसके अनुसार “अशोभन और अश्लील तथा ईश-निन्दा करने वाले या ब्लैकमेल के इरादे से” किए गए किसी भी प्रकाशन पर कार्रवाई की जा सकती थी. इसे एक गैर-जमानती अपराध बना दिया गया था और इस पर कार्रवाई करने का अधिकार 'जुडिशियल मैजिस्ट्रेट' की जगह’एक्स्क्युटिव मैजिस्ट्रेट' को ही दे दिया गया था. फौरन ही बिहार और पूरे देश में इसके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुई. ट्रेड-युनियन आन्दोलन , छात्र और युवा संगठन और गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दल इसके विरुद्ध संगठित हो गए और 3 सितम्बर, 1982 को देश व्यापी हड़्ताल सफलतापूर्वक आयोजित की गई.
प्रेस बिल ऊपरी तौर पर प्रेस का मामला था. लेकिन आपातकाल अभी बहुत पीछे नहीं छूटा था और जनता किसी भी तरह अपनी नई हासिल की गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को गंवाने के मूड में न थी. इस लिए पत्रकारों के साथ हर तबका इसके खिलाफ मैदान में कूद पड़ा. ठीक इसी राजनीतिक क्षण में पटना के कुछ तरुण रंगकर्मियों ने यह तय किया कि अगर प्रेमचन्द रंगशाला को व्यापक दिलचस्पी का मुद्दा बनाना है तो इसे अभिव्यक्ति की सिकुड़ती जगह के एक प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत करना होगा. 1982 के अंतिम महीनों में राजके युवा महोत्सव को ऐसे अवसर के रूप में देखा गया जहां इस बात जोरदार ढंग से उठाया जा सकता था. पहली कार्रवाई इस तरह प्रेस बिल के विरोध और प्रेमचन्द रंगशाला से सी.आर.पी.एफ. को हटाने की मांगों को साथ-साथ रख कर की गई. पहली ही बार युवा महोत्सव के पारितोषिक वितरण के बहिष्कार की इस कार्रवाई में तरुणों की गिरफ्तारी हुई और उन्हें रिहा करने के लिए पटना के मुख्य अशोक राजपथ को देर रात तक जाम भी किया गया. आज तीस साल बाद यह सोच कर ज़रा हैरानी होती है कि कैसे कुछ तरुण बिना किसी सैद्धान्तिक और राजनीतिक प्रशिक्षण के एक राजनीतिक रूप से परिपक्व आंदोलनात्मक रणनीति बना पा रहे थे.
प्रेस बिल तो वापस ले लिया गया. इस तरह प्रेमचंद रंगशाला का मुद्दा , जो कलाकारों के आंदोलन में दूसरे नम्बर पर था, पहले नम्बर पर आप-ही आप आ गया. 1982 से यह संघर्ष काफी लम्बा चलने वाला था. शहर में सभा-गृहों का न होना या रंगशाला का बंद रहना क्यों महत्व का मुद्दा होना चाहिए, यह समझाना बड़ा कठिन था. राजनेतिक दलों की इसमें ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी. प्रेस निहायत ही उदासीन था. उस समय बिहार में आर्यावर्त, प्रदीप, सर्च्लाइट और इंडियन नेशन का राज था, आंदोलनकारी खबर लिए डोलते रहते थे और कृपापूर्वक भीतर के पृष्ठों पर कभी तीन तो कभी चार पंक्तियों की ज़रा सी जगह दे दी जाती थी. यह तो हिन्दुस्तान टाइम्स था जिसने पहली बार इसे पहले पन्ने पर प्रकाशित किया.
1982 से प्रेमचन्द रंगशाला को सी.आर.पी.एफ. के कब्जे से मुक्त कराने का यह कलाकारों का आंदोलन कई मायनों में दिलचस्प था. एक तो इसी कारण कि इसके नेतृत्व की औसत उम्र कोई बीस –इक्कीस साल की थी.दूसरे कि अलग- अलग काम करने वाले रंग-समूहों का किसी एक मसले पर भी साथ काम करना इतना आसान न था. इसके नेतृत्व में इप्टा के लोग थे , लेकिन उनमें इतनी समझदारी थी कि वे खुद को ही आगे न रखें. उस समय पटना में सक्रिय संस्थाओं में सर्जना, नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, जनवादी कला-विचार मंच आदि ने इस आंदोलन की शुरुआत की और जल्दी ही पैतीस से ऊपर रंगकर्मियों और लेखकों-कलाकारॉं की संस्थाऎँ इस मंच पर इकट्ठा हो गईं. इसके साथ छात्र संगठन भी शरीक हो गए.
