इप्टा रायगढ़ द्वारा दि. 14 और 15 अगस्त को दो दिवसीय लघु नाट्य समारोह का आयोजन किया गया। इन दो दिनों में तीन नाटकों का मंचन हुआ। दि. 14 अगस्त को पॉलिटेक्निक के प्राचार्य डॉ. राजेश श्रीवास्तव ने दीप प्रज्वलित कर इस लघु नाट्य समारोह का उद्घाटन किया।
दीप प्रज्वलित करने में रंगभूमि नाट्य संस्था के नाटक भटकते सिपाही के बाल कलाकार चैतन्य मोड़क और रायपुर की रंगश्रृंखला नाट्य संस्था के बाल कलाकार सायांश मानिकपुरी के नन्हें हाथों की भी भूमिका रही। सर्वप्रथम भटकते सिपाही नाटक का मंचन हुआ। एक आधुनिक काल का सिपाही और एक महाभारत काल का सिपाही हिमालय की सुनसान घाटियों में मिलते हैं और उनके बीच युद्ध और युद्ध की सार्थकता पर विमर्श होता है। श्री किशोर वैभव जैसे युवा लेखक-निर्देशक द्वारा प्रस्तुत यह नाटक युद्ध के प्रति चिंतन को एक नया आयाम देने की कोशिश प्रतीत हुआ। आधुनिक फौजी की भूमिका में थे शैलेश देवांगन तथा कौरव सैनिक की भूमिका निभाई थी लोकश्वर साहू ने। सूत्रधार ग्रीष्मा कुर्वे के साथ अबोध बालक की भूमिका में थे चैतन्य मोड़क। नेपथ्य सम्हाला था विक्रमदीप साहू ने तथा रंगभूशा, वेशभूषा और मार्गदर्शन था रंजन मोड़क का।
दूसरा नाटक था हीरा मानिकपुरी निर्देशित नाटक प्रजातंत्र का खेल। प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई की रचना पर आधारित नाटक ‘‘प्रजातंत्र का खेल’’ ने वर्तमान हास्यास्पद परिस्थितियों पर करारा व्यंग्य किया मुद्दे की वैधानिकता-अवैधानिकता पर ध्यान दिये बिना किसतरह अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश में किसी को बलि का बकरा बना दिया जाता है तथा इस खेल में प्रधानमंत्री, मंत्री से लेकर धार्मिक गुरु तक शामिल हो जाते हैं, इसपर तीखा व्यंग्य किया गया है। एक सामान्य व्यक्ति की सुंदर पत्नी सावित्री पर इकतरफा फिदा होकर प्रेम करने वाले बन्नू नामक नायक को मदद करने के बहाने सब अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकते हैं। नाटक आरम्भ से लेकर लगभग अंत तक हास्य-व्यंग्य के माध्यम से मंच को प्रवहमान रखता है परंतु नायक के अनशन को धार्मिक अंधविश्वासों का आधार मिलने पर अंततः सावित्री आत्महत्या करने पर मजबूर होती है। यहाँ दर्शक को झटका लगता है और वह हतप्रभ रह जाता है। इस नाटक में सावित्री की भूमिका में थी श्रीया पांडे, उसके बेटे की भूमिका में थे सायांष। बन्नू और उसके दोस्तों की भूमिका में थे
अभिषेक चैधरी, यश नारा, विवेक निर्मल, सुहास बंसोड़, आशीष सिंहानी, लेखेश्वर यादव, हुकुमचंद पटेल, रिशी यदु तथा सुकांत देशपांडे।
