-अखिलेश दीक्षित
रवि....
किस क़दर जानलेवा इत्तेफ़ाक है कि अभी कुछ घंटों पहले इकबाल बानो की तीसरी बरसी पर कुछ लिखा ही था कि पता चला ....तुमने भी 21 अप्रैल ही चुनी ..... भला इन्क़लाब ज़िंदाबाद के बगैर कैसे आसमान तक जाता....
और ये भी कि लखनऊ से लखनऊ का एक अहम हिस्सा जुदा हो गया ....
मौत ने चुपके से जाने क्या कहा
ज़िन्दगी ख़ामोश हो के रह गयी .....
रात मौत एक गीत गाती थी
ज़िन्दगी झूम-झूम जाती थी ....
ये दोनों अश’आर तुम जब तब सुना ही देते थे .....जबसे मोसिक़ी और शायरी, थिएटर, इश्क़-ओ-मोहब्बत, जिद्दत, संघर्ष,बेबाकी, शैतानियों-शरारतों, लड़ाई झगड़े, प्रेम और चिढ़ ( जो कभी-कभी नफ़रतों के आस-पास भी पहुँचने चने लगती थी ..मगर ज़्यादा देर नहीं ) , जान ले लेने और जान दे देने के जज़्बे, सरोकारों के सैलाब से नकारने के तूफ़ान तक ...और न जाने ऐसी ही हज़ारों हज़ार कैफ़ियतों ने हमें एक दूसरे के क़रीब लाकर आमने सामने खड़ा कर दिया.. पिछले 30-32 बरसों में.... तब से आज तक मौत के साथ जो तुम्हारी रूमानियत रही है... ...उसे मुझसे ज़्यादा कौन जानता समझता होगा ....ऐसा मेरा सोचना है .... कहीं कोई और भी हो सकता है या होगा ही.... ये तुम जानो...!!
आज... अब जो कल हो गया है ... ये आज भी कितनी जल्दी कल में बदल जाता है कम्बख्त...आज सुबह ही तो तुम्हें राग देस में राशिद खान की बंदिश..." करम कर दीजै करतार " सुनाने के लिये फोन किया था ..खांसी की वजह से तुम यूँ तो उसे नहीं सुन पाए ...मगर तुमने सुन ही ली ...और करतार का करम हो ही गया.. तुम चले गये ..
आज... अब जो कल हो गया है ... ये आज भी कितनी जल्दी कल में बदल जाता है कम्बख्त...आज सुबह ही तो तुम्हें राग देस में राशिद खान की बंदिश..." करम कर दीजै करतार " सुनाने के लिये फोन किया था ... खांसी की वजह से तुम यूँ तो उसे नहीं सुन पाए ...मगर तुमने सुन ही ली ...और करतार का करम हो ही गया....
तुम चले गये ....
तुम्हारी आख़िरी साँस का खयाल मुझे हज़ारों लाखों मनाज़िर के हुजूम में डुबोता रहा है ... सच कहूँ तो पिछले कई बरसों से ......मगर हमेशा ये ताज्जुब होता था और अजीब भी लगता रहा कि ये ख़याल मुझे इतना विचलित या परेशान क्यों नहीं करता जितना कि आम तौर पे करना चाहिए... शायद इस लिए कि हम इस आम तौर से ज़रा दूर ही रहे....पर कौन जानेगा या जान सका ....किसी को जानने की कोई ज़रूरत भी नहीं ...और... अब तो कोई सवाल ही नहीं ... कि आधे भरे हुए मंज़र तुम ले गए और आधे भरे हुए मेरे पास छोड़ गए जो मेरे साथ जायेंगे....
कि ..जबसे इस जान लेवा बीमारी ने तुम्हें घेरा तब से...
पिछले बरसों जब जब लखनऊ आया और तुमसे मिला ...हम कह कुछ और रहे होते और बोल कुछ और रहे होते...मगर जो कह रहे होते थे वही और सिर्फ़ वही सुन भी रहे होते थे. और तुम हमेशा हौले से मुस्करा देते थे ... अपने ख़ास अन्दाज़ में कलाई को दाहिने से बाएं घुमाते हुए कहते ..." अमा सब सही है ...अच्छा ये सुनो ..." और कोई कविता या शे'र सुनाने लगते ....
उस के बाद और यूँ भी कई बार तुम वर्धा फ़ोन करके अशआ'र , नज़्में , ग़ज़लें सुनाते थे देर देर तक ....मुझसे कहते ..." मिसरा रिपीट कीजिये .... आप तो ख़ामोश हो जाते हैं ...आपकी ज़िंदा आवाज़ का अहसास होता रहे तभी लुत्फ़ आएगा ..सुकून आएगा ".... ज़िंदा आवाज़ पर तुम्हारा बहुत ज़ोर रहता था...
