नव-औपनिवेशिक अतिक्रमण का प्रोजेक्ट
-जयप्रकाश
जयपुर साहित्य-उत्सव संपन्न हुआ.पांच दिन जयपुर में सैकड़ों लेखकों और बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में हजारों साहित्यप्रेमियों ने सौ से अधिक गोष्ठियों में शिरकत की.इसे दुनिया का सबसे बड़ा साहित्य-समारोह बताया जा रहा है,जो कि संभवतः यह है भी -- आयोजन की भव्यता और व्यापक मीडिया-समर्थन की नज़र से तो निश्चय ही यह अभूतपूर्व घटना थी.ऐसा अंतर-राष्ट्रीय आयोजन अपने देश में होना उत्साह और गौरव की बात होनी चाहिए.इतने विराट आयोजन का विवादस्पद हो उठना भी अस्वाभाविक नहीं है.महत्वपूर्ण यह है कि इसे लेकर बौद्धिक जगत में उत्सुकता,गहमागहमी और अपूर्व उत्तेजना रही. मीडिया ने हमेशा की तरह उत्तेजना का कारोबार किया. इस बहाने अक्सर हाशिये पर रहने वाली साहित्य की दुनिया चर्चा के केंद्र में आ गयी -- चर्चा भले ही साहित्य की बजाए रूश्दी की शिरक़त-जैसे साहित्येतर और राजनीतिकीकृत मुद्दे को लेकर हलके किस्म के मीडिया-हाईप के रूप में हुई हो. खुद महोत्सव के आयोजक यही चाहते थे,इसलिए उन्होंने सितारों की चमक का सुनियोजित तरीके से इस्तेमाल भी किया--चाहे उनमें ओपरा विनफ्रे-सरीखी सात समुन्दर पार से लाई गयी परदेसी तारिकाएँ हों,अथवा अशोक चक्रधर-जैसे देसी चमक वाले सितारे हों. भारत में होने वाले साहित्य-समारोहों के साथ मुश्किल यह है कि वे ज़्यादातर गंभीर बुद्धिजीवियों की आत्म-सीमित बुद्धिचर्या या जन-प्रतिबद्धता का गुरुतर भार अपने कंधे पर थामे लेखकों के सामाजिक दायित्व-बोध तले दब कर अपने प्रभाव और पहुँच में स्वतः सिकुड़ जाते हैं.यह साहित्य का अपना लोकतंत्र है,जिसकी नागरिकता स्वयं साहित्यकारों को प्राप्त है. शायद इस स्थिति को समझकर ही जयपुर साहित्य-उत्सव के आयोजकों ने इस लोकतंत्र का विस्तार किया और इसके लिए अपनी जनता चुनने का जतन किया.मीडिया ने जतन से चुनी हुई इस जनता को साहित्य का असली भाग्य-नियंता बताया.इस तरह जयपुर साहित्य-उत्सव वामपंथियों की खास काट की जनता का आयोजन नहीं,संचार-क्रांति के युग का प्रातिनिधिक 'इवेंट' बना.ऐसे इवेंट में जनता अपने संघर्ष, जिजीविषा और आकांक्षाओं के संवेदनात्मक साक्षात्कार के लिए नहीं जाती.वह सितारों की चमक देखने के लिए,या फिर हंसगुल्ले खाने के लिए जाती है.अकारण नहीं है कि 'भारतीय दर्शन के अवगाहन में अंग्रेज़ी भाषा के अवरोध और इस सन्दर्भ में प्रो.दयाकृष्ण का चिंतन' विषयक गोष्ठी में गिने-चुने श्रोता थे,जबकि ओपरा विनफ्रे के शो में दर्शकों को सम्हालना मुश्किल हो रहा था.
