- रामचंद्र गुहा
अपनी पीढ़ी के ज्यादातर भारतीयों की तरह गिरीश कार्नाड को मैंने भी पहली बार श्याम बेनेगल की किसी फिल्म में ही देखा था। सामने देखना अलग ही अनुभव था, जब उन्हें दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में अकेले बैठ भोजन करते देखा। यह 1990 की बात है। सब उन्हें देख रहे थे, पहचान रहे थे, फिर भी कोई उन्हें डिस्टर्ब नहीं कर रहा था। यह शायद उनके व्यक्तित्व का असर था।.
1995 में पत्नी सुजाता के साथ मैं बेंगलुरु आ गया। गिरीश कार्नाड भी पत्नी सरस के साथ यहीं रहते थे। एक कॉमन दोस्त ने परिचय कराया, तो मिलने-जुलने का सिलसिला चल पड़ा। हम ज्यादातर एक-दूसरे के घर पर ही मिलते। कार्नाड अपने शुरुआती क्लासिकल नाटकों से ही मिथकों और इतिहास का नया रूपाकार गढ़ते हुए रंगमंच में अभिनय अनुकूलन की मिसाल बन चुके थे। उन्होंने फिल्में कम कर दी थीं और रचनात्मकता के नए दौर में थे। लंदन के नेहरू सेंटर का निदेशक रहते हुए विश्व रंगमंच के श्रेष्ठतम से रूबरू हो रहे थे।
इसी दौरान हमने उनके दो चर्चित नाटक फ्लावर्स व ब्रोकेन इमेज देखे। ब्रोकेन इमेज दो ऐसी बहनों की प्रतिद्वंद्विता की कहानी थी, जिनमें से एक अंग्रेजी और दूसरी कन्नड़ लेखिका थी। नाटक ने साहित्य की दुनिया में एक नई बहस छेड़ दी, जिसका दूसरा सिरा चर्चित लेखक यूआर अनंतमूर्ति तक जाता था। अनंतमूर्ति भाषा को लेकर बहुत सतर्क और सक्रिय थे। उन्हें लगता था कि भाषाई लेखकों को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता या अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीयों की अपेक्षा उन्हें कम भुगतान मिलता है। .
अनंतमूर्ति के साथ कार्नाड की तमाम असहमतियां थीं। एक बड़ा कारण शायद इनमें से एक का अतिशय भाषा आग्रह रहा हो, जबकि दूसरे के लिए यह लोकप्रियता का मामला था। अनंतमूर्ति की प्राय: राजनेताओं से करीबी और उनकी कथित राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी कार्नाड को अखरती थीं, जबकि उनकी महत्वाकांक्षा साहित्य और सौंदर्यशास्त्र था। .
मुझे लगता है कि अनंतमूर्ति के भीतर कन्नड़ के प्रति एक खास तरह की तड़प थी। कारवां पत्रिका के लिए अनंतमूर्ति के साथ साहित्य, राजनीति व कुछ अन्य मुद्दों पर अपना वह संवाद याद आ रहा है, जिसका आयोजन एक बड़े होटल में था। सवाल-जवाब का दौर शुरू हुआ। एकदम पीछे की कुरसियों से एक हाथ उठा। मैंने देखा कि यह तो कार्नाड हैं, जो न जाने कब आकर सबसे पीछे बैठ गए थे। लेकिन बुजुर्ग अनंतमूर्ति इतनी दूरी से उन्हें न पहचान सके। कार्नाड ने एक बहुत सधा हुआ सवाल किया (शुक्र है कि इसमें आक्रामकता नहीं थी), अनंतमूति मेरी ओर घूमे और गर्मजोश-आश्वस्ति के अंदाज में बोले - ‘गिरीश बैंडिडेयर!'(तो गिरीश भी आ गया)।.
अनंतमूर्ति की तुलना में कार्नाड प्राय: जुलूसों, नारेबाजी, नेताओं की सार्वजनिक निंदा-तारीफ या मांगपत्रों पर हस्ताक्षर करने से बचते हैं, लेकिन तमाम समकालीनों की अपेक्षा वह कहीं ज्यादा बहुजनवादी और सहिष्णु भारत के मुखर समर्थक हैं। अनंतमूर्ति की तरह उन्हें भी धार्मिक कट्टरता से नफरत है। जून 2017 में उत्तर भारत में अल्पसंख्यकों को मार देने की कुछ घटनाओं के बाद देश के तमाम हिस्सों की तरह बेंगलुरु में भी इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के छात्रों ने टाउन हॉल की सीढ़ियों पर ‘नॉट इन माई नेम' जैसा प्रतिरोध आयोजित किया। भारी भीड़ वाले इस इलाके में कम से कम आधा किलोमीटर पहले गाड़ी पार्क करके ही विरोध मार्च तक पहुंचा जा सकता था। .
