-संगम पांडेय
रवि तनेजा की प्रस्तुति कोणार्क अकेला ऐसा नाटक है जिसे मैंने देखने के पहले ही पढ़ रखा था। कुछ लोग इसे व्यवस्थित ढंग से लिखा गया हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी मानते हैं। हालाँकि कई साल पहले इसके लेखक जगदीशचंद्र माथुर पर हुई एक गोष्ठी में यह बात सामने आई कि इसे खेला बहुत कम गया है। कुल दो-तीन मंचनों का होना ही पता चल पाया। इसकी एक वजह शायद इस नाटक का प्रथमदृष्टया भारीभरकम डिजाइन है। पीरियड नाटकों में पेश आने वाले कास्ट्यूम और सेट डिजाइन के जाहिर झंझटों के अलावा कथानक के तेवरों को समेट पाने के लिहाज से भी कोणार्क के पात्र उतने आसान नहीं हैं। मुझे कॉलेज के सिलेबस में इसे पढ़ने की दो ही बातें याद रहीं—एक तो इसका सम्मोहन, दूसरा यह कि इसमें रंग-निर्देश काफी मात्रा में हैं।
रवि तनेजा ने इसे दिल्ली के एक स्कूल के छात्रों के लिए मंचित किया था, जो कि बड़े मंच पर साधनों की प्रचुरता में खेली गई काफी भव्य प्रस्तुति थी। स्कूल की लड़कियों को उन्होंने कोणार्क-प्रांगण की मूर्तियों की तरह खड़ा किया था। बाद में उन्होंने इसे अपने ग्रुप ‘कॉलिजिएट ड्रामा सोसाइटी’ के लिए भी तैयार किया, जिसे पिछले बुधवार को मैंने तिबारा देखा। कोणार्क एक कलाकार के कमिटमेंट की कहानी है, जिसमें मेहनतकशों के दर्द को भी जोर-शोर से उठाया गया है। इसके अलावा बिछड़ने-मिलने और लॉकेट से अपने सगे को पहचान लेने का परवर्ती सिनेमाई फार्मूला इसमें बहुत पहले ही आजमा लिया गया था। रवि तनेजा कैसे इस संयोग, साजिश और जज्बातों से बनी थीम को मंच पर पूरी उत्तेजना में पेश करते हैं इसे देखकर ही जाना जा सकता है। कोणार्क मंदिर और मूर्तियों की छवियों को उन्होंने काफी बेहतर तरीके से माहौल बनाने में इस्तेमाल किया है।
रवि तनेजा चरणदास सिद्धू के नाटकों को, जिनमें भीषण हकीकतों को पूरी भीषणता के साथ पेश किया गया है, वर्षों से पूरी पाएदारी के साथ खेल रहे हैं। मैंने ‘भजनो’ और ‘बाबा बंतू’ जैसे कड़े यथार्थ वाले उनके निर्देशित कम से कम एक दर्जन नाटक अवश्य ही देखे होंगे। सिद्धू साहब के नाटकों में समाज का अँधेरा इतना घना है कि असह्य हो उठता है। लेकिन रवि तनेजा ने सिद्धू साहब के नाटकों की बार-बार सफल प्रस्तुतियाँ की हैं। उन्होंने उनके कटु-तिक्त पात्रों को एक क्लासिक ऊँचाई के साथ मंच पर बरता है। यह वे कैसे करते हैं यह एक अलग विषय है, पर काफी दिनों तक मुझे ऐसा लगता था कि शायद ये यथार्थवाद ही उनका अपना फ्लेवर है। इस धारणा को वे बीच-बीच में कुछ अन्य प्रस्तुतियों से तोड़ते रहे और आखिर ‘कोणार्क’ के जरिए पूरी तरह धराशायी कर दिया है।...
रवि तनेजा की प्रस्तुति कोणार्क अकेला ऐसा नाटक है जिसे मैंने देखने के पहले ही पढ़ रखा था। कुछ लोग इसे व्यवस्थित ढंग से लिखा गया हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी मानते हैं। हालाँकि कई साल पहले इसके लेखक जगदीशचंद्र माथुर पर हुई एक गोष्ठी में यह बात सामने आई कि इसे खेला बहुत कम गया है। कुल दो-तीन मंचनों का होना ही पता चल पाया। इसकी एक वजह शायद इस नाटक का प्रथमदृष्टया भारीभरकम डिजाइन है। पीरियड नाटकों में पेश आने वाले कास्ट्यूम और सेट डिजाइन के जाहिर झंझटों के अलावा कथानक के तेवरों को समेट पाने के लिहाज से भी कोणार्क के पात्र उतने आसान नहीं हैं। मुझे कॉलेज के सिलेबस में इसे पढ़ने की दो ही बातें याद रहीं—एक तो इसका सम्मोहन, दूसरा यह कि इसमें रंग-निर्देश काफी मात्रा में हैं।
रवि तनेजा ने इसे दिल्ली के एक स्कूल के छात्रों के लिए मंचित किया था, जो कि बड़े मंच पर साधनों की प्रचुरता में खेली गई काफी भव्य प्रस्तुति थी। स्कूल की लड़कियों को उन्होंने कोणार्क-प्रांगण की मूर्तियों की तरह खड़ा किया था। बाद में उन्होंने इसे अपने ग्रुप ‘कॉलिजिएट ड्रामा सोसाइटी’ के लिए भी तैयार किया, जिसे पिछले बुधवार को मैंने तिबारा देखा। कोणार्क एक कलाकार के कमिटमेंट की कहानी है, जिसमें मेहनतकशों के दर्द को भी जोर-शोर से उठाया गया है। इसके अलावा बिछड़ने-मिलने और लॉकेट से अपने सगे को पहचान लेने का परवर्ती सिनेमाई फार्मूला इसमें बहुत पहले ही आजमा लिया गया था। रवि तनेजा कैसे इस संयोग, साजिश और जज्बातों से बनी थीम को मंच पर पूरी उत्तेजना में पेश करते हैं इसे देखकर ही जाना जा सकता है। कोणार्क मंदिर और मूर्तियों की छवियों को उन्होंने काफी बेहतर तरीके से माहौल बनाने में इस्तेमाल किया है।
रवि तनेजा चरणदास सिद्धू के नाटकों को, जिनमें भीषण हकीकतों को पूरी भीषणता के साथ पेश किया गया है, वर्षों से पूरी पाएदारी के साथ खेल रहे हैं। मैंने ‘भजनो’ और ‘बाबा बंतू’ जैसे कड़े यथार्थ वाले उनके निर्देशित कम से कम एक दर्जन नाटक अवश्य ही देखे होंगे। सिद्धू साहब के नाटकों में समाज का अँधेरा इतना घना है कि असह्य हो उठता है। लेकिन रवि तनेजा ने सिद्धू साहब के नाटकों की बार-बार सफल प्रस्तुतियाँ की हैं। उन्होंने उनके कटु-तिक्त पात्रों को एक क्लासिक ऊँचाई के साथ मंच पर बरता है। यह वे कैसे करते हैं यह एक अलग विषय है, पर काफी दिनों तक मुझे ऐसा लगता था कि शायद ये यथार्थवाद ही उनका अपना फ्लेवर है। इस धारणा को वे बीच-बीच में कुछ अन्य प्रस्तुतियों से तोड़ते रहे और आखिर ‘कोणार्क’ के जरिए पूरी तरह धराशायी कर दिया है।...
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