आज हिंदुस्तान के हर शहर और कस्बे में नाट्य संस्थाए और रंगकर्मी मौजूद है | इन रंगमंच के अभिनेताओं में उत्साह तो अपने चरम पर है पर केवल उत्साह ही किसी को दक्ष अभिनेता नहीं बना देता और दक्षता प्रशिक्षण से आती है | अभिनेता का प्रशिक्षित होना इन दिनों के रंगमंच के लिए दिनो दिन आवश्यक होता जा रहा है | हर अभिनेता प्रशिक्षण संस्थान तक नहीं पहुच पाता है पर पहुचना चाहता है , प्रशिक्षित होना चाहता है पर उसके पास साधन नहीं है | ऐसे अभिनेताओं को निराश होने की कतई ज़रूरत नहीं है , घर बैठे वे अभिनय की बारिकिया सीख सकते है , अभिनेता चाहे रंगमंच का हो या फिल्म का आपका यह शिक्षक आपको इतना संवार देगा कि इस विधा में आप एक निपुण अभिनेता बन कर उभर सकते है | आप के रंग गुरु का नाम है " बलराज साहनी " |
मै यहाँ बात उनके जन्म स्थान , उनके संघर्ष , उनके लेखन की नहीं करूंगा जबकि बलराज जी हर विधा में निपुण थे , मै यहाँ उनके अभिनय की चर्चा करूँगा | एक अभिनेता के अभिनय की समीक्षा | जब बलराज साहनी जी अभिनय कर रहे थे तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि वे अभिनय सिखा भी रहे है | मैंने उन्हें मंच पर अभिनय करते नहीं देखा लेकिन उनकी बहुत सी फिल्मे देखी है जिसमे उनके निराले अंदाज़ चौकाते है और दिमाग में यह बात उभरती है कि यह आदमी तो अपने आप में अभिनय का प्रशिक्षण केंद्र है | इसे अभिनय करते देख अभिनय की बारिकियाँ सीखी जा सकती है |
अगर हम बलराज जी की फिल्म "वक्त" देखे तो उस एक ही फिल्म में बलराज साहनी जी के अभिनय में कई शेड नज़र आते है और एक ही बलराज साहनी एक ही फिल्म में तीन अलग अलग अभिनेता दिखाई देते है | एक अतिउत्साह से लबरेज़ व्यापारी जो सफलता के मद में चूर है | इस फिल्म में बलराज जी ने आँखों से अभिनय किया था , उनकी आँखों से मानो कामयाबी टपक रही हो , उनकी आँखों में सफलता का घमंड आसानी से पढ़ा जा सकता था , फिर अगले ही क्षण जब वे दोस्तों की फरमाइश पर प्रेम गीत "ए मेरी ज़ोहरा जबी –तुझे मालूम नहीं " गाते है तो एक प्रेम में डूबे हुए आशिक नज़र आते है , यहाँ बलराज जी की आँखों में शोखियाँ और मस्ती देखी जा सकती है , एक ऐसा दिलफेक आशिक बन जाते है जिसे दीवाना मस्ताना कहा जाता है | उसके बाद जब उनका सब कुछ लुट जाता है तब उनकी आँखों में बेबसी , अकेलापन और बर्बादी की ऐसी दास्ताँ नज़र आती है कि दर्शक रो पड़ता है | बी.आर.चोपड़ा की इस फिल्म में बलराज जी ने यह साबित किया था कि अभिनय में आँखों का क्या योगदान होता है |
फिल्म नील कमल में बलराज साहनी जी ने वहीदा रहमान के पिता का रोल किया था जिसकी बेटी अपने ससुराल में परेशान है | बेटी का दुःख बाप के चेहरे पर बहुत ही कलात्मकता के साथ उन्होंने उतारा था | बलराज जी की हर फिल्म में अभिनय की शैली विकसित होती नज़र आती है | अगर हम एक छात्र की तरह उसे समझने का प्रयास करे तो उनके अन्दर ऐसी ऐसी बारीकियां नज़र आएगी जिन्हें एक नया अभिनेता आत्मसात कर ले तो उसे अपनी भूमिका समझने और उसे निभाने में बहुत हद तक मार्ग दर्शन मिल सकता है | बलराज साहनी के अभिनय को देखते समय अगर हम कुछ नोट्स तैयार करे तो वह इस प्रकार हो सकते है –