दूसरे दिन दि. 15 अगस्त को प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष एवं युवा कहानीकार श्री रमेश शर्मा द्वारा दीप-प्रज्वलन के बाद इप्टा रायगढ़ का शाहिद अनवर लिखित एवं अजय आठले द्वारा निर्देशित नाटक बी थ्री का मंचन हुआ। इस नाटक में इतिहास के एक प्राध्यापक द्वारा तानाशाही के बारे में पढ़ाते हुए विद्यार्थियों को इसके खतरनाक अंजामों से परिचित कराने के लिए एक प्रयोग किया जाता है। आरम्भ में विद्यार्थी इस बात को हँसी में उड़ा देते हैं कि जर्मनी में हिटलर हुआ था हमारे यहाँ नहीं हो सकता। परंतु मानव का रेजिमेंटेशन किसतरह होता है और उसे पता भी नहीं चलता, प्रोफेसर का प्रयोग इसे सिद्ध करता है। सारे विद्यार्थियों के बीच एक लड़की, जो इसका विरोध करती है, उसे उसी दल का एक छात्र मार डालता है। प्रोफेसर की पत्नी बार-बार अपने पति को इस प्रयोग के खतरे से आगाह करती है परंतु जब तक प्रोफेसर को अपनी गलती का अहसास होता है तब तक देर हो चुकी होती है। बहुत गंभीर परंतु आवश्यक विषय पर केन्द्रित यह नाटक दर्शकों से थोड़ी बौद्धिकता की मांग करता है। चुस्त निर्देशन और सधे अभिनय ने नाटक को बहुत सम्प्रेषणीय बना दिया था। प्रोफेसर की भूमिका में सुमित मित्तल और पत्नी की भूमिका में थी अपर्णा। विद्यार्थियों की भूमिका में मयंक श्रीवास्तव, भरत निशाद, प्रियंका बेरिया, आलोक बेरिया, स्वप्निल नामदेव, दीपक यादव, अमित दीक्षित और कुलदीप दास थे। डायरेक्टर थे सुरेन्द्र बरेठ, प्राचार्य - “याम देवकर, अमेरिकी - रीतांत शर्मा, इजराइली - अजेश शुक्ला, जापानी - अमितेष पांडे तथा सुधीर चपरासी की भूमिका में थे अनादि मेहर। विदेषी मेहमानों के बॉडी गार्ड थे - विवेकानंद प्रधान तथा लोकेश्वर निषाद। प्रकाश परिकल्पना एवं संचालन था अजय आठले का, संगीत संचालन था वासुदेव निशाद का तथा रंगसज्जा की थी संदीप स्वर्णकार ने। पूरे समारोह का सफल संचालन किया विनोद बोहिदार ने।
दीप प्रज्वलित करने में रंगभूमि नाट्य संस्था के नाटक भटकते सिपाही के बाल कलाकार चैतन्य मोड़क और रायपुर की रंगश्रृंखला नाट्य संस्था के बाल कलाकार सायांश मानिकपुरी के नन्हें हाथों की भी भूमिका रही। सर्वप्रथम भटकते सिपाही नाटक का मंचन हुआ। एक आधुनिक काल का सिपाही और एक महाभारत काल का सिपाही हिमालय की सुनसान घाटियों में मिलते हैं और उनके बीच युद्ध और युद्ध की सार्थकता पर विमर्श होता है। श्री किशोर वैभव जैसे युवा लेखक-निर्देशक द्वारा प्रस्तुत यह नाटक युद्ध के प्रति चिंतन को एक नया आयाम देने की कोशिश प्रतीत हुआ। आधुनिक फौजी की भूमिका में थे शैलेश देवांगन तथा कौरव सैनिक की भूमिका निभाई थी लोकश्वर साहू ने। सूत्रधार ग्रीष्मा कुर्वे के साथ अबोध बालक की भूमिका में थे चैतन्य मोड़क। नेपथ्य सम्हाला था विक्रमदीप साहू ने तथा रंगभूशा, वेशभूषा और मार्गदर्शन था रंजन मोड़क का।
दूसरा नाटक था हीरा मानिकपुरी निर्देशित नाटक प्रजातंत्र का खेल। प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई की रचना पर आधारित नाटक ‘‘प्रजातंत्र का खेल’’ ने वर्तमान हास्यास्पद परिस्थितियों पर करारा व्यंग्य किया मुद्दे की वैधानिकता-अवैधानिकता पर ध्यान दिये बिना किसतरह अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश में किसी को बलि का बकरा बना दिया जाता