मेरे लिए तो ऐसे विरोध प्रदर्शन में शामिल होना सामान्य बात थी। लेकिन कार्नाड का घर काफी दूर है। शाम के वक्त कम से कम डेढ़ घंटे की ड्राइव तो करनी ही पड़ेगी। वह अस्सी के करीब पहुंच चुके थे। अस्वस्थ भी थे और हर वक्त एक छोटा सिलेंडर साथ लेकर चलना पड़ता था, जिससे जुड़ी पाइप नाक के रास्ते फेफड़ों तक ऑक्सीजन पहुंचाती थी। .
कोई सोच भी नहीं सकता था कि गिरीश कार्नाड इन हालत में वहां आएंगे। मैंने भी नहीं सोचा था। हम लोग खामोशी से खड़े थे कि अचानक कोई मेरे बाईं ओर आकर खड़ा हो गया। यह गिरीश कार्नाड थे। कार से उतरने के बाद उन्हें कम से कम दस मिनट तो पैदल चलना ही पड़ा होगा। वह भी इस हालत में। वह आए, खड़े हो गए और बगल वाले सज्जन का प्लेकार्ड हाथ में ले लिया। उन्हें अपने बीच देख पहली पंक्ति में खड़े कुछ मुस्लिम खासे उत्साहित व आश्वस्त दिखे- ‘तो, गिरीश सर भी आ गए'। उनके लिए तो वहां मौजूद हर हिंदू, मुसलमान या ईसाई का महत्व था, लेकिन इस शख्स का वहां होना उनके लिए बहुत खास बन गया। .
इस वर्ष की शुरुआत में मैं गिरीश के गृहनगर धारवाड़ गया। उनके प्रकाशक मनोहर ग्रंथ माला ने एक साहित्य उत्सव का आयोजन किया था। उत्सव के एक दिन पहले कार्नाड मुझे सुभाष रोड के एक पुराने मकान की दूसरी मंजिल पर अपने प्रकाशक के दफ्तर ले गए। यही वह जगह थी, जहां 50 से भी ज्यादा साल पहले वह अपने पहले, लेकिन बाद में बहुचर्चित नाटक ययाति की पांडुलिपि देने आए थे। तब से अब तक कार्नाड के सारे नाटक और उनकी बायोग्राफी मनोहर ग्रंथमाला ने ही प्रकाशित किए हैं। .
गिरीश कार्नाड न अपनी राजनीति का प्रदर्शन करते हैं, न देशभक्ति का। फिर भी वह अपने अंदाज में न सिर्फ गृहनगर के लिए समर्पित हैं, बल्कि देश-दुनिया पर भी पैनी नजर रखते हैं। मुझे तो दूसरा कोई नहीं दिखता, जिसे उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक के कला माध्यमों, मसलन- संगीत, साहित्य, नृत्य, लोक और दृश्य कलाओं के साथ ही अपनी गहन क्लासिकी परंपरा की भी इतनी पैनी समझ हो। वह कम से कम छह भारतीय भाषाओं में लिख, पढ़ और बोल सकते हैं।.
अगर उन्होंने अब तक ऐसी कोई किताब नहीं लिखी, तो इसका कारण उनके लिए मौलिक और रचनात्मक लेखन का ज्यादा महत्वपूर्ण होना है। उन्होंने कन्नड़ में अपनी आत्मकथा लिखी और प्रकाशित कराई, लेकिन अंग्रेजी अनुवाद से मना कर दिया। शायद वह नहीं चाहते कि मेरे जैसे तमाम लोग इसे पढ़ें, या शायद यह कि उनके मन में अब भी तमाम मौलिक विषय गूंज रहे होंगे, जिन्हें वह पहले पढ़ाना चाहते हों। .
इसी 19 मई को वह अपना अस्सीवां जन्मदिन मनाएंगे। हम प्रार्थना कर सकते हैं कि गिरीश कार्नाड जैसे महान इंसान दिमाग और शरीर से इतने स्वस्थ रहें कि हमारे सामने वे सारे नाटक आ सकें, जिनकी विषय-वस्तु उनके दिमाग में घूम रही है, जिन्हें वह लिखना और हम सब देखना चाहते हैं।
साभार -
https://www.livehindustan.com/…/story-ramchandra-guha-artic…
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