आंदोलन के काम के नहीं हैं एलिट क्लास के दर्शक
-अजय आठले
इप्टा का संगठन क्यों ज़रूरी है?क्या इसलिए की हम अच्छे नाटक मंचित कर सकें, तो फिर इप्टा ही क्यों? दूसरी बहुत सी संस्थाएं हैं, जो अच्छे नाटकों का मंचन कर रही हैं। क्या इसलिए की हम अच्छे नाट्य समारोहों का आयोजन कर सकें? अगर ऐसा है तो फिर इप्टा की क्या आवश्यकता है, दूसरी बहुत-सी संस्थाएं हैं जो राष्ट्रीय अंतर राष्ट्रीय स्तर के नाट्य समारोह करवा रही हैं। क्या इप्टा के द्वारा हम लोग रंगकर्मियों को तैयार करना चाहते हैं? तो फिर इप्टा की क्या ज़रूरत है , बेहतर है एक ट्रेनिंग स्कूल खोला जाये तो ज्यादा सार्थक होगा। तब फिर इप्टा का संगठन ही क्यों?
एक बार यदि यह स्पष्ट हो जाये कि संगठन को कैसे कार्य करना है यह आप तय हो जाएगा। इप्टा की स्थापना आज़ादी के पूर्व हुई थी, तब उसके सामने उद्देष्य स्पष्ट थे - साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ जनमत तैयार करना। आज भी परिस्थितियां वैसी ही हैं , शक्ति-केंद्र भले ही बदल गया हो। इसलिए आज भी इप्टा का उद्देश्य साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ जनमत तैयार करना और मानवीय मूल्यों की स्थापना करना है। हमारा संगठन कला के क्षेत्र में सक्रिय है और कला जगत में ,संस्कृति के क्षेत्र में जो राजनीति होती है वह बेहद सूक्ष्म होती है। आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में यह बेहद स्थूल होती है और स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ती है, मगर कला जगत में यह बेहद सूक्ष्म होती है और आम जनों की समझ से परे होती है।
बचपन में हमारी पीढ़ी के प्रायः सभी लोगों ने ली फाक बेरी लिखित फैंटम को बेहद चाव से पढ़ा है। हमारी पीढ़ी फैंटम के इस कॉमिक्स को पढ़ कर ही बड़ी हुई। आज बड़े होने पर मुझे यह समझ में आता है की यह पूरा कामिक्स लैटिन अमेरिकी देशों की कितनी गलत तस्वीरें दुनिया के सामने रख रहा था और वह अपने उद्देश्य में सफल भी हुआ। चित्रकला के क्षेत्र में आर्ट गैलरियों द्वारा धूसर रंगों से निर्मित चित्रों को लगातार प्रोत्साहित किया गया क्योंकि धूसर रंग मस्तिष्क को उद्वलित नहीं करते और चटख रंग मस्तिष्क को उद्वलित करते हैं। इसलिए यथास्थिति को बनाए रखने के लिए धूसर रंग ज्यादा मुफीद होते हैं। आज साम्राज्यवादी शक्तियां पूरे विश्व को सुपर मार्केट में तब्दील करना चाहती हैं, जहाँ व्यक्ति जाये और ज्यादा सोच विचार करने की बजाय प्रोडक्ट के ऊपर लिखे सेलिएंट फीचर को पढ़कर उत्पाद खरीद ले, इसके लिए ज़रूरी है की एकाग्रता की क्षमता को घटा दिया जाये। यह कार्य टेलीविजन के द्वारा बखूबी हो रहा है। पहले आधे घंटे के सीरियल आते थे उसके बाद ब्रेक होता था फिर धीरे-धीरे यह अंतराल दस मिनट का रह गया। इसे तीन मिनट तक लाने की साजिश हो रही है ताकि हमारी एकाग्रता की क्षमता तीन मिनट से ज्यादा न रह जाय और वैचारिक शून्यताफ़ैलाने में मदद हो, जो की अंततः सुपर मार्केट के लिए बेहद अनुकूल स्थिति होगी।
