मशालें लेकर चलना, जब तलक ये रात बाकी है
इप्टा एक अनवरत सांस्कृतिक यात्रा का पर्याय बन चुकी है। इप्टा की इस प्रदीर्घ यात्रा के सभी यात्री, संगठन के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन सभी के बलबूते पर इप्टा का अड़सठ वर्षों का आंदोलन न केवल ज़िंदा है, वरन् अपनी सांस्कृतिक विरासत की जड़ों से जीवन-रस लेकर नई प्रतिभाओं के नए सचेतन प्रयोगों को भी आत्मसात करता रहा है। इस यात्रा में एक ओर नए-नए साथी जुड़ते जा रहे हैं, तो दूसरी ओर अनेक पुराने साथी अपनी अंतिम साँसों तक हमें प्रेरणा देते हुए बिदा भी लेते रहे हैं। हमारे लिए यह एक तकलीफदेह बात है कि बारहवें राष्ट्रीय सम्मेलन तक हमारे संरक्षक मंडल में सम्मिलित वरिष्ठतम साथी विष्णु प्रभाकर, गोविंद विद्यार्थी, हबीब तनवीर, श्रीमती विंध्यवासिनी देवी, सुब्रत बनर्जी, तेरसिंह ‘चन्न’, मिकिल्नेनी राधाकष्ष्णन मूर्ति एवं नारायण सुर्वे छह बरसों में एक-एक कर हमसे जुदा होते गए हैं। आज हम अपने इन वरिष्ठ साथियों के व्यक्तित्व और कृतित्व को अपनी स्मृति में ताज़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।
श्री विष्णु प्रभाकर (1912-2009) हिंदी के प्रसिद्ध लेखक थे। आपने अनेक कहानियाँ, उपन्यास, नाटक एवं यात्रा-संस्मरण लिखे। आपके लेखन में देशभक्ति, राष्ट्रीयता के साथ साथ सामाजिक उत्थान के लिए प्रेरणा भी होती थी। मैट्रिक तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद आपने शासकीय सेवा में छोटे पद पर नौकरी करते हुए अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाया और प्रभाकर, हिंदी भूषण एवं अंग्रेज़ी में बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। 1931 में आपकी पहली कहानी ‘मिलाप’ और 1939 में पहला नाटक ‘हत्या के बाद’ प्रकाशित हुआ। इसके साथ ही आप हिसार में एक नाट्य दल के साथ जुड़े। आज़ादी मिलने के बाद आपको आकाशवाणी में नाट्य निर्देशक के पद पर नौकरी का अवसर मिला। सन् 2005 में राष्ट्रपति भवन में आपके साथ किये गये दुर्व्यवहार के कारण आपने अपनी सम्मानजनक उपाधि ‘पùभूषण’ लौटा दी थी। आपके प्रसिद्ध नाटक हैं - डॉक्टर, युगे युगे क्रांति, बंदिनी आदि। ‘प्रकाश और परछाई’, ‘इन्सान’, ‘क्या वह दोषी था’ आदि उनके प्रकाशित एकांकी संग्रह हैं। सन् 1957-58 में दिल्ली में हुए इप्टा के आठवें राष्ट्रीय सम्मेलन की आयोजन समिति के आप कोषाध्यक्ष थे। लम्बे समय तक दिल्ली इप्टा के अध्यक्ष भी रहे।
श्री गोविंद विद्यार्थी (1912-29 अगस्त 2006) का नाम टी.के. गोविंदन था। वे बचपन से ही स्वतंत्रता संग्राम से प्रभावित रहे। वे कन्नड़ होने के बावजूद हिंदी प्रचार सभा के अंतर्गत हिंदी का अध्ययन करते थे तथा गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादन में प्रकाशित होने वाली प्रसिद्ध पत्रिका ‘ज्वाला’ पढ़ा करते थे। गणेश शंकर विद्यार्थी की मृत्यु ब्रिटिशों द्वारा किये गये लाठी चार्ज में हुई, उस समय टी.के. गोविंदन ने उस महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए ‘विद्यार्थी’ उपनाम ग्रहण किया और वे गोविंद विद्यार्थी कहलाने लगे। पहले गोविंद विद्यार्थी का रूझान आध्यात्मिकता की ओर था तथा वे रामकृष्ण मठ से जुड़कर संन्यासी बनना चाहते थे। वाराणसी में रहते हुए जब उनके गुरु भाई ने उनसे कहा कि काशी विश्वनाथ मंदिर को मुस्लिम कब्जे से मुक्त करना उनका कर्तव्य है, तब उन्हें लगा कि उनकी आध्यात्मिकता और इस व्यवहार में अंतर्विरोध है। वे आश्रम से बाहर