है तथा इस खेल में प्रधानमंत्री, मंत्री से लेकर धार्मिक गुरु तक शामिल हो जाते हैं, इसपर तीखा व्यंग्य किया गया है। एक सामान्य व्यक्ति की सुंदर पत्नी सावित्री पर इकतरफा फिदा होकर प्रेम करने वाले बन्नू नामक नायक को मदद करने के बहाने सब अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकते हैं। नाटक आरम्भ से लेकर लगभग अंत तक हास्य-व्यंग्य के माध्यम से मंच को प्रवहमान रखता है परंतु नायक के अनशन को धार्मिक अंधविश्वासों का आधार मिलने पर अंततः सावित्री आत्महत्या करने पर मजबूर होती है। यहाँ दर्शक को झटका लगता है और वह हतप्रभ रह जाता है। इस नाटक में सावित्री की भूमिका में थी श्रीया पांडे, उसके बेटे की भूमिका में थे सायांष। बन्नू और उसके दोस्तों की भूमिका में थे
अभिषेक चैधरी, यश नारा, विवेक निर्मल, सुहास बंसोड़, आशीष सिंहानी, लेखेश्वर यादव, हुकुमचंद पटेल, रिशी यदु तथा सुकांत देशपांडे।
दूसरे दिन दि. 15 अगस्त को प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष एवं युवा कहानीकार श्री रमेश शर्मा द्वारा दीप-प्रज्वलन के बाद इप्टा रायगढ़ का शाहिद अनवर लिखित एवं अजय आठले द्वारा निर्देशित नाटक बी थ्री का मंचन हुआ। इस नाटक में इतिहास के एक प्राध्यापक द्वारा तानाशाही के बारे में पढ़ाते हुए विद्यार्थियों को इसके खतरनाक अंजामों से परिचित कराने के लिए एक प्रयोग किया जाता है। आरम्भ में विद्यार्थी इस बात को हँसी में उड़ा देते हैं कि जर्मनी में हिटलर हुआ था हमारे यहाँ नहीं हो सकता। परंतु मानव का रेजिमेंटेशन किसतरह होता है और उसे पता भी नहीं चलता, प्रोफेसर का प्रयोग इसे सिद्ध करता है। सारे विद्यार्थियों के बीच एक लड़की, जो इसका विरोध करती है, उसे उसी दल का एक छात्र मार डालता है। प्रोफेसर की पत्नी बार-बार अपने पति को इस प्रयोग के खतरे से आगाह करती है परंतु जब तक प्रोफेसर को अपनी गलती का अहसास होता है तब तक देर हो चुकी होती है। बहुत गंभीर परंतु आवश्यक विषय पर केन्द्रित यह नाटक दर्शकों से थोड़ी बौद्धिकता की मांग करता है। चुस्त निर्देशन और सधे अभिनय ने नाटक को बहुत सम्प्रेषणीय बना दिया था। प्रोफेसर की भूमिका में सुमित मित्तल और पत्नी की भूमिका में थी अपर्णा। विद्यार्थियों की भूमिका में मयंक श्रीवास्तव, भरत निशाद, प्रियंका बेरिया, आलोक बेरिया, स्वप्निल नामदेव, दीपक यादव, अमित दीक्षित और कुलदीप दास थे। डायरेक्टर थे सुरेन्द्र बरेठ, प्राचार्य - “याम देवकर, अमेरिकी - रीतांत शर्मा, इजराइली - अजेश शुक्ला, जापानी - अमितेष पांडे तथा सुधीर चपरासी की भूमिका में थे अनादि मेहर। विदेषी मेहमानों के बॉडी गार्ड थे - विवेकानंद प्रधान तथा लोकेश्वर निषाद। प्रकाश परिकल्पना एवं संचालन था अजय आठले का, संगीत संचालन था वासुदेव निशाद का तथा रंगसज्जा की थी संदीप स्वर्णकार ने। पूरे समारोह का सफल संचालन किया विनोद बोहिदार ने।
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