ज़ाहिर है,यह साहित्य के आयोजन से ज्यादा ' मीडिया का साहित्य-आयोजन ' था,जिसमें साहित्य को मास-कल्चर के दायरे में लाने की कोशिश की गयी,जहाँ साहित्य मानवीय संवेदना की लीला-भूमि नहीं,सामूहिक उपभोग का साधन-भर रह जाता है. कहने की ज़रुरत नहीं कि यह कोशिश खूब सफल रही.अभी भारत के साहित्य-जगत में फिल्म या क्रिकेट की तरह के सितारे नहीं हुए हैं.इसलिए शो-बिज़ से उधार के सितारे लाए गए.योजना भारतीय अंग्रेज़ी-लेखकों को सितारों की हैसियत दिलाने की है.हिंदी-सहित अन्य भारतीय भाषाओँ के कुछ लेखक उन्हें अपनी टिमटिमाती-सी रोशनी अर्पित करने को तैयार भी हैं.उन्हें उस आभामंडल में आकर स्वयं कुछ ज्यादा चमक पा लेने का आश्वासन होगा.वरना यह जानते हुए भी कि करोड़ों के बजट वाले इस आयोजन के प्रायोजकों में रियो टिंटो और डीएससी लिमिटेड-जैसी बदनाम कम्पनियाँ हैं,वे क्योंकर उसमें शामिल हुए होंगे? सच कहा जाए तो जयपुर साहित्य-उत्सव बड़ी पूंजी और मास-मीडिया का संयुक्त उपक्रम है.अंग्रेज़ी को भारतीय भाषा के रूप में,और उसके साहित्यकारों को भारत के आधिकारिक साहित्यकारों के तौर पर मान्यता दिलाने की अंदरूनी मंशा के साथ यह अभियान छेड़ा गया है.अन्यथा साहित्य के आयोजन को बड़ी कम्पनियाँ इतनी अहमियत भला क्यों देने लगीं. साफ तौर पर यह वैश्वीकरण का सांस्कृतिक हस्तक्षेप है.भारतीय भाषाओँ के साहित्य को दरकिनार करने के पीछे एक सुनियोजित कुचक्र का अनुमान सहज ही किया जा सकता है.समारोह के विचार-सत्रों की रपटों और विभिन्न गोष्ठियों के विडियो देख कर जान सकना कठिन नहीं है कि कुल मिला कर समारोह का एजेंडा और मकसद क्या है. मसलन, एक गोष्ठी में साहित्य में प्रतिरोध की बात तो की गयी, मगर जनता की जिजीविषा और संघर्ष की बजाए शासक-समूह के सत्ता-संघर्ष को प्रतिरोध के रूप में प्रस्तुत किया गया.यहाँ फातिमा भुट्टो का संघर्ष-आख्यान तो प्रतिरोध है,लेकिन समाज की तलछट पर हो रहे जन-संघर्षों को तमाम भारतीय भाषाओँ में चित्रित करने वाले अनगिन रचनाकारों में से किसी एक का भी कोई ज़िक्र तक नहीं..
कहने की ज़रुरत नहीं कि जयपुर साहित्य-उत्सव को, भारतीय साहित्य की सुदीर्घ परंपरा को खारिज कर उसके विराट स्पेस को अधिग्रहित करने के नव-औपनिवेशिक अभियान के रूप में देखा जाना चाहिए .नहीं भूलना चाहिए कि नव-उपनिवेशवाद जिस तरह देश के जंगलों-पहाड़ों-खदानों पर कब्ज़ा करने को तुला हुआ है,ठीक उसी तरह भाषा-साहित्य और संस्कृति को भी बलात अधिग्रहित कर उसकी जगह अपनी आधिकारिक संस्कृति को स्थापित कर रहा है. वह समूचे सांस्कृतिक स्पेस को अपने लिए आरक्षित करने जा रहा है. जयपुर साहित्य-उत्सव में अंग्रेज़ी के लिए कितनी जगह स्वतः आरक्षित है? बेशक अभी यहाँ कुछ प्रतिशत आरक्षण भारतीय भाषाओँ के लिए भी --ज़ाहिर है,कुछ टुकड़े फेंक देने के अंदाज़ में -- है. हिंदी के हिस्से भी एक टुकड़ा रखा गया था..हमारे एक शीर्षस्थानीय आलोचक ने समारोह आरभ होने के पूर्व, यूँ ही नहीं कह दिया कि ' ये आयोजन साहित्य से सृजनशील लोगों को जोड़ने और जनता के जीवन को रेखांकित करने का काम करते है.' नव-साम्राज्यवाद की चाकरी बजाने के लिए सबसे पहले उसके आभा-वृत्त में दाखिल होना ज़रूरी है. वहां जाकर कौन यह सवाल पूछने का साहस कर सकेगा,जैसा कि उदयन वाजपेयी के मुताबिक फ़्रांस के लोगों ने प्रवास के दौरान उनसे पूछा था,कि भारतीय अंग्रेज़ी-लेखक अपनी मातृभाषा में क्यों नहीं लिखते? यह तकलीफदेह सवाल है,मगर इसे सिर्फ भारतीय अंग्रेज़ी-लेखकों से नहीं,अंग्रेज़ी के प्रभाव-वृत्त में जी रहे हर हिन्दुस्तानी से पूछा जा सकता है कि वे मालिकों की भाषा में गुलामी कैसे कर लेते हैं?
और कुछ नहीं तो यह सवाल पूछा ही जा सकता है कि भारत के इस वृहत साहित्य-समारोह से भारतीय साहित्य की कैसी छवि प्रकट हुई है? इस छवि में कहाँ और कितना भारत है? अगर भारत है,तो उसका स्वर्ग है, या नरक? क्या उपभोक्ता मध्यवर्ग ही भारत है? यह समझना कठिन कहाँ है कि जयपुर साहित्य-उत्सव किसे संबोधित है.
मीडिया, सनसनी,ग्लैमर,विवाद और कैमरा-अपेक्षी भीड़ -- एक सफल आयोजन के लिए और क्या चाहिए? भारत के देशज बुद्धिजीवी खीझते रहें,और आयोजन की सार्थकता की मांग करते रहें.आयोजकों को इससे सरोकार नहीं.उन्हें आयोजन की सार्थकता की दरकार कतई नहीं थी. सिर्फ सफलता चाहिए थी,जो उन्हें मिल चुकी है.
हिंदी तो है दाइयों- नौकरों की भाषा!
ReplyDeleteअच्छा लेख। ऐसे लेख आते रहेंगे तो इप्टानामा निश्चित ही देश के संस्कृति फलक पर विचार और विचारोत्तेजना का मंच बन कर उभरेगा।
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