Friday, April 13, 2012

साहित्य, संगीत और कला की राष्ट्रीय संस्थाओं में मनमानी


-  शेष नारायण सिंह

एक सवाल हर दौर में उठता रहा है कि क्या अपने देश में रहने वालों की बेहतर ज़िंदगी के लिए शिक्षा और संस्कृति का विकास बहुत ज़रूरी शर्त है. क्योंकि चौतरफा विकास के लिए और एक अच्छे समाज की स्थापना के लिए शिक्षा और संस्कृति की बेहतरी बहुत ज़रूरी है. 1988 में बनी हक्सर कमेटी ने भी यह सवाल बहुत ही संजीदगी से उठाया था. हक्सर कमेटी एक  ताक़तवर कमेटी थी जिसे केंद्र सरकार ने बनाया था और उसे ज़िम्मा दिया गया था कि वह साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के काम काज पर नज़र डाले और यह देखे कि क्या यह संस्थाएं अपना काम ठीक से कर रही हैं. क्या उन्हें जो ज़िम्मा दिया गया था उसे वे ज़िम्मेदारी से निभा रही हैं.

हक्सर कमेटी की  रिपोर्ट को लागू करना सरकार की ज़िम्मेदारी थी लेकिन जब बीस साल बाद संसद की एक कमेटी ने उस रिपोर्ट के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की तो पता चला कि केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाले संस्कृति मंत्रालय ने उस रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं. और जब सीताराम येचुरी की अध्यक्षता वाली इस कमेटी ने फ़ाइल तलब की तो जवाब आया कि मंत्रालय पूरी गंभीरता से फ़ाइल की तलाश कर रहा है. यानी हालात यह थे कि रिपोर्ट आने के बाद फ़ाइल ही गायब हो गयी थी और किसी को कहीं कुछ पता नहीं था. कहीं से तलाश कार जब रिपोर्ट हाथ आई तो संस्कृति मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति इतनी प्रभावित हुई कि उसने यह तय किया कि अब साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के काम काज के बारे में कोई जांच नहीं की जायेगी.

हक्सर कमेटी की रिपोर्ट इतनी विस्तृत है कि अगर उसके ऊपर की गयी सरकारी कार्रवाई की समीक्षा कर ली जाए तो भी बहुत कल्याण हो जाएगा. लेकिन जब कार्रवाई के बारे में सरकारी अफसरों से पूछा गया तो हालात और भी बदतर नज़र आये. पता चला कि सरकार ने कोई काम ही नहीं किया है. रिपोर्ट के ऊपर जो भी टिप्पणी साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से मिली थी उसी को अपनी तरफ से संसदीय कमेटी के पास भेज दिया गया है. उन टिप्पणियों पर सरकार की तरफ से कोई कमेन्ट नहीं किया गया है. हक्सर कमेटी की रिपोर्ट पर विधिवत काम करने के बाद संसद की स्थायी सामिति ने सुझाव दिया है कि सरकार को ऐसा उपाय करना चाहिए कि जिस से साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्वायत्तता तो सुरक्षित रहे लेकिन स्वायत्तता के नाम सरकारी धन का दुरुपयोग न हो और यह संस्थाएं वह काम ज़रूर करें जो करने के इए इनकी स्थापना की गयी थी.

आजादी के बाद स्वतंत्र भारत के निर्माताओं ने बहुत ही लगन से देश की संस्कृति की निगहबान संस्थाओं, साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना की थी. उन्होंने सोचा था कि स्वतंत्र भारत में संस्कृति और विकास की धारा साथ साथ चलेगी क्योंकि संस्कृति और विकास के दूसरे के पूरक होते हैं लेकिन लगता है कि ऐसा हो नहीं सका है. संस्कृति मंत्रालय के मामलों पर नज़र रखने के लिए बनायी गयी संसद की स्थायी समिति की ताज़ा रिपोर्ट में इस बात पर अफ़सोस ज़ाहिर किया गया है और संस्कृति मंत्रालय की नौकरशाही के कामकाज के तरीकों पर गंभीर सवाल उठाये गए हैं. रिपोर्ट पर नज़र डालने से साफ़ लगता है कि सरकार असहाय है और साहित्य, संगीत और कला की राष्ट्रीय संस्थाओं में मनमानी का राज है.