बलराज जी का अंदाज़ हमे यह बताता है कि अभिनय के दरमियान हमारा शरीर पूरी तरह नियंत्रित होना चाहिए , भाषा के लहजे में शालीनता का पुट होना बहुत आवश्यक है | उच्चारण में खोट तो स्वीकार हो ही नहीं सकती | बलराज जी की शाला में एक अभिनेता सबसे पहले यह समझता है कि उसे संवाद बोलने की ज़रा भी जल्दबाज़ी नहीं करनी है | पहले शरीर को तैयार करो , संवाद पहले तुम्हारी "बाड़ी लेंग्वेज" से कहे जायेगे , फिर तुम्हारी आँखे दर्शको से बात करेगी , फिर अपने सम्पूर्ण आकार को पात्र के प्रकार में ढाल लेने के बाद बारी आती है संवाद बोलने की |
संवाद बोलने के लिये बलराज जी का ध्वनी और प्रवाह कमाल का था | बात ऊँची आवाज़ में कहना तो कितनी ऊँची आवाज़ में कहना , धीमा बोलना है तो किस हद तक धीमा बोलना है ? हंसना है तो अधिक से अधिक कितना हंसना है , रोना है तो कम से कम कितना रोना है ? बलराज साहनी ने किसी भी फिल्म में बलराज साहनी की तरह नहीं बोला बल्कि अपनी हर फिल्म में उन्होंने उस पात्र की तरह कहा है जिसे वे परदे पर जी रहे थे | अगर मुस्कान से काम चल जाये तो खिलखिलाकर क्यों हसना और सिसकने भर से दर्द स्पष्ट हो जाये तो दहाड़े मार कर क्यों रोना ? यह फार्मूला था बलराज जी के अभिनय का जिसे हर अभिनेता को आत्मसात करना चाहिए | बलराज जी को अभिनय करते देखो तो यह भी महसूस होता है कि यह अभिनेता कभी भी पूरी तरह निर्देशक पर निर्भर नहीं रहा होगा | हर अभिनेता को अपनी तैयारी स्वयं करनी चाहिए जिस पर निर्देशक हल्की पालिश भर करेगा तभी अभिनेता खिल पाता है |
फिल्म धूल का फूल में बलराज जी का एक छोटे बच्चे के प्रति स्नेह ही फिल्म का कथानक था | जब बलराज जी ने कथावस्तु सुनी होगी तो उन्होंने ज़रूर पहले स्वयं को उस चरित्र को जीने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया होगा | इस फिल्म में अभिनय का नया ही अंदाज़ सामने आया था और वह था – कुछ नहीं बोल कर सब कुछ बोल देना , कुछ नहीं देख कर सब कुछ देख लेना , कुछ नहीं जान कर सब कुछ जान लेना , कुछ नहीं पाकर सब कुछ पा लेना और कुछ नहीं खो कर सब कुछ खो देना | इस फिल्म में उन्हें देख कर यह भी सीखा जा सकता है कि कैसे पात्र के अनुसार अपनी चाल निर्धारित करना |
बलराज साहनी ने अनेको बार सिर्फ अपने चलने के अंदाज़ से बदलाव लाया है | धूल का फूल और इज्जत में एक रईस आदमी के किरदार में सिर्फ उनकी चाल में ही एक भव्यता नज़र आती थी लेकिन जब हम उनकी फिल्म दो बीघा ज़मीन देखते है ,जिसमे वो गाँव छोड़ कर शहर जा रहे है और बैगराउंड में गीत " कोई निशानी छोड़ जा , कोई कहानी बोल जा , मौसम बीता जाये – मौसम बीता जाये " सुनाई देता है वह पूरा दृश्य बलराज जी के चलने के अंदाज़ पर ही फिल्माया गया था | फिल्म वक्त के लाला की भूमिका में शरीर में जो अकड़ नज़र आती है , वही शरीर दो बीघा ज़मीन में बीमार होने पर कैसा निढाल हो जाता है | अभिनय का यह अंतर फिल्म "दो रास्ते" और "हकीकत" में भी देखा और समझा जा सकता है |
