Tuesday, January 10, 2012

इप्टा : आज के सरोकार




इप्टा एक संगठन - भर नहीं है,बल्कि एक सांस्कृतिक आंदोलन भी है. रंगकर्म को कलात्मक अभिव्यक्ति के सचेत माध्यम के रूप में विकसित करने तथा जन-विवेक को जाग्रत करने में उसकी ऐतिहासिक भूमिका रही है. अपने जन्म से लेकर आज तक,निरंतर बदलते हुए समाज को समझने और परिवर्तनकारी ऐतिहासिक शक्तियों की सामाजिक भूमिका को रेखांकित करने के प्रयत्न में एक जन-संगठन के रूप में इप्टा ने निरंतर संघर्ष किया है और समाज में कला के सर्जनात्मक योगदान के लिए स्थान आयत्त किया है. 

ज़ाहिर है, कला की प्रारंभिक भूमिका इतिहास की प्रेरक शक्तियों को समझने और उनके द्वारा पैदा की गयी सामाजिक विडम्बनाओं के उद्घाटन की है. खास तौर से आज के दौर में, जब न सिर्फ परिवर्त्तन की गति अकल्पनीय रूप से तीव्र हो उठी है, बल्कि उसका स्वरूप अस्थिर, चंचल,और प्रायः मायावी जान पड़ता है, कला की चुनौतियाँ भी बढ़ गयी हैं  पिछले समय का साम्राज्यवाद आज अपने नव-औपनिवेशिक ताने-बाने में हमारे समय के यथार्थ को मनमाने ढंग से गढ़ रहा है. इसके लिए उसने अपना पुराना चोला उतार कर नयी रूप-सज्जा धारण कर ली है .
  
नया साम्राज्यवाद वैश्विक पूँजी और उन्नत तकनीक के सहारे सभ्यता के समूचे अंतरगठन को बदल कर मनुष्य के भीतरी संसार को धीरे-धीरे अपना उपनिवेश बनाने पर तुला हुआ है. वह जीवित-जाग्रत-विवेकशील मनुष्य को उपभोक्ता-पशु में तब्दील कर रहा है. आज हर चीज़ पण्य है,यहाँ तक कि स्वयं मनुष्य भी. सर्जनात्मक कलाओं को भी पण्य वस्तु में अपघटित किया जा रहा है, यद्यपि कलाएं अपने स्वभाव से ही इस तरह के वस्तुकरण का प्रतिवाद करती हैं और निपट वस्तु बन जाने से हठपूर्वक इंकार करती हैं. वे हर तरह से मनुष्य के मन को छूने की, उसे बदलने की, कोशिश करती हैं . मनुष्यता के क्षरण को रोकने की संभावना आज भी कलाओं के भीतर अवस्थित है.
                       
कलाओं का आत्मसंघर्ष इस क्षरण को रोकने के साथ-साथ अपने को बचाए रखने के प्रयत्न में चरितार्थ होता है . कला का सामना पूंजी और तकनीक द्वारा रची गयी माया से है,जिसे वह विखंडित करती है.हमारे समय का यह लाक्षणिक गुण है कि मनुष्य क्रमशः तकनीक पर निर्भर होता जा रहा है . लेकिन कला का कौशल यही है की वह तकनीक को भी संघर्ष के औजार के रूप में स्वायत्त कर ले. यह एक बड़ी चुनौती है .लेकिन इस चुनौती का सामना करने के लिए वह अपनी सर्जनात्मक भूमिका को बदल कर प्रचारात्मक रूप धारण करने के लिए भी तैयार है. स्वयं इप्टा ने रंगकर्म को आंदोलनात्मक कला (एजिट प्रॉप) के तौर पर विकसित करने का प्रयत्न किया है. वह सोद्देश्य रंग-आन्दोलन की पक्षधर रही है.
                                                  