इस तरह की बेहद बारीक राजनीति कला जगत में चलती है। ऊपर से बेहद क्रांतिकारी प्रभाव रचने वाले कथानक अपने समग्र में उल्टा प्रभाव छोड़ते हैं। फिल्मों में ‘सर,’ ‘सत्या’ और यहाँ तक की ‘माचिस’ जैसी फ़िल्में इसका अच्छाउदहारण हैं। ‘सर’ और ‘सत्या’ जैसी फ़िल्में जहाँ अंडर वर्ल्ड के प्रति सहानुभूति जगाती हैं वहीं ‘माचिस’ जैसी फ़िल्मे आतंकवादियों के पक्ष में खड़ी होती दिखाई देती हैं। नाटकों में भी इस तरह के कथानक मिल जायेंगे। मिथिलेश्वर लिखित नाटक ‘बाबूजी’ एक अच्छा उदहारण है, जो कलाकार की स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता की वकालत करता है। इस तरह की सूक्ष्म चालों को समझना और इसका प्रतिकार कलात्मक ढंग से करना, इप्टा को अन्य नाट्य संस्थाओं से अलग करता है।
इप्टा नाट्य समारोहों की महत्ता को भी समझती है , अच्छी प्रस्तुति और प्रशिक्षण के महत्व को भी स्वीकारती है, लेकिन विचार के बिना समारोह, प्रस्तुति या प्रशिक्षण महज़ एक यांत्रिक कार्य होगा। इस सोच के साथ जब हम कार्य शुरू करते हैं तो कुछ बातें हमारे सामने तयशुदा होती हैं। मसलन नाटक हमारी जीविका नही हो सकता। जीवन हो सकता है, मगर जीविकोपार्जन का साधन नहीं हो सकता। तब ऐसी परिस्थितियों में संगठन को खड़ा करने और सक्रिय बनाये रखने में बहुत सी कठिनाइयां सामने आ सकती हैं। आज के दौर में जब हमारी युवा पीढ़ी कैरियर ओरिएंटेड हो गई है, जल्द से जल्द अधिक से अधिक कमा लेने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। पैसे कमाने के ढेरों विकल्प और शार्टकट सामने दिख रहे हों, तब यह पीढ़ी इप्टा जैसे संगठन से क्यों जुड़े , जो उसका भविष्य नहीं बना सकता जो उसे रोज़गार नहीं दिला सकता। इसकी बजाय वह क्रिकेट खेलने-देखने में ज्यादा दिलचस्पी रखता है। स्थितियां सचमुच निराशाजनक लगती हैं पर उतनी हैं नहीं।
एक कथा याद आ रही है। एक जूता बनाने वाली कंपनी बिक्री बढ़ाने के लिए अपने दो सेल्समैन को ऐसे क्षेत्र में भेजती है, जहाँ लोगों को जूते के बारे में कुछ नहीं मालूम। सेल्समैन अपने-अपने ढंग से सर्वेक्षण करते हैं और कंपनी को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं। पहला सेल्समैन यह निष्कर्ष देता है की यहाँ जूता पहनने का रिवाज़ ही नहीं है लिहाज़ा जूता बिकने की कोई संभावना ही नहीं है। दूसरा सेल्समेन निश्कर्ष में यह कहता है कि चूँकि यहाँ लोग जूते के बारे में कुछ नहीं जानते इसलिए अगर हमारी कंपनी अपने जूते पेश करे तो सारा बाजार हमारे कब्ज़े में हो सकता है। हमारी सोच का ढंग दूसरे सेल्समेन कि तरह होना चाहिए। हमें बने बनाए फ्रेम से हटकर सोचना होगा।