हम जब बलराज जी की पूरी फिल्म देख चुके हो और फिर दुबारा उस चरित्र और अभिनेता के बारे में विचार करे तो सबसे पहले ध्यान जाता है अभिनय करते समय उनका संयम | यह अभिनेता अपने को कितना संभाल कर प्रस्तुत करता था , कितना केल्कुलेट अंदाज़ होता था उनका | उनके संवादों की अदायगी में अनुशासन को समझा जा सकता है | यह संयम और अनुशासन यू ही नहीं आ जाता है , इसे बाकायदा अभ्यास के द्वारा अपनी आदत में पिरोया जाता है | इस तरह का संयम और अनुशासन एक अभिनेता के लिए गंभीरता पूर्वक सीखने का हुनर है |
बलराज साहनी जी का ज़िक्र हो और ज़िक्र न हो फिल्म गर्म हवा का तो फिर वह ज़िक्र , ज़िक्र हरगिज़ माना न जाएगा | इस फिल्म की चर्चा के बिना यह चर्चा मुकम्मल हो ही नहीं सकती | सथ्यू जी की यह बेमिसाल फिल्म में अभिनेताओं में ज़बरदस्त टक्कर थी | ए.के.हंगल, जलाल आगा ,युनुस परवेज़ ,फारूक शेख ने इस फिल्म में अपना सर्वश्रेष्ठ किया था | कैफ़ी आज़मी साहब ने बेहतरीन संवाद रचे थे और दी थी एक यादगार सूफी रचना "मौला सलीम चिश्ती – आका सलीम चिश्ती " | बेहद संवेदनशील विषय पर बनी यह फिल्म में बेहतरीन फ़ोटोग्राफ़ी के साथ एक और अहम् हिस्सा था बलराज साहनी का | इस फिल्म में तो उन्होंने बोला भी बहुत कम था , चला भी ज़्यादा नहीं था , उन्हें पूरा का पूरा दिखाया भी कम ही गया था | पर्दे पर बस एक चेहरा उभरता और वह तीन चार अल्फाज़ बोल हट जाता | हट जाता लेकिन देखने वालो के ज़हन में रह जाता , वहाँ से हटाये न हटता | वह चेहरा जिसमे उम्मीदों का दरिया था , निराशा का सूखा था , सच्चाई का भरोसा था , अपनों से खाया हुआ धोखा था | सथ्यू जी ने जो फिल्म बनाई थी बलराज साहनी के अभिनय की ऊँचाइयों ने उसे क्लासिकल में तब्दील कर दिया था | फिल्म और थियेटर में अभिनय की शुरुआत करने वालो को बलराज साहनी की यह फिल्म जो यू ट्यूब पर उपलब्ध है उसे बार बार हज़ार बार देखनी चाहिए , यह अभिनेता आपका मार्ग दर्शक बन जाएगा और संवार देगा आपका भविष्य |
अखतर अली
आमानाका ,कुकुर बेडा
रायपुर ( छत्तीसगढ़ )
मो.न. 9826126781
ई मेल – akakhterspritwala@yahoo.co.in
मै यहाँ बात उनके जन्म स्थान , उनके संघर्ष , उनके लेखन की नहीं करूंगा जबकि बलराज जी हर विधा में निपुण थे , मै यहाँ उनके अभिनय की चर्चा करूँगा | एक अभिनेता के अभिनय की समीक्षा | जब बलराज साहनी जी अभिनय कर रहे थे तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि वे अभिनय सिखा भी रहे है | मैंने उन्हें मंच पर अभिनय करते नहीं देखा लेकिन उनकी बहुत सी फिल्मे देखी है जिसमे उनके निराले अंदाज़ चौकाते है और दिमाग में यह बात उभरती है कि यह आदमी तो अपने आप में अभिनय का प्रशिक्षण केंद्र है | इसे अभिनय करते देख अभिनय की बारिकियाँ सीखी जा सकती है |
अगर हम बलराज जी की फिल्म "वक्त" देखे तो उस एक ही फिल्म में बलराज साहनी जी के अभिनय में कई शेड नज़र आते है और एक ही बलराज साहनी एक ही फिल्म में तीन अलग अलग अभिनेता दिखाई देते है | एक अतिउत्साह से लबरेज़ व्यापारी जो सफलता के मद में चूर है | इस फिल्म में बलराज जी ने आँखों से अभिनय किया था , उनकी आँखों से मानो कामयाबी टपक रही हो , उनकी आँखों में सफलता का घमंड आसानी से पढ़ा जा सकता था , फिर अगले ही क्षण जब वे दोस्तों की फरमाइश पर प्रेम गीत "ए मेरी ज़ोहरा जबी –तुझे मालूम नहीं " गाते है तो एक प्रेम में डूबे हुए आशिक नज़र आते है , यहाँ बलराज जी की आँखों में शोखियाँ और मस्ती देखी जा सकती है , एक ऐसा दिलफेक आशिक बन जाते है जिसे दीवाना मस्ताना कहा जाता है | उसके बाद जब उनका सब कुछ लुट जाता है तब उनकी आँखों में बेबसी , अकेलापन और बर्बादी की ऐसी दास्ताँ नज़र आती है कि दर्शक रो पड़ता है | बी.