यातायात, पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से सम्बंधित संसद की स्थायी समिति ने साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कामकाज के तरीके पर चर्चा करने का काम अपने जिम्मे लिया. चारों तरफ से शिकायतें मिल रही थीं कि यह संस्थाएं अपना काम ठीक से नहीं कर रही थीं. शुरुआती दौर में ही पता लग गया कि इसी काम के लिए 1988 में पीएन हक्सर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया था. स्थायी समिति ने पाया कि हक्सर कमेटी की रिपोर्ट बहुत ही व्यापक थी और उस कमेटी ने  जो सिफारिशें की थीं अगर वे लागू कर दी गयी होतीं तो इन संस्थाओं में बहुत ही महत्वपूर्ण परिवर्तन हो चुके होते. इसलिए फिर से सारी जांच दुबारा करने की ज़रूरत नहीं है. कमेटी की राय थी कि हक्सर कमेटी के बारे में सरकार ने जो भी कार्यवाही की हो, वह देखने से पता लग जाएगा कि असली हालात क्या हैं. संस्कृति मंत्रालय से यह रिपोर्ट तलब कर ली गयी लेकिन कमेटी के सदस्य दंग रह गए जब उन्हें सरकार की तरफ से बताया गया कि हक्सर कमेटी की सिफारिशों के बारे में जो कार्रवाई की गई है उसकी फ़ाइल कहीं गायब हो गयी है और संस्कृति मंत्रालय बहुत ही मेहनत से उस फ़ाइल को तलाशने की कोशिश कर रहा है. कमेटी का कहना है कि हक्सर कमेटी को लागू करने के लिए सरकार ने कोई गंभीर कोशिश नहीं की थी.

संस्कृति मंत्रालय का काम देखने वाली संसद की स्थायी समिति एक महत्वपूर्ण कमेटी है. इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इतनी अहम कमेटी की रिपोर्ट को लागू करना तो दूर की बात है सरकार ने अभी तक इस पर विचार भी नहीं किया है. लगता है कि सरकार ने हक्सर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने के बारे में कोई गंभीरता नहीं दिखाई वरना इतनी महत्वपूर्ण रिपोर्ट के गायब हो जाने का क्या मतलब है. मंत्रालय ने इस रिपोर्ट के बारे में जो कार्रवाई रिपोर्ट दाखिल किया है वह बहुत ही निराशाजनक है. अकादमियों से जो भी टिप्पणियां  मिली थीं उसी को मंत्रालय ने अपनी कार्रवाई रिपोर्ट बताकर संसद की कमेटी के पास भेज दिया है. उस टिप्पणी पर अपनी तरफ से कुछ लिखने तक की जहमत नहीं उठायी है. इससे साफ़ लगता है कि मंत्रालय या तो असहाय है या संस्कृति के इन प्रमुख केन्दों में किसी तरह का सुधार करने की इच्छा ही नहीं रखता. यह सारी अकादमियां स्वायत्त हैं और लगता है कि इन संस्थाओं में बैठे हुए मठाधीश सत्ता के गलियारों में अपनी पहुंच का फायदा उठाकर संस्कृति मंत्रालय के अफसरों की परवाह ही नहीं करते.

संसद की  कमेटी ने साफ़ कहा है कि इन संस्थाओं की स्वायत्तता पर किसी तरह की आंच नहीं आनी चाहिए लेकिन स्वायत्तता की आड़ में बैठ कर राष्ट्रीय संसाधनों को बरबाद होने से बचाने के लिए सब कुछ किया जाना चाहिये  .जहां तक संस्कृति मंत्रालय और उसकी अकादमियों  का सवाल है संसद की स्थायी समिति ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि उनके काम काज के तरीकों में जिम्मेदारी का तत्व  बिलकुल नहीं है .कमेटी ने कहा  है  कि वह किसी भी हालत में साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पर सरकारी कंट्रोल  के खिलाफ है लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि  संसद ने किसी भी स्वायत्त संस्था के काम के लिए जो धन मंज़ूर किया है उसका हिसाब किताब तो देना ही पडेगा .

कमेटी ने सरकार को साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की मौजूदा दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार बताया है और कहा है कि सरकार को चाहिए था कि वह अपने देश की सांकृतिक और साहित्यिक धरोहर को संभालने वाली संस्थाओं को ज्यादा ज़िम्मेदारी से चलाती. यह ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है जब कि जीवन मूल्यों में हर स्तर पर बदलाव हो रहे हैं. ऐसे दौर में हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की फिर से स्थापना की ज़रुरत है. संस्कृति और साहित्य की संस्थाओं को इस बदले युग में ज्यादा सक्रिय होना पड़ेगा क्योंकि आम आदमी, ख़ास कार नौजवान अगर अपनी सांस्कृतिक धरोहर और मूल्यों के प्रति संवेदन शील होंगे तब तो आर्थिक विकास और परिवर्तन की गति के साथ चल सकेंगे और देश को भूख से बचाने वाले आर्थिक विकास के साथ साथ दिमाग और दिल की भूख को शांत करने वाले संस्कृति और साहित्य को भी विकास की गति मिल सकेगी.

भड़ास4मीडिया से साभार

(लेखक शेष नारायण सिंह वरिष्‍ठ पत्रकार हैं व  इन दिनों हिंदी दैनिक देशबंधु के साथ जुड़े हुए हैं.)

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