Wednesday, May 30, 2018

मुंगेली की सड़कों पर बांस गीत की मधुर तान

-डॉ. दीपक पाचपोर
अपने गृहनगर मुंगेली के रास्तों पर मैं इसी 28 तारीख को भटक रहा था कि मुझे पंजूराम बरेठ मिल गए, जो घूम-घूमकर छत्तीसगढ़ का लोक वाद्य बांस बजाते हैं और उसकी धुन पर गाते भी हैं। यह परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। ज्यादातर इसका प्रचलन अब गांवों में सिमटकर रह गया है। यदुवंशियों की यह सदियों पुरानी परंपरा है पर संगीत के क्षेत्र में बॉलीवुड और पाश्चात्य तौर-तरीकों के अतिक्रमण ने इसे विलुप्ति की कगार पर पहुंचा दिया है। अब इस क्षेत्र में बहुत कम लोग रह गए हैं। किसी के मरने पर होने वाले दशगात्र या बच्चे के जन्म होने के छठवें दिन होने वाले छठी समारोह में बांस गीत के कलाकारों को आमंत्रित कर उनसे गायन व बांस बजवाया जाता है। पंजूराम को छत्तीसगढ़ की लोक परंपरा में वर्षों से चली आ रही कंठी राऊत, अजमन-कईना, रमला-कईना की कथाएं कंठस्थ हैं। वे इन्हें ही गाकर और उस पर बांस पर धुनें छेड़कर सुनाते हैं। पंजूराम को इसमें महारत है और उन्हें सुनना स्वयं को लोक जीवन से आबद्ध करना है।
वैसे तो पंजूराम बिलासपुर के अचानकपुर (चकरभाठा) के हैं पर वे बचपन से ही अपने पिता जूठेरराम के साथ मुंगेली, तखतपुर, बिलासपुर और उसके आसपास के गांवों में बांस गीत सुनाकर अपना पेट पालते आए हैं। अब भी वे पिता के सौंपे बांस और उनकी कला विरासत को संभाल रहा है। उन्होंने अपने पुत्र अर्जुन (25 वर्ष) को भी यही कला सिखाई है और उसका भी यही पेशा है। उनका भरा-पूरा परिवार है।
वे बताते हैं कि उनके पिताजी भी मुंगेली की दुकानों और घरों में घूम-घूमकर बांस गीत बजाते थे और गाते थे। विशेषकर दीवाली और दशहरे में उनकी अच्छी कमाई होती थी। पर ज्यादातर लोक परंपराओं की तरह अब यह कला भी धीरे-धीरे कम हो रही है। अब तो गिने-चुने दुकानदार ही उन्हें पैसे देते हैं। अलबत्ता, गांवों में उन्हें ज्यादा काम मिल जाता है। दशगात्र और छठी में हैसियत के अनुसार हजार से दो हजार रूपये 24 घंटे में मिल जाते हैं। साथ में कुछ कपड़े और अनाज भी। उनका मानना है कि अब तो नए-नए उपकरणों के कारण प्रत्यक्ष या जीवंत गायन के कार्यक्रम काफी कम रह गए हैं। वे कहते हैं- “घर-घर मा आइस मोबाईल-टीवी, बिगड़िन मियां-बीवी”।
पंजूराम कहते हैं कि सरकार को इसे संरक्षित करने के लिए ठोस उपाय करने चाहिए वरना यह परंपरा और बहुत ही मधुर वाद्य यंत्र भी एक दिन लुप्त हो जाएगा। इसे बजाने वाले और इसकी धुन पर गाने वाले बचेंगे ही नहीं। चूंकि इससे आजीविका नहीं चलती इसलिए इसके कलाकारों को दूसरे काम करने पड़ते हैं। यह परंपरा पहले से कम होती जा रही है इसलिए बांस गायकों की आय भी लगातार घट रही है। नईं पीढ़ी तो इससे विमुख ही हो रही है। छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से कुछ प्रयास जरूर किए जा रहे हैं पर वे और बढ़ाए जाने होंगे। उन्होंने बताया कि इसे एक बार जो भी बजाना शुरू करता है उसके लिए जरूरी है कि उसका वह नियमित अभ्यास करता रहे वरना कई तरह की शारीरिक समस्याएं होने लगती हैं, विशेषकर सीने में दर्द या सांस लेने में दिक्कत होती है।
आवश्यकता है पंजूराम जैसे कलाकारों को ज्यादा से ज्यादा सुना जाए और उनकी आय कम से कम इतनी हो कि वे अपने परिवार और लोक वाद्य की इस समृद्ध विरासत को बचाए रख सकें।

शब्दांकन व फोटो: डॉ. दीपक पाचपोर

1 comment:

  1. लोक कला में जो सादगी, अपनापन, कर्णप्रिय धुन देखने को मिलती हैं वह आज के कानफोड़ू संगीत में कहाँ। सरकार को एक दिशा में मदद कर विरासत बचा के रखनी चाहिए ताकि यह लुप्त न हो
    बहुत सार्थक प्रस्तुति

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