आर.चोपड़ा की इस फिल्म में बलराज जी ने यह साबित किया था कि अभिनय में आँखों का क्या योगदान होता है |
फिल्म नील कमल में बलराज साहनी जी ने वहीदा रहमान के पिता का रोल किया था जिसकी बेटी अपने ससुराल में परेशान है | बेटी का दुःख बाप के चेहरे पर बहुत ही कलात्मकता के साथ उन्होंने उतारा था | बलराज जी की हर फिल्म में अभिनय की शैली विकसित होती नज़र आती है | अगर हम एक छात्र की तरह उसे समझने का प्रयास करे तो उनके अन्दर ऐसी ऐसी बारीकियां नज़र आएगी जिन्हें एक नया अभिनेता आत्मसात कर ले तो उसे अपनी भूमिका समझने और उसे निभाने में बहुत हद तक मार्ग दर्शन मिल सकता है | बलराज साहनी के अभिनय को देखते समय अगर हम कुछ नोट्स तैयार करे तो वह इस प्रकार हो सकते है –
बलराज जी का अंदाज़ हमे यह बताता है कि अभिनय के दरमियान हमारा शरीर पूरी तरह नियंत्रित होना चाहिए , भाषा के लहजे में शालीनता का पुट होना बहुत आवश्यक है | उच्चारण में खोट तो स्वीकार हो ही नहीं सकती | बलराज जी की शाला में एक अभिनेता सबसे पहले यह समझता है कि उसे संवाद बोलने की ज़रा भी जल्दबाज़ी नहीं करनी है | पहले शरीर को तैयार करो , संवाद पहले तुम्हारी "बाड़ी लेंग्वेज" से कहे जायेगे , फिर तुम्हारी आँखे दर्शको से बात करेगी , फिर अपने सम्पूर्ण आकार को पात्र के प्रकार में ढाल लेने के बाद बारी आती है संवाद बोलने की |
संवाद बोलने के लिये बलराज जी का ध्वनी और प्रवाह कमाल का था | बात ऊँची आवाज़ में कहना तो कितनी ऊँची आवाज़ में कहना , धीमा बोलना है तो किस हद तक धीमा बोलना है ? हंसना है तो अधिक से अधिक कितना हंसना है , रोना है तो कम से कम कितना रोना है ? बलराज साहनी ने किसी भी फिल्म में बलराज साहनी की तरह नहीं बोला बल्कि अपनी हर फिल्म में उन्होंने उस पात्र की तरह कहा है जिसे वे परदे पर जी रहे थे | अगर मुस्कान से काम चल जाये तो खिलखिलाकर क्यों हसना और सिसकने भर से दर्द स्पष्ट हो जाये तो दहाड़े मार कर क्यों रोना ? यह फार्मूला था बलराज जी के अभिनय का जिसे हर अभिनेता को आत्मसात करना चाहिए | बलराज जी को अभिनय करते देखो तो यह भी महसूस होता है कि यह अभिनेता कभी भी पूरी तरह निर्देशक पर निर्भर नहीं रहा होगा | हर अभिनेता को अपनी तैयारी स्वयं करनी चाहिए जिस पर निर्देशक हल्की पालिश भर करेगा तभी अभिनेता खिल पाता है |
फिल्म धूल का फूल में बलराज जी का एक छोटे बच्चे के प्रति स्नेह ही फिल्म का कथानक था | जब बलराज जी ने कथावस्तु सुनी होगी तो उन्होंने ज़रूर पहले स्वयं को उस चरित्र को जीने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया होगा | इस फिल्म में अभिनय का नया ही अंदाज़ सामने आया था और वह था – कुछ नहीं बोल कर सब कुछ बोल देना , कुछ नहीं देख कर सब कुछ देख लेना , कुछ नहीं जान कर सब कुछ जान लेना , कुछ नहीं पाकर सब कुछ पा लेना और कुछ नहीं खो कर सब कुछ खो देना | इस फिल्म में उन्हें देख कर यह भी सीखा जा सकता है कि कैसे पात्र के अनुसार अपनी चाल निर्धारित करना |
