देश के मौजूदा सामाजिक-सांस्कृतिक संकट के प्रति सांस्कृतिक हस्तक्षेप की भूमिका को निर्धारित करने के लिए देश के प्रमुख सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने जबलपुर में 22 व 23 अगस्त 2015 को दो दिवसीय विमर्श किया। बैठक में राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले सांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों एवं राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि को शामिल करते हुए साझा मोर्चा बनाने का निर्णय लिया गया। इस अवसर पर एक संयुक्त अपील जारी की गयी है जिसमें राकेश, महासचिव, इप्टा, प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच, अली जावेद, महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह महासचिव, जनवादी लेखक संघ, महेन्द्र नेह, महासचिव, विकल्प-अखिल भारतीय जनवादी सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चा के हस्ताक्षर हैं। अपील इस प्रकार है :
अपील
भारतीय जनतंत्र आज इतिहास के सबसे संकटपूर्ण दौर से गुजर रहा है। साम्प्रदायिक हिंसा व घृणा का सहारा लेकर कॉर्पाेरेट पूँजीवाद के सहमेल से जो ताक़तें आज देश में सत्तासीन हुई हैं, उन्होंने बहुत आक्रामक तरह से देश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान अर्जित लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों पर हमला किया है।
वे देश की जनता से इतिहास और सांस्कृतिक विरासत ही नहीं, जीने के संसाधन, जल-जंगल-जमीन ही नहीं, बल्कि जीने का हक़ भी छीन लेना चाहते हैं। उनकी कोशिश है कि अल्पसंख्यक इस देश में दूसरे दरज़े के नागरिक की हैसियत से रहें। महिलाएं घरों में और उनके बनाये दायरों में कैद रहें। आदिवासियों, दलित, वंचित लोग हाशिये पर ख़ामोशी से उनकी सेवा के लिए मौजूद रहें और अगर कोई विरोध हो तो उसे राष्ट्रवाद के नाम पर, आतंकवाद के नाम पर, परंपराओं के नाम पर या माओवाद के नाम पर कुचल दिया जाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार हमले तेज़ होते जा रहे हैं।
नौजवान बेरोजगारी से जूझ रहे हैं। अनेक अकाल आये, सूखे पड़े, बाढ़ आई लेकिन मानवता के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी देश में तीन लाख किसान आत्महत्या कर लें। नयी आर्थिक नीतियों की चपेट में आकर मरने वाले इन किसानों के प्रति जो बयान पूर्व और मौजूदा प्रधानमंत्रियों और कृषि मंत्रियों ने दिये हैं, उससे उनकी घोर असंवेदनशीलता ही जाहिर होती है।
गाँव में लोग खेती छोड़कर मज़दूर बन रहे हैं और शहरों में मज़दूरों को देने के लिए इस निजाम के पास सिवाय अपमान और लफ्फाज़ी के और कुछ नहीं है। दूसरी तरफ हम दुनिया के सबसे तेज़ी से बढ़ते करोड़पतियों, अरबपतियों का देश भी बन रहे हैं। स्मार्ट सिटी भी यही बनेंगे और बुलेट ट्रेन भी इसी देश में दौड़ेगी। जबकि देश की 70 फीसदी आबादी को दो वक़्त का खाना नहीं मिल रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार हमले तेज होते जा रहे हैं। हमारे सामूहिक सहविवेक हरण के साथ-साथ वे हमारे जनतांत्रिक संस्थानों पर एक-एक कर हमले बोल रहे हैं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, नालन्दा विश्वविद्यालय, भारतीय फिल्म सेंसर बोर्ड, नेशनल बुक ट्रस्ट समेत तमाम शैक्षणिक-सांस्कृतिक संस्थानों में पक्षपातपूर्ण नियुक्तियां इसके ताज़ा उदाहरण हैं।
एक तरफ वे हमारे इतिहास, संस्कृति और विरासत को विकृत कर रहे हैं और दूसरी तरफ़ वे छद्म संस्कृति का स्वांग कर लोगों को भरमाने का भी काम कर रहे हैं। विवेकानंद, महात्मा गाँधी, बी. आर. अम्बेडकर, चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सरदार पटेल जैसे अनेक जननायकों का वे अपनी सुविधा के अनुसार अधिग्रहण भी करते जा रहे हैं।
हम संस्कृतिकर्मी हस्तक्षेप की अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए इस सूरते-हाल को बदलने का संकल्प लेते हैं। हम परिर्वतनकामी ताकतों का आह्वान करते हुए जनता के पास आये हैं, जिसने इतिहास में ऐसी अनेक निरंकुश सत्तायें पलट दी हैं।
कार्यक्रम
अभियान की शुरूआत 6 दिसंबर 2015 को पूरे देश में होगी। 00 अभियान के तहत सांस्कृतिक यात्राएं, सभा-संगोष्ठी, नुक्कड़ नाटक, काव्यपाठ, फिल्म प्रदर्शन-आदि विविध आयोजन किये जायेंगे। 00 अभियान का दूसरा चरण गाँव केंद्रित होगा, जिसकी शुरूआत 14 अप्रैल 2016 को आंबेडकर जयंती के अवसर पर होगी। 00 अभियान में सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्ष-जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, नौजवान, विद्यार्थी, किसान-मजदूर संगठनों को तथा राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता और समाज विज्ञानियों को भी सहभागी बनाया जायेगा।
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