जब भी हम नाट्य आंदोलन या नाटक की चर्चा करते हैं तो हमारी चर्चा के केंद्र में कलाकारों का अभिनय, प्रशिक्षण अथवा कथानक आदि होते हैं। लेकिन एक बहुत महत्वपूर्ण तत्व है दर्शक वर्ग जो हमेशा छूट जाता है। बिना दर्शक के कोई भी नाटक अधूरा होता है। हम किस तरह का दर्शक वर्ग तैयार कर रहे हैं इसकी पड़ताल भी बेहद जरूरी है। हमारे यहाँ जो नाट्य समारोह होते हैं, उनमे अगर हम पड़ताल करें तो पाएंगे कि अधिकांश दर्शक 40 से ऊपर के आयु समूह के होते हैं। ऐसे दर्शक समूह परिवर्तन को अंजाम देने में कारगर नहीं होते। वैचारिक दृष्टि से भी ये परिपक्व होते हैं। हमें युवा पीढ़ी के दर्शक वर्ग बड़ी संख्या में तैयार करना होंगे। युवा दर्शक वर्ग अगर तैयार होगा तो युवा रंगकर्मी भी आसानी से मिलेंगे और इनका सही वैचारिक प्रशिक्षण हो तो हम अपने लक्ष्य कि ओर बढ सकेंगे।
कला के क्षेत्र में वैचारिक प्रशिक्षण देने का तरीका अन्य क्षेत्रों में अपनाये जाने वाले तरीकों से बिलकुल भिन्न होना चाहिए, उसे कलात्मक होना चाहिए और प्रशिक्षण भी इंटरेक्टिव होना चाहिए। सीधे-सीधे भाषण बेहद उबाऊ और निष्फल साबित होंगे। जब हम स्क्रिप्ट का चयन करते हैं तब इस पर चर्चा होनी चाहिए कि यह स्क्रिप्ट क्यों ज़रूरी है? पात्रों का चरित्र-चित्रण वह बिंदु है, जहाँ हम सही ढंग से वैचारिक प्रशिक्षण दे सकते हैं। किसी एक विशेष परिस्थिति में समाज के अलग-अलग वर्ग के पात्र किस तरह अलग-अलग प्रतिक्रिया देंगे और उनकी आंगिक गतिविधियां किस तरह अलग-अलग होंगी और क्यों होंगी, इनके पीछे कौन से सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक कारण हैं, यह सब देखना दिलचस्प होगा। लेकिन यह भी इंटरेक्टिव और खेल-खेल में होना चाहिए । मसलन आप एक स्टेटस गेम खेल सकते हैं, जिसमे अलग-अलग वर्ग के पात्र एक साथ एक जगह पर जमा हैं और किसी एक घटना पर किस तरह अलग-अलग प्रतिक्रिया देंगे तथा दो अलग-अलग वर्ग समूह के लोग आमने सामने होने पर कैसी आंगिक प्रतिक्रिया देंगे। इस इम्प्रोवाइजेशन से युवा दर्शक वर्ग तैयार करने के लिए हमें उन्हीं कि समस्याओं से सम्बंधित स्क्रिप्ट उठानी चाहिए और उन्हीं के बीच मंचन भी किया जाना चाहिए।
मुझे एक घटना याद आ रही है। हमें औरंगाबाद में मराठवाड़ा लोकोत्सव में नेक्स्ट मिलेनियम के मंचन के लिए आमंत्रित किया गया था। मंचन के बाद हमें तुरंत मुंबई जाना था। मंचन कुछ तकनीकी कारणों से देर से शुरू हुआ और हमारी मुंबई जाने वाली गाड़ी छूट गयी। जल्दी-जल्दी में हम नासिक जानेवाली बस पकडने निकले। हमारी कार का ड्राइवर हमें बस स्टैंड ले जा रहा था जो 10-12किलोमीटर दूर था। रास्ते में मैंने उससे यूँ ही पूछ लिया, “क्या तुमने हमारा नाटक देखा?” उसने जवाब दिया, ‘‘हाँ साहब देखा और मुझे बहुत पसंद आया। लेकिन इस नाटक को तो कॉलेज के विद्यार्थियों के बीच होना चाहिए ताकि वे जान सकें कि उनकी दुनिया कहाँजा रही है? आप लोग तो इस नाटक के ज्यादा से ज्यादा मंचन विद्यार्थियों के बीच कीजिये?’’ हम अचंभित से उसे देख रहे थे और वह अभिभूत होकर बोल रहा था। कुछ ऐसा ही अनुभव हमें तब हुआ जब हम शाहिद अनवर का नाटक बीथ्री लेकर गुरु घासीदास विश्वविद्यालय गए। दर्शक तो 80-100 ही थे लेकिन विद्यार्थी इतने अभिभूत थे कि दूसरे दिन सेमीनार में भी नाटक पर ही चर्चा होती रही।
दरअसल ऐसी स्क्रिप्ट्स भी बहुत कम हैं जो युवा मन को ध्यान में रखकर लिखी गयी हों। ज्यादातर पात्र 40 के ऊपर के होते हैं, समस्याएं सामाजिक होती हैं, जिसमे विमर्श भी ऐसे ही बुजुर्ग पात्र कर रहे होते हैं तो युवा मन कैसे जुडेगा? अगर ऐसी स्क्रिप्ट्स नहीं हैं तो हमें तैयार करनी होगी और यह महत्वपूर्ण कार्य होगा नाट्य संगठन से। नाटक में निर्देशक ही ऐसा व्यक्ति होता है जो कलाकारों को वैचारिक प्रशिक्षण भी देता है और कलात्मक निखार भी लाता है । कलाकार का निर्देशक के साथ ही सीधा संवाद होता है इसलिए निर्देशक का संगठन में महत्वपूर्ण स्थान होना चाहिए। ज्यादातर ऐसा नहीं होता। हमारे यहाँ संगठनों में महासचिव और अध्यक्ष कि भूमिकाएं महत्वपूर्ण होती हैं, जो शायद ही कभी मंच पर उतरते हैं, जिससे कलाकारों और पदाधिकारियों के बीच वैसे रागात्मक सम्बन्ध नहीं बन पाते जैसे निर्देशक और कलाकारों के बीच होते हैं। ऐसे में बी.सी.सी.आई. और इंडियन क्रिकेट टीम जैसी परिस्थितियाँ बनने लगती हैं , जो संगठन को नुकसान पहुंचाती हैं।
हमारा संगठन चूँकि एक गैर व्यावसायिक संगठन है, जहाँ कलाकार एक उद्देश्य के तहत कार्य करते हैं और जीविकोपार्जन के लिए कुछ और कार्य करते हैं। इस परिस्थिति में कुछ समय बाद ये आजीविका या घरेलू जिम्मेदारियों के कारण पर्याप्त समय नहीं निकाल पाते और अपना रोल भी नहीं छोड़ पाते। इसलिए ये नयी पीढ़ी को भी आने से रोकते हैं कोशिश यह भी होती है कि अगर ये व्यस्त हैं तो कम रिहर्सल में ही नाटक हो जाये या फिर ना ही हो। ये स्थितियां कभी -कभी संगठन के निष्क्रिय हो जाने का कारण बन जाती हैं। कभी -कभी संगठन टूट जाते हैं। ये व्यक्ति सक्रिय नहीं रहने पर अपने को उपेक्षित महसूस करने लगते हैं और संगठन से कटने लगते हैं। शिकायत यह होती है कि उनकी बातों को कोई महत्व नहीं दिया जाता।
कहीं न कहीं वैचारिक प्रशिक्षण की कमी के कारण ऐसा होता है। वैचारिक रूप से जुड़ा व्यक्ति मंच पर सक्रिय न होने पर भी एक बेहतर स्रोत व्यक्ति साबित होता है। आने वाली पीढ़ी के लिए , संगठन के लिए वह सम्पदा होता है। कुल मिलाकर स्थितियां इतनी भयावह नहीं है, जितनी दिखती हैं। ज़रूरत है बदलती परिस्थितियों के साथ बदलने की। हमें अपने कलाकारों को बेहतरीन प्रशिक्षण देना भी ज़रूरी है ताकि हमारी प्रस्तुतियों का स्तर भी बेहतरीन हो। हमें नाट्य समारोह भी करने चाहिए ताकि दर्शक वर्ग भी तैयार हो, लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि हमारा लक्षित दर्शक वर्ग क्या हो?
कोई भी नाट्य आंदोलन बिना दर्शकों के संभव नहीं हैं, बल्कि दर्शक ही नाट्य आंदोलन की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अगर हमने अपने नाटकों से एलिट क्लास का दर्शक वर्ग तैयार किया है तो फिर हम उससे परिवर्तनकारी भूमिका की अपेक्षा नहीं कर सकते और हमारा नाट्य आंदोलन अंततः बाजारवाद की गिरफ्त में ही चला जाएगा।
रेखांकन : पंकज दीक्षित
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