बलराज साहनी ने अनेको बार सिर्फ अपने चलने के अंदाज़ से बदलाव लाया है | धूल का फूल और इज्जत में एक रईस आदमी के किरदार में सिर्फ उनकी चाल में ही एक भव्यता नज़र आती थी लेकिन जब हम उनकी फिल्म दो बीघा ज़मीन देखते है ,जिसमे वो गाँव छोड़ कर शहर जा रहे है और बैगराउंड में गीत " कोई निशानी छोड़ जा , कोई कहानी बोल जा , मौसम बीता जाये – मौसम बीता जाये " सुनाई देता है वह पूरा दृश्य बलराज जी के चलने के अंदाज़ पर ही फिल्माया गया था | फिल्म वक्त के लाला की भूमिका में शरीर में जो अकड़ नज़र आती है , वही शरीर दो बीघा ज़मीन में बीमार होने पर कैसा निढाल हो जाता है | अभिनय का यह अंतर फिल्म "दो रास्ते" और "हकीकत" में भी देखा और समझा जा सकता है |
हम जब बलराज जी की पूरी फिल्म देख चुके हो और फिर दुबारा उस चरित्र और अभिनेता के बारे में विचार करे तो सबसे पहले ध्यान जाता है अभिनय करते समय उनका संयम | यह अभिनेता अपने को कितना संभाल कर प्रस्तुत करता था , कितना केल्कुलेट अंदाज़ होता था उनका | उनके संवादों की अदायगी में अनुशासन को समझा जा सकता है | यह संयम और अनुशासन यू ही नहीं आ जाता है , इसे बाकायदा अभ्यास के द्वारा अपनी आदत में पिरोया जाता है | इस तरह का संयम और अनुशासन एक अभिनेता के लिए गंभीरता पूर्वक सीखने का हुनर है |
बलराज साहनी जी का ज़िक्र हो और ज़िक्र न हो फिल्म गर्म हवा का तो फिर वह ज़िक्र , ज़िक्र हरगिज़ माना न जाएगा | इस फिल्म की चर्चा के बिना यह चर्चा मुकम्मल हो ही नहीं सकती | सथ्यू जी की यह बेमिसाल फिल्म में अभिनेताओं में ज़बरदस्त टक्कर थी | ए.के.हंगल, जलाल आगा ,युनुस परवेज़ ,फारूक शेख ने इस फिल्म में अपना सर्वश्रेष्ठ किया था | कैफ़ी आज़मी साहब ने बेहतरीन संवाद रचे थे और दी थी एक यादगार सूफी रचना "मौला सलीम चिश्ती – आका सलीम चिश्ती " | बेहद संवेदनशील विषय पर बनी यह फिल्म में बेहतरीन फ़ोटोग्राफ़ी के साथ एक और अहम् हिस्सा था बलराज साहनी का | इस फिल्म में तो उन्होंने बोला भी बहुत कम था , चला भी ज़्यादा नहीं था , उन्हें पूरा का पूरा दिखाया भी कम ही गया था | पर्दे पर बस एक चेहरा उभरता और वह तीन चार अल्फाज़ बोल हट जाता | हट जाता लेकिन देखने वालो के ज़हन में रह जाता , वहाँ से हटाये न हटता | वह चेहरा जिसमे उम्मीदों का दरिया था , निराशा का सूखा था , सच्चाई का भरोसा था , अपनों से खाया हुआ धोखा था | सथ्यू जी ने जो फिल्म बनाई थी बलराज साहनी के अभिनय की ऊँचाइयों ने उसे क्लासिकल में तब्दील कर दिया था | फिल्म और थियेटर में अभिनय की शुरुआत करने वालो को बलराज साहनी की यह फिल्म जो यू ट्यूब पर उपलब्ध है उसे बार बार हज़ार बार देखनी चाहिए , यह अभिनेता आपका मार्ग दर्शक बन जाएगा और संवार देगा आपका भविष्य |
अखतर अली
आमानाका ,कुकुर बेडा
रायपुर ( छत्तीसगढ़ )
मो.न. 9826126781
ई मेल – akakhterspritwala@yahoo.co.in
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