आज विज्ञान और तकनीक के साये में, बाजारू और प्रतिगामी युग में विलुप्त होते जन सरोकोरों से प्रतिबद्ध नाटककार का उदय अनिवार्य और अपरिहार्य है. “थियेटर ऑफ़ रेलेवंस” नाट्य सिद्धांत के अनुसार नाटय आलेख की वैचारिक प्रतिबद्धता का सूत्रधार नाटककार है इसलिए नाटककार का जनसरोकारों से लबरेज होना अनिवार्य और अपरिहार्य है .इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय जननाट्य संघ, कोल्हापुर और थियेटर ऑफ़ रेलेवंस की तरफ से नाट्य लेखन कार्यशाला का आयोजन १४ से १८ अगस्त २०१५ को कोल्हापुर में किया गया .
इस पांच दिवसीय नाट्य लेखन कार्यशाला को उत्प्रेरित किया विश्व विख्यात नाटककार और “थियेटर ऑफ़ रेलेवंस” नाट्य सिद्धांत के जनक मंजुल भारद्वाज ने . इस कार्यशाला में नाट्य लेखन के लिए मुलभूत विषयों को खोंगोला और तराशा गया मसलन सामजिक , राजनैतिक , आर्थिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया का विश्लेषण , नाट्य शिल्प , नाट्य लेखन शिल्प ,मंच शिल्प , कथा , दृश्य , संवाद और दर्शक की दृष्टी उसके सरोकारों पर विस्तृत वैचारिक और व्यवहारिक अभ्यास हुआ . मंजुल भारद्वाज ने सहभागियों को प्रोत्साहित करते हुए इस कार्यशाला में एक नया नाटक सहभागियों के साक्ष्य में लिखा .
कार्यशाला के समापन समारोह के अवसर पर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में मंजुल भारद्वाज ने कहा “नाटक समाजपरिवर्तन का एक सशक्त माध्यम है। अभी नाटकों की तरफ केवल मनोरंजन की दृष्टि से देखा जाता हैं। असलियत में वो समाज परिवर्तन का सशक्त माध्यम है। कोई भी कला और कलाकार वस्तु नहीं है बल्कि अभिव्यक्ति करने वाले जीवित इंसान हैं। नाटक के माध्यम से आदि काल से चल रही शोषण पद्धती पर प्रहार करके समाज परिवर्तन करना 'थियेटर ऑफ़ रेलेवंस' का प्रमुख उद्देश्य है”.
भारतीय जीवन शैली के शोषण पद्धती पर भारतीय जननाट्य संघ, थियेटर ऑफ़ रेलेवंस की तरफ से आयोजित नाट्य लेखन कार्यशाला में सहभागी कलाकार अश्विनी नांदेडकर, योगिनी चौक , अनघा देशपांडे ,कोमल खामकर. तुषार म्हस्के, प्रियंका राउत ,पंकज धूमाल और हृषिकेश ने कायर्शाला के अनुभवों के बारे में बताया की “एक कलाकार के तौर पर इस जन विरोधी और बाजारू माहौल में घुटन होती है। खुद का व्यक्तित्व खोकर काम करना पड़ता है। इस अवस्था से बाहर निकालकर एक सार्थक पहल करने के लिए ' थियेटर ऑफ़ रेलेवंस' योग्य मंच है। यहाँ कला के लिए कला नहीं ,कला की जन प्रतिबद्धता , कला का समाधान, व्यक्तित्व में बदलाव और समाज परिवर्तन का रंगकर्म करते हुए उन्मुक्त और अनूठा कलात्मक जीवन जीना सिखाते हैं कलाकार । इसलिए अनेक व्यवसायिक नाटककों को नकारते हुए इस रंगभूमि पर खुद का योगदान दे रहे हैं”.
- मेघा पानसरे
No comments:
Post a Comment