निकले और यहीं से उनकी राजनीतिक यात्रा आरम्भ हुई। कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में काम शुरु करते हुए वे कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने। ब्रिटिशों द्वारा पार्टी को प्रतिबंधित करने के बाद वे अपने भूमिगत काल में कई स्थानों पर गये। अपने मुम्बई प्रवास के दौरान वे प्रगतिशील लेखकों, खासकर कॉम. सज्जाद ज़हीर और कैफी आज़मी के निकट सम्पर्क में आए। यह वह समय था, जब भारत में साम्राज्यवाद के विरोध के लिए कलाकार एकजुट हो रहे थे। इप्टा की स्थापना में गोविंद विद्यार्थी का सक्रिय सहभाग रहा। सन् 1980 में सेवानिवृत्ति के उपरांत इप्टा के पुनरउभार के बाद वे फिर सक्रिय हो गए। अन्य गतिविधियों के तौर पर वे - ‘पीपल्स वॉर’ तथा ‘पीपल्स एज’ के प्रकाशन में सहयोगी रहे। साथ ही पार्टी में कॉम. पी.सी.जोशी के व्यक्तिगत सहायक के रूप में निरंतर काम करते रहे। स्वतंत्रता के बाद गोविंद विद्यार्थी ने संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली में सेवा प्रदान की। इस दौरान उन्होंने सुदूर आदिवासी क्षेत्रों की विलुप्त हो रही कलात्मक विधाओं को छायाचित्रों, ध्वनि-अंकनों एवं फिल्मांकन द्वारा संरक्षित किया। बाद में वे जवाहरलाल नेहरू मणिपुर डांस एकेडमी, इम्फाल एवं कत्थक कला केन्द्र दिल्ली के निदेशक भी रहे। 29 अगस्त 2006 को उन्होंने अंतिम साँस ली। इप्टा के राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्गठन (1985) में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। सन् 1986 में हैदराबाद में हुए नवें सम्मेलन में वह राष्ट्रीय समिति के महासचिव बने और 1990 तक इस पद पर रहे। विद्यार्थी जी के साक्षात्कार का अभिलेखन दिल्ली के त्रिमूर्ति संग्रहालय में उपलब्ध है।
हबीब तनवीर (1923-2009) हिंदी-उर्दू नाटकों के लोकप्रिय नाटककार, शायर, अभिनेता और रंग निर्देशक थे। आपके नाटक ‘आगरा बाज़ार’ और ‘चरनदास चोर’ को भारतीय रंगमंच का मील का पत्थर माना जाता है। इसके अलावा उन्हें सबसे ज़्यादा शोहरत मिली सन् 1959 में छत्तीसगढ़ी लोक कलाकारों के साथ ‘नया थियेटर’ स्थापित करने से। उन्होंने नाचा शैली को अपनाते हुए एक बिलकुल नई रंगभाषा गढ़ी। शिशिर भादुड़ी, उत्पल दत्त औेर पृथ्वीराज कपूर के बाद वे अपनी पीढ़ी के अंतिम अभिनेता-प्रबंधक थे, जो बहुत लम्बे-चौड़े नाट्य दल को लेकर काम करते थे। ‘चरनदास चोर’ में 72 कलाकार थे, उसी तरह ‘आगरा बाज़ार’ में 52 कलाकार। सन् 1945 में मुम्बई आने पर हबीब तनवीर ऑल इंडिया रेडियो में प्रोड्यूसर के पद पर कार्य करने लगे, साथ ही हिंदी और उर्दू फिल्मों के लिए गीत लिखने लगे। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने के साथ वे इप्टा का भी अभिन्न हिस्सा बन गये। जब इप्टा के अधिकांश सदस्यों को ब्रिटिश हुकूमत का विरोध करने के कारण जेल जाना पड़ा, उस समय उन्होंने इप्टा को संगठित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। ‘नया थियेटर’ का संचालन करते हुए सन् 1969 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी सम्मान, 1983 में पद्मश्री, 1990 में कालिदास सम्मान, 2002 में पद्मभूषण सम्मान प्राप्त हुए।
