आज 25 मई को देश का धड़कता युवा सांस्कृतिक संगठन इप्टा 75 साल पूरा कर 76वें साल का आग़ाज़ कर रहा है। यह कोई असाधारण घटना नही है कि औपनिवेशीकरण, साम्राज्यवाद व फासीवाद के विरोध का उद्देश्य लेकर कुछ कलाकार, साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता मुंबई में इक्कठ्ठा होते हैं और ‘इप्टा’ की स्थापना 25 मई 1943 को होती है। ‘इप्टा’ का यह नामकरण सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा करते हैं और यह संस्था बहुत जल्द मुंबई के दायरे को पार करती पूरे हिन्दुस्तान में कलाकारों को जोड़ लेती है। इप्टा एक खास एतिहासिक पृष्ठभूमि से जुड़ी और लगातार 75 सालों से देश गांव-नगर, गली-मुहल्लों में नाटक, गीत, नृत्य के साथ सक्रिय है।
वर्ष 2015 के अक्टूबर में जब इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन में संघ परिवार से जुड़े कुछ लोगों के हमला किया और मंच पर चढ़ कर ‘भारत माँ की जय’ का नारा लगाने की जबरदस्ती की। देशद्रोहियों की सूची में इप्टा को शामिल कर दिया। इप्टा के मंच पर कब्जा करने की कोशिश करने वाले अतिउत्साही युवक शायद भूल गये कि यह वही इप्टा है जिसके लिए पंडित रविषंकर ने ‘सारे जहां से अच्छा....’ की धुन बनाई, जिसे पूरा हिन्दुस्तान गाते हुए नौजवान हुआ है। यह वही इप्टा है, जिसने 14 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को जश्ने आज़ादी के मौके पर कोरस गान किया कि
‘‘झूम-झूम के नाचो आज, गाओ ख़ुशी के गीत।
झूठ की आखिर हार हुई, सच की आखिर जीत।
आज से इन सुंदर खेतों पे भूख ना उगने पाए,
फैक्टरियों में मंडराए ना बेकारी के साये,
देश का यह धन-दौलत है, ये सारे कौम की पूंजी,
आज किसी आगे दामन इस फैलाये रे।’’
इसी इप्टा के मख़दुम मोहिउद्दीन ने लिखा ‘कहो हिन्दुस्तान की जय’ और पूरे देश में इप्टा के लोगों ने जनघोष की तरह गाया।
इप्टा के लिए यह कोई नई परिघटना नहीं थी। 1947 की 20 दिनों की रेल हड़ताल के दौरान भी इप्टा पर प्रतिबंध लगा। उसी समय शंकर शैलेन्द्र ने कहा कि
‘‘ हर जोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है !
तुमने माँगे ठुकराई हैं, तुमने तोड़ा है हर वादा
छीनी हमसे सस्ती चीजें, तुम छंटनी पर हो आमादा
तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है
हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है ! ’’
आज भी ये गीत संघर्ष के गीत है और मजदूर आन्दोलन के प्रतीक बन गये हैं। इप्टा के गीत फिल्मों में गाये जाते हैं।
विभाजन की आग में झुलस रहे देश को इप्टा की मंडलियों ने सांप्रदायिक सौहार्द और क़ौमी एकता के लिए आवाज़ बुलंद की। सलिल चौधरी ने देश के साथ कोरस बनकर यह गाया कि
"ओ मेरे देशवासी रे.... काली नदी को करे पार
आओ रे राम भाई, आओ रहीम भाई
काली नदी को करें पार।
बीच इस देश के
शैतान ले आये हैं दंगे फ़सादों की बाढ़
डूबा सैलाब में सारे वतन का मान।"
80-90 के दशक में जब देश पर साम्प्रदायिकता और अलगाववाद का साया छाया तो फिर इप्टा बोल पड़ी। सलिल चौधरी और हेमांगू विश्वास ने बंगाल और असम के लोकगीत को देशप्रेम के लिए पूरे देश में जन संगीत का तोहफा दिया। देश एक बार फिर से गुनगुनाया-
‘‘दिशाएं लाख हो उनके रास्ते हों भले
चले कोई दाहिने कोई बायें चले,
एक ही मंजिल, नाना तरंगे
जागों मेरे देश, शांति खिले जग-जग में ऐसा मेरा देश
चाहे अलग हमारे भाषा औ वेश।’’
अलगाववाद के खिलाफ इप्टा के लोग पंजाब के गली-मुहल्लों और गांवों घूम-घूम के नाटक करते। कैफी आज़मी, ए.के.हंगल, दीना पाठक आदि दिग्गज पंजाब के लिए युवाओं के साथ एक कतार में खड़े थें। आज भी चंडीगढ़ की सड़कों पर 'मदारी आया' नाटक की याद करते लोग मिल जायेगे।
रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के विवाद के काले साये के खिलाफ कबीर, नजीर, मीराबाई, रसखान और तुलसी के भक्ति-सूफी को लिये इप्टा के कलाकार सड़कों पर उतर आयें। प्रेम, सहिष्णुता और भाईचारा के पक्ष में आवाज़ बुलंद की। कैफी आज़मी का दूसरा बनवास इप्टाकर्मियों का नया नारा बना-
‘‘ पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नजर आये वहाँ खून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फजा आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे‘‘
इस समय देशभर में इप्टा की 600 से भी अधिक इकाइयां सक्रिय हैं। अखिल भारतीय स्तर पर 25 मई 1943 को बंबई (अब मुंबई) में स्थापित इप्टा की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर भारत सरकार ने विशेष डाक टिकट जारी किया।
इप्टा के सफर में बहुत से नामचीन लोगों ने अपना योगदान दिया है, जिनमें से कुछ नाम पं. रविशंकर, हबीब तनवीर, कैफी आजमी, शबाना आजमी, सलिल चैधरी, शैलेन्द्र, साहिर लुधियानवी, राजेन्द्र रघुवंशी, बलराज साहनी, भीष्म साहनी, दीना पाठक, शंभु मित्रा, हेमांगु विश्वास, संजीव कुमार, रामेश्वर सिंह कश्यप उर्फ लोहा सिंह, पं0 सियाराम तिवारी, विन्ध्यवासिनी देवी, कविवर कन्हैया, ललित किशोर सिन्हा, फारूख शेख, एम. एस. सथ्यू, शबाना आज़मी, अंजन श्रीवास्तव, रणबीर सिंह, परवेज अख़्तर, तनवीर अख़्तर, हिमांशु राय, राकेश, आदि हैं।
इप्टा, इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन का संक्षेप है। हिन्दी में इसे‘भारतीय जन नाट्य संघ’, असम व पश्चिम बंगाल में ‘भारतीय गण नाट्य संघ’ व आन्ध्रप्रदेश में प्रजा नाट्य मंडली के नाम से जाना गया। इसका सूत्र वाक्य है ‘पीपुल्स थियेटर स्टार्स द पीपुल‘ यानी, ‘जनता के रंगमंच की नायक जनता है।’ प्रतीक चिन्ह सुप्रसिद्ध चित्रकार चित्त प्रसाद की कृति नगाड़ावादक है, जो संचार के सबसे प्राचीन माध्यम की याद दिलाता है।
इप्टा के 50 साल पूरे होने पर पटना में स्वर्ण जयंती समारोह 24-27 दिसम्बर, 1994 में आयोजित किया था, जिसमें पूरा देश चार दिनों के लिए पटना आ बसा। इप्टा के 75वें साल जश्न एक फिर से पटना में इप्टा प्लैटिनम जुबली समारोह 27 से 31 अक्टूबर, 2018 को आयोजित होना है। एक बार फिर पूरे देश की सांस्कृतिक विविधता अपनी विरासत के साथ मिलेंगी।
अपने 75 सालों में इप्टा ने कई उतार चढ़ाव देखें और संघर्ष किया है। घर-बाहर आलोचनाएँ सही हैं। देशद्रोही, वैचारिक सवाल झेले हैं परन्तु इप्टा का इतिहास और वर्त्तमान भारत की संस्कृति का इतिहास और वर्त्तमान है। कलाकर्म का सामाजिक दायित्व इप्टा की ही देन है, जिस पर पूरा देश गौरव करता है। चाहे वह नाटक हो, गीत-संगीत-नृत्य हो या पेंटिंग-सिनेमा इप्टा की सोच सांगठनिक दायरे से आगे निकल कर एक आंदोलन बन चुका है।
इप्टा के 75 साल सिर्फ इतिहास को याद करना नहीं बल्कि आज की उन सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए तैयार होना भी है जो दमन और शोषण के पैरोकार हैं। आइये एक बार फ़िर ज़िन्दगी के लिए ज़िंदा रहने के गीत गाये। इप्टा के पैरोकार बने। उस विरासत का हिस्सा बने जो हमारे पुरखों ने देश प्रेम और इंसानियत के लिए बनाया था। अपनी आने वाली पीढ़ी को वही तोहफ़ा सहेज और सवांर कर दे जाएँ जिसके बल पर वे भी आज़ादी से प्यार और देश से प्रेम कर सकें। कदम से कदम मिला कर चल सकें। सवाल पूछने और सवाल-दर-सवाल करने की ऊर्जा बनाये रख सकें। इप्टा ज़िन्दाबाद और ज़िन्दाबाद रहेगा।
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