हमारे देश में नव-औपनिवेशिक हस्तक्षेप इधर उत्कट और सांघातिक रूप में हो रहा है.राजनीतिक सत्ता अब अर्थसत्ता की चाकरी बजा रही है. पूँजी की हिंस्र महत्वाकांक्षाएं भीषण रूप से जाग उठी हैं. वह प्रत्यक्ष दमन का सहारा ले रही है.जन-आंदोलनों को निर्ममतापूर्वक कुचला जा रहा है. देश के प्राकृतिक संसाधनों को बहुराष्ट्रीय दैत्यों के हवाले किया जा रहा है . शासन अब लोक-कल्याण की भावना से संचालित सामाजिक दायित्व नहीं रह गया है, वह प्रबंधन की तकनीक-मात्र है. उसका ध्येय वैश्विक पूंजी की स्वीकार्यता के मार्ग को सुगम बनाना और उसके द्वारा की जा रही लूट को सामाजिक अनिवार्यता सिद्ध करना रह गया है. जन-आकांक्षाएं और उन्हें व्यक्त करने वाली प्रतिवादी शक्तियां उसे शत्रु जान पड़ती हैं.लोकतंत्र खिलवाड़ की चीज़ बन गयी है चुनाव अब प्रदर्शन-मात्र रह गए हैं,और लगता है, सरकारें अब अपने पसंद की जनता चुनने पर उतारू हो जाएँगी--अगर उनका पूरा बस चले तो. लोकतंत्र और खुद जनता का ऐसा अवमूल्यन पहले कभी नहीं हुआ.
                                                        
ऐसी स्थिति में जनता के शक्ति-जागरण का दायित्व जन-संगठनों और कला-कर्म के संगठित अभियानों के ऊपर अपने-आप आ जाता है.खास तौर से ऐसी स्थिति में जब प्रतिरोध के स्पेस को हड़पने के लिए वैश्विक पूंजी ने स्वयंसेवी संगठनो को आगे खड़ा कर दिया है,उनके छद्दम को अनावृत करना भी एक चुनौती बन चुकी है. कोई भी जन-संगठन जनता का राजनीतिक  शिक्षण किए बगैर इस प्रकार की चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता. राजनीतिक शिक्षण, सांस्कृतिक उन्नयन और कलात्मक बोध के विकास को सर्वोपरि कार्यभार मान कर सोद्देश्य संस्कृति-कर्म का एक मॉडल इप्टा ने विकसित किया है .
                                                            
तेरहवें राष्ट्रीय सम्मेलन के अवसर पर आज यह सवाल दरपेश है कि बड़ी पूंजी, वैश्विक बाज़ार और उन्नत प्रौद्योगिकी के संयुक्त उद्यम से निर्मित समाज के भीतर जनता की सांस्कृतिक आकांक्षाओं की पूर्ति और उसके सकारात्मक रूपांतरण के प्रयत्न में एक जन-संगठन के रूप में इप्टा किस तरह से अपनी भूमिका का निर्वाह कर प् रही है, अथवा समाज में संवेदनशीलता और मानवीयता के लिए जगह बनाने की खातिर वह किस प्रकार राष्ट्र-जीवन के संघर्ष से अपने को जोड़ पा रही है.यही आज इप्टा की सबसे अहम् चुनौती है.अगर कला की सचेत और सोद्देश्य सामजिक भूमिका को लेकर इप्टा प्रतिबद्ध है ,तो कहना होगा कि एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में उसकी चुनौती वैश्विक पूँजी और जन-संचार-माध्यमों द्वारा निर्मित अपसंस्कृति से लड़ने की है.अपने गौरवशाली अतीत और वर्तमान की संघर्ष-चेतना के साथ आज इप्टा समय का सामना कर रही है और जनता की संस्कृति की रचना के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध है.इसके पीछे गहरा विश्वास है कि भविष्य अंततः जनता का है.                    

-जयप्रकाश            

2 comments:

  1. वर्तमान परिवेश और स्थितियों पर टिप्पणी के अलावा रंगकर्म की चुनौतियों का बढ़िया चित्रण किया है जयप्रकाश ने ।

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