डॉ. मिकिल्नेनी राधाकष्ष्ण मूर्ति (1918-2011) प्रसिद्ध तेलुगु फिल्म अभिनेता एवं प्रजा नाट्य मंडली (इप्टा से सम्बद्ध आंध्र प्रदेश का नाट्य संगठन) से जुड़े हुए थे। ब्रिटिश शासन के दौरान ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ एवं ‘तेलंगाना आंदोलन’ जैसे आंदोलनों में भाग लेने के कारण उन्हें पाँच बार जेल जाना पड़ा था। फिल्मी दुनिया से सम्बद्धता से पहले वे एक नाट्य कलाकार थे। उनकी पत्नी भी नाट्य कलाकार थीं। उनकी साहित्यिक रचना ‘नट रत्नालु’ साप्ताहिक ‘आंध्र प्रभा’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुई, तत्पश्चात पुस्तकाकार छपी। श्री मूर्ति अनेक सांस्कृतिक संस्थानों में, आंध्र नाटक कला परिषद, संगीत नाटक अकादमी, प्रजा नाट्य मंडली में विभिन्न पदों पर आसीन रहे। आपको आंध्र विश्वविद्यालय ने ‘‘कला प्रपूर्ण सम्मान’ से सम्मानित किया था। आपकी लगभग 40 फिल्मों में से प्रसिद्ध फिल्में हैं - राम रॉबर्ट रहीम, दानवीर शूर कर्ण, देवकन्या, सी.आई.डी., माया बाजार, परिवर्तन आदि।
नारायण सुर्वे (1927-16 अगस्त 2010) प्रगतिशील लेखक संघ एवं इप्टा के शुरुआती दौर से ही जुड़े हुए थे। आपने ए.के.हंगल, अमर शेख, अण्णा भाऊ साठे, अमृतलाल नागर, दीना पाठक, सलिल चौधरी, भूपेन हजारिका, रवि शंकर आदि महान विभूतियों के साथ मिलकर प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की नींव डाली। लालबाग-परेल के कपड़ा मज़दूरों की व्यथाओं के बीच ही जन्म लेने वाले नारायण सुर्वे ने गिरणगाँव के वामपंथी आंदोलन में सामाजिक प्रतिबद्धता का पाठ पढ़ा। कविताएँ लिखते हुए मज़दूर जीवन से निकट संबंध रखने वाले नारायण सुर्वे 1970 के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ और पूर्वी देशों में सक्रिय मज़दूर नेता के रूप में प्रसिद्ध थे। अपनी कविताओं के माध्यम से जीवन के भीषण यथार्थ को वाणी देने वाले सुर्वेजी को सन् 1998 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उन्हें स्वर्ण कमल और कबीर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। साहित्य अकादमी में मराठी साहित्य की सलाहकार समिति के वे समन्वयक भी रहे। उनकी रचनाएँ हैं - ऐसा गा मी ब्रह्म, माझे विद्यापीठ, सनद, जाहीरनामा, मानुष कलावंत, आणि समाज आदि।
तेर सिंह चन्न (6 जनवरी 1921-9 जुलाई 2009) पंजाबी साहित्य, रंगमंच एवं कम्युनिस्ट पत्रकारिता के सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं। आप इप्टा के संस्थापक सदस्यों में एक हैं, 1950 के आसपास पूर्वी पंजाब में विश्व शांति आंदोलन में अभिनेता बलराज साहनी और गायिका सुरेन्दर कौर के साथ भी सम्बद्ध रहे। आप केन्द्रीय पंजाबी लेखक सभा की 1956 में स्थापना से लेकर 15 वर्षों तक इसके अध्यक्ष रहे। इसीतरह 1983 तक कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक पक्ष के प्रभारी रहे। विभाजन के बाद आप दो पंजाबी प्रकाशनों - प्रीत लारी और नवां जमाना से जुड़े रहे। आपने इसके बाद सोवियत दूतावास के प्रकाशन विभाग में भी काम किया तथा प्लेखानोव, लेनिन और अन्य सोवियत साहित्य का पंजाबी में अनुवाद किया। 1940 में आपके दो कविता संग्रह एवं चार गीतिनाट्यों के संग्रह प्रकाशित हुए। पंजाबी में गीतिनाट्य लिखने वाले वे एकमात्र लेखक थे। उनका ‘प्यारी भारत माता’ शीर्षक का गीत पूर्वी पंजाब के विद्यालयों की पाठ्य पुस्तक में सम्मिलित है, जिसे राष्ट्रगीत का दर्ज़ा हासिल है। सन् 1986 में इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित हुए और लगातार नए दौर की गतिविधियों से भी जुड़े रहे।