और इस बार 4 अप्रैल को जब पी.जी.आई. में तुम्हारे पास ..तुम्हारे साथ-साथ बैठा ..तुम कुछ बोल कर चुप हो जाते ...थक जाते ...उन दो-ढाई घंटों में 8-10 वाक्यों का आदान प्रदान हुआ होगा...शायद और कम... मेरे चलते-चलते तुम बोले “ मित्र मैं ऐसे पड़ा हूँ ... बेपनाह दर्द झेलते ...सब परेशान हैं मुझे झेलते...तो वैसे भी क्या फ़र्क पड़ता है यार ..” जवाब तो ये बनता था “ क्यों नहीं पड़ता ...” जो तुम्हें बिलकुल पसंद नहीं आता .... और फिर मेरी ख़ामोशी और तुम्हारी आँखों में तैरते मौत के सायों ने कुछ सरगोशियाँ कीं ...!! मैं चला आया ... मगर तुम भी तो ग़ज़ब ही चीज़ हो....6 अप्रैल को फ़ोन करके पूछते हो “कहाँ हो“... मैंने बताया .. तुम बोले “मैंने तुमको फ़ोन ये देखने के लिए किया कि मुझे तुम्हारा लखनऊ वाला मोबाइल नम्बर याद है या नहीं”..मैंने हँसते हुए कहा “अबे तुम कभी कुछ भूलते हो क्या ?” मेरी बात को कोई तवज्जो न देते हुए तुम फिर बोले “परसों तुम वर्धा जा रहे हो..तुम्हारा यहाँ आना तो अब शायद न हो सके मगर ग़ालिब की गज़ल हजारों ख्वाहिशें ऐसी के सारे अश’आर यानी मुकम्मल गज़ल आप हमको फ़ोन पे सुना के तभी वर्धा जायेंगे|” मैंने फिर हँसे हुए ही कहा “हुकुम”.. और तुमने अपने खास अंदाज़ में कहा “अब बस रखता हूँ” .... !! और फिर 8 तारीख़ को सुबह वर्धा निकलने से पहले तुम्हें वो गज़ल पूरी सुनाई.. फ़ोन पे ...और वो ‘कान पर रख के क़लम निकले’ वाला शे’र तो तुमने कितनी बार सुना...
हाँ तो बात सुकून और लुत्फ़ की हो रही थी .. आह.. इस लुत्फ़-ओ-सुकून की तलाश ने तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं भटकाया.... कितने मनाज़िर परखे ... कितनी गलियाँ छानी ... कितने शहर घूमे ... कितने देश भी हो आये ..मगर पुरसुकून लुत्फ़ कभी दो चार दिनों से ज़्यादा नहीं रुका ....फिर ये लगा कि ये दो-चार दिन थे भी या नहीं...कितने शहरों और गावों की कितनी रातें...सुबह-ओ-शामें याद दिलाऊँ जब सुबह तक ...छोड़ो यार... हाँ ....जिस सुकून की तलाश तुम्हें चैन से नहीं बैठने देती थी वो क्या सुकरात से लेकर ग़ालिब और राधा से लेके मीरा ...कबीर ..नज़ीर.. हज़रत-ए-खिज्र ,रूमी, राहुल सांकृत्यायन और इसी सिलसिले के किसी भी नुमाइंदे को हासिल हुआ है क्या ...दरअस्ल तलाश बेचैनी की होती है .... और ये तुम ख़ूब जानते थे .... मगर फिर भी तुम क्या करते ... और कोई भी क्या करता .... वाली आसी साहब की बात याद है ..जब हम लोगों ने मर्कज़-ए-दीन-ओ-अदब में शिकेब जलाली का ज़िक्र करते हुए कहा था कि काश हम लोग वहाँ होते ....कितनी जोर से नाराज़ होकर बोले थे .." आप क्या कर लेते .."..तब समझ में नहीं आया था लेकिन बाद में धीरे-धीरे उनकी बात हम दोनों को समझ में आने लगी थी....शायद...
तुम तुम हो ....इश्क की घिर्री ...मोहब्बत की रस्सी ... सरोकारों का घड़ा .... दुनिया को बेहतर बनाने की जद्द-ओ-जह्द में हमेशा मुब्तिला...जो बोझ तुम अपने सीने में जज़्ब किये चले गये हो ....ग़म-ए-जाना से ग़म-ए-दौराँ तक फैले तुम्हारे अहसासात के समुन्दर की गहराई को ख़ूब जानता समझता रहा हूँ .... तुम्हारे दर्द के विरसे का वारिस हूँ....तुम्हारी मुस्कराहटों का ख़ैरख़्वाह भी....