आंदोलन ने कई उतार-चढाव देखे. ऐसा लगा कि इसका चलना ही मुश्किल है क्योंकि कोई अंत नज़र नहीं आता था. 1985 में राज्य द्वारा आयोजित युवा-महोत्सव के बहिष्कार और उसके समानांतर प्रेमचन्द युवा महोत्सव का आयोजन का आह्वान भी अनेक लोगों को दुस्साहस लगा . लेकिन इसे अभूतपूर्व सफलता मिली. इसके बावजूद प्रेमचंद रंगशाला एक प्रादेशिक और क्षेत्रीय मुद्दा ही था.आंदोलनकारी भी पहले से अधिक वयस्क हो गए थे. उससे भी ज़्यादा बड़ी बात यह थी कि उनमें से कुछ राष्ट्रीय स्तर पर आदर के साथ देखे जाने लगे थे, अपनी रंग-प्रतिभा के कारण. इसने इस बिहार तक सीमित मसले को राष्त्रीय फलक प्रदान करने में मदद की. 1985 में गुवाहाटी के संगीत नाटक अकादेमी के नाट्य-उत्सव के मंच पर इसे उठाया गया और ब. व कारंथ ने खुल कर इस कब्जे की भर्त्सना की.शहर में दुकानदारों से लेकर साधारण जनता के हर तबके तक यह मुद्दा पहुँच गया था और इसके लिए चन्दा मिलना कभी कठिन नहीं हुआ.
1987 में संगीत नाटक अकादेमी ने पटने में पूर्व-क्षेत्रीय नाट्योत्सव आयोजित किया. इसमें नेमिचन्द्र जैन, ब व कारंथ, रतन थियम, कुमार राय , देवाशीष मजुमदार, शमीक बंद्योपाध्याय जैसी शख्सियतें एकत्र हुईं. आंदोलनकारियों ने उद्घाटन के मच पर कब्जा करके सम्पूर्ण भारतीय रंग-संसार से प्रेमचन्द रंगशाला के उद्धार में हाथ बढ़ाने की अपील की. अगले दिन नेमिजी, कारंथ, कुमार राय, देवाशीष मजुमदार के नेतृत्व में बड़ा प्रदर्शन हुआ और फिर ये सब तत्कालीन मुख्यमंत्री बिन्देश्वरी दुबे से मिलने गए. महोत्सव के खत्म होने के दिन ही मुख्यमंत्री ने रंगशाला से सी.आर. पी.एफ. को हटा लेने की घोषणा कर दी.
इस घोषणा के कोई चौथाई सदी गुजर जाने के बाद अब जाकर इस रंगशाला को फिर से इस लायक बनाया जा सका है कि इसमें नाटक हो सकें. इस मौके पर बिहार सरकार की विज्ञप्ति ने कलाकारों के संघर्ष को याद किया है.लेकिन रंगकर्मियों की आशंका कुछ और है. अभी पटने में कोई भी ऐसा प्रेक्षागृह नहीं जहां शौकिया रंग-समूह अपने सीमित साधनों में नाटक कर सकें. पचीस हजार से पचास हजार रुपए किराए पर हाल लेकर नाटक करने क्षमता किसी में नहीं. फिर बड़े भव्य ढंग से तैयार किए गए इस प्रेक्षागृह 'प्रेमचन्द रंगशाला' को भी क्या इसी तरह रंग-कर्म के लिए इतना महंगा कर दिया जाएगा कि उसमें नाटक हो ही न सकें ? या जो सलूक इस सरकार ने हिन्दी भवन के साथ किया , वही इसके साथ होगा ? एक सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विकसित किए गए हिन्दी भवन को प्रबन्धन संस्थान के हवाले कर देने में सरकार को संकोच नहीं हुआ. लेखको की गुहार को उसने बिलकुल अनसुना कर दिया. क्या यह रंगशाला भी उसी राह जाएगी? फिर अभिव्यक्ति की जिस जगह के सिकुड़ने के खिलाफ यह रंगशाला एक प्रतीक बन गई थी , वह क्या दूसरे तरीके से उतनी ही संकुचित रह जाएगी?
संजय सिन्हा
यह क्या संजय भाई? इतनी गंभीर सामग्री इतनी लापरवाही के साथ फेसबुक में डालकर निकल लिये? कम से कम लिंक तो भेजा होता! अच्छा हुआ की अपनी नजर पड़ गयी।
ReplyDeleteदीनेश जी धन्यवाद. दरअसल यह आलेख अपूरावानंद जी का है. वे लम्बे समय से इप्टा से जुड़े रहे थे और सम्प्रति दिल्ली में अध्यापन का कार्य कर रहे हैं.
ReplyDelete