विंध्यवासिनी देवी (5 मार्च 1920-18 अप्रेल 2006) बिहार के भोजपुर क्षेत्र की प्रसिद्ध लोक गायिका रहीं। नेपाल की तराई में जन्मी विंध्यवासिनी देवी मैथिली, भोजपुरी, बज्जिका का संस्कार लिए विवाह के बाद पटना आई और उनकी भाषिक दुनिया में मागधी ने भी प्रवेश किया। बिहार की तमाम भाषाओं-बोलियों के लोकगीत उन्होंने अपने गायन में सम्मिलित किये। उन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हुए। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद द्वारा स्वर्णपदक प्रदाय, पùश्री, केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी सम्मान, फेलोशिप और रत्न सदस्यता प्रदान की गई। उन्होंने अनेक देशों में भारत के लोकसंगीत की खुशबू बिखेरी।
सुब्रत बैनर्जी (21 नवम्बर 1919-24 अक्टूबर 2007) इप्टा के संरक्षकों में एक ऐसी शख़्सियत का नाम है, जो छात्र राजनीति के माध्यम से वामपंथी आंदोलन से जुड़ा। उनका विवाह सत्यजित रे की प्रसिद्ध फिल्म ‘पाथेर पंचाली’ की अभिनेत्री करूणा सेन से हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वे जनसम्पर्क अधिकारी के रूप में बर्मा भेजे गए। वहाँ उनका सम्पर्क इंडियन नेशनल आर्मी के लोगों से हुआ और उन्होंने उनके साक्षात्कार लिए। लौटने पर उन्होंने अपने इन अनुभवों को डॉ. बी.सी.रॉय के मकान में कॉम. पी.सी.जोशी को सुनाया। जवाहरलाल नेहरू ने इंडियन नेशनल आर्मी से संबंधित उनके अनुभवों को सुनने के लिए उन्हें विशेष रूप से आमंत्रित किया। सुब्रत बैनर्जी को वियतनाम, इंडोनेशिया एवं सिलोन की रिपोर्ट लेने भी भेजा गया। युद्ध की समाप्ति के बाद उन्हें ऑस्ट्रेलिया एवं जापान में आर्मी के साथ भेजने का प्रस्ताव दिया गया था परंतु उन्होंने इसके बदले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘न्यू एज’ में जाने का फैसला किया। आगे वे अजय घोष एवं एस.ए.डांगे के साथ जेल भी गए। एक पत्रकार के रूप में उनके अनुभवों को बहुत सम्मानित दृष्टि से देखा जाता था। वे ‘इलेस्ट्रेटेड वीकली’, ‘इकॉनॉमिक टाइम्स’ से जुड़े एवं बाद में दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन में प्रोफेसर भी रहे। बांग्ला देश स्वतंत्र होने के बाद इंदिरा गांधी ने उन्हें वहाँ के भारतीय दूतावास में भेजा। सुब्रत बैनर्जी अपने जीवन के अंतिम समय तक कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े रहे। वे इप्टा, इस्कस एवं एप्सो में महत्वपूर्ण पदाधिकारी थे। सन् 1985 के आगरा राष्ट्रीय सम्मेलन के दस्तावेज़ तैयार करने में उनका मुख्य योगदान रहा। नवें सम्मेलन में वे राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चुने गये। उन्होंने 1987 से प्रकाशित इप्टा की केन्द्रीय पत्रिका ‘जन नाट्य’ का सम्पादन किया। जनवरी 2007 में हैदराबाद में आहूत इप्टा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के समय भेजे अपने संदेश में उन्होंने लिखा था: ‘‘संस्कृतिकर्मी मानव-मस्तिष्क के इंजीनियर हैं। उस सबके अस्तित्व के लिए, जो हमारे लिए मूल्यवान है, हमें इस समय के अवसर और चुनौती का हर कीमत पर सामना करना है।’’
इप्टा के इन सभी संरक्षकों का व्यक्तित्व और कृतित्व इतना विशाल रहा है कि यहाँ उसका सिर्फ हजारवाँ हिस्सा ही सामने रखा जा सका है। आप सभी लोगों ने अपने विचारों, सृजनात्मक कार्यों एवं प्रेरणा की जो मिसाल कायम की है और वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन की जो मशाल हमें सौंपी है, उसे हम हमेशा प्रज्वलित रख अगली पीढ़ी को सौंपने के लिए कृतसंकल्प हैं। आप सबको हमारी विनम्र श्रद्धांजलि!
-उषा वैरागकर आठले
रेखाचित्र : पंकज दीक्षित
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