खैर .....तुम तुम हो ....इश्क की घिर्री ...मोहब्बत की रस्सी ... सरोकारों का घड़ा .... दुनिया को बेहतर बनाने की जद्द-ओ-जह्द में हमेशा मुब्तिला...जो बोझ तुम अपने सीने में जज़्ब किये चले गये हो ....ग़म-ए-जाना से ग़म-ए-दौराँ तक फैले तुम्हारे अहसासात के समुन्दर की गहराई को ख़ूब जानता समझता रहा हूँ .... तुम्हारे दर्द के विरसे का वारिस हूँ....तुम्हारी मुस्कराहटों का ख़ैरख़्वाह भी.... दोस्त ....कितनी बार हम रक़ीब और रफ़ीक़ एक साथ ही रहे .... और उस वक़्त क्या मज़े होते थे... क्या उलझने रहती थीं ... क्या सिलसिले रहते थे ... क्या मनाज़िर बनते थे ....हमारी इकतरफ़ा आशिक़ी के क्या कहने.. इधर हम दोनो और उधर कोई एक..किसी के पान खाये दांत तो किसी का अंदाज़, किसी का गर्दन टेढ़ी करके सुर लगाना...किसी के गले की जवारी..किसी का आइना देखने का अंदाज़, किसी की इंटेलीजेंस, किसी की गत... अब कितना बयां करूं.... मुझे याद सब है ज़रा-ज़रा नहीं ..पूरा-पूरा ... तुम्हें भी है ..मैं जानता हूँ ...
तुम्हारा ग़मख़ाना... उसकी धूम..... जाम-ए-मय-ए-तल्ख़..... तुम्हारी बोतल....तुम्हारा साज़... तुम्हारी आवाज़....तुम्हारा ग़ुरूर... तुम्हारा सुरूर...तुम्हारे अक़ीदे.... तुम्हारे वहम.. पुरअसरार ख़यालों के महल.....मय-ए-ग़म का ख़ुमार, तुम्हारा जहान-ए-बेदार...सब कुछ नक़्श है मेरे भीतर...उसी तरह क़तरा-क़तरा....रेज़ा-रेज़ा....जिस तरह वो बनता बिखरता रहा ....
आये थे बेलिबास ही तेरे जहाँ में हम
बस इक कफ़न के वास्ते इतना बड़ा सफ़र ....
फिर कहता हूँ ...कह रहा हूँ ... खुले मंच से ... भरे दरबार से ...नुक्कड़ो की भीड़ के बीचोबीच से .... स्टूडियो की ख़ामोशी से ..प्रेक्षागृहों के ग्रीन रूम्स से ...हारमोनियम ..ढोलक ..तबले...झांझ और दफ़ की आवाज़ से ...स्टेशनों की बेंचों से, यात्राओं से, पार्कों से, साईकिलों से ...ट्रकों के सफ़र के बीच से ....रिक्शों की सवारी से ...मरघटों कब्रिस्तानों से..ग़रज़ ये कि हर उस जगह से हर उस मकाम से जो हमारी बेचैनियों में कुछ तलाश करते रहने की गवाह हैं ... सुनो .. पिछले 30 बरसों में हमने एक दूसरे से एक ही तो दावा किया है ..बगैर कुछ बोले ....कि तुम्हारे दर्द के विरसे का वारिस हूँ मैं ....तुम्हारी मुस्कराहटों का ख़ैरख़वाह भी.....
सारी धरती तुम्हारा आँगन
सबके काजल तुम्हारे पारे
सबकी सांसें तुम्हारे धारे
सबकी बोली तुम्हारी बोली
सारे इंसाँ तुम्हारे प्यारे ....
और अब क्या है ... तुम्हारे एकतारे के बोल और उसकी झनझन हद-अनहद में... पूरी कायनात में गूंजती रहेगी ...
अच्छा है ..पहले तुमसे मिलने के लिए तुम्हारे घर, रिहर्सल, मंच, स्टूडियो, बार....अरे हाँ...अच्छा याद आया... क्रिस्टल की याद है..जहाँ पापड़ फ़्री मिलते थे..उन दिनों ...वहाँ वाले राकेश को पता है या नहीं... पता नहीं... अबकी लखनऊ आया तब जाऊँगा... एक बात साफ़-साफ़ समझ लो..पिछले 25-28 सालों में वहाँ अकेला कभी नहीं गया..अबकी भी नहीं जाऊँगा...क्यों कि अब तो जब चाहूंगा जहां चाहूँगा तुम्हें अपने साथ ले जाऊँगा ...तुम्हारी सोहबत भी हो जायेगी...कि तुमसे चेतना का रिश्ता मेरे चेतना शून्य होने तक तो बना ही रहेगा .... ... हमेशा की तरह सड़क पार करते वक़्त मेरी कलाई थामना मत भूलना.. एक बार उस पार आया तो उसके बाद कौन जाने.....और फ़िक्र भी किसे...
मुईन हसन ' जज़्बी ' की वो नज़्म “तो चलूं” याद आ रही जो पहली बार तुम्हीं से सुनी थी ...दिसंबर 1983 की एक शाम..शायद पंजवानी के घर पे...
तुम्हारा हमारा क्या ...!!!
सिर्फ़
दीपू
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