डोंगरगढ़ छत्तीसगढ में दिनांक 2 मई 2012 से 8 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह प्रारंभ हो रहा है। बलराज साहनी जन्मशती वर्ष में यह आयोजन उनकी स्मृति को समर्पित है। समारोह की भूमिका के तौर पर दर्शकों को संबोधित यह लेख :
असल जिंदगी के नाटक का एक दृश्य यह है कि सरकार के एक जिम्मेदार मंत्री ने न्यायपालिका के हस्तक्षेप से कारपोरेट जगत के कुछ बड़े अधिकारियों को जेल भेजे जाने की घटना पर सार्वजनिक बयान दिया कि इससे देश के बाहर गलत संदेश जायेगा और विदेशी निवेश प्रभावित होगा।यानी सरमायेदारों की बेईमानी, बेईमानी नहीं है और वे ऐसा करते भी हैं तो वह एक पवित्र उद्देश्य के तहत है जो देश में विदेशी पूंजी के प्रवाह के लिये निर्बाध रास्ता खोलती है। प्रधानमंत्री को भी चिंता महज एक सुरा कारोबारी के डूबते जहाज की ही सताती है।
दूसरी ओर सरकार खाद्य सुरक्षा के नाम पर सड़कों के किनारों पर लगने वाले खोमचे- ठेलेवालों पर भी नकेल कसने का प्रयास करती है, जिन्हें रोजगार देने की गलती कम से कम इस सरकार ने नहीं की है। क्या वाकई सरकार को अपने देश के नागरिकों के स्वास्थ की इतनी ही चिंता है? अगर ऐसा है तो ठंडे पेय पदार्थों में कीटनाशक पाये जाने के आरोपों के बाद क्या आपको याद पड़ता है कि इन पर देश में एक दिन का भी प्रतिबंध लगाया गया हो? जी नहीं, इससे देश के बाहर गलत संदेश जायेगा! हमारी सरकार चाहती है कि हम स्वस्थ रहें और स्वस्थ बने रहने के लिये केवल विदेशी कंपनियों के पिज्जा, बर्गर व फ्राइड चिकन वगैरह खायें!
तो जितने गलत संदेश जाने हैं वे देश के भीतर ही जाने हैं और इसीलिये सरकार ने व्यवसायियों को सड़क पर लाने के लिये खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का असफल प्रयास किया। ऐसा नहीं है कि सरकार अपने मंसूबों को त्याग चुकी है। संसद के भीतर अंकगणित की मजबूरियों के चलते उसने वक्ती तौर पर केवल इसमें लगाम लगायी है। इससे भी बहुत पहले जानबूझकर ऐसी कृषि नीति बनायी गयी, जिसने किसानों को केवल आत्महत्याओं व ‘पीपली लाइव’ के काम का छोड़ा और सरकारों ने प्रापर्टी डीलर की तरह उनकी जमीनों पर जबरन कब्जा कर ऊँचे दामों पर बिल्डरों को बेच दिया। ऐसे समय में बलराज साहनी की याद आना लाजमी है, जिनकी ‘दो बीघा जमीन’ में शंभू नाम का किसान अपनी दो बीघा जमीन को बचाने के लिये किसान से मजूदर बन जाता है और शहर में हाड़-तोड़ मेहनत कर रिक्शा चलाने का काम करता है। ‘दो बीघा जमीन’ फिर भी नहीं बचती और उस पर एक कारखानेदार का कब्जा हो जाता है। कैसी विडंबना है कि अब कोई 50-60 वर्षों बाद यही कारखानेदार भी अपनी दो बीघा जमीन नहीं बचा पा रहे हैं।
विदेशी पूंजी की आँधी ने हमारे लघु व मझोले उद्यागों को भी उखाडकर फेंक दिया और न केवल मजदूर बल्कि कई उद्यमी भी सड़कों पर आ गये। सार्वजनिक क्षेत्र की फायदे में चलने वाली कंपनियों को कौड़ियों के मोल निजी क्षेत्रों को बेच दिया गया और कारपोरेट मॉडल का अनुकरण कर सरकारी नौकरियों में तनख्वाह तो बढ़ायी गयी पर उससे कई गुना अधिक पदों को समाप्त कर दिया गया। यानी कोई सूरत ऐसी बचाकर नहीं रखी जहाँ दो हाथों को कोई ढंग का काम मिल सके।
और महा-बेकारी के इस दौर में यह बताने के लिये कि यह सब तुम्हारे पूर्व-जन्म के कर्मो का फल है पूंजीवादी मीडिया के भोंपू का सहारा लिया जाता है, जिसके हरेक चैनल में एक बाबा विराजते हैं और अपने भक्तों पर ‘किरपा’ बरसाते हैं। जिस पर ‘किरपा’ बरस गयी वह धन्य हो जाता है और बाकी अपने पूर्व-जन्म के कर्मो को कोसते हैं। मनोरंजन के नाम पर अश्लील व फूहड़ सामग्री परोसी जाती है और हँसने के लिये निर्णायक भाड़े पर बुलाये जाते हैं। देश को खुले-आम बेच डालने वाली नीतियों से लोगो का ध्यान हटाने के लिये देशभक्ति के तड़के के साथ -और चीयर गर्ल्स के सहारे भी - खेल के नाम पर तमाशे का सामूहिक उन्माद (मॉस हिस्टीरिया) उत्पन्न किया जाता है। इस सामूहिक उन्माद के स्वरूप में थोड़े से परिवर्तन के साथ- यह बताने के लिये कि हम अब भी सरोकारी हैं- बड़ी चालाकी से यही मीडिया अन्ना हजारे के साथ भी खड़ा हो जाता है और माया व राम दोनों लूट लेता है।
बाजार पर एकछत्र राज के बाद अब हमारे संसाधनों की खुली लूट मची है और नव-उदारवाद के इस दौर में कोई भी क्षेत्र हमलों से बचा नहीं है। हमारी भाषा, हमारी भूषा, हमारा भोजन, हमारा साहित्य व हमारी संस्कृति सब कुछ उनके निशानों पर हैं। इस खौफनाक समय में जब हर बड़ा धनपशु अपने से छोटे को निगल जाने के लिये घात लगाये बैठा हो, एक संस्कृति-कर्मी होने के नाते हमारी भूमिका इन खतरों व चालाकियों से आगाह करने वाली है और बेशक हमारे नाटक हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों के औजार हैं। इन औजारों में धार कितनी है, यह आपको तय करना है!